लिंग समाज और विद्यालय/लैंगिक पहचान तथा समाजिकीकरण प्रक्रिया

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लैंगिक सामाजिक विकास[सम्पादन]

नि:संदेह लैंगिक विकास एक सामाजिक सिद्धांत हैं। आज भी लैंगिक विकास का एक समान अथवा सामाजिक सिद्धांत बना पाना अत्यंत कठिन है। इस विषय में अध्ययन तो अनेक किए गए हैं किंतु उनमें सर्वभौमिककरण का अभाव हैं। सोबल,कार्टर तथा फिफार ऐसे ही कुछ विद्वान हैं,जिन्होंने लैंगिक सामाजिक विकास जैसे विषयों पर अध्ययन किया हैं। एक सामान्य सामाजिक ढांचे को देखा जाए तो हमारा समाज दो लिंगो स्त्री तथा पुरुष में विभक्त हैं। जैविक रूप में स्त्रियों की स्थिति पुरुषों की अपेक्षा अधिक जटिल तथा पृथक होती हैं। हम यहां निम्नलिखित शब्दों के माध्यम से लैंगिक विकास के अध्ययन का प्रयास करेंगे -

  1. जैविक रूप से स्त्रियों का लैंगिक विकास
  2. सामाजिक रूप से स्त्रियों का लैंगिक विकास
  3. जैविक रूप से पुरुषों का लैंगिक विकास
  4. सामाजिक रूप से पुरुषों का लैंगिक विकास


१.जैविक रूप से स्त्रियों का लैंगिक विकास- शारीरिक रूप से स्त्रियां पुरुषों की अपेक्षा कम सशक्त तथा कमजोर होती हैं। साथ ही उनकी औसत लंबाई तथा वजन भी पुरुषों की अपेक्षा कम होती हैं। इन सबके अतिरिक्त उन्हें मातृत्व-दायित्व का भी निर्वहन करना होता हैं। जैविक रूप से पुरुषों की अपेक्षा कम सशक्त किंतु अधिक दायित्व का निर्वहन करने वाली होती हैं। यदि इस रूप में देखा जाए तो स्त्रियों में लैंगिक विकास अधिक नहीं हो पाया हैं। आज भी उनकी स्थिति लगभग वैसी ही है जैसी सदियों पूर्व हुआ करती थी, किंतु पिछले कुछ दशकों से भारतीय परिपेक्ष में देखा जाए तो इस स्थिति में कुछ सुधार हुआ है तथा उन्हें सेवा में भी स्थान दिया जा रहा हैं। साथ ही अनेक ऐसे क्षेत्र जहां पहले पुरुषों का अधिकार हुआ करता था अब स्त्रियों के लिए भी खोल दिया गया हैं।

२.सामाजिक रूप से स्त्रियों का लैंगिक विकास- सामाजिक रूप से स्त्रियां पुरुषों की अपेक्षा अधिक सामाजिक सरोकार रखने वाली होती हैं। अपने मातृत्व काल से ही स्त्री का बालक के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित हो जाता हैं जो जीवन पर्यन्त गतिमान रहता हैं। एक स्त्री अपने जन्म से मृत्यु तक विभिन्न सामाजिक नातेदारी संबंधों को सशक्त रूप से मजबूत करती रहती हैं। आधुनिक समय में स्त्रियों की स्थिति में जटिलता भी आई हैं। विशेष रूप से देखा जाए तो इससे कामकाजी महिलाओं को अपने इस स्थिति के निर्वहन के लिए अधिक परिश्रम करना होता है अन्यथा उनके लिए स्थिति अत्यंत जटिल हो जाती हैं।

३.जैविक रूप से पुरुषों का लैंगिक विकास-नि:संदेह जैविक रूप से पुरुष स्त्रियों की अपेक्षा सशक्त होते हैं,जिसके परिणामस्वरूप उनकी परिस्थिति स्त्रियों की अपेक्षा ऊंच्च रही हैं। आरंभ में ही पुरुषों को घर से बाहर गतिविधियां संचालित करनी होती थी तथा उन्हें अभियानों में भी भाग लेना होता था। भारतीय परिपेक्ष में कुछ दशकों पूर्व स्त्री मुख्यता घर में अपने कार्य करती थी, जबकि पुरुष घर के बाहर का कार्य करते थें किंतु वर्तमान में स्थितियां बदल रही है तथा अब लैंगिक रूप से कोई ऐसा कार्य नहीं है जो केवल पुरुषों के लिए आरक्षित हो ।

