भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988

विकिपुस्तक से

Aapradhik avchaar

धारा 1. संक्षिप्त नाम और विस्तार[सम्पादन]

1) यह अधिनियम भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 कहा जा सकेगा।

2) इसका विस्तार जम्मू और कश्मीर राज्य के सिवाय संपूर्ण भारत पर है और यह भारत के बाहर भारत के सब नागरिकों पर भी लागू है।

धारा 2. परिभाषाएँ[सम्पादन]

इस अधिनियम में जब तक कि सन्दर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो -

क. “निर्वाचन” से अभिप्रेत है, कोई निर्वाचन जो किसी अधिनियम के अधीन सांसदों के निर्वाचन या किसी विधान सभा, स्थानीय प्राधिकरण या अन्य लोक प्राधिकरण के निर्वाचन के लिए किसी भी प्रकार किए जाते हैं।

ख. “लोक कर्तव्य” से अभिप्रेत है, कोई ऐसा कर्तव्य जिसके निर्वहन में राज्य की जनता या समाज की रुचि है।

स्पष्टीकरण – इसमें “राज्य” में केन्द्रीय, प्रान्तीय या राज्य के किसी अधिनियम के अधीन निर्मित नियम या कोई प्राधिकरण या कोई निकाय जो सरकार द्वारा स्वामित्वधीन या नियंत्रनाधीन या सहायता प्राप्त है या कोई सरकारी कम्पनी जैसा कि कम्पनी अधिनियम , 1956 ( 1956 का सं 1) की धारा 617 में परिभाषित है।

ग. “लोक सेवक” से अभिप्रेत है-

एक. कोई व्यक्ति जो किसी लोक कर्तव्य के निर्वहन हेतु सरकार की सेवा में हहो अथवा वेतनाधीन हो अथवा इसके लिए कोई फीस, कमीशन या पारिश्रमिक प्रदत्त किया जाता हो,

दो. कोई व्यक्ति जो, किसी स्थानीय निकाय की सेवा में हॉ, वेतनाधीन हो,

तीन. कोई व्यक्ति, जो किसी केन्द्रीय प्रान्तीय या राज्य की किसी विधि के द्वारा या गठित किसी नियम अथवा कॉरपोरेशन या किसी निकाय जो सरकार द्वारा स्वामित्वधीन या निंयत्रणाधीन या सहायता प्राप्त है या कोई सरकारी कम्पनी जैसा कि कम्पनी अधिनियम, 1956 (1956 का सं 1) की धारा 617 में परिभाषित है, की सेवा में हो या वेतनाधीन हो,

चार. कोई न्यायाधीश, या विधि द्वारा प्राधिकृत कोई अन्य व्यक्ति, जिसे स्वयं या किसी समूह के सदस्य के नाते न्याय- निर्णयन का कार्य करता हो,

पाँच कोई व्यक्ति जिसे न्याय-निर्णयन के संबंध में न्यायिलय के न्यायाधीश द्वारा किसी कर्तव्य के निर्वहन हेतु प्राधिकृत किया गया हो एवं इसमें सम्मिलित है न्यायालय द्वारा नियुक्त समापक, प्रापक या आयुक्त,

छः कोई मध्यस्थ या अन्य व्यक्ति जिसे किसी न्यायालय या अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा कोई प्रकरण या विषय, निर्णयन या रिपोर्ट के लिए निर्देशित किया गया हो।

सात. कोई व्यक्ति जो ऐसा पद धारण करता हो, जिसके आधार पर वह निर्वाचक नामावली तैयार करने, प्रकाशित करने या बनाए रखने या पुनरक्षित करने के लिए या निर्वाचन या उसके किसी भाग को संचालित करने के लिए सशक्त हो।

आठ, कोई व्यक्ति जो ऐसा पद धारण करता है जिसके आधार पर वह किसी लोक कर्तव्य का पालन या निर्वहन करने के लिए प्राधिकृत है।

नौ. कोई व्यक्ति जो किसी रजिस्टर्ड सहकारी संस्था के लिए कृषि, उद्योग व्यापार या बैकिंग में लगा हुआ है जिसे केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार द्वारा केन्द्रीय, प्रान्तीय या राज्य सरकार की किसी विधि के अधीन गठित किसी कॉरपोरेशन, प्राधिकरण या निगम द्वारा जो सरकार के स्वामित्वधीन, नियंत्रणाधीन या सहायता प्राप्त है या किसी शासकीय कम्पनी, जैसा कि कम्पनी अधिनियम, 1956 (1956 का सं 1) की धारा 617 में परिभाषित है किसी प्रकार की आर्थिक सहायता प्राप्त है या प्राप्त हो रही है, का अध्यक्ष सचिव या अन्य पदाधिकारी है।

दस. कोई व्यक्ति जो किसी सेवा आयोग या किसी अन्य नाम से जाने जाना वाला हो, का अध्यक्ष सचिव या कर्मचारी अथवा ऐसे सेवा आयोग या मंडल द्वारा नियुक्त चयन समितिका सदस्य जिसे किसी परीक्षा संचालन अथवा ऐसे सेवा आयोग या मंडल द्वारा उसकी ओर से किसी चयन हेतु नियुक्त किया गया हो,

ग्यारह. कोई व्यक्ति जो किसी विश्वविद्यालय का उपकुलपति या सदस्य है या किसी अधिवासी निकाय या लोक प्राधिकरण का प्राध्यापक, प्रस्तुतकार, व्याख्याता या कोई अन्य अध्यापक या कर्मचारी चाहे वह किसी भी पदनाम से जाना जाता हो जो परीक्षाओं के संयोजन या संचालन से संबंधित हो,

बारह. कोई व्यक्ति जो किसी शैक्षणिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, सांस्कुतिक या अन्य किसी ऐसी संस्था, चाहे जैसे स्थापित की गई हो जिसे केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार, या किसी स्थानीय या लोक प्राधिकरण द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त है या प्राप्त कर रही है, का पदाधिकारी या कर्मचारी है।

स्पष्टीकरण 1 – उपर वर्णित उपखण्डों में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति लोक सेवक है चाहे वह सरकार द्वारा नियुक्त किय गया हो या नहीं।

स्पष्टीकरण 2- जहाँ कहीं “ लोक सेवक” शब्द आए है, वे उस व्यक्ति के संबंध में समझे जाएँगे, जो लोक सेवक के पद को वास्तव में धारण किए हुए है, चाहे उस पद के धारण करने में भी कैस विधिक त्रुटि हो।

धारा 3 विशेष न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार[सम्पादन]

1) केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार राजपत्र में अधिसूचनाद्वारा ऐसे क्षेत्र या क्षेत्रों के लिए ऐसे मामलों या मामलों के समुहों के लिए जैसा कि अधिसूचना में विनिर्दिष्ट किया जाए जैसा वह आवश्यक समझे निम्नां कित अपराधों की सुनवाई के लिए विशेष न्यायाधीश नियुक्त कर सकती है, अर्थात-

