"लोक साहित्य/लोक संस्कृति": अवतरणों में अंतर

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===फ़ोकलोर (Folklore) या लोक संस्कृति : अवधारणा===
===फ़ोकलोर (Folklore) या लोक संस्कृति : अवधारणा===
इस पद के प्रथम प्रयोक्ता के रूप में विलियम जान टामस का नाम लिया जा सकता है। उन्होंने 'पापुलर एंटीक्विटीज़' के लिए इसका प्रयोग 1846 में किया था। माना जाता है कि टामस ने ही इस शब्द की रचना की और आगे चलकर असंस्कृत मानव-समुदाय के जीवन की नानाविध परंपराओं और उनका अध्ययन करने वाले शास्त्र के अर्थ में सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया गया।<ref>रवीन्द्र भ्रमर, लोक-साहित्य की भूमिका, साहित्य सदन, कानपुर, प्रथम संस्करण, 1991, पृष्ठ - 11</ref> फ़ोकलोर के संबंध में शार्लेट सोफ़िया बर्न की व्याख्या बहुत महत्वपूर्ण है। उनका मानना है कि फ़ोकलोर एक जातिबोधक पद के समान प्रतिष्ठित हो गया है। इसके अंतर्गत सभ्य और उन्नत जातियों के अर्द्धसंस्कृत समुदायों में व्याप्त विश्वास, रीति-रिवाज, गाथा-कथाएँ, गीत तथा कहावतें आदि शामिल की जा सकती हैं। प्रकृति के जड़-चेतन के संबंध में, मानव स्वभाव तथा उसके द्वारा निर्मित वस्तुओं के संबंध में, भूत-प्रेत की दुनिया तथा उसके साथ मानवीय संबंध विषयक जादू, टोना, टोटका, सम्मोहन, वशीकरण, जंतर-ताबीज, नियति, सगुन-असगुन, रोग-व्याधि, जरा-मरण आदि के संबंध में आदिम तथा अतार्किक विश्वास (जो किसी को सभ्यता के मायनों में असभ्यता का लक्षण लग सकता है) इसके दायरे में आते हैं। इसी तरह विवाह, उत्तराधिकार, बाल्यावस्था और प्रौढ़ जीवन के अनुष्ठान भी इसी में आते हैं। त्यौहार, युद्ध, शिकार, मछुआरों की वृत्ति, पशुपालन आदि के रीति-रिवाज भी इसमें शामिल किए जा सकते हैं। धर्मगाथाएँ, किंवदंतियाँ, लोककथाएँ, लोकगाथाएँ, लोकगीत, कहावतें, लोरियाँ, पहेलियाँ भी इसके अंग हैं। कुछ मिलाकर कह सकते हैं कि लोक की मानसिकता की संपन्नता के तहत जो भी चीजें आ सकती हैं वे सभी इसमें शामिल हैं।<ref>{{cite book|author=Charlotte Sophia Burne|title=The Handbook of Folklore|url=https://ia803407.us.archive.org/9/items/handbookoffolklo00burnuoft/handbookoffolklo00burnuoft.pdf|series=Relics of popular antiquities by The Folklore Society|year=1914|publisher=Sidwick & Jackson Ltd.|location=London|pages=1–5}}</ref>
इस पद के प्रथम प्रयोक्ता के रूप में विलियम जान टामस का नाम लिया जा सकता है। उन्होंने 'पापुलर एंटीक्विटीज़' के लिए इसका प्रयोग 1846 में किया था। माना जाता है कि टामस ने ही इस शब्द की रचना की और आगे चलकर असंस्कृत मानव-समुदाय के जीवन की नानाविध परंपराओं और उनका अध्ययन करने वाले शास्त्र के अर्थ में सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया गया।<ref>रवीन्द्र भ्रमर, लोक-साहित्य की भूमिका, साहित्य सदन, कानपुर, प्रथम संस्करण, 1991, पृष्ठ - 11</ref> फ़ोnकलोर के संबंध में शार्लेट सोफ़िया बर्न की व्याख्या बहुत महत्वपूर्ण है। उनका मानना है कि फ़ोकलोर एक जातिबोधक पद के समान प्रतिष्ठित हो गया है। इसके अंतर्गत सभ्य और उन्नत जातियों के अर्द्धसंस्कृत समुदायों में व्याप्त विश्वास, रीति-रिवाज, गाथा-कथाएँ, गीत तथा कहावतें आदि शामिल की जा सकती हैं। प्रकृति के जड़-चेतन के संबंध में, मानव स्वभाव तथा उसके द्वारा निर्मित वस्तुओं के संबंध में, भूत-प्रेत की दुनिया तथा उसके साथ मानवीय संबंध विषयक जादू, टोना, टोटका, सम्मोहन, वशीकरण, जंतर-ताबीज, नियति, सगुन-असगुन, रोग-व्याधि, जरा-मरण आदि के संबंध में आदिम तथा अतार्किक विश्वास (जो किसी को सभ्यता के मायनों में असभ्यता का लक्षण लग सकता है) इसके दायरे में आते हैं। इसी तरह विवाह, उत्तराधिकार, बाल्यावस्था और प्रौढ़ जीवन के अनुष्ठान भी इसी में आते हैं। त्यौहार, युद्ध, शिकार, मछुआरों की वृत्ति, पशुपालन आदि के रीति-रिवाज भी इसमें शामिल किए जा सकते हैं। धर्मगाथाएँ, किंवदंतियाँ, लोककथाएँ, लोकगाथाएँ, लोकगीत, कहावतें, लोरियाँ, पहेलियाँ भी इसके अंग हैं। कुछ मिलाकर कह सकते हैं कि लोक की मानसिकता की संपन्नता के तहत जो भी चीजें आ सकती हैं वे सभी इसमें शामिल हैं।<ref>{{cite book|author=Charlotte Sophia Burne|title=The Handbook of Folklore|url=https://ia803407.us.archive.org/9/items/handbookoffolklo00burnuoft/handbookoffolklo00burnuoft.pdf|series=Relics of popular antiquities by The Folklore Society|year=1914|publisher=Sidwick & Jackson Ltd.|location=London|pages=1–5}}</ref>


