भाषा साहित्य और संस्कृति/जूठन
ओमप्रकाश बाल्मीकी
8 जुलाई 197० की शाम थी । मैं अपने थोड़े-से सामान के साथ आर्डिनेंस फैक्टरी ट्रेनिंग संस्थान अंबरनाथ के छात्रावास में पहुँचा था । कल्याण रेलवे स्टेशन पर संस्थान की गाड़ी खड़ी थी । जबलपुर से और भी कई लोग आए थे । छात्रावास अंबरनाथ की पहाड़ी की तलहटी में एक खूबसूरत स्थान पर था । आर्डिनेंस फैक्टरियों में इस संस्थान और इसके छात्रावास की एक विशिष्ट महत्ता थी । यहाँ प्रशिक्षित तकनीशियन ड़ाक्समैन भारत के श्रेष्ठ तकनीशियनों और ड़ाक्समैन में गिने जाते थे । छात्रावास में शाम बेहद जीवंत होती थी । जिमनास्टिक इंडोर गेम्स आदि की सुविधाओं के साथ स्वीमिंग पूल एवं पुस्तकालय वाचनालय भी थे । छात्रावास का पुस्तकालय देखकर मैं रोमांचित हो उठा था । इसी पुस्तकालय में मैंने पास्तरनाक हेमिंग्वे. विक्टर सूगो पियरे लूई टॉलस्टाय पर्ल एस बक तुर्गनेव दॉस्तोएवस्की स्टीवेंसन ऑस्कर वाइल्ड रोम्यांरोला एमिल जोला को पड़ा था । यहीं रहते हुए रवींद्रनाथ टैगोर कालिदास का संपूर्ण वाइन्मय पड़ा । छात्रावास के एक-एक कमरे में दस-दस छात्र थे । मेरे साथ थे सुदामा पाटिल (मराठी. भुसावल) वी. के. उपाध्याय (कानपुर) पीसी. मृधा (बंगाली) केसी. राय (बंगाली). दिलीप कुमार मित्रा (बंगाली) बीके. जॉन (कटनी मप्र. गौर मोहन दास (बंगाली कलकत्ता) और गुलाटी (सिक्ख) । सुदामा पाटिल से जल्दी ही घनिष्ठता बन गई थी । उसे भी साहित्य में रुचि थी । नाटकों के प्रति उसमें गहरा लगाव था ।
प्रत्येक शनिवार रविवार को हम दोनों बंबई नाटक देखने पहुँच जाते थे । कभी-कभी सप्ताह के बीच में कोई अच्छा प्रदर्शन हुआ तो हॉस्टल से चोरी-छिपे जाना पड़ता था । दस बजे रात में छात्रावास के गेट पर ताला लग जाता था । दिवार छलांगकर आने में पकड़े जाने का डर रहता था । कई बार नाले के रास्ते हम लोग छात्रावास में पहुँच जाते थे । एक रोज गेट के ताले की चाबी मेरे हाथ लग गई थी । उसी रोज मैंने फैक्टरी में जाकर एक चाबी बना ली थी । चाबी बनते ही हमारी समस्याओं का समाधान हो गया था । द्र लेकिन एक रोज हम दोनों फँस ही गए थे । रात बारह बजे तक दरबान पुस्तकालय के बरामदे में सो जाता था । हम चुपके-चुपके बंद ताला खोलकर अंदर आ जाते थे । अंदर आकर फिर से ताला बंद कर देते थे । उस रोज दरबान जाग रहा था । हमें ताला खोलते देखकर वह चिल्लाया । ताला खुल चुका था । हम अंदर आ गए । उसने वॉर्डन से शिकायत करने की धमकी दी । मैंने उससे पूछा क्या शिकायत करोगे? तुम लोग ताला खोलकर बाहर से अंदर आए हो । दरबान ब्रने कहा ।क्स,इप्त मैंने उसे डांटते हुए कहा हम बाहर नहीं अंदर ही थे । तुम ताला लगाना ही भूल गए हो । इसे बंद करो । काफी गर्मागर्मी हो गई थी । तरल। सुनकर वार्डन उपाध्याय भी वहाँ आ गए थे । मुझे देखते ही बोले महर्षि तुम यहाँ क्या कर रहे हो? (वे मुझे इसी नाम से बुलाते थे ।) मैंने पूरे आत्मविश्वास से कहा वार्डन साहब ये दरबान ताला बंद करना भूल गया है । देखो ताला खुला हुआ है अभी तक । वही इसे समझाने की कोशिश कर रहा था । लेकिन यह मानता ही नहीं है । उस रोज किसी