क. इस अधिनियम के अधीन दंडणीय किसी अपराध के लिए और
ख. खंड क में विहीत अपराधों के घटित करने केकिसी षडयंत्र, दुष्प्रेरण या प्रयास के लिए।

2) कोई व्यक्ति विशेष न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने के लिए तब तक अर्ह न होगा जबतक कि वह दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (1974 का 2) के अधीन सत्र न्यायाधीश, अपर सत्र न्यायाधीश या सहायक सत्र न्यायाधीश न हो या न रह चुका हो।

धारा 4 विशेष न्यायाधीशों द्वारा विचारण के प्रकरण[सम्पादन]

1) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का सं 2) में या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी धारा 3 की उपधारा 1 में विनिर्दिष्ट प्रकरणों का विचारण विशेष न्यायाधीशों द्वारा ही किया जाएगा।

2) धारा 3 की उपधारा 1 में विनिर्दिष्ट प्रत्येक अपराध का विचारण उस क्षेत्र के लिए नियुक्त या उस अपराध के विचारण के लिए नियुक्त या यथास्थिति विशेष न्यायाधीश द्वारा किया जावेगा या उस क्षेत्र में यदि एक से अधिक न्यायाधीश है, तो उस न्यायाधीश द्वारा किया जाएगा जैसा कि केन्द्रीय सरकार इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे।

3) किसी मामले के विचारण के दौरान, विशेष न्यायाधीश द्वारा धारा याधीश द्वारा धारा 3 में विनिर्दिष्ट अपराधों के अतिरिक्त ऐसे अपराधों की सुनवाई भी कर सकेगा जो दंड प्रकिता संहिता 1973(1974 का सं 2) के अधीन उस अभियुक्त पर उस विचारण के साथ अधिरोपित किए जा सकते हैं।

4) दंड प्रकिता संहिता 1973(1974 का सं 2) में किसी बात के होते हुए भी विशेष न्यायाधीश अपराध का विचारण दिन – प्रतिदिन के आधार पर करेगा।

धारा 5 विशेष न्यायाधीश के अधिकार एवं प्रक्रिया[सम्पादन]

1) विशेष न्यायाधीश किन्हीं अपराधों का संज्ञान उसे विचारण के लिए अभियुक्त की सुपुर्दगी के बिना कर सकता है और विचारण के लिए दंड प्रकिता संहिता 1973(1974 का सं 2) में मजिस्ट्रेट द्वारा वारंट मामलों के विचारण के लिए विनिर्दिष्ट प्रक्रिया अपनाएगा।

2) विशेष न्यायाधीश अपराध से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संबध्द किसी व्यक्ति का साक्ष्य अभिप्राप्त करने की दृष्टि से उस व्यक्ति को इस शर्त पर क्षमादान कर सकता है कि वह अपराध के संबंध में और उसके किए जाने में चे कर्ता या दुष्प्रेरण के रूप में संबध्द प्रत्येक अन्य व्यक्ति के संबंध में समस्त परिस्थितियों की जिनकी उसे जानकारी है पूर्ण और सत्यता प्रकटन कर दे और तब दंड प्रकिता संहिता 1973(1974 का सं 2) की धारा 308 की उपधारा 1 से 5 तक के प्रयोजन के लिए समझा जाएगा कि क्षमादान उस संहिता की धारा 307 के अधीन दिया गया है।

3) उपधारा 1 की उपधारा 2 में किसी बात के होते हुए भी, दंड प्रकिता संहिता 1973(1974 का सं 2) के प्रावधान जहाँ तक वह इस अधिनियम से असंगत न हो विशेष न्यायाधीश की कार्यवाहियोँ पर लागू होंगे और इन प्रावधानों के प्रयोजन के लिए विशेष न्यायाधीश का न्यायालय सत्र न्यायालय समझा जाएगा और विशेष न्यायाधीश के समक्ष अभियोजन संचलित करने वाला व्यक्ति लोक अभियोजक समझा जाएगा।

4) उपधारा 3 के उपबऩ्धों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना दंड प्रकिता संहिता 1973(1974 का सं 2) की धारा 326 और 475 के प्रावधान जहाँ तक संभव हो, विशेष न्यायाधीश के समक्ष की कार्यवाहियों पर लागू होंगे और इन प्रावधानों के प्रयोजन के लिए विशेष न्यायाधीश मजिस्ट्रेट समझा जाएगा।

5) विशेष न्यायाधीश किसी दोषसिद्ध व्यक्ति जो उस अपराध के लिए विधि द्वारा प्राधिकृत कोई भी दंडादेश पारित कर सकता है जिस अपराध के लिए वह व्यक्ति दोषसिध्द हुआ है।

6) इस अधिनियम के अधीन दंडनीय अपराध का विचारण करने वाला विशेष न्यायाधीश दंड विधि (संशोधन) अध्यादेश, 1944 (1944 का अधयादेश 38) द्वारा जिला न्यायाधीश को प्रदत्त शक्तियों एवं कृत्योँ का प्रयोग कर सकेगा।

धारा 6 संक्षिप्त विचारण करने की शक्ति[सम्पादन]

1) जहाँ विशेष न्यायाधीश धारा 3 की उपधारा 1 में विहीत अपराध का विचारण किसी लोक सेवक जिसके विरुद्ध आवश्यक वस्तु अधिनियम , 1955( 1955 का 10) की धारा 12-क की उपधारा 1 में वर्णित विशेष आदेश अथवा उस धारा की उपधारा 2 के खंड क के उल्लंघन का आरोप है तो इस अधिनियम की धारा 5 अथवा दंड प्रक्रिया संहिता 1973(1974 का सं 2) की धारा 260 में किसी बात के होते हुए भी विशेष न्यायाधीश उस अपराध का संक्षिप्त विचारण करेगा और संहिता की धारा 262 से धारा 265 दोनों को सम्मिलित करते हुए के प्रावधान जहाँ तक संभव होगा लागू होंगेः

परन्तु यह कि इस धारा के अधीन संक्षिप्त विचारण दोषसिध्द होने पर विशेष न्यायाधीश के लिए यह विधि संगत होगा कि वह एक वर्ष की अवधि तक का दंडादेश दे सकता हैः

परन्तु यह और भी कि इस धारा के अधीन संक्षिप्त विचारण प्रारम्भ होने के पूर्व या उसके दौरान विशेष न्यायाधीश को ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकरण ऐसी प्रकृति का है कि एक वर्ष से अधिक अवधि के कारावास का दंडादेश आवश्यक होगा अथवा अनय किसी कारण से उसका संक्षिप्त विचारण अपेक्षित नहीं है तो विशेष न्यायाधीश पक्षकारों की सुनवाई के पश्चात आदेश अभिलिखित करेगा और तत्पश्चात किसी साक्षी को जिसका कि परीक्षण किया चुका है पुनः बुला सकेगा और संहिता के प्रावधानोँ में विनर्दिष्ट मजिस्ट्रेट द्वारा वारंट मामलों के विचारण की प्रक्रिया अपनाएगा या मामले का विचारण जारी रखेगा।

