विशिष्ट आपेक्षिकता/परिचय
परिचय
[सम्पादन]आपेक्षिकता का विशिष्ट सिद्धांत चिरसम्मत भौतिकी का एक सिद्धांत है जो 19वीं सदी के अंत में एवं बीसवीं सदी के प्रारंभ में विकसित हुआ। इसने हमारी न्यूटनीय भौतिकी जैसी पुरानी समझ को बदला जिससे प्रारंभिक क्वांटम सिद्धांत एवं सामान्य आपेक्षिकता सिद्धान्त को विकसित करने की नींव डाली। विशिष्ट आपेक्षिकता भौतिकी के मूल स्तम्भों में से एक है।
यह पुस्तक पाठक को आधुनिक भौतिकी और बीसवीं सदी की बहुत गहन खोज से अवगत करवा सकती है: ब्रह्मांड में कम से कम चार विमाएं उपस्थित हैं।
ऐतिहासिक विकास
[सम्पादन]विशेष्ट आपेक्षिकता प्रकाश के बारे में दिया गया सिद्धान्त नहीं है, यह दिक् (ज्यामिति) और समय के बारे में सिद्धान्त है लेकिन यह प्रकाश का विचित्र व्यवहार था जिससे वैज्ञानिकों का ब्रह्माण्ड की अनपेक्षित ज्यामिति की सम्भावना की और ध्यान आकृष्ट हुआ। यहाँ दिया गया विशिष्ट आपेक्षिकता का लघु इतिहास प्रकाश से आरम्भ होगा लेकिन इसका अन्त उस खोज पर होगा जिसके अनुसार प्रकाश का व्यवहार ब्रह्माण की ज्यामिति पर निर्भर करता है।
उन्नीसवीं सदी में यह व्यापक रूप से स्वीकृत हो चुका था कि प्रकाश तरंग रूप में “ईथर” (aether) माध्यम में गति करता है। प्रकाश का इस ईथर माध्यम में संचरण ठीक उसी तरह होना स्वीकार्य था जैसे अन्य तरंगों का द्रव्या माध्यमों में होता है; उदाहरण के लिए ध्वनि तरंगों का संचरण हवा (और अन्य माध्यमों) में होता है। प्रकाश का संचरण हमारी आँखों तक ईथर माध्यम में तरंग के रूप में होता है और यह ठीक वैसे ही है जैसे ध्वनि तरंगों का संचरण हवा में अपने कानों तक होता है।
ईथर की प्रकृति हमारे लिए अज्ञात थी लेकिन उन्नीसवीं सदी के मध्य से पहले तक ईथर और विद्युत् एवं चुम्बकीय क्षेत्रों में एक कड़ी जुड़ने लगी। फैराडे ने यह प्रदर्शित किया कि प्रकाश का ध्रुवण चुम्बकीय क्षेत्र से प्रभावित किया जा सकता है और वेबर ने दिखाया कि विद्युत् प्रभाव को कुचालक पदार्थों में भी पारगमित किया जा सकता है जो इसका प्रबल संकेत था कि प्रकाश भी विद्युत्चुम्बकीय प्रभाव का कोई रूप हो।
स्कॉटलैण्ड के भौतिक विज्ञानी जेम्स क्लर्क मैक्सवेल ने वर्ष 1865 में ईथर के विचार को ध्यान में रखते हुये प्रकाश के विद्युत्चुम्बकीय सिद्धान्त के अनुरूप विद्युत् और चुम्बकत्व पर विभिन्न प्रयोग आरेखित किये। उन्होंने देखा कि विद्युत् और चुम्बकीय बल एक ही बल को निरुपित करते हैं जबकि इससे पहले इन दोनों को अलग-अलग बल माना जाता था। वो विद्युत्चुम्बकीय तरंगों की चाल की गणना करने में सफल रहे जो विद्युत् क्षेत्र की तीव्रता और चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता के अनुपात के बराबर होती है। इससे एक महत्त्वपूर्ण प्रेक्षण यह सम्भव हुआ कि विद्युत्चुम्बकीय प्रभाव की गति प्रकाश के वेग के निकट ही मान रखते हैं। उन्होंने विद्युत् अन्योन्य क्रिया के बारे में लिखा कि:
