भाषा साहित्य और संस्कृति/सिलप्पदिकारम:दुःख की लड़ी

विकिपुस्तक से

दुःख की लड़ी

(मादरी का आगमन)

कुरवइ नृत्य की समाप्ति
प्रौढ़ ग्वालिन (मादरी)
शिथिलांग होकर
पुष्प, सुगंधि धुप, चंदन-लेप और माला सहित
सतत जल भरी वइहइ(के तट) पर
विष्णू के चरणो की इच्छा से
घाट पर स्नान करने के लिए गयी।
तब नगर का एक कोलाहल सुनकर
वह वेग से वहाँ आई।

(कण्णही की व्याकुलता)

मादरी ने स्वयं कुछ नही कहा और
कुछ कहे बिना खडी रही।
तब कण्णही ने उससे कहा,
'बोलो तो,क्या बात है?
अरी सखी।
प्रियतम को मै देख नही पा रही हूँ।
मेरी व्याकुलता बहुत बढ़ गई है।
धौंकनी को हराते हुए
मेरी छाती धक् धक् कर रही है।
अत: हे सखी, बोलो तो!
उन लोगो ने क्या कहा?
कम्पित करने वाली व्यथा
मध्याह् के समय ही
बहुत बढ़ गई है।
प्रिय को देखे बिना
मेरा ह्दय व्याकुल हो रहा है।
अत: हे सखी, बोलो तो!
लोगो ने क्या कहा?
क्या आशय है,सखी?
स्वामी को आते नही देखती।
कोई वंचना हुई है क्या?
मेरा मन
सुध बुध खो रहा है।
कोई वंचना अवश्य हुई है,
मेरा मन
सुध बुध खो रहा है।
अत: हे सखी, बोलो तो!
दूसरो ने क्या कहा?

(वध की सूचना)

"लोगो ने क्या-
(कोवलन को)
राज महल के सुंदर नूपुर को
चुपके से चुरानेवाला चोर मानकर-
चुपके से चुरानेवाला चोर मानकर-
झनझनाते वीर कंकण धारण करनेवाले (सैनिको) ने
वध का विचार किया है।"

(कण्णही मूर्छित हुई)

 यह सुनकर
कण्णही
उबलकर उठी और
गिर पड़ी,
मानो किरणें बिखेरता हुआ चंद्र
मेघ सहित
विस्तृत भूमि पर
गिर पड़ा हो।
अरुणाभ नयनो के
रकि्तम होते
वह रोयी;
अपने पति के प्रति
'कहाँ हो' कह
चीख उठी और
सिसकियाँ भरती हुई
मूर्छित हो गयी

(कण्णही का प्रलाप)

(अपने साथ)आनन्दित हुए पतियों के
वेदना जनक चिता मे विलीन होने पर
व्यथा- सहन के व्रत (वैधव्य) का पालन करते हुए
दुखी रहनेवाली नारियो के समान,
नृप के अपराध के कारण
अपने प्रिय को खोयी हुई मै
लोगों दारा निन्दिक होकर,
क्या विलाप करती हुई मिट जाऊँ?
सुगन्धिमय विशाल वळ से युक्त प्रियतम को
खोने से व्याकुल हो
विविध तीर्थों में स्नान कर
दुखी रहनेवाली नारियों के समान,
मैं
अधर्म-निरत राजदण्ड से युक्त राजा के
अपराध के कारण,
हे धर्म की देवी,
क्या विलाप करती हुई मिट जाऊँ?
अपने साथ रहे हुए
ळेष्ठ पति के
तप्त चिता मे विलीन होने पर
वैधव्य स्वीकृत कर
तीर्थ स्थान करनेवाली चिंताग्रस्त नारियों के समान,
(मैं भी)
धर्म- च्युत राजदण्ड धारण करने वाले दिळण नृप के
अपराध के कारण
इहलोक मे भी यश छोड़कर प्रलाप करते,
व्याकुल हो,
क्या,विलाप करती हुई मिट जाऊँ?

("चोर है क्या मेरा पति?")

"सभी देखो!
भवितव्यता के कारण किये गये
कुरवइ नृत्य मे सम्मिलित गोप नारियो!
सभी सुनो।
(सुर्य का सम्बोधन कर)
विशाल तरंगो से युक्त समुद्र से घिरी भूमि की
सभी बातें तुम जानते हो।
तप्त किरणों से युक्त हे धनी!
चोर है क्या मेरा पति?"