2) इस अधिनियम दंड प्रकिता संहिता 1973(1974 का सं 2) में किसी बात के होते हुए भी, इस धारा के अधीन संक्षिप्त विचारण, जिसमें विशेष न्यायाधीश द्वारा एक मास से अनधिक की अवधि के कारावास और दो जार रूपए से अनधिक जुर्माने से दंड दिया गया है और उक्त संहिता की धारा 425 के अधीन इसके अतिरिक्त कोई आदेश दिया गया हो अथवा दंड के विरुद्ध कोई अपील नही होगी किन्तु उपरोक्त वर्णित सीमा से अधिक द॔डादेश पर अपील हो सकेगी।

धारा 7 लोक सेवक द्वारा अपने पदीय कृत्य के संबंध में वैध पारिश्रमिक से भिन्न परितोषण प्रतिग्रहीत करना[सम्पादन]

जो कोई लोक सेवक होते हुए या ने की प्रत्याशा रखते हुए, वैध पारिश्रमिक से भिन्न प्रकार का भी कोई परितोषण किसी बात करने के प्रयोजन से या ईनाम के रूप में किसी व्यक्ति से प्रतिग्रहीत या अभिप्राप्त करेगा या करने को सहमत होगा या करने का प्रयत्न करेगा कि वह लोक सेवक कोई पदीय कार्य करे या पदीय कार्य करने का लोप करे या किसी व्यक्ति को अपनी पदीय कार्यों के प्रयोग से कोई अनुग्रह करे या करने से प्रतिविरत करे अथवा केन्द्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार या संसद या राज्य के विधान मंडल या किसी स्थानीय प्राधिकारी, निगम या धारा 2 के खंड ग में वर्णित शासकीय कम्पनी अथवा किसी लोक सेवक से, चाहे नामित हो या अन्यथा ऐसे कारावास से जिसकी अवधि पाँच वर्ष तक की हो सकेगी किन्तु जो छह मास से कम कीनही होगी दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय गा।

स्पष्टीकरण[सम्पादन]

क- “लोक सेवक होने की प्रत्याशा रखते हुए” यदि कोई व्यक्ति जो किसी पद पर होने की प्रत्याशा न रखते ए दूसरों को प्रवंचना से विश्वास कराकर कि वह किसी पद पर पदासीन होनेवाला है, और तब वह उसका अनुग्रह करेगा, उससे पारितोषण अभिप्राप्त करेगा, तो वह छल करने का दोषी हो सकेगा। किन्तु वह इस धारा में परिभाषित अपराध का दोषी नही है।

ख. “परितोषण”- परितोषण शब्द धन संबंधी परितोषण तक, या उन परितोषणों तक ही जो धन में आँ के जाने योग्य है, सीमित नहीं है।

ग. “वैध पारिश्रमिक” – वैध पारिश्रमिक शब्द उस पारिश्रमिक तक ही सीमित नहीं है जिसकी माँग कोई लोक सेवक विधिपूर्ण रूप से कर सकता है, किन्तु उसके अन्तर्गत वह समस्त पारश्रमिक आता है, जिसको प्रतिग्रहीत करने के लिए वह उस सरकार द्वारा या उस संगठन द्वारा, जिसकी सेवा में वह है, उसे दी गई।

घ. “करने के लिए हेतु या इनाम” – वह व्यक्ति जो वह बात करने के लिए हेतु या इनाम के रूप में जिसे करने का उसका आशय नही या वह ऐसा करने की स्थिति में नहीं है अथवा जो उसने नहीं की है, परितोषण प्राप्त करता है, इस स्पष्टीकरण के अन्तर्गत आता है।

च. जहाँ कोई लोक सेवक किसी व्यक्ति को गलत विश्वास के लिए उत्प्रेरित करता है कि उसके प्रभाव से उसने, उस व्यक्ति के लिए अभिलाभ प्राप्त किया है और इस प्रकार उस कार्य के लिए कोई रूपया या अन्य परितोषण इनाम के रूप में प्राप्त करने के लिए उत्प्रेरित करताहै तो ऐसे लोक सेवक ने इस धारा के अधीन अपराध किया है।

टिप्पणियाँ[सम्पादन]

रिश्वत— माँग—अभियुक्त कोई जावक लिपिक नहीं है जो सम्पत्ति मूल्यांकन प्रमाण-पत्र जारी कर सकता है—वह केवल एक अनुशंसा प्राधिकारी है— यह और कि, अभिकथित रिश्वत की माँग से पूर्व उक्त सम्पत्ति मूल्यांकन प्रमाण-पत्र अग्रेषित और अन्तिम प्राधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित किया जा चुका था— यह रिश्वत की माँग के बारे में संदेह उत्पन्न करता है, अतः दोषमुक्ति उचित थी। राज्य बनाम नरसिम्हाचारी ए. आई. आर. 2006 एस. सी. 628।

धारा 8. लोक सेवक पर भ्रष्ट या विधि विरुद्ध साधनों द्वारा असर डालने के लिए परितोषण लेना[सम्पादन]

जो कोई अपने लिए या किसी अन्य के लिए किसी प्रकार का कोई परितोषण किसी लोक सेवक को चाहे नामित हो या अन्यथा, को भ्रष्ट या अवैध साधनों द्वारा ऐसी बात के लिए उत्प्रेरित करने के लिए हेतु या ईनाम के रूप में किसी व्यक्ति से प्रतिग्रहीत या अभिप्रापत करेगा या करने के लिए सहमत होगा या करने का प्रयत्न करेगा कि वह लोक सेवक अपना कोई पदीय कार्य करे या करने से प्रतिविरत रहे या किसी व्यक्ति का अपने पदीय कृत्यों के प्रयोग में कोई अनुग्रह करे या दिखाए अथवा केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार, संसद या राज्य विधान मंडल या किसी स्थानीय प्राधिकारी, निगम या धारा 2 के खंड ग में वर्णित शासकीय कम्पनी अथवा किसी लोक सेवक से चाहे नामित हो या अन्यथा ऐसे कारावास से जिसकी अवधि पाँच वर्ष तक की हो सकेगी किन्तु जो छह मास से कम नही होगी दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा।

धारा 9. लोक सेवक पर वैयक्तिक असर डालने के लिए परितोषण का लेना[सम्पादन]