तरह मामला रफा-दफा हो गया था । लेकिन वार्डन को हम दोनों पर शक था । हमने भी कुछ समय के लिए अपनी गतिविधियां स्थगित कर दी थीं । अंबरनाथ के गांधी आश्रम में श्रीराम लागू के अभिनीत नाटक का मंचन था । नाटक के टिकट बहुत ही मुश्किल से मिले थे । ' नट सम्राट ' की भूमिका में श्रीराम लागू ने धूम मचा रखी थी । मैस से खाना खाकर हम लोग चुपचाप बाहर निकल आए थे । साढ़े नौ बजे से नाटक था । उस समय सवा नौ बज चुके थे । पाटिल और मैं जल्दी-जल्दी स्टेशन जानेवाली सड़क से जा रहे थे । अचानक सामने से उपाध्याय जी आते दिखाई पड़े । उन्होंने भी हमें देख लिया था । महर्षि इस वक्त कहाँ चले? उन्होंने डांटते हुए पूछा । हम दोनों एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे । अचानक पाटिल बोल पड़ा सर सिर में दर्द था । स्टेशन तक जा रहे हैं चाय कॉफी पीकर अभी लौट आएंगे । क्यों मैस में चाय-कॉफी नहीं मिलती? मिलती तो है सर लेकिन आज दूध नहीं बचा । इसीलिए स्टेशन तक जा रहे हैं । ' पाटिल ने बहाना मारने की कोशिश की । उपाध्यायजी ने कहा आओ मेरे साथ मै कॉफी पिलाऊंगा । वे हमें रोककर अपने क्वार्टर पर ले आए। नाटक के टिकट हमारी जेब में कुनमुना रहे थे । समझ में नहीं आ रहा था इनसे पीछा कैसे छुड़ाएं। हमें ड़ाइग रूम में बैठाकर उन्होंने अपनी पत्नी से चाय बनाने को कहा और सामने सोफे पर बैठ गए । मैंने पाटिल की ओर कनखियों से देखा । वह अंदर-हीं-अंदर मुस्करा रहा था । श्रीमती उपाध्याय जैसे ही चाय बनाने के लिए रसोई में घुसीं मैंने उठते ही कहा अम्मा जी वार्डन साहब बेकार में आपको तकलीफ दे रहे हैं। लाइए चाय मैं बनाता हूँ। वे मुझे देखते ही खुश हो गई महर्षि! तुम आए हो बैठो-बैठो... मैं बनाती हूँ चाय । मैंने उनके पास जाकर धीरे से कहा अम्मा जी आज हम दोनों गांधी स्कूल में नाटक देखने जा रहे थे । वार्डन साहब घेरकर यहाँ ले आए । ये देखो टिकट । लेकिन उन्हें पता नहीं है । अम्मा जी ऊपर से नीचे मुझे घूरते हुए बोली अच्छा नाटक है? मैंने कहा अम्मा बहुत अच्छा है । तो जाते क्यों नहीं? वे हँसते हुए बोलीं । कैसे जाएं वार्डन साहब इजाजत नहीं देंगे । मैंने रुआसा होकर कहा । वे उठकर ड़ाईग रूम में आ गईं । अरे कैसे वार्डन हो! बच्चों को घूमने-फिरने भी नहीं देते... जाओ महर्षि... लेकिन जल्दी ही लौट आना । उपाध्यायजी कुछ बोल नहीं पाए थे । हम दोनों ने जो दौड़ लगाई सीधे गांधी स्कूल में आकर ही दम लिया । नाटक शुरू हो चुका था । रात एक बजे शो छूटा था । हॉस्टल का ताला खुला छोड्कर दरबान सोया हुआ था । सुदामा ने ताला बंद करते हुए कहा जय अम्मा जी! उन दिनों हमनें विजय तेंदुलकर के मराठी नाटक ' सखाराम बाइंडर ' ' गिधाड़े ' ' खामोश अदालत जारी है ' देखे थे । बंबई में थिएटर यूनिट के ' हयवदन ' ' आषाढ़ का एक दिन ' आदि में अमरीश पुरी अमोल पालेकर सुनीला प्रधान सुलभा देशपांडे के अभिनय ने इन नाटकों को सजीव बना दिया था । छात्रावास में भी हमने एक नाट्य-दल गठित कर लिया था । नाटकों का पूर्वाभ्यास शुरू कर दिया था । अंबरनाथ में कई जगह हमने मंचन भी किए थे । इसी बीच पूना में गंवई-बंधु कांड हो गया था । पूना के पास एक गांव में सवर्णों ने गंवई बंधुओं की आँखें फोड़ दी थीं । इस घटना से बंबई-पूना में तनाव बढ़ गया था । दलित-पैंथर की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी थी । इस घटना को पार्श्व में रखकर मैंने दलित समस्याओं पर एक लेख नवभारत टाइन बंबई) को भेजा था जो उसी बीच छप गया