  (सुर्य का वचन)

"चोर कभी नही है।
श्याम मत्स्य जैसे नयनो वाली रमणी!
प्रचण्ड अग्नि खा जाएगी
इस नगर को।"
-ऐसा एक ध्वनि ने कहा।

 (नगर भ्रमण गीत "यह एक है")

सु्र्य देव ने ऐसा कहा।
 हाथ में दो चूड़ियाँ पहनी हुई कण्णही
(वहाँ) नही ठहरी।
बचे हुए एक नूपुर को
हाथ में थामकर
उसने कहा,
अन्यायी राजा के नगर में निवास करनेवाली
ळेष्ठ सती नारियो!
यह एक है।
"सन्धा के समय
मैनें
अपूर्व व्यथा का अनुभव किया।
असहा व्यथा सही।
क्या यही होना था?
यह एक है।
"मेरा पति
चोर
कभी नही हो सकता।
मेरे पग के नूपुर से प्राप्त मूल्य के लिए
(किसी ने) हत्या की है।
यह एक है।
"प्रेम के योग्य नारियों के सम्मुख ही
मैं
अपने प्रिय पति को देखूँगी।
यह एक है।
"प्रिय पति के देखूँ तो
उसके मुहँ से
निर्दोष उत्तम वचन सुनूँगी।
यह एक है।
"निर्दोष उत्तम वचन सुनने से रह जाऊँ तो
मुझे दुःखदायिनी मानकर
मेरी निंंदा करें।
यह एक हैं।"

(नगरवासी व्यथित हुए)

ऐसा कह व्यथित होकर
असहाता से विलाप करनेवाली को देख
आह भरकर
सम्पन्न मदुरई के सारे निवासी
विचलित हुए।
"अपरिर्हाय व्यथा
इस रमणी को देकर
कभी वक्र न होनेवाले राजदण्ड
वक्र हो गया है।
यह क्या हुआ?
"राजाधिराज चंद्र-छत्र और
खड्गधारी दळिण नृपति का राजत्व
छिन्न हो गया है।
यह क्या हुआ?
"भूमि को शीतल करनेवाले विजयी भाले से युक्त
ळेष्ठ(नरेश)के शीतल छत्र ने
ताप उत्पन्न कर दिया है
यह क्या हुआ?
"स्वर्ण का एक सुंदर नूपुर
हाथ मे उठाये
हमारे लिए
एक नूतन महादेवी आई हुई है?
यह क्या हुआ?
"सुंदर अरुणाभायुक्क
अंजन रंजित नेत्रो-सहित
रूदन करती,
आह भरती प्रलाप करनेवाली पर
मानों दैव चढ़ ही आ़या है।
यह कैसी बात है?"
इस प्रकार के शब्द कह
उन्होंने
व्यथित हो
लंबी सांस छोड़ते हुए
सांत्वना दी।

(पति को देखा)

नृप की निंदा करनेवालों से युक्त
विशाल मदुरइ के हल्ला मचाते हुए लोगों ने
(उसे) पति को दिखाया।
उत्कृष्ट कंचनलता-सी उसने
जिसको देखा
उसने
उसे नहीं देखा।
इस सम्पन्न विशाल भूमि में
अंधकार व्याप्त करते हुए,
अरूण किरणों वाला (सू्र्यदेव)
अपनी अरूण किरणों को समेटकर
महा पर्वत जा छिपा।
एकदम अंतर्धान होती संध्ता के समय
पुष्प लता (कण्णही) के प्रलाप करते,
नगर ने
'ओल' की ध्वनि उत्पन्न की।
जिसने प्रातः काल
अपने प्रिय को आलिंगन कर
उसके काले केश-पाश से
भ्रमर मण्डित माला लेकर
अपने लंबे केशों में धारण की थी,
उसने संध्या समय
(पति के) गहरे घाव से
रक्त प्रवाहित होते
उसके अपने को ना देखने की
तीळ्ण व्यथा देखी।

 (कण्णही का प्रलाप)

"मेरी अत्यधिक व्यथा को देख कर भी
आप नही सोचते कि
इसे दु:ख होगा?
(आपका) स्वर्णिम सुगंधित शरीर
धूसरित होकर पड़ा रहे?
राजा के
अत्यंत व्यथा -दायक
क्रूर कर्म (के कारण) को
न जाननेवाली मुझ से
क्या लोग नही कहेंगे,
"देखो,
यह तुम्हारा ही
कर्म फल है?
"बेसुध करती हुई
सूनी संधा में
एक व्याथाकुल एकाकिनी के सामने,
क्या तुम्हारा मालालंकृत सुंदर वळ
भूमि पर पर सटा पड़ा रहे?
संसार के घोर निंदा करते,
पाण्डियन नृप के अपराध करते,
क्या (लोग)नही कहेंगे,
"देखो,
यह घटना
एक कर्म-फल ही हैं?"
"अळु-वारि-प्रवाह से युक्त
मुझ पापिनी के सम्मुख,
क्या तुम्हारा शरीर
रक्त प्रवाह से युक्त घाव सहित
धूसरित होकर पड़ा रहे?
जनता के निंदा करते,
नृप के अपराध करते
क्या (लोग)नही कहेंगे,
"देखो यह (दु:ख) भोग
एक कर्म-फल ही हैं?"