जो कोई अपने लिए या किसी अन्य के लिए किसी प्रकार का कोई परितोषण किसी लोक सेवक को चाहे नामित या अन्यथा अपने वैयक्तिक प्रभाव के प्रयोग दवारा इस बात के लिए उत्प्रेषित करने के लिए हेतु या ईनाम के रूप में किसी व्यक्ति से प्रतिग्रहीत करेगा या अभिप्राप्त करेगा या करने को सहमत होगा या करने का प्रयत्न करेगा कि वह लोक सेवक कोई पदीय कार्य करे या करने का लोप करे अथवा किसी व्यक्ति को ऐसे लोक सेवक के पदीय कृत्यो के प्रयोग में कोई उपकार करे या दिखाए या दिखाने का लोप करे अथवा केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार या संसद या राज्य विधान मंडल या किसी स्थानीय प्राधिकारी, निगम या धारा 2 के खंड ग में वर्णित शासकीय कम्पनी अथवा किसी लोक सेवक से चाहे नामित हो या अन्यथा ऐसे कारावास से जिसकी अवधि पाँच वर्ष तक हो सकेगी किन्तु जो छह मास से कम की नहीं होगी दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडणीय होगा।

धारा 10. धारा 8 या धारा 9 में परिभाषित अपराधों को लोक सेवक द्वारा उत्प्रेरण के लिए दंड[सम्पादन]

जो कोई लोक सेवक होते हुए धारा 8 या 9 में परिभाषित अपराधों का दुष्प्रेरण करेगा चाहे उसके परिणामस्वरूप अपराध घटित हुआ हो या नही तो उसे ऐसे दुष्प्रेरण के लिए ऐसे कारावास से जिसकी अवधि पाँच वर्ष तक की हो सकेगी, किन्तु जो छह मास से कम की नहीं होगी दंडित किया जाएगा और जुर्माने से दंडणीय होगा।

धारा 11. लोक सेवक जो ऐसे सेवक द्वारा की गई प्रक्रिया कारबार से सम्पृक्त व्यक्ति से प्रतिफल के बिना मूल्यवान चीज अभिप्राप्त करता है[सम्पादन]

जो कोई लोक सेवक होते हुए अपने लिए या किसी अन्य के लिए किसी व्यक्ति से यह जानते हुए कि ऐसे लोक सेवक द्वारा की गई या की जाने वाली किसी क्रिया या कारबार से वह व्यक्ति संपृक्त हो चुका है या उसका संप्क्त होना संभाव्य है या स्वयं उसके या किसी ऐसे लोक सेवक जिसका वह अधीनस्थ है पदीय कृत्यों से वह व्यक्ति आशक्त है या किसी ऐसे व्यक्ति से यह जानते हुए कि वह इस प्रकार संप्रृक्त व्यक्ति से हितबध्द है या रिश्तेदारी रखता है किसी मूल्यवान वस्तु को किसी प्रतिफल के बिना किसी ऐसे प्रतिफल के लिए जिसे वह जानता हो कि अपर्याप्त है प्रतिग्रीत करेगा या अभिप्राप्त करेगा, करने को सहमत होगा, या करने का प्रयत्न करेगा वह ऐसे कारावास से दंडित किया जाएगा जिसकी अवधि पाँच वर्ष तक की हो सकेगी परन्तु जो छह मास से कम की नहीं होगी और जुर्माने से भी दंडनीय होगा।

धारा 12. धारा 7 या धारा 11 में परिभाषित अपराधों के दुष्प्रेरण के लिए दंड[सम्पादन]

जो कोई धारा 7,या धारा 11 के अधीन दँडनीय किसी अपराध का दुष्प्रेरण करेगा, चाहे भले ही उसे दुष्प्रेरण के परिणामें स्वरूप कोई अपराध घटित हुआ हो या नही ऐसे कारावास से दंडित किया जाएगा जिसकी अवधि पाँच वर्ष तक की हो सकेगी किन्तु जो छह मास से कम नहीं गी और जुर्माने से दंडनीय होगा।

टिप्पणियाँ[सम्पादन]

अभियुक्त –अपीलार्थी हत्या के एक प्रकरण में अन्तर्गस्त था- परिवादी- पुलिस निरीक्षक को रिश्वत के रूप में रूपये 10,000/- भेंट करने के लिए दोषसिध्द- सुबह सबेरे परिवादी के घर पर दो आरक्षकों की उपस्थिति में रिश्वत दिया जाना अभिकथित किया गया- प्रथम सूचना रिपोर्ट दाखिल करने में 4 घंटे का विलंब यद्यपि पुलिस थाना बहुत दुर नही था- अभियुक्त फौरन ही गिरफ्तार नही किया गया- उन दो आरक्षकों में से एक की जाँच नहीं की गई- रपयों के पार्सलको सीलबन्द करने के ढंग एवं रिती में विसंगति – अपीलार्थी संदेह का लाभ पानेका हकदार है और इसलिए दोषमुक्त। ओम प्रकाश बनाम हरियाणा राज्य, ए. आई. आर. 2006 एस सी 894 = (2006) 2 एस. सी. सी. 250 =2006 (II) एम. पी. डब्ल्यु एन. 1 (एस. सी)।

धारा 13 लोक सेवक द्वारा आपराधिक अवचार[सम्पादन]

1) लोक सेवक आपराधिक अवचार के अपराध का करने वाला कहा जाता है-

क. यदि वह अपने लिए या किसी अन्य के लिए वैध पारिश्रमिक से भिन्न कोई पारितोषण हेतु या ईनाम के रूप में जैसा कि धारा 7 में उपबन्धित है किसी व्यक्ति से अभ्यासतः प्रतिग्रीत या अभिप्राप्त करता है, करने को सहमत होता है या करने का प्रयत्न करता है; या

ख. यदि वह अपने लिए या कीसी अन्य के लिए कोई मूल्यवान वस्तु प्रतिफल के बिना या ऐसे प्रतिफल के लिए जिसका पर्याप्त होना वह जानता है किसी ऐसे व्यक्ति से जिसका अपने द्वारा की गई या की जाने वाली किसी प्रक्रिया या कारबार से संबंध रहा होगा या हो सकना अथवा अपने या किसी ऐसे लोक सेवक जिसका वह अधीनस्थ है पदीय कार्यों से कोई संबंद होना वह जानता है अभ्यासतः प्रतिग्रहीत या अभिप्राप्त करता है या प्रतिग्रहीत करने के लिएसमत होता है या अभिप्राप्त करने का प्रयत्न करता ; या

ग. यदि वह लोक सेवक के रूप में उसे सौंपी गई या उसके नियंत्रणाधीन कोई संपत्ति अपने उपयोग के लिए बेईमानी से या कपटपूर्वक दुर्विनियोग करता है या अन्यथा सम्परिवर्तत कर लेता है या किसी अन्य को ऐसे करने देता है, या

घ. यदि वह-

एक. भ्रष्ट या अवैध साधनों से अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान वस्तु या धन संबंधी लाभ अभिप्राप्त करता है, या
दो. लोक सेवक के रूप में अपनी स्थिति का दुरूपयोग करके अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान चीज या धन संबंधी लाभ अभिप्राप्त करता है, या
तीन. ऐसे लोक सेवक के रूप में पद पर होते हुए किसी लोक रूचि के बिना किसी व्यक्ति के लिए मूल्यवान वस्तु या धन संबंधी लाभ अभिप्राप्त करता है, या