“यह वेग प्रकाश की चाल के इतना निकट है कि प्रकाश अपने आप में (जिसमें उष्मा के कारण विकिरण वाला और अन्य विकिरण भी, यदि कोई है) विद्युत्चुम्बकीय नियम के अनुसार विद्युत्चुम्बकीय क्षेत्र में विद्युत्चुम्बकीय उत्तेजना का तरंग के रूप में संचरण से कोई प्रबल कारण जुड़ा हुआ है।”
मैक्सवेल का सिद्धान्त रेड़ियो, उष्मीय विकिरण, प्रकाश और ईथर माध्यम में प्रवाहित विभिन्न अन्य विद्युत्चुम्बकीय तरंगों को समझाने में सफल रहा। इन तरंगों की गति ईथर के गुणधर्मों पर निर्भर करती थी। यदि कोई ईथर माध्यम में स्थिर होता था वो ईथर के नियत गुणधर्मों के कारण प्रकाश की चाल को नियतांक के रूप में प्रेक्षित करना चाहिए। यदि ईथर माध्यम में किसी एक स्थिर प्रेक्षक से दूसरे तक जाने वाली जाने वाली प्रकाश की कीरण का मापन किया जाता है तो यह यह कीरण समान समय लेगी और यह इसपर निर्भर नहीं करेगा कि कौनसे स्थिर प्रेक्षक ने इसका मापन किया। हालांकि सभी स्थिर प्रेक्षकों के लिए सभी दिशाओं में प्रकाश का वेग समान रहेगा और गतिशील प्रेक्षक इसका मापन प्रकाश के ईथर माध्यम में वेग और प्रेक्षक के ईथर माध्यम के साथ सापेक्ष वेग के योग के तुल्य होना चाहिए।
यदि वास्तव में पूरा दिक्काश (अंतरिक्ष) ईथर माध्यम से भरा हुआ है तो पिण्डों (अथवा वस्तुओं) की इस ईथर माध्यम में गति को प्रकाश की कीरणों के वेग के मापन के साथ संसूचित किया जाना चाहिए। सामान्य अभ्यास में प्रकाश के वेग का मापन पर्याप्त यथार्थता के साथ बहुत मुश्किल है। मैक्सवेल ने सुझाव दिया कि "व्यतिकरणमापी" नामक उपकरण आवश्यक शुद्धता के साथ मापन में सहायक होता है। उन्होंने प्रस्ताव दिया कि व्यतिकरणमापी को जब ईथर माध्यम में गतिमान किया जाता है तो उपकरन के वेग और ईथर में प्रकाश के वेग के योग के कारण यह एक भिन्न व्यतिकरण प्रारूप निर्मित करेगा। मैक्सवेल का विचार बाद में वर्ष 1879 में (मरणोपरांत) नैचर (Nature) में प्रकाशित हुआ।
अल्बर्ट माइकलसन ने मैक्सवेल का दस्तावेज पढ़ा और वर्ष 1887 में माइकलसन और मोर्ले ने एक 'व्यतिकरणमापी' प्रयोग निष्पादित किया जिसका उद्देश्य यह परीक्षण करना था कि वास्तव में प्रकाश का प्रेक्षित वेग, ईथर माध्यम में प्रकाश के वेग और प्रेक्षक के योग के तुल्य है। माइकलसन और मोर्ले ने खोजा कि प्रकाश का प्रेक्षित वेग प्रेक्षक के वेग के साथ परिवर्तित नहीं होता। प्रयोग ने सभी को आश्चर्यचकित करते हुये दिखाया कि प्रकाश की चाल प्रस्तावित ईथर में प्रकाश के स्रोत अथवा लक्ष्य के वेग से स्वतंत्र था।
