शिक्षा

विकिपुस्तक से

सन् 1976से पूर्व शिक्षा पूर्ण रूप से राज्यों का उत्तरदायित्व था। संविधान द्वारा 1976 में किए गए जिस संशोधन से शिक्षा को समवर्ती सूची में डाला गया, उस के दूरगामी परिणाम हुए। आधारभूत, वित्तीय एवं प्रशासनिक उपायों को राज्यों एवं केंद्र सरकार के बीच नई जिम्मेदारियों को बांटने की आवश्यकता हुई। जहां एक ओर शिक्षा के क्षेत्र में राज्यों की भूमिका एवं उनके उत्तरदायित्व में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ, वहीं केंद्र सरकार ने शिक्षा के राष्ट्रीय एवं एकीकृत स्वरूप को सुदृढ़ करने का गुरूतर भार भी स्वीकारा। इसके अंतर्गत सभी स्तरों पर शिक्षकों की योग्यता एवं स्तर को बनाए रखने एवं देश की शैक्षिक जरूरतों का आकलन एवं रखरखाव शामिल है।

केंद्र सरकार ने अपनी अगुवाई में शैक्षिक नीतियों एवं कार्यक्रम बनाने और उनके क्रियान्वयन पर नजर रखने के कार्य को जारी रखा है। इन नीतियों में सन् 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा-नीति (एनपीई) तथा वह कार्यवाही कार्यक्रम (पीओए) शामिल है, जिसे सन् 1992 में अद्यतन किया गया। संशोधित नीति में एक ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली तैयार करने का प्रावधान है जिसके अंतर्गत शिक्षा में एकरूपता लाने, प्रौढ़शिक्षा कार्यक्रम को जनांदोलन बनाने, सभी को शिक्षा सुलभ कराने, बुनियादी (प्राथमिक) शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखने, बालिका शिक्षा पर विशेष जोर देने, देश के प्रत्येक जिले में नवोदय विद्यालय जैसे आधुनिक विद्यालयों की स्थापना करने, माध्यमिक शिक्षा को व्यवसायपरक बनाने, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में विविध प्रकार की जानकारी देने और अंतर अनुशासनिक अनुसंधान करने, राज्यों में नए मुक्त विश्वविद्यालयों की स्थापना करने, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद को सुदृढ़ करने तथा खेलकूद, शारीरिक शिक्षा, योग को बढ़ावा देने एवं एक सक्षम मूल्यांकन प्रक्रिया अपनाने के प्रयास शामिल हैं। इसके अलावा शिक्षा में अधिकाधिक लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु एक विकेंद्रीकृत प्रबंधन ढांचे का भी सुझाव दिया गया है। इन कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में लगी एजेंसियों के लिए विभिन्न नीतिगत मानकों को तैयार करने हेतु एक विस्तृत रणनीति का भी पीओए में प्रावधान किया गया है।

एनपीई द्वारा निर्धारित राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली एक ऐसे राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचे पर आधारित है, जिसमें अन्य लचीले एवं क्षेत्र विशेष के लिए तैयार घटकों के साथ ही एक समान पाठ्यक्रम रखने का प्रावधान है। जहां एक ओर शिक्षा नीति लोगों के लिए अधिक अवसर उपलब्ध कराए जाने पर जोर देती है, वहीं वह उच्च एवं तकनीकी शिक्षा की वर्तमान प्रणाली को मजबूत बनाने का आuन भी करती है। शिक्षा नीति शिक्षा के क्षेत्र में कुल राष्ट्रीय आय का कम से कम 6 प्रतिशत धन लगाने पर भी जोर देती है।

केंद्रीय शिक्षा परामर्शदाता बोर्ड (सीएबीई) शिक्षा के क्षेत्र में केंद्रीय और राज्य सरकारों को परामर्श देने के लिए गठित सर्वोच्च संस्था है। इसका गठन 1920 में किया गया था और 1923 में व्यय में कमी लाने के लिए इसे भंग कर दिया गया। 1935 में इसे पुन— गठित किया गया और यह बोर्ड 1994 तक अस्तित्व में रहा। इस तथ्य के बावजूद कि विगत में सीएबीई के परामर्श पर महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए हैं और शैक्षिक एवं सांस्कृतिक विषयों पर व्यापक विचार-विमर्श एवं परीक्षण हेतु इसने एक मंच उपलब्ध कराया है,

दुर्भाग्यवश मार्च, 1994 में बोर्ड के बढ़े हुए कार्यकाल की समाप्ति के बाद इसका पुनर्गठन नहीं किया गया। देश में हो रहे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों एवं राष्ट्रीय शिक्षा नीति की समीक्षा की वर्तमान जरूरतों को देखते हुए सीएबीई की भूमिका और भी बढ़ जाती है। अत— यह महत्व का विषय है कि केंद्र और राज्य सरकारें, शिक्षाविद एवं समाज के सभी वर्गों के प्रतिनिधि आपसी विचार-विमर्श बढ़ाएं और शिक्षा के क्षेत्र में निर्णय लेने की ऐसी सहभागी प्रक्रिया (प्रणाली) तैयार करें, जिससे संघीय ढांचे की हमारी नीति को मजबूती मिले। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 (जैसा कि 1992 में संशोधित किया गया) में भी यह प्रावधान है कि शैक्षिक विकास की समीक्षा करने तथा व्यवस्था एवं कार्यक्रमों पर नजर रखने के लिए आवश्यक परिवर्तनों का निर्धारण करने में भी सीएबीई की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। यह मानव संसाधन विकास के विभिन्न क्षेत्रों में आपसी तालमेल एवं परस्पर संपर्क सुनिश्चित करने के लिए तैयार की गई उपयुक्त प्रणाली के माध्यम से अपना कार्य करेगा। तदनुसार ही सरकार ने जुलाई, 2004 में सीएबीई का पुनर्गठन किया और पुनर्गठित सीएबीई की पहली बैठक 10 एवं 11 अगस्त, 2004 को आयोजित की गई। विभिन्न विषयों के विद्वानों के अलावा लोकसभा एवं राज्यसभा के सदस्यगण, केंद्र, राज्य एवं केंद्रशासित प्रदेशों के प्रशासनों के प्रतिनिधि इस बोर्ड के सदस्य होते हैं।

पुनर्गठित सीएबीई की 10 एवं 11 अगस्त, 2004 को हुई बैठक में कुछ ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर विशेष विचार-विमर्श करने की आवश्यकता महसूस की गई। तदनुसार निम्नलिखित विषयों के लिए सीएबीई की सात समितियां बनाई गईं-

निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा विधेयक तथा प्राथमिक शिक्षा से जुड़े अन्य मामले, बालिका शिक्षा तथा एक समान स्कूल प्रणाली, एक समान माध्यमिक शिक्षा, उच्च शिक्षा संस्थानों को स्वायत्तता, स्कूल पाठ्यक्रम में सांस्कृतिक शिक्षा का एकीकरण, सरकार-संचालित प्रणाली के बाहर चल रहे स्कूलों के लिए पाठ्य पुस्तकों एवं समानांतर पाठ्य पुस्तकों के लिए नियामक व्यवस्था तथा उच्च एवं तकनीकी शिक्षा को वित्तीय सहायता देना।

उपर्युक्त हेतु समितियों का गठन सितंबर, 2004 में किया गया। इनसे मिली रिपोर्टों पर 14-15 जुलाई, 2005 को नई दिल्ली में हुई सीएबीई की 53वीं बैठक में विचार-विमर्श किया गया। इन सभी प्राप्त रिपोर्टों से उभरे कार्य-बिंदुओं की पहचान करने तथा उन पर एक निश्चित कार्यावधि में अमल करने के लिए कार्य-योजना तैयार करने के आवश्यक उपाय किए जा रहे हैं। इसके साथ ही सीएबीई की तीन स्थायी समितियां बनाए जाने का निर्णय किया गया है-

(i) नई शिक्षा नीति को लागू कराने की विशेष आवश्यकता सहित बच्चों एवं युवाओं के लिए सन्निहित शिक्षा हेतु स्थायी समिति,

(ii) राष्ट्रीय साक्षरता मिशन को निर्देश देने के लिए साक्षरता और प्रौढ़ शिक्षा पर स्थायी समिति,

(iii) बच्चे की शिक्षा, बाल विकास, पोषण एवं स्वास्थ्य संबंधी विभिन्न योजनाओं को ध्यान में रखते हुए बाल विकास प्रयासों के समन्वयन और एकीकरण मामलों के लिए एक स्थायी समिति।

सीएबीई की 6-7 सितंबर 2005 को हुई बैठक की सिफारिश के आधार पर एनसीईआरटी द्वारा पाठ्य पुस्तकों के पाठ्यक्रम तैयार करने के प्रक्रिया पर नजर रखने के लिए एक निगरानी समिति गठित की गई है। प्रत्यापित और संबद्ध करने वाली संस्थाओं में नेट लाइन के माध्यम से आवेदन स्वीकार कर उस पर कार्यवाही करने और अन्य मामलों में पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से इनकी कार्यप्रणाली में सुधार के लिए कदम उठाए गए हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नए विचारों के समावेश और सुधार प्रक्रिया पर निगरानी के लिए राष्ट्रीय उच्च शिक्षा आयोग के गठन पर विचार-विमर्श शुरू हो गया है।

शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ी विभिन्न परियोजनाओं और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन हेतु भारत एवं विदेशों से प्राप्त होने वाली छोटी से छोटी सहायता (दान) राशि की सुगमता से प्राप्ति के लिए सरकार ने समिति पंजीयन अधिनियम, 1860 के अंतर्गत एक पंजीकृत सोसायटी के तौर पर “भारत सहायता कोष” का गठन किया है। 09 जनवरी, 2003 को “प्रवासी भारतीय दिवस” के अवसर पर आयोजित समारोह में विधिवत प्रारंभ किया गया यह कोष शिक्षा के क्षेत्र से संबंधित सभी गतिविधियों एवं क्रियाकलापों के लिए निजी संगठनों, व्यक्तियों, कारपोरेट (उद्योग) जगत, केंद्र एवं राज्य सरकारों, प्रवासी भारतीयों एवं भारतीय मूल के लोगों से दान/अंशदान तथा सहायता राशि प्राप्त कर सकेगा।