ड़. यदि उसके या उसकी ओर से किसी व्यक्ति के आधिपत्य में ऐसे धन संबंधी साधन एवं ऐसी सम्पति जो उसकी आय की ज्ञात स्त्रोतों की आनुपातिक है अथवा उसकी पदीय कालावधि के दौरान किसी समय आधिपत्य में रही है जिसका लोक सेवक समाधानप्रद रूप से विवरण नहीँ दे सकता।

स्पष्टीकरण- इस धारा के उद्देश्यों के लिए आय के ज्ञात स्त्रोतों पद का तात्पर्य होगा कोई ऐसे वैध स्त्रोत जिससे आय प्राप्त की गई है औरलोक सेवक पर तत्समय प्रवृत्त किसी विधि, नियम या आदेश के अधीन उसकी प्राप्ति की सूचना दे दी गई है।

2) कोई लोक सेवक जो आपराधिक अवचार करेगा ऐसे अवधि के कारावास सेदंडित किया जाएगा जो एक वर्ष से कम की नहीं होगी किन्तु जो सात वर्ष तक की हो सकेगी और जुर्माने से भी दंडनीय किया जाएगा।

धारा 15 प्रयत्न के लिए दंड[सम्पादन]

जो कोई धारा 13 की उपधारा 1 के खंड ग या खंड घ में वर्णित अपराध करने का प्रयत्न करता है वह तीन वर्ष की अवधि तक के हो सकने वाले कारावास से दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा।

धारा 16 – जुर्माना निर्धारण में विचारणीय विषय होंगे[सम्पादन]

जहाँ धारा 13 की उपधारा 2 या धारा 14 के अधीन अर्थदंड अधिरोपित किया जाना है तो दंड आदेश जारी करने वाला न्यायालय, उस सम्पति का मूल्य, यदि कोई है जिसे अभियुक्त व्यक्ति ने अपराध में उपार्जित किया है या जहां धारा 13 की उपधारा 1 के खंड ड़ में वर्णित अपराध के लिए सिध्ददोष होता है तो उस खंड में वर्णित अथवा धन संबंधी स्त्रोत जिसके संबंध में अभियुक्त समाधानप्रद विवरण नहीं दे सका , विचार में ले सकेगा।

धारा 17 – अन्वेषण के लिए प्राधिकृत व्यक्ति[सम्पादन]

दंड प्रक्रिया स॔हिता, 1973(1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी निम्न पंक्ति के नीचे का कोई भी पुलिस अधिकारी-

क. दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना की दशा में पुलिस निरीक्षक।

ख. बम्बई, कलकत्ता, मद्रास और अहमदाबाद तथा किसी अन्य मेट्रोपोलिटिन क्षेत्र में, जैसा कि दंड प्रक्रिया स॔हिता, 1973(1974 का 2) की धारा 8 की उपधारा 1 द्वारा अधिसूचना के क्षेत्र में, सहायक पुलिस आयुक्त।

ग. अन्यत्र उप –पुलिस अधीक्षक या इसके समकक्ष पद का अधिकार,

इस अधिनियम के अन्तर्गत दंडनीय किसी अपराध का अन्वेषण यथासिति मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट, या प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना अथवा उसके लिए कोई गिरफ्तारी वारंट के बिना नही करेगाः

परन्तु यदि पुलिस निरीक्षक की पँक्ति से अनिम्न कोई पुलिस अधिकारी साधारण या विशेष आदेश द्वारा इस निमित्त राज्य सरकार द्वारा प्राधिकृत हो तो वह ऐसे किसी अपराध का अन्वेषण, यथास्थिति मेट्रोपोलिटिन मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना अथवा उसके लिए गिरफ्तारी वारंट के बिना कर सकेगाः

परन्तु आगे यह भी कि धारा 13 की उपधारा 1 के खंड ड़ में निर्दिष्ट किसी अपराध का अन्वेषण ऐसे पुलिस अधिकारी के आदेश के बिना नही किया जाएगा जो पुलिस अधीक्षक की पंक्ति से अनिम्न हो।

धारा 18 – बैँककार, बहियों के अवलोकन का प्राधिकार[सम्पादन]

यदि प्राप्त जानकारी द्वारा या अन्यथा किसी पुलिस अधिकारी के पास किसी ऐसे अपराध के कारित होने के संदेह के कारण है, जिसका अन्वेषण करने के लिए वह धारा 17 के अधीन सशक्त है वह यह जानता है कि ऐसे अपराध का अन्वेषण या जांच करने के प्रयोजनों के लिए किन्ही बैंककार बहियों का निरीक्षण किया जाना समीचीन है तो तत्समय प्रवृत्त किसी विधि में किसी बात के होते हुए भी वह किन्ही बैंककार बहियों का वहां तक निरीक्षक कर सकेगा जहा तक कि वे उस व्यक्ति कॅ, जिसके द्वारा अपराध किए जाने का सन्देह या किसी अन्य व्यक्ति के जिसके द्वारा ऐसे व्यक्ति के लिए धन धारण किए जाने का संदेह है, लेखाओं से संबंधित है, और उसमें से सुसंगत प्रविष्टियों की प्रमाणित प्रतियां ले सकेगा या लेने का निदेश दे सकेगा तथा संबंधित बैंक उस पुलिस अधिकारी की, इस धारा के अधीन उसकी शक्तियों के प्रयोग में सहायता करने के लिए आबध्द होगाः

परन्तु किसी व्यक्ति की लेखाओं के संबंध में इस धारा के अधीन किसी शक्ति का प्रयोग पुलिस अधीक्षक से अनिम्न किसी पुलिस अधिकारी द्वारा नहीं किया जाएगा, जब तक कि पुलिस अधीक्षक की पंक्ति या उससे ऊपर के किसी पुलिस अधिकारी द्वारा इस निमित्त विशेष रूप से सशक्त न किया गया हो।

स्पष्टीकरण- इस उपधारा में बैंक और बैंककाए बही पदों के वे ही अर्थ होंगे जो उन्हे बैँककार बही अधिनियम, 1891 (1891 का 18) में दिए गए है।

धारा 19 – अभियोजन पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता[सम्पादन]

1) कोई न्यायालय धारा 7, 10, 11, 13, 15 के अधीन दंडनीय अपराध का संज्ञान जिसके संबंध में यह अधिकथित है कि वह लोक सेवक द्वारा किया गया है, निम्नलिखित की पूर्व स्वीकृति के बिना नही करेगा-

