मध्यकालीन भारत/मुग़ल वंश

विकिपुस्तक से

भारत में मुगल राजवंश महानतम शासनकाल में से एक था। मुगल शासकों ने हज़ारों लाखों लोगों पर शासन किया। भारत एक नियम के तहत एकत्र हो गया और यहां विभिन्न प्रकार की सांस्कृतिक और राजनैतिक समय अवधि मुगल शासन के दौरान देखी गई। पूरे भारत में अनेक मुस्लिम और हिन्दु राजवंश टूटे, और उसके बाद मुगल राजवंश के संस्थापक यहाँ आए। बाबर, जो महान एशियाई विजेता तैमूर लंग का पोता था। १५०४ ई.काबुल तथा १५०७ ई. में कंधार को जीता था तथा बादशाह (शाहों का शाह) की उपाधि धारण की १५१९ से १५२६ ई. तक भारत पर उसने ५ बार आक्रमण किया तथा सफल हुआ १५२६ में जब उसने पानीपत के मैदान में दिल्ली सल्तनत के अंतिम सुल्तान "इब्राहिम लोदी"(लोदी वंश) को हराकर "मुगल वंश" की नींव रखी।[१]

मुग़ल सम्राटों का कालक्रम[सम्पादन]

बहादुर शाह द्वितीयअकबर शाह द्वितीयअली गौहरमुही-उल-मिल्लतअज़ीज़ुद्दीनअहमद शाह बहादुररोशन अख्तर बहादुररफी उद-दौलतरफी उल-दर्जतफर्रुख्शियारजहांदार शाहबहादुर शाह प्रथमऔरंगज़ेबशाह जहाँजहांगीरअकबरइस्लाम शाह सूरीशेर शाह सूरीबाबर



बाबर (१५२६-१५३०)[सम्पादन]

बाबर

परिचय और पानीपत का युद्ध[सम्पादन]

पानीपत का युद्ध (१५२६)

बाबर तैमूर लंग का पौत्र था और विश्वास रखता था कि चंगेज़ ख़ान उनके वंश का पूर्वज था। बाबर भारत में प्रथम मुगल शासक थे। उसने दिल्ली पर फिर से तैमूरवंशियों की स्थापना के लिए १५२६ में पानीपत के प्रथम युद्ध के दौरान इब्राहिम लोदी के साथ संघर्ष कर उसे पराजित किया और इस प्रकार मुगल राजवंश की स्थापना हुई।[२]

खानवा का युद्ध[सम्पादन]

राणा सांगा

राणा सांगा के नेतृत्व में राजपूत काफी शक्तिशाली बन चुके थे। राजपूतों ने एक बड़ा-सा क्षेत्र स्वतंत्र कर दिल्ली की सत्ता पर काबिज़ होने की चाहत दिखाई। बाबर की सेना राजपूतों की आधी भी नहीं थी। १७ मार्च १५२७ में खानवा की लड़ाई राजपूतों तथा बाबर की सेना के बीच लड़ी गई। इस युद्ध में राणा सांगा के साथ मुस्लिम यदुवंशी राजपूत उस वक़्त के मेवात के शासक खानजादा राजा हसन खान मेवाती और इब्राहिम लोदी के भाई मेहमूद लोदी थे। इस युद्ध में मारवाड़, अम्बर, ग्वालियर, अजमेर, बसीन चंदेरी भी मेवाड़ का साथ दे रहे थे। राजपूतों का जीतना निश्चित था पर राणा सांगा के घायल होने पर घायल अवस्था मे उनके साथियो ने उन्हें युद्ध से बाहर कर दिया और एक आसान-सी लग रही जीत उसके हाथों से निकल गई। बाबर ने युद्ध के दौरान अपने सैनिकों के उत्साह को बढ़ाने के लिए शराब पीने और बेचने पर प्रतिबन्ध की घोषणा कर शराब के सभी पात्रों को तुड़वा कर शराब न पीने की कसम ली। उसने मुस्लिमों से "तमगा कर" न लेने की भी घोषणा की। तमगा एक प्रकार का व्यापारिक कर था, जो राज्य द्वारा लिया जाता था।

खानवा का युद्ध

बाबर २०,०००० मुग़ल सैनिकों को लेकर साँगा से युद्ध करने उतरा था। उसने साँगा की सेना के लोदी सेनापति को प्रलोभन दिया, जिससे वह साँगा को धोखा देकर सेना सहित बाबर से जा मिला। बाबर और साँगा की पहली मुठभेड़ बयाना में और दूसरी खानवा नामक स्थान पर हुई। इस तरह 'खानवा के युद्ध' में भी पानीपत युद्ध की रणनीति का उपयोग करके बाबर ने राणा साँगा के विरुद्ध एक सफल युद्ध की रणनीति तय की।

इसके एक साल के बाद राणा सांगा की ३० जनवरी १५२८ में मृत्यु हो गई। इसके बाद बाबर दिल्ली की गद्दी का अविवादित अधिकारी बना। उसके इस‌ विजय ने मुगल वंश को भारत की सत्ता पर ३३१ सालों तक राज करवाया। इस‌ युद्ध के बाद बाबर ने गाजी(दानी) की उपाधि ली थी और जेहाद का नारा भी दिया था।[३][४]

चंदेरी का युद्ध[सम्पादन]

चन्देरी दुर्ग
१५२८ चंदेरी का युद्ध

मेवाड़ विजय के बाद बाबर ने अपनी सैना को विद्रोहियों का दमन करने पूर्व में भेजा क्योंकि अफ़गानों का स्वागत और समर्थन बंगाल के शासक नुसरत ने किया था। इस लाभ के कारण अफ़ग़ानों ने अनेक स्थानों से मुगलों को निकाल दिया था। बाबर अफ़ग़ान विद्रोहियों के दमन के लिए चंदेरी पर आक्रमण करने का निश्चिय कर लिया। चंदेरी के राजपूत शासक मेदनी राय ने खानवा के युद्ध में राणा सांगा का साथ दिया था और अब चंदेरी मैं राजपूत सत्ता का पुनर्गठन भी होने लगा था। चंदेरी पर आक्रमण करने का निश्चय बताता है कि बाबर की दृष्टि में राजपूत संगठन अफ़गानों की अपेक्षा अधिक गंभीर था अतः वह मुगल शासन के लिए राजपूत शक्ति को नष्ट करना अधिक आवश्यक समझता था। चंदेरी का अपना एक अलग ही व्यापारिक तथा सैनिक महत्व था वह मालवा तथा राजपूताने में प्रवेश करने के लिए सबसे उचित स्थान था। बाबर की चंदेरी पर आक्रमण करने गयी सेना राजपूतों द्वारा पराजित हो गयी थी। इस कारण बाबर स्वयं युद्ध के लिए गया क्योंकि यह संभव है कि चंदेरी राजपूत शक्ति का केंद्र बन जाए। उसने चंदेरी के विरुद्ध लड़ने के लिए २१ जनवरी १५२८ की तारीख चुनी क्योंकि उसे चंदेरी की मुस्लिम जनता का बड़ी संख्या में समर्थन प्राप्त होने की आशा थी और जिहाद के द्वारा राजपूतों तथा इन मुस्लिमों का सहयोग रोका जा सकता था। उसने मेदनी राय के पास शांति पूर्ण रूप से चंदेरी को समर्पण कर देने का संदेश भेजा और शमशाबाद की जागीर दी जाने की शर्त रखी। मेदनी राय ने प्रस्ताव टुकड़ा दिया। राजपूतों ने भयंकर संग्राम लड़ा और राजपूती वीरांगनाओं ने जौहर किया। विजय के बाद बाबर ने चंदेरी का राज्य मालवा सुल्तान के वंशज अहमद शाह को दे दिया और उसे आदेश दिया कि वह २० लाख दाम प्रति वर्ष शाही कोष में जमा करते रहे।[५][६]