व्यतिकरणमापी प्रयोग का यह "शून्य परिणाम" कैसे समझा जाये? निर्वात में प्रकाश की चाल का सभी प्रेक्षकों और उनकी गति से स्वतंत्र होना कैसे समझा जा सकता है? यह सम्भव था कि मैक्सवेल का सिद्धान्त सही हो लेकिन वेगों के संयोगन का तरिका (जिसे गैलीलियो के आपेक्षिकता सिद्धान्त के रूप में जाना जाता है) गलत था। वैकल्पिक रूप में यह भी सम्भव था कि मैक्सवेल के सिद्धान्त गलत था और गैलीलियो सापेक्षिकता सही थी। हालांकि उस समय की सर्वप्रसिद्ध विवेचना यह ही थी कि मैक्सवेल और गैलीलियो दोनों ही सही थे और कुछ समस्या मापन उपकरणों के साथ है। यह मुमकीन माना गया कि उपकरण को किसी तरह से ईथर माध्यम ने अथवा किसी अन्य पदार्थ के प्रभाव ने उपकरण को निष्पीड़ित कर दिया हो और उसके परिणामस्वरूप सही परिणाम नहीं मिल रहे थे।
विभिन्न वैज्ञानिकों ने माइकलसन और मोर्ले के प्रयोग को दोहराकर इसको समझने का प्रयास किया। जॉर्ज फिट्सजेरल्ड (1889) और हेंड्रिक लोरेन्ट्स (1895) ने सुझाव दिया कि ईथर माध्यम के सापेक्ष गति की दिशा में वस्तु संकुचित हो जाती है तथा जोसेफ लारमोर (1897) और हेंड्रिक लोरेन्ट्स (1899) ने प्रस्ताव दिया कि ईथर माध्यम में गति के परिणामस्वरूप गतिशील वस्तुयें संकुचित होती हैं एवं गतिशील घड़ियाँ धीमी चलने लगती हैं। प्रकाश के प्रसरण के विश्लेषण के लिए फिट्सजेरल्ड, लोरेन्ट्स और लारमोर के योगदान बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण थे क्योंकि उन्होंने "लोरेन्ट्स रूपान्तरण समीकरणें" निर्मित की। लोरेन्ट्स रूपांतरण समीकरणें का विकास व्यतिकरणमापी प्रयोग में व्यतिकरण से बनी फ्रिंजों में परिवर्तन के अभाव की मात्रा को समझने के लिए व्यतिकरणमापी की लम्बाई में परिवर्तन और घड़ी के धीमेपन की आवश्यकता वाले भौतिक प्रभावों की आवश्यकता के रूप में हुआ। इससे आइंस्टीन ने यह क्रान्तिकारी विचार समझने में सफलता प्राप्त की कि समीकरणों को दिक्काश और समय पर लागू किया जा सकता है।
उन्नीसवीं सदी के अन्त तक यह स्पष्ट होने लग गया था कि ईथर से जुड़े सिद्धान्तों में प्रकाश के प्रसरण के साथ समस्या है। ईथर में इस तरह के गुणधर्म समाहित करके समझने का प्रयास किया जा चुका था जिसके अनुसार यह द्रव्यमानरहित, अंसपीड्य, पूर्णतः पारदर्शी, सतत, श्यानतारहित और लगभग अनन्त प्रत्यास्थ है। वर्ष 1905 में अल्बर्ट आइंस्टीन ने समझने का प्रयास किया कि मैक्सवेल समीकरणों को ईथर की आवश्यकता नहीं है। मैक्सवेल समीकरणों के आधार पर उन्होंने प्रदर्शित किया कि लोरेन्ट्स रूपांतरण लम्बाई में संकुचन और घड़ियों के धीमे चलने को समझाने के लिए पर्याप्त हैं यदि पुराने गैलीलियो के वेगों के संयोजन के सिद्धान्त में थोड़ा सुधार किया जाये। आइंस्टीन की असाधारण उपलब्धि यह थी कि वो ऐसे पहले भौतिक विज्ञानी थे जिन्होंने सिद्ध किया कि गैलीलियो का सापेक्षिकता सिद्धान्त अपने आप में आपेक्षिकता का सन्निकटन है। वो इस परिणाम तक पहुंचने के लिए लोरेन्ट्स रूपांतरण समीकरणों से निर्देशित होते हुये और यह भी समझा था कि ये समीकरणें केवल दिक्काश एवं समय के मध्य सम्बंध को प्रदर्शित करती हैं जिनमें ईथर के गुणधर्मों का कोई निर्देश/सन्दर्भ नहीं था।