  • क. ऐसे व्यक्ति की दशा में जो संघ के मामलों के संबंध में नियोजित है और जो अपने पद से केनद्रीय सरकार द्वारा या उसकी मंजूरी से हटाए जाने के सिवाय नहीं हटाया जा सकता है, केन्द्रीय सरकार,
  • ख. ऐसे व्यक्ति की दशा में, जो राज्य के मामलों के संबंध में नियोजित है और जो अपने पद से राज्य सरकार द्वारा या उसकी मंजूरी से हटाए जाने के सिवाय नहीं हटाया जा सकता है, राज्य सरकार,
  • ग. किसी अन्य व्यक्ति की दशा में उसे उसके पद से हटाने के लिए सक्षम प्राधिकारी।

2) जहाँ किसी कारण से इस बाबत शंका उत्पन्न हो जाए, कि उपधारा 1 के अधीन अपेक्षित पूर्व मंजूरी केन्द्रीय या राज्य सरकार या किसी अन्य प्राधिकारी में से कुसके द्वारा दी जानी चाहिए वहां ऐसी मंजूरी उस सरकार या प्राधिकारी द्वारा दी जाएगी जो लोक सेवक को उसके पद से उस समय हटाने के लिए सक्षम था जिस समय अपराध किया जाना अभिकथित।

3) दंड प्रक्रिया स॔हिता, 1973(1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी-

  • क. उपधारा 1 के अधीन अपेक्षित मंजूरी में किसी अनियमितता, लोप या मंजूरी के कारण अपील न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण, पुष्टिकरण या अपील में, विशेष न्यायालय द्वारा पारितकोई निष्कर्ष, धँडादेश या आदेश तब तक परिवर्तित या उल्टा नहीं जाएगा, जब तक कि उस न्यायालय की राय में उसके कारण यथार्थ में न्याय नहीं हो सकाः
  • ख. इस अधिनियम के अधीन की किसी कार्यवाही को किसी न्यायालय द्वारा प्राधिकारी द्वारा दी गई मंजूरी में किसी अनियमितता या लोप या त्रुटि के कारण रोका नहीं जाएगा जब तक कि यह समाधान न हो जाए कि ऐसी अनियमितता, लोप या त्रुटि के परिणामस्वरूप न्याय नहीं हो सका है,
  • ग. इस अधिनियम के अधीन की किसी कार्यवाही, को किसी न्यायालय द्वारा किसी, अनय् आधारों पर रोका नहीं जाएगा और किसी न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण के अधिकारों का प्रयोग किसी जा॓च, सुनवाई अपील या अन्य कार्यवाही में पारितकिसी अन्तर्वती आदेश के संबंध में नहीं किया जाएगा।

4) उपधारा 3 के अधीन अवधारणों के लिए, कि ऐसी मंजूरी के अभाव या किसी अनियमितता, लोप या त्रुटि के कारण न्याय नहीं हो सका है, न्यायालय इन तथ्यों को विचार में लेगा की आपत्ति, किसी कार्यवाही के दौरान उठाई जा सकती थी और उठाई गई थी।

स्पष्टीकरण – इस धारा के प्रयोजनोँ के लिए –

क. “त्रुटि” में मंजूरी देने वाला प्राधिकारी की सक्षमता शामिल है;

ख. “अभियोजन के लिए अपेक्षित मंजूरी” में किस विहीत प्राधिकारी के आवेदन पर किया जाने वाला अभियोजन कि आवश्यकता का सन्दर्भ अथवा किसी विहीत व्यक्ति द्वारा दी गई मंजूरी या इसी प्रकृति की अन्य अपेक्षा सम्मिलित है।

टिप्पणियाँ[सम्पादन]

अभियोजन की मंजूरी – एल लोक सेवक के विरुद्ध अभियोजन के लिए मंजूरी प्राप्त की गई- धारा 19 के अधीन अभियोजन की मंजूरी विशिष्ट अभियुक्त के विरुद्ध स्वीकृत की जाती -अतः अन्य लोक सेवक को अभियुक्त के रुप में बुलाया जाना अनुज्ञेय नहीं है। दिलावर सिंह बनाम परविन्दर सिंह उर्फ इकबाल सिंह और अन्य ए. आई. आर 2006 एस. सी. 389।

अभियोजन की मंजूरी- राज्य सरकार का सचिव राज्यपाल के नाम से मंजूरी के आदेश को केवल अधिप्रमाणित करता है- धारा 74 के अधीन यह एक लोक दस्तावेज है और साक्ष्य अधिनियम की धारा 47 के अनुसार इसका सिध्द किया जाना नही चाहा जा सकता – उक्त आदेश की प्रामाणिकता पर भी प्रश्न नहीं किया जा सकता। राज्य बनाम नरसुम्हाचारी, ए आई. आर 2006 एस. सी 628।

मंजूरी- मंजूरी को स्वीकार या अस्वीकार करने का उचित ढंग एवं रीति- अभिनिर्धारित मंजूरी का आदेश समुचित प्राधिकारी द्वारा मस्तिष्क का प्रयोग करने के बाद दिया जाना चाहिये- इस पर विधि के एक सक्षम न्यायालय में प्रश्न किया जा सकता है यदि अभियुक्त द्वारा यह प्रदर्शित किया जाता है कि आदेश देते समय मस्तिष्क का उचित प्रयोग नहीं किया गया। रोमेश लाल जैन बनाम नागिन्दर सिंह राणा (2006) एस, सी, सी, 294।

धारा 20 – जहाँ लोक सेवक वैध पारिश्रमिक के भिन्न पारिश्रमिक ग्रहण करता है वहाँ उपधारणा[सम्पादन]

1) जहाँ धारा 7 या धारा 13 की उपधारा 1 के खंड क या खंड ख के अधीन दंडनीय अपराधों के विचारण में यह साबित कर दिया जाता है कि अभियुक्त व्यक्ति ने, किसी व्यक्ति से वैध वैध पारश्रमिक से भिन्न कोई परितोषण या कोई मूल्यवान वस्तु अपने लिए या किसी अन्य के लिए प्रतिगर्हीत या अभिप्राप्त की है या करने का प्रयत्न किया है या करने की सहमति द है वहा जब तक प्रतिकूल साबित न कर दिया जाए यह उपधारण की जाएगी कि उसने यथास्थिति, उस परितोषण या मूल्यवान वस्तु को ऐसे हेतु या ईनाम के रूप में, जैसा कि धारा 7 में वर्णित है, जिसका अपर्याप्त होना वह जानता है, प्रतिगृहीत या अभिप्राप्त किया है अथवा सहमत हुआ है या करने का प्रयत्न किया है।

2) जहाँ धारा 12, या धारा 14 के खंड ख के अधीन दंडनीय किसी अपराध के किसी विचारण में यहसा बित कर दिया जाता है कि अभियुक्त ने वैध पारिश्रमिक से भिन्न कोई पारितोषण या कोई मूल्यवान वस्तु दी हो या देने की स्थापना की हो या देने का प्रयत्न किया हो, वहाँ जब तक प्रतिकूल साबित न कर दिया जाए यह उपधारण की जाएगी कि उसने यथास्थिति, उस पारितोषण या मूल्यवान वस्तु को ऐसे ईनाम के रुप में जैसा कि धारा 7 में वर्णित है या, जैसी भी स्थिति हो प्रतिफल के बिना ऐसे प्रतिफल के लिए जिसका अपर्याप्त होना वह जानता है दिया है, देने की प्रस्थापना की है, या देने का प्रयत्न किया है।