घाघरा का युद्ध[सम्पादन]

घाघरा नदी का क्षेत्र

भारत पर राज करने का सपना मुगलों से पहले अफगानियों ने देखा था। सुल्तान महमूद गजनवी पहला अफ़ग़ान सुल्तान था। बाबर ने ध्यान दिया कि महमूद लोदी बिहार लगातार गया और उसने एक लाख सैनिक एकत्रित कर लिया। बाबर जानता था कि यदि आगरा पर अफ़गानियों का राज हो गया, तो दिल्ली का तख्त पलट करने में उन्हें ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।

चंदेरी के युद्ध के बाद बाबर ने अवध की तरफ रूख किया। इस ख़बर ने अफगानियों मुश्किल में डाल दी। विद्रोहियों के मुखिया अफ़ग़ान नेता बिब्बन ने अवध से भागकर बंगाल में शरण ली। उसके भागते ही बाबर ने लखनऊ को जीत लिया। वहीं दूसरी ओर अफ़गानियों ने बिहार के बाद बनारस और फिर चुनार तक अपनी पहुँच बना ली। इसके बाद बाबर ने लखनऊ से निकलकर बिहार का रूख किया। बाबर यह जान गया था कि बंगाल शासक नुसरत शाह महमूद लोदी की मदद कर रहा है, इसलिए बाबर ने उसे संदेश भिजवाया कि अफगानियों की मदद न करे पर उसने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया फिर बाबर ने बिहार के घाघरा नदी के किनारे अफ़ग़ानों को युद्ध के लिए ललकारा। जंग में महमूद लोदी ने भी हिस्सा लिया था क्योंकि उसे लगा था कि पानीपत और खनवा के बाद चंदेरी युद्ध करते हुए बाबर की हिम्मत जवाब दे गई होगी, वह थक गया होगा और उसे हराना मुश्किल नहीं होगा इसलिए वह बिना किसी बड़ी तैयारी के ही इस जंग में कूद गया। वहीं अफगानियों की आंखों में बदले की आग भरी थी, लेकिन उनकी सेना कमजोर पर गयी। इस कारण अफगानियों ने अपनी जान बचाने के लिए घाघरा नदी में उतर जाना बेहतर समझा, लेकिन बाबर सेना ने वहाँ भी उनका पीछा नही छोड़ा। सैनिकों ने नाव पर युद्ध लड़ा और देखते ही देखते ‘घाघरा की जमीन और पानी’ दोनों सैनिकों के रक्त से लहू लूहान हो गयी। बाबर ने गंगा नदी पार करके घाघरा नदी के पास अफ़गानों से घमासान युद्ध किया। साथ ही बाबर ने नुसरत शाह को फिर से प्रस्ताव भेजा कि अफ़ग़ानों की मदद ना करे। इस‌ बार बाबर की शक्ति के आगे वह डर गया और उसने संधि की जिसके अनुसार बंगाल बाबर के किसी भी दुश्मन को राज्य में पनाह नहीं देने देगा इसके बदले बाबर बंगाल पर हमला नहीं करेगा और महमूद बंगाल में ही रहेगा और उसे बंगाल में ही जागीर दे दी जाएगी।

बाबर ने अफ़ग़ान जलाल खान(बिहार का शासक) को अपने अधीन किया और उसे आदेश दिया कि वह शेर खाँ को अपना मंत्री रखें। इसके बाद अफगानियों ने बाबर की अधीनता को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया

हम कह सकते हैं कि बाबर ने १५२९ में महमूद लोदी(अफ़ग़ानी) के साथ घाघरा के युद्ध में आगरा जीतकर अपने राज्य को सफल बना दिया।

घाघरा का यह‌ युद्ध ज़मीन और पानी पर लड़ा जाने वाला ऐतिहासिक युद्ध के रूप में याद किया जाता है।[७]

जीवनी और मृत्यु[सम्पादन]

बाबर और हुमायूँ
काबुल में बाबर का मक़बरा

बाबर की मृत्यु १५३० ई० में हो गई। मान्यता है कि हुमायूँ के बिमार होने पर बाबर ने अल्लाह से दुआ मांगी कि हुमायूँ स्वस्थ हो जायें और हुमायूँ के कष्ट उसे मिल जाए। इसके बाद हुमायूँ तो स्वस्थ हो गया किन्तु बाबर‌ मारा गया। उसने चगताई में बाबरनामा के नाम से अपनी जीवनी लिखी।[८][९]

हुमायूँ (१५३०-१५४० और १५५५-१५५६)[सम्पादन]

हुमायूँ
हुमायूँ की पत्नी हमीदा बानो बेगम

हुमायूँ बाबर का सबसे बड़ा बेटा था और मुगल राजवंश का द्वितीय शासक था। बाबर की मृत्यु के पश्चात हुमायूँ ने १५३० में भारत की राजगद्दी संभाली और उनके सौतेले भाई कामरान मिर्ज़ा ने काबुल और लाहौर का शासन ले लिया। बाबर ने मरने से पहले ही इस तरह से राज्य को बाँटा ताकि आगे चल कर दोनों भाइयों में लड़ाई न हो। कामरान आगे जाकर हुमायूँ के कड़े प्रतिद्वंदी बने। हुमायूँ का शासन अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और उत्तर भारत के हिस्सों पर १५३०-१५४० और फिर १५५५-१५५६ तक रहा।[१०]उसने लगभग १ दशक तक भारत पर शासन किया किन्तु फिर उसे अफगानी शासक शेर शाह सूरी ने पराजित किया। सन् १५३९ में, हुमायूँ को चौसा की लड़ाई में शेर शाह का सामना करना पड़ा जिसे शेरशाह ने जीत लिया। १५४० ई. में बिलग्राम युद्ध में शेरशाह ने हुमायूँ को पुनः हराकर भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया और शेर खान की उपाधि लेकर सम्पूर्ण उत्तर भारत पर अपना साम्रज्य स्थापित कर दिया। हुमायूँ अपनी पराजय के बाद लगभग १५ वर्ष तक भटकता रहा।

दिल्ली में हुमायूँ का मक़बरा

इस बीच शेर शाह की मौत हो गई और हुमायूं उसके उत्तरवर्ती सिकंदर सूरी को पराजित करने में सक्षम रहा तथा दोबारा हिन्दुस्तान का राज्य प्राप्त कर सका। जबकि इसके कुछ ही समय बाद केवल ४८ वर्ष की उम्र में पुस्तकालय की सीढ़ी से गिर कर १५५६ में उसकी मौत हो गई। हुमायूँ की जीवनी का नाम हुमायूँनामा है जो उनकी बहन गुलबदन बेग़म ने लिखी है।[११][१२]

"जयशंकर प्रसाद जी" ने अपनी कहानी ममता में चित्रित किया है कि शरणार्थी हुमायूँ ने रोहतास-दुर्गपति के मंत्री चूड़ा-मणि की अकेली दुहिता ममता के यहाँ शरण ली थी।[१३]

शेर शाह सूरी (१५४०-१५४५)[सम्पादन]