बर्न ने फ़ोकलोर को व्यावहारिक रूप से स्पष्ट करने के लिए कुछ रोचक प्रसंगों की व्याख्या का सहारा लिया है। इन्हीं प्रसंगों में वे मानती हैं कि फ़ोकलोर के अध्ययनकर्ता को किसान के हल की आकृति अपनी ओर आकर्षित नहीं करती बल्कि वे तरीक़े अथवा अनुष्ठान हैं जिन्हें किसान हल को भूमि जोतने के काम में लेने के समय करता है। जाल अथवा वंशी की बनावट से ज़्यादा वे टोटके महत्वपूर्ण हैं जिन्हें मछुआरा सागर पर करता है। वैसे ही पुल या मकान के निर्माण में नहीं बल्कि उस बलि में रुचि होती है जो उन्हें बनाते समय दी जाती है। फ़ोकलोर वास्तव में आदिम मानव की मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति चाहे दर्शन, धर्म, विज्ञान तथा औषधि-चिकित्सा के क्षेत्र में हुई हो चाहे सामाजिक संगठन और अनुष्ठानों में अथवा इतिहास, काव्य और साहित्य के अपेक्षाकृत बौद्धिक प्रदेश में।
बर्न ने फ़ोकलोर को व्यावहारिक रूप से स्पष्ट करने के लिए कुछ रोचक प्रसंगों की व्याख्या का सहारा लिया है। इन्हीं प्रसंगों में वे मानती हैं कि फ़ोकलोर के अध्ययनकर्ता को किसान के हल की आकृति अपनी ओर आकर्षित नहीं करती बल्कि वे तरीक़े अथवा अनुष्ठान हैं जिन्हें किसान हल को भूमि जोतने के काम में लेने के समय करता है। जाल अथवा वंशी की बनावट से ज़्यादा वे टोटके महत्वपूर्ण हैं जिन्हें मछुआरा सागर पर करता है। वैसे ही पुल या मकान के निर्माण में नहीं बल्कि उस बलि में रुचि होती है जो उन्हें बनाते समय दी जाती है। फ़ोकलोर वास्तव में आदिम मानव की मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति चाहे दर्शन, धर्म, विज्ञान तथा औषधि-चिकित्सा के क्षेत्र में हुई हो चाहे सामाजिक संगठन और अनुष्ठानों में अथवा इतिहास, काव्य और साहित्य के अपेक्षाकृत बौद्धिक प्रदेश में।