वर्ष 1905 में आइंस्टीन एक ऐसे विचार पर पहुँचे जिसने विशिष्ट आपेक्षिकता को बनाया। गणितज्ञ हर्मन मिन्कोव्स्की ने इससे यह सिद्ध करने का कार्य किया ईथर पूर्णतः अनावश्यक है। वो विशिष्ट आपेक्षिकता के आधुनिक रूप सामने लाये जिसकी घोषणा उन्होंने 21 सितम्बर 1908 में जर्मन प्राकृतिक वैज्ञानिकों और भौतिकविदों (German Natural Scientists and Physicians) की 80वीं सभा में की। नये सिद्धान्त के परिणाम स्पष्ट और मूलक थे जैसा मिन्कोव्स्की ने रखे:
"जब आप प्रायोगिक भौतिकी और उनमें समाहित तथ्यों के आधार पर कुछ कहो, उससे पहले स्पष्ट करता हूँ दिक्काश और समय के बारे में दृष्टिकोण रखता हूँ। वो मुलक हैं। अब से दिक्काश अपने आप में एवं समय अपने आप में एक परछाई से ज्यादा कुछ नहीं हैं और दिनों एक तरह के संघ हैं जो अपनी स्वतंत्र पहचान रखते हैं।"
मिन्कोव्स्की ने यह ध्यान दिलाया कि आइंस्टीन का सिद्धान्त वास्तव में अवकलनीय ज्यामिति के सिद्धान्तों से सम्बंधित है जो गणितज्ञों ने उन्नीसवीं सदी में ही विकसित कर लिये थे। शुरूआत में मिन्कोव्स्की की खोज प्वांकारे (Poincaré), लोरेन्ट्स (Lorentz) और यहाँ तक कि आइंस्टीन जैसे भौतिकविज्ञानियों में भी अलोकप्रिय थी। भौतिक विज्ञानी प्रकृति की पूर्णत पदार्थवादी पहुँच अभ्यस्त हो चुके थे जिसमें पदार्थ का पिंड एक दूसरे से टकराते हैं और महत्त्वपूर्ण घटनायें केवल वो है जो कुछ सार्वत्रिक, ताक्ष्णिक और वर्तमान क्षण में घटित होती हैं। ब्रह्माण्ड की वह सम्भावित ज्यामिति जिसमें दिक्काश और समय सम्मिलित हो सकते हैं वह एक बाहरी विचार था। लम्बाई में संकुचन की घटना दिक्-काल ज्यामिति के भौतिक प्रभावों के कारण होना सम्भावित था न कि वस्तुओं के मध्य बलों में वृद्धि अथवा ह्रास से; वर्ष 1908 में भौतिक विज्ञानियों के लिए यह असम्भावित था जो आधुनिक समय में उच्च माध्यमिक स्तर के विद्यार्थियों के लिए है। आइंस्टीन ने इन नये विचारों को जल्दी ही आत्मसात कर लिया और अवकलीय ज्यामिति पर आधारित सिद्धान्त के रूप में सामान्य आपेक्षिकता के विकास में लग गये लेकिन इससे पहले के भौतिक विज्ञानियों की पिढ़ी ब्रह्माण्ड को नये तरिके से देखने को स्वीकृत करने से असहमत रही।
अवकलीय ज्यामिति का आपेक्षिकता सिद्धान्तों में स्वीकरण वाल्टर (1999) द्वारा चिह्नित किया गया है। वाल्टर का अध्ययन प्रदर्शित करता है कि आइंस्टीन के वास्तविक विद्युत्चुम्बकीय दृष्टिकोण को प्रतिस्थापित करते हुये अवकलनीय ज्यामित पर आधारित 1920 के दशक में विकसित आपेक्षिकता का आधुनिक दृष्टिकोण ने जगह ले ली।