इंइNथा । इस लेख पर जबरदस्त प्रतिक्रियाएं हुई थीं । शिव सेना के समर्थक सरकारी कर्मचारियों ने मेरे इस लेख की शिकायत संस्थान के प्रिंसिपल श्री देसाई से की थी । प्रिंसिपल ने मुझे अपने कार्यालय में बुलाकर नवभारत टाइम्स की वह प्रति मेरे सामने रख दी थी यह तुमने लिखा है
जी । उन्होंने दुबारा पूछा ठीक से देखकर बताओ यह लेख तुम्हारा है? जी मेरा ही है मैंने स्वीकार किया । तुम सरकारी संस्थान में हो इसके आधार पर तुम्हारे विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही हो सकती है । मैं चुप रहा । थोड़ी देर बाद वे बोले ट्रेनिंग के दौरान ये सब मत करो.... निकाल दिए जाओगे त्..जाओ... आगे से ध्यान रखना । उन्होंने मौखिक चेतावनी देकर मुझे छोड़ दिया था । लेकिन इस लेख के कारण छात्रावास में कुछ साथियों का व्यवहार बदल गया था । वे मेरी ' जाति ' ढूंढने लगे थे क्योंकि मैंने दलितों के प्रति अपनी संवेदना दिखाई थी जो उनकी दृष्टि में मेरा अपराध था । इसी बीच सुदामा पाटिल ने आचार्य अन्ने के एक नाटक ' मारुची मावशी ' का हिंदी अनुवाद कर डाला था । उसमें मुख्य भूमिका मेरी ही थी । नाटक के प्रथम मंचन के बाद अंबरनाथ के लोग मुझे एक रंगकर्मी के तौर पर पहचानने लगे थे । ओमप्रकाश वाल्मीकि के बजाय वे उस पात्र के नाम से मुझे पुकारते थे । मैं अपने भीतर उत्साह महसूस करने लगा था । इसी दौरान अंबरनाथ के मराठी रंगकर्मी कुलकर्णी से परिचय हुआ था जो आगे चलकर घनिष्ठता में बदल गया था । कई चर्चित निर्देशकों के साथ काम करने का अवसर भी मिला था । जहाँ एक ओर मैं अपने लिए रास्तों की तलाश में भटक रहा था वहीं बार-बार पिताजी के पत्र आ रहे थे । वे मेरी शादी करने के लिए चिंतित थे । मुझे प्रशिक्षण के दौरान जो भत्ता मिल रहा था उसमें से मैस का खर्च निकालकर हर महीने निश्चित राशि पिताजी को भेज देता था । हाथ में जो बचते थे बस उनसे ही खर्च चल रहा था । नाटक के टिकट में हमें छूट मिल जाती थी । विद्यार्थी होने का लाभ हम उठाते थे रेल में बिना टिकट यात्रा करने के हथकंडे हमने सीख लिए थे । दादर वीटी. चर्चगेट के टिकट चेकर्स को चकमा देने के कई फार्मूले हमने ईजाद कर रखे थे । कम-से-कम खर्च में हम बंबई भ्रमण कर लेते थे । इन्हीं दिनों मेरा परिचय मराठी के दलित साहित्य से हुआ था । दलित साहित्य की रचनाएं मराठी-साहित्य को एक नई पहचान दे रही थीं । दया पंवार नामदेव ढसाल राजाढाले गंगाधर पानतावणे बाबूराव बागुल केशव मेश्राम नारायण सुर्वे रामन निंबालकर यशवंत मनोहर के शब्द रगों में चिंगारी भर रहे थे । ऐसी अभिव्यक्ति जो रोमांचित कर एक नई ऊर्जा से भर रही थी ।