०५:४०, ७ दिसम्बर २०२३ का अवतरण

लोक संस्कृति का प्रयोग हिंदी में फ़ोकलोर (Folklore) के समानांतर किया गया है। हालाँकि इसके संदर्भ में कई पदों - 'लोक वार्ता', 'लोकयान' और 'लोक संस्कृति' - का व्यवहार हुआ है किंतु लोक संस्कृति पद सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।[१] फ़ोकलोर के लिए लोक वार्ता पद वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा प्रयुक्त माना जाता है लेकिन कृष्णदेव उपाध्याय इसे एक भ्रम की उपज मानते हैं। उपाध्याय के अनुसार वासुदेवशरण अग्रवाल ने लोक वार्ता का प्रयोग एंथ्रोपोलोजी (Anthropology) के संदर्भ में किया था जिसे भ्रम से फ़ोकलोर का पर्याय समझ लिया गया।[२] लोकयान पद का प्रयोग राहुल सांकृत्यायन द्वारा बौद्ध मत (हीनयान, महायान) के वज़न पर किया गया। लोक साहित्य के अध्ययन के क्रम में फ़ोकलोर और उसके हिंदी पर्याय को समझ लेना आवश्यक है।

फ़ोकलोर (Folklore) या लोक संस्कृति : अवधारणा

इस पद के प्रथम प्रयोक्ता के रूप में विलियम जान टामस का नाम लिया जा सकता है। उन्होंने 'पापुलर एंटीक्विटीज़' के लिए इसका प्रयोग 1846 में किया था। माना जाता है कि टामस ने ही इस शब्द की रचना की और आगे चलकर असंस्कृत मानव-समुदाय के जीवन की नानाविध परंपराओं और उनका अध्ययन करने वाले शास्त्र के अर्थ में सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया गया।[३] फ़ोnकलोर के संबंध में शार्लेट सोफ़िया बर्न की व्याख्या बहुत महत्वपूर्ण है। उनका मानना है कि फ़ोकलोर एक जातिबोधक पद के समान प्रतिष्ठित हो गया है। इसके अंतर्गत सभ्य और उन्नत जातियों के अर्द्धसंस्कृत समुदायों में व्याप्त विश्वास, रीति-रिवाज, गाथा-कथाएँ, गीत तथा कहावतें आदि शामिल की जा सकती हैं। प्रकृति के जड़-चेतन के संबंध में, मानव स्वभाव तथा उसके द्वारा निर्मित वस्तुओं के संबंध में, भूत-प्रेत की दुनिया तथा उसके साथ मानवीय संबंध विषयक जादू, टोना, टोटका, सम्मोहन, वशीकरण, जंतर-ताबीज, नियति, सगुन-असगुन, रोग-व्याधि, जरा-मरण आदि के संबंध में आदिम तथा अतार्किक विश्वास (जो किसी को सभ्यता के मायनों में असभ्यता का लक्षण लग सकता है) इसके दायरे में आते हैं। इसी तरह विवाह, उत्तराधिकार, बाल्यावस्था और प्रौढ़ जीवन के अनुष्ठान भी इसी में आते हैं। त्यौहार, युद्ध, शिकार, मछुआरों की वृत्ति, पशुपालन आदि के रीति-रिवाज भी इसमें शामिल किए जा सकते हैं। धर्मगाथाएँ, किंवदंतियाँ, लोककथाएँ, लोकगाथाएँ, लोकगीत, कहावतें, लोरियाँ, पहेलियाँ भी इसके अंग हैं। कुछ मिलाकर कह सकते हैं कि लोक की मानसिकता की संपन्नता के तहत जो भी चीजें आ सकती हैं वे सभी इसमें शामिल हैं।[४]

बर्न ने फ़ोकलोर को व्यावहारिक रूप से स्पष्ट करने के लिए कुछ रोचक प्रसंगों की व्याख्या का सहारा लिया है। इन्हीं प्रसंगों में वे मानती हैं कि फ़ोकलोर के अध्ययनकर्ता को किसान के हल की आकृति अपनी ओर आकर्षित नहीं करती बल्कि वे तरीक़े अथवा अनुष्ठान हैं जिन्हें किसान हल को भूमि जोतने के काम में लेने के समय करता है। जाल अथवा वंशी की बनावट से ज़्यादा वे टोटके महत्वपूर्ण हैं जिन्हें मछुआरा सागर पर करता है। वैसे ही पुल या मकान के निर्माण में नहीं बल्कि उस बलि में रुचि होती है जो उन्हें बनाते समय दी जाती है। फ़ोकलोर वास्तव में आदिम मानव की मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति चाहे दर्शन, धर्म, विज्ञान तथा औषधि-चिकित्सा के क्षेत्र में हुई हो चाहे सामाजिक संगठन और अनुष्ठानों में अथवा इतिहास, काव्य और साहित्य के अपेक्षाकृत बौद्धिक प्रदेश में।