3) उपधारा 1 और 2 में किसी बात के होते हुए भी न्यायालय उक्त अपराधों में निर्दिष्ट उपधारणा करने से इंकार कर सकेगा यदि पूर्वोक्त पारितोषण या वस्तु, उसकी राय में इतनी तुच्छ है कि भ्रष्टाचार का कोई निष्कर्ष उचित रूप से नहीँ निकाला जा सकता है।

टिप्पणियाँ[सम्पादन]

लागू होना- सुबह सबेरे परिवादी के घर पर दो आरक्षकों की उपस्थिति में रिश्वत दिया जाना अभिकथित किया गया- प्रथम सूचना रिपोर्ट दाखिल करने में चार घंटे का विलम्ब यद्यपि पुलिस थाना बहुत दूर नही था- अभियुक्त फौरन ही गिरफ्तार नही किया गया- उन दो आरक्षकों में से एक की जांच नहीं की गई – रूपयों के पार्सल को सीलबन्द करने के ढंग एवं रीति में विसंगति – अपीलार्थी संदेह का लाभ पाने का हकदार है और इसलिए दोषमुक्त – रिश्वत की माँग सिध्द नही- अभिनिर्धारित , धारा 20 लागू नहिं होगी- वर्तमान प्रकरण वह प्रकरण नहीं है जहाँ सिध्द करने का भार धारा 20 के अनुसार अभियुक्त पर होता है ओम प्रकाश बनाम हरियाणा राज्य ए. आई. आर. 2006 एस. सी. 894= (2006) 2 एस. सी. सी. 250 – 2006 (II) एम. पी. डब्ल्यु. एन. 1 (एस. सी)।

धारा 21 – अभियुक्त का सक्षम साक्षी होना[सम्पादन]

इस अधिनियम के अधीन दंडनीय अपराध से आरोपित कोइ व्यक्ति प्रतिरक्षा के लिए सक्षम होगा और वह अपने विरुद्ध या उसी विचारण में अपने साथ आरोपित किसी व्यक्ति के विरुद्ध किए गए आरोपों को ना साबित करने के लिए शपथ पर साक्ष्य दे सकेगा-

परन्तु-

क. साक्षी के रूप में वह अपनी प्रार्थना पर के सिवाय आहूत नही किया जाएगा।

ख. साक्ष्य देने में उसकी असफलता पर अभियोजन पक्ष कोई टीका टिप्पणी नही करेगा अथवा उससे उसके या उसी विचारण में उसके साथ आरोपित किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई उपधारणा उत्पनन नहीं होगी।

ग. कोई ऐसा प्रश्न जिसकी प्रकृति यह दर्शित करने की हॆ जिसे अपराध का आरोप उस पर लगाया गया हो, उससे भिन्न कोई अपराध उसने किया है या उसके लिए सिध्ददोष हो चुका है, या बुरे शील का उससे उस दशा में के सिवाय न पूछा जाएगा या पूछे जाने पर उसका उत्तर देने की अपेक्षा नहीं की जाएगी, जिसमें-

एक - इस बात का साक्ष्य कि उसने ऐसा अपराध किया है या उसके लिए वह सिध्ददोष हो चुका है या दर्शित करने के लिए ग्राह्य साक्ष्य हो कि वह उस अपराध जिसका आरोप उस पर लगाया गया है; या
दो – उसके स्वयं या अपने अभिभाषक द्वारा अभियोजन पक्ष से किसी साक्ष्य से अपना अच्छा चरित्र सिध्द करने की दृष्टि से प्रश्न पूछे है या चरित्र का साक्ष्य दिया अथवा प्रतिरक्षा का स्वरूप या संचालन इस प्रकार है कि उसमें अभियोजन बने या अभियोजन पक्ष वांछनि के अन्तर्गत , या
तीन - उसने उसी अपराध के आरोपित किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध साक्ष्य दिया है।

धारा 22 – दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 का कुछ उपांतरों के अध्यधीन लागू होना[सम्पादन]

दंड प्रक्रिया स॔हिता, 1973(1974 का 2) के संबंध में अधिनियम के अधीन दंडनीय अपराध के संबंध में किसी कार्य प्रभावी होने से ऐसे प्रभावी होंगे मानो-

क. धारा 243 की उपधारा 1 में ‘तब अभियुक्त से अपेक्षा की जाएगी’ शब्दों के लिए ‘तब अभियुक्त से अपेक्षा की जाएगी कि वह तुरन्त या इतने समय के भीतर जितना न्यायालय अनुज्ञात करे, उन व्यक्तियों की ( यदि कोई हो) जिनकी वह अपने साक्षियों के रूप में परीक्षा करना चाहता है, एक लिखित सूची दे, और तब उससे अपेक्षा की जाएगी’, शब्द स्थापित कर दिए गए हो।

ख. धारा 309 की उपधारा 2 के तीसरे परन्तुक के पश्चात निम्नलिखित परन्तुक अन्तःस्थापित कर दिया गया हो- यथा-

‘परन्तु यह भी कि कार्यवाही को केवल इस आधार पर स्थगित या मुल्तवी नहीं किया जाएगा कि कार्यवाही के एक पक्षकार द्वारा जाएगा कि कार्यवाही के एक पक्षकार द्वारा 397 के अधीन आवेदन दिया है’।

ग. धारा 317 की उपधारा 2 के पश्चात निम्नलिखित उपधारा अन्तःस्थापित कर दी गई हो, यथा – ‘उपधारा 1 या उपधारा 2 में विनिर्दिष्ट किसी बात के होते हुए भी न्यायाधीश यदि वह तिक समझता है तो, उसके द्वारा अभिलिखित किए जाने वाले कारणों के लिए अभियुक्त या उसके अभिभाषक की अनुपस्थिति में जांच या विचारण करने के लिए अग्रेसर हो सकेगा और किसी साक्षी के प्रति साक्ष्य की परीक्षा के लिए साक्षी को पुनःबुलाने के लिए अभियुक्त के अधिकार के अध्यधीन अभिलिखित कर सकेगा।

घ. धारा 379 की उपधारा 1 में स्पष्टीकरण के पहले निम्नलिखित परन्तुक अन्तःस्थापित कर दिया गया हो, अर्थात-

‘परन्तु’ जहाँ किसी न्यायालय द्वारा इस दारा के अधीन शक्तियों का प्रयोग ऐसी कार्यवाहियों के किसी एक पक्षकार द्वारा किए गए आवेदन पर किया जाता हो वहां न्यायालय कार्यवाही के अभिलेख को मामूली तौर पर-

