रीतिकालीन हिंदी काव्य/बिहारी

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बिहारी सतसई- बिहारी रत्नाकर, संपादक- जगन्नाथ रत्नाकर, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संवत २००५ा

दोहा[सम्पादन]

1 मेरी भव-बाधा हरौ राधा नागरि सोइ ।।

जा तन की झाँईँ परैँ स्यामु हरित-दुति होइ ॥ १ ॥
भव= संसार । बाधा= रुकावट, विघ्न । भव-बाधा=संसार के विप्न अर्थात् दुःख, दारिद्र तथा अनेक प्रकार की चिंताएँ इत्यादि, जो बाधा-रूप में उपस्थित हो कर संसार के मनुर्यों को किसी उत्तम अभीष्ट का एकाग्रता-पूर्वक साधन नहीं करने देतीं । स्मरण रहे कि कवि-परिपाटी में दुःख-दारिद्रादि का रंग काला माना जाता है ।‘भव-बाधा' का अर्थ टीकाकारों ने बहुधा जन्म-मरण का दुःख लिखा है । वह भी ठीक है। पर यहां यह शब्द ग्रंथ के मंगलाचरण में आया है । अतः यहाँ कवि की यही प्रार्थना विशेष संगत है कि हमारे अनेक प्रकार के चिंतादि-जनित विप्न का निवारण कीजिए, जिसमें ग्रंथ के पूर्ण होने में विघ्न न हो ॥ झॉई—इस शब्द के यहाँ तीन अर्थ लिए गए हैं—( १ ) परछाँहाँ, आभा । ( २ ) झाँकी, झलक । ( ३ ) ध्यान । प्राकृत-व्याकरण के ‘‘ध्ययोर्कः', इस सूत्र के अनुसार ‘ध्य' के स्थान में ‘झ' हो कर ‘ध्यान' शब्द से ‘झाँई बन जाता है । त्रिविक्रम ने अपने प्राकृत-व्याकरण में 'ध्यान' शब्द का झाण' रूप लिखा भी है। 'न' के स्थान में बहुधा ‘इँ' भाषा के शब्दों में देखा जाता है, जैसे 'दाहिने' के स्थान पर ‘दायें । हेमचंद्र ने अपने प्राकृत-व्याकरण में जो निम्नलिखित छंद अपभ्रंश के उदाहरण में रक्खा है, उसमें ध्यात्वा का अपभ्रंश रूप झाइवि’ प्रयुक्त हुआ है बहमुहु भुवण-भयंकरु तोसिअ-संकरु णिग्गउ रह-वरि चडिअउ । चउमुहु छंमुहु झाइवि एकहिँ लाइव णावह दइवें घडिअउ । [ ४५ ]________________