व्यय[सम्पादन]

शिक्षा के लिए और अधिक संसाधन उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता के अनुपालन में पिछले वर्षों के दौरान किए जाने वाले आवंटन में भारी वृद्धि हुई है। शिक्षा के लिए निर्धारित योजना परिव्यय पहली पंचवर्षीय योजना के 151.20 करोड़ रूपये से बढ़कर दसवीं योजना (2002-2007) में 43,825 करोड़ रूपये हो गया। सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) की तुलना में शिक्षा पर किया जाने वाला व्यय वर्ष 1951-52 के 0.64 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2003-04 (बजट अनुमानों के अनुसार) में 3.74 प्रतिशत हो गया। दसवीं पंचवर्षीय योजना के लिए निर्धारित 43,825 करोड़ रूपये का योजना परिव्यय नौवीं पंचवर्षीय योजना के 24,908.38 करोड़ रूपये से 1.76 गुना अधिक है। इसमें से प्राथमिक शिक्षा एवं साक्षरता विभाग को 30,000 करोड़ रूपये एवं माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा विभाग को 13,825 करोड़ रूपये दिए गए हैं। वर्ष 2005-06 के दौरान प्राथमिक शिक्षा एवं साक्षरता विभाग के लिए योजना परिव्यय 12,531.76 करोड़ रूपये तथा माध्यमिक शिक्षा विभाग के लिए योजना परिव्यय 2712.00 करोड़ रूपये रहा। योजनावधि में शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों पर हुआ व्यय तालिका 10.1 में दिया गया है।

प्राथमिक शिक्षा[सम्पादन]

सर्वशिक्षा अभियान (एसएसए)[सम्पादन]

एक राष्ट्रीय योजना के रूप में सर्वशिक्षा अभियान (एसएसए) की योजना देश के सभी जिलों में लागू की जा रही है। एसएसए का उद्देश्य 2010 तक 6 से 14 वर्ष के आयु वर्ग वाले सभी बच्चों को उपयोगी और प्रासंगिक प्राथमिक शिक्षा उपलबध कराना है। एसएसए के लक्ष्य इस प्रकार हैं —

(i) 2005 तक सभी स्कूलों, शिक्षा गारंटी योजना केंद्रों/ब्रिज पाठ्यक्रमों में 6-14 वर्ष के आयु वर्ग के समस्त बच्चे।

(ii) सभी प्रकार के लैंगिक एवं सामाजिक भेदभाव प्राथमिक शिक्षा के स्तर वर्ष 2007 तक तथा 2010 तक बुनियादी शिक्षा स्तर पर समाप्त करना।

(iii) 2010 तक सभी के लिए शिक्षा। जीवन हेतु शिक्षा पर विशेष ध्यान देते हुए संतोषप्रद गुणवत्ता की प्राथमिक शिक्षा पर जोर।

एसएसए कार्यक्रम के अंतर्गत नौवीं योजना में केंद्र और राज्य सरकारों के मध्य 85—15 की सहभागिता प्रबंध के आधार पर सहायता दी गई, 10वीं योजना के दौरान सहभागिता प्रबंध 75—25 है तथा इसके बाद यह 50—50 के आधार पर दी जाएगी। इसमें 8 उत्तर पूर्वी राज्य शामिल नहीं हैं जिनकी 15 प्रतिशत सहायता राशि दो वर्षों (2005-06 और 2006-07) के लिए डीओएनईआर मंत्रालय मुहैया कराएगा।

यह कार्यक्रम पूरे देश में लागू किया जाएगा तथा इसमें बालिकाओं, अनुसूचित जाति/जनजाति के छात्रों तथा कठिन परिस्थितियों में रह रहे छात्रों की शैक्षिक आवश्यकताओं पर विशेष ध्यान दिया जाएगा।

इस कार्यक्रम के अंतर्गत जिन आबादी क्षेत्रों में अभी तक स्कूल नहीं हैं, वहां नए स्कूल खोलना तथा अतिरिक्त कक्षाओं हेतु नए कमरे, शौचालय, पेयजल, रखरखाव एवं स्कूल सुधार अनुदान के माध्यम से नए स्कूल खोलना और उनमें सुधार लाना शामिल है। सर्वशिक्षा अभियान की शुरूआत से दिसंबर 2006 तक लगभग 1.81 लाख नए विद्यालय खोले जा चुके हैं। 1,49,683 लाख नई विद्यालय इमारतें तथा 6,50,442 लाख अतिरिक्त कमरे या तो पूरे हो चुके हैं या पूरे होने वाले हैं और 31.3.2007 तक एसएसए के अंतर्गत 8.14 लाख नए शिक्षक नियुक्त किए जा चुके हैं। सरकार ने एसएसए के लिए ग्यारहवीं योजना में 576.45 करोड़ रूपये मुहैया कराए थे।

सर्वशिक्षा अभियान के तहत स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या में भारी कमी लाने में सफलता प्राप्त हुई है। 2001-02 में स्कूल छोड़ने वाले 3.20 करोड़ बच्चों के मुकाबले मार्च, 2007 में यह संख्या लगभग 70 लाख रही। इसी अवधि के दौरान प्राथमिक स्तर पर लड़कियों के नामांकन में 19.2 प्रतिशत की तथा उच्च प्राथमिक स्तर पर 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। वर्तमान में 67 लाख बच्चे उन वैकल्पिक स्कूलों में नामांकित हैं जो छोटे और दूर-दराज की रिहायशों में खोले गए हैं और कामकाजी बच्चों, परिवारों के साथ दूसरी जगहों से आए बच्चे और शहरी वंचित बच्चों को शिक्षा मुहैया कराते हैं। एसएसए में बालिकाओं एवं समाज के कमजोर वर्गों के बच्चों पर विशेष ध्यान देने का प्रावधान है। इसके तहत ऐसे बच्चों के लिए नि—शुल्क पाठ्य पुस्तकों की व्यवस्था सहित कई अन्य कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। शिक्षा के अंतर को समाप्त करने के लिए एसएसए के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों तक में कंप्यूटर शिक्षा दिलाने का भी प्रावधान है।

शिक्षा गारंटी योजना तथा वैकल्पिक एवं अनूठी शिक्षा[सम्पादन]

शिक्षा गारंटी योजना तथा वैकल्पिक एवं अनूठी शिक्षा (ईजीएस तथा एआईई) स्कूल नहीं जा रहे बच्चों को बुनियादी शिक्षा कार्यक्रम के तहत लाने का सर्वशिक्षा अभियान (एसएसए) का एक महत्वपूर्ण घटक है। इस योजना में स्कूली शिक्षा से अभी तक छूट गए प्रत्येक बच्चे के लिए अलग से योजना बनाने का प्रावधान है।

ईजीएस में ऐसे दुर्गम आबादी-क्षेत्रों पर ध्यान दिया जाता है, जहां एक किलोमीटर के घेरे में कोई औपचारिक स्कूल नहीं हो और स्कूल नहीं जाने वाले 6-14 वर्ष के आयु वर्ग के कम से कम 15-25 बच्चे वहां मौजूद हों। पर्वतीय क्षेत्रों के दुर्गम क्षेत्रों जैसे अपवादों में 10 बच्चों पर भी एक ईजीएस स्कूल खोला जा सकता है।

वैकल्पिक शिक्षा की शुरूआत समाज के वंचित वर्ग के बच्चों-बाल श्रमिक, सड़कों पर जीवनयापन करने वाले बच्चे, प्रवासी बच्चे, कठिन परिस्थिति में रहने वाले बच्चे और 9 वर्ष से अधिक आयु के बच्चों के लिए बनाई गई है। ईजीएस और एआईई में देश-भर में किशोरावस्था की बालिकाओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

उन आबादी क्षेत्रों (रिहायशी क्षेत्रों) में जहां स्कूल तो हैं, किंतु या तो उनमें बच्चों ने प्रवेश ही नहीं लिया या भर्ती होने के बाद बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी, ऐसे बच्चे संभवतया पारंपरिक स्कूली प्रणाली से सामंजस्य नहीं बिठा पाते। ऐसे बच्चों को स्कूल में वापस लाने हेतु स्कूल वापसी शिविरों का आयोजन और सेतु (ब्रिज) पाठ्यक्रम की नीतियां लागू की गई हैं। सेतु पाठ्यक्रम और स्कूल वापसी शिविर बच्चों की जरूरतों के अनुसार आवासीय और गैर आवासीय हो सकते हैं।

मध्याह्न भोजन योजना[सम्पादन]

पृष्ठभूमि

नामांकन बढ़ाने, उन्हें बनाए रखने और उपस्थिति के साथ-साथ बच्चों के बीच पोषण स्तर सुधारने के दृष्टिकोण के साथ प्राथमिक शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पोषण सहयोग कार्यक्रम 15 अगस्त, 1995 से शुरू किया गया। केंद्र द्वारा प्रायोजित इस योजना को पहले देश के 2408 ब्लॉकों में शुरू किया गया। वर्ष 1997-98 के अंत तक एनपी-एनएसपीई कोदेश के सभी ब्लॉकों में लागू कर दिया गया। 2002 में इसे बढ़ाकर न केवल सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त और स्थानीय निकायों के स्कूलों के कक्षा एक से पांच तक के बच्चों तक किया गया बल्कि ईजीएस और एआईई केंद्रों में पढ़ रहे बच्चों को भी इसके अंतर्गत शामिल कर लिया गया। इस योजना के अंतर्गत शामिल है — प्रत्येक स्कूल दिवस प्रति बालक 100 ग्राम खाद्यान्न तथा खाद्यान्न सामग्री को लाने-ले जाने के लिए प्रति कुंतल 50 रूपये की अनुदान सहायता सितंबर 2004 में, इस योजना में संशोधन कर सरकारी, सहायता प्राप्त स्कूलों और ईजीएस/एआईई केंद्रों में पढ़ाई कर रहे कक्षा एक से पांच तक के सभी बच्चों को 300 कैलोरी और 8-10 ग्राम प्रोटीन वाला पका हुआ मध्याह्न भोजन प्रदान करने की व्यवस्था की गई। नि—शुल्क अनाज देने के अतिरिक्त इस संशोधित योजना के तहत दी जाने वाली केंद्रीय सहायता इस प्रकार है —

