माधुर्य भक्ति के कवि

विकिपुस्तक से

ए ० एल ० मिश्र

  • शिक्षक,शिक्षाविद
  • कानपुर्,उत्तर प्रदेश

राधा-कृष्ण की भक्ति ही माधुर्य भक्ति है इस भक्ति में सम्प्रदायों का प्रमुख स्थान है।

निम्बार्क सम्प्रदाय के प्रमुख कवि[सम्पादन]

श्रीभट्ट[सम्पादन]

जीवन परिचय[सम्पादन]

श्री भट्ट की निम्बार्क सम्प्रदाय के प्रमुख कवियों में गणना की जाती है। माधुर्य के सच्चे उपासक श्रीभट्ट केशव कश्मीरी के शिष्य थे। श्रीभट्ट जी का जन्म संवत विवादास्पद है। भट्ट जी ने अपने ग्रन्थ "युगल शतक " का रचना काल निम्न दोहे में दिया है ; नयन वाम पुनि राम शशि गनो अंक गति वाम। युगल शतक पूरन भयो संवत अति अभिराम।। युगल शतक के संपादक श्रीब्रजबल्लभ शरण तथा निम्बार्क माधुरी के लेखक ब्रह्मचारी बिहारी शरण के अनुसार युगल शतक की प्राचीन प्रतियों में यही पाठ मिलता है। इसके अनुसार युगल शतक का रचना काल विक्रमी संवत 1352 स्थिर होता है। किन्तु काशी नागरी प्रचारिणी सभा के पास युगल शतक की जो प्रति है उसमें राम के स्थान पर राग पाठ है।इस पाठ भेद के अनुसार युगल शतक का रचना काल वि ० सं ० 1652 निश्चित होता है। प्रायः सभी साहित्यिक विद्वानों ~~ श्री वियोगी हरि (ब्रजमाधुरी सार :पृष्ठ 10 8 ) ,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास :पृष्ठ 188 ) ,आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (हिन्दी साहित्य :पृष्ठ 201 ) आदि ने पिछले पाठ को ही स्वीकार किया है। अतः इन विद्वानों के आधार पर श्री भट्ट जी का जन्म वि ० सं ० 1595 तथा कविता काल वि ० सं ० 16 52 स्वीकार किया जा सकता है।

काव्य-रचना[सम्पादन]

निम्बार्क सम्प्रदाय के विद्वानों के अनुसार श्री भट्ट जी ने बहुत दोहे लिखे थे,जिनमें से कुछ ही युगल शतक के रूप में अवशिष्ट रह गये हैं। युगल शतक में छह सुखों का वर्णन है:

  1. सिद्धांत
  2. ब्रजलीला
  3. सेवा
  4. सहज
  5. सुरत
  6. उत्सव

हरिव्यासदेव[सम्पादन]

जीवनपरिचय[सम्पादन]

हरिव्यासदेव निम्बार्क सम्प्रदाय के अत्यधिक प्रसिद्ध कवि हैं। इनके समय के विषय में साम्प्रदायिक विद्वानों में दो मत हैं। प्रथम मत वालों के अनुसार हरिव्यासदेव जी समय वि० सं ० १४५० से १५२५ तक है।(युगल शतक :सं ० ब्रजबलल्भ शरण :निम्बार्क समय समीक्षा :पृष्ठ ८ ) दूसरे मत वाले इनका समय कुछ और पीछे ले जाते हैं। उनके विचार में वि ० सं ० १३२० ही हरिव्यासदेव का ठीक समय है। ये दोनों ही मान्यतायें साम्प्रदायिक ग्रंथों अथवा अनुश्रुतियों पर आधारित हैं। श्री हरिव्यासदेव का जन्म गौड़ ब्राह्मण कुल में हुआ था। आप श्री भट्ट के अन्तरंग शिष्यों में से थे। ऐसा प्रसिद्ध् है कि पर्याप्त काल तक तपस्या करने के बाद आप दीक्षा के अधिकारी बन सके थे। श्री नाभादास जी की भक्तमाल में हरिव्यासदेव जी के सम्बन्ध में निम्न छप्पय मिलता है:

खेचर नर की शिष्य निपट अचरज यह आवै।
विदित बात संसार संतमुख कीरति गावै।।
वैरागिन के वृन्द रहत संग स्याम सनेही।
ज्यों जोगेश्वर मध्य मनो शोभित वैदेही।।
श्री भट्ट चरन रज परसि के सकल सृष्टि जाकी नई।
श्री हरिव्यास तेज हरि भजन बल देवी को दीक्षा दई।। (छप्पय सं ० ७७ )

रचनाएँ[सम्पादन]

श्री हरिव्यासदेव की संस्कृत में चार रचनाएँ उपलब्ध हैं ;

  1. सिद्धान्त रत्नांजलि ~ दशश्लोकी की बृहत टीका
  2. प्रेम भक्ति विवर्धिनी ~ निम्बार्क अष्टोत्तर शत नाम की टीका
  3. तत्वार्थ पंचक
  4. पंच संस्कार निरूपण

किन्तु ब्रजभाषा में हरिव्यासदेव जी की केवल एक रचना महावाणी उपलब्ध होती है।

रूपरसिक[सम्पादन]

जीवन परिचय[सम्पादन]

रूपरसिक की निम्बार्क सम्प्रदाय के प्रमुख भक्त कवियों में गणना की जाती है। केवल निम्बार्क सम्प्रदाय में नहीं ,अन्य सम्प्रदाय के रसिकों में भी इन्हें बहुत आदर प्राप्त है। इन्होंने अपने हरिव्यास यशामृत में श्री हरिव्यासदेव को अपना गुरु स्वीकार किया है~~

श्री हरिव्यास भजो मन भाई।
असरन सरन करन सुख दुख हर महा प्रेम घन आनन्ददाई।।
अतिदयाल जनपाल गुणागुण सकल लोक आचारज राई।
वेदन को अति ही दुल्लभ सो महावाणी आप बनाई।।
दंपति मिलन सनातन मारग भजन रीति जा प्रभु दरसाई।
रूपरसिक रसिकन की जीवन महिमा अमित पार न पाई।।

इसी आधार पर इनका समय १७ वीं शताब्दी अनुमानित किया जा सकता है। किन्तु अपने लीलविंशति ग्रन्थ का रचनाकाल इन्होंने इस प्रकार दिया है;

पंदरा सै रु सत्यासिया मासोत्तम आसोज।
यह प्रबन्ध पूरन भयो शुक्ला सुभ दिन द्योज।।

इस दोहे के आधार पर निम्बार्क सम्प्रदाय के विद्वान रूपरसिक का समय सोलहवीं शताब्दी ठहराते हैं।

रचनाएँ[सम्पादन]

रूपरसिक जी के तीन हस्तलिखित ग्रन्थ पाए गए हैं :

  1. बृहदुत्सव मणिमाल
  2. हरिव्यास यशामृत
  3. लीलाविंशति

गौड़ीय सम्प्रदाय के प्रमुख कवि[सम्पादन]

गदाधर भट्ट[सम्पादन]

जीवन परिचय[सम्पादन]

गदाधर भट्ट चैतन्य महाप्रभु के शिष्य थे। यह गौड़ीय संप्रदाय के प्रमुख भक्त कवियों में गिने जाते हैं। ऐसा प्रसिद्द है कि ये महाप्रभु चैतन्य को भागवत की कथा सुनाया करते थे। इस घटना उल्लेख आचार्य रामचंद्र शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास :पृष्ठ १ ८ २ ),आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (हिन्दी साहित्य :पृष्ठ २०० )और वियोगीहरि (ब्रजमाधुरीसर :पृष्ठ ७५ )` इन तीन विद्वान लेखकों ने किया है। इसी आधार पर इनका समय महाप्रभु चैतन्य के समय (वि ० सं ० १५४२ से वि ० सं ० १५९० ) के आसपास अनुमानित किया जा सकता है। चैतन्य महाप्रभु और षट्गोस्वामियों के संपर्क के कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनका कविता कल वि ० सं ० १५ ८० से १६०० के कुछ बाद तक अनुमानित किया है भट्ट जी दक्षिणात्य ब्राह्मण थे। इंक जन्म स्थान आज तक अज्ञात है। ये संस्कृत के दिग्गज विद्वान थे इसी कारण इनके ब्रजभाषा के पदों में संस्कृत शब्दों की प्रचुरता है। आप का ब्रजभाषा पर पूर्ण अधिकार था। वृन्दावन आने के पूर्व ही आप ब्रजभाषा में पदों की रचना किया करते थे। ऐसा प्रचलित है कि ये जीवगोस्वामी की प्रेरणा से वृन्दावन आये और महाप्रभु चैतन्य का शिष्यत्व ग्रहण किया। साधुओं से गदाधर भट्ट के द्वारा रचित निम्न 'पूर्वानुराग 'के पद को सुनकर जीवगोस्वामी मुग्ध हो गए :

सखी हौं स्याम रंग रंगी।
देखि बिकाय गई वह मूरति ,सूरत माहिं पगी।।
संग हुतो अपनी सपनो सो ,सोइ रही रस खोई।
जागेहु आगे दृष्टि परे सखि , नेकु न न्यारो होई।।
एक जु मेरी अंखियन में निसि द्यौस रह्यौ करि भौन।
गाइ चरावन जात सुन्यो सखि ,सोधौं कन्हैया कौन।।
कासौं कहौं कौन पतियावै , कौन करे बकवाद।
कैसे कहि जात गदाधर , गूंगे को गुरु स्वाद।।

इनके जीवन और स्वभाव के सम्बन्ध में नाभादास जी के एक छप्पय तथा उस पर की गई प्रियादास की टीका से कुछ प्रकाश पड़ता है। नाभादास का छप्पय :

सज्जन सुह्रद , सुशील , बचन आरज प्रतिपालय।
निर्मत्सर,निहकाम , कृपा,करुणा को आलय।।
अनन्य भजन दृढ़ करनि धरयो बपु भक्तन काजै।
परम धरम को सेतु , विदित वृन्दावन गाजै।।
भागौत सुधा बरषे बदन काहू को नाहिन दुखद।
गुन निकर 'गदाधर भट्ट 'अति सबहिन कों लागै सुखद।।

रचनाये[सम्पादन]

भट्ट जी की अभी तक रचनाओं में केवल स्फुट पद ही प्राप्त हैं। इनके स्फुट पद गदाधर की वाणी नामक पुस्तक में संकलित है इसके प्रकाशक बाबा कृष्ण दास हैं और हरिमोहन प्रिंटिंग प्रेस से मुद्रित है। इन स्फुट पदों का विषय विविध है। इनमें भक्त का दैन्य ,वात्सल्य ,बधाई (राधा और कृष्ण की ), यमुना -स्मृति और राधा -कृष्ण की विविध लीलाओं का वर्णन है।

सूरदास मदनमोहन[सम्पादन]

परिचय[सम्पादन]

सूरदास मदनमोहन अकबर शासन काल मे संडीला,जिला हरदोई उत्तर प्रदेश में अमीन् थे। इसी आधार पर इनका समय सोलहवीं शताब्दी अनुमानित किया जा सकता है। ये जाति के ब्राह्मण थे। इन्होंने किसी गौड़ीय विद्वान से दीक्षा ली। सूरदास मदनमोहन का वास्तविक नाम सूरध्वज था। किन्तु कविता में इन्होंने अपने इस नाम का कभी प्रयोग नहीं किया। मदनमोहन के भक्त होने के कारण इन्होने सूरदास नाम के साथ मदनमोहन को भी अपने पदों में स्थान दिया। जिस प्रकार ब्रज भाषा के प्रमुख कवि सूर ( बल्लभ सम्प्रदायी ) ने अपने पदों में सूर और श्याम को एक रूप देने की चेष्टा की उसी प्रकार इन्होंने भी सूरदास और मदनमोहन में ऐक्य स्थापित करने का प्रयत्न किया है। दोनों कवियों की छाप में सूरदास शब्द समान रूप से मिलता है किन्तु एक श्याम की बाँह पकड़ कर चला है तो दूसरा मदनमोहन का आश्रय लेकर और यही दोनों के पदों को पहचानने की मात्र विधि है। उन पदों में जहाँ केवल 'सूरदास ' छपा है ~~ पदों के रचयिता का निश्चय कर सकना कठिन है। इस कारण सूरदास नाम के सभी पद महाकवि सूरदास के नाम पर संकलित कर दिए गए है। इसलिए सूरदास मदनमोहन के पदों की उपलब्धि कठिनाई का कारण हो रही है। आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में सूरदास मदनमोहन के नाम से जो पद दिया है वही पद नन्द दुलारे बाजपेयी द्वारा सम्पादित सूरसागर में भी मिल जाता है।

नवलकिशोर नवल नगरिया।
अपनी भुजा स्याम भुज ऊपर स्याम भुजा अपने उर धरिया।।
करत विनोद तरनि तनया तट,स्यामा स्याम उमगि रसभरिया।
यों लपटाई रहे उर अंतर् मरकतमणि कंचन ज्यों जरिया।।
उपमा को घन दामिनी नाहीं कंदरप कोटि वारने करिया।
श्री सूरदास मदनमोहन बलिजोरी नन्दनन्दन वृषभानु दुलरिया।।

भक्तमाल में नाभादास जी ने सूरदास मदनमोहन के सम्बन्ध में जो छप्पय लिखा है उससे ज्ञात होता है की ये गान- विद्या और काव्य रचना में बहुत निपुण थे। इनके उपास्य राधा-कृष्ण थे। युगल किशोर की रहस्यमयी लीलाओं में पूर्ण प्रवेश के कारण इन्हें सुहृद सहचरि का अवतार मन गया है। भक्तमाल के छप्पय की टीका करते हुए प्रियादास जी ने सूरदास के जीवन की उस घटना का भी उल्लेख किया है जिसके कारण ये संडीला की अमीनी छोड़कर वृन्दावन चले गए थे।

रचनाएँ[सम्पादन]

सूरदास मदनमोहन के लिखे हुए स्फुट पद ही आज उपलब्ध होते हैं ,जिनका संकलन सुह्रद वाणी के रूप में किया गया है। (प्रकाशन :बाबा कृष्णदास :राजस्थान प्रेस जयपुर :वि ० सं ० २००० )

माधुरीदास[सम्पादन]

जीवन परिचय[सम्पादन]

माधुरीदास गौड़ीय सम्प्रदाय के अंतर्गत ब्रजभाषा के अच्छे कवि हैं। अभी तक हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखकों से इनका कोई परिचय नहीं है। इनकी वाणी के प्रकाशक बाबा कृष्णदास ने इनके विषय में कुछ लिखा है। माधुरीदास ने केलि-माधुरी का रचना काल अपने इस दोहे में दिया है :

सम्वत सोलह सो असी सात अधिक हियधार।
केलि माधुरी छवि लिखी श्रावण बदि बुधवार।।
(माधुरी वाणी :केलि माधुरी :दोहा १२९ )

ये रूपगोस्वामी के शिष्य थे। इस बात की पुष्टि माधुरीदास की वाणी के निम्न दोहे से होती है:

रूप मंजरी प्रेम सों कहत बचन सुखरास।
श्री वंशीवट माधुरी होहु सनातन दास।।
(माधुरी वाणी :वंशीवट माधुरी :दोहा ३० ८ )

यहाँ 'रूप मंजरी 'शब्द श्री रूपगोस्वामी के लिए स्वीकर किया गया है। निम्न दोहे से भी ये रूपगोस्वामी के शिष्य होने की पुष्टि होती है ~`

विपिन सिंधु रस माधुरी कृपा करी निज रूप।
मुक्ता मधुर विलास के निज कर दिए अनूप।।
(माधुरी वाणी :केलि माधुरी :दोहा १२६ )

बाबा कृष्णदास के अनुसार माधुरीदास ब्रज में माधुरी कुंड पर रहा करते थे। यह स्थान मथुरा-गोबर्धन मार्ग पर अड़ींग नामक ग्राम से ढाई कोस ( ८ किलोमीटर ) दक्षिण दिशा में है। अपने इस मत की पुष्टि के लिए कृष्णदास जी ने श्रीनारायण भट्ट के 'ब्रजभक्ति विलास'का उल्लेख किया है।

रचनाएँ[सम्पादन]

  • माधुरी वाणी

माधुरी वाणी में सात माधुरियाँ हैं:

  1. उत्कण्ठा
  2. वंशीवट
  3. केलि
  4. वृन्दावन
  5. दान
  6. मान
  7. होरी

वल्लभ रसिक[सम्पादन]

राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख कवि[सम्पादन]

गोस्वामी हित हरिवंश[सम्पादन]

दामोदरदास[सम्पादन]

हरिराम व्यास[सम्पादन]

धुवदास[सम्पादन]

नेही नागरीदास[सम्पादन]

हरिदासी सम्प्रदाय के प्रमुख कवि[सम्पादन]

स्वामी हरिदास[सम्पादन]

विट्ठलविपुलदेव[सम्पादन]

बिहारिन देव[सम्पादन]

वल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख कवि[सम्पादन]

नन्ददास[सम्पादन]

चतुर्भुजदास[सम्पादन]

गोविन्दस्वामी[सम्पादन]

छीतस्वामी[सम्पादन]

गंगाबाई[सम्पादन]

अन्य कवि[सम्पादन]

मीराबाई[सम्पादन]

सूरदास[सम्पादन]

परमानन्ददास[सम्पादन]

कुम्भनदास[सम्पादन]

कृष्णदास[सम्पादन]

रसखान[सम्पादन]