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शासन : चुनौतियाँ और मुद्दे/कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (सीएसआर)

विकिपुस्तक से


सीएसआर का आशय किसी व्यवसाय के ऐसे दायित्व से है जिसका उद्देश्य "समाज कल्याण" सुनिश्चित करना हो। अर्थात, यह अवधारणा संसाधनों के इस प्रकार से आवंटन की मांग करती है कि विकास का लाभ समाज के सभी वर्गों को मिले। दूसरे शब्दों में, निगमित उद्यमों का यह दायित्व है कि वह राज्य द्वारा सुशासन सुनिश्चित करने में अपनी भागीदारी दे। महात्मा गांधी ने औद्योगिक सामाजिक दायित्व की इस अवधारणा को न्यासिता (Trusteeship) का नाम दिया था। भारत में सीएसआर की संस्कृति पहले से मौजूद है । पूरे देश में उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला तथा जमशेदजी टाटा के समय से ही यात्रियों के लिए धर्मशाला, विद्यार्थियों के लिए विद्यालय, महाविद्यालय, पुस्तकालय आदि की स्थापना की जाती रही है।


भारत सरकार द्वारा कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व के निर्वाह हेतु कंपनी अधिनियम, 2013 लाया गया, जो 1 अप्रैल 2014 से प्रभावी हुआ। इसके तहत जिस कंपनी के पास 500 करोड़ या उससे अधिक शुद्ध संपत्ति/ कुल मूल्य हो, अथवा 1000 करोड़ रूपये का कारबार या इससे अधिक है, अथवा किसी भी वित्तीय वर्ष के दौरान पांच करोड़ या उससे अधिक शुद्ध लाभ अर्जित कर गडा हो वैसी कंपनी को अपने तीन वर्ष के औसत लाभ का हर वित्तीय वर्ष में कम-से-कम 2 प्रतिशत सोएसआर पर खर्च करना होगा। इस प्रकार, अब भारत में उक्त कंपनियों द्वारा 2013 अधिनियम के तहत विभिन्न सामाजिक उद्देश्यों के निमित्त सीएसआर पर व्यय किया जाता है।


इस प्रकार, सरकार से शासन तथा सुशासन तक के सफर में मात्र संवृद्धि एवं विकास ही नहीं, बल्कि सतत एवं समावेशी विकास पर बल दिया गया है। इस प्रक्रिया में, सरकार जनोन्मुखी होती है और शासन में सरकार के साथ निगमों और नागरिक समाज की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका तय की गई है। सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह सहभागिता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से विकेंद्रीकरण को बढ़ावा दें। परंतु सरकार यह भी सुनिश्चित करे कि विकेंद्रीकरण महज भ्रष्टाचार का विकेंद्रीकरण न हो। अपितु, जनसहभागिता से भ्रष्टाचार रहित, पारदर्शी एवं सहभागी शासन द्वारा संवृद्धि एवं समावेशी विकास सुनिश्चित किया जा सके। इसके अतिरिक्त, संवृद्धि और विकास के नाम पर अनियंत्रित और अबाध प्राकृतिक एवं भौतिक संसाधनों का दोहन न किया जा रहा हो। सतत विकास सुनिश्चित हो ताकि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्राकृतिक संसाधनों का भंडार छोड़ सकें। यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि औद्योगिक एवं ढांचागत विकास की प्रक्रिया में पर्यावरण के नुकसान की भरपाई की जा सके और लोगों का न्यूनतम विस्थापन हो, जो लोग इस प्रक्रिया में विस्थापित हो रहे हों, उनका पहले पुनर्वास सुनिश्चित किया गया हो तथा लोगों को, विशेषकर जनजातियों को, उनके जल, जंगल और जमीन के अधिकारों से वंचित न किया जाए। कुल मिला कर, जहां नव-उदारीकरण ने राज्यों को सीमित बनाया था, वहीं सुशासन ने निगमों एवं नागरिक समूहों को शासन में सरकार का साझीदार बना दिया है और इस साझे प्रयास में राज्य एवं सरकार के कार्य का दायरा पुनर्परिभाषित हुआ है।