(क) प्रति स्कूल दिवस प्रति बालक एक रूपया भोजन पकाने की लागत, (ख) विशेष वर्गीकृत राज्यों के लिए परिवहन अनुदान पहले के 50 रूपये प्रति कुंतल से बढ़ाकर 100 रूपये प्रतिकुंतल तक किया गया, (ग) अनाज, परिवहन अनुदान और रसोई सहायता को दो प्रतिशत की दर से प्रबंधन, निगरानी और मूल्यांकन लागत सहायता, (घ) सूखा प्रभावित क्षेत्रों में गर्मियों की छुट्टी के दौरान मध्याह्न भोजन उपलब्ध कराने का प्रावधान। जुलाई, 2006 में रसोई लागत में सहायता देने के लिए फिर इस योजना में संशोधन किया गया जो इस प्रकार है —

(क) उत्तर पूर्व क्षेत्र के राज्यों के लिए प्रति बालक/स्कूल दिवस की दर से, एनईआर राज्यों का योगदान 1.80 रूपये प्रति बालक/स्कूल दिवस, और (ख) अन्य राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों के लिए 1.50 रूपये प्रति बालक/स्कूल दिवस तथा बाकी .50 रूपये प्रति बालक/स्कूल दिवस। ये राज्य और केंद्रशासित प्रदेश मुहैया कराएंगे।

उद्देश्य[सम्पादन]

मध्याह्न भोजन योजना के उद्देश्य हैं —

(i) सरकारी, स्थानीय निकाय तथा सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों, और ईजीएस तथा एआईई केंद्रों में कक्षा एक से पांचवीं तक पढ़ने वाले बच्चों की पोषण स्थिति में सुधार।

(ii) सुविधाहीन वर्ग के गरीब बच्चों को कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा कक्षाओं की गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रोत्साहित करना।

(iii) गर्मियों की छुट्टियों के दौरान सूखा प्रभावित क्षेत्रों में प्राथमिक स्तर के बच्चों को पोषण सहायता उपलब्ध कराना।

कार्यक्रम मध्यस्थता और कवरेज[सम्पादन]

उपर्युक्त उद्देश्यों को हासिल करने के लिए सारणी के कॉलम 3 में दर्शाई गई मात्रा में पोषक तत्वों से भरपूर पका हुआ मध्याह्न भोजन कक्षा एक से पांच तक पढ़ने वाले सभी बच्चों को उपलब्ध कराया जाएगा—

पोषण सामग्री एनपी-एनएसपीई, 2004 एन पी- एनएसपीई, 2006 के के मुताबिक नियम संशोधित नियम

कैलोरी 300 450 प्रोटीन 8-12 12 सूक्ष्म आहार निर्धारित नहीं आयरन, फोलिक एसिड, विटामिन-ए इत्यादि सूक्ष्म आहारों की पर्याप्त मात्रा

संशोधित योजना के भाग[सम्पादन]

संशोधित योजना निम्नलिखित भागों को मुहैया कराती है —

(i) नजदीकी एफसीआई गोदाम से प्रति स्कूल प्रति बालक 100 ग्राम खाद्यान (गेहूं/चावल) की निशुल्क आपूर्ति;

(ii) एफसीआई गोदाम से स्कूल तक खाद्यान्न ले जाने के लिए हुए वास्तविक परिवहन व्यय की प्रतिपूर्ति जो अधिकतम इस प्रकार है— (क) 11 विशेष श्रेणी के राज्यों के लिए 100 रूपये प्रति कुंतल। ये राज्य हैं — अरूणाचल प्रदेश, असम, मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, नागालैंड, त्रिपुरा, सिक्किम, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड और (ख) अन्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए 75 रूपये प्रति कुंतल।

(iii) रसोई लागत के लिए निम्नलिखित दर से सहायता का प्रावधान —-

(क) उत्तरपूर्वी राज्यों — प्रति स्कूल प्रति बालक 1.80 रूपये की दर से राज्य के लिए की सहायता 20 पैसे प्रति बालक।

(ख) अन्य राज्यों और — प्रति बालक प्रति स्कूल 1.50 रूपये की सहायता, राज्य/ केंद्र शासित प्रदेशों केंद्र शासित प्रदेशों का योगदान 50 पैसे प्रति बालक। के लिए

उपर्युक्त बढ़ी हुई केंद्रीय सहायता पात्रता के लिए राज्य सरकारों/केंद्रशासित प्रशासनों को न्यूनतम सहायता उपलब्ध कराना आवश्यक है।

(iv) राज्य सरकारों द्वारा घोषित सूखा प्रभावित क्षेत्रों में गर्मियों की छुट्टियों में पका हुआ भोजन उपलब्ध कराने के लिए सहायता का प्रावधान।

(v) चरणबद्ध तरीके से रसोई-सह-भंडार निर्माण के लिए प्रति इकाई 60 हजार रूपये तक सहायता का प्रावधान। हालांकि अगले 2-3 वर्षों में सभी स्कूलों के लिए रसोई-सह-भंडार के निर्माण के लिए एमडीएमएस के अंतर्गत आवंटन पर्याप्त नहीं लगता। अत— इस उद्देश्य के लिए अन्य विकास कार्यों के साथ राज्य सरकारों से सकारात्मक सहयोग की अपेक्षा है। (कृपया पैरा 2.5 भी देखें)

(vi) 5000 रूपये प्रति स्कूल की सामान्य लागत पर भोजन सामग्री तथा रसोई उपकरण बदलने के लिए चरणबद्ध तरीके से सहायता का प्रावधान। स्कूलों की वास्तविक आवश्यकताओं (राज्य/कें.शा.प्र. के लिए कुल सामान्य सहायता प्रति स्कूल 5000 रूपये ही रहेगी) के आधार पर नीचे दी गई वस्तुओं पर खर्च में लचीलापन राज्य/कें.शा.प्र. रख सकते हैं।

(क) खाना पकाने के उपकरण (स्टोव, चूल्हा इत्यादि)

(ख) खाद्यान्न तथा अन्य सामग्री के भंडारण के लिए कंटेनर

(ग) खाना पकाने और खिलाने के लिए बर्तन

(vii) (क) मुफ्त खाद्यान्न, (ख) परिवहन लागत और (ग) खाना बनाने की लागत पर कुल सहायता का 1.8 प्रतिशत की दर से प्रबंधन, निगरानी और मूल्यांकन (एमएमई) के लिए राज्यों/कें.शा.प्र. को सहायता का प्रावधान। उपर्युक्त राशि का अन्य 0.2 प्रतिशत प्रबंधन, निगरानी और मूल्यांकन के लिए केंद्र सरकार द्वारा उपयोग में लाया जाएगा।

निगरानी पद्धति[सम्पादन]

मानव संसाधन विकास मंत्रालय के प्राथमिक शिक्षा और साक्षरता विभाग ने मध्याह्न भोजन योजना की निगरानी और निरीक्षण के लिए एक विस्तृत पद्धति निर्धारित की है। इसमें शामिल है—

स्थानीय स्तर पर निगरानी व्यवस्था

ग्राम पंचायत ग्राम सभा प्रतिनिधि वीईसी, पीटीए, एस डी एमसी के साथ-साथ मदर्स समिति के सदस्य भी प्रतिनिधि के हिसाब से निगरानी व्यवस्था इस प्रकार देख सकेंगे। (i) बच्चों को परोसे जाने वाले मध्याह्न भोजन की निरंतरता और समग्रता (ii) मध्याह्न भोजन को पकाने और परोसने में स्वच्छता (iii) अच्छी गुणवत्ता वाले सामान तथा ईंधन की समय पर खरीद (i1) विविध मेन्यु (प्रकार) के खाने की उपलब्धता (1) सामाजिक और लैंगिक समानता।

सूचना का अधिकार अधिनियम के अंतर्गत सूचना का प्रदर्शन

पारदर्शिता और जवाबदेही को सुनिश्चित करने के लिए उन सभी स्कूलों और केंद्रों से, जहां यह कार्यक्रम लागू किया जा रहा है स्व विवेक के आधार पर सूचना प्रदर्शन के लिए कहा जाता है। इस सूचना में सम्मिलित है —

(i) प्राप्त खाद्यान्न की मात्रा, प्राप्ति की तारीख

(ii) उपयोग किए खाद्यान्न की मात्रा

(iii) अन्य खरीदे गए, उपयोग में लाए गए अंश

(iv) मध्याह्न भोजन पाने वाले बच्चों की संख्या

(v) दैनिक मेन्यु

(vi) कार्यक्रम में शामिल सामुदायिक सदस्यों का रोस्टर

राज्य सरकार के अधिकारियों द्वारा निरीक्षण

राजस्व विभाग, ग्रामीण विकास, शिक्षा और महिला और बाल विकास, खाद्य, स्वास्थ्य जैसे अन्य संबंधित क्षेत्रों के राज्य/केंद्रशासित प्रदेशों के अधिकारियों से जिन स्कूलों में कार्यक्रम लागू किया जा रहा है वहां निरीक्षण के लिए कहा जाता है। प्रत्येक तिमाही में 25 प्रतिशत प्राथमिक स्कूलों/ईजीएस और एआईई केंद्रों के निरीक्षण की सिफारिश की गई है।

भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) की जिम्मेदारी

एफसीआई के डिपो में पर्याप्त खाद्यान्न निरंतर उपलब्ध रहे इसकी जिम्मेदारी एफसीआई की है (उत्तरपूर्वी राज्यों के मामले में खाद्यान्न मुख्य वितरण केंद्रों पर उपलब्ध रहना चाहिए)। यहां किसी महीने/तिमाही के लिए एक महीने पहले ही खाद्यान्न उठाने की अनुमति है ताकि खाद्यान्नों की आपूर्ति निर्बाध बनी रहे।