४.सामाजिक रूप से पुरुषों का लैंगिक विकास-जहां एक ओर पुरुष जैविकय रूप से महिलाओं से अधिक सशक्त होते हैं, तो वही सामाजिक तथा सांस्कृतिक रूप से महिलाओं से कम सशक्त में होते हैं। भावनात्मक रूप से महिला पुरुषों की अपेक्षा अपने परिवार तथा समाज के प्रति अधिक संवेदनशील तथा कर्तव्य परायण होती है। यह व्यवस्था आज भी गतिमान हैं। किंतु ऐसा भी नहीं है कि यह एक सार्वभौमिक सिद्धांत है। वर्तमान समय में ऐसा देखने में आता है कि बड़े शहरों में संयुक्त परिवार विघटित हो रहे हैं तथा एकल परिवार अस्तित्व में आ रहे हैं। ऐसी स्थिति में सामाजिक रूप से पुरुषों को वही स्थिति है जो महिलाओं का ,क्योंकि जब पति-पत्नी दोनों आजीविका के लिए घर से बाहर जाते हैं तो दोनों के सामाजिक दायित्व सामान हो जाते हैं। इस प्रकार लैंगिक विकास का सर्वमान्य अथवा धार्मिक सिद्धांत की स्थिति में बनना अत्यंत कठिन है।

लैंगिक विकास पर कुछ विचार[सम्पादन]

लैंगिक विकास के सामाजिक सिद्धांत के क्षेत्र में कुछ विद्वानों ने अध्ययन भी किया है। यहां पर ऐसे ही कुछ महत्वपूर्ण अध्ययन को उदाहरणार्थ दिया जा रहा है:-

  1. कार्टर महोदय अपने अध्ययनों से पाते हैं कि अध्यापक बालिकाओं को औसत क्षेत्र से अधिक अंक प्रदान करते हैं, वही बालक को कम।
  1. पोयल महोदय का मानना है कि बालकों की शिक्षा बालिकाओं से 6 के उपरांत आरंभ करनी चाहिए, बालिकाओं का शैशब अवस्था में विकास अधिक तीव्र गति से होता है। इनका मानना है कि बालिकाएं बालकों की अपेक्षा शीघ्र ही बोलना सीख जाती है। साथ ही उनकी गामक क्रियाएं भी अपेक्षाकृत तेज होती है।
  2. सोवल बालक बालिकाओं के प्राथमिक स्तर पर अध्यापक प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त बालिकाओं को अधिक अंक प्रदान करती हैं। वहीं पुरुषों में ऐसा पूर्ण रूप से नहीं कहा जा सकता हैं।

सामाजीकरण[सम्पादन]

“सामाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से बालक अपने समाज के स्वीकृत ढंगों को अपने व्यक्तित्व का एक अंग बना लेते हैं।”

अर्थ एवं परिभाषा- जन्म के समय मानव शिशु मात्र एक प्राणी शास्त्रीय अथवा जैवकीय इकाई के रूप में होता है। इस समय वह रक्त, मांस, और हड्डियों से बना एक जीवित प्राणी होता है। उसमें कोई भी सामाजिक गुण नहीं होता। समाज के रीति-रिवाजों, प्रथाओं मूल्यों एवं संस्कृति सेवा से अंजान होता है। किंतु वह शारीरिक क्षमताओं के साथ जन्म लेता है। इंसानों के भिन्न-भिन्न तरीके जीवन यापन करने के कारण ही वह भी बहुत कुछ सीख लेता है, समाज का क्रियाशील सदस्य बन जाता है तथा संस्कृति को ग्रहण करता है। सीखने की क्षमता व्यक्ति में समाज में रहकर तथा समाज के अन्य लोगों के संपर्क में आने पर विकसित होता है। सामाजिक संपर्क के कारण व्यक्ति एक प्राणी शास्त्रीय प्राणी से सामाजिक प्राणी बन जाता है। समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा मानव, पशु स्तर से उठकर मानव की संज्ञा प्राप्त करता है।