शेर शाह सूरी का बचपन का नाम "फ़रीद खाँ" था। बचपन में एक शेर को मारने के कारण उसका नाम शेर शाह पड़ा। शेर शाह सूरी एक अफ़ग़ानी नेता था, जिसने १५४० में हुमायूँ को पराजित कर मुगल शासन पर विजय पाई। शेर शाह ने अधिक से अधिक ५ वर्ष तक दिल्ली के तख्त पर राज किया और वह इस उप-महाद्वीप में अपने अधिकार क्षेत्र को स्थापित नहीं कर सका। एक राजा के तौर पर उसके खाते में अनेक उपलब्धियों का श्रेय जाता है। उसने एक दक्ष लोक प्रशासन की स्थापना की। उसने भूमि के माप के आधार पर राजस्व संग्रह की एक प्रणाली स्थापित की। उसके राज्य में आम आदमी को न्याय मिला। अनेक लोक कार्य उसके अल्प अवधि के शासन कार्य में कराए गए जैसे कि पेड़ लगाना, यात्रियों के लिए कुंए और सरायों का निर्माण कराया गया, सड़कें बनाई गई, मुद्रा को बदल कर छोटी रकम के चांदी के सिक्के बनवाए गए, जिन्हें दाम कहते थे। यद्यपि शेर शाह तख्त पर बैठने के बाद अधिक समय जीवित नहीं रहा और २२ मई १५४५ में चंदेल राजपूतों के खिलाफ लड़ते हुए शेरशाह सूरी की कालिंजर किले की घेराबंदी की, जहां उक्का नामक आग्नेयास्त्र से निकले गोले के फटने से उसकी मौत हो गयी।

सासाराम में शेर शाह का मक़बरा

१५४०-१५४५ के अपने पांच साल के शासन के दौरान उन्होंने नयी नगरीय और सैन्य प्रशासन की स्थापना की, पहला रुपया जारी किया है, भारत की डाक व्यवस्था को पुनः संगठित किया और अफ़गानिस्तान में काबुल से लेकर बांग्लादेश के चटगांव तक ग्रांड ट्रंक रोड को बढ़ाया। साम्राज्य के उसके पुनर्गठन ने बाद में मुगल सम्राटों के लिए एक मजबूत नीव रखी विशेषकर हुमायूँ के बेटे अकबर के लिये।[१४][१५]

रोहितास किला[सम्पादन]

रोहितास किला

रोहितास किले का निर्माण शेरशाह ने मुगल सम्राट हुमायूँ के अग्रिमों को अवरुद्ध करने के लिए किया था, जिन्हें कन्नौज के युद्ध में अपनी हार के बाद फारस में निर्वासित कर दिया गया था। यह पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के झेलम शहर के पास स्थित है। १९९७ में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर घोषित कर दिया है।[१६]

अकबर (१५५६-१६०५)[सम्पादन]

प्रारंभिक जीवन[सम्पादन]

अकबर

हुमायूँ के उत्तराधिकारी, अकबर का जन्म निर्वासन के दौरान राजपूत शासक राणा अमरसाल के महल अमरकोट, सिंध (वर्तमान पाकिस्तान) में २३ नवंबर, १५४२ (हिजरी अनुसार रज्जब, ९४९ के चौथे दिन) हुआ था। यहां बादशाह हुमायुं अपनी हाल की विवाहिता बेगम हमीदा बानो बेगम के साथ शरण लिये हुए थे। हुमायूँ को पश्तून नेता शेरशाह सूरी के कारण फारस में अज्ञातवास बिताना पड़ रहा था किन्तु अकबर को वह अपने संग नहीं ले गया वरन रीवां (वर्तमान मध्य प्रदेश) के राज्य के एक ग्राम मुकुंदपुर में छोड़ दिया था। अकबर की वहां के राजकुमार राम सिंह प्रथम से, जो आगे चलकर रीवां का राजा बना, के संग गहरी मित्रता हो गयी थी। ये एक साथ ही पले और बढ़े और आजीवन मित्र रहे। कालांतर में अकबर सफ़ावी साम्राज्य (वर्तमान अफ़गानिस्तान का भाग) में अपने एक चाचा मिर्ज़ा अस्कारी के यहां रहने लगा। पहले वह कुछ दिनों कंधार में और फिर १५४५ से काबुल में रहा। हुमायूँ की अपने छोटे भाइयों से बराबर ठनी ही रही इसलिये चाचा लोगों के यहाँ अकबर की स्थिति बंदी से कुछ ही अच्छी थी। खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिये अकबर के पिता हुमायूँ के अनवरत प्रयत्न अंततः सफल हुए और वह सन्‌ १५५५ में हिंदुस्तान पहुँच सका किंतु अगले ही वर्ष सन्‌ १५५६ में राजधानी दिल्ली में उसकी मृत्यु हो गई और गुरदासपुर के कलनौर नामक स्थान पर १४ वर्ष की आयु में अकबर का राजतिलक हुआ। अकबर का संरक्षक बैराम खान को नियुक्त किया गया जिसका प्रभाव उस पर १५६० तक रहा। जब अकबर केवल १३ वर्ष का था तब उसके पिता की मौत हो गई।[१७][१८]

पानीपत का द्वितीय युद्ध[सम्पादन]

हेमू

५ नवम्बर १५५६ को 'राजा विक्रमादित्य' अथवा विक्रमाजीत (हेमू) के साथ अकबर तथा बैरम खाँ का पानीपत के ऐतिहासिक युद्धक्षेत्र में युद्ध प्रारम्भ हुआ। इतिहास में यह युद्ध 'पानीपत के दूसरे युद्ध' के नाम से प्रसिद्ध है। हेमू की सेना संख्या में अधिक थी तथा उसका तोपखाना भी अच्छा था किन्तु एक तीर उसकी आँख में लग जाने से वह बेहोश हो गया। इसपर उसकी सेना तितर-बितर हो गई। हेमू को पकड़कर अकबर के सम्मुख लाया गया और बैरम खाँ के आदेश से मार डाला गया।[१९][२०]

हल्दीघाटी का युद्ध[सम्पादन]

महाराणा प्रताप

१५६८ में चित्तौड़गढ़ की विकट घेराबंदी के कारण मेवाड़ की उपजाऊ पूर्वी बेल्ट को मुगलों ने आक्रमण कर जीत लिया था किन्तु बाकी जंगल और पहाड़ी राज्य अभी भी राणा के नियंत्रण में थे। मेवाड़ के जरिए अकबर गुजरात के लिए एक स्थिर मार्ग हासिल करना चाहता था। १५७२ में प्रताप सिंह राजा (राणा) बनें। इसके बाद अकबर ने उन्हें जागीरदार बनाने के लिए अपने दूतों(जलाल खान कुरची, अम्बर, राजा भगवंत दास) को वहाँ भेजा। राणा ने अकबर को व्यक्तिगत रूप से प्रस्तुत होने से इनकार कर दिया, अकबर ने फिर राजा मान सिंह को राणा प्रताप के पास भेजा परन्तु राणा प्रताप ने मान सिंह के प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया। इसके बाद अकबर ने युद्ध से ही मेवाड़ जीतना जरूरी समझा। राजस्थान के गोगुन्दा के पास हल्दीघाटी (एक संकरा पहाड़ी दर्रा) को युद्धक्षेत्र चुना गया था। महाराणा प्रताप लगभग ३,००० घुड़सवारों और ४०० भील धनुर्धारियों के साथ मैदान में उतरे। युद्ध में भील सेना के सरदार राणा पूंजा भील बने थे। युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे:-हकीम खाँ सूरी। मुगलों का नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह ने किया था, जिन्होंने लगभग ५,०००-१०,००० लोगों की सेना की कमान संभाली थी।[२१][२२][२३]

राजा मान सिंह
हल्दीघाटी युद्ध का चित्र

तीन घंटे के भीषण युद्ध के बाद मेवाड़ी सेना के लगभग १,६०० सैनिको की म्रत्यु हो गई, जबकि मुगल सेना के करीब १५० सिपाही मारे गए और ३५० घायल हुए फिर भी राजपूतों ने गज़ब का शौर्य दिखाया और डटकर मुगलों का सामना करते रहें। युद्ध में राणा के घोड़े चेतक ने भी कमाल का शौर्य दिखाया।