हिंदी में फ़ोकलोर के लिए लोक संस्कृति का प्रयोग कृष्णदेव उपाध्याय, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी और भोलानाथ तिवारी जैसे अध्येताओं ने किया है। सोफ़िया बर्न की मान्यताओं को स्वीकार करते हुए लोक संस्कृति को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है —

(क) लोक मान्यताएँ (अंधविश्वास, मूढ़ाग्रह आदि)
(ख) रीति-रिवाज (त्योहार, रहन-सहन, खान-पान आदि)
(ग) लोक साहित्य (गीत, कथा, गाथा, नाटक, कहावतें आदि)

उपर्युक्त वर्गीकरण को ध्यान में रखें तो लोक संस्कृति के एक अंग के रूप में लोक साहित्य को रखा जा सकता है।

लोक संस्कृति और लोक साहित्य

लोक साहित्य को लोक संस्कृति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग माना जा सकता है क्योंकि इसमें लोक संस्कृति के सभी अंगों की झलक मिलती है। किसी भी समाज की मान्यताएँ, अंधविश्वास, त्योहार, रीति-रिवाज, गीत, गाथा, क़िस्से-कहानियाँ, कहावतें, मुहावरे आदि का परिचय हमें लोक साहित्य के द्वारा ही मिल सकता है। यही कारण है कि समाज-विज्ञान के शोधकर्ता भी लोक साहित्य के अध्ययन में रुचि लेते हैं। लोक साहित्य के अध्ययन से इतिहास, भूगोल, पुरातत्त्व (Archeology), मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, मानवशास्त्र (Anthropology), धर्मशास्त्र आदि अनेक समाज-विज्ञानों के महत्त्वपूर्ण तथ्य मिल सकते हैं। लोक साहित्य के अध्ययन द्वारा चिकित्साशास्त्र, मौसम-विज्ञान और भाषाविज्ञान के लिए भी आवश्यक सूत्र पाए जा सकते हैं। घाघ-भड्डरी का कहावतों को आज भी मौसम संबंधी जानकारियों के लिए उद्धृत किया जाता है। वनस्पतियों की विशिष्ट जानकारी और समय विशेष में उनके प्रयोग का तरीका आज भी कई समुदायों के पास सुरक्षित है। यदि टोने-टोटके और तंत्र-मंत्र को हटा भी दें तो लोक साहित्य के माध्यम से वनस्पतियों और औषधियों का चिकित्सकीय प्रयोग अपनाया जा सकता है। इसी प्रकार चूंकि लोक साहित्य अधिकतर स्थानीय बोलियों में ही संरक्षित रहता है इसलिए यह बोलीविज्ञान (Dialectology) के अध्ययन का आधार भी बन सकता है।

लोक साहित्य के अध्ययन की प्रक्रिया

  • ऐतिहासिक
  • भौगोलिक
  • मनोवैज्ञानिक
  • आर्थिक
  • भाषावैज्ञानिक
  • समाजशास्त्रीय
  • धार्मिक
  • मानवशास्त्रीय

संदर्भ

  1. सांकृत्यायन, राहुल; उपाध्याय, कृष्णदेव, संपा. (1960). हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास. हिंदी का लोकसाहित्य. 16. काशी: नागरी प्रचारिणी सभा. पृ. 9.
  2. उपाध्याय, कृष्णदेव. लोक-संस्कृति की रूपरेखा (2009 संस्क.). इलाहाबाद: लोकभारती प्रकाशन. पृ. 24. आइएसबीएन 9788180313776.
  3. रवीन्द्र भ्रमर, लोक-साहित्य की भूमिका, साहित्य सदन, कानपुर, प्रथम संस्करण, 1991, पृष्ठ - 11
  4. Charlotte Sophia Burne (1914). The Handbook of Folklore (PDF). Relics of popular antiquities by The Folklore Society. London: Sidwick & Jackson Ltd. पृप. 1–5.