भारत के लिए देवनागरी का महत्व
भारतीय भाषाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि भारत की प्राय: सभी प्रमुख भाषाओं की (उर्दू और सिंधी को छोड़कर) लिपियां ब्राह्मी लिपि से ही उद्भूत हैं। देवनागरी, ब्राह्मी लिपि की सबसे व्यापक, विकसित और वैज्ञानिक लिपि है, जो भारतीय भाषाओं की सहोदरा लिपि होने के नाते इन सबके बीच स्वाभाविक रूप से संपर्क लिपि का कार्य कर सकती है। यदि हम इन भाषाओं के साहित्य को उनकी अपनी-अपनी लिपियों के अलावा एक समान लिपि देवनागरी लिपि में भी उपलब्ध करा दें, तो इन भाषाओं का साहित्य अन्य भाषाभाषियों के लिए भी सुलभ हो सकेगा। नागरी लिपि इन भाषाओं के बीच सेतु का कार्य कर सकेगी।
इसी लिए आधुनिक युग के हमारे अग्रणी नेताओं, प्रबुद्ध विचारको और मनीषियों ने राष्ट्रीय एकता के लिए देवनागरी के प्रयोग पर बल दिया था। निश्चय ही ये सभी विचारक हिंदी क्षेत्रों के नहीं थे, अपितु इतर हिंदी प्रदेशों के ही थे। उनका मानना था कि भावात्मक एकता की दृष्टि से भारतीय भाषाओं के लिए एक लिपि का होना आवश्यक है और यह लिपि केवल देवनागरी ही हो सकती हैं। श्री केशववामन पेठे, राजा राममोहन राय, शारदाचरण मित्र (1848-1916) ने नागरी लिपि के महत्व को समझते हुए देश भर में इसके प्रयोग को बढ़ाने की आवाज उठायी थी।
शारदाचरण मित्र ने इसे "राष्ट्र लिपि" बताया और अगस्त 1905 में एक "लिपि विस्तार परिषद" की स्थापना की। उन्होने 1907 में "देवनागर" नाम से एक पत्रिका भी निकाली, जिसमें कन्नड़, तेलुगु, बांग्ला आदि की रचनाएं नागरी लिपि में प्रकाशित की जाती थीं। लोकमान्य तिलक और गांधीजी ने देश की एकता के लिए एक लिपि की आवश्यकता पर बल दिया। गुजरात में जन्मे महर्षि दयानंद सरस्वती, दक्षिण के कृष्णस्वामी अय्यर तथा अनन्तशयनम् अयंगर और मुहम्मद करीम छागला ने भी नागरी लिपि के महत्व पर बल दिया। महात्मा गांधी चाहते थे कि भारत में भाषायी एकता के लिए एक समान लिपि की आवश्यकता है। एक स्थान पर उन्होने लिखा है "लिपि विभिन्नता के कारण प्रांतीय भाषाओं का ज्ञान आज असंभव सा हो गया है। बांग्ला लिपि में लिखी हुई गुरुदेव की गीतांजलि को सिवाय बंगालियों के और कौन पढ़ेगा पर यदि वह देवनागरी में लिखी जाये, तो उसे सभी लोग पढ़ सकते हैं। "आज दक्ख़िनी हिंदी की भी यही स्थिति है, जिसका लगभग 400 वर्षों का अपार साहित्य फारसी लिपि में होने के कारण हिंदी शोधार्थियों की दृष्टि से ओझल है। कहना न होगा कि लिपिभेद के कारण हिंदी साहित्य के इतिहास की इस कड़ी को हम अभी तक जोड़ नहीं पाये हैं।
उर्दू और हिंदी भी लिपि भेद के कारण मूलरूप से एक होते हुए भी अलग अलग भाषाएं बनी हुई हैं। यदि उर्दू भाषा की वैकल्पिक लिपि के रूप में नागरी को अपना लें, तो उर्दू को लोकप्रिय बनाने में बड़ी सहायता मिलेगी। महाराष्ट्र के भूतपूर्व राज्यपाल स्वर्गीय श्री अलीयावर जंग ने कहा था, "मेरा मत है कि उर्दू साहित्यकार को अपनी लिपि चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, लेकिन देवनागरी लिपि को देश में जोड़लिपि के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए।"
आचार्य विनोबा भावे ने नागरी लिपि के महत्व को स्वीकार करते हुए यहां तक कहा था "हिंदुस्तान की एकता के लिए हिंदी भाषा जितना काम देगी, उससे बहुत अधिक काम देवनागरी देगी। इसलिए मैं चाहता हूं कि सभी भाषाएं सिर्फ देवनागरी में भी लिखी जाएं। "सभी लिपियां चलें लेकिन साथ साथ देवनागरी का भी प्रयोग किया जाये। विनोबा जी "नागरी ही" नहीं "नागरी भी" चाहते थे। उन्हीं की सद्प्रेरणा से 1975 में नागरी लिपि परिषद की स्थापना हुई। जो भारत की एकतात्रा ऐसी संस्था है, जो नागरी लिपि के प्रचार प्रसार में लगी है। 