युद्ध में बुरी तरह घायल हो जाने पर भी महाराणा प्रताप को सुरक्षित रणभूमि से निकाल लाने में सफल होकर वह वीरगति को प्राप्त हुआ। हिंदी कवि "श्याम नारायण पाण्डेय" द्वारा रचित प्रसिद्ध महाकाव्य "हल्दी घाटी" में चेतक के पराक्रम एवं उसकी स्वामिभक्ति की मार्मिक कथा वर्णित है:-

चेतक कविता[सम्पादन]

महाराणा प्रताप और चेतक का स्मारक
रणबीच चौकड़ी भर-भर कर
चेतक बन गया निराला था
राणाप्रताप के घोड़े से
पड़ गया हवा का पाला था
जो तनिक हवा से बाग हिली
लेकर सवार उड़ जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं
तब तक चेतक मुड़ जाता था
गिरता न कभी चेतक तन पर
राणाप्रताप का कोड़ा था
वह दौड़ रहा अरिमस्तक पर
वह आसमान का घोड़ा था
था यहीं रहा अब यहाँ नहीं
वह वहीं रहा था यहाँ नहीं
थी जगह न कोई जहाँ नहीं
किस अरि मस्तक पर कहाँ नहीं
निर्भीक गया वह ढालों में
सरपट दौडा करबालों में
फँस गया शत्रु की चालों में
बढ़ते नद सा वह लहर गया
फिर गया गया फिर ठहर गया
विकराल वज्रमय बादल सा
अरि की सेना पर घहर गया।
भाला गिर गया गिरा निशंग
हय टापों से खन गया अंग
बैरी समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग

[२४]

राज्य विस्तार[सम्पादन]

मुगल ध्वज

दिल्ली पर पुनः अधिकार जमाने के बाद अकबर ने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया और मालवा को १५६२ में, गुजरात को १५७२ में, बंगाल को १५७४ में, काबुल को १५८१ में, कश्मीर को १५८६ में और खानदेश को १६०१ में मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया।[२५]

उपलब्धियाँ और रणनीति[सम्पादन]

अकबर को इतिहास में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है। अकबर को अकबर-ऐ-आज़म (अर्थात अकबर महान), शहंशाह अकबर, महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है। वह एक मात्र ऐसा शासक था जिसने मुगल साम्राज्य की नींव को संपुष्ट बनाया। लगातार विजय पाने के बाद उसने भारत के अधिकांश भाग को अपने अधीन कर लिया। उसका प्रभाव लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर था और इस क्षेत्र के एक बड़े भूभाग पर सम्राट के रूप में उसने शासन किया। जो हिस्से उसके शासन में शामिल नहीं थे, उन्हें सहायक भाग घोषित किया गया। उसने राजपूतों के प्रति भी उदारवादी नीति अपनाई, राजपूत कन्याओं से विवाह किया और इस प्रकार उनसे खतरे को कम किया।

मरियम उज़-ज़मानी जोधा बेगम साहिबा(जोधा बाई)

अकबर ने अपने दरबार में कई हिन्दूओं को राजसी पदों पर नियुक्त किया और की हिन्दू स्त्री से उसने विवाह भी रचाया अकबर न केवल एक महान विजेता था बल्कि वह एक सक्षम संगठनकर्ता एवं एक महान प्रशासक भी था। उसने ऐसे संस्थानों की स्थापना की जो एक प्रशासनिक प्रणाली की नींव सिद्ध हुए, जिन्हें ब्रिटिश कालीन भारत में भी प्रचालित किया गया था। अकबर के शासन काल में गैर मुस्लिमों के प्रति उसकी उदारवादी नीतियों, उसके धार्मिक नवाचार, भूमि राजस्व प्रणाली और उसकी प्रसिद्ध मनसबदारी प्रथा के कारण उसकी स्थिति मुगल बादशाहों में श्रेष्ठ है। अकबर की मनसबदारी प्रथा मुगल सैन्य संगठन और नागरिक प्रशासन का आधार बनी।[२६][२७]

दीन-ए-इलाही[सम्पादन]

इबादत खाना में दीन-ए-इलाही पर चर्चा

उसने हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की। इस धर्म में उसने हिंदू या मुस्लिम जाति को श्रेष्ठ ना बता कर इश्वर धर्म को श्रेष्ठ माना इसी कारण अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला जज़िया कर समाप्त किया। सभी धर्मो के मूल तत्वों को उसने दीन-ए-इलाही में डाला, इसमे प्रमुखतः हिंदू एवं इस्लाम धर्म के साथ पारसी, जैन एवं ईसाई धर्म के मूल विचारों भी सम्मिलित थें। अकबर के अलावा केवल राजा बीरबल ही मृत्यु तक इसके अनुयायी बने रहे थे।

अकबर के समकालीन चाँदी की मुद्रा

अकबर ने सिक्कों के पीछे "अल्लाह-ओ-अकबर" लिखवाया जो केवल मुस्लिम से संबंधित ना होकर अनेकार्थी शब्द था।[२८][२९][३०]

सुलह-ए-कुल[सम्पादन]

र्वधर्म मैत्री सुलह-ए-कुल सूफियों का मूल सिद्धांत रहा है। प्रसिद्ध सूफी शायर रूमी के पास एक व्यक्ति आया और कहने लगा- एक मुसलमान एक ईसाई से सहमत नहीं होता और ईसाई यहूदी से। फिर आप सभी धर्मो से कैसे सहमत हैं? रूमी ने हंसकर जवाब दिया- मैं आपसे भी सहमत हूं। सूफी संत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने सुलह-ए-कुल का सिद्धांत दिया, जिसे अकबर ने प्रतिपादित किया।[३१][३२]

इबादत खाना[सम्पादन]

इबादत खाना

विभिन्न धर्मगुरुओं एवं प्रचारकों से धार्मिक चर्चाएँ करने के लिए अकबर ने दरबार में एक विशेष जगह बनवाई थी, जिसे इबादत-खाना (प्रार्थना-स्थल) कहा जाता था। अकबर को अपने धर्म के अलावा हिन्दू, शिया मुस्लिम, तुर्की, पुर्तगाली आदि से भी लगाव था।[३३]

कला रुचि[सम्पादन]

बुलन्द दरवाजा[३४][३५][३६]

उसने चित्रकारी आदि ललित कलाओं में काफ़ी रुचि दिखाई और उसके प्रासाद की भित्तियाँ सुंदर चित्रों व नमूनों से भरी पड़ी थीं। मुगल चित्रकारी का विकास करने के साथ साथ ही उसने यूरोपीय शैली का भी स्वागत किया। उसे साहित्य में भी रुचि थी और उसने अनेक संस्कृत पाण्डुलिपियों व ग्रन्थों का फारसी में तथा फारसी ग्रन्थों का संस्कृत व हिन्दी में अनुवाद भी करवाया था। अनेक फारसी संस्कृति से जुड़े चित्रों को अपने दरबार की दीवारों पर भी बनवाया।

कामुकता का आरोप[सम्पादन]

कई इतिहासकारों ने अकबर को स्त्रियों का शोषण करने वाला एक कामुक व्यक्ति बताया है तत्कालीन समाज में वेश्यावृति को सम्राट का संरक्षण प्रदान था। उसकी एक बहुत बड़ी हरम थी जिसमे बहुत सी स्त्रियाँ थीं। इनमें अधिकांश स्त्रियों को बलपूर्वक अपहृत करवा कर वहां रखा हुआ था। उस समय में सती प्रथा भी जोरों पर थी। तब कहा जाता है कि अकबर के कुछ लोग जिस सुन्दर स्त्री को सती होते देखते थे, बलपूर्वक जाकर सती होने से रोक देते व उसे सम्राट की आज्ञा बताते तथा उस स्त्री को हरम में डाल दिया जाता था। उसके दरबार के इतिहासकारों ने इस बारे में लिखा है कि अकबर इस तरह से सती होने वाली स्त्रियों की रक्षा करता था। अपने जीवनी में अकबर ने कहा है:-"यदि मुझे पहले ही यह बुधिमत्ता जागृत हो जाती तो मैं अपनी सल्तनत की किसी भी स्त्री का अपहरण कर अपने हरम में नहीं लाता।"[३७]