मैं जैसे-जैसे दलित साहित्य के संपर्क में आ रहा था मेरे लिए साहित्य के अर्थ बदल रहे थे । सुदामा पाटिल ने इन दिनों मेरी बहुत मदद की थी । मेरा मराठी का ज्ञान धीरे- धीरे विकसित हो रहा था । जबलपुर से गोविंद मौर्य भी इस संस्थान में अगले बैच में आ गया था । अब हम दो से तीन हो गए थे । हम तीनों ने मिलकर बंबई की वे तमाम दुकानें छान डाली थीं जहाँ हिंदी पुस्तकें मिलती हैं । गिरगांव में हिंदी ग्रंथ रत्नाकार के मालिक से मित्रता हो गइ थी । महीने में कम-से-कम एक बार हम हिंदी ग्रंथ रत्नाकर अवश्य जाते थे । हमारी मंडली में विजय शंकर नरेंद्र गोगिया अमित अग्रवाल राजेश वाजपेयी भी जुड़ गए थे । प्रशिक्षण की तकनीकी पढ़ाई के साथ साहित्यिक अभिरुचि का यह संसार हमारे भीतर लगातार एक नई चेतना भर रहा था । छात्रावास के मस्ती भरे दिनों में भी हम जीवन की कटु और दुर्दम्य सच्चाइयों को महसूस कर रहे थे । हम गंभीर समस्याओं पर लंबी-लंबी बहसों में घंटों बिता देते थे । उन तमाम कार्यक्रमों में हम शामिल थे जो सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया तेज करे । कई बार विजयशंकर कहता था यार तुम लोग कभी जवान भी हुए हो या नहीं...? हॉस्टल में जवानी का अर्थ ही कुछ और था जिसमें हम फिट नहीं होते थे क्योंकि साहित्य जैसी फालतू चीजों ने हमारे मस्तिष्क झुलसा दिए थे । आर्डिनेंस फैक्टरी प्रशिक्षण संस्थान अंबरनाथ (बंबई) हॉस्टल संस्थान से ज्यादा दूर नहीं था । पहाड़ी की तलहटी में हॉस्टल बना था । खूबसूरत जगह थी । मेरा रूम पार्टनर सुदामा पाटिल भुसावल का रहनेवाला था । पाटिल का एक मित्र रमेश था जो भुसावल का ही रहनेवाला था । उसी ने हमारा परिचय कुलकर्णी से कराया था । विनायक सदाशिव कुलकर्णी कॉलोनी के फ्लैट में रहता था । अंबरनाथ में होने वाली सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र था कुलकर्णी । एक-दो मुलाकातों के बाद ही हमारे बीच आत्मीयता बन गई थी । अक्सर शाम को उनके फ्लैट में पहुँच जाते थे । कुलकर्णी मीट-मछली खाने का शौकीन था । घर की रसोई में संभव नहीं था । इसलिए रविवार की दोपहर मैस में बना मीट उन्हें खींच लाता था । बातचीत में आत्मीय थे । उम्र में हम दोनों से काफी बड़े थे । उनकी छोटी बेटी सविता मेरी हमउम्र थी । कॉलेज में पड़ती थी । हर रविवार कुलकर्णी के मैस में खाना खाने से सुदामा पाटिल और मेरे मैस बिल बढ़ने लगे थे। प्रशिक्षण के दौरान मिलनेवाले भत्ते से मुझे गांव पिताजी को पैसा भेजना पड़ता था । पाटिल की स्थिति भी वैसी ही थी । मुझसे बेहतर जरूर थी । लेकिन दो छोटे भाई कॉलेज में पढ़ रहे थे उनका खर्चा भेजना पड़ता था । हम दोनों काफी मितव्ययता से चलते थे फिर भी हाथ तंग रहता था । मेरे पास कपडों की भी तंगी थी । बस किसी तरह खिंच रहा था।