1961 में पं जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में सम्पन्न मुख्य मंत्रियों के सम्मेलन में भी यह सिफारश की गयी कि, "भारत की सभी भाषाओं के लिए एक लिपि अपनाना वांछनीय हैं। इतना ही नहीं, यह सब भाषाओं को जोड़ने वाली एक मजबूत कड़ी का काम करेगी और देश के एकीकरण में सहायक होगी। भारत की भाषायी स्थिति में यह जगह केवल देवनागरी ले सकती है। "16-17 जनवरी 1960 को बेंगलोर में आयोजित 'ऑल इण्डिया देवनागरी कांग्रेस' में श्री अनंतशयनम् आयंगर ने भारतीय भाषाओं के लिए देवनागरी को अपनाये जाने का समर्थन किया था। नि:संदेह देवनागरी लिपि में वे गुण हैं, वह सभी भारतीय भाषाओं को जोड़ सकती है। यह संसार की सबसे अधिक वैज्ञानिक और ध्वन्यात्मक लिपि जो है।
राष्ट्रलिपि
[सम्पादन]लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने जिस प्रकार 'स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' - की घोषणा करके राष्ट्र को स्वतंत्रता का मंत्र दिया, उसी प्रकार उन्होंने राष्ट्र लिपि के रूप में नागरी तथा राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की घोषणा काशी नागरी प्रचारिणी सभा में सन 1905 में की थी।
तिलकजी ने यह ऐतिहासिक घोषणा भारतीय कांग्रेस के सन् 1905 के बनारस अधिवेशन के अवसर पर की थी। इस घोषणा के महत्व को समझकर देश के नेताओं ने संविधान सभा में हिंदी को राजभाषा के स्थान पर राष्ट्रभाषा और नागरी लिपि को राष्ट्र लिपि स्वीकार किया होता तो वह आज देश की एकता और अखंडता का सक्षम माध्यम होती।
लोकमान्य तिलकजी ने प्राचीन ताम्रपत्र एवम् ग्रंथों में हस्तलिखित नागरी लिपि के प्रयोग का उल्लेख करते हुए भाषा शास्त्र की दृष्टि से उसका प्रतिपादन किया था और उन्होंने कहा था कि ‘भारत में मापतौल की एक ही पद्धति चलती है। उसी प्रकार हिन्दुस्तान में सर्वत्र एक ही लिपि का प्रचार होना चाहिए।‘
1910 में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री वी कृष्ण स्वामी अय्यर ने विभिन्न लिपियों के व्यवहार से बढ़ने वाली अनेकता और भारतीय भाषाओं के बीच पनपती दूरी पर चिंता व्यक्त करते हुए सहलिपि के रूप में देवनागरी का समर्थन किया। श्री रामानन्द चटर्जी ने ‘चतुर्भाषी नामक पत्र निकाला जिसमें बंगला, मराठी, गुजराती और हिंदी की रचनाएं देवनागरी लिपि में छपती थीं। राजा राममोहनराय और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ही नहीं, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय भी देवनागरी लिपि के प्रबल समर्थक थे। विद्यासागर जी चाहते थे कि भारतीय भाषाओं के लिए नागरी लिपि का व्यवहार अतिरिक्त लिपि के रूप में किया जाए, जबकि बंकिम बाबू का मत था कि भारत में केवल देवनागरी लिपि का व्यवहार किया जाना चाहिए।
बहादुरशाह जफर के भतीजे वेदार बख्त ने ‘पयाम-ए-आजादी‘ पत्र साथ-साथ देवनागरी और फारसी लिपि में प्रकाशित किया। महर्षि दयानंद ने अपना सारा वाड्मय देवनागरी में लिखा। उनके प्रभाव से देवनागरी का व्यापक प्रचार हुआ। मेरठ में गौरीदत्त शर्मा ने 1870 के लगभग ‘नागरीसभा‘ का गठन किया और स्वामीजी की प्रेरणा से अनेक लोग नागरी के प्रसार में जी जान से जुट गये। आज मेरठ में देवनागरी कालेज उन्हीं की कृपा से सुफल है। श्री भूदेव मुखोपाध्याय ने बिहार की अदालतों में देवनागरी का प्रयोग आरंभ कराया जिसकी प्रशंसा संस्कृत के उपन्यासकार अंबिकादत्त व्यास ने अपने गीतों में की है। भारतेंदु हरिशचन्द्र, कालाकांकर नरेश, राजा रामपाल सिंह, अलीगढ़ के बाबू तोता राम, बाबू श्यामसुंदर दास, बाबू राधाकृष्ण दास और पं॰ मदनमोहन मालवीय के सत्प्रयत्न रंग लाये और उत्तर प्रदेश के न्यायालयों में देवनागरी के वैकल्पिक प्रयोग का रास्ता साफ हुआ।