रानी दुर्गावती

अकबर अपनी प्रजा को बाध्य किया करता था की वह अपने घर की स्त्रियों का नग्न प्रदर्शन सामूहिक रूप से आयोजित करे जिसे अकबर ने खुदारोज (प्रमोद दिवस) नाम दिया हुआ था। इस उत्सव के पीछे अकबर का एकमात्र उदेश्य सुन्दरियों को अपने हरम के लिए चुनना था। 'गोंडवाना' की रानी 'दुर्गावती' पर भी अकबर की कुदृष्टि थी। जब उसने उसे पाने के लिए उसके राज्य को पराजित किया तो 'दुर्गावती' ने आत्महत्या कर ली।[३८][३९][३९]सम्पूर्ण कहानी पढ़ने के लिए आप देख सकते हैं:-

(रानी दुर्गावती)

ज्वालामुखी मंदिर की घटना[सम्पादन]

ज्वालामुखी मंदिर

ज्वालामुखी मंदिर के संबंध में एक कथा काफी प्रचलित है। यह १५४२ से १६०५ के मध्य की ही कहानी है जब अकबर दिल्ली का राजा था। "ध्यानुभक्त" माता जोतावाली का परम भक्त था। एक बार जब वह देवी के दर्शन के लिए अपने गांववासियों के साथ ज्वालाजी के दर्शन लिए निकला। उसका काफिला दिल्ली से गुजरा तो मुगल बादशाह अकबर के सिपाहियों ने उसे रोक लिया और राजा अकबर के दरबार में पेश किया। अकबर ने जब ध्यानु से पूछा कि वह अपने गांववासियों के साथ कहाँ जा रहा है तो उत्तर में ध्यानु ने कहा वह जोतावाली के दर्शन के लिए जा रहा है। अकबर ने माँ की शक्ति पर प्रश्न किया? तब ध्यानु ने कहा वह तो पूरे संसार की रक्षक। ऐसा कोई भी कार्य नही है जो वह नहीं कर सकती है। अकबर ने ध्यानु के घोड़े का सर यह कह कर कटवा दिया कि अगर तेरी माँ में शक्ति है तो घोड़े के सर को जोड़कर उसे जीवित कर के दिखायें। यह सुनते ही ध्यानु देवी की स्तुति करने लगा और अपना सिर काट कर माता को भेट के रूप में प्रदान किया। माता की शक्ति से घोड़े का सर जुड़ गया और अकबर को देवी की शक्ति का एहसास हुआ। बादशाह अकबर देवी के मंदिर में सोने का छत्र भी चढ़ाने गया। किन्तु उसके मन मे अभिमान हो गया कि वो सोने का छत्र चढाने लाया है, तो माता ने उसके हाथ से छत्र को गिरवा दिया और उसे एक अजीब (नई) धातु में बदल दिया, जो आज तक एक रहस्य है। यह छत्र आज भी मंदिर में मौजूद है। ज्वालामुखी मंदिर में आज तक एक लौ जल रही है, जिसे बुझाने का प्रयास भी अकबर ने किया पर वह असफल रहा।[४०]

इतिहासकार दशरथ शर्मा के अनुसार[सम्पादन]

इतिहासकार "दशरथ शर्मा" बताते हैं, कि हम "अकबर" को उसके दरबार के इतिहास और वर्णनों जैसे "अकबरनामा", आदि के अनुसार महान कहते हैं यदि कोई अन्य उल्लेखनीय कार्यों की ओर देखे, जैसे दलपत विलास, तब स्पष्ट हो जाएगा कि अकबर अपने हिन्दू सामंतों से कितना अभद्र व्यवहार किया करता था। तुलसी ने भी अकबर के शासनकाल का चित्रण कोई बहुत अच्छे रूप में नहीं किया है। अकबर के हिन्दू सामंत उसकी अनुमति के बगैर मंदिर निर्माण तक नहीं करा सकते थे। बंगाल में राजा मानसिंह ने एक मंदिर का निर्माण बिना अनुमति के आरंभ किया, तो अकबर ने पता चलने पर उसे रुकवा दिया और १५९५ में उसे मस्जिद में बदलने के आदेश दिया गया। अकबर के नवरत्न राजा मानसिंह द्वारा विश्वनाथ मंदिर के निर्माण किए जाने के कारण हिन्दुओं ने उस मंदिर में जाने का बहिष्कार कर दिया। कारण साफ था, कि राजा मानसिंह के परिवार के अकबर से वैवाहिक संबंध थे। साथ ही अकबर के सिक्कों के पिछे अल्लाह-ओ-अकबर लिखवाने के पिछे तर्क था कि "अल्लाह महान हैं " या "अकबर ही अल्लाह हैं।"[४१][४२]

अकबर के नव रत्न[सम्पादन]

अकबर के नवरत्न :अबुल फजल, फैजी, मिंया तानसेन, राजा बीरबल, राजा टोडरमल, राजा मान सिंह, अब्दुल रहीम खान-ऐ-खाना, फकीर अजिओं-दिन, मुल्लाह दो पिअज़ा
  • अबुल फजल (१५५१ - १६०२):- अकबर के दरबार में रचनाकार व इतिहासकार थें। इन्होंने ही अकबरनामा और आइन-ए-अकबरी की रचना की थी।[४३][४४]
  • फैजी (१५४७ - १५९५) अबुल फजल का भाई था। वे फारसी में कविता करते थें। राजा अकबर ने उसे अपने बेटे के गणित शिक्षक के पद पर नियुक्त किया था।[४५]
  • मिंया तानसेन अकबर के दरबार में गायक थे। वें कवि भी थे और कविता भी करते थें। मशहूर है कि यह जब गातें थे तो बादल भी रो पड़ते थे।[४६]
बीरबल
  • राजा बीरबल (१५२८ - १५८३) दरबार के विदूषक और अकबर के सलाहकार थे। ये परम बुद्धिमान भी थे। इनके अकबर के संग किस्से आज भी मशहूर है।[४७][४८]
  • राजा टोडरमल अकबर के वित्त मंत्री थे। विश्व की प्रथम भूमि लेखा जोखा एवं मापन प्रणाली तैयार करने वाले टोडरमल ही थें।[४९][५०]
  • राजा मान सिंह आम्बेर जयपुर के कच्छवाहा राजपूत राजा थे। वह अकबर की सेना के प्रधान सेनापति थे। इनकी बुआ जोधाबाई अकबर की पटरानी थी।[५१][५२][५३]
  • अब्दुल रहीम खान-ऐ-खाना अकबर के दरबार के कवि थें और अकबर के संरक्षक बैरम खान के बेटे थें।[५४]
  • फकीर अजिओं-दिन अकबर के सलाहकार थें।
  • मुल्लाह दो पिअज़ा अकबर के सलाहकार थें।[५५]

जीवनी[सम्पादन]

अबुल फ़ज़ल अकबर को आइन-ए-एकबरी देते हुए

अकबर की जीवनी का नाम "आइन-ए-एकबरी" था, जिसके रचनाकार 'अबुल फज़ल' थें।।[५६]

मृत्यु[सम्पादन]

अकबर का मक़बरा (सिकंदरा, आगरा)

अकबर की मृत्यु उसके तख्त पर आरोहण के लगभग ५० साल बाद १६०५ में हुई और उसे सिकंदरा में आगरा के बाहर दफनाया गया। तब उसके बेटे जहाँगीर ने तख्त सम्भाला।[५७]