क. दूसरे पक्षकार को इस बात का हेतुक दर्सित करने का अवसर दिए बिना नहीं मंगाएगा कि अभिलेख क्यों न मंगाया जाए, या
ख. उस दशा में नहीं मंगाएगा जिसमें समाधान हो जाता है कि कार्यवाही के अभिलेख की प्रमाणित प्रतियों से उसकी परीक्षा की जा सकती है।

धारा 23 – धारा 13 (1) के अधीन किसी अपराध के संबंध में आरोप की विशिष्टियां[सम्पादन]

दंड प्रक्रिया स॔हिता, 1973(1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी जब कोई अभियुक्त धारा 13 की उपधारा 1 खंड ग के अधीन किसी अपराध से आरोपित किया जाता है। तब आरोप से उस सम्पत्ति की, जिसके संबंध में उस अपराध का किया जाना अभिकथित है और उन तारीखों को जिनके मध्य में की, जिसके संबंध में उस अपराध का किया जाना अभिकथित है और उन तरीखों को जिनके मध्य में अपराध का किया जाना अभिकथित है विशिष्ट मदोँ या ठिक – ठिक तारीखो॔ को विनिर्दिष्ट किए बिना, वर्णित करना पर्यापत होगा और ऐसे विरचित आरोप को उक्त संहिता की धारा 219 के अर्थ में एक अपराध का आरोप समझा जाएगाः

परन्तु ऐसी प्रथम और अन्तिम तारीखोँ के मध्य का समय एक वर्ष से अधिक नहीं होगा।

धारा 24 – रिश्वत देने का अपने कथन पर अभियोजन न होना[सम्पादन]

तत्समय प्रवृत्त किसी विधि में किसी बात के होते हुए भी इस विधान की धारा 7 से 11 अथवा धारा 13 या धारा 15 के अधीन अपराध के लिए किसी लोक सेवक के विरुद्ध किसी कार्यवाही में किसी व्यक्ति के इस कथन से कि उस लोक सेवक को वैध पारिश्रमिक से भिन्न को पारितोषण या मूल्यवान चीज देने की प्रस्थापना की थी या प्रस्थापना करने के लिए सहमति दी थी ऐसे व्यक्ति के विरूद्ध धारा 12 के अधीन अभियोजन नहीं हो सकेगा।

धारा 25. थलसेना, जलसेना और वायुसेना अथवा अन्य विधि का प्रभावित न होना[सम्पादन]

1) इस अधिनियम की कोई बात, आर्मी अधिनियम, 1950 (1950 का 45), वायुसेना अधिनियम 1950 (1950 का 46), नेवी एक्टस, 1957 (1957 का 62) तट रक्षक अधिनियम 1978 (1978 का 30) सीमा सुरक्षा बल अधिनियम, 1968 (1968 का 47) एवं नेशनल सिक्युरिटी गार्ड अधिनियम, 1986 (1986 का 47) के अधीन की जाने वाली किसी कार्यवाही को या किसी न्यायालय अथवा प्राधिकारी की,उनके अधीन की अधिकारिता को प्रभावित नहीं करेगी।

2) सन्देह का निवारण करने केलिए, यह घोषित किया जाता है कि ऐसी विधि जैसा कि उपधारा 1में वणित है, के प्रयोजनों के लिए विशेष न्यायाधीश का न्यायालय साधारण दांडिक न्यायालय समझा जाएगा।

धारा 26. 1952 के अधिनियम क्रमांक 46 के अधीन नियुक्त विशेष न्यायाधीश का इस अधिनियम के अधीन भी विशेष न्यायाधीश होना- दंड विधि ( संशोधन) अधिनियम, 1952 के अधीन नियुक्त प्रत्येक विशेष न्यायाधीश, जो इस अधिनियम के प्रभावशील होने के समय, किसी क्षेत्र या क्षेत्रों के लिए ऐसा पद धारण किए हुए है, के स॔बंध में यह माना जाएगा कि वह उस क्षेत्र या क्षेत्रों के लिए इस अधिनियम की धारा 3 के अधीन नियुक्त विशेष न्यायाधीश है और उसके प्रभावशील होने पर और प्रभावशील होने के पश्चात ऐसा प्रत्येक न्यायाधीश, उसके समक्ष लम्बित समस्त कार्यवाहियों को इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार जारी रखेगा।

धारा 27- अपील एवं पुनरीक्षण[सम्पादन]

इस अधिनियम के प्रावधानों के अधीन रहते हुए, द॔ड प्रकिया संहिता 1973 (1974 का 2)द्वारा प्रदत्त अपील एवं पुनरीक्षण के अधिकार, उच्च न्यायालय द्वारा जहाँ तक संभव हो प्रयुक्त किए जाएंगे, और विशेष न्यायाधीश का न्यायालय, उस उच्च न्यायालय की स्थानीय अधिकारिता का सत्र न्यायाधीश समझा जाएगा।

धारा 28 – इस विधान का अन्य विधियों के परिवर्धन में होना[सम्पादन]

इस अधिनियम के प्रावधान, तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के परिवर्धन के लिए होंगे, न कि उसके अल्पीकरण के लिए और उसमें की कोई भी बात किसी लोक सेवक को उसके विरुद्ध इस अधिनियम की कार्यवाही के अतिरिक्त की जाने वाली किसी कार्यवाही से छूट प्रदान नहीं करेंगे।

धारा 29 – 1944 के अध्यादेश 38 का संशोधन[सम्पादन]

1944 के दंड विधि संशोधन अध्यादेश में-

क. धारा के दंड विधि संशोधन अध्यादेश में-

क. धारा 3 की उपधारा
दो. कंडिका 2 एवँ 4 –
क. शब्दों ‘कोई स्थानीय प्राधिकारी’ के पश्चात शब्दों और अंकों ‘या किसी केनद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम के द्वारा या तहत स्थापित कोई निगम, या सरकार द्वारा स्वामित्वधीन या नियंत्रणाधीन कोई प्राधिकरण या निकाय या कम्पनी अधिनियम, 1956 (1956 का1) की धारा 617 में यथा परिभाषित कोई शादकीय कंपन या ऐसे निगम, प्राधिकरण, निकाय या शासकीय कंपनी द्वारा सहायता प्राप्त कोई सोसाईटी’ अंतःस्थापित किए जाएंगे।
ख. शब्दों ‘या प्राधिकरण’ के पश्चात शब्द ‘या निगम या निकाय या शासकीय कँपनी या सोसायटी’ अंतःस्थापित किये जाएंगे;
तीन कंडिका 4- क के स्थान पर निम्न कंडिका प्रतिस्थापित की जाए,-
‘4- क. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अधीन दंडनीय कोई अपराध’
चार. कंडिका 5 में शब्दों और अंकों , मद 2, 3 और 4 के स्थान पर शब्द और अंक ‘मद 2, ,3 4 और 4-क ’ प्रतिस्थापित किए जाएं।