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से सामान्य लिपि के रूप में देवनागरी अपनाने के कट्टर हिमायती थे। पं0 जवाहर लाल नेहरू सभी भारतीय भाषाओं को जोड़ने वाली मजबूत कड़ी के रूप में देवनागरी लिपि को अपनाने के समर्थक थे। डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद चाहते थे कि भारत की प्रादेशिक भाषाओं का साहित्य देवनागरी के माध्यम से हर भारतीय को आस्वादन के लिए उपलब्ध होना चाहिए। स्वातंत्रवीर सावरकर नागरी को ‘राष्ट्रलिपि‘ के रूप में मान्यता देने के पक्ष में थे। लाला लाजपतराय राष्ट्रव्यापी मेल और राजनैतिक एकता के लिए सारे भारत में देवनागरी का प्रचार, आवश्यकता मानते थे। 1924 में शहीद भगत सिंह ने लिखा था- ‘हमारे सामने इस समय मुख्य प्रश्न भारत का एक राष्ट्र बनाने के लिए एक भाषा होना आवश्यक है, परन्तु यह एकदम नहीं हो सकता। उसके लिए कदम-कदम चलना पड़ता है। यदि हम सभी भारत की एक भाषा नहीं बना सकते तो कम से कम लिपि तो एक बना देनी चाहिए।‘ रेवरेण्ड जॉन डिनी लिखते हैं- ‘चूंकि लाखों भाषाभाषी पहले से ही नागरी लिपि जानते हैं, इसलिए मैं महसूस करता हूं कि बिल्कुल नहीं लिपि के प्रचलन की अपेक्षा किंचित संवर्द्धित नागरी लिपि को ही अपनाना अधिक वास्तविक होगा।‘
सत्रह मार्च 1967 को सेठ गोविंददास जी ने एक बहुत बड़े समुदाय के सामने प्रस्ताव रखा कि सारी प्रादेशिक भाषाएं देवनागरी लिपि में ही लिखी जाएं। इस देश की एकता को बनाए रखने के लिए और एक-दूसरे के साथ सम्पर्क बढ़ाने के लिए और इस देश की हर भाषा के साहित्य को समझना है तो हमें एक लिपि की आवश्यकता है। वह लिपि देवनागरी लिपि ही हो सकती है।
सहलिपि के रूप में देवनागरी राष्ट्रलिपि का रूप ग्रहण कर सकती है। इससे श्रम, समय और धन की बचत तो होगी ही राष्ट्रीय भावना और पारस्परिक आत्मीयता की अभिवृद्धि भी होगी। इससे पृथक्तावाद के विषाणुओं का विनाश होगा और अखण्डता की भावना सबल होगी। भारतीय साहित्य के वास्तविक स्वरूप पर परिचय मिलेगा तथा सारी भाषाएं एक-दूसरे के निकट आकर स्नेह-सूत्र में गुम्फित हो जाएंगी। उनके बीच की विभेद की दीवार ढह जाएगी और आसेतु हिमालय सामाजिक समरता परिपुष्ट होगी। यही नहीं, सारी भारतीय भाषाओं को अखिल भारतीय बाजार मिलेगा, उनकी खपत बढ़ेगी और शोध को अखिल भारतीय स्तर प्राप्त होगा। न केवल शब्द-भंडार का साम्य, बल्कि भाव और प्रवृत्तियों का साम्य भी परिलक्षित होगा और एक भाषा बोलने वाला दूसरी भाषा और इसके साहित्य के सौष्ठव तथा वैशिष्ट्य का भरपूर आस्वादन कर सकेगा। इसीलिए खुशवंत सिंह ने उर्दू साहित्य को देवनागरी में लिखने का समर्थन किया है। देवनागरी में गालिब, मीर, नजीर आदि की पुस्तकें लगभग 1 करोड़ रुपये की बिक चुकी हैं।
आज जनजातियों की बेहद उपेक्षा हुई। उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग-थलग कर विदेशी मिशनरियों के आसरे छोड़ दिया गया। उन्हें भारतीय होने का गौरव मध्य क्षेत्र में संथाल, मुण्डा, चकमा आदि तथा दक्षिण क्षेत्र में मिला जहां चेंचू, कांटा, कुरुम्ब जनजातियां रहती हैं। अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में ओगो, शोम्पेन आदि जनजातियां पाई जाती हैं। लिपि विहीन जन जातीय बोलियों के लिए देवनागरी सबसे उपयुक्त है। बोडो और जेभी भाषा के लिए नागरी लिपि का प्रयोग होता है। अरुणाचल में भी देवनागरी का व्यवहार जनजातीय बोलियों के लिए किया जा रहा है। जहां पर भी संस्कृत, प्राकृत, पाली और अपभ्रंश का अनुशीलन होता रहा है, वहां देवनागरी लिपि सुपरिचित है। मराठी, नेपाली के बोलने वाले इस लिपि का पहले से ही व्यवहार करते हैं। दक्षिण भारत हो या भारत का कोई भी हिंदीतर क्षेत्र-देववाणी के कारण नागरी अक्षर सर्वत्र प्रचलित है।