फिल्म एवं साहित्य[सम्पादन]

अकबर का व्यक्तित्व बहुचर्चित रहा है, इसलिए भारतीय साहित्य एवं सिनेमा ने अकबर से प्रेरित कई फिल्में और रचनाएँ हुए हैं।

  • २००८ में आशुतोष गोवरिकर निर्देशित फिल्म "जोधा अकबर" में अकबर एवं उनकी पत्नी की कहानी को दर्शाया गया है। अकबर एवं जोधा बाई का पात्र क्रमशः ऋतिक रोशन एवं ऐश्वर्या राय ने निभाया है।
  • १९६० में भारतीय सिनेमा की एक लोकप्रिय फिल्म "मुग़ल-ए-आज़म" बनी थी। इसमें अकबर का पात्र पृथ्वीराज कपूर ने निभाया था। इस फिल्म में अकबर के पुत्र जहाँगीर(सलीम) की प्रेम कथा और उस कारण से पिता पुत्र में पैदा हुए द्वंद को दर्शाया गया है। सलीम की भूमिका दिलीप कुमार एवं अनारकली की भूमिका मधुबाला ने निभायी थी।
  • १९९० में जी टीवी चैनल में "अकबर-बीरबल" नाम से एक धारावाहिक प्रसारित किया गया था जिसमे अकबर का पात्र हिंदी अभिनेता विक्रम गोखले ने निभाया था। यह बहुत ही लोकप्रिय धारावाहिक थी।
  • नब्बे के दशक में संजय खान द्वारा निर्देशित धारावाहिक "अकबर दी ग्रेट" दूरदर्शन पर प्रदर्शित किया गया था।
  • प्रसिद्ध अंग्रेजी साहित्यकार "सलमान रुशदी" द्वारा लिखित उपन्यास "दी एन्चैन्ट्रेस ऑफ़ फ्लोरेंस" में अकबर एक मुख्य पात्र है।[५८]

जहाँगीर (१६०५-१६२७)[सम्पादन]

जहांगीर

अकबर के स्थान पर उसके बेटे सलीम ने तख्तोताज़ को संभाला, जिसने जहांगीर(नूरुद्दीन मोहम्मद जहांगीर) की उपाधि पाई, जिसका अर्थ होता है (दुनिया का विजेता)। जहांगीर के दो भाई भी थें जिनके मुराद और दानियाल थें, यें दोनों अधिक शराब पीने के कारण मर गये थें। जँहागिर का प्रथम विवाह १५८५ ई. में मानबाई से हुआ जो आमेर के राजा भगवानदास की पुत्री व मान सिंह की बहन थी। उनका दूसरा विवाह मारवाड़ के राजा उदयसिंह की पुत्री जगतगोसाई से हुआ। इसके बाद उसने मेहर-उन-निसा से निकाह किया, जिसे उसने नूरजहां (दुनिया की रोशनी) का खिताब दिया। वह उसे बेताहाशा प्रेम करता था और उसने प्रशासन की पूरी बागडोर नूरजहां को सौंप दी।

जहांगीर और नूरजहां

जहांगीर के अंदर अपने पिता अकबर जैसी राजनैतिक उद्यमशीलता की कमी थी किन्तु वह एक ईमानदार और सहनशील शासक था। १६१४ ई. में राजकुमार खुर्रम शाहजहां ने मेवाड़ के राणा अमर सिंह को हराया। १६२० ई. में कानगड़ह स्वयं जहांगीर ने जीत लिया। १६२२ ई. में कंधार क्षेत्र हाथ से निकल गया। जहांगीर ही के समय में अंग्रेज सर 'टामस रोई' राजदूत द्वारा, पहली बार भारतीय व्यापारिक अधिकार करने के इरादे से आया और ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की मंजूरी उसने जहाँगीर से पाई।

१६२३ ई. में खुर्रम ने विद्रोह कर दिया। क्योंकि नूरजहाँ अपने दामाद शहरयार को वली अहद बनाने की कोशिश कर रही थी। अंत १६२५ ई. में बाप और बेटे में सुलह हो गई। उसने कांगड़ा और किश्वर के अतिरिक्त अपने राज्य का विस्तार किया तथा मुगल साम्राज्य में बंगाल को भी शामिल कर दिया। उसने समाज में सुधार करने का प्रयास किया और वह हिन्दुओं, ईसाइयों तथा ज्यूस के प्रति उदार था जबकि सिक्खों के साथ उसके संबंध तनावपूर्ण थे और दस सिक्ख गुरूओं में से पांचवें गुरू "जुजुुन देव" को जहांगीर के आदेश पर मौत के घाट उतार दिया गया था, जिन पर जहांगीर के बगावती बेटे खुसरू की सहायता करने का अरोप था।

जहांगीर का मक़बरा

जहांगीर के शासन काल में कला, साहित्य और वास्तुकला फली फूली और श्री नगर में बनाया गया मुगल गार्डन उसकी कलात्मक अभिरुचि का एक स्थायी प्रमाण है। सम्राट जहांगीर अपनी आत्मकथा 'तुजुक ए-जहाँगीरी'में लिखते हैं कि नूरजहां बेगम की मां (अस्मत बेगम) ने गुलाब से इत्र निकलने की विधि का आविष्कार किया था। जहांगीर को चिल्ला से अत्यंत प्रेम था इसी कारण उसके समय को चित्रकला का स्वर्णकाल कहा जाता है। कश्मीर से लौटते वक्त भीमवार में जहांगीर का निधन हो गया और लाहौर के पास शहादरा में रावी नदी के किनारे उसे दफनाया गया।[५९][६०]

शाह जहाँ (१६२७-१६५८)[सम्पादन]

मुमताज और शाहज़हां

जहांगीर के बाद उसके द्वितीय पुत्र 'अल् आजाद अबुल मुजफ्फर शाहब उद-दीन मोहम्मद खुर्रम' ने १६२८ में तख्त संभाला। खुर्रम ने अपना नाम शाहज़हां रखा, जिसका अर्थ होता है 'दुनिया का राजा'। उसने उत्तर दिशा में कंधार तक अपना राज्य विस्तारित किया और दक्षिण भारत का अधिकांश हिस्सा जीत लिया। मुगल शासन शाहजहां के कार्यकाल में अपने सर्वोच्च बिन्दु पर था। शाहज़हां के अवधि में दुनिया को मुगल शासन की कलाओं और संस्कृति के अनोखे विकास को देखने का अवसर मिला। शाहज़हां को वास्तुकार राजा कहा जाता है। शाह जहाँ ने १६१२ में नूरजहाँ के भाई असफ खान की बेटी अरजूमन बानू से विवाह किया, अपनी इसी पत्नी का नाम उसने मुमताज महल रखा जिसका अर्थ है प्रकाश पूंज

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विकिपीडिया पर ताजमहल के बारे में एक लेख है।
ताजमहल के निचले स्तर में मुमताज़ महल और शाहजहाँ की वास्तविक कब्रें

शाहज़हां ने लाल किला, मोती मस्जिद और जामा मस्जिद जैसी कई वास्तुकला के सुंदर उदाहरण संसार को दिया। इन सब के अलावा शाहज़हां को आज ताज महल के लिए याद किया जाता है, जो उसने आगरा में यमुना नदी के किनारे अपनी प्रिय पत्नी मुमताज के लिए सफेद संगमरमर से बनवाया था। शाहज़हां के वास्तुकला के प्रति प्रेम के कारण ही उसके काल को वास्तुकला की दृष्टि से "स्वर्ण काल" कहा जाता है।[६१]