विशिष्ट आपेक्षिकता सिद्धान्त की खोज के साथ हेनरी प्वांकारे को श्रेय देना लोकप्रिय हो गया लेकिन प्वांकारे को बहुत सारे सही उत्तर गलत कारणों से मिले। यहाँ तक की वो के एक संस्करण के साथ आये। वर्ष 1904 में प्वांकारे "सापेक्षिकता का सिद्धान्त" प्रतिपादित करने के करीब पहुँचे थे जिसमें "किसी स्थिर अथवा समरूप स्थानान्तरण गति में स्थित प्रेक्षक के लिए भौतिक घटनाओं के नियम समान रहने चाहिए, अतः हमारे किसी गतिशील अवस्था में होने को पहचाना नामुमकीन होता है।" इससे आगे वर्ष 1905 में प्वांकारे ने उन समीकरणों के लिए "लॉरेन्ट्स रूपांतरण" शब्द व्युत्पन्न किया जो माइकलसन मोरले प्रयोग के किसी भी परिणाम की व्याख्या नहीं करती थी। यद्यपि प्वांकारे ने इन समीकरणों की व्युत्पत्ति माइकलसन मोरले प्रयोग के किसी भी परिणाम की व्याख्या के लिए नहीं की थी लेकिन उन्होंने ईथर माध्यम की परिकल्पना पर आधारित गणनायें ही की थी। आइंस्टीन ने ईथर की परिकल्पना को अनावश्यक बताया।
विशिष्ट आपेक्षिकता और ईथर सिद्धान्तों जैसे प्वांकारे एवं लोरेन्ट्स को तुल्य बताना भी लोकप्रिय है जिसमें इन्हें ओकाम के रेजर से अलग किया जा सकता है। ओकाम का रेजर दो अलग तरह से प्रतीत होने वाले सिद्धान्तों में कठिन सिद्धान्त से सरल सिद्धान्त को अलग करने के लिए काम मीं लिया जाता था। प्वांकारे और लोरेन्ट्स दोनों के सिद्धान्तों में लोरेन्ट्स रूपांतरणों को उपयोग में लिया गया है जो अपने आप में माइकलसन और मोरले प्रयोग के परिणामों यथा ईथर रहित लम्बाई में संकुचन, समय विस्फारण को समझाने में प्रयाप्त हैं। ईथार सिद्धान्तवादी सामान्य रूप में असफल रहे क्योंकि वो यह देखने में असमर्थ रहे क्योंकि उन्होंने अपनी पूर्व-अवधारणा अथवा अपने दार्शनिक कारणों से दिक्-काल की अवधारणा को अस्वीकार करते रहे। प्वांकारे की स्थित में उन्होंने दिक्-काल को अस्वीकार किया क्योंकि दिकांश और समय में बदलाव की अवधारणा के विचार पर दार्शनिक असहमति थी। (टिप्पणी १ देखें)
यह अजीब था कि आइंस्टीन वास्तव में दार्शनिक कारणों से ईथर के बारे में विचार करने लग गये थे जैसे प्वांकारे (ग्रानेक 2001 देखें) ने समझा था। मिन्कोव्स्की द्वारा सूत्रित विशिष्ट आपेक्षिकता का ज्यामितिय रूप दूरी पर स्थित किसी घटना को नहीं रोकता और इसे दार्शनिक रूप से अस्पष्ट माना जाता था। इससे प्रभावित होकर आइंस्टीन ने वर्ष 1920 में सामान्य आपेक्षिकता में प्वांकारे के कुछ विचारों को पुनःप्रस्तुत किया। क्या आइंस्टीन द्वारा प्रस्तावित प्रकार की ईथर वास्तव में भौतिक सिद्धान्तों के लिए आवश्यक थी, यह आज भी भौतिकी में सक्रिय प्रश्न है। हालांकि इस तरह की ईथर, विशिष्ट आपेक्षिकता के दिक्-काल को लगभग अस्पष्ट छोड़ देता है और यह पदार्थ एवं ज्यामिति का जटिल समन्वय है जो उन्नीसवीं सदी के विचारकों के लिए अमान्य रहा।