बिहारी-रत्नाकर परै'=पड़ने से । इस शब्द के भी निम्नलिखित तीन भावार्थ 'भाई' के तीन अर्थों से यथाक्रम अन्वित होते हैं—( १ ) तन पर पड़ने से । ( २ ) दृष्टि में पड़ने से । ( ३ ) हृदय में पड़ने से । स्यामु ( श्याम )--यह शब्द भी यहाँ तीन अथों में प्रयुक्त हुया है--( १ ) श्याम वर्ण वाले श्रीकृष्णचंद्र । ( २ ) श्रीकृष्ण चंद्र । ( ३ ) काले रंग वाला पदार्थ अर्थात् कल्मष, पातक, दुःख, दारिद्रादि, जिनका रंग कवि-परिपाटी मैं काला नियत है । उपादान लक्षणा शक्ति से ‘श्याम' का अर्थ श्याम रंग का पदार्थ होता है, जैसे ‘सुरंग दौड़ता ह' वाक्य * *मुरंग' शब्द का अर्थ सुरंग घोड़ा होता है । फिर साहित्य की परिपाटी के अनुसार काले पदार्थ से पातक, कल्मष इत्यादि का ग्रहण हो जाता है । हरित-दुाने ( हरित-द्युति )—इस शब्द के भी इस दोह में तीन अर्थ ग्रहण किए गए हैं--( १ ) हरे रंग वाला । ( २ ) हराभरा, डहडहा अर्थात् प्रसन्न-वदन । ( ३ ) हृतद्युति, गतद्युति, हतप्रभ अर्थात् तेज-हीन, प्रभा-शून्य, अथवा भयंकरता-रहित । द्युति का अर्थ नाटक में भयंकर चेष्टा भी होता है । इस अर्थ में 'हरित' शब्द हृत का अपभ्रंश है ॥ ( अवतरण )--अपनी सतसई की निर्विघ्न समाप्ति की कामना से कवि, इस मंगला चरण-रूप दोहे में, श्रीराधिकाजी से सांसारिक बाधा दूर करने की प्रार्थना करता है । सतसई ६ यद्यपि और रस के भी दोहे हैं, तथापि प्रधानता श्रृंगार ही रस की है । इसके अतिरिक्र श्रृंगार रस मैं सब रस की स्थायियाँ संचारी हो कर संचरित होती हैं, जिसके कारण वह रसराज कहलाता है । अतः सतसई में शृंगार रस के मुख्य प्रवर्तक श्रीराधाकृष्ण ही का मंगलाचरण रहना समीचीन है । श्रीराधा तथा श्रीकृष्ण मैं भी, श्रृंगार रस मैं, प्रधानता श्रीराधिकाजी ही की है, और कवि जिस संप्रदाय का अनुयायी था, उसमें भी श्रीराधिकाजी ही प्रधान मानी जाती हैं । अतः उसने श्रीराधिकाजी ही से अपनी ‘भव-बाधा' हरने की प्रार्थना की है ( अर्थ )-जिसके तन की झाँई पड़ने से श्याम हरित-द्युति हो जाता है, “राधा नागरि सोइ' (हे वही राधा नागरी, अथवा वही राधा नागरी ) मेरी भव-बाधा हरो (तुम हरो, अथवा हरें ) ॥ इस दोहे मैं ‘राधा नागरि' पद संबोधन भी माना जा सकता है, और प्रथमपुरुष-वाची भी, क्याँकि ‘हरो' क्रिया का अन्वय, प्रार्थनात्मक वाक्य मैं, मध्यम पुरुष से भी हो सकता है, और प्रथम पुरुष से भी । फिर मंगलाचरण में, आराध्य देवता से, मध्यम पुरुष तथा प्रथम पुरुष, दोन ही रूप में प्रार्थना करने की प्रणाली प्रशस्त है ॥ यह दोहा बिहारी की प्रतिभा का अत्युत्कृष्ट उदाहरण है । इसमें कवि ने 'झाँई','स्याम' तथा ‘हरित-दुति' शब्द के तीन तीन अर्थ रख कर एक ही वाक्य से तीन भाव निकाले हैं, जो तीन ही उसके इष्टार्थ के साधक हैं। पहला अर्थ तो इस दोहे का यह हुआ: हे व राधा नागरी, जिसके तन की परछाँही अर्थात् आभा पड़ने से श्याम वर्ण वाले श्रीकृष्णचंद्र हरे रंग की चुत वाले हो जाते हैं , मेरी भव-बाधा हो । | इस अर्थ से कवि श्रीराधिकाजी के शरीर की गुराई की प्रशंसा करता है कि वह ऐसे सुनहरे रंग की है कि उसकी आभा पड़ने से श्रीकृष्ण चंद्र का श्याम रंग हरा हो जाता है । पीले तथा नीले रंग के मेल से हरे रंग का बनना लोक-प्रसिद्ध ही है । इसी भाव को कवि ने अपने "नित प्रति एकत [ ४६ ]________________