ऐसे में कुलकर्णी का हर इतवार मैस में लंच लेना खर्चा बढ़ानेवाला था । एक दिन सुदामा पाटिल ने दुखी मन से कहा था ये बामन हर रविवार टपक पड़ता है । हमारी शामें कुलकर्णी के घर गुजरती थीं लेकिन खाना लौटकर मैस में ही खाते थे। सुदामा पाटिल को उपवास पूजा आदि में विश्वास था । नियमित मंदिर जाता था । अंबरनाथ में एक खूबसूरत प्राचीन शिवमंदिर है । पाटिल सप्ताह में दो दिन इस मंदिर में जाता था । मुझे इन सबमें कोई रुचि नहीं थी । अंबेडकर और मार्क्सवादी साहित्य ने मेरी सोच बदल दी थी । लेकिन पाटिल के साथ मैं मंदिर तक जाता था और पुलिया पर बैठ जाता था । शांत जगह पर मंदिर परिसर मोहक लगता था । अक्सर मिसेज कुलकर्णी सविता के साथ मंदिर जाती थीं । कई बार मंदिर परिसर में हम लोग साथ होते थे । एक रोज मुझे पुलिया पर बैठे देखकर सविता भी वहीं बैठ गई थी । मिसेज कुलकर्णी मंदिर में चली गई थीं । आप मंदिर में क्यों नहीं जाते? सविता ने सहजता से पूछा था । इन पत्थर की मूर्तियों में मेरी कोई आस्था नहीं है । मैंने अपने मन की बात कह दी थी । वह मुझसे सटकर बैठी थी । मुझे एक अजीब-सा अहसास गुदगुदा रहा था । वह जिद करने लगी थी चलो मंदिर में चलते हैं। सुदामा दादा बड़े भैया) अंदर हैं। हाँ पाटिल अंदर है । आप भी जाओ । मैं यहीं ठीक हूँ । मैंने उसे टालना चाहा था । वह चुपचाप पुलिया पर बैठ भी गई । कुछ देर की चुप्पी के बाद बोली आप इतना चुप क्यों रहते है? ग मुझे सुनना अच्छा लगता है । मैंने सहज भाव में कहा था । 4 वह खिलखिला पड़ी थी । उसका हँसना मंदिर की घंटियों जैसा था । हू? खुप्ती हूँ म छ अचानक उसने कहा आप फिल्म देखते है' हाँ.. कभी-कभी... छ आह छ 5 ख हु' हमारे साथ चलोगे? उसने मेरी बांह को अपनी बांह में लैपेट लिया था । मैंने टालने की गर्ज से कह दिया था कि सुदामा पाटिल से पूछकर बताऊंगा । सविता नाराज हो गई थी क्यों आप मेरे साथ नहीं चल सकते? उस रोज कहीं मन में झरना फूटने की कल-कल सुनाई पड़ी थी । स्वभाव संकोची था । पारिवारिक परिवेश दिलोदिमाग पर हावी था । इस अहसास की भनक स्वयं को भी लगने नहीं दी थी क्योंकि हम दोनों के बीच कई तरह के फासले थे जो लगातार मुझे रोकते थे । ऐसी छोटी-मोटी घटनाएं कई बार हुई थीं जो इस बात का संकेत थीं कि उसका झुकाव मेरी ओर बढ़ रहा है । वह हॉस्टल में भी आने लगी थी । सुदामा उसे हॉस्टल आने
से रोकता था । कभी-कभी डांट भी देता था । लेकिन सुदामा की डांट का उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता था । हॉस्टल में वह मेरी किताबों को उलट-पुलटकर देखती थी । कभी-कभी इधर-उधर फैली किताबों को करीने से सजा देती थी । मैस का खाना उसे पसंद नहीं था । वह शाकाहारी थी । दीपावली से एक दिन पहले चतुर्दशी की सुबह मिसेज कुलकर्णी ने अपने घर बुलाया था । वह भी सुबह चार बजे । मैंने पाटिल से पूछा तो सुनकर वह हँस पड़ा था । मेरी समझ में नहीं आया था पाटिल के हँसने का कारण । मैंने जोर देकर पूछा तो बोला मजा करो मिसेज कुलकर्णी तुम्हें तेल और उबटन से नहलाएंगी । मतलब...? मैंने आश्चर्य से पूछा । पाटिल ने बताया था कि महाराष्ट्रियन ब्राह्मणों में यह एक परंपरा है। घर की स्त्री परिवार के पुरुष सदस्यों को उबटन और तेल मालिश करके स्नान कराती हैं ब्रह्ममुहूर्त्त में । उसकी बात सुनकर मैंने उससे पूछा था कि तुम जाओगे । उसने मना कर दिया था । साथ ही कहा भी था कि उसे नहीं बुलाया है । उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाया था । एक तो सुबह चार बजे उठकर जाना