अपेक्षित पाठक
[सम्पादन]यह पुस्तक विशिष्ट आपेक्षिकता को पहले सिद्धान्त से प्रस्तुत करती है और तार्किक रूप से निष्कर्ष तक पहुँचती है। इसमें सामान्य चित्र और कुछ अनुमानित प्रयोग होंगे। यद्यपि अन्ततः यह सैद्धान्तिक रूप से मिन्कोव्स्की दिक्काश और दूरिक प्रदिशों तक पहुँचती है, यह सम्भव है कि विशिष्ट आपेक्षिकता को उच्च माध्यमिक स्तर की बीजगणित को काम में लेकर समझा जाये। पुस्तक के पहले आधे भाग में यह विधि ही अपनायी गयी है। इसमें यह प्रयास किया गया है कि विषय को बड़ी मात्रा में पाठक समझ सकें। इसके लिए पाठक की यथार्थ रूचि की आवश्यक है।
गणितीय रूप में अच्छे से विषय को समझने के लिए विकिपुस्तक में उन्नत पाठ को देखें।
पुस्तक को समकालिकता की आपेक्षिकता को समझने में असफल विद्यार्थियों/पाठकों के अनुरूप तैयार किया जा रहा है। पुस्तक को अंग्रेज़ी भाषा में अच्छे से प्रलेखित करके गहराई में निम्नलिखित पेपर में देखा जा सकता है: स्चेर और साथियों द्वारा लिखित स्टूडेंट अंडरस्टेडिंग ऑफ़ टाइम इन स्पेशल रिलेटीविटी: साइमल्टेनीटी एंड रेफ्रेन्स फ्रेम्स।
ऐसा विशेष क्या है?
[सम्पादन]वर्ष 1905 में आइंस्टीन ने विशिष्ट सिद्धान्त को "गतिशील पिण्डों की विद्युतगतिकी पर" लेख में इंगित किया और इसको विशिष्ट इसलिये कहा क्योंकि यह असमरूप गुरुत्वीय क्षेत्रों की अनुपस्थिति में लागू होता है।
एक अधिक पूर्ण सिद्धान्त की खोज में आइंस्टीन ने आपेक्षिकता का सामान्य सिद्धान्त विकसित किया और वर्ष 1915 में प्रकाशित किया। अधिक गणितीय मांग वाले विषय सामान्य आपेक्षिकता, गुरुत्वीय क्षेत्रों की उपस्थिति में भौतिकी का वर्णन करता है।
दोनों प्रतिमानों (मॉडल) की अवधारणा में मुख्य अन्तर दिक्-काल के उपयोग का है। विशिष्ट आपेक्षिकता में यूक्लिडीन-सदृश (समतल) दिक्-काल का उपयोग करता है। सामान्य आपेक्षिकता में उस दिक्-काल का उपयोग होता है जो सामान्यतः समतल के स्थान पर वक्रीय है और यह वो वक्रता है जो गुरुत्वाकर्षण को निरूपित करती है। विशिष्ट आपेक्षिकता का प्रभावक्षेत्र इतना सीमित नहीं है। दिक्-काल को अक्सर समतल अनुमानित किया जाता है और यहाँ पर त्वरित विशिष्ट आपेक्षिकीय वस्तुओं को समझने की तकनीकी भी समाहित है।
आपेक्षिकता में सामान्य कमियाँ
[सम्पादन]यहाँ पर विशिष्ट आपेक्षिकता के बारे में कुछ सामान्य मिथ्याबोध अथवा गलत अवधारणायें दी गयी हैं। यदि आप विशिष्ट आपेक्षिकता के बारे में नहीं जानते तो इस अनुभाग को छोड़ सकते हो और बाद में पुनः आ सकते हो। यदि आप एक प्रशिक्षक हो तो सम्भवतः यह आपको कुछ समस्याओं में की तरफ मुड़ने से रोक ले और आप अपनी प्रसुति को सही ढ़ंग से प्रस्तुत कर सको।