एनपी-एनएसपीई, 2006 के लिए, एफसीआई को उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ गुणवत्ता के खाद्यान्न जारी करने का आदेश है जो किसी भी हालत में कम से कम फेयर एवरेज क्वालिटी (एफएक्यू) का होगा। एमडीएम कार्यक्रम के अंतर्गत खाद्यान्नों की आपूर्ति में आने वाली विभिन्न परेशानियों से निपटने के लिए एफसीआई प्रत्येक राज्य में एक नोडल अधिकारी नियुक्त करता है। जिलाअधिकारी/जिला पंचायत प्रमुख सुनिश्चित करते हैं कि खाद्यान्न कम से कम एफएक्यू का है तथा एफसीआई और जिलाधिकारी तथा/या जिला पंचायत प्रमुख द्वारा नामित व्यक्तियों की संयुक्त टीम के निरीक्षण के बाद ही जारी किया जाता है।

आवधिक रिटर्न

भारत सरकार के स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग द्वारा राज्य सरकार/कें.शा.प्र. को (i) बच्चों और संस्थानों के कवरेज, (ii) खाना पकाने की लागत, परिवहन, किचन शैड का निर्माण और किचन के सामानों की प्राप्ति पर आवधिक सूचना दाखिल करने के लिए कहा जाता है। सामाजिक विज्ञान शोध संस्थानों द्वारा निगरानी सर्वशिक्षा अभियान की निगरानी के लिए चिह्नित 41 सामाजिक विज्ञान शोध संस्थानों को मध्याह्न भोजन योजना की निगरानी का काम भी सौंपा गया है।

शिकायत निवारण

राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को कहा गया है कि जन शिकायतों के निवारण के लिए एक समुचित पद्धति विकसित करें जिसका बड़े पैमाने पर प्रचार होना चाहिए और आसान पहुंच में हो।

उच्च प्राथमिक स्तर तक विस्तार

केंद्रीय बजट 2007-08 में वित्त मंत्री ने घोषणा की है कि मध्याह्न भोजन योजना 2007-08 में 3427 शैक्षिक रूप से पिछड़े ब्लॉकों (ईबीबी) में उच्च प्राथमिक कक्षाओं के बच्चों को कवर करने के लिए बढ़ाई जाएगी। इसके लिए 7324 करोड़ रूपये का बजट प्रावधान रखा गया है जो 2006-07 के बजट के मुकाबले 37 प्रतिशत अधिक है।

जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (डीपीईपी)[सम्पादन]

केंद्र द्वारा प्रायोजित जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (डीपीईपी) 1994 में शुरू किया गया था। इसका उद्देश्य प्राथमिक शिक्षा प्रणाली में फिर से जान फूंकना और प्राथमिक शिक्षा के सावर्गीकरण का लक्ष्य पूरा करना था।

कार्यक्रम मानदंडों के अनुसार 5-7 वर्ष की अवधि के लिए प्रति जिला निवेश सीमा 40 करोड़ रूपये हैं। इसमें निर्माण कार्यों पर 33.3 प्रतिशत और प्रबंधन मद में व्यय सीमा 06 प्रतिशत है। शेष राशि गुणवत्ता सुधार कार्यक्रमों के लिए है।

डीपीईपी बाहरी सहायता से चलने वाला कार्यकम है। परियोजना व्यय का 85 प्रतिशत केंद्र सरकार द्वारा एवं शेष 15 प्रतिशत संबंधित राज्य सरकारों द्वारा वहन किया जाता है। केंद्र सरकार का हिस्सा विदेशों से प्राप्त सहायता के माध्यम से आता है। वर्तमान में विदेशी सहायता लगभग 6938 करोड़ रूपये हैं, जिसमें से 5137 करोड़ रूपये अंतर्राष्ट्रीय विकास एजेंसी (आईडीए) से ऋण रूप में तथा शेष 1801 करोड़ रूपये अनुदान के रूप में है।

इस समय डीपीईपी नौ राज्यों के 123 जिलों में चल रहा है। अपने सर्वोच्च स्तर पर डीपीईपी किसी समय 18 राज्यों के 273 जिलों में चल रहा था। धीरे-धीरे इसमें कमी आने के साथ ही अब यह मात्र 123 जिलों में लागू है।

डीपीईपी की प्रमुख उपलब्धियां[सम्पादन]

(i) डीपीईपी ने अभी तक 1,60,000 से अधिक स्कूल खोले हैं, जिसमें लगभग 84,000 वैकल्पिक शिक्षण केंद्र (एएस) हैं। इन वैकल्पिक शिक्षण केंद्रों में 35 लाख बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, जबकि अन्य दो लाख बच्चे विभिन्न प्रकार के सेतु (ब्रिज) पाठ्यक्रमों का लाभ उठा रहे हैं। (ii) डीपीईपी के अंतर्गत तैयार किया गया स्कूली ढांचा उल्लेखनीय है। 52,758 स्कूली भवनों; 58,604 अतिरिक्त कक्षाओं; 16,619 संसाधन केंद्रों; 29,307 मरम्मत कार्यों; 64,592 शौचालयों और 24,909 पेयजल सुविधाओं के निर्माण का कार्य या तो पूरा हो चुका है या प्रगति पर है। (iii) पिछले तीन वर्षों के दौरान चरण-I के राज्यों में सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) 93 से 95 प्रतिशत रहा है। वैकल्पिक स्कूलों/शिक्षा गारंटी केंद्रों में दाखिले का समायोजन करने के बाद वर्ष 2001-02 में जीईआर 100 प्रतिशत से भी अधिक आता है। जो जिले डीपीईपी के अंतर्गत आते हैं और जहां डीपीईपी अलग-अलग चरणों में लागू है, वहां वैकल्पिक स्कूलों/शिक्षा गारंटी स्कूलों (एएस/ईजीएस) सहित सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) 85 प्रतिशत से अधिक है। (i1) बालिकाओं के नामांकन (दाखिले) में अच्छा खासा सुधार हुआ है। डीपीईपी चरण-I के जिलों में हुए कुल नामांकनों की तुलना में बालिकाओं के नामांकन में 48 से 49 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि डीपीईपी जिलों में विभिन्न चरणों में यह वृद्धि 46 से 47 प्रतिशत है। (1) वर्तमान में नामांकन किए हुए कुल विभिन्न प्रकार के सक्षम बच्चों की कुल संख्या 4,20,203 है, जो डीपीईपी राज्यों में विभिन्न प्रकार के सक्षम बच्चों की कुल संख्या 5,53,844 का लगभग 76 प्रतिशत है। (1i) सभी परियोजना गांवों/रिहाइशी इलाकों/स्कूलों में ग्राम शिक्षा समितियों/स्कूल प्रबंधन समितियों का गठन किया गया है। (1ii) अंशकालिक शिक्षकों, शिक्षाकर्मियों सहित लगभग 1,77,000 अध्यापकों की नियुक्ति की गई है। (1iii) शिक्षा संबंधी सहायता और शिक्षण प्रशिक्षण सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए प्रखंड (ब्लॉक) स्तर पर 3380 संसाधन केंद्र और समूह स्तर पर 29,725 केंद्रों की स्थापना की गई है।

महिला समाख्या योजना[सम्पादन]

महिला समाख्या योजना ग्रामीण क्षेत्रों खासकर सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछडेΠ समूहों की महिलाओं की शिक्षा तथा उनके सशक्तिकरण के लिए 1989 में शुरू की गई। एनपीई, 1986 के उद्देश्यों के अनुरूप लक्ष्य हासिल करने के लिए एक ठोस कार्यक्रम के रूप में इसकी शुरूआत हुई। समानता हासिल करने में महिलाओं को शिक्षित बनाने में एमएस योजना को पहचाना जाता है। महिला संघ गांव स्तर पर महिलाओं को मिलने, सवाल करने और अपने विचार रखने तथा अपनी आवश्यकताओं को व्यक्त करने के अलावा अपनी इच्छाओं को जाहिर करने का स्थान मुहैया कराते हैं। महिला संघों ने ग्रामीण महिलाओं के दृष्टिकोण में विभिन्न कार्यक्रमों और जागरूकता अभियानों के माध्यम से बदलाव ला दिया है जिसका प्रभाव अब घर, परिवार में, सामुदायिक तथा ब्लॉक और पंचायत स्तर पर देखा जा सकता है। कार्यक्रम में बच्चों खासकर लड़कियों की शिक्षा की आवश्यकता पर जागरूकता पैदा करने पर भी केंद्रित होता है। ताकि लड़कियों को भी बराबर का दर्जा और अवसर मिल सके। इसके परिणाम स्कूलों में लड़कियों के नामांकन में वृद्धि और स्कूल न छोड़ने के रूप में सामने आए हैं।

महिला समाख्या योजना वर्तमान में नौ राज्यों के 83 जिलों में 21,000 गांवों में चलाई जा रही है। ये नौ राज्य हैं — आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, झारखंड, कर्नाटक, केरल, गुजरात, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड। वित्त वर्ष 2007-08 से इस योजना को दो और राज्यों मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बढ़ाया गया है। वित्त वर्ष 2007-08 में इस योजना के लिए 34 करोड़ का बजटीय प्रावधान रखा गया।

अध्यापक शिक्षा योजना[सम्पादन]

केंद्र द्वारा प्रायोजित अध्यापक शिक्षा योजना निम्नलिखित उद्देश्यों के साथ 1987-88 में शुरू की गई थी —

(1) जहां संभव हो मौजूदा प्रारंभिक अध्यापक शिक्षण संस्थानों (ईटीईआई) का स्तर बढ़ाकर और जहां आवश्यक हो नए डीआईईटी की स्थापना कर जिला शिक्षण और प्रशिक्षण संस्थान (डीआईईटी) की स्थापना।

(2) चयनित द्वितीयक अध्यापक शिक्षण संस्थानों (एसटीईआई) का में स्तर बढ़ाना—

(क) अध्यापक शिक्षा कालेज (सीटीई) और
(ख) शिक्षा में उच्च अध्ययन के संस्थान, और

(3) राज्य शैक्षिक शोध और प्रशिक्षण परिषद (एससीईआरटी) को मजबूती प्रदान करना।

योजना 2003 में संशोधित की गई और जनवरी 2004 में संशोधित दिशा-निर्देश जारी किए गए। अध्यापक शिक्षा योजना के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार हैं —

(1) डीआईईटी/सीटीई/आईएएसई/एससीईआरटी की उन परियोजनाओं को तेजी से पूरा करना जो नौवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान मंजूर की गई थीं लेकिन समय से पूरी नहीं हो सकीं।

(2) नौवीं पंचवर्षीय योजना अवधि तक के डीआईईटी, सीटीई/आईएएसई को स्वीकृति प्रदान करना और एससीईआरटी को सुदृढ़ बनाना तथा उन्हें संचालन योग्य बनाना।

(3) आवश्यकतानुसार डीआईईटी/सीटीई/आईएएसई/एससीईआरटी की नई परियोजनाओं को मंजूरी देना और उन्हें लागू करना।

(4) डीआईईटी के सेवाकालीन और सेवा पूर्ण प्रशिक्षण जैसे कार्यक्रमों की गुणवत्ता में सुधार करना ताकि वे अपने-अपने निर्धारित कार्यक्षेत्र में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने में केंद्रीय भूमिका निभा सकें और अपेक्षित स्तर की उपलब्धि हासिल कर सकें।

डीआईईटी/जिला संसाधान केंद्र (डीआरसी) स्थापित करने के मानदंड[सम्पादन]

1. कम से कम 2500 अध्यापकों वाले प्रत्येक जिले के लिए एक डीआईईटी, यदि जिले में पहले से सरकारी ईटीईआई है तो इसे डीआईईटी ग्रेड तक बढ़ाया जाएगा। यदि कोई ईटीईआई मौजूदा नहीं तो जिले में नया डीआइईटी स्थापित किया जाएगा।

2. 2500 अध्यापकों वाले जिलों में जिला संसाधन केंद्रों की स्थापना यदि जिले में सरकारी ईटीईआई मौजूद है तो इसे डीआरसी स्तर तक बढ़ाया जाएगा अन्यथा नया डीआरसी स्थापित किया जाएगा। ऐसे मामले में ये केंद्र पूर्व-सेवा पाठ्यक्रम संचालित नहीं करेगा।

3. यदि किसी जिले में 2500 से अधिक अध्यापक हैं तो राज्य सरकार डीआईईटी की अपेक्षा डीआरसी स्थापित करने को प्राथमिकता देगी।

अध्यापक शिक्षा के लिए 11वीं योजना के प्रस्तावों के लिए एनसीईआरटी के निदेशक की अध्यक्षता में एक उप-समूह गठित किया गया था। उप-समूह की सिफारिशों के आधार पर, योजना के वर्तमान प्रावधानों को सुदृढ़ करने के अतिरिक्त 11वीं योजना के दौरान कुछ नई योजनाओं को शामिल करने का प्रस्ताव है।

1. अनु.जा./ज.जा. तथा अल्पसंख्यक क्षेत्रों (ब्लॉक अध्यापक शिक्षण संस्थान) में अध्यापक शिक्षण क्षमता बढ़ाना।

2. सेवारत प्राथमिक और द्वितीयक अध्यापकों का व्यावसायिक विकास

(क) अप्रशिक्षित तथा सहा. अध्यापकों को प्रशिक्षण—
(ख) अध्यापनरत अध्यापकों को प्रशिक्षण और विषय की जानकारी को अद्यतन करना।

3. अध्यपक शिक्षकों का व्यावसायिक विकास

(क) रिफ्रेशर पाठ्यक्रम
(ख) फेलोशिप कार्यक्रम

4. एनजीओ को सहयोग

5. उत्तरपूर्व के लिए विशेष कार्यक्रम

6. अध्यापक शिक्षा में प्रौद्योगिकी

7. उच्च शिक्षा के साथ एकीकृत प्राथमिक अध्यापक शिक्षा

चालू वित्त वर्ष अर्थात 2007-08 के दौरान अध्यापक शिक्षा योजना के लिए 500 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है। इनमें से 50 करोड़ रूपये उत्तर पूर्व क्षेत्र के लिए निर्धारित किए गए हैं।

राष्ट्रीय बाल भवन[सम्पादन]

राष्ट्रीय बाल भवन, मानव संसाधन और विकास मंत्रालय द्वारा पूर्ण रूप से वित्त पोषित एक स्वायत्तशासी संस्था है जो स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग के तहत कार्य करती है। 1956 में इसके गठन से ही बाल भवन ने देशभर में उत्तरोत्तर प्रगति की है। वर्तमान में राष्ट्रीय बाल भवन से संबद्ध 68 राज्य बाल भवन तथा 10 बाल केंद्र हैं। संबद्ध बाल भवनों और बाल केंद्रों के माध्यम से बाल भवन की स्कूल छोड़ने वाले बच्चे, सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के बच्चे, गलियों के बच्चे तथा विशेष बच्चों तक पहुंच है। दिल्ली के कई स्कूलों ने राष्ट्रीय बाल भवन की सदस्यता ली है और औपचारिक तथा अनौपचारिक संस्थानों के इस साझा प्रयासों से ही बच्चों की रचनात्मक अभिवृद्धि में बड़ी सफलता प्राप्त हुई है।

राष्ट्रीय बाल भवन बच्चों को उनके लिंग, जाति, धर्म, रंग आदि भेदभाव के बिना तनावमुक्त वातावरण में विभिन्न गतिविधियों में शामिल कर उनके समग्र विकास के लिए कार्यरत है। इनमें कुछ प्रमुख गतिविधियां हैं— क्ले मॉडलिंग, पेपर मैची, संगीत, नृत्य, नाटक, पेंटिंग, क्राफ्ट, म्यूजियम गतिविधि,

फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी, इंडोर-आउटडोर खेल, गृह प्रबंधन, पारंपरिक कला तथा क्राफ्ट, शैक्षिक और इन्नोवेटिव खेल/चेस, विज्ञान रोचक है इत्यादि। राष्ट्रीय बाल भवन के कुछ विशेष आकर्षण हैं— मिनी ट्रेन, मिनीज़ू, फिश कॉर्नर, साइंस पार्क, फनी मिरर, कल्चर क्राफ्ट विलेज। राष्ट्रीय बाल भवन में राष्ट्रीय प्रशिक्षण संसाधन केंद्र (एनटीआरसी) है जो विभिन्न गतिविधियों में अध्यापकों को प्रशिक्षित करता है। इस केंद्र का मुख्य उद्देश्य और ध्यान बच्चों के सर्वांगीण विकास और व्यक्तित्व विकास में अध्यापकों को प्रशिक्षित करना है क्योंकि अध्यापक समुदाय बच्चों की सामाजिक आर्थिक, भावुक, बौद्धिक और मनोवैज्ञानिक जरूरतों को समझने में कुशल होते हैं। एनटीआरसी का उद्देश्य अध्यापकों और छात्रों दोनों के लिए अध्यापन और सीखने को एक सुखद अनुभव बनाना भी है।

राष्ट्रीय बाल भवन ने उन रचनाशील बच्चों को उनके सामाजिक-आर्थिक स्तर में भेद किए बिना पहचान, सम्मान और देखभाल के लिए एक योजना भी शुरू की है। “द बालश्री स्कीम” योजना के पीछे मकसद यही है कि रचनात्मकता मानवीय संभावना है जिसका सीधा संबंध स्व-अभिव्यक्ति और स्वविक ास से होता है। इस योजना के तहत चार रचनात्मक क्षेत्रों अर्थात सृजनात्मक कला, सृजनात्मक प्रदर्शन, सृजनात्मक वैज्ञानिक खोज, सृजनात्मक लेखन में 9-16 वर्ष के आयु वर्ग की रचनात्मकता वाले बच्चों की पहचान करना है। यह योजना 1995 से चालू है और तब से बच्चों को उनके रचनात्मक क्षेत्रों में उत्कृष्टता के लिए पहचान कर उन्हें सम्मानित किया जा चुका है। ये सम्मान उनको या तो राष्ट्रपति या उनकी पत्नी से राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक रंगारंग कार्यक्रम में दिए गए हैं।

इसके अतिरिक्त, राष्ट्रीय बाल भवन कुछ स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम जैसे- कार्यशालाएं, ट्रेकिंग कार्यक्रम, टाक शो, केंप, आयोजित करता है। इसके अलावा पृथ्वी दिवस, पर्यावरण- दिवस इत्यादि भी मनाता है। अंतर्राष्ट्रीय बाल सभा, युवा पर्यावरणविद सम्मेलन, सभी के लिए शिक्षा तथा अध्यक्षों और निदेशकों का अखिल भारतीय सम्मेलन मानव संसाधन और विकास मंत्रालय की देखरेख में आयोजित करता है। इन सब के अतिरिक्त राष्ट्रीय बाल भवन देश के विभिन्न भागों से अपने बच्चों को सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम के अंतर्गत विभिन्न देशों में भेजता है और ये बच्चे उप-महाद्वीप की सामाजिक सांस्कृतिक विशिष्टता के युवा राजदूत के रूप में कार्य करते हैं। इसके साथ-साथ राष्ट्रीय बाल भवन के सदस्य बच्चे, देशभर में संबद्ध बाल भवनों के बच्चे और राष्ट्रीय बाल भवन के सदस्य स्कूल/संस्थान भी वैश्विक समस्याओं के थीम पर अंतर्राष्ट्रीय पेंटिंग प्रतियोगिता में हिस्सा लेते हैं।

राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद्[सम्पादन]

राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् (एनसीटीई) की स्थापना अगस्त, 1995 में इस लक्ष्य के साथ की गई थी कि पूरे देश में अध्यापक शिक्षा प्रणाली का नियोजित एवं समन्वित विकास किए जाने के साथ ही जरूरी नियम बनाने और अध्यापक शिक्षा के मानकों एवं स्तरों का उचित संरक्षण किया जा सके। एनसीटीई के कुछ प्रमुख कार्य विभिन्न अध्यापक शिक्षा कार्यक्रमों के लिए स्तरों का निर्धारण करना, अध्यापक शिक्षा संस्थानों को मान्यता प्रदान करना, अध्यापकों की नियुक्ति के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यताओं हेतु दिशा-निर्देश तैयार करना, सर्वेक्षण और अध्ययन करना, अनुसंधान एवं नवीन तरीके अपनाना तथा शिक्षा के व्यावसायीकरण पर रोक लगाना इत्यादि हैं।

परिषद् की चार क्षेत्रीय समितियां जयपुर, बंगलुरू, भुवनेश्वर तथा भोपाल में गठित की गई हैं जो क्रमश— उत्तरी, दक्षिणी, पूर्वी एवं पश्चिमी क्षेत्र के लिए हैं। ये क्षेत्रीय समितियां अपने-अपने क्षेत्र में अध्यापक-शिक्षण संस्थानों को मान्यता देने का कार्य करती हैं। राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत इन्हें अध्यापक शिक्षण पाठ्यक्रम चलाने के लिए ऐसी संस्थाओं को अनुमति देने का अधिकार है।

एक जनवरी, 2007 तक एनसीटीई ने 9045 पाठ्यक्रमों के माध्यम से 7.72 लाख प्रशिक्षु अध्यापकों को प्रशिक्षण देने हेतु 7461 अध्यापक प्रशिक्षण संस्थानों को मान्यता प्रदान की। एनसीटीई ने सी.एड, डी.एæ, बी.एड, डीपी.एड और एमपी.एड जैसे विभिन्न अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रमों के लिए नए नियम और मानक जारी किए हैं। नए नियम अध्यापक कार्यक्रमों की गुणवत्ता सुधारने और अध्यापक शिक्षण संस्थानों में अन्य सुविधाओं के अलावा बुनियादी मजबूती के लिए बनाए गए हैं।

शिक्षा का अधिकार[सम्पादन]

दिसंबर 2002 में बने संविधान (86वें संशोधन) अधिनियम, 2002 के भाग-III (मूलभूतअधिकार) में एक नई धारा 21-ए जोड़कर 6-14 आयुवर्ग के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा को मूलभूत अधिकार बनाने की बात करता है। संविधान की धारा 21ए कहती है —

““कानून, संकल्प द्वारा, राज्य अपने अनुरूप छह से चोदह वर्ष तक की आयुवर्ग के सभी बच्चों को

मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा।””

सरकार एक ऐसे उपयुक्त कानून के अधिनियन को वचनबद्ध है जो संविधान की आवश्यकतानुसार शिक्षा को मूलभूत अधिकार बनाने के अहसास को मजबूत बनाए। संविधान की धारा 21ए के तहत विचारित उपयुक्त कानून के लिए आवश्यक कदम उठाए जा रहे हैं।

प्रारंभिक शिक्षा कोश[सम्पादन]

बुनियादी शिक्षा की गुणवत्ता हेतु सरकार की वित्तीय सहायता के लिए वित्त (नं.2) अधिनियम, 2004 के जरिए सभी प्रमुख केंद्रीय करों पर दो प्रतिशत शिक्षा अधिकार लगाया गया था। इस शिक्षा अधिकार को एकत्रित कर प्राप्त करने के लिए सरकार द्वारा 6.10.2005 को सार्वजनिक खाते में एक निष्क्रिय फंड प्रारंभिक शिक्षा कोश (पीएसके) स्वीकृत किया गया था। पीएसके बनाने का औपचारिक आदेश 14.11.2005 को जारी किया।

28.2.2006 को केंद्रीय बजट (2006-07) की प्रस्तुति के बाद पीएसके एक अलग मद बन गया। शिक्षा अधिकार की अनुमानित प्राप्ति को ध्यान में रखकर केंद्रीय बजट 2006-07 में पीएएस के खाते में 8746 करोड़ रूपये प्रारंभ में स्थानांतरित करने का प्रावधान किया गया। बाद में, अनुदान के लिए तीसरी पूरक मांग के बैच में 2006-07 के दौरान 2 प्रतिशत शिक्षा अधिकार के अतिरिक्त अनुमानों पर आधारित पीएसके में 189 करोड़ रूपये अतिरिक्त स्थानांतरित किए गए। पीएसके के तहत उपलब्ध फंड का उपयोग विशेष रूप से सर्वशिक्षा अभियान एसएसए और प्राथमिक शिक्षा के पोषण सहयोग के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम के लिए ही किया गया। शिक्षा अधिकार प्राथमिक शिक्षा के लिए निश्चित फंड उपलब्ध कराने की दिशा में एक ठोस कदम है।

राष्ट्रीय साक्षरता मिशन[सम्पादन]

राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की स्थापना मई 1988 में की गई थी। इसका उद्देश्य 2007 तक 15 से 35 वर्ष तक के आयु वर्ग के उत्पादक और पुनरोत्पादक समूह के निरक्षर लोगों को व्यावहारिक साक्षरता प्रदान करते हुए 75 प्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य हासिल करना है। व्यावहारिक साक्षरता के अंतर्गत पठन, लेखन गणना-बोध के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता पर्यावरण संरक्षण, नारी समानता और सीमित परिवार के सिद्धांत

और मूल्य निहित हैं। राष्ट्रीय साक्षरता मिशन में निहित साक्षरता की अवधारणा मात्र साक्षरता तक सीमित नहीं है बल्कि उपरिलिखित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अधिगमोन्मुख समाज के निर्माण का एक कारगर शस्त्र है। जीवन की गुणवत्ता में एक निश्चित सुधार और सशक्तिकरण ही व्यावहारिक साक्षरता की प्रमुख उपलब्धि है।

निरक्षरता उन्मूलन के लिए संपूर्ण साक्षरता अभियान ही राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की मुख्य अवधारणा है। ये अभियान समयबद्ध, विशिष्ट क्षेत्र, सहभागिता, किफायती, उपलब्धिपरक हैं, इन्हें जिला साक्षरता- समितियां (जिला स्तर की साक्षरता समिति) स्वतंत्र और स्वायत्तशासी संस्था के रूप में क्रियान्वित करती हैं, इनमें समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व होता है। व्यावहारिक साक्षरता देने के अतिरिक्त संपूर्ण साक्षरता अभियान (टीएलसी) सामाजिक जरूरत के महत्वपूर्ण संदेशों का प्रचार-प्रसार भी करता है जिनमें बच्चों का स्कूलों में दाखिला और उनकी शिक्षा, टीकाकरण, परिवार सीमित रखने के उपायों का प्रचार, महिला समानता और सशक्तिकरण, शांति और सद्भाव आदि शामिल हैं। इन साक्षरता अभियानों ने प्राथमिक शिक्षा की मांग भी पैदा की है। जिन लाखों निरक्षर लोगों ने व्यावहारिक शिक्षा की दक्षता हासिल की है वे बेहद नाजुक स्थिति में होते हैं यदि ऐसे नवसाक्षर लोगों को साक्षरता की प्रक्रिया से जोड़े रखने और उनकी शिक्षा का स्तर बनाए रखने के प्रयास नहीं किए गए तो इनके फिर से निरक्षर हो जाने की संभावना बनी रहती है। मूल साक्षरता का पहला चरण निर्देशों पर आधारित है जबकि दूसरे चरण में सुदृढ़ीकरण और निदान शामिल हैं। अब कौशल उन्नतिकरण को एक स्थिति से दूसरी स्थिति में पहुंचने के लिए निरंतरता, दक्षता और अभिमुखता सुनिश्चित करने में एक समन्वित परियोजना के रूप में देखा जाता है। राष्ट्रीय साक्षरता मिशन का उद्देश्य यह है कि संपूर्ण साक्षरता अभियान और साक्षरता के बाद के कार्यक्रम सफलतापूर्वक अनवरत शिक्षा-प्रक्रिया के रूप में जारी रहें और जीवनपर्यन्त साक्षरता के अवसर उपलब्ध कराते रहें। इस समय संपूर्ण साक्षरता अभियान 101 जिलों में लागू है जबकि साक्षरता पश्चात कार्यक्रम 168 जिलों में क्रियान्वित है।

सतत शिक्षा योजना देश में संपूर्ण साक्षरता और साक्षरता पश्चात कार्यक्रमों के लक्ष्य हासिल करने के प्रयासों को सतत अधिगम प्रदान करता है। नव साक्षर लोगों को आगे अधिगम के अवसर उपलब्ध कराने के लिए अनवरत शिक्षा केंद्रों की स्थापना पर मुख्य जोर दिया जाता है। ये केंद्र मूल साक्षरता, साक्षरता कौशल में सुधार, वैकल्पिक शिक्षा कार्यक्रमों और व्यावसायिक कौशल की खोज तथा सामाजिक और पेशागत विकास के प्रोत्साहन के लिए क्षेत्रीय मांग और जरूरत के मुताबिक अवसर उपलब्ध कराते हैं। इस योजना के अंतर्गत अनेक महत्वपूर्ण कार्यक्रम चलाए जाते हैं जैसे-प्रतिभागियों में व्यावसायिक कौशल बढ़ाने, आय उत्पादक गतिविधियां शुरू करने में सहयोग प्रदान करने वाला समतुल्यता कार्यक्रम, जीवन गुणवत्ता कार्यक्रम जिसके माध्यम से नौसिखिए और समुदाय अपना जीवन स्तर ऊंचा उठाने के लिए जरूरी ज्ञान, दृष्टिकोण, मूल्य और कौशल हासिल कर सकें और व्यक्तिगत अभिरूचि प्रोत्साहन कार्यक्रम जिसके तहत कोई भी नौसिखिया व्यक्तिगत रूप से सामाजिक स्वास्थ्य, शारीरिक, सांस्कृतिक और कलात्मक अभिरूचियों के अनुसार अवसर हासिल कर सकता है। भौगोलिक दृष्टि से दूर-दराज के इलाकों में रहने वाले अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/ महिलाओं तथा वहां के लोगों की जरूरत को पूरा करने के लिए अवशेष साक्षरता कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। सतत शिक्षा कार्यक्रम के अंतर्गत अब तक 328 जिले शामिल किए जा चुके हैं। गैर सरकारी संगठन — राष्ट्रीय साक्षरता मिशन (एनएलएम) अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए स्वयंसेवी संगठनों की अपार क्षमताओं को मान्यता देता है। इसने स्वयंसेवी संगठनों के साथ साझेदारी मजबूत बनाने के लिए कई उपाय किए हैं। इसके साथ ही साक्षरता आंदोलन में स्वयंसेवी संगठनों को सक्रिय उत्साहवर्धक भूमिका सौंपी गई है। साक्षरता उपलब्ध कराने के अलावा स्वयंसेवी संगठन प्रयोगात्मक और नवोन्मुख कार्यक्रमों के माध्यम से शैक्षिक और तकनीकी विशेषज्ञों की सेवाएं भी उपलब्ध कराता है। स्वयंसेवी संगठनों की ओर से संचालित राज्य संसाधन केंद्रों से प्रशिक्षण सामग्री, विस्तारगत विधियां नवोन्मुख परियोजनाएं, अनुसंधान अध्ययन और मूल्यांकन सामग्री के रूप में अकादमिक और तकनीकी संसाधन सहयोग उपलब्ध कराया जाता है। इस समय कुल 26 राज्य संसाधन केंद्र कार्यरत हैं।

महिला साक्षरता के लिए विशेष हस्तक्षेप - 2001 की जनगणना के अनुसार देश के 47 जिलों में महिला साक्षरता दर 30 प्रतिशत से नीचे है इसलिए राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के लिए इतनी कम महिला साक्षरता दर एक चिंता का विषय है। इस बात को ध्यान में रखते हुए 47 जिलों में नीची महिला साक्षरता दर में सुधार का लक्ष्य निर्धारित किया गया। इनमें से अधिकांश जिले उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा और झारखंड जैसे राज्यों में हैं। इन जिलों में महिला साक्षरता को बढ़ावा देने के लिए विशेष प्रवर्तित कार्यक्रम शुरू किए गए हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार में यह कार्यक्रम पूरा हो चुका है और इसका मूल्यांकन भी किया जा चुका है।

उड़ीसा में नौ जिलों में महिला साक्षरता दर काफी कम है इन जिलों को एक विशेष परियोजना के तहत त्वरित महिला साक्षरता कार्यक्रम में शामिल किया गया है। इस कार्यक्रम के तहत 15 से 35 वर्ष आयु वर्ग के करीब 10,43,000 महिलाओं को साक्षर बनाने का कार्य 117 स्वयंसेवी संगठनों के नेटवर्क को सौंपा गया। इस कार्यक्रम का बाह्य मूल्यांकन एजेंसियों द्वारा मूल्यांकन किया जा रहा है। विशिष्ट महिला साक्षरता कार्यक्रम झारखंड के उन पांच जिलों में भी लागू किया जा रहा है जहां महिला साक्षरता दर बहुत कम है। इन जिलों की 15 से 35 वर्ष आयु वर्ग की करीब पांच लाख महिलाओं को इस कार्यक्रम में शामिल किया गया। यह कार्यक्रम भी लगभग पूरा हो चुका है केवल दो जिलों में बाह्य मूल्यांकन का काम बाकी है।

अवशेष निरक्षरता की परियोजनाएं[सम्पादन]

यद्यपि संपूर्ण साक्षरता अभियान पूरे देश में एक जन आंदोलन के रूप में चलाया गया लेकिन कई इलाकों में यह प्राकृतिक आपदाओं तथा राजनीतिक इच्छा शक्ति में कमी के कारण पूरा नहीं हो सका। साक्षरता में सफलता के बावजूद अभी भी कुछ इलाकों में नीची महिला साक्षरता दर और अवशेष निरक्षरता मौजूद है। इस समस्या के निदान के लिए अवशेष निरक्षरता परियोजनाएं आरंभ की गईं। इसके तहत राजस्थान के 9 जिलों के करीब 6.6 लाख, आंध्र प्रदेश के 10 जिलों में 22.81 लाख, बिहार के सात जिलों में 12.54 लाख, झारखंड के तीन जिलों में 3.01 लाख, कर्नाटक के 14 जिलों में 27.35 लाख, मध्य प्रदेश के 12 जिलों में सात लाख और त्रिपुरा के तीन जिलों में एक लाख अड़तीस हजार तथा पश्चिम बंगाल के आठ जिलों में 29 लाख 54 हजार, उत्तर प्रदेश के 18 जिलों में 36.11 लाख और मिजोरम के चार जिलों में 0.45 लाख नव साक्षरों को शामिल किया गया।

विशेष साक्षरता अभियान[सम्पादन]

एनएलएमए परिषद की अप्रैल 2005 में हुई बैठक में देशभर से ऐसे 150 जिलों की पहचान की गई जिनमें साक्षरता दर सबसे कम थी। इन जिलों की क्षेत्रीय, सामाजिक और सामुदायिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए विशेष रूप से अल्पसंख्यक समूह, अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति, महिलाएं और अन्य पिछड़े वर्ग के लिए विशेष साक्षरता अभियान की रणनीति तय की गई। अब तक राज्यों के कुल 134 जिलों को विशेष साक्षरता मिशन में शामिल किया जा चुका है।

इनमें अरूणाचल प्रदेश में (7), आंध्र प्रदेश (8), बिहार (31), छत्तीसगढ़ (2), जम्मू-कश्मीर (8), राजस्थान (10), झारखंड (12), कनार्टक (2), मध्य प्रदेश (9), मेघालय (3), नागालैंड (2), उड़ीसा (8), पंजाब (1), उत्तर प्रदेश (27) और पश्चिम बंगाल के (4) जिले शामिल हैं। जनशिक्षण संस्थान - जनशिक्षण संस्थान का लक्ष्य सामाजिक आर्थिक रूप से पिछड़े तथा शहरी/ग्रामीण क्षेत्रों के शैक्षिक रूप से वंचित वर्गों विशेषकर नवसाक्षरों - अर्ध शिक्षितों अनुसूचित जाति/ जनजातियां, महिलाओं तथा बालिकाओं, मलिन बस्ती निवासियों और प्रवासी श्रमिकों का शैक्षिक और व्यावसायिक विकास करना है।

जनशिक्षण संस्थान[सम्पादन]

विभिन्न दस्तकारी के अलग-अलग अवधि के कई व्यावसायिक पाठ्यक्रम चलता है। इस समय देश में कुल 172 जनशिक्षण संस्थान हैं। इन संस्थानों के जरिए ढाई सौ से अधिक प्रकार के पाठ्यक्रमों और गतिविधियों का संचालन होता है। जिन कार्यों और पाठ्यक्रमों का प्रशिक्षण दिया जाता है उनमें सिलाई-कटाई, डे्रस तैयार करना, बुनाई और कढ़ाईhttps://www.idesignibuy.com/product/tailoring-software/, सौंदर्य तथा स्वास्थ्य देखभाल, दस्तकारी, कला, चित्रकला, बिजली के सामानें की मरम्मत, मोटर वाइंडिंग, रेडियो और टीवी मरम्मत, कंप्यूटर प्रशिक्षण शामिल हैं। 2004-05 के दौरान 13.91 लाख लाभार्थियों को विभिन्न विषयों और पाठ्यक्रमों में प्रशिक्षण दिए गए और जनशिक्षण संस्थान गतिविधियों में शामिल किए गए। इनमें से 65 प्रतिशत महिलाएं थीं।

जनशिक्षण संस्थान की ओर से संचालित नवीन कार्यक्रम और गतिविधियां इस प्रकार हैं —

  • राउरकेला में मानसिक रूप से अल्प विकसित बच्चों को कढ़ाई, बुनाई और वाटर कलर्स का

प्रशिक्षण दिया गया।

  • मुंबई में एक स्वयंसेवी संगठन के सहयोग से मूक और बधिरों के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम

आयोजित किया गया।

  • औरंगाबाद में जिला ग्रामीण विकास एजेंसी और पंचायत समिति के सहयोग से स्वसहायता समूहों

के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए गए।

  • तमिलनाडु आदि द्रविड़ हाउसिंग डवलपमेंट कॉरपोरेशन के सहयोग से अनुसूचित जाति/जनजाति

के चयनित उम्मीदवारों को व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया गया।

  • कोयंबटूर में वन विभाग के सहयोग से आदिवासियों को व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया गया।
  • कोयंबटूर में वर्ड विजन की ओर से मलिन बस्ती के नागरिकों व ग्रामीण युवकों के लिए

व्यावसायिक कार्यक्रम आयोजित किया गया।

  • इद्दुकी में आदिवासी बस्तियों में रहने वाले परिवारों से मिलकर स्वसहायता समूह का गठन किया

और साक्षरता से जुड़ा व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया और उसके बाद उत्पादक इकाइयां स्थापित कीं तथा स्वयं इन उत्पादों का विपणन किया।

  • शिवकाशी में जनशिक्षण संस्थान द्वारा प्रशिक्षित स्वसहायता समूह के सदस्यों ने आधारभूत

इलेक्ट्रॉनिक्स इकाइयों की स्थापना की, जहां घरेलू साज सामान की मरम्मत की जाती है।

  • तमिलनाडु महिला विकास निगम लिमिटेड की ओर से चयनित महिलाओं के लिए व्यावसायिक

पाठ्यक्रम आयोजित किए गए।

प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय[सम्पादन]

केंद्रीय प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय राष्ट्रीय साक्षरता मिशन में शैक्षिक और तकनीकी संसाधन का सहयोग देता है। यह संसाधन सहयोग का नेटवर्क विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है विशेष रूप से यह आदर्श शिक्षण/अधिगम सामग्री, मीडया सॉफ्टवेयर के उत्पादन तथा राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सभी तरह के मीडिया का सहयोग हासिल कराता है।

40वां अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस[सम्पादन]

नई दिल्ली में विज्ञान भवन में 8 सितंबर, 2006 को आयोजित किया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि तत्कालीन उप राष्ट्रपति भैंरो सिंह शेखावत थे। हर वर्ष एनएलएम-यूनेस्को पुरस्कार कुछ चुनिंदा राज्य संसाधन केंद्रों, जन शिक्षण संस्थान और विश्वविद्यालय, प्रौढ़, सतत शिक्षा और प्रौढ़ तथा साक्षरता कार्यक्रमों के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिए दिए जाते हैं। इस बार के पुरस्कार विजेता थे — 1. राज्य संसाधन केंद्र, कोलकाता 2. जन शिक्षण संस्थान औरंगाबाद और 3. सतत शिक्षा और एक्स्टेंशन विभाग, एस.वी. विश्वविद्यालय, तिरूपति। साक्षरता कार्यक्रमों में बेहतरीन प्रदर्शन और उल्लेखनीय उपलब्धियों के लिए चुनिंदा टीएलसी/ पीएलपी/सीई को हर वर्ष सत्येन मित्रा मेमोरियल पुरस्कार दिया जाता है। 2006 के पुरस्कार पाने वाले हैं — चांगलांग, अरूणाचल प्रदेश (टीएलसी), हनुमानगढ़, राजस्थान (पीएलपी), कडप्पा, आंध्र प्रदेश (सीईपी), कोल्लम, केरल (सीईपी) तूथुकुडी, तमिलनाडु (सीईपी)।

यूनेस्को का साक्षरता के लिए दिया जाने वाला कन्फ्यूशियस पुरस्कार राजस्थान सरकार के साक्षरता और सतत शिक्षा निदेशालय को राजस्थान में साक्षरता और सतत शिक्षा कार्यक्रम के जरिए उपयोगी शिक्षा के लिए दिया गया है। पुरस्कार में 20,000 यूएस डालर नकद और प्रशस्ति पत्र दिया जाता है। इस वर्ष के पुरस्कार के लिए थीम थी टिकाऊ विकास के लिए साक्षरता राजस्थान के साक्षरता और सतत शिक्षा निदेशालय को अपने निरक्षर महिलाओं को लक्षित विशेष कार्यक्रम के लिए यह पुरस्कार मिला। राजस्थ्ाान ने विशेष पहल की है जिसके तहत निरक्षर महिलाओं को आईपीसीएफ वर्णमाला की पुस्तक पढ़ाई गईं और सीई पर वर्णमाला-III को पूरी करने के बाद सभी जिलों में 15 दिनों के विशेष व्यावसायिक प्रशिक्षण कैंप आयोजित किए गए तथा उनके द्वारा निर्मित सामानों के विपणन के लिए व्यवस्था की गई। इसका उद्देश्य महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना था। लगभग 10 लाख निरक्षरों के लाभार्थ राज्य के 30 जिलों में बाकी बची निरक्षरता को समाप्त करने के लिए एक परियोजना भी शुरू की गई।

प्रकाशन[सम्पादन]

प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय की प्रकाशन इकाई ने 2006-07 के दौरान साक्षरता और प्रौढ़ शिक्षा संबंधी विभिन्न प्रकार के प्रकाशन निकाले। प्रकाशित पुस्तकें विभिन्न भाषाओं में थीं जो इस प्रकार हैं— नव साक्षरों के लिए; नव साक्षरों के लिए साक्षरता कार्यक्रमों (बुनियादी साक्षरता, उत्तर साक्षरता और सतत शिक्षा) के विभिन्न पहलुओं पर दिशा-निर्देश; नीति दिशा-निर्देश, वार्षिक रिपोर्ट, सांख्यिकी डाटा पुस्तकें इत्यादि। शिक्षाविदों और समाज विज्ञान शोधकर्ताओं के लिए; अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस तथा राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कार्यशालाओं इत्यादि महत्वपूर्ण अवसरों के लिए विशेष प्रकाशन।

वर्षभर काफी संख्या में प्रकाशन सामने आए और फोटो-प्रलेखन, प्रकाशनों के डिजाइन आर्टवर्क तैयार करना और मुद्रित सामग्री के प्रेषण जैसे अन्य संबद्ध कार्य भी किए गए। बहुत-सी प्रकाशित सामग्री देश में विभिन्न स्तर के उपयोगकर्ताओं को नि—शुल्क वितरित की गई। 8 सितंबर, 2006 अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस के अवसर पर भारत के उप राष्ट्रपति ने एक विशेष पुस्तक-“इनोवेशन इन लिटरेसी” जारी की और इसी अवसर पर उप राष्ट्रपति को नव-साक्षरों के लिए 8 पुस्तकों का एक सेट भेंट किया गया।

मूल्यांकन[सम्पादन]

संपूर्ण साक्षरता अभियान के कुल 393 और साक्षरता पश्चात कार्यक्रम के कुल 172 जिलों का बाहरी मूल्यांकन संस्थाओं द्वारा मूल्यांकन किया गया। अनवरत शिक्षा कार्यक्रम के सात जिलों-मंडी (हिमाचल प्रदेश), अजमेर (राजस्थान) और इड्डुकी केसरगढ़ और कोल्लम केरल तथा देवागाल (कर्नाटक) का भी मूल्यांकन बाहरी मूल्यांकन ऐजेंसियों द्वारा किया गया। इसी प्रकार 106 जनशिक्षण संस्थानों की गतिविधियों का भी मूल्यांकन हुआ। इन कार्यक्रमों का मूल्यांकन करने वाली संस्थाओं में भारतीय प्रबंधन संस्थान, बंगलुरू, एक्सएलआरआई, जमशेदपुर, प्रबंधन विकास संस्थान, गुणगांव, टाटा परामर्श सेवा, मुंबई और मीडिया अनुसंधान समूह, नई दिल्ली शामिल हैं।

उपलब्धियां[सम्पादन]

  • 2001 में साक्षरता दर 64.84 प्रतिशत रिकार्ड की गई जबकि 1991 में यह दर 52.21 प्रतिशत थी।

इस तरह एक दशक के दौरान साक्षरता दर में 12.63 प्रतिशत अंकों की वृद्धि दर्ज की गई।

  • अब तक 12 करोड़ 42 लाख 7 हजार लोगों को साक्षर बनाया जा चुका है।
  • साक्षरता की वृद्धि दर ग्रामीण क्षेत्रों में शहरों की अपेक्षा अधिक है।
  • पुरूष महिला साक्षरता दर में अंतर कम हुआ है। यह 1991 में 24.84 प्रतिशत था जो 2001 में

घटकर 21.60 प्रतिशत रह गया।

  • महिला साक्षरता में 14.38 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह 39.29 प्रतिशत से बढ़कर 53.67 प्रतिशत

तक पहुंच गई है। इसी तरह पुरूष साक्षरता में 11.13 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है जो एक दशक में 64.13 प्रतिशत से बढ़कर 75.26 प्रतिशत हो गई।

  • स्त्री-पुरूष समानता और महिला सशक्तिकरण भी दिखाई दिया है क्योंकि लगभग 60 प्रतिशत

प्रतिभागी और लाभार्थी महिलाएं हैं।

  • 1991 से 2001 तक की अवधि के दौरान 7 वर्ष से अधिक आयु वर्ग के लोगों की जनसंख्या में

17 करोड़ 16 लाख की वृद्धि हुई। जबकि इसी अवधि में 20 करोड़ 36 लाख लोग साक्षर बने।

  • 1991 से 2001 के बीच सभी राज्यों एवं केंद्र प्रशासित प्रदेशों ने बिना किसी अपवाद के साक्षरता

दर में वृद्धि की है।

  • सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में अब पुरूष साक्षरता बढ़कर 60 प्रतिशत से अधिक है। केरल

में साक्षरता दर सबसे अधिक 90.92 प्रतिशत है। जबकि बिहार की साक्षरता दर सबसे कम 47.53 प्रतिशत है।

  • निरक्षरों की संख्या में महत्वपूर्ण गिरावट देखने को मिली है। 1991 में निरक्षरों की संख्या 32

करोड़ 88 लाख 80 हजार थी जो 2001 में घट कर 30 करोड़ 40 लाख हो गई।

  • देश के कुल 600 जिलों में से 597 जिलों को साक्षरता कार्यक्रम के तहत राष्ट्रीय साक्षरता मिशन

में शामिल किया गया।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की शिक्षा[सम्पादन]

संवैधानिक प्रावधान — संविधान के अनुच्छेद 46 के अनुसार-

““राज्य विशेष सावधानी के साथ समाज के कमजोर वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जाति/जनजातियों के शैक्षिक एवं आर्थिक हितों के उन्नयन को बढ़ावा देगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के सामाजिक शोषण से उनकी रक्षा करेगा””।

अनुच्छेद 330, 332, 335, 338 से 342 तथा संविधान के पांचवीं और छठवीं अनुसूची अनुच्छेद 46 में दिए गए लक्ष्य हेतु विशेष प्रावधानों के संबंध में कार्य करते हैं। समाज के कमजोर वर्ग के लाभार्थ इन प्रावधानों का पूर्ण उपयोग किए जाने की आवश्यकता है।

स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के व्यक्तियों के शैक्षणिक आधार को सुदृढ़ करने के लिए कई कदम उठाए हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 एवं कार्ययोजना (पी.ओ.ए.) 1992 के अनुपालन में अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए प्राथमिक शिक्षा, साक्षरता एवं माध्यमिक और उच्च शिक्षा विभाग की वर्तमान योजनाओं में निम्नलिखित विशेष प्रावधान किए गए हैं-

(क) अब 300 की जनसंख्या के स्थान पर 200 की जनसंख्या हेतु एक कि.मी. की चलने योग्य दूरी के भीतर प्राथमिक स्कूल खोला जा सकेगा।

(ख) उच्च प्राथमिक स्तर पर सभी राज्यों के सरकारी प्राथमिक स्कूलों में शिक्षा शुल्क की समाप्ति। वस्तुत— अधिकतर राज्यों ने अनुसूचित जाति/जनजातियों के छात्रों के लिए माध्यमिक स्तर तक शिक्षा-शुल्क समाप्त कर दिया है।

(ग) इन वर्गों के छात्रों के लिए नि—शुल्क पुस्तकें, वर्दी, स्टेशनरी, स्कूल बैग इत