था । दूसरे. मैं एक अजीब-से अंतर्द्वंद्व मे फँसा हुआ था । कुलकर्णी परिवार की आत्मीयता मुझे आकर्षित भी कर रही थी फिर भी पारिवारिक स्थितियों के कारण संकोच था । बरामदे में तीन चौकियां रखी थीं । कुलकर्णी अजय और मैं चौकियों पर बैठ गए थे । उस वक्त मुझे रह-रह कर अपने घर-गांव का दमघोटू वातावरण याद आ रहा था । मिसेज कुलकर्णी ने बारी-बारी से हम तीनों को उबटन और तेल लगाया था । तेल से मोहक सुगंध आ रही थी । मैंने कच्छे के ऊपर तौलिया लपेट रखा था । मिसेज कुलकर्णी ने तौलिए को अलग रख देने के लिए कहा । मैंने कहा कि मुझे संकोच होता है । मिसेज कुलकर्णी ने तौलिया छीनते हुए कहा. तुम मेरे बेटे अजय जैसे हो । फिर माँ से कैसी शर्म! उस क्षण मेरा मन भावुकता से भर गया था । बरबस अपनी माँ की याद आ गई थी जो कुछ दिनों से बीमार थी । मिसेज कुलकर्णी के हाथों के नर्म कोमल वात्सल्यपूर्ण स्पर्श ने मुझे अपनी माँ के खुरदरे स्पर्श की याद दिला दी थी । सिरहाने बैठकर जब माँ मेरे बालों में उंगलियां घुमाती थी मेरी चेतना जैसे नींद की गोद में समा जाती थी । मिसेज कुलकर्णी ने गुसलखाने में गर्म पानी से नहलाया था । मुझे लगातार एक अज्ञात भय सता रहा था कि यदि इन्हें इसी वक्त पता चल जाए कि मेरा जन्म एक अछूत जाति ' चूहड़ा ' में हुआ है तो अंजाम क्या होगा? उन्हीं दिनों पूना में गंवई बंधुओं की आँखें फोड़ दी गई थीं जिसे लेकर दलित समाज ने बंबई-पूना में एक जबरदस्त आदोलन खड़ा कर दिया था ।
कुलकर्णी परिवार में मुझे बेइंतहा प्यार और विश्वास मिला । कभी पराएपन का एहसास नहीं हुआ । लेकिन सविता का मेरी ओर झुकते जाना मुझे भयभीत कर रहा था । मैं ऐसे क्षणों में असहज हो जाता था । सविता जितना करीब आती मैं भागने की कोशिश करता । एक रोज कुलकर्णी के घर प्राध्यापक कांबले से भेंट हुई । कुलकर्णी और कांबले में मराठी नाटकों पर कोई गंभीर चर्चा चल रही थी । मैं और पाटिल इसहूचर्चा को चुपचाप सुन रहे थे । इसी बीच मिसेज कुलकर्णी चाय लेकर आई थीं । चाय पीते-पीते मेरा ध्यान कांबले के प्याले पर गया । उनका प्याला हमारे प्यालों से अलग था । मैंने सुदामा पाटिल से पूछा । उसने कुहनी मारकर मुझे चुप करा दिया था । लौटते समय मैंने फिर वही बात छेड़ दी पहले तो वह टालता रहा आखिर उसने बता ही दिया. मराठी ब्राह्मण वह भी पूना के ब्राह्मण महारों को अपने बर्तन छूने नहीं देते इसलिए उनके अलग बर्तन रखे जाते हैं । चाय के जूठे कप मिसेज कुलकर्णी उठाने आई थीं लेकिन कांबले का कप कुलकर्णी उठाकर ले गया था । यह सब सुनकर मेरी कनपटियां गर्म हो गई थीं जैसे किसी ने गर्म पारा उड़ेल दिया हो। क्या सभी दलितों के साथ उनका व्यवहार ऐसा ही है? मैंने पाटिल से जानना चाहा था । मेरे गांव में छुआछूत का भेदभाव था । उन दिनों देहरादून और उप्र. की स्थिति तो और अधिक खराब थी । बंबई जैसे महानगर में पड़े-लिखे लोगों में ऐसी स्थिति की कल्पना से ही मेरे भीतर एक गर्म लावे का स्रोत फूटने लगा था । हाँ ऐसा सभी के साथ है । पाटिल ने साफगोई से कहा । पाटिल के मन में बाबा साहेब अंबेडकर के प्रति आदर- भाव था । दलित