शुरुआत में लोग ऐसा मान लेते हैं कि विशिष्ट आपेक्षिकता केवल तेज गति से गतिमान वस्तुओं के बारे में है। वास्तव में यह एक भूल होती है। वेग के सभी मानों के लिए विशिष्ट आपेक्षिकता के नियम लागू होते हैं लेकिन निम्न वेगों के लिए इसके पूर्वानुमानित मान न्यूटन के आनुभाविक सूत्रों के लगभग समरूप होते हैं। जैसे जैसे किसी वस्तु के वेग का मान बढ़ता है, आपेक्षिकता के पूर्वानुमान धीरे-धीरे न्यूटनीय यांत्रिकी से अलग हो जाते हैं।
यहाँ पर कभी-कभी एक समस्या "समकालिकता की आपेक्षिकता" और "सिग्नल विलम्बता/अतिकाल" को पृथक करना है। इस पुस्तक का पाठ अन्य प्रस्तुतियों में निम्नलिखित प्रकार से अलग है कि इसमें सीधे दिक्-काल ज्यामिति से उल्लिखित किया गया है और प्रकाश के प्रसरण में अतिकाल को नहीं देखा गया है। यह दृष्टिकोण रखने का उद्देश्य उन विद्यार्थियों को ध्यान में रखना है जिन्होंने यूक्लिड ज्यामिति के उपयोग से लम्बाई और कोण के मापन की विधि उपयोग करना और उपकरण के लिए सतत सन्दर्भ का अध्ययन नहीं किया है। मापन प्रक्रिया के लिए सतत सन्दर्भ उसमें अन्तर्निहित ज्यामितिय सिद्धान्त को अस्पष्ट कर देता है कि ज्यामित त्रिविमीय है या चतुर्विमिय।
यदि विद्यार्थी इसको स्वीकार नहीं कर पाते हैं, आधुनिक विशिष्ट आपेक्षिकता शुरु से ही प्रस्तुत करता है कि ब्रह्माण्ड चार विमिय है तब पॉइनकेयर की तरह माना जा सकता है कि प्रकाश की गति की स्थिरता को यांत्रिक व्याख्या रहित घटना है और यांत्रिक एवं विद्युत प्रभावों को प्रकाश के वेग से मापन के संगत समायोजित करने के प्रयास करें।
विकि के बारे में
[सम्पादन]यह विकिपुस्तक है। इसका अर्थ यह है कि इसमें बहुत बड़े सुधार और विस्तार की प्रबल सम्भावना है। ये सुधार परिष्कृत भाषा, स्पष्ट गणित, सरल चित्र और बेहतर प्रश्न अभ्यास एवं उत्तर के रूप में हो सकती है। इसमें विस्तार कलाकृतियों, विशिष्ट आपेक्षिकता की ऐतिहासिक सामग्री या अन्य किसी भी रूप में किया जा सकता है। यदि आपको उचित लगे तो विकिपुस्तक पर विशिष्ट आपेक्षिकता में सुधार और विस्तार करने के लिए स्वतंत्र महसूस करें।
सन्दर्भ
[सम्पादन]- आइंस्टीन, ए॰ (1905). ज़ुर एलेक्ट्रोडाइनेमिक बेवेग्तेर कोर्पर, एनलन डेर फिजिक में 17:891-921.
टिप्पणी
[सम्पादन]- विशिष्ट आपेक्षिकता के दिक्-काल पर आधुनिक दार्शनिक आपत्ति यह है कि यह निकाय के अंतर्निहित सामग्री को समाहित किये बिना इसपर कार्य करती है जबकि सामान्य आपेक्षिकता में दिक्-काल इसकी अंतर्निहित सामग्री पर कार्य करती है।
आगे का अध्ययन
[सम्पादन]- फायनमैन लेक्चर्स ऑन फिजिक्स, सिमेट्री इन फिजिकल लॉज (अंग्रेजी में) (वर्ल्ड स्टुडेंट) भाग 1, पाठ 52
- ग्रोस, डी॰जी॰, द रोल ऑफ़ सिमेट्री इन फंडामेंटल फिजिक्स (अंग्रेज़ी में), पीएनएएस, दिसम्बर 10, 1996, भाग 93 संख्या 25 14256-14259
- स्टीफन हॉकिंग और लियोनार्ड म्लोदिनोव; द ग्रांड डिजाइन बूक; पाठ 5, द थियोरी ऑफ़ एवरिथिंग।