बिहारी-रत्नाकर ही इत्यादि दोहे में भी कहा है, और माघ का एक श्लोक भी गौर तथा श्याम छविय के, पारस्परिक आभा से, हरी हो जाने के वर्णन मैं है, जो कि नित प्रति एकत ही इत्यादि दोहे की टीका में उद्धृत किया गया है। इस भाँति उनके रूप की प्रशंसा कर के कवि उनसे अपनी भत्र-बाधा दूर करने की बिनती करता है ॥ अब दूसरा अर्थ नीचे लिखा जाता है| हे वहीं राधा नागरी, जिसके तन की झाँकी अर्थात् झलक [ आँखाँ में ] पड़ने से ( दिखाई देने से ) श्रीकृष्णचंद्र हरेभरे अर्थात् प्रसन्न-वदन हो जाते हैं, मेरी भव-बाधा हरो ॥ इस अर्थ से कवि, श्रीराधिकाजी के श्रीकृष्णचंद्र की अत्यंत प्रेमपाश्री होने की प्रशंसा करता हुआ, उनसे अपनी भव-बाधा निवारण करने की प्रार्थना करता है। ऊपर कहे हुए दोन अथ” से कवि, श्रीराधिकाजी के रूप तथा प्रियतम-प्रियता की प्रशंसा करता हुआ, निम्नलिखित तीसरे अर्थ से उनमें भव-बाधा हरने का सामर्थ्य सिद्ध कर के, उनको अपनी भवबाधा हरने पर उयत करता है । इस सामर्थ्य के सिद्ध करने से कवि का यह तात्पर्य है कि, अपने सामर्थ्य का स्मरण कर के, वह शीघ्र ही उसकी भव-बाधा हरने के लिए उत्साहित हो जायँ ॥ वह तीसरा अर्थ यह है हे वही राधा नागरी, जिसके तन ( रूप ) का ध्यान पड़ने से (भक्त के हृदय में आने से) काले रंग वाला [ पदार्थ अर्थात् कल्मष, पातक इत्यादि ] हृतद्युति ( गतद्युति अर्थात् अपनी कल्मषता से राहत ) हो जाता है ( अर्थात् अपना दुःखद प्रभाव छोड़ देता है ), मेरी भव-बाधा ( सांसारिक दुःख, दारिद्र, चिंता इत्यादि, जिनका रंग कवि-परिपाटी में काला माना जाता है ) हरो ॥ ऊपर के तीन अर्थों में 'राधा नागरि’ पद संबोधन माना गया है । उसे प्रथमपुरुष-वाची मान कर भी इस दोहे के यही तीन अर्थ हो सकते हैं। हमारी पाँच प्राचीन पुस्तक में से चार मैं “मेरी भव-बाधा', यही पाठ है, और तीसरे अंक की पुस्तक आदि मैं खंडित है। कृष्ण काव की टीका के अनुसार भी यही पाठ ठीक ठहरता है । कृष्ण कवि ने, अपनी टीका मैं, प्रत्येक दोहे की जाति का नाम तथा उसके गुरु और लघु अक्षरों की संख्या लिख दी है। इस दोहे को उन्हाँने 'करभ' लिखा है, जिसमें ३२ अक्षर, अर्थात् १६ गुरु और १६ लघु, होते हैं। यह संख्या ‘भव-बाधा' ही पाठ मानने से चरितार्थ होती है, अथवा 'भौ-बाधा हरहु' पाठ रखने से । पर 'इरहु’ पाठ किसी पुस्तक मैं नहीं मिलता । एक पुरानी लिखी हुई पुस्तक, जिसमें दो का क्रम पुरुषोत्तमदासजी के बाँधे हुए क्रम के अनुसार है, हमको वृंदावन में मिली है। उसमैं ‘भौ-बाधा' पाठ तो है, पर हरहु' पाठ उसमें भी नहीं है। अतः यदि 'भौ-बाधा' पाठ शुद्ध माना जाय, तो यह दोहा करभ जाति का नहीं रहता, जैसा कि कृष्ण कवि ने इसको लिखा है । कृष्ण कवि ने अपनी टीका संवत् १७८२ में समाप्त की थी । अतः यह बात स्पष्ट है कि उस समय, जब कि बिहारी को मरे बहुत दिन नहीं बीते थे, ‘भवबाधा' ही पाठ प्रसिद्ध था । पर विचारने की बात यह है कि मंगलाचरण के दोहे के आदि मैं बिहारी ने 'मेरी भव-बाधा' कैसे रक्खा होगा; क्योंकि इस पाठ के आदि मैं त-गण भरता है, जो कि अशुभ माना जाता है। इसी को यदि वह ‘मेरी भौ-बाधा' कर देते, तो [ ४७ ]________________

बिहारी-रत्नाकर अदि मैं शुभ गण म-गण पड़ जाता, और छंद मैं भी कोई त्रुटि न पड़ती। यह कहना तो असंगत ही होगा कि बिहारी गण-विचार नहीं जानते थे ; कि यह तो ऐसी सामान्य बात है कि इसको थोड़ा पदे हुए लोग भी जानते हैं। इसके अतिरिक्त ‘भव-बाधा’ को ‘भौ-बाधा' कर देने में कोई कठिनाई भी न थी । फिर बिहारी ने, मंगलाचरण के दोहे के आदि मैं, ‘भवबाधा' क्यों लिखा ? इसके दो कारण हो सकते हैं—पहला त यः कि बिहारी के दोहे बहुधा, उनके मुख से सुन कर, राजसभा के लेखक अथवा बिहारी के शिष्य लिख लिया करते थे, अतः संभव है कि यह पाठ लिखने वाल के प्रमाद से प्रचलित हो गया हो; दूसरा यह कि बिहारी ने इस दोहे को मंगलाचरण में रखने के अभिप्राय से न बनाया हो, पर, सतसई संकलित करते समय, इसको इस योग्य देख कर, मंगलाचरण मैं रख दिया हो, और इसके अादि के गण पर ध्यान न दिया हो । जो हो, हमारी समझ में, ‘मेरी भौ-बाधा हौ' पाठ होता, तो अच्छा होता । पर प्राचीन पुस्तक में 'मेरी भव-बाधा हरौ' ही पाठ होने के कारण यही पाठ इस संस्करण में रखा गया है ॥
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देहा[सम्पादन]

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