आदोलन के प्रति उसके मन में सहयोग भावना थी । वह सवर्ण होते हुए भी संकीर्ण नहीं था । मैं अपने मन में उठते बवंडर को पहचान चुका था । यह घटना मुझे अव्यवस्थित कर रही थी । मैंने पाटिल से पूछा था मेरे बारे में वे जानते हैं? शायद नहीं... वाल्मीकि सरनेम से शायद ब्राह्मण समझते हैं । तभी तो उस रोज दीपावली पर स्नान के लिए बुलाया था । पाटिल कुछ-कुछ गंभीर होने लगा । तुमने उन्हें बताया नहीं कभी... मैंने उद्विग्नता से पूछा था । क्यों बताता?... दलित होना क्या अपराध है? पाटिल ने गुस्से में कहा । कल यदि उन्हें पता चल जाए.. तो...? मैने शंका व्यक्त की । तो दोषी तुम कैसे हो गएत्.उन्होंने भी पूछा नहीं... तो हम अपनी ओर से ढिंढोरा पीटें? हाँ यदि वे पूछते और तुम झूठ बोलकर उनके दायरे में शामिल हो जाते तब तुम्हारा दोष माना जा सकता था... वह भी झूठ बोलने का पाटिल ने दृढ़ता से कहा । इस घटना के बाद मैं सहज नहीं हो पाया था । मेरी अपनी बेचैनी मुझे तंग कर रही थी। ऐसे माहौल को मैं सहन नहीं कर पाता हूँ । सब कुछ झूठ लगता है ।
पाटिल से मेरी बैचेनी छिपी नहीं थी । उसने समझाने की कोशिश की थी । बामनों का पूरा दर्शन ही झूठ और धोखे पर आधारित है... भूल जाओ और मजे करो । ऐसे प्यार और सम्मान का आकांक्षी मैं नहीं हूँ जो झूठ के सहारे मिले । मैं गहरे अंतर्द्वंद्व से गुजर रहा था उन दिनों । इसी पशोपेश में कई दिन हो गए थे कुलकर्णी के घर गए हुए। इंतजार करके सविता आ गई थी हॉस्टल में । मैं सविता से खुलकर बात करना चाहता था । लेकिन हॉस्टल में यह संभव नहीं था । मैंने सविता से कहा मुझे तुमसे कुछ बात करनी है... अकेले में... अकेले में...क्या बात है? उसने शरारत से आँख नचाते हुए पूछा । कल शाम को मंदिर चलते हैं... लेकिन आपकी माँ साथ होंगी? मैंने शंका जताई । नहीं मैं अकेले ही आऊंगी । उसने आश्वस्त किया । सविता के लौट जाने के बाद मैंने पाटिल से कहा कि मैं सविता से साफ-साफ कह दूंगा। पाटिल ने मुझे रोकना चाहा था नहीं, यह तमाशा मत करो। बवेला खड़ा हो जाएगा । लेकिन मैंने उस रोज तय कर लिया था । बात साफ हो जानी चाहिए। जो भी होगा देखा जाएगा । उन दिनों बंबई पूना में दलित--दोलन जोरों पर था । सविता मुझे अंबरनाथ रेलवे स्टेशन पर ' उपकार ' रेस्टोरेंट के पास मिल गई थी । उसने सफेद रंग का स्कर्ट-ब्लाउज पहन रखा था जो उसके दूधिया रंग पर खूब फब रहा था । उसकी आँखों में मोहकता भरी हुई थी । चाल में अल्हड़पन था । वह अपनी आदत के अनुसार कुछ-न-कुछ बोलती ही जा रही थी । मैं सिर्फ ' हूँ ' ' हाँ ' में जवाब दे रहा था । दरअसल मैं तय नहीं कर पा रहा था कि बात कहाँ से और कैसे शुरू करूं । अचानक सविता को जैसे कुछ याद आ गया अरे मैं तो भूल ही गई थी! आप कुछ बात करने वाले थे? उसने आँखें बड़ी-बड़ी करके मेरी ओर देखा । क्षण भर को लगा था जैसे मैं कह नहीं पाऊंगा । साहस बटोरते हुए मैंने कहा तुम्हारे घर उस रोज जो प्राध्यापक कांबले आए थे ... मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी सविता ने बात काट दी । वह महार-एससी, उसके इस अंदाज से ही मेरी कनपटियां गर्म हो गई थीं । हाँ.. वही... मैंने कटुता से कहा था । आज अचानक उसका खयाल कैसे आ गया इस वक्त । सविता ने हैरानी से पूछा । उसे चाय अलग बर्तनों में पिलाई थी? मैंने सख्त लहजे में पूछा ।