शाहज़हां को उसके पहली पत्नी 'कंधारी बेगम' से 'परेज बानू बेगम' नामक पुत्री प्राप्त हुई थी और 'मुमताज बेगम' से 'जहाँआरा बेगम', 'दारा शिकोह', 'शाह शुजा', 'रोशनारा बेगम', 'औरंगज़ेब', 'मुराद बख्श', 'गौहरारा बेगम' नाम के पुत्र-पुत्री प्राप्त हुए थे।[६२][६३]

औरंगज़ेब (१६५८-१७०७)[सम्पादन]

औरंगज़ेब

औरंगज़ेब ने १६५८ में अपने भाईयों को मारकर और पिता को गिरफ्तार कर तख्त संभाला और १७०७ तक राज्य किया। इस प्रकार औरंगज़ेब ने ५० वर्ष तक राज्य किया। जो अकबर के बराबर लम्बा कार्यकाल था परन्तु दुर्भाग्य से उसने अपने पांचों बेटों को शाही दरबार से दूर रखा और इसका नतीजा यह हुआ कि उनमें से किसी को भी सरकार चलाने की कला का प्रशिक्षण नहीं मिला। इससे मुगलों को आगे चल कर हानि उठानी पड़ी साथ-साथ औरंगजेब के कट्टर हिन्दू विरोधी नीतियों ने भी मुगल साम्राज्य को विनाश की ओर ढकेल दिया।

औरंगज़ेब के शासनकाल में मुगल साम्राज्य

शाहजहाँ द्वारा १६३४ में शहज़ादा औरंगज़ेब को दक्कन का सूबेदार नियुक्त किया गया, मुग़ल प्रथाओं के अनुसार, औरंगज़ेब किरकी (महाराष्ट्र) को गया और उसका नाम बदलकर औरंगाबाद कर दिया। १६३७ में उसने रबिया दुर्रानी से शादी की। इधर आगर में शाहज़हां दरबार का सारा कामकाज उसके बड़े भाई दारा शिकोह को सौंप रहा था। १६४४ में औरंगजेब की बहन एक दुर्घटना में जलकर मर गयी किन्तु औरंगजेब इस घटना के तीन हफ्ते बाद लौटा, इससे क्रोधित हो कर शाहज़हां ने उसे दक्कन के सूबेदार के पद से बर्ख़ास्त कर दिया। कुछ दिनों बाद वह गुजरात का सूबेदार बना और उसके सुचारू रूप से शासन को देख उसे बदख़्शान (उत्तरी अफ़गानिस्तान) और बाल्ख़ (अफ़गान-उज़्बेक) क्षेत्र का सूबेदार बना दिया गया। बाद में उसे मुल्तान और सिंध का भी गवर्नर बनाया गया। इस दौरान वो फ़ारस के सफ़वियों से कंधार पर नियंत्रण के लिए लड़ता रहा पर उसे सिर्फ हार और अपने पिता की उपेक्षा मिली। १६५२ में वह पुनः दक्कन का सुबेदार बना। उसने गोलकोंडा और बीजापुर के खिलाफ़ लड़ाइयाँ की पर निर्णायक क्षण पर शाहजहाँ ने दारा शिकोह के कहने पर सेना वापस बुला ली जिससे उसे बहुत ठेस पहुंची।

औरंगजेब ने अपने भाई दारा शिकोह का खून कर स्वयं को मुगल शासक बना लिया। औरंगजेब ने अपने जीवनकाल में दक्षिण भारत में प्राप्त विजयों के जरिये मुग़ल साम्राज्य को साढ़े बारह लाख वर्ग मील में फैलाया और १५ करोड़ लोगों पर शासन किया जो की दुनिया की आबादी का १/४ था। अपने शासनकाल में उसने गैर मुस्लिमों पर जजिया कर पुनः लगा दिया जिसे अक़बर ने हटा दिया था। उसने कश्मीरी ब्राह्मणों को इस्लाम क़बूल करने पर मजबूर किया जब सिखों के नौवें गुरु तेग़ बहादुर ने इसका विरोध किया तो औरंगजेब ने उन्हें फांसी पर लटका दिया।

छत्रपती शिवाजी महाराज
औरंगजेब के दरबार में छत्रपती शिवाजी महाराज

अपने शासनकाल में उसने दक्षिण के बीजापुर और गोलकुंडा पर विजय प्राप्त की। शिवाजी महाराज से उसका भीषण युद्ध हुआ यूं तो एक बार औरंगजेब ने अपने सेनापति जयसिंह के सहारे शिवाजी महाराज को अपने पास मित्रता के निवेदन से बुलाकर उन्हें कैद कर‌ लिया था पर शिवाजी उसके कैद से भागने में सफल रहे और फिर शिवाजी महाराजा ने औरंगजेब को हराया और भारत में मराठो ने पूरे देश में अपनी ताकत बढ़ाई शिवाजी की मृत्यु के बाद भी मराठों ने औरंग़जेब को परेशान किया। औरंगजेब को अपनी हिन्दू विरोधी नज़रिया के कारण कई राजपूत के विरोध का सामना करना पड़ा।[६४]

औरंगाबाद, महाराष्ट्र में औरंगज़ेब की कब्र

औरंगज़ेब की मौत के साथ विघटनकारी ताकतें उठ खड़ी हुईं और शक्तिशाली मुगल साम्राज्य का पतन शुरू हो गया। मुगल शासन काल का पतन या मुगल शासन काल का विघटन १७०७ में औरंगजेब की मृत्यु के बाद आरंभ हो गया था। उनके पुत्र और उत्तराधिकारी, बहादुर शाह जफर पहले ही बूढ़े हो गए थे, जब वे सिहांसन पर बैठे तो उन्हें एक के बाद एक बगावतों का सामना करना पड़ा। उस समय साम्राज्य के सामने मराठों और ब्रिटिश की ओर से चुनौतियां मिल रही थी। करो में स्फीति और धार्मिक असहनशीलता के कारण मुगल शासन की पकड़ कमजोर हो गई थी। मुगल साम्राज्य अनेक स्वतंत्र या अर्ध स्वतंत्र राज्यों में टूट गया। इरान के नादिरशाह ने १७३९ में दिल्ली पर आक्रमण किया और मुगलों की शक्ति की टूटन को जाहिर कर दिया। यह साम्राज्य तेजी से इस सीमा तक टूट गया कि अब यह केवल दिल्ली के आस पास का एक छोटा सा जिला रह गया। फिर भी उन्होंने १८५० तक भारत के कम से कम कुछ हिस्सों में अपना राज्य बनाए रखा, जबकि उन्हें पहले के दिनों के समान प्रतिष्ठा और प्राधिकार फिर कभी नहीं मिला। राजशाही साम्राज्य बहादुर शाह द्वितीय के बाद समाप्त हो गया, जो सिपाहियों की बगावत में सहायता देने के संदेह पर ब्रिटिश राज द्वारा रंगून निर्वासित कर दिए गए थे। वहां १८६२ में उनकी मृत्यु हो गई। इससे भारतीय इतिहास का मध्य कालीन युग समाप्त हुआ और धीरे धीरे ब्रिटिश राज ने राष्ट्र पर अपनी पकड़ बढ़ाई और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का जन्म हुआ।[६५][६६]

एक दृष्टि में[सम्पादन]

चित्र नाम जन्म नाम जन्म राज्यकाल मृत्यु अन्य जानकारी
बाबर(بابر) ज़हीरुद्दीन मुहम्मद(ظہیر الدین محمد) २३ फ़रवरी १४८३ ३० अप्रैल १५२६ – २६ दिसम्बर १५३० ५ जनवरी १५३१ (आयु ४७)
काबुल में बाबर का मक़बरा
हुमायूँ(ہمایوں) नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ(نصیر الدین محمد ہمایوں)(पहला राज्यकाल) १७ मार्च १५०८ २६ दिसम्बर १५३० – १७ मई १५४० २७ जनवरी १५५६ (आयु ४७)
दिल्ली में हुमायूं का मकबरा
शेर शाह सूरी(شیر شاہ سوری) फ़ारिद खान(فرید خان) १४८६ १७ मई १५४० – २२ मई १५४५[६७] २२ मई १५४५
रोहितास किला
सासाराम में शेर शाह का मक़बरा
इस्लाम शाह सूरी(اسلام شاہ سوری) जलाल खान(جلال خان) शेर शाह सूरी का पुत्र ? २६ मई १५४५ – २२ नवम्बर १५५४[६८] २२ नवम्बर १५५४
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विकिपीडिया पर इस्लाम शाह सूरी के बारे में एक लेख है।
हुमायूँ(ہمایوں) नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ(نصیر الدین محمد ہمایوں)(1540 में सुरी वंश के शेर शाह सूरी द्वारा हुमायूं को उखाड़ फेंक दिया गया था, लेकिन इस्लाम शाह सूरी (शेर शाह सूरी के पुत्र और उत्तराधिकारी) की मृत्यु के बाद 1555 में उसे गद्दी पुनः मिल गई।) १७ मार्च १५०८ २२ फ़रवरी १५५५ – २७ जनवरी १५५६ २७ जनवरी १५५६ (आयु ४७)
दिल्ली में हुमायूँ का मक़बरा
अकबर-ए-आज़म(اکبر اعظم) जलालुद्दीन मुहम्मद(جلال الدین محمد اکبر) १४ अक्टूबर १५४२ २७ जनवरी १५५६ – २७ अक्टूबर १६०५ २७ अक्टूबर १६०५ (आयु ६३)
बुलन्द दरवाजा[६९][७०][७१]
अकबर का मक़बरा (सिकंदरा, आगरा)
जहांगीर(جہانگیر) नूरुद्दीन मुहम्मद सलीम(نور الدین محمد سلیم) 20 सितम्बर 1569 27 अक्टूबर 1605 – 8 नवम्बर 1627 8 नवम्बर 1627 (आयु 58)
जहांगीर का मक़बरा
शाह-जहाँ-ए-आज़म(شاہ جہان اعظم) शहाबुद्दीन मुहम्मद ख़ुर्रम(شہاب الدین محمد خرم) 5 जनवरी 1592 8 नवम्बर 1627 – 31 जुलाई 1658 22 जनवरी 1666 (आयु 74)
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विकिपीडिया पर ताजमहल के बारे में एक लेख है।
ताजमहल के निचले स्तर में मुमताज़ महल और शाहजहाँ की वास्तविक कब्रें
अलामगीर(औरंगज़ेब)(عالمگیر) मुइनुद्दीन मुहम्मद(محی الدین محمداورنگزیب) 4 नवम्बर 1618 31 जुलाई 1658 – 3 मार्च 1707 3 मार्च 1707 (आयु 88)
औरंगाबाद, महाराष्ट्र में औरंगज़ेब की कब्र
बहादुर शाह क़ुतुबुद्दीन मुहम्मद मुआज्ज़मउन्होंने मराठाओं के साथ बस्तियों बनाई, राजपूतों को शांत किया और पंजाब में सिखों के साथ मित्रता बनाई। 14 अक्टूबर 1643 19 जून 1707 – 27 फ़रवरी 1712

(4 साल और 253 दिन)

27 फ़रवरी 1712 (आयु 68)
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विकिपीडिया पर बहादुर शाह प्रथम के बारे में एक लेख है।
जहांदार शाह माज़ुद्दीन जहंदर शाह बहादुरअपने विज़ीर ज़ुल्फ़िकार खान द्वारा अत्यधिक प्रभावित। 9 मई 1661 27 फ़रवरी 1712 – 11 फ़रवरी 1713

(0 साल और 350 दिन)

11 फ़रवरी 1713 (आयु 51)
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विकिपीडिया पर जहांदार शाह के बारे में एक लेख है।
फर्रुख्शियार फर्रुख्शियार1717 में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी को एक फ़रमान जारी कर बंगाल में शुल्क मुक्त व्यापार करने का अधिकार प्रदान किया, जिसके कारण पूर्वी तट में उनकी ताक़त बढ़ी। 20 अगस्त 1685 11 जनवरी 1713 – 28 फ़रवरी 1719

(6 साल और 48 दिन)

28 फ़रवरी 1719 (आयु 33)
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विकिपीडिया पर फ़र्रुख़ सियर के बारे में एक लेख है।
रफी उल-दर्जत रफी उल-दर्जत 30 नवम्बर 1699 28 फ़रवरी – 6 जून 1719

(0 साल और 98 दिन)

6 जून 1719 (आयु 19)
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विकिपीडिया पर रफी उद-दर्जत के बारे में एक लेख है।
शाहजहां द्वितीय रफी उद-दौलत जून 1696 6 जून 1719 – 19 सितम्बर 1719

(0 साल और 105 दिन)

19 सितम्बर 1719 (आयु 23)
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विकिपीडिया पर रफी उद-दौलत के बारे में एक लेख है।
मुहम्मद शाह रोशन अख्तर बहादुर 17 अगस्त 1702 27 सितम्बर 1719 – 26 अप्रैल 1748

(28 साल और 212 दिन)

26 अप्रैल 1748 (आयु 45)
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विकिपीडिया पर मुहम्मद शाह (मुग़ल) के बारे में एक लेख है।
अहमद शाह बहादुर अहमद शाह बहादुरसिकंदराबाद की लड़ाई में मराठाओं द्वारा मुगल सेना की हार 23 दिसम्बर 1725 26 अप्रैल 1748 – 2 जून 1754

(6 साल और 37 दिन)

1 जनवरी 1775 (आयु 49)
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विकिपीडिया पर अहमद शाह बहादुर के बारे में एक लेख है।
आलमगीर द्वितीय अज़ीज़ुद्दीन 6 जून 1699 2 जून 1754 – 29 नवम्बर 1759

(5 साल और 180 दिन)

29 नवम्बर 1759 (आयु 60)
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विकिपीडिया पर आलमगीर द्वितीय के बारे में एक लेख है।
शाहजहां तृतीय मुही-उल-मिल्लतबक्सर के युद्ध के दौरान बंगाल, बिहार और ओडिशा के निजाम का समेकन। 1761 में हैदर अली मैसूर के सुल्तान बने। 10 दिसम्बर 1759 – 10 अक्टूबर 1760 1772
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विकिपीडिया पर शाहजहां तृतीय के बारे में एक लेख है।
शाह आलम द्वितीय अली गौहर1799 में मैसूर के टीपू सुल्तान का निष्पादन 25 जून 1728 24 दिसम्बर 1760 – 19 नवम्बर 1806 (46 साल और 330 दिन) 19 नवम्बर 1806 (आयु 78)
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विकिपीडिया पर शाह आलम द्वितीय के बारे में एक लेख है।
अकबर शाह द्वितीय मिर्ज़ा अकबर या अकबर शाह सानी 22 अप्रैल 1760 19 नवम्बर 1806 – 28 सितम्बर 1837 28 सितम्बर 1837 (आयु 77)
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विकिपीडिया पर अकबर शाह द्वितीय के बारे में एक लेख है।
बहादुर शाह द्वितीय अबू ज़फर सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह ज़फर या बहादुर शाह ज़फरअंतिम मुगल सम्राट। 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश द्वारा अपदस्थ और बर्मा में निर्वासित किया गया। 24 अक्टूबर 1775 28 सितम्बर 1837 – 14 सितम्बर 1857 (19 साल और 351 दिन) 7 नवम्बर 1862
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विकिपीडिया पर बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में एक लेख है।

सन्दर्भ[सम्पादन]

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