समाजीकरण की परिभाषा

सामाजिकरण की मुख्य परिभाषाएं - वोगार्डस “समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोग मानव कल्याण के लिए एक दूसरे पर निर्भर होकर व्यवहार करा सकते हैं और ऐसा करने में सामाजिक आत्म नियंत्रण सामाजिक उत्तरदायित्व तथा संतुलित व्यक्ति का अनुभव होता है।”

ग्रीन “समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक सांस्कृतिक विशेषताओं, आत्मपन और व्यक्तित्व को प्राप्त करता है।”

रॉस “समाजीकरण सहयोग करने वाले व्यक्तियों में हम भावना का विकास करता है और उनमें एक साथ कार्य करने की इच्छा तथा क्षमता में वृद्धि करता है”

रुसेक “बालक का सामाजिकरण बालकों के समूह में सर्वोत्तम रूप से होता है और बालक दूसरे बालक का सर्वोत्तम शिक्षक है।”

स्टीवर्ट एवं ग्लिन “समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोग अपनी संस्कृति के विश्वासों को ग्रहण करते हैं।”

ड्रेवर “समाजीकरण व प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक आदर्शों को स्वीकार करके अपने सामाजिक वातावरण के साथ अनुकूलन करता है और इस प्रकार वह उस समाज का मान सहयोगी और कुशल सदस्य बनता है।”

न्यूमेयर “एक व्यक्ति के सामाजिक प्राणी के रूप में परिवर्तित होने की प्रक्रिया का नाम ही समाजीकरण है।”

फीचर “समाजीकरण प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक व्यवहारों को स्वीकार करता है और उनसे अनुकूलन करना सीखता है।”

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा शिशु अपने व्यक्तित्व का विकास करता है। समाज का क्रियाशील सदस्य बनता है तथा सामाजिक आदर्शों मूल्यों एवं प्रतिमानों को सीखकर उनके अनुरूप आचरण करता है।

समाजीकरण की प्रक्रिया- समाजीकरण की प्रक्रिया के महत्वपूर्ण कारक निम्नलिखित हैं:- १. पालन-पोषण:- उचित समाजीकरण के लिए आवश्यक है कि बालक का पालन पोषण किया जाए ऐसा करने पर ही समाज के आदर्श मूल्यों के अनुरूप आचरण करना सीखता है।

२.सहकारिता:- जैसे-जैसे बालक अपने साथियों का सहयोग पाता है वैसे वैसे वह दूसरों का सहयोग भी प्रारंभ कर देता है इससे उसकी सामाजिक प्रवृतियां संगठित हो जाती है।

३.सहानुभूति:- बालक, प्रारंभ में अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए परिवार के अन्य सदस्यों पर निर्भर रहता है। यहां पर ध्यान रखना आवश्यक है कि परिवार में बालक की समस्त आवश्यकताएं पूरी करना पर्याप्त नहीं। बल्कि उसके साथ सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना भी अनिवार्य है। बालक अपनत्व की भावना अनुभव करने लगता है उन्हें अधिक प्यार भी करने लगता है।

४.आत्मीकरण:-जब परिवार तथा अन्य समूह द्वारा बालक को सहानुभूति प्राप्त होती है समीकरण की भावना का विकास होता है।

५.पुरस्कार एवं दंड:- जब बालक समाज के आदर्शों एवं प्रतिमानों के अनुरूप आचरण करता है तो उसकी प्रशंसा होती है अथवा उसे उचित रूप में पुरस्कृत किया जाता है। इसके विपरीत जब वह समाज के आदर्शों के विपरीत आचरण करता है तो उसे दंड दिया जाता है। इससे बालक के सामाजिककृत होने में सहायता मिलती है।

६. अनुकरण:- अनुकरण समाजीकरण का एक मूलभूत तत्व है। बालक परिवार पड़ोस तथा अन्य समूहों के लोगों को जिस प्रकार का व्यवहार करते हुए देखता है, उसी का अनुसरण करने लगता है।

७.सामाजिक शिक्षण :-सामाजिक शिक्षण का भी बालक के समाजीकरण पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यह सामाजिक शिक्षण परिवार से प्रारंभ होता है। परिवार में बालक माता-पिता,भाई-बहन तथा अन्य सदस्यों से रहन-सहन उठना बैठना,खान-पान बोलचाल आदि के विषय में शिक्षा प्राप्त करता है।