हाँ घर में जितने भी एस. सी. और मुसलमान आते हैं उन सबके लिए अलग बर्तन रखे हुए हैं । ऊ १४. सविता ने सहज भाव से कहा । यह भेदभाव तुम्हें सही लगता है? मैंने पूछा । मेरे शब्दों के तीखेपन को उसने महसूस कर लिया था । .न अरे...तुम नाराज क्यों होते हो उन्हें अपने बर्तनों में कैसे खिला सकते हैं? उसने प्रश्न किया । .ग् ' र क क्यों नहीं खिला सकते..होटल मेंमैस में तो सब एक साथ खाते हैं । फिर घर में क्या तकलीफ है? मैंने तर्क- दिया । सविता इस भेदभाव को सही और संस्कृति का हिस्सा मान रही थी । उसके तर्क मुझे उत्तेजित कर रहे थे । फिर भी मैं काफी संयत था उस रोज । उसका कहना था एससी. अनकल्वर्ड( असभ्य) होते हैं । गंदे रहते हैं । मैंने उससे पूछा तुम ऐसे कितने लोगों को करीब से जानती हो? इस विषय में तुम्हारे व्यक्तिगत अनुभव क्या हैं? वह चुप हो गई थी । उसका परिचय ऐसे किसी व्यक्ति से नहीं था । फिर भी पारिवारिक पूर्वाग्रह उस पर हावी थे । उसका कहना था आई (माँ) बाबा पिता) ने बताया । यानि बच्चों को यह सब घरों में सिखाया जाता है कि एससी, से घृणा करो । वह चुप हो गई थी उसकी चंचलता भी गायब थी । कुछ देर हम पुलिया पर चुपचाप बैठे रहे । मैंने उससे पूछा मेरे बारे में तुम्हारी क्या राय है? आई बाबा तुम्हारी तारीफ करते है..कहते हैं यूपी. वालों के प्रति जो उनकी धारणा थी उससे अलग हो । तुम्हें अच्छा मानते हैं । सविता ने चहकते हुए कहा । मैंने तुम्हारी राय पूछी थी । अच्छे लगते हो । उसने मेरी बांह पर अपने शरीर का भार डाल दिया था । मैंने उसे दूर हटाया और कहा अच्छा यदि मैं एससी, हूँ..तो भी... ' तुम एससी, कैसे हो सकते हो? उसने इठलाकर कहा । क्यों? यदि हुआ तो? मैंने जोर दिया । तुम तो ब्राह्मण हो । उसने दृढता से कहा । यह तुमसे किसने कहा? बोबा ने । गलत कहा । मैं एससी, हूँ.. मैंने पूरी शक्ति से कहा था । मेरे भीतर जैसे कुछ जल रहा था । ऐसा क्यों कहते हो उसने गुस्सा दिखाया ।
मैं सच कह रहा हूँ..तुमसे झूठ नहीं बोलूंगा । न मैंने कभी कहा कि मैं ब्राह्मण हूँ । गे मैंने उसे समझाना चाहा । वह आश्चर्य से मेरा मुँह ताक रही थी । उसे लग रहा था जैसे मैं मजाक कर रहा हूँ। मैंने साफ शब्दों में कह दिया था कि मैंने उत्तर प्रदेश के ' अड़ा ' परिवार में जन्म लिया है । सविता गंभीर हो गई थी । उसकी आँखें छलछला आईं । उसने रुआसी होकर कहा झूठ बोल रहे हो न? द्र नहीं सवियह सच है..जो तुम्हें जान लेना चाहिए.. मैंने उसे यकीन दिलाया था । वह रोने लगी थी । मेरा एससी, होना जैसे कोई अपराध था । वह काफी देर सुबकती रही । हमारे बीच अचानक फासला बढ़ गया था । हजारों साल की नफरत हमारे दिलों में भर गई थी । एक झूठ को हमने संस्कृति मान लिया था । हम लोग वापसी में लगभग चुप थे । लेकिन भीतर के कोलाहल में डूबे हुए... मैं उस वक्त तनाव-मुक्त हो चुका था । जैसे मन से कोई भारी बोझ उतर चुका हो ।