    (उपालम्भ)

"क्या नारियाँ भी है।
ऐसी नारियाँ भी है?
वरण किसे पति पर पड़ी घोर विपत्ति को
सहन करने वाली नारियाँ भी हैं।
ऐसी नारियाँ भी है।
"क्या महान भी हैं?
ऐसे महान भी हैं?
(अन्यो कें) जने हुए शिशु को लेकर
पालन करने वाले महान भी हैं?
ऐसे महान भी हैं?
"क्या दैव भी हैं?
यहाँ दैव भी हैं?
तीळ्ण खड्ग से अपराध करनेवाले नृप के
इस मदुरह में
क्या दैव भी हैं?
क्या दैव भी हैं?"

     (तुम यहीं रहो)

ऐसा कह
रोती हुई कण्णही के
अपने पति के
स्वर्णित वळ से लगकर आलिंगन करते,
वह (कोवलन)
उठकर खड़ा
"पूर्णचन्द्र-सदृश (तुम्हारा) उज्जवल मुख
मुरझा गया है।"
-कहकर उसने अपने हाथ से
उसके आंसू पोछें।
उस सुंदरी ने
रोदन करते और
सिसकियां भरते
भूमि पर गिर कर
अपने पति के प्रणम्य ळेष्ठ चरणों को
चूड़ियों से युक्त दोनों करों से पकड़ा कि
(कोवलन) जर्जर शरीर को छोड़ कर
ऊपर उठा,और
अनेक अमरों के समूह में विराजते हुए,
"अंजन-रंजित सुंदर पुण्य-सदृश नयनोंवाली!
तुम यही रहो।"-
कहकर चला गया

   (कण्णही की चिंता)

"क्या,यह माया है?
या और कुछ?
मुझे बेसुध करनेवाला कोई दैव है?
मैं कहाँ जाकर खोजूँ?
यह कोई सार्थक वचण नही।
(अपने) तप्त क्रोध के शीतल न होने तक
मैं पति से नहीं मिलूँगी।
दुष्ट नृप से मिलकर
मैं इसका कारण पूछूँगी।"

     (राजा से मिलने गई)

ऐसा कहकर
झट वह उठी;
अपने व्याथमय दु:स्वपन का स्मण कर
तनिक ठहरी।
दीर्घ म्त्सय-सदृश नयनों के अशुओं को पोंछकर
रादा के ऐशवर्य-मय राज-भवन के
दार के सामने गयी।

   (अभियोग गाथा,महारानी का स्वप्न)

उधर-
(राळी ने कहा)
"सुनो,
राज-छत्र के साथ राजदण्ड के गिरते,
राजदार के घंटे की निरंतर कम्पित ध्वनि सुनी,
मैंने,हे सखी!
"सुनो,
आठों दिशायें डगमगाने लगीं।
इसके अतिरिक्त
अंधकार के सूर्य को निगलते देखा
मैंने,हे सखी!
"सुनो,
रात ने इन्र्दधनुष रचा।
तप्त दिन में
तीळ्ण किरणोंवाले तारे टूटकर गिरे।
इनको (स्वपन में) देखा
मैंने,हे सखी।"

   (शकुन)

"राजदण्ड और रजत छत्र
कठोर भूमि पर गिर पड़े।
हमारे राजा के
विजय-दार के घंटे गे कम्पित होते,
(मेरा) हदय भी कम्पित हुआ।
रात ने इन्द्रधनुष रचा।
दिन मे तारे टूटे।
आठों दिशाओ डगमगाने लगीं।
कोई विपत्ति आने वाली है़।
मै जाकर राजा से कहूँगी।"
उसके इस प्रकार कहते-

   (रानी का आगमन)

दर्पण,भूषण,नव वसन,
रेशम, हरे पान की डिबिया,रंग,चूर्ण,
मृगमद-लेप,माला,हार चामर,और सुगन्धि-धूप
(पृथक-पृथक) वहन करती हुई
चमकते हुए उज्जवल गहनों से भूषित युवतियों तथा