राजनीतिक संरचना

विकिपुस्तक से

राज्यों का संघ भारत एक संपूर्ण प्रभुतासंपन्न समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है जिसमें संसदीय प्रणाली की सरकार है। गणराज्य उस संविधान की व्यवस्थाओं के अनुसार प्रशासित होता है जो 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा द्वारा स्वीकृत किया गया और 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ।

संसदीय सरकार के संविधान का ढांचा एकात्मक विशेषताओं के साथ-साथ संघात्मक भी है। भारत के राष्ट्रपति संघ की कार्यपालिका के संवैधानिक प्रमुख होते हैं। संविधान का अनुच्छेद 74(1) यह निर्दिष्ट करता है कि कार्य संचालन में राष्ट्रपति की सहायता करने तथा उन्हें परामर्श देने के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक मंत्रिपरिषद् होगी तथा राष्ट्रपति उसके परामर्श से ही कार्य करेंगे। इस प्रकार कार्यपालिका की वास्तविक शक्ति प्रधानमंत्री के नेतृत्व में गठित मंत्रिपरिषद् में निहित होती है। मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। इसी प्रकार राज्यों में राज्यपाल की स्थिति कार्यपालिका के प्रधान की होती है परंतु वास्तविक शक्ति मुख्यमंत्री के नेतृत्व में निहित होती है। मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होती है।

संविधान में विधायी शक्तियां संसद एवं राज्य विधानसभाओं में विभाजित की गई हैं तथा शेष शक्तियां संसद को प्राप्त हैं। संविधान में संशोधन का अधिकार भी संसद को ही प्राप्त है। संविधान में न्यायपालिका, भारत के नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक, लोक सेवा आयोगों और मुख्य निर्वाचन आयुक्त की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए प्रावधान है।

संघ और उसका क्षेत्र[सम्पादन]

भारत में 29 राज्य और सात केंद्रशासित प्रदेश हैं। ये राज्य हैं-आंध्र प्रदेश, तेलंगाना,असम, अरूणाचल प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल। केंद्रशासित प्रदेश हैं-अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह, चंडीगढ़, दादरा और नगर हवेली, दमन और दीव, दिल्ली, लक्षद्वीप तथा पांडिचेरी।

नागरिकता[सम्पादन]

संविधान में संपूर्ण भारत के लिए एक समान नागरिकता की व्यवस्था की गई है। ऐसा प्रत्येक व्यक्ति भारत का नागरिक माना गया है जो संविधान लागू होने के दिन (26 जनवरी, 1950 को) भारत में स्थायी रूप से रहता था, और-

  • (क) भारत में पैदा हुआ था, या
  • (ख) जिसके माता-पिता में से एक भारत में पैदा हुआ था, या
  • (ग) जो उस तारीख से ठीक पहले सामान्यतया कम-से-कम पांच वर्ष से भारतीय क्षेत्र में रह रहा था।

नागरिकता अधिनियम, 1955 में संविधान लागू होने के पश्चात नागरिकता ग्रहण करने तथा समाप्त करने के संबंध में प्रावधान दिए गए हैं।

मूल अधिकार[सम्पादन]

संविधान में सभी नागरिकों के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से कुछ बुनियादी स्वतंत्रताओं की व्यवस्था की गई है। संविधान में मोटे तौर पर छह प्रकार की स्वतंत्रताओं की मूल अधिकारों के रूप में गारंटी दी गई है, जिनकी सुरक्षा के लिए न्यायालय की शरण ली जा सकती है। संविधान के तीसरे भाग, अनुच्छेद 12 से 35 तक, में मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है। ये मूल अधिकार हैं-

(1) समानता का अधिकार — कानून के समक्ष समानता, धर्म, वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध और रोजगार के लिए समान अवसर;

(2) विचारों की अभिव्यक्ति — सम्मेलन करने, संस्था या संघ बनाने, देश में सर्वत्र आने-जाने, भारत के किसी भी भाग में रहने तथा कोई वृत्ति या व्यवसाय करने का अधिकार (इनमें से कुछ अधिकार देश की सुरक्षा, विदेशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, लोक व्यवस्था, शिष्टता या नैतिकता के अधीन हैं);

(3) शोषण से रक्षा का अधिकार — इसके अंतर्गत सभी प्रकार की बेगार, बालश्रम और व्यक्तियों के क्रय-विक्रय को अवैध करार दिया गया है;

(4) अंतःकरण की प्रेरणा तथा धर्म को निर्बाध रूप से मानने, उसके अनुरूप आचरण करने और उसका प्रचार करने की स्वतंत्रता का अधिकार;

(5) नागरिकों के किसी भी वर्ग को अपनी संस्कृति, भाषा और लिपि को संरक्षित करने तथा अल्पसंख्यकों द्वारा पसंद की शिक्षा ग्रहण करने एवं शिक्षा संस्थानों की स्थापना करने और उन्हें चलाने का अधिकार; और

(6) मूल अधिकारों को लागू कराने के लिए संवैधानिक उपायों का अधिकार।

मूल कर्त्तव्य[सम्पादन]

सन 1976 में पारित संविधान में 42वें संशोधन के अंतर्गत नागरिकों के मौलिक कर्त्तव्यों का उल्लेख किया गया है। ये कर्त्तव्य संविधान के भाग चार के अनुच्छेद 51 “क” में दिए गए हैं। इसमें अन्य बातों के अलावा यह कहा गया है कि नागरिकों का कर्त्तव्य है कि वे संविधान का पालन करें; स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय संघर्ष को प्रेरित करने वाले आदर्शों का अनुसरण करें; देश की रक्षा करें और कहे जाने पर राष्ट्रीय सेवा में जुट जाएं। धर्म, भाषा और क्षेत्रीय तथा वर्ग संबंधी भिन्नताओं को भुलाकर सद्भाव और भाईचारे की भावनाओं को बढ़ावा दें।

राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत[सम्पादन]

संविधान में निहित राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत यद्यपि न्यायालयों द्वारा लागू नहीं कराए जा सके, तथापि वे “देश के प्रशासन का मूलभूत आधार” हैं और “सरकार” का यह कर्त्तव्य है कि वह कानून बनाते समय इन सिद्धांतों का पालन करे। उनमें कहा गया है-सरकार ऐसी प्रभावी सामाजिक व्यवस्था कायम करके लोगों के कल्याण के लिए प्रोत्साहन देने का प्रयास करेगी, जिससे राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय का पालन हो। सरकार ऐसी नीति निर्देशित करेगी जो सभी स्त्री-पुरूषों को जीवन-यापन के लिए यथेष्ट अवसर दे, समान कार्य के लिए समान वेतन की व्यवस्था करे; अपनी आर्थिक क्षमता, विकास की सीमाओं के अनुसार सबको काम तथा शिक्षा दिलाने की प्रभावी व्यवस्था करे और बेरोजगारी, बुढ़ापे, बीमारी और अपंगता या अन्य प्रकार की अक्षमता की स्थिति में सबको वित्तीय सहायता दे। सरकार श्रमिकों के लिए निर्वाह-वेतन, कार्य की मानवोचित दशाओं, रहन-सहन के अच्छे स्तर तथा उद्योगों के प्रबंधन में उनकी पूर्ण भागीदारी के लिए प्रयत्न करेगी।

आर्थिक क्षेत्र में सरकार को अपनी नीति ऐसे ढंग से लागू करनी चाहिए जिससे कि समाज के भौतिक संसाधनों पर अधिकार और उन पर नियंत्रण का लोगों के बीच इस प्रकार वितरण हो कि वह सब लोगों के कल्याण के लिए उपयोगी सिद्ध हो और यह सुनिश्चित हो कि आर्थिक व्यवस्था को लागू करने के परिणामस्वरूप सर्वसाधारण के हितों के विरूद्ध धन और उत्पादन के साधन कुछ ही लोगों के पास केंद्रित नहीं हों।

कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण निर्देशक सिद्धांत हैं-बच्चों के स्वस्थ वातावरण में विकास के लिए अवसर तथा सुविधाएं उपलब्ध कराना; 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए नि—शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करना; अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति और समाज के अन्य कमजोर वर्गों के शिक्षा संबंधी और आर्थिक हितों को बढ़ावा देना; ग्राम पंचायतों का गठन; राष्ट्रीय स्मारकों की सुरक्षा और विकास; वन और वन्य जीवों का संरक्षण तथा अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा एवं राष्ट्रों के बीच न्यायोचित और समानतापूर्ण संबंधों को प्रोत्साहन, अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और संधियों की शर्तों का सम्मान व अंतर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटाने को बढ़ावा देना।

संघ[सम्पादन]

कार्यपालिका[सम्पादन]

संघीय कार्यपालिका के अंतर्गत राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक मंत्रिपरिषद् होती है जो राष्ट्रपति को सलाह देती है।

राष्ट्रपति[सम्पादन]

राष्ट्रपति का निर्वाचन एक निर्वाचन मंडल के सदस्य आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर एकल हस्तांतरणीय मत द्वारा करते हैं। इस निर्वाचक मंडल में संसद के दोनों सदनों तथा राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य होते हैं। राज्यों के बीच आपस में समानता तथा राज्यों और संघ के बीच समानता बनाए रखने के लिए प्रत्येक मत को उचित महत्त्व दिया जाता है। राष्ट्रपति को अनिवार्य रूप से भारत का नागरिक, कम-से-कम 35 वर्ष की आयु का तथा लोकसभा का सदस्य बनने का पात्र होना चाहिए। राष्ट्रपति का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है। वह इस पद के लिए पुन— भी चुना जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 61 में निहित प्रक्रिया द्वारा उसे पद से हटाया जा सकता है। वह उपराष्ट्रपति को संबोधित स्व हस्तलिखित पत्र द्वारा पद-त्याग कर सकता है।

कार्यपालिका के सभी अधिकार राष्ट्रपति में निहित हैं। वह इनका उपयोग संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ सरकारी अधिकारियों द्वारा कराता है। रक्षा सेनाओं की सर्वोच्च कमान भी राष्ट्रपति के पास होती है। राष्ट्रपति को संसद का अधिवेशन बुलाने, उसे स्थगित करने, उसमें भाषण देने और उसे संदेश भेजने, लोकसभा को भंग करने, दोनों सदनों के अधिवेशन काल को छोड़कर किसी भी समय अध्यादेश जारी करने, बजट तथा वित्त विधेयक प्रस्तुत करने की सिफारिश करने तथा विधेयकों को स्वीकृति प्रदान करने, क्षमादान देने, दंड रोकने अथवा उसमें कमी या परिवर्तन करने या कुछ मामलों में दंड को स्थगित करने, छूट देने या दंड को बदलने के अधिकार प्राप्त हैं। किसी राज्य में संवैधानिक व्यवस्था के विफल हो जाने पर राष्ट्रपति उस सरकार के संपूर्ण या कोई भी अधिकार अपने हाथ में ले सकते हैं। यदि राष्ट्रपति को इस बारे में विश्वास हो जाए कि कोई ऐसा गंभीर संकट पैदा हो गया है जिससे देश की अथवा उसके राज्य क्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो गया है तो वह देश में आपातस्थिति की घोषणा कर सकते हैं। यह खतरा युद्ध अथवा बाह्य आक्रमण या विद्रोह का हो सकता है।

उपराष्ट्रपति[सम्पादन]

उपराष्ट्रपति का चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा एक निर्वाचन- मंडल के सदस्य करते हैं। निर्वाचक-मंडल में दोनों सदनों के सदस्य होते हैं। उपराष्ट्रपति को अनिवार्य रूप से भारत का नागरिक, कम-से-कम 35 वर्ष की आयु का और राज्यसभा का सदस्य बनने का पात्र होना चाहिए। उसका कार्यकाल पांच वर्ष का होता है और वह इस पद के लिए पुनः भी चुना जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 67 (ख) में निहित कार्यविधि द्वारा उसे पद से हटाया जा सकता है। उपराष्टप्रति राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं। जब राष्ट्रपति बीमारी या अन्य किसी कारण से अपना कार्य करने में असमर्थ हो या जब राष्ट्रपति की मृत्यु या पद-त्याग अथवा पद से हटाए जाने के कारण राष्ट्रपति का पद रिक्त हो गया हो, तब छह महीने के भीतर नए राष्ट्रपति के चुने जाने तक वह राष्ट्रपति के रूप में कार्य कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में वह राज्यसभा के सभापति के रूप में कार्य नहीं कर सकते।

मंत्रिपरिषद[सम्पादन]

कार्य-संचालन में राष्ट्रपति की सहायता करने तथा उन्हें परामर्श देने के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक मंत्रिपरिषद् की व्यवस्था है। प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं तथा अन्य मंत्रियों की नियुक्ति भी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के परामर्श से करते हैं। मंत्रिपरिषद् संयुक्त रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है। प्रधानमंत्री का कर्त्तव्य है कि वह भारत संघ के कार्यों के प्रशासन के संबंध में मंत्रिपरिषद् के निर्णयों, कानून बनाने के प्रस्तावों तथा उससे संबंधित जानकारियों से राष्ट्रपति को अवगत कराते रहें। मंत्रिपरिषद् में चार तरह के मंत्री होते हैं-वे मंत्री, जो मंत्रिमंडल के सदस्य होते हैं; राज्य मंत्री, (जो विभाग का स्वतंत्र रूप से कार्यभार संभालते हैं), राज्य मंत्री तथा उपमंत्री।

विधायिका[सम्पादन]

संघ की विधायिका को “संसद” कहा जाता है। इसमें राष्ट्रपति, लोकसभा तथा राज्यसभा शामिल हैं। संसद के दोनों सदनों की बैठक पिछली बैठक के छह महीने के भीतर बुलानी होती है। कुछ मौकों पर दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन किया जाता है।

राज्यसभा[सम्पादन]

संविधान में व्यवस्था है कि राज्यसभा के सदस्यों की संख्या 250 से अधिक नहीं होगी। इनमें से 12 सदस्य साहित्य, विज्ञान, कला, समाज सेवा आदि क्षेत्रों में विशेष ज्ञान या अनुभव रखने वाले व्यक्ति होंगे, जिन्हें राष्ट्रपति मनोनीत करेंगे। शेष 238 सदस्य राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के प्रतिनिधि होंगे। राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष होता है; राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले सदस्यों का चुनाव राज्यों की विधानसभाओं के चुने हुए सदस्यों द्वारा एकल हस्तांतरणीय मत के आधार पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के जरिए किया जाता है। केंद्रशासित प्रदेशों के प्रतिनिधियों का चुनाव संसद द्वारा निर्धारित कानून के अंतर्गत किया जाता है। राज्यसभा कभी भी भंग नहीं होती और उसके एक-तिहाई सदस्य हर दो वर्ष के बाद अवकाश ग्रहण करते हैं।

इस समय राज्यसभा के 245 सदस्य हैं। इनमें से 233 सदस्य राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं और 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत हैं। राज्यसभा के सदस्यों के नाम, उनसे संबंधित दल सहित परिशिष्ट में दिए गए हैं।

लोकसभा[सम्पादन]

लोकसभा के सदस्य वयस्क मताधिकार के आधार पर लोगों द्वारा सीधे चुने जाते हैं। संविधान में लोकसभा की अधिकतम संख्या अब 552 है। इनमें 530 सदस्य राज्यों का और 20 सदस्य केंद्रशासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं। राष्ट्रपति को आंग्ल भारतीय (एंग्लो इंडियन) समुदाय के दो व्यक्तियों को उस हालत में मनोनीत करने का अधिकार है, जब उन्हें ऐसा लगे कि सदन में इस समुदाय को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला।

लोकसभा के लिए विभिन्न राज्यों की सदस्य संख्या का निर्धारण इस प्रकार किया जाता है कि राज्य के लिए निर्धारित सीटों की संख्या और उस राज्य की जनसंख्या का अनुपात, जहां तक व्यावहारिक रूप से संभव हो, सभी राज्यों में समान हो। इस समय लोकसभा के 545 सदस्य हैं। इनमें से 530 सदस्य राज्यों से तथा 13 सदस्य केंद्रशासित प्रदेशों से सीधे चुने गए हैं। दो सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए गए हैं, जो आंग्ल-भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। 84वें संविधान संशोधन विधेयक-2001 के तहत विभिन्न राज्यों में लोकसभा की वर्तमान सीटों की कुल संख्या का निर्धारण 1971 की जनगणना के आधार पर किया गया है तथा 2026 तक इसमें कोई फेरबदल नहीं किया जाएगा।

लोकसभा का कार्यकाल, यदि उसे भंग न किया जाए, सदन की पहली बैठक की तिथि से लेकर पांच वर्ष होता है। किंतु यदि आपातस्थिति लागू हो तो यह अवधि संसद द्वारा कानून बनाकर बढ़ाई जा सकती है। परंतु यह वृद्धि एक समय पर एक वर्ष से अधिक नहीं हो सकती और आपातस्थिति समाप्त होने के बाद किसी भी हालत में छह महीने से अधिक समय तक नहीं हो सकती। अब तक 14 लोकसभाएं गठित की जा चुकी हैं। प्रत्येक लोकसभा के कार्यकाल और उसके अध्यक्षों का ब्योरा सारणी 3.1 में दिया गया है।

दोनों सदनों में राज्यवार सीटों के निर्धारण तथा लोकसभा में विभिन्न दलों की स्थिति की जानकारी सारणी 3.2 में उपलब्ध है। 14वीं लोकसभा के सदस्यों के नाम, उनकी पार्टी और चुनाव क्षेत्र का विवरण परिशिष्ट में दिया गया है।

संसद की सदस्यता के लिए योग्यताएं

संसद का सदस्य चुने जाने के लिए भारत का नागरिक होना आवश्यक है। लोकसभा के लिए कम-से- कम 25 वर्ष और राज्यसभा के लिए कम-से-कम 30 वर्ष उम्र होनी चाहिए। अतिरिक्त योग्यताएं संसद कानून बनाकर निर्धारित कर सकती है।

संसद के कार्य और अधिकार

अन्य संसदीय लोकतंत्रों की भांति भारत की संसद को भी कानून बनाने, प्रशासन की देखरेख, बजट पारित करने, लोगों की कठिनाइयों को दूर करने और विकास योजनाएं, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों आदि राष्ट्रीय नीतियों जैसे विषयों पर चर्चा करने का अधिकार है। संघ और राज्यों में अधिकारों के वितरण की संविधान में जो व्यवस्था की गई है, उसके अनुसार विधायी क्षेत्र में कई तरह से संसद को उच्च स्थान दिया गया है। अनेक विषयों पर कानून बनाने के अतिरिक्त, संसद कुछ परिस्थितियों में ऐसे विषयों के विधायी अधिकार भी प्राप्त कर सकती है, जो अन्यथा राज्यों के लिए सुरक्षित हैं। संसद को राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, मुख्य चुनाव आयुक्त और नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक की संविधान की निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार उनके पदों से हटाने का अधिकार प्राप्त है।

सभी विधेयकों को संसद के दोनों सदनों की स्वीकृति मिलना अनिवार्य है। किंतु वित्त विधेयकों के मामले में लोकसभा की इच्छा सर्वोपरि है। संसद प्रदत्त कानूनों की समीक्षा करती है तथा उन पर नियंत्रण रखती है। संविधान के अंतर्गत संसद को कानून बनाने के साथ-साथ संविधान में संशोधन करने का अधिकार है।

संसदीय समितियां[सम्पादन]

संसद के कार्यों में विविधता तो है, साथ ही उसके पास काम की अधिकता भी रहती है। चूंकि उसके पास समय बहुत सीमित होता है, इसलिए उसके समक्ष प्रस्तुत सभी विधायी या अन्य मामलों पर गहन विचार नहीं हो सकता है। अत— इसका बहुत-सा कार्य समितियों द्वारा किया जाता है। संसद के दोनों सदनों की समितियों की संरचना कुछ अपवादों को छोड़कर एक जैसी होती है। इन समितियों में नियुकि्त, कार्यकाल, कार्य एवं कार्य संचालन की प्रक्रिया कुल मिलाकर करीब एक जैसी ही है और यह संविधान के अनुच्छेद 118 (1) के अंतर्गत दोनों सदनों द्वारा निर्मित नियमों के तहत अधिनियमित होती है।

सामान्यतः ये समितियां दो प्रकार की होती हैं-स्थायी समितियां और तदर्थ समितियां। स्थायी समितियां प्रतिवर्ष या समय-समय पर निर्वाचित या नियुक्त की जाती हैं और इनका कार्य कमोबेश निरंतर चलता रहता है। तदर्थ समितियों की नियुक्ति जरूरत पड़ने पर की जाती है तथा अपना काम पूरा कर लेने और अपनी रिपोर्ट पेश कर देने के बाद वे समाप्त हो जाती हैं।

स्थायी समितियां — लोकसभा की स्थायी समितियों में तीन वित्तीय समितियों, यानी लोक लेखा समिति, प्राक्कलन समिति तथा सरकारी उपक्रम समिति का विशिष्ट स्थान है और ये सरकारी खर्च और निष्पादन पर लगातार नजर रखती हैं। लोक लेखा समिति तथा सरकारी उपक्रम समिति में राज्यसभा के सदस्य भी होते हैं, लेकिन प्राक्कलन समिति के सभी सदस्य लोकसभा से होते हैं।

प्राक्कलन समिति यह बताती है कि प्राक्कलनों में निहित नीति के अनुरूप क्या मितव्ययिता बरती जा सकती है तथा संगठन, कार्यकुशलता और प्रशासन में क्या-क्या सुधार किए जा सकते हैं। यह इस बात की भी जांच करती है कि धन प्राक्कलनों में निहित नीति के अनुरूप ही व्यय किया गया है या नहीं। समिति इस बारे में भी सुझाव देती है कि प्राक्कलन को संसद में किस रूप में पेश किया जाए। लोक लेखा समिति भारत सरकार के विनियोग तथा वित्त लेखा और लेखा नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट की जांच करती है। यह सुनिश्चित करती है कि सरकारी धन संसद के निर्णयों के अनुरूप ही खर्च हो। यह अपव्यय, हानि और निरर्थक व्यय के मामलों की ओर ध्यान दिलाती है। सरकारी उपक्रम समिति नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक की, यदि कोई रिपोर्ट हो, तो उसकी जांच करती है। वह इस बात की भी जांच करती है कि ये सरकारी उपक्रम कुशलतापूर्वक चलाए जा रहे हैं या नहीं तथा इनका प्रबंध ठोस व्यापारिक सिद्धांतों और विवेकपूर्ण वाणिज्यिक प्रक्रियाओं के अनुसार किया जा रहा है या नहीं।

इन तीन वित्तीय समितियों के अलावा, लोकसभा की नियमों के बारे में समिति ने विभागों से संबंधित 17 स्थायी समितियां गठित करने की सिफारिश की थी। इसके अनुसार 8 अप्रैल, 1993 को इन 17 समितियों का गठन किया गया। जुलाई 2004 में नियमों में संशोधन किया गया, ताकि ऐसी ही सात और समितियां गठित की जा सकें। इस प्रकार से इन समितियों की संख्या 24 हो गई है। इन समितियों के निम्नलिखित कार्य हैं —

(क) भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों/विभागों के अनुदानों की मांग पर विचार करना और उसके बारे में सदन को सूचित करना;

(ख) लोकसभा के अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति द्वारा समिति के पास भेजे गए ऐसे विधेयकों की जांच-पड़ताल करना, और जैसा भी मामला हो, उसके बारे में रिपोर्ट तैयार करना;

(ग) मंत्रालयों और विभागों की वार्षिक रिपोर्टों पर विचार करना तथा उसकी रिपोर्ट तैयार करना; और

(घ) सदन में प्रस्तुत नीति संबंधी दस्तावेज, यदि लोकसभा के अध्यक्ष अथवा राज्यसभा के सभापति द्वारा समिति के पास भेजे गए हैं, उन पर विचार करना और जैसा भी हो, उसके बारे में रिपोर्ट तैयार करना।

प्रत्येक सदन में अन्य स्थायी समितियां, उनके कार्य के अनुसार इस प्रकार विभाजित हैं- (1) जांच समितियां-(क) याचिका समिति — विधेयकों और जनहित संबंधी मामलों पर प्रस्तुत याचिकाओं की जांच करती है और केंद्रीय विषयों पर प्राप्त प्रतिवेदनों पर विचार करती है; और (ख) विशेषाधिकार समिति — सदन या अध्यक्ष/सभापति द्वारा भेजे गए विशेषाधिकार के किसी भी मामले की जांच करती है; (2) संवीक्षण समितियां- (क) सरकारी आश्वासनों से संबंधी समिति — मंत्रियों द्वारा सदन में दिए गए आश्वासनों, वादों एवं संकल्पों पर उनके कार्यान्वित होने तक नजर रखती है; (ख) अधीनस्थ विधि निर्माण समिति — इस बात की जांच करती है कि क्या संविधान द्वारा प्रदत्त विनियमों, नियमों, उप-नियमों तथा प्रदत्त शक्तियों का प्राधिकारियों द्वारा उचित उपयोग किया जा रहा है; (ग) पटल पर रखे गए पत्रों संबंधी समिति — वैधानिक अधिसूचनाओं और आदेशों के अलावा, जो कि अधीनस्थ विधान संबंधी समिति के कार्य क्षेत्र में आते हैं, मंत्रियों द्वारा सदन के पटल पर रखे गए सभी कागजातों की जांच करती है और देखती है कि संविधान, अधिनियम, नियम या विनियम के अंतर्गत कागजात प्रस्तुत करते हुए उनकी व्यवस्थाओं का पालन हुआ है या नहीं; (3) सदन के दैनिक कार्य से संबंधित समितियां-(क) कार्य मंत्रणा समिति — सदन में पेश किए जाने वाले सरकारी एवं अन्य कार्य के लिए समय-निर्धारण की सिफारिश करती है; (ख) गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों तथा प्रस्तावों संबंधी लोकसभा की समिति — निजी सदस्यों द्वारा पेश गैर-सरकारी विधेयकों का वर्गीकरण एवं उनके लिए समय का निर्धारण करती है, निजी सदस्यों द्वारा पेश प्रस्तावों पर बहस के लिए समय का निर्धारण करती है और लोकसभा में निजी सदस्यों द्वारा पेश किए जाने से पूर्व संविधान संशोधन विधेयकों की जांच करती है। राज्यसभा में इस तरह की समिति नहीं होती। राज्यसभा की कार्यमंत्रणा समिति की गैर-सरकारी विधेयकों एवं प्रस्तावों के चरण या चरणों में बहस के लिए समय के निर्धारण की सिफारिश करती है। (ग) नियम समिति— सदन में कार्यविधि और कार्यवाही के संचालन से संबंधित मामलों पर विचार करती है और नियमों में संशोधन या संयोजन की सिफारिश करती है, और (घ) सदन की बैठकों में अनुपस्थित सदस्यों संबंधी लोकसभा की समिति — सदन के सदस्यों की बैठकों से अनुपस्थिति या छुट्टी के आवेदनों पर विचार करती है। राज्यसभा में इस प्रकार की कोई समिति नहीं है। सदस्यों की छुट्टी या अनुपस्थिति के आवेदनों पर सदन स्वयं विचार करता है; (4) अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के कल्याण की समिति — इसमें दोनों सदनों के सदस्य होते हैं। यह केंद्र सरकार के कार्यक्षेत्र में आने वाली अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण संबंधी मामलों पर विचार करती है और इस बात पर नजर रखती है कि उन्हें जो संवैधानिक संरक्षण दिए गए हैं, वे ठीक से कार्यान्वित हो रहे हैं या नहीं, (5) सदस्यों को सुविधाएं प्रदान करने संबंधी समितियां-(क) सामान्य प्रयोजन संबंधी समिति — सदन से संबंधित ऐसे मामलों पर विचार करती है, जो किसी अन्य संसदीय समिति के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते तथा अध्यक्ष/सभापति को इस बारे में सलाह देती है, और (ख) आवास समिति — सदस्यों के लिए आवास तथा अन्य सुविधाओं की व्यवस्था करती है; (6) संसद सदस्यों के वेतन और भत्तों संबंधी संयुक्त समिति — यह संसद सदस्यों के वेतन, भत्ते एवं पेंशन अधिनियम, 1954 के अंतर्गत गठित की गई है। संसद सदस्यों के वेतन, भत्ते एवं पेंशन संबंधी नियम बनाने के अतिरिक्त,

यह उनके चिकित्सा, आवास, टेलीफोन, डाक, निर्वाचन क्षेत्र एवं सचिवालय संबंधी सुविधाओं के संबंध में नियम बनाती है; (7) लाभ के पदों संबंधी संयुक्त समिति — यह केंद्र, राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों द्वारा नियुक्त समितियों एवं अन्य निकायों की संरचना और स्वरूप की जांच करती है, और यह सिफारिश करती है कि कौन-कौन से पद ऐसे हों, जो संसद के किसी भी सदन की सदस्यता के लिए किसी व्यक्ति को योग्य अथवा अयोग्य बनाते हैं; (8) पुस्तकालय समिति — इसमें दोनों सदनों के सदस्य होते हैं। यह संसद के पुस्तकालय से संबंधित मामलों पर विचार करती है, और (9) महिला अधिकारिता समिति — 29 अप्रैल, 1997 को महिलाओं के अधिकारों के बारे में दोनों सदनों के सदस्यों की एक समिति का गठन किया गया। इसका उद्देश्य, अन्य बातों के साथ, सभी क्षेत्रों में महिलाओं को हैसियत, गरिमा और समानता प्रदान करना है। (10) 4 मार्च, 1997 को राज्यसभा की आचार संहिता समिति गठित की गई। लोकसभा की आचार-संहिता संबंधी समिति 16 मई, 2000 को गठित की गई।

तदर्थ समितियां — इस तरह की समितियों को मोटे रूप में दो शीर्षकों के अंतर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है-(क) संसद के दोनों सदनों द्वारा किसी विचाराधीन प्रस्ताव के स्वीकृत किए जाने पर समय-समय पर गठित समितियां अथवा अध्यक्ष/सभापति द्वारा कोई विशिष्ट विषय (उदाहरण के लिए-राष्ट्रपति के अभिभाषण पर, कुछ सदस्यों के आचरण पर, पंचवर्षीय योजनाओं के मसौदे पर, रेलवे कनवेंशन समिति, स्थानीय क्षेत्रों के विकास की योजना से संबद्ध सांसदों की समिति, बोफोर्स ठेके पर संयुक्त समिति, उर्वरक मूल्य निर्धारण पर संयुक्त समिति और प्रतिभूति तथा बैंक भुगतानों में गड़बड़ी की जांच करने के लिए संयुक्त समिति, आदि), संसदीय परिसर की सुरक्षा संबंधी संयुक्त समिति और (ख) विशेष विधेयकों पर विचार करने एवं रिपोर्ट देने के लिए नियुक्त प्रवर एवं संयुक्त समितियां। जहां तक विधेयकों से संबंधित सवाल है, ये समितियां अन्य तदर्थ समितियों से भिन्न हैं और इनके द्वारा पालन की जाने वाली प्रक्रिया का उल्लेख अध्यक्ष/सभापति के निर्देश तथा प्रक्रिया संबंधी नियमों में किया जाता है।

संसद में विपक्ष का नेता[सम्पादन]

संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष के नेता की महत्त्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए राज्यसभा और लोकसभा में विपक्ष के नेताओं को वैधानिक मान्यता दी गई है। पहली नवंबर, 1977 से लागू एक पृथक कानून के अंतर्गत उन्हें वेतन तथा कुछ अन्य उपयुक्त सुविधाएं दी जाती हैं।

संसद में सरकारी कामकाज[सम्पादन]

संसद के दोनों सदनों में सरकारी कार्य को समन्वित करने, उसकी योजना बनाने और तत्संबंधी व्यवस्था करने की जिम्मेदारी संसदीय कार्य मंत्री को सौंपी गई है। इस कार्य के संपादन में उनके राज्यमंत्री उनकी सहायता करते हैं। संसदीय कार्य मंत्री दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों, विभिन्न दलों एवं समूहों के नेताओं तथा मुख्य सचेतकों से लगातार संपर्क बनाए रखते हैं। 1 अगस्त, 2008 से 30 जून, 2009 की अवधि के दौरान संसद के दोनों सदनों द्वारा 44 विधेयक पारित किए गए।

सलाहकार समितियां भारत सरकार (कामकाज का आवंटन) नियम, 1961 के तहत संसदीय मामलों के मंत्रालय को आवंटित कार्यों में से एक, विभिन्न मंत्रालयों के लिए संसद सदस्यों की सलाहकार समितियों का कार्य है। इस कार्य को करने के लिए संसदीय मामलों का मंत्रालय इन समितियों का गठन करता है और उनकी बैठकें आयोजित करता है। इन समितियों का उद्देश्य एक ओर संसद सदस्यों और दूसरी ओर मंत्रियों और वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के बीच सरकारी नीतियों एवं कार्यक्रमों और उनके क्रियान्वयन के तरीकों के बारे में अनौपचारिक चर्चा करना है। मंत्रालय का मंत्री/प्रभारी मंत्री संबद्ध सलाहकार समिति का अध्यक्ष होता है।

सलाहकार समिति की न्यूनतम सदस्यता 10 और अधिकतम सदस्यता 30 है। प्रत्येक लोकसभा के भंग होने पर सलाहकार समिति भी भंग हो जाती है और नई लोकसभा के गठन के साथ सलाहकार समितियों का पुनर्गठन कर दिया जाता है। 14वीं लोकसभा के भंग होने के समय, 32 सलाहकार समितियां विभिन्न मंत्रालयों के साथ संबद्ध थीं। इनके अतिरिक्त 16 रेलवे क्षेत्रों की 16 अनौपचारिक समितियां भी गठित की गई थीं। मंत्रालयों से संबद्ध सलाहकार समितियों से भिन्न, इन अनौपचारिक समितियों की बैठकें सत्र अवधि में ही आयोजित की जाती हैं। 1 अगस्त, 2008 से 18 मई 2009 (14वीं लोकसभा भंग होने की तिथि) की अवधि में सलाहकार समितियों की 34 बैठकें आयोजित की गई थीं।

15 वीं लोकसभा, जो हाल ही में गठित हुई है, की सलाहकार समितियों के गठन की कार्रवाई का सूत्रपात हो गया है। 41 सलाहकार समितियों का गठन प्रस्तावित है और सलाहकार समितियों में नामांकन के लिए संसद सदस्यों की वरीयता को आमंत्रित किया गया है। संसद सदस्यों की वरीयता प्राप्त होने के पश्चात, विभिन्न मंत्रालयों की सलाहकार समितियों का गठन कर दिया जाएगा और उनकी बैठकें आयोजित की जाएंगी।

संसद सदस्यों की सरकारी समितियों/बोर्डों में नामज़दगी

संसदीय कार्य मंत्रालय, संसद सदस्यों को भारत सरकार द्वारा विभिन्न मंत्रालयों में स्थापित समितियों, परिषदों, बोर्डों और आयोग आदि में नामजद करता है। संवैधानिक अथवा अन्य ऐसे निकायों को छोड़कर जो संविधान या कानून का निर्माण करते हैं, वहां संसद सदस्यों की नियुक्ति के लिए नामजदगी संबंधित सदनों के पीठासीन अधिकारी द्वारा की जाती है या फिर उसका चयन लोकसभा या राज्यसभा करती है। इस तरह के संगठनों में सदस्यों को उनकी विशेष दिलचस्पी और योग्यता को देखते हुए नामजद किया जाता है।

युवा संसद प्रतियोगिता

युवाओं को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और लोकतंत्र से अवगत कराने के लिए मंत्रालय विद्यालय और कॉलेज/ विश्वविद्यालय स्तर पर युवा संसद प्रतियोगिता का आयोजन करता है। युवा संसद प्रतियोगिता आयोजित करने की यह योजना सबसे पहले 1966-67 में दिल्ली के विद्यालयों में लागू की गई थी। बाद में 1978 में दिल्ली और आसपास के केंद्रीय विद्यालयों में भी इस योजना को लागू किया गया। राष्ट्रीय स्तर पर 1988 में केंद्रीय विद्यालयों में एक अलग योजना के रूप में इसे शुरू किया गया। इसी तरह 1997-98 में दो नई योजनाओं के अंतर्गत युवा संसद प्रतियोगिता लागू की गई, एक जवाहर नवोदय विद्यालय के लिए और दूसरी विश्वविद्यालयों/कॉलेज के लिए।

वर्ष 2008-09 के दौरान दिल्ली के विद्यालयों के लिए 43वीं युवा संसद प्रतियोगिता में 33 विद्यालय शामिल हुए। केंद्रीय विद्यालयों की 21वीं राष्ट्रीय युवा संसद प्रतियोगिता में 90 केंद्रीय विद्यालयों ने भाग लिया। जवाहर नवोदय विद्यालय के लिए 11वीं राष्ट्रीय युवा संसद प्रतियोगिता आयोजित की गई। उसके अलावा विश्वविद्यालयों/कॉलेजों के लिए नौवीं राष्ट्रीय युवा संसद प्रतियोगिता आयोजित की गई।

अन्य संसदीय विषय[सम्पादन]

अखिल भारतीय सचेतक सम्मेलन

संसदीय कार्य मंत्रालय समय-समय पर अखिल भारतीय सचेतक सम्मेलन आयोजित करता है। ये सम्मेलन केंद्र और राज्यों में विभिन्न राजनीतिक दलों के सचेतकों के बीच उपयुक्त संपर्क स्थापित करने के लिए किए जाते हैं। वास्तव में इन राजनीतिक दलों का कानून बनाने वाली संस्थाओं के व्यावहारिक कार्य-संचालन से सीधा संबंध होता है। सम्मेलन में समान हित के विषयों और संसदीय लोकतंत्र की संस्थाओं को मजबूत बनाने के लिए उच्च मानक बनाने पर विचार किया जाता है। 1952 से अब तक 14वां अखिल भारतीय सचेतक सम्मेलन आयोजित किया जा चुका है। यह सम्मेलन 4-5 फरवरी, 2008 को मुंबई में आयोजित किया गया था। 14वें अखिल भारतीय सचेतक सम्मेलन के उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता माननीय उपराष्ट्रपति ने की और समापन समारोह की अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष ने की।

नियम 377 तथा विशेष उल्लेख के अंतर्गत मामले

संसदीय कार्य मंत्रालय लोकसभा में कार्यविधि और कार्यवाही के संचालन संबंधी नियमों के नियम 377 के और राज्यसभा में विशेष उल्लेख के अंतर्गत उठाए गए विषयों पर अनुवर्ती कार्रवाई करता है। संसद के दोनों सदनों में “प्रश्नकाल” के बाद सदस्य सार्वजनिक महत्त्व के जरूरी विषय उठाते है। यद्यपि ऐसा करना आवश्यक नहीं है। कभी-कभी मंत्री सदस्यों द्वारा उठाए गए विषयों पर अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करते हैं। जब संबंधित मंत्री उपस्थित नहीं होते हैं, संसदीय कार्य मंत्री सदन या संबंधित सदस्य को आश्वासन देते हैं कि उनकी भावनाएं संबंधित मंत्री तक पहुंचा दी जाएंगी।

आश्वासनों का कार्यान्वयन

संसदीय कार्य मंत्रालय संसद के दोनों सदनों की दैनिक कार्यवाहियों में से मंत्रियों द्वारा दिए गए आश्वासनों/ वायदों, संकल्पों आदि को छांटकर उन्हें संबंधित मंत्रालयों/विभागों को कार्यान्वयन के लिए भेजता है। संबंधित मंत्रालयों/विभागों से आश्वासनों को लागू करने के बारे में आवश्यक विवरण एकत्र करने तथा उसकी समुचित जांच करने के बाद संसदीय कार्य मंत्री/राज्यमंत्री द्वारा उनके कार्यान्वयन के संबंध में सरकार द्वारा की गई कार्रवाई को दर्शाने वाले विवरण समय-समय पर सदन के पटल पर रखे जाते हैं।

प्रशासनिक ढांचा

भारत के राष्ट्रपति के भारत सरकार के कार्यों का आवंटन करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 77 के अंतर्गत भारत सरकार (कार्य निर्धारण) नियम, 1961 बनाए हैं। इन नियमों के अंतर्गत ही प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा भारत सरकार के मंत्रालयों/विभागों का गठन किया जाता है। इन मंत्रालयों/विभागों/ सचिवालयों और कार्यालयों (जिनका उल्लेख “विभाग” के रूप में किया गया है) में भारत सरकार के कार्यों का संचालन इन नियमों में निर्दिष्ट विषयों के वितरण के अनुसार होता है। प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति मंत्रियों के बीच काम का बंटवारा करते हैं। प्रत्येक विभाग आमतौर पर एक सचिव के अधीन होता है, जो नीतिगत मामलों और सामान्य प्रशासन के बारे में मंत्री की मदद करता है।

मंत्रिमंडल सचिवालय

भारत सरकार (कामकाज का आवंटन) नियम, 1961 के प्रावधानों के तहत मंत्रिमंडल सचिवालय प्रत्यक्षत— प्रधानमंत्री के अधीन कार्य करता है। इसका प्रशासनिक प्रमुख कैबिनेट सचिव होता है जो सिविल सर्विसेज बोर्ड का पदेन अध्यक्ष भी है।

कैबिनेट सचिव का कार्य निम्न होता है — (क) मंत्रिमंडल समितियों को सचिवालय सहयोग और (ख) कार्य नियम।

कैबिनेट सचिवालय, भारत सरकार (कार्य संचालन) नियम, 1961 और भारत सरकार (कार्य आबंटन) नियम, 1961 के प्रशासन के लिए उत्तरदायी होता है, जिसमें वह सरकार के मंत्रालयों में इन नियमों का पालन करते हुए सुचारू रूप से कार्य संचालन की सुविधा प्रदान करता है। विभिन्न मंत्रालयों के बीच समन्वय स्थापित करते हुए और मंत्रालयों के बीच मतभेदों को दूर करते हुए यह सचिवालय सरकार को निर्णय लेने में मदद करता है तथा सचिवालय की स्थाई/तदर्थ समितियों के जरिए आपस में सहमति बनाए रखता है। इस विधि से नई नीतियों की पहल को प्रोत्साहित भी किया जाता है। कैबिनेट सचिवालय यह सुनिश्चित करता है कि सभी मंत्रालयों/विभागों की प्रमुख गतिविधियों के बारे में हर महीने एक सारांश बनाकर राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और मंत्रियों को उससे अवगत कराया जाए। देश में किसी बड़े संकट के समय उसका प्रबंधन करना तथा ऐसी परिस्थितियों में विभिन्न मंत्रालयों की गतिविधियों में समन्वय स्थापित करना भी कैबिनेट सचिवालय का एक काम है।

कैबिनेट सचिव, सिविल सर्विसेज का प्रमुख भी होता है। इसलिए विभिन्न मंत्रालयों के बीच समन्वय को बढ़ावा देने के लिए कैबिनेट सचिवालय एक उपयोगी माध्यम है। सचिव यह महसूस करते हैं कि उनकी गतिविधियों के बारे में कैबिनेट सचिव को समय-समय पर सूचित करते रहना आवश्यक है। कार्य नियमों के संचालन के लिए भी यह आवश्यक है कि समय-समय पर विभिन्न गतिविधियों के बारे में, विशेषकर यदि कहीं नियमों का पालन नहीं हो रहा है तो उसके बारे में कैबिनेट सचिव को सूचित किया जाए।

राष्ट्रीय प्राधिकरण, रासायनिक हथियार समझौता (कन्वेंशन)

राष्ट्रीय प्राधिकरण, रासायनिक हथियार कन्वेंशन (सी डब्ल्यू सी) का गठन 5 मई, 1997 को कैबिनेट सचिवालय के प्रस्ताव द्वारा किया गया था। इसके गठन का उद्देश्य रासायनिक हथियार कन्वेंशन में निर्धारित दायित्वों को पूरा करना था जिस पर शुरू में 130 देशों ने 14 जनवरी, 1993 को संपन्न हुए सम्मेलन में हस्ताक्षर किए थे। इस कन्वेंशन का लक्ष्य था किसी भी सदस्य देश द्वारा सभी रासायनिक हथियारों के विकास, उत्पादन, क्रियान्वयन, हस्तांतरण, प्रयोग और भंडारण पर रोक लगाना था। प्रत्येक देश को अपनी िज़म्मेदारी निभाने को एक राष्ट्रीय प्राधिकरण मनोनीत अथवा गठित करती है जो रासायनिक हथियार प्रतिबंध संगठन (ओपीसी डब्ल्यू) के साथ प्रभावी संपर्क एवं समन्वय रखे; इसीलिए कैबिनेट सचिवालय के प्रशासनिक नियंत्रण में राष्ट्रीय प्राधिकरण, रासायनिक हथियार कन्वेंशन गठित किया गया है।

कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता वाली उच्च स्तरीय संचालन समिति इस राष्ट्रीय प्राधिकरण के कामकाज पर निगरानी रखेगी तथा इसके अन्य सदस्य रहेंगे सचिव (रसायन और पैट्रोरसायन), विदेश सचिव, रक्षा अनुसंधान व विकास सचिव, रक्षा सचिव और राष्ट्रीय प्राधिकरण के अध्यक्ष। एनएसीडब्ल्यूसी इस संबंध में, सीडब्ल्यूसी अधिनियम लागू कराने, सीडब्ल्यूसी तथा अन्य सरकारी पक्षों से तालमेल रखने, दायित्व निर्वहन से संबंद्ध आंकड़े एकत्र करने, सुविधा समझौतों पर बातचीत करने, ओपीसी डब्ल्यू निरीक्षणों से समन्वय रखने, राष्ट्रीय निरीक्षकों और उद्योग कर्मियों के प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था उपलब्ध कराने, गोपनीय कार्यवाही सूचना की सुरक्षा सुनिश्चित करने, यह जांच करना की घोषणाएं पूरी, सही और नियमित हैं, सीडब्ल्यूसी से संबद्ध गतिविधियों में लगी संस्थाओं का पंजीकरण कराना, आदि के दायित्व निभाएगा।

सरकार के मंत्रालय/विभाग[सम्पादन]

सरकार में अनेक मंत्रालय/विभाग होते हैं। इनकी संख्या और इनका स्वरूप समय-समय पर इन बातों पर निर्भर करता है कि काम कितना है तथा किसी मसले को कितना महत्त्व दिया जा रहा है। स्थितियों में परिवर्तन और राजनीतिक औचित्य आदि भी उसमें निर्णायक भूमिका निभाते हैं। मंत्रालय/विभागों की सूची (30 सितम्बर, 2006)

1. कृषि मंत्रालय

(क) कृषि और सहकारिता विभाग

(ख) कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग

(ग) पशुपालन, डेयरी और मत्स्यपालन विभाग

2. रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय

(क) रसायन और पैट्रो-रसायन विभाग

(ख) उर्वरक विभाग

(ग) भेषज विभाग

3. नागर विमानन मंत्रालय
4. कोयला मंत्रालय
5. वाणिज्य और उद्योग
(क) वाणिज्य विभाग
(ख) औद्योगिक नीति और संवर्धन विभाग
6. संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय
(क) दूरसंचार विभाग
(ख) डाक विभाग
(ग) सूचना प्रौद्योगिकी विभाग
7. उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय
(क) उपभोक्ता मामले विभाग
(ख) खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग
8. कारपोरेट कार्य मंत्रालय
9. संस्कृति मंत्रालय
10. रक्षा मंत्रालय
(क) रक्षा विभाग
(ख) रक्षा उत्पादन विभाग
(ग) रक्षा अनुसंधान और विकास विभाग
(घ) भूतपूर्व सैनिक कल्याण विभाग
11. उत्तर-पूर्वी क्षेत्र विकास मंत्रालय
12. भू-विज्ञान मंत्रालय
13. पर्यावरण और वन मंत्रालय
14. विदेश मंत्रालय
15. वित्त मंत्रालय
(क) आर्थिक कार्य विभाग
(ख) व्यय विभाग
(ग) राजस्व विभाग
(घ) विनिवेश विभाग
(च) वित्तीय सेवाएं विभाग
16. खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय
17. स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय
(क) स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग
(ख) आयुर्वेद, योग-प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी विभाग (आयुश)।
(ग) एड्स नियंत्रण विभाग
(घ) स्वास्थ अनुसंधान विभाग
18. भारी उद्योग और लोक उद्यम मंत्रालय
(क) भारी उद्योग विभाग
(ख) लोक उद्यम विभाग
19. गृह मंत्रालय
(क) आंतरिक सुरक्षा विभाग
(ख) राज्य विभाग
(ग) राजभाषा विभाग
(घ) गृह विभाग
(च) जम्मू और कश्मीर विभाग
(छ) सीमा प्रबंधन विभाग
20. शहरी आवास और शहरी गरीबी उपशमन मंत्रालय
21. मानव संसाधन विकास मंत्रालय
(क) स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग
(ख) उच्चतर शिक्षा विभाग
22. सूचना और प्रसारण मंत्रालय
23. श्रम और रोजगार मंत्रालय
24. विधि और न्याय विभाग
(क) विधि कार्य विभाग
(ख) विधायी विभाग
(ग) न्याय विभाग
25. खान मंत्रालय
26. अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय
27. नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय
28. अप्रवासी भारतीयों के मामलों का मंत्रालय
29. पंचायती राज मंत्रालय
30. संसदीय कार्य मंत्रालय
31. कार्मिक, लोक शिकायत तथा पेंशन मंत्रालय
(क) कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग
(ख) प्रशासनिक सुधार और लोक शिकायत विभाग
(ग) पेंशन और पेंशनभोगी कल्याण विभाग
32. पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय
33. योजना मंत्रालय
34. विद्युत मंत्रालय
35. रेल मंत्रालय
36. पोत परिवहन, सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय
(क) पोत परिवहन विभाग
(ख) सड़क परिवहन और राजमार्ग विभाग
37. ग्रामीण विकास मंत्रालय
(क) ग्रामीण विकास विभाग
(ख) भूमि संसाधन विभाग
(ग) पेय जलापूर्ति विभाग
38. विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय
(क) विज्ञान और प्रौद्योगिक विभाग
(ख) विज्ञान और औद्योगिक विकास विभाग
(ग) बायोटेक्नोलॉजी विभाग
39. सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय
40. सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय
41. सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय
42. इस्पात मंत्रालय
43. नौवहन मंत्रालय
44. वस्त्र मंत्रालय
45. पर्यटन मंत्रालय
46. जनजाति कार्य मंत्रालय
47. शहरी विकास मंत्रालय
48. जल संसाधन मंत्रालय
49. महिला और बाल विकास मंत्रालय
50. युवा कार्यक्रम और खेल मंत्रालय

केंद्र सरकार के स्वतंत्र विभाग[सम्पादन]

51. परमाणु ऊर्जा विभाग

52. अंतरिक्ष विभाग

53. युवा मामले विभाग

54. खेल विभाग

55. मंत्रिमंडल सचिवालय

56. राष्ट्रपति सचिवालय

57. प्रधानमंत्री कार्यालय

प्रमुख स्वतंत्र कार्यालय[सम्पादन]

58. नीति आयोग

सरकारी सेवाएं[सम्पादन]

अखिल भारतीय सेवाएं[सम्पादन]

आजादी से पूर्व भारत की शीर्ष सेवाओं में इंडियन सिविल सर्विस सर्वोच्च सेवा थी। इस सेवा के अतिरिक्त, भारतीय पुलिस सेवा भी थी। देश के आजाद होने के बाद यह महसूस किया गया कि भले ही इंडियन सिविल सर्विस ब्रिटिश साम्राज्य काल की देन है, फिर भी राष्ट्र की एकता, अखंडता और स्थिरता को कायम रखने के लिए अखिल भारतीय सेवा की आवश्यकता है। तदनुसार संविधान के अनुच्छेद 312 में ऐसा प्रावधान किया गया, जिसके तहत संघ और राज्यों के लिए समान रूप से एक अथवा उससे अधिक अखिल भारतीय सेवाओं का गठन किया जा सके। भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा संविधान के अनुच्छेद 312 के संदर्भ में संसद द्वारा गठित की गई मानी जाती हैं। संविधान लागू होने के बाद 1966 में भारतीय वन सेवा के नाम से एक नई अखिल भारतीय सेवा गठित की गई। अखिल भारतीय सेवाओं की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इन सेवाओं के कर्मचारियों की भर्ती केंद्र सरकार द्वारा की जाती है, परंतु इनकी सेवाएं विभिन्न राज्यों के कैडर के तहत होती हैं और इन पर राज्यों तथा केंद्र, दोनों के मातहत काम करने की जिम्मेदारी होती है। अखिल भारतीय सेवा का यह पहलू भारतीय संघ की एकता के स्वरूप को मजबूती प्रदान करता है।

तीनों अखिल भारतीय सेवाओं, अर्थात भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस), भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) और भारतीय वन सेवा (आईएफएस) में से आईएएस कैडर के नियंत्रण का अधिकार कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय के पास है। तीनों सेवाओं में भर्ती संघ लोक सेवा आयोग द्वारा की जाती है। इन अधिकारियों की भर्ती और प्रशिक्षण का काम केंद्र सरकार करती है और फिर इन्हें विभिन्न राज्यों के कैडर में भेज दिया जाता है।

केंद्रीय सचिवालय सेवाएं[सम्पादन]

केंद्रीय सचिवालय की तीन सेवाएं हैं, यानी-(1) केंद्रीय सचिवालय सेवा,(2) केंद्रीय सचिवालय आशुलिपिक सेवा, और (3) केंद्रीय सचिवालय लिपिक सेवा। केंद्रीय सचिवालय सेवा के ग्रेड-1 और सलेक्शन ग्रेड और केंद्रीय सचिवालय आशुलिपिक सेवा के वरिष्ठ प्रधान निजी सचिव और प्रधान निजी सचिव के ग्रेड केंद्रीकृत हैं। केंद्रीय सचिवालय सेवा के अनुभाग अधिकारी ग्रेड और सहायक ग्रेड, इसी सेवा के ग्रेड “डी”, “सी”, “ए” और “बी” (विलीनित) और एलडीसी एवं यूडीसी के पद विकेंद्रीकृत हैं। केंद्रीय ग्रेडों में नियुक्तियां और पदोन्नतियां, कार्मिक तथा प्रशिक्षण विभाग द्वारा अखिल सचिवालय आधार पर की जाती हैं। विकेंद्रीकृत ग्रेडों के मामले में, कार्मिक तथा प्रशिक्षण विभाग वरिDता कोटा में पदोन्नति का क्षेत्र निर्धारित करता है और कोटा रिक्तियों की सीधी भर्ती के लिए विभिन्न कैडरों की समग्र आवश्यकताओं का पता लगाता और मूल्यांकन करता है और सीधी भर्ती एवं विभागीय परीक्षा कोटा की रिक्तियों के लिए केंद्रीकृत भर्ती के जरिए खुली प्रतियोगिता और विभागीय परीक्षा आयोजित करता है।

संघ लोक सेवा आयोग[सम्पादन]

संविधान में केंद्र सरकार के अंतर्गत सिविल पदों पर ग्रुप “ए” और “बी” राजपत्रित पदों की भर्ती तथा विभिन्न सेवा संबंधी मामलों में सलाह देने के लिए एक स्वतंत्र निकाय-संघ लोक सेवा आयोग की व्यवस्था है। आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इनका कार्यकाल छह वर्ष का या 65 वर्ष की आयु तक होता है, दोनों में जो भी पहले समाप्त हो जाए। आयोग की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए यह व्यवस्था है कि नियुक्ति के समय जो सदस्य सरकारी सेवा में हो, वह आयोग में नियुक्ति के बाद सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त माना जाएगा। आयोग के अध्यक्ष और सदस्य सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पद ग्रहण करने के अधिकारी नहीं हैं। इन्हें संविधान में की गई व्यवस्था और उसमें दिए आधार के अलावा, अपने पदों से नहीं हटाया जा सकता।

कर्मचारी चयन आयोग[सम्पादन]

कर्मचारी चयन आयोग, जिसे शुरू में अधीनस्थ कर्मचारी सेवा आयोग कहते थे, का गठन 1 जुलाई, 1976 को किया गया। इसे निम्नलिखित भर्ती का काम सौंप गया है-(1) भारत सरकार के सभी मंत्रालयों/विभागों तथा उनके संबद्ध और अधीनस्थ कार्यालयों के सभी ग्रुप “ख” के पद, तकनीकी और गैर तकनीकी-जिनका अधिकतम वेतनमान 6500-10,500 रूपये हो, और (2) भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों/विभागों तथा उनसे संबद्ध और अधीनस्थ कार्यालयों में ग्रुप “ग” के सभी गैर-तकनीकी पदों-उन पदों को छोड़कर, जिन्हें स्पष्ट रूप से कर्मचारी चयन आयोग के अधिकार-क्षेत्र से परे रखा गया है। आयोग कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग का संबद्ध कार्यालय है और इसमें शामिल हैं-अध्यक्ष, दो सदस्य, सचिव और परीक्षा नियंत्रक। अध्यक्ष/सदस्यों का कार्यकाल पांच वर्ष या 62 वर्ष की आयु प्राप्त करनेतक होता है। आयोग का मुख्यालय और उसके उत्तरी क्षेत्र का कार्यालय नई दिल्ली में है। इसके मध्य, पश्चिम, पूर्व, पूर्वोत्तर, दक्षिण और कर्नाटक, केरल क्षेत्र के कार्यालय क्रमश— इलाहाबाद, मुंबई, कोलकाता, गुवाहाटी, चेन्नई और बंगलुरू में हैं। इसके मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ क्षेत्र और उत्तर-पश्चिम क्षेत्र के उप-क्षेत्रीय कार्यालय रायपुर और चंडीगढ़ में हैं।

राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय[सम्पादन]

संघ सरकार की राजभाषा नीति के संबंध में संवैधानिक तथा विधिक प्रावधानों, राजभाषा अधिनियम, 1963 एवं राजभाषा नियम, 1976 तथा सरकार द्वारा समय-समय पर जारी आदेशों के अनुपालन के लिए राजभाषा विभाग एक नोडीय विभाग है। इसकी स्थापना जून, 1975 में की गई थी। यह विभाग केंद्रीय सरकार के कार्यालयों में हिंदी के प्रगामी प्रयोग को बढ़ाने के लिए अनेक गतिविधियां चला रहा है-यथा केंद्र सरकार के कर्मचारियों को हिंदी भाषा, हिंदी आशुलिपि, हिंदी टंकण व अनुवाद का प्रशिक्षण देना, कार्यालयों का निरीक्षण करना, तिमाही रिपोर्ट के माध्यम से संघ के कामकाज में राजभाषा हिंदी की प्रगति पर निगरानी रखना, राजभाषा कार्यान्वयन के प्रोत्साहन के लिए विभिन्न योजनाओं का परिचालन तथा उनकी मानिटरिंग करना, अखिल भारतीय तथा क्षेत्रीय स्तर के राजभाषा सम्मेलन आदि करना और कार्यान्वयन के लिए विभिन्न स्तरों पर गठित समितियों की बैठकों आदि से संबंधित कार्यों का समन्वय करना आदि शामिल हैं। यह विभाग राजभाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए सहायक साहित्य का प्रकाशन तथा वितरण का कार्य भी करता है। कार्यालयों में प्रयोग में आने वाले विभिन्न यांत्रिक तथा इलैक्ट्रानिक उपकरणों में देवनागरी लिपि के माध्यम से काम करने की सुविधा बढ़ाने की दृष्टि से ऐसे उपकरणों के विकास, निर्माण तथा उपलब्धियों में समन्वय स्थापित करने की भूमिका भी राजभाषा विभाग निभा रहा है। कम्प्यूटर पर हिंदी में कार्य करने संबंधी जानकारी देने के लिए केंद्र सरकार के कार्यालयों के लिए पांच दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित कराने के अतिरिक्त विभाग सी-डेक, पुणे के माध्यम से हिंदी प्रयोग में सहायक कुछ साफ्टवेयरों (लीला, मंत्रा, श्रुतलेखन आदि) का विकास भी कराता रहा है।

राजभाषा विभाग मूलत— राजभाषा हिंदी के प्रचार, प्रसार और प्रयोग से जुड़ी राजभाषायी गतिविधियों तथा कार्यक्रमों के माध्यम से केंद्र सरकार के कार्यालयों में सरकारी कामकाज में अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी के प्रयोग को लक्ष्य बनाये हुए है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए राजभाषा नियम, 1976 के नियम 12 में यह व्यवस्था है कि केंद्र सरकार के प्रत्येक कार्यालय का प्रशासनिक प्रधान यह सुनिश्चित करे कि राजभाषा अधिनियम तथा राजभाषा नियम के उपबंधों का समुचित रूप से अनुपालन हो रहा है तथा इस प्रयोजन के लिए उपयुक्त और प्रभावकारी जांच के लिए उपाय किए जाएं। उसका यह भी दायित्व है कि राजभाषा विभाग द्वारा समय-समय पर राजभाषा नीति संबंधी उपबंधों के अनुपालन के लिए जारी किए गए निर्देशों का पालन हो। इस विभाग के लक्ष्य अन्य विभागों से भिन्न प्रकार के हैं। राजभाषा विभाग ने सरकारी कर्मचारियों को हिंदी भाषा/हिंदी टंकण व आशुलिपि का प्रशिक्षण, सरकारी सामग्री के अनुवाद कार्य, राजभाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार, प्रोत्साहन व कार्यान्वयन के वार्षिक लक्ष्य निर्धारित किए हुए हैं तथा उनको पूरा करने का प्रयास किया जाता है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए राजभाषा विभाग के अंतर्गत केंद्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान, केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो तथा देश के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित 8 क्षेत्रीय राजभाषा कार्यान्वयन कार्यालय कार्यरत हैं।

राजभाषा प्रयोग से संबंधित गठित समितियां[सम्पादन]

(क) संसदीय राजभाषा समिति-राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 4(1) के अंतर्गत वर्ष 1976 में गठित 30 सदस्यीय (20-लोकसभा के तथा 10 राíयसभा के) संसदीय राजभाषा समिति का कार्य संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए हिंदी के प्रयोग में की गई प्रगति का पुनरावलोकन करते हुए अपनी सिफारिशें राष्ट्रपति को प्रस्तुत करना है। समिति द्वारा अब तक राजभाषा हिंदी संबंधी विभिन्न पहलुओं पर प्रस्तुत प्रतिवेदन के आठ खंडों पर राष्ट्रपति के आदेश पारित करवाए जा चुके हैं।

(ख) केंद्रीय हिंदी समिति-इस समिति का गठन प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में भारत सरकार के मंत्रालयों/ विभागों में हिंदी प्रचार तथा प्रगामी प्रयोग से संबंधित कार्यों में समन्वय स्थापित करने की दृष्टि से किया गया है। यह राजभाषा नीति के संबंध में महत्वपूर्ण निर्देश देने वाली सर्वोच्च समिति है। इस समिति का कार्यकाल सामान्यत— तीन वर्ष का होता है। समिति में प्रधानमंत्री के अतिरिक्त कुछ केंद्रीय मंत्री, राíयों के मुख्यमंत्री, संसद सदस्य तथा हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के विद्वान सदस्य के रूप में शामिल होते हैं। वर्तमान समिति की संरचना में कुल 41 सदस्य हैं। गृह मंत्री इस समिति के उपाध्यक्ष तथा सचिव, राजभाषा विभाग इसके सदस्य सचिव हैं।

(ग) हिंदी सलाहकार समिति-केंद्र सरकार के मंत्रालयों/विभागों में राजभाषा नीति के सुचारू रूप से कार्यान्वयन के बारे में परामर्श देने के उद्देश्य से संबंधित मंत्रालयों/विभागों के मंत्री की अध्यक्षता में 57 केंद्रीय मंत्रालयों/विभागों में हिंदी सलाहकार समितियां गठित हैं।

(घ) केंद्रीय राजभाषा कार्यान्वयन समिति-केंद्र सरकार के मंत्रालयों, विभागों में राजभाषा अधिनियम 1963 और राजभाषा नियम, 1976 के उपबंधों के अनुसार सरकारी प्रयोजनों के लिए हिंदी के अधिकाधिक प्रयोग, केंद्र सरकार के कर्मचारियों को हिंदी प्रशिक्षण और राजभाषा विभाग द्वारा समय-समय पर जारी किए गए अनुदेशों के कार्यान्वयन की समीक्षा करने तथा उसके अनुपालन में पाई गई कमियों को दूर करने उपाय सुझाने के उद्देश्य से सचिव, राजभाषा विभाग की अध्यक्षता में केंद्रीय राजभाषा कार्यान्वयन समिति गठित है।

(ङ) नगर राजभाषा कार्यान्वयन समितियां-केंद्र सरकार में राजभाषा हिंदी के कार्यान्वयन पर नजर रखने के लिए देश के विभिन्न प्रमुख नगरों में नगर राजभाषा कार्यान्वयन समितियां गठित हैं। वर्तमान में इनकी संख्या 268 है।

केंद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा-विभिन्न मंत्रालयों/विभागों और उनके संबद्ध कार्यालयों में फैले हिंदी पदों को एकीकृत संवर्ग में लाने तथा उनके पदाधिकारियों को समान सेवा शर्त, वेतनमान और पदोन्नति के अवसर दिलाने हेतु वर्ष 1981 में केंद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा का गठन केंद्रीय हिंदी समिति द्वारा वर्ष 1976 में लिए गए निर्णय के परिणामस्वरूप किया गया है। राजभाषा विभाग इसका संवर्ग नियंत्रक प्रधिकारी है। इस सेवा में भारत सरकार के मंत्रालयों/विभागों तथा उनके संबद्ध कार्यालयों के सभी हिंदी पद कुछ वैज्ञानिक और तकनीकी विभाग यथा सूचना प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा आदि को छोड़कर, शामिल हैं।

राजभाषा-संवैधानिक/वैधानिक प्रावधान

हिंदी, संविधान के अनुच्छेद 343(1) के अनुसार, संघ की राजभाषा है। अनुच्छेद 343 (2) में शासकीय कार्य में अंग्रेजी के उपयोग को संविधान के लागू होने के बाद से 15 वर्ष, यानी 25 जनवरी, 1965 तक जारी रखने का प्रावधान किया गया था। अनुच्छेद 343 (3) में संसद को यह अधिकार दिया गया है कि वह कानून बनाकर सरकारी कार्यों के लिए अंग्रेजी के निरंतर प्रयोग को 25 जनवरी, 1965 के बाद भी जारी रख सकती है। तदनुसार राजभाषा अधिनियम, 1963 (1967 में संशोधित) की धारा 3 (2) में यह व्यवस्था की गई है कि हिंदी के अलावा, अंग्रेजी भाषा सरकारी कामकाज के लिए 25 जनवरी, 1965 के बाद भी जारी रहेगी। अधिनियम में यह भी व्यवस्था है कि कुछ विशेष कार्यों, जैसे-संकल्प, सामान्य आदेश नियम, अधिसूचनाएं, प्रेस विज्ञप्तियां, प्रशासकीय और अन्य रिपोर्टें, लाइसेंस, परमिट, ठेकों आदि में हिंदी और अंग्रेजी दोनों का उपयोग अनिवार्य होगा।

राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 3(4) के अंतर्गत सन् 1976 में राजभाषा नियम बनाए गए। इनकी मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-(1) ये नियम केंद्र सरकार के सभी कार्यालयों पर लागू हैं, जिनमें सरकार द्वारा नियुक्त आयोग, समिति या ट्रिब्यूनल एवं इसके नियंत्रण वाले निगम या कंपनियां भी शामिल हैं। (2) केंद्र सरकार के कार्यालयों से क्षेत्र “क” के राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों (उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, अंडमान निकोबार द्वीपसमूह और दिल्ली) के बीच पत्र-व्यवहार की भाषा हिंदी होगी; (3) केंद्र सरकार के कार्यालयों से क्षेत्र “ख” (पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र और चंडीगढ़) को पत्र आदि हिंदी में भेजे जाएंगे, किंतु क्षेत्र “ख” में किसी व्यक्ति के पास भेजे गए पत्र आदि हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में भेजे जाएंगे; (4) केंद्र सरकार और राज्य सरकार के बीच भेजे जाने वाले पत्र “ग” क्षेत्र के लिए (जिसमें क्षेत्र “क”, “ख” के अन्य राज्य और केंद्रशासित प्रदेश शामिल नहीं हैं,) अंग्रेजी में भेजे जाएंगे; (5) केंद्र सरकार के कार्यालयों के बीच, केंद्र सरकार के कार्यालयों से राज्य/केंद्रशासित प्रदेश के सरकारी कार्यालयों तथा व्यक्तियों आदि के बीच पत्र-व्यवहार उस अनुपात में हिंदी में होगा, जो समय-समय पर निर्धारित किया जाएगा; (6) केंद्र सरकार के कार्यालयों से संबंधित सभी नियमावलियां, संहिताएं तथा प्रक्रिया संबंधी अन्य साहित्य हिंदी और अंग्रेजी दोनों में तैयार कराए जाएंगे। सभी फार्म, रजिस्टरों के प्रमुख पृष्ठ, नाम पट्टिकाएं, सूचना पट्ट तथा स्टेशनरी की वस्तुएं हिंदी और अंग्रेजी में होंगी; (7) अधिनियम के धारा 3(3) में उल्लिखित दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने वाले का यह दायित्व होगा कि वह देखे कि ये दस्तावेज हिंदी और अंग्रेजी दोनों में जारी हों; (8) केंद्र सरकार के प्रत्येक कार्यालय में प्रशासनिक प्रमुख का यह दायित्व होगा कि वह सुनिश्चित करे कि उप- नियम-(2) के तहत जारी नियमों और निर्देशों तथा धारा की व्यवस्थाओं का पूरा पालन हो रहा है तथा इस पर नजर रखने के लिए समुचित एवं कारगर चैक प्वाइंट बनाए जाएं।

नीति[सम्पादन]

राजभाषा के संकल्प, 1968 का पालन करते हुए राजभाषा विभाग हर वर्ष एक वार्षिक कार्यक्रम तैयार करता है, जिसमें केंद्र सरकार के कार्यालयों के लिए हिंदी में पत्र-व्यवहार, हिंदी जानने वाले कर्मचारियों की भर्ती, हिंदी पुस्तकों की खरीद, निरीक्षण बैठकों और दस्तावेजों का हिंदी में अनुवाद कार्य आदि का लक्ष्य निर्धारित किया जाता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के बारे में केंद्र सरकार के कार्यालयों से तिमाही प्रगति रिपोर्ट मांगी जाती है। इस तिमाही रिपोर्ट के आधार पर वार्षिक रिपोर्ट का आकलन किया जाता है। यह वार्षिक रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में रखी जाती है और इसकी प्रतियां राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के मंत्रालयों/ विभागों में भेजी जाती हैं।

संघ की राजभाषा नीति के कार्यान्वयन की निगरानी के लिए बंगलुरू, कोचीन, मुंबई, कोलकाता, गुवाहाटी, भोपाल, दिल्ली और गाजियाबाद, आठ क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय स्थापित किए गए हैं।

समिति[सम्पादन]

राजभाषा अधिनियम 1963 धारा 4 के निहित राजभाषा संसदीय समिति का गठन 1976 में किया गया। इसका गठन सरकारी कामकाज में हिंदी के प्रयोग की प्रगति की समीक्षा करने और उसकी रिपोर्ट राष्ट्रपति को देने के लिए किया गया था। इसमें लोकसभा के 20 और राज्यसभा के 10 सदस्य हैं। समिति ने यह रिपोर्ट हिस्सों में देने का फैसला लिया है। समिति ने अब तक आठ खंडों में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को पेश की है। राष्ट्रपति ने सात खंडों पर आदेश जारी कर दिए हैं और आठवें खंड पर अभी काम चल रहा है।

केंद्रीय हिंदी समिति का गठन सन 1967 में किया गया। इसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री करते हैं। यह नीति निर्माण की सर्वोच्च संस्था है, जो राजभाषा के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के बारे में दिशा निर्देश तय करती है।

केंद्रीय हिंदी समिति के निर्देश पर विभिन्न मंत्रालयों/विभागों में संबंधित मंत्रियों की अध्यक्षता में हिंदी सलाहकार समितियां गठित की गई हैं। ये अपने-अपने मंत्रालयों/विभागों और कार्यालयों/प्रतिष्ठानों में हिंदी के उपयोग में हुई प्रगति की समीक्षा करती हैं और हिंदी के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए अपने सुझाव देती हैं।

इसके अलावा केंद्रीय राजभाषा क्रियान्वयन समिति (जिसके अध्यक्ष राजभाषा विभाग के सचिव होते हैं, सभी मंत्रालयों के संयुक्त सचिव (राजभाषा इंचार्ज) समिति के पदेन सदस्य होते हैं) समिति सरकारी कामकाज में हिंदी के उपयोग की समीक्षा करती है, कर्मचारियों को हिंदी का प्रशिक्षण देने, राजभाषा विभाग द्वारा समय-समय पर जारी निर्देशों का पालन करवाने, तथा इन निर्देशों के कार्यान्वयन में आने वाली कमियों/ कठिनाइयों को दूर करने के लिए अपने सुझाव देती है। ऐसे शहर जहां पर 10 या इससे अधिक केंद्र सरकार के कार्यालय हैं, उनमें हिंदी के उपयोग की समीक्षा करने के लिए नगर राजभाषा कार्यान्वयन समितियां बनाई गई हैं। पूरे देश में अभी तक 257 नगर राजभाषा कार्यान्वयन समितियों का गठन किया जा चुका है।

पुरस्कार योजनाएं[सम्पादन]

इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्कार योजना 1986-87 से शुरू की गई है। इस योजना के अंतर्गत हिंदी के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की दिशा में महत्त्वपूर्ण उपलिब्धयां हासिल करने वाले मंत्रालयों/विभागों, बैंकों, वित्तीय संस्थाओं, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और नगर राजभाषा क्रियान्वयन समितियों को प्रत्येक वर्ष शील्ड प्रदान की जाती है। केंद्र सरकार, बैंकों, वित्तीय संस्थानों, विश्वविद्यालयों, प्रशिक्षण संस्थानों तथा केंद्र सरकार की स्वायत्तशासी संस्थाओं के कार्यरत/सेवानिवृत्त कर्मचारियों द्वारा हिंदी में लिखी गई पुस्तकों के लिए नकद पुरस्कार दिए जाते हैं।

आधुनिक विज्ञान/प्रौद्योगिकी और समकालीन विषयों पर हिंदी में मौलिक पुस्तक लेखन को बढ़ावा देने के लिए जो राष्ट्रीय पुरस्कार योजना थी, उसका नाम पहले “ज्ञान-विज्ञान के लिए मौलिक पुस्तक लेखन” था, इसे अब “हिंदी में मौलिक पुस्तक लेखन के लिए राजीव गांधी राष्ट्रीय पुरस्कार योजना” कर दिया गया है। यह योजना भारत के सभी नागरिकों के लिए है।

हिंदी के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की दिशा में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल करने वाले क्षेत्रीय/ उपक्षेत्रीय कार्यालयों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, नगर राजभाषा क्रियान्वयन समितियों, बैंकों, वित्तीय संस्थानों को प्रत्येक वर्ष क्षेत्रीय स्तर पर, क्षेत्रीय राजभाषा पुरस्कार दिए जाते हैं।

प्रशिक्षण[सम्पादन]

राजभाषा विभाग द्वारा चलाई जाने वाली हिंदी शिक्षण योजना के तहत हिंदी भाषा में प्रशिक्षण देने के लिए 119 पूर्णकालिक और 49 अंशकालिक केंद्र हैं। इसी प्रकार 23 पूर्णकालिक और 38 अंशकालिक केंद्रों के माध्यम से हिंदी आशुलिपि आैर हिंदी टंकण का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इस प्रकार देश के विभिन्न हिस्सों में हिंदी का प्रशिक्षण देने के लिए 229 केंद्र बनाए गए हैं। हिंदी शिक्षण योजना के अंतर्गत पूर्व, पश्चिम, उत्तर-मध्य, दक्षिण तथा पूर्वोत्तर क्षेत्रों में शैक्षणिक और प्रशासनिक सहायता के लिए कोलकाता, मुंबई, दिल्ली, चेन्नई और गुवाहाटी में पांच क्षेत्रीय कार्यालय कार्य कर रहे हैं। पूर्वोत्तर क्षेत्र में हिंदी प्रशिक्षण की भारी मांग को देखते हुए गुवाहाटी में एक नया क्षेत्रीय मुख्यालय खोला गया है तथा इम्फाल, आइजोल और अगरतला में नए हिंदी प्रशिक्षण केंद्र खोले गए हैं।

हिंदी भाषा और हिंदी टंकण में पूर्णकालिक प्रशिक्षण के साथ-साथ पत्राचार के माध्यम से प्रशिक्षण देने के लिए 31 अगस्त, 1985 को केंद्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की गई। 1988 में मुंबई, कोलकाता और बंगलुरू में तथा 1990 में हैदराबाद में इसके उप-कार्यालय खोले गए। देश के लगभग सभी टाइपिंग/स्टेनोग्राफी केंद्रों में हिंदी टाइपिंग का प्रशिक्षण दिया जा रहा है।

केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों/विभागों, कार्यालयों तथा सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, बैंकों आदि के अनुवाद कार्यों के लिए मार्च 1971 में केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो की स्थापना की गई थी। जैसे गैर-वैधानिक साहित्य, मैन्युअल/कोड्स, फॉर्म आदि का अनुवाद करने का कार्य। ब्यूरो को अधिकारियों/कर्मचारियों को अनुवाद कार्य से संबंधित प्रशिक्षण देने की भी जिम्मेदारी सौंपी गई है। प्रारंभिक तौर पर दिल्ली में 3 महीने का प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया गया। क्षेत्रीय जरूरतों को पूरा करने के लिए मुंबई, बाद में बंगलुरू, कोलकाता में ऐसे अनुवाद प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना की गई है। इसके अतिरिक्त केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो केंद्रीय कर्मचारियों के लिए लघु-अवधि के प्रशिक्षण कोर्स भी आयोजित करता है।

तकनीकी[सम्पादन]

मैकेनिकल और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों पर, विशेषकर कंप्यूटर पर राजभाषा के प्रयोग को प्रोत्साहन देने के लिए अक्तूबर, 1983 में राजभाषा विभाग में एक तकनीकी कक्ष की स्थापना की थी। इस कक्ष की प्रमुख गतिविधियां निम्न प्रकार से हैं-(i) भाषा विकास के आवश्यक उपकरण जुटाना, इस कार्यक्रम, “लीला राजभाषा” के अंतर्गत बांग्ला, अंग्रेजी, कन्नड़, मलयालम, तमिल और तेलुगु माध्यम से स्वयं हिंदी सीखने का एक पैकेज विकसित किया गया है। अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के लिए एक सहायक उपकरण “मंत्र राजभाषा” विकसित किया गया है। (ii) हिंदी में कंप्यूटर प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन — कंप्यूटर पर हिंदी के इस्तेमाल के लिए हर साल करीब 100 प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। (iii) हिंदी सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल को लोकप्रिय बनाने के लिए उपभोक्ताओं और निर्माताओं को आमने-सामने लाया जाता है तथा इसके लिए द्विभाषी कंप्यूटर प्रणाली के बारे में प्रदर्शनियों और गोष्ठियों का आयोजन किया जाता है।

प्रकाशन[सम्पादन]

राजभाषा विभाग ने “राजभाषा भारती” त्रैमासिक पत्रिका निकाली है जिसका उद्देश्य साहित्य, तकनीकी, सूचना-प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों में हिंदी में लेखन को बढ़ावा देना और सरकारी कार्यालयों में हिंदी में अधिक से अधिक काम करने के लिए प्रचार-प्रसार करना है। इस पत्रिका के अभी तक 112 अंक प्रकाशित किए जा चुके हैं। राजभाषा नीति से संबंधित वार्षिक क्रियान्वयन कार्यक्रम प्रत्येक वर्ष जारी किया जाता है। विभिन्न मंत्रालयों, विभागों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में हिंदी के कामकाज की समीक्षा संबंधित वार्षिक आकलन रिपोर्ट जारी की जाती है और इसे संसद के दोनों सदनों के पटल पर रखा जाता है। राजभाषा हिंदी के कामकाज को बढ़ावा देने से संबंधित हुए कामकाज की जानकारी देने के लिए राजभाषा मैन्युअल, कैलेंडर, फिल्में, पोस्टर आदि जारी किए जाते हैं।

नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक[सम्पादन]

नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं। उसको पद से हटाने के लिए वही आधार और कार्यविधि अपनाई जाती है, जो उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के लिए होती है। अपना पद छोड़ने के बाद वह संघ या किसी राज्य सरकार में कोई नौकरी नहीं कर सकता है। राष्ट्रपति नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक की सलाह पर संघ और राज्य का लेखा-जोखा रखने के लिए प्रपत्र निर्धारित करते हैं। नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक संघ और राज्यों के लेखे-जोखे की रिपोर्टें राष्ट्रपति और संबद्ध राज्यपालों के पास भेजते हैं, जो संसद और राज्य विधानसभाओं में प्रस्तुत की जाती हैं।

अंतर्राज्यीय परिषद[सम्पादन]

अंतर्राज्यीय परिषद सचिवालय की स्थापना वर्ष 1991 में अंतर्राज्यीय परिषद की सेवाओं के लिए की गई थी। वर्ष 2007 में स्थापित केंद्र-राज्य संबंध आयोग की सेवाओं को भी सचिवालय को सौंपा गया है।

अंतर्राज्यीय परिषद (आईएससी)

संघीय नीति में, संघटक इकाइयों के समान हितों और उनके बीच सम्मिलित कार्रवाइयों के लिए नीतियों में समन्वय और उनका क्रियान्वयन बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। नीतियों में परस्पर समन्वय और उनके क्रियान्वयन को सुकर बनाने के लिए संविधान का अनुच्छेद 263 संस्थानात्मक प्रणाली की स्थापना पर विचार करता है।

केंद्र राज्य संबंधों पर सरकारिया आयोग द्वारा दी गई सिफारिशों का अनुसरण करते हुए 28 मई, 1990 को राष्ट्रपति के आदेश के माध्यम से 1990 में अंतर्राज्यीय परिषद का गठन किया गया। आईएससी एक अनुशंसात्मक इकाई है और उसे एेसे विषयों की जांच और चर्चा के अधिकार दिए गए हैं जिनमें कुछ या सभी राज्य अथवा संघ और एक या एक से अधिक राज्यों का समान हित जुड़ा हो, इस विषय के संदर्भ में बेहतर नीतिगत समन्वय और कार्रवाई के लिए। यह राज्यों के समान हित के अन्य मुद्दों पर भी विचार करता है, जिसे परिषद के अध्यक्ष द्वारा प्रेषित किया गया हो।

माननीय प्रधानमंत्री इस परिषद के अध्यक्ष होते हैं। सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों (जहां विधानसभा हो) के मुख्यमंत्री, केंद्र शासित प्रदेशों (जहां विधान सभा न हो) के प्रशासक, राष्ट्रपति शासन वाले राज्यों के राज्यपाल, मंत्रिमंडल के छह कैबिनेट स्तर के मंत्री, जिन्हें परिषद के अध्यक्ष ने नामांकित किया हो, इस परिषद के सदस्य होते हैं। अध्यक्ष द्वारा नामांकित कैबिनेट स्तर के पांच मंत्री परिषद के स्थायी अतिथि होते हैं। हाल ही में अंतर्राज्यीय परिषद का पुनर्गठन किया गया है। परिषद की बैठक खुली होती है और बैठक के दौरान जिन प्रश्नों पर चर्चा की जाती है, वे सर्वसम्मति से तय किए जाते हैं। इस पर अध्यक्ष का निर्णय अंतिम होता है। संविधान के अनुच्छेद 263 के खंड (क) में परिषद के इस दायित्व को नहीं निर्धारित किया गया है कि वह राज्यों के बीच उठे विवादों की जांच करे और उन पर सलाह दे।

परिषद के लिए विचारणीय मुद्दों पर निरंतर विचार करने और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए वर्ष 1996 में अंतर्राज्यीय परिषद की स्थायी समिति कोगठन किया गया। माननीय गृह मंत्री को स्थायी समिति का अध्यक्ष और पांच कैबिनेट मंत्रियों एवं नौ मुख्यमंत्रियों को इसका सदस्य बनाया गया। इसके बाद समिति का पुनर्गठन किया गया है।

अब तक अंतर्राज्यीय परिषद की 10 बैठकें हो चुकी हैं। शुरूआती 8 बैठकों में परिषद ने केंद्र राज्य संबंधों पर सरकारिया आयोग की 247 सिफारिशों पर ध्यान केंद्रित किया और सभी सिफारिशों पर नजर डाली। 247 सिफारिशों में से, 179 को क्रियान्वित किया जा चुका है, 65 को अंतर्राज्यीय परिषद/प्रशासनिक मंत्रालयों/संबंधित विभागों ने नामंजूर कर दिया है और केवल 3 सिफारिशें क्रियान्वयन के विभिन्न चरणों में हैं।

परिषद सार्वजनिक नीति और प्रशासन के अन्य मुद्दों पर भी विचार करती है, ये इस प्रकार हैं —

(क) ठेके पर श्रम और नियुक्तियां

(ख) अच्छे प्रशासन पर कार्रवाई कार्यक्रम का ब्ल्यू प्रिंट

(ग) आपदा प्रबंधन- आपदाओं से निपटने के लिए राज्यों की तैयारी

(घ) अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों पर अत्याचार और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार की रोकथाम)अधिनियम, 1989 के क्रियान्वयन की स्थिति

अंतर्राज्यीय परिषद सचिवालय की भूमिका एवं कार्य

परिषद सचिवालय अंतर्राज्यीय परिषद द्वारा की गई सिफारिशों के क्रियान्वयन का निरीक्षण करता है और स्थायी समिति/परिषद के सामने कार्रवाई रिपोर्ट (ऐक्शन टेकिंग रिपोर्ट) को विचार के लिए रखता है। परिषद सचिवालय ने सार्वजनिक नीति और प्रशासनिक मुद्दों पर अनेक प्रकार के अध्ययनों को अधिकृत किया है —

(क) खनिजों के संबंध में, जिनमें कोयला, हाइड्रोपावर और पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस शामिल हैं, राज्यों को संसाधनों पर मुआवजा

(ख) उप राष्ट्रीय प्रशासन

(ग) कृषिगत उत्पादों और वस्तुओं पर समान भारतीय बाजार का सृजन

(घ) शहरी फुटपाथी विक्रेताओं के लिए राष्ट्रीय नीतियां परिषद सचिवालय ने केंद्रीय मंत्रालयों/विभागों और राज्य सरकारों के परामर्श से उन मुद्दों को चुनने के लिए कदम भी उठाए हैं जिन पर परिषद को विचार करना है।

अंतर्राज्यीय परिषद सचिवालय ने कनाडा के फोरम ऑफ फेडरेशंस के साथ एक ढांचागत समझौता भी किया है। यह समझौता संघवाद के प्रस्तावों, सिद्धांतों और संभावनाओं पर संवाद को प्रोत्साहित करते हुए प्रशासनिक सुधार और लोकतंत्र को आगे बढ़ाने के लिए इस फोरम के साथ एक अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी है। यह समझौता अगले तीन वर्षों 2008-2011 के लिए पुनर्नवीनीकृत किया गया है। नवंबर 2007 में अंतर्राज्यीय परिषद और कनाडा के फोरम ऑफ फेडरेशंस ने दिल्ली में संघवाद पर चौथा अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन सहप्रायोजित किया था। इसकी कार्यवाही को निम्नलिखित नामों से पांच अंकों में प्रकाशित किया गया है- “बिल्डिंग ऑन एंड एकोमोडेटिंग डायवर्सिटीज”, “इमर्जिंग इश्यूज इन फिस्कल फेडरेलिज्म”, “इंट्रैक्शन इन फेडेरेशन सिस्टम्स”, “लोकल गवर्नमेंट इन फेडरल सिस्टम्स” और “पॉलिसी इश्यूज इन फेडरलिज्म- इंटरनेशनल पर्सपेक्टिव्स”।

सितंबर, 2008 में नेपाल के चार संसद सदस्यों के एक प्रतिनिधिामंडल के साथ एक बैठक की गई जिसमें अंतर सरकारी संबंधों और अंतर्राज्यीय परिषद की भूमिका और गतिविधियों पर चर्चा की गई। अंतर्राज्यीय परिषद सचिवालय ने फोरम ऑफ फेडरेशंस के साथ मिलकर 16 जनवरी, 2009 को अंतर सरकारी संबंधों पर गोलमेज चर्चा भी की।

आईएससीएस केंद्र राज्य संबंध आयोग को सचिवालयी सहयोग प्रदान करता है। इस आयोग को समान न्यूनतम कार्यक्रम (कॉमन मिनिमम प्रोग्राम) के तहत सरकार द्वारा की गई प्रतिबद्धता का पालन करते हुए, यह विचार करते हुए कि सरकारिया आयोग द्वारा दो दशक पूर्व सौंपी गई रिपोर्ट से अब तक समाज और अर्थव्यवस्था में अत्यधिक परिवर्तन हो गए हैं, गठित किया गया था। अध्यक्ष और सदस्यों को 27 अप्रैल, 2007 को नियुक्त किया गया था। न्यायाधीश (सेवानिवृत्त) मदन मोहन पंछी, उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश को अध्यक्ष नियुक्त किया गया और श्री धीरेंद्र सिंह, पूर्व सचिव- भारत सरकार, श्री विनोद कुमार दुग्गल, पूर्व सचिव-भारत सरकार और डॉ. एन.आर. माधव मेनन, पूर्व निदेशक- राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी, भोपाल और भारतीय राष्ट्रीय विधि विद्यालय को सदस्य नियुक्त किया गया। 17 अक्तूबर, 2008 को श्री विजय शंकर, आईपीएस (सेवानिवृत्त) को आयोग का सदस्य बनाया गया। आयोग की अवधि को 31 मार्च, 2010 तक बढ़ाया गया है।

प्रशासनिक सुधार और लोक शिकायतें[सम्पादन]

कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय में प्रशासनिक सुधार और लोक शिकायत विभाग प्रशासनिक सुधारों और खासकर केंद्र सरकार के संगठनों तथा राज्य सरकारों से संबंधित लोक शिकायतों को दूर करने वाली भारत सरकार की प्रमुख एजेंसी है। यह विभाग केंद्र सरकार के मंत्रालयों/विभागों को प्रबंधन सलाह सेवा प्रदान करता है। यह विभिन्न प्रकाशनों के माध्यम से लोक शिकायतों के निवारण और प्रशासनिक सुधारों से संबद्ध सरकार के महत्वपूर्ण कार्यकलापों के बारे में सूचनाओं का प्रचार करता है। यह विभाग लोक सेवा सुधारों को बढ़ावा देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय आदान-प्रदान और आपसी सहयोग की गतिविधियों पर भी नज़र रखता है।

यह विभाग केंद्र सरकार के मंत्रालयों/विभागों आदि और विभिन्न राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों, संगठनों उनके सेवा क्षेत्रों में नागरिक अधिकार अधिकार-पत्रों के प्रतिपादन के प्रयासों में तालमेल रखता है। ये अधिकार-पत्र संगठन की प्रतिबद्धता, सेवा उपलब्ध कराने के अपेक्षित मानदंडों, समय -सुबोध, शिकायत निवारण तंत्र, उनके कार्य निष्पादन को लोगों के परीक्षण के लिए खुला रखने और जिम्मेदारी तय करने के लिए प्रतिबद्धता का प्रचार करते हैं।

प्रशासनिक सुधार और लोक शिकायत विभाग ने प्रशासनिक सुधारों की समीक्षा के लिए 8 मई, 1998 को एक आयोग बनाया जिसका उद्देश्य वर्तमान कानूनों में परिवर्तन, अंतर-क्षेत्रीय प्रभावों के बारे में नियम और कार्यविधियां तैयार करना और पुराने हो चुके कानूनों में सुधार करना था। विभिन्न मंत्रालयों/विभागों ने 822 धाराओं (700 विनियोग धाराओं और 27 पुनर्गठन धाराओं सहित) को बरकरार रखा है। शेष धाराएं इस प्रक्रिया के विभिन्न चरणों से गुजर रही हैं। लोक प्रशासनिक प्रणाली को चुस्त-दुरूस्त बनाने के लिए विस्तृत रूपरेखा तैयार करने हेतु श्री वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में, विभाग ने दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन किया। आयोग ने अब तक सरकार को निम्नलिखित 15 रिपोर्टें सौंप दी हैं —

(i) राइट टू इनफॉरमेशन- मास्टर की टू गुड गवर्नेस (09.06.2006)

(ii) अनलॉकिंग ±यूमन कैपिटल- एंटाइटलमेंट्स एंड गवर्नेस - अ केस स्टडी (31.07.2006)

(iii) क्राइसिस मैनेजमेंट - फ्रॉम डिसपेयर टू होप (31.10.2006)

(i1) एथिक्स इन गवर्नेस (12.02.2007)

(1) पब्लिक आर्डर - जस्टिस फार ईच (25.06.2007)

(1i) लोकल गवर्नेस (27.11.2007)

(1ii) कैपेसिटी बिल्डिंग फॉर कनफ्लिक्ट रेसोल्यूशन- फ्रिक्शन टू फ्यूजन (17.03.2008)

(1iii) कॉम्बैटिंग टेरेरिज्म (17.09.2008)

(i3) सोशल कैपिटल- अ शेयर्ड डेस्टिनी (08.10.2008)

(3) रिफरबिशिंग ऑफ पर्सनल एडमिनिस्ट्रेशन- स्केलिंग न्यू हाइट्स (27.11.2008)

(3i) प्रमोटिंग ई-गवर्नेस - द स्मार्ट वे फॉरवर्ड (20.01.2009)

(3ii) सिटिजन सेंट्रिक एडमिनिस्ट्रेशन- द हार्ट ऑफ गवर्नेस (30.03.2009)

(3iii) ऑर्गेनाइजेशनल स्ट्रक्चर ऑफ गवर्नमेंट ऑफ इंडिया (19.05.2009)

(3i1) स्ट्रेन्थनिंग फाइनांशियल मैनेजमेंट सिस्टम्स (26.05.2009)

(31) स्टेट एंड डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन (29.05.2009)

प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को लागू किये जाने की गति की समीक्षा करने और इन निर्णयों को लागू करने के लिए संबंधित मंत्रालयों/विभागों को मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए विदेश मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता में एक मंत्री दल गठित किया गया है। केंद्र और राज्य सरकारों के अधिकारियों द्वारा लोक प्रशासन के क्षेत्र में किए जाने वाले शानदार और अनोखे कार्यों के लिए उन्हें सम्मानित करने के वास्ते विभाग ने 2005 में “लोक प्रशासन में उल्लेखनीय योगदान के लिए प्रधानमंत्री पुरस्कार” का भी गठन किया है। इस पुरस्कार में (i) एक पदक, (ii) एक प्रशस्ति पत्र और (iii) एक लाख रूपये नकद पुरस्कार, शामिल हैं। यदि कई अधिकारियों के समूह को यह पुरस्कार मिलता है तो पूरे समूह को पांच लाख रूपये नकद दिये जाएंगे, बशर्ते कि प्रति व्यक्ति पुरस्कार राशि एक लाख रूपये से अधिक नहीं होगी। किसी भी संस्थान के लिए इस पुरस्कार राशि की अधिकतम सीमा 5 लाख रूपये रखी गई है। यह पुरस्कार, केंद्र और राज्य सरकार के सभी अधिकारियों को व्यक्तिगत अथवा समूह के तौर पर या संस्थान के रूप में देने पर विचार किया जा सकता है। प्रतिवर्ष 21 अप्रैल को ये पुरस्कार प्रशासनिक सेवा दिवस समारोह के अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा दिए जाते हैं।

विभाग ने सरकारी विभागों द्वारा उत्कृष्ट सेवाएं सुलभ कराने के लिए नमूने के तौर पर एक उत्कृष्ट सेवा मानक “सेवोत्तम” (बेंच मार्किंग एक्सलेंस् इन सर्विस डिलिवरी) तैयार किया है। इस परियोजना का उद्देश्य नागरिकों को ध्यान में रखते हुए सेवाएं सुलभ कराने की गुणवत्ता में सुधार लाना है तथा इसे नागरिक विशेषाधिकार, लोक शिकायत निवारण क्रिया-विधि स्तर और सेवाएं सुलभ कराने में उत्कृष्टता को कारगर ढंग से अमल में लाकर किया जा सकता है। इस प्रयोग को केंद्र सरकार के सभी मंत्रालयों/विभागों में लागू किया जाना है। प्रशासनिक सुधार और लोक शिकायत विभाग के कार्यों में देश में उत्तम प्रशासन प्रणालियों को प्रोत्साहन देना शामिल है। इसके भावी कार्यों और उद्देश्यों में सर्वोत्तम प्रशासन प्रणालियों का प्रलेखन, संचयन और प्रचारण शामिल है। इसकी पूर्ति और देश में उत्तम प्रशासन प्रणालियों को बढ़ावा देने के लिए विभाग विविध कार्य योजनाओं पर अमल कर रहा है जैसे प्रकाशन, गोिDयों, क्षेत्रीय सम्मेलनों का आयोजन, प्रस्तुतियों, भाषण शृंखलाओं का आयोजन और वृत्तचित्र तैयार करना आदि। अपने नियमित प्रकाशनों “मैनेजमेंट इन गवर्नमेंट-अ क्वाटर्ली जरनल” और “सिविल न्यू$ज-अ मंथली न्यू$ज लैटर” के द्वारा विभाग उत्तम कार्य प्रणालियों के बारे में लोगों तक जानकरी पहुंचा रहा है। इसके अलावा इसने दो पुस्तकें “आइडियाज दैट हैव वर्क्ड” और “लर्न फ्राम दैम” का प्रकाशन भी किया है। इन पुस्तकों में नूतन प्रणालियों को अमल में लाने वालों की सफलताओं और असफलताओं का वर्णन है। विभाग ने एक डीवीडी भी तैयार की है जिसमें 1812 से आज तक प्रशासनिक सुधारों पर आयोगों/समितियों की 73 चुनिंदा रिपोर्टें हैं। सर्वोत्तम प्रणालियों के प्रसार और अनुसरण के उद्देश्य से विभाग ने सर्वोत्तम प्रणालियों पर एक पोर्टल भी आरंभ किया है।

प्रशासनिक ट्रिब्यूनल[सम्पादन]

प्रशासनिक ट्रिब्यूनल अधिनियम, 1985 का पारित होना पीडि़त सरकारी कर्मचारियों को न्याय दिलाने की दिशा में एक नया अध्याय था। प्रशासनिक ट्रिब्यूनल्स अधिनियम का स्रोत, संविधान का अनुच्छेद 323 “क” है, जो केंद्र सरकार को संसद के अधिनियम द्वारा ऐसे ट्रिब्यूनल बनाने का अधिकार प्रदान करता है, जो केंद्र सरकार और राज्यों के कामकाज को चलाने के लिए सार्वजनिक पदों और सेवाओं में नियुक्त व्यक्तियों की भर्ती और सेवा-शर्तों आदि से संबंधित शिकायतों और विवादों पर निर्णय दे सकें। अधिनियम 1985 के अंतर्गत स्थापित ट्रिब्यूनल, इसके अंतर्गत आने वाले कर्मचारियों के सेवा संबंधी मामलों में मूल अधिकार क्षेत्र को प्रयोग करता है। उच्चतम न्यायालय के दिनांक 18 मार्च, 1997 के निर्णय के परिणामस्वरूप प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के फैसले के विरूद्ध संबंधित उच्च न्यायालय की खंडपीठ में अपील की जाएगी।

प्रशासनिक ट्रिब्यूनल केवल अपने अधिकार-क्षेत्र और कार्य विधि में आने वाले कर्मचारियों के सेवा संबंधी मामलों तक सीमित होता है। इसकी कार्यविधि कितनी सरल है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पीडि़त व्यक्ति इसके सामने स्वयं उपस्थित होकर अपने मामले की पैरवी कर सकता है। सरकार अपना पक्ष अपने विभागीय अधिकारियों या वकीलों के जरिए रख सकती है। ट्रिब्यूनल का उद्देश्य वादी को सस्ता और जल्दी न्याय दिलाना है।

अधिनियम में केंद्रीय प्रशासनिक ट्रिब्यूनल (सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल-सीएटी) और राज्य प्रशासनिक ट्रिब्यूनल स्थापित करने की व्यवस्था है। सीएटी-केंद्रीय प्रशासनिक ट्रिब्यूनल पहली नवंबर, 1985 को स्थापित किया गया। आज इसकी 17 नियमित पीठ हैं, जिनमें से 15 उच्च न्यायालयों के मुख्य स्थान पर हैं और शेष दो जयपुर और लखनऊ में हैं। ये पीठ उच्च न्यायालयों वाले अन्य स्थानों पर सुनवाई करती हैं। संक्षेप में, ट्रिब्यूनल में एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और सदस्य होते हैं। ट्रिब्यूनल के सदस्य न्यायिक और प्रशासनिक-दोनों क्षेत्रों से लिए जाते हैं, ताकि ट्रिब्यूनल को कानूनी और प्रशासनिक-दोनों वर्गों की विशेषज्ञ जानकारी का लाभ मिल सके।

राज्य[सम्पादन]

राज्यों में सरकारी व्यवस्था केंद्र से काफी मिलती-जुलती है।

कार्यपालिका[सम्पादन]

राज्यपाल[सम्पादन]

राज्य की कार्यपालिका के अंतर्गत राज्यपाल तथा मुख्यमंत्री के नेतृत्व में एक मंत्रिपरिषद् होती है। राज्यपाल की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति पांच वर्ष की अवधि के लिए करता हैं। उसका कार्यकाल राष्ट्रपति की इच्छा पर होता है। केवल 35 वर्ष से अधिक आयु वाले भारतीय नागरिक को ही इस पद पर नियुक्त किया जा सकता है। राज्य की कार्यपालिका के सारे अधिकार राज्यपाल में निहित होते हैं।

मुख्यमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद् राज्यपाल को उनके कार्यों में सहायता-सलाह देती है-सिवाय उन मामलों के, जहां संविधान के तहत उन्हें अपने कुछ कार्य या कोई कार्य अपने विवेक से करना होता है। नगालैंड के मामले में संविधान के अनुच्छेद 371 “ए” के अंतर्गत राज्यपाल को कानून-व्यवस्था के बारे में विशेष जिम्मेदारी सौंपी गई है। यद्यपि कानून-व्यवस्था से संबंधित मामलों में उनके लिए मंत्रिपरिषद् से परामर्श करना जरूरी होता है, फिर भी वह कार्रवाई के बारे में अपना स्वतंत्र निर्णय ले सकते हैं। इसी प्रकार अरूणाचल प्रदेश के मामले में संविधान के अनुच्छेद 371 “एच” के अधीन कानून- व्यवस्था तथा उससे संबंधित कार्यों को निपटाने में राज्यपाल का विशेष दायित्व है। राज्यपाल मंत्रिपरिषद् के परामर्श के बाद कार्रवाई के मामले में अपने निर्णय का इस्तेमाल करेंगे। किंतु ये सभी व्यवस्थाएं अस्थायी हैं। यदि राष्ट्रपति राज्यपाल से प्राप्त रिपोर्ट या किसी अन्य आधार पर संतुष्ट हो जाएं कि कानून-व्यवस्था के मामले में राज्यपाल को विशेष दायित्व सौंपना अब आवश्यक नहीं है, तो वह आदेश जारी करके ऐसे निर्देश दे सकते हैं।

इसी प्रकार असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के जनजातीय इलाकों पर लागू होने वाली छठीं अनुसूची के पैरा 20 में किए गए उल्लेख के अनुसार, जिला परिषद् और राज्य सरकार के बीच रॉयल्टी के बंटवारे से संबंधित मामलों में राज्यपाल को अपने विवेक का इस्तेमाल करने के अधिकार दिए गए हैं। छठी अनुसूची में मिजोरम और त्रिपुरा के राज्यपालों को दिसंबर, 1998 से लागू लगभग सभी कार्यों (कर लगाने और जिला परिषदों द्वारा गैर-जनजातीय समुदाय के उधार धन देने वालों के मामलों को छोड़कर) में अपना विवेक इस्तेमाल करने के अतिरिक्त अधिकार मिले हुए हैं। सिक्किम के राज्यपाल को राज्य में शांति तथा जनता के विभिन्न वर्गों के लोगों की सामाजिक और आर्थिक उन्नति का विशेष उत्तरदायित्व सौंपा गया है।

सभी राज्यपालों को अपने ऐसे संवैधानिक कार्य करते समय, जैसे-राज्य के मुख्यमंत्री की नियुक्ति अथवा राज्य में संवैधानिक तंत्र की असफलता की रिपोर्ट को भेजते समय अथवा राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किसी भी प्रस्ताव को स्वीकृति देने से संबंधित मामलों में अपने स्वतंत्र विवेक से निर्णय लेना होता है।

मंत्रिपरिषद्[सम्पादन]

मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है तथा मुख्यमंत्री की सलाह पर राज्यपाल द्वारा अन्य मंत्रियों की नियुक्ति की जाती है। मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होती है।

विधानमंडल[सम्पादन]

प्रत्येक राज्य में एक विधानमंडल होता है, जिसके अंतर्गत राज्यपाल के अतिरिक्त एक या दो सदन होते हैं। बिहार, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में विधानमंडल के दो सदन हैं, जिन्हें विधानपरिषद् और विधानसभा कहते हैं। शेष राज्यों में विधानमंडल का केवल एक ही सदन है, जिसे विधानसभा कहा जाता है। किसी वर्तमान विधानपरिषद् को समाप्त करने या जहां वह नहीं है, वहां उसे बनाने के लिए यदि संबंधित विधानसभा प्रस्ताव पारित करे तो संसद कानून बनाकर ऐसी व्यवस्था कर सकती है।

विधानपरिषद्[सम्पादन]

प्रत्येक राज्य की विधानपरिषद् के सदस्यों की कुल संख्या राज्य के विधानसभा के सदस्यों की कुल संख्या के एक-तिहाई से अधिक तथा किसी भी स्थिति में 40 से कम नहीं होगी (जम्मू-कश्मीर के संविधान की धारा 50 के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर विधानपरिषद् में 36 सदस्य हैं)। परिषद् के लगभग एक-तिहाई सदस्य उस राज्य की विधानसभा के सदस्यों द्वारा उन व्यक्तियों में से निर्वाचित किए जाते हैं, जो विधानसभा के सदस्य नहीं हों। एक तिहाई सदस्यों का निर्वाचन नगरपालिकाओं, जिला बोर्डों और राज्य के अन्य स्थानीय निकायों के सदस्यों के निर्वाचक-मंडल करते हैं। कुल सदस्य संख्या के 12वें भाग के बराबर सदस्यों का निर्वाचन राज्य की माध्यमिक स्तर की शिक्षा संस्थाओं में कम-से-कम तीन वर्ष से काम कर रहे अध्यापकों के निर्वाचक मंडल करते हैं। अन्य 12वें भाग के बराबर संख्या में सदस्यों का निर्वाचन ऐसे पंजीकृत स्नातक करते हैं, जिन्हें उपाधि प्राप्त किए तीन वर्ष से अधिक हो गए हों। शेष सदस्यों के नाम राज्यपाल द्वारा ऐसे व्यक्तियों में से निर्दिष्ट किए जाते हैं, जिन्होंने साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारिता आंदोलन तथा सामाजिक सेवा के क्षेत्र में प्रतिष्ठा प्राप्त की हो। विधान परिषदें भंग नहीं होती हैं। उनके एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दूसरे वर्ष की समाप्ति पर सेवानिवृत्त हो जाते हैं।

विधानसभा[सम्पादन]

किसी राज्य की विधानसभा में अधिक-से-अधिक 500 तथा कम-से-कम 60 सदस्य होते हैं (संविधान के अनुच्छेद 371 “एफ” के अनुसार, सिक्किम विधानसभा में 32 सदस्य हैं)। इनका निर्वाचन उस राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष मतदान द्वारा किया जाता है। प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन इस ढंग से किया जाना चाहिए कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या और उस निर्वाचन क्षेत्र के लिए नियत किए गए स्थानों की संख्या के बीच अनुपात, जहां तक संभव हो, संपूर्ण राज्य में समान रहे। विधानसभा का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है, बशर्ते कि वह पहले भंग न कर दी जाए।

अधिकार और कार्य

राज्य विधानमंडलों को संविधान की सातवीं अनुसूची-II में वर्णित विषयों पर पूर्ण अधिकार तथा उनकी सूची-III में दिए गए विषयों पर केंद्र के साथ मिले-जुले अधिकार प्राप्त हैं। विधानमंडल की वित्तीय शक्तियों के अंतर्गत सरकार द्वारा किया जाने वाला संपूर्ण व्यय, लगाए जाने वाला कर और ऋण प्राप्त करना शामिल है। वित्त विधेयक केवल विधानसभा में ही पेश हो सकता है। विधान परिषद वित्त विधेयक प्राप्त होने के 14 दिनों के भीतर, उसमें आवश्यक कार्रवाई के लिए केवल सिफारिश कर सकती है, परंतु परिषद् की सिफारिशों को स्वीकार करने या अस्वीकार करने के लिए विधानसभा स्वतंत्र है।

विधेयकों को रोके रखना

विधानमंडल द्वारा पारित किसी विधेयक को राज्यपाल, भारत के राष्ट्रपति को विचारार्थ भेजने से रोक सकता है। संपत्ति का अनिवार्य अधिग्रहण, उच्च न्यायालयों की शक्ति और स्थिति पर प्रभाव वाले उपाय, अंतर्राज्यीय नदी या नदी घाटी योजनाओं में पानी या बिजली के संग्रह, वितरण और बिक्री पर कर लगाने जैसे विषयों से संबंधित विधेयक अनिवार्यत— इस प्रकार से रोके रखे जाने चाहिए। राज्य विधानमंडल में अंतर्राज्यीय व्यापार पर रोक लगाने का कोई विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति के बिना प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।

कार्यपालिका पर नियंत्रण

राज्य विधानमंडल वित्त पर सामान्य नियंत्रण रखने के अतिरिक्त, कार्यपालिका के दिन-प्रति-दिन के कार्यों पर निगरानी रखने के लिए प्रश्नों, चर्चाओं, वाद-विवादों, स्थगन, अविश्वास प्रस्तावों तथा संकल्पों आदि सामान्य प्रक्रियाओं का उपयोग करते हैं। उनकी अपनी प्राक्कलन तथा लेखा समितियां भी होती हैं, जो यह सुनिश्चित करती हैं कि विधानमंडल द्वारा स्वीकृत अनुदानों का उचित उपयोग किया जाए।

केंद्रशासित प्रदेश[सम्पादन]

केंद्रशासित प्रदेशों का शासन राष्ट्रपति द्वारा चलाया जाता है और वह इस बारे में जहां तक उचित समझें, अपने द्वारा नियुक्त प्रशासक के माध्यम से कार्य करता है। अंडमान-निकोबार, दिल्ली और पांडिचेरी के प्रशासकों को उपराज्यपाल कहा जाता है, जबकि चंडीगढ़ का प्रशासक मुख्य आयुक्त कहलाता है। इस समय पंजाब के राज्यपाल ही चंडीगढ़ का प्रशासक हैं। दादरा और नगर हवेली का प्रशासक दमन और दीव का कार्य भी देखता है। लक्षद्वीप का अलग प्रशासक है।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और केंद्रशासित प्रदेश पांडिचेरी की अपनी-अपनी विधानसभाएं और मंत्रिपरिषद् हैं। पांडिचेरी विधानसभा संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची-II में और III में निहित, केंद्रशासित प्रदेशों से संबद्ध मामलों के बारे में, जहां तक के मामले केंद्रशासित क्षेत्र पर लागू होते हैं, कानून बना सकती है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधान सभा को भी संविधान की अनुसूची-II की प्रविष्टि 1, 2 और 18 को छोड़कर, ये सभी शक्तियां प्राप्त हैं। कुछ विशेष विधेयकों के लिए केंद्र सरकार की अग्रिम स्वीकृति लेना भी अनिवार्य है। केंद्रशासित प्रदेश पांडिचेरी और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधान सभाओं द्वारा पारित कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ और मंजूरी देने के लिए रोक लिया जाता है।

स्थानीय प्रशासन[सम्पादन]

नगरपालिकाएं[सम्पादन]

भारत में स्थानीय निकायों का लंबा इतिहास है। सर्वप्रथम पूर्व-प्रेसीडेंसी शहर मद्रास में नगर निगम की स्थापना 1688 में की गई। उसके बाद 1726 में इसी तरह के नगर निगम मुंबई और कोलकाता (तत्कालीन मुंबई और कलकत्ता) में स्थापित किए गए। भारतीय संविधान में संसद और विधानसभाओं में लोकतंत्र की रक्षा की विस्तृत व्यवस्थाएं की गई हैं। लेकिन, संविधान में शहरी क्षेत्रों के लिए स्थानीय शासन पर स्पष्ट उल्लेख नहीं है। राज्य के नीति निर्देशक-सिद्धातों में गांवों में पंचायत व्यवस्था का उल्लेख है, लेकिन राज्यों की सूची में प्रविष्टि 5 को छोड़कर, नगरपालिकाओं का कोई जिक्र नहीं किया गया है। इस प्रविष्टि में स्थानीय स्वशासन की जिम्मेदारी राज्य सरकार को सौंपी गई है।

स्थानीय शहरी निकायों के लिए समान ढांचा तैयार करने और इन निकायों को स्वायत्तशासी सरकार की प्रभावशाली लोकतांत्रिक इकाई के रूप में मजबूत बनाने के कार्य में मदद करने के उद्देश्य से संसद ने 1992 में (नगरपालिका एक्ट) नगरपालिकाओं से संबंधित संविधान (74वां संशोधन) अधिनियम, 1992 पारित किया। इस अधिनियम को राष्ट्रपति ने 20 अप्रैल, 1993 को अपनी स्वीकृति प्रदान की। भारत सरकार ने अधिसूचना जारी करके 1 जून, 1993 से इस अधिनियम को लागू कर दिया। संविधान में नगरपालिकाओं के संबंध में एक नया खंड IX-क जोड़ दिया गया है, ताकि अन्य बातों के अलावा तीन प्रकार की नगरपालिकाओं का गठन किया जा सके — ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में परिवर्तित हो रहे क्षेत्रों के लिए नगर पंचायतें, छोटे शहरी क्षेत्रों के लिए नगरपालिका परिषदें और बड़े शहरी क्षेत्रों के लिए नगर निगम; निर्धारित अवधि की नगरपालिकाएं, राज्य निर्वाचन आयोगों की नियुक्ति, राज्य वित्त आयोगों की नियुक्ति और महानगर तथा जिला योजना समितियों का गठन। सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों ने अपने निर्वाचन आयोगों और वित्त आयोगों का गठन कर लिया है।

पंचायतें[सम्पादन]

संविधान के अनुच्छेद 40 में दिए गए राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में यह व्यवस्था की गई है कि राज्य ग्राम पंचायतों के गठन के लिए कदम उठाएगा और उन्हें इस प्रकार के अधिकार प्रदान करेगा कि वे एक स्वायत्तशासी सरकार की इकाई के रूप में काम कर सकें।

उपर्युक्त को ध्यान में रखते हुए संविधान में पंचायतों से संबंधित एक नया खंड (IX) जोड़ा गया है, जिसमें अन्य बातों के अलावा, निम्नलिखित व्यवस्था भी की गई है-गांव अथवा गांवों के समूह में ग्राम सभा; ग्राम और अन्य स्तरों या स्तर पर पंचायतों का गठन; ग्राम और उसके बीच के स्तर पर पंचायतों की सभी सीटों के लिए और इन स्तरों पर पंचायतों के अध्यक्षों के लिए सीधा चुनाव; ऐसे स्तरों पर पंचायत- सदस्यों आैर पंचायत-अध्यक्षों के पदों के लिए जनसंख्या के अनुपात में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के वास्ते सीटों का आरक्षण; महिलाओं के लिए कम-से-कम एक तिहाई आरक्षण, पंचायत के लिए पांच साल के कार्यकाल का निर्धारण करना और किसी भी पंचायत की बर्खास्तगी की स्थिति में छह महीने के भीतर उसका चुनाव कराना।

निर्वाचन आयोग[सम्पादन]

भारत के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव कराने तथा संसद और विधानसभाओं का चुनाव कराने के लिए निर्देशन, नियंत्रण और मतदाता सूचियां तैयार करने का अधिकार, भारत के निर्वाचन आयोग को दिए गए हैं। भारत का निर्वाचन आयोग एक स्वतंत्र संवैधानिक प्राधिकरण है। इसकी स्थापना 1950 में हुई और अक्तूबर, 1989 तक आयोग ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त के रूप में एक सदस्यीय निकाय के तौर पर काम किया। नवंबरदिसंबर , 1989 में संसद के लिए हुए आम चुनाव के मौके पर राष्ट्रपति ने 16 अक्तूबर, 1989 को दो और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति की। लेकिन एक जनवरी, 1990 को जब इन दोनों निर्वाचन आयुक्तों के पद समाप्त कर दिए गए तो दोनों आयुक्त अपने पदों से हट गए। एक अक्तूबर, 1993 को राष्ट्रपति ने एक बार फिर दो अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति की। इसके साथ ही मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों (सेवा शर्तें) के अधिनियम, 1991 में संशोधन किया गया तथा यह व्यवस्था की गई कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों के अधिकार समान होंगे और दोनों को एक समान वेतन, भत्ते, और वे सभी सुविधाएं मिलेंगी, जो भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को मिलती हैं। इस अधिनियम में यह भी व्यवस्था की गई है कि यदि किसी मामले को लेकर मुख्य निर्वाचन आयुक्त अथवा दो अन्य निर्वाचन आयुक्तों के बीच कोई वैचारिक मतभेद पैदा हो जाए तो आयोग द्वारा उसका फैसला बहुमत के आधार पर किया जाएगा। इस अधिनियम की वैधता को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई है और 1993 में इसका नया नाम निर्वाचन आयोग (निर्वाचन आयुक्तों की सेवा-शर्तें तथा कार्य निष्पादन) अधिनियम, 1991 रख दिया गया है। लेकिन उच्चतम न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने याचिका खारिज कर दी और 14 जुलाई, 1995 को अपने सर्वसम्मत निर्णय से उक्त कानून के प्रावधानों को बरकरार रखा। संविधान के अनुच्छेद 324 (5) के तहत विशेष प्रावधानों के जरिए निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता तथा कार्यपालिका के हस्तक्षेप से उसकी रक्षा की गई है। इन प्रावधानों के तहत मुख्य निर्वाचन आयुक्त को उसके पद से नहीं हटाया जा सकता है। केवल उन्हीं परिस्थितियों में हटाया जा सकता है, जिनमें उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश हटाए जा सकते हैं तथा उसकी नियुक्ति के पश्चात् मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सेवा-शर्तें उसके कार्य के रास्ते में बाधक नहीं होंगी। अन्य निर्वाचन आयुक्तों को केवल मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सिफारिश पर ही हटाया जा सकता है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों का कार्यकाल उनके पद संभालने की तिथि से लेकर छह वर्ष तक अथवा 65 वर्ष की आयु तक दोनों में जो भी पहले हो, होता है।

संशोधन[सम्पादन]

संसद द्वारा 22 मार्च, 2003 को चुनाव कानून (संशोधन) अधिनियम, 2003 और चुनाव आचार संहिता (संशोधन) कानून, 2003 पारित किए, जो कि 22 सितंबर, 2003 प्रभाव में आए। इन कानूनों के जरिए अर्धसैनिक बलों के कर्मचारियों और उनके संबंधियों को प्रॉक्सी मतदान की सुविधा मिल गई। इन सेवाओं में कार्यरत कर्मचारी जो अपने मताधिकार का प्रयोग करना चाहते हैं, वे एक प्रतिपत्र तैयार करके अपने निर्वाचन क्षेत्र के मतदान अधिकारी को भेज सकते हैं।

चुनाव तथा उससे संबंधित अन्य कानून (संशोधित) विधेयक, 2003 (46वां संशोधन) संसद द्वारा 11 सितंबर, 2003 को पारित किया गया। इस संशोधन के जरिए मुख्य कानून में दो नई धाराएं 29 बी और 29 सी शामिल की गईं जिनमें प्रावधान किया गया कि किसी भी व्यक्ति, संस्था द्वारा किसी राजनीतिक दल को 20,000 रूपये से अधिक चंदा दिए जाने की सूचना निर्वाचन आयोग को दी जाएगी और तभी उसे आयकर कानून 1961 के तहत आयकर से रियायत दी जाएगी। मुख्य कानून के भाग-ए (धारा 78ए और 78बी) में मतदाता सूची की एक प्रति और कुछ अन्य जरूरी सामान पंजीकृत राजनीतिक दल के उम्मीदवार को उपलब्ध कराई जाएंगी। इस कानून की धारा 77 (1) में संशोधन किया गया जिसमें उम्मीदवार द्वारा चुनाव खर्च का लेखा-जोखा रखने, राजनीतिक दलों के कुछ विशेष नेताओं द्वारा चुनाव प्रचार के दौरान विमान से यात्रा, अन्य साधनों से की गई यात्रा में हुए खर्च को छूट दिए जाने का प्रावधान है, बशर्ते कि वह उसे अपने चुनाव के खर्च में शामिल करता है।

संसद ने एक जनवरी, 2004 को निर्वाचन क्षेत्र सीमांकन विधेयक (संशोधित) 2003 पारित किया जिसमें मुख्य कानून की धारा (4) में संशोधन करते हुए यह प्रावधान किया गया कि निर्वाचन क्षेत्रों का सीमांकन 2001 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर किया जाएगा।

संसद द्वारा 28 अगस्त, 2003 को जनप्रतिनिधि (संशोधन) कानून, 2003 पारित किया गया जिसमें राज्यों की विधानसभा परिषदों के चुनाव के लिए खुली मतदान की प्रणाली लागू करने का प्रावधान किया गया है। इस प्रणाली के अनुसार मतदाता अपना मतपत्र पार्टी के अधिकृत एजेंट को दिखा सकता है। यह भी प्रावधान किया गया कि विधान परिषद की सीट के लिए चुनाव लड़ रहा उम्मीदवार भी आवश्यकता पड़ने पर अपने मताधिकार का उपयोग कर सकता है।

चुनाव सुधार[सम्पादन]

दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर 1998 की याचिका संख्या 4912 - (कुशरा भरत बनाम भारत सरकार और अन्य) के सिलसिले में न्यायालय ने आदेश दिया है कि उम्मीदवारों की सरकारी देनदारी जैसे सरकारी मकान, बिजली, पानी, टेलीफोन और वाहन आदि (जिसमें विमान और हेलीकॉप्टर द्वारा की गई यात्रा भी शामिल है) और अन्य बकाया की सूचना निर्वाचन प्राधिकारियों द्वारा कम से कम दो स्थानीय समाचार- पत्रों में मतदाताओं की सूचनार्थ प्रकाशित की जाएगी। निर्वाचन आयोग के संशोधित आदेश दिनांक 27 मार्च, 2003 के द्वारा मतदाताओं के सूचना के अधिकार को ध्यान में रखते हुए उम्मीदवार की पृष्ठभूमि संबंधी हलफनामा के पैरा 3(अ) iii में संशोधन किया गया है। आयोग ने जिला निर्वाचन अधिकारियों को भी निर्देश जारी किए हैं कि उम्मीदवार द्वारा हलफनामे में भरी गई सूचना को समाचार-पत्रों में प्रकाशित किया जाए ताकि मतदाताओं को उम्मीदवार के बारे में पूरी जानकारी मिल सके।

लोकसभा का कार्यकाल और उसके अध्यक्ष[सम्पादन]

लोकसभा गठन के पश्चात भंग होने की अध्यक्ष1 का नाम से तक की प्रथम बैठक तिथि

पहली लोकसभा 13 मई, 1952 4 अप्रैल, 19572 गणेश वासुदेव मावलंकर 15 मई, 1952 27 फरवरी, 19563 एम. अनंतशयनम आयंगर 8 मार्च, 1956 10 मई, 1957

दूसरी लोकसभा 10 मई, 1957 31 मार्च, 19624 एम. अनंतशयनम आयंगर 11 मई, 1957 16 अप्रैल, 1962

तीसरी लोकसभा 16 अप्रैल, 1962 3 मार्च, 19675 हुकम सिंह 17 अप्रैल, 1962 16 मार्च, 1967

चौथी लोकसभा 16 मार्च, 1967 27 दिसंबर, 19706 नीलम संजीव रेड्डी 17 मार्च, 1967 19 जुलाई, 19697 गुरदयाल सिंह ढिल्लों 8 अगस्त, 1969 19 मार्च, 1971

पांचवीं लोकसभा 19 मार्च, 1971 18 जनवरी, 19778 गुरदयाल सिंह ढिल्लों 22 मार्च, 1971 1 दिसंबर, 19759 बलिराम भगत 5 जनवरी, 1976 25 मार्च, 1977

छठी लोकसभा 25 मार्च, 1977 22 अगस्त, 197910 नीलम संजीव रेड्डी 26 मार्च, 1977 13 जुलाई, 197711 के.एस. हेगड़े 21 जुलाई, 1977 21 जनवरी, 1980

सातवीं लोकसभा 21 जनवरी, 1980 31 दिसंबर, 198412 बलराम जाखड़ 22 जनवरी, 1980 15 जनवरी, 1985

आठवीं लोकसभा 15 जनवरी, 1985 27 नवंबर, 198913 बलराम जाखड़ 16 जनवरी, 1985 18 दिसंबर, 1989

नौवीं लोकसभा 18 दिसंबर, 1989 13 मार्च, 199114 रवि राय 19 दिसंबर, 1989 9 जुलाई, 1991

दसवीं लोकसभा 9 जुलाई, 1991 10 मई, 1996 शिवराज वी. पाटिल 10 जुलाई, 1991 22 मई, 1996

ग्यारहवीं लोकसभा 22 मई, 1996 4 दिसंबर, 199715 पी.ए. संगमा 23 मई, 1996 23 मार्च, 1998 (पूर्वाह्न)

बारहवीं लोकसभा 23 मार्च, 1998 26 अप्रैल, 199916 जी.एम.सी. बालयोगी 24 मार्च, 1998 20 अक्तूबर, 1999 (पूर्वाह्न)

तेरहवीं लोकसभा 20 अक्तूबर, 1999 6 फरवरी 200418 जी.एम.सी. बालयोगी 22 अक्तूबर 1999 3 मार्च 200217 मनोहर गजानन जोशी 10 मई, 2002 2 जून, 2004

चौदहवीं लोकसभा 2 जून, 2004 18 मई 2009 सोमनाथ चटर्जी 4 जून, 2004 18 मई 2009

पंद्रहवीं लोकसभा 1 जून, 2009 - श्रीमती मीरा कुमार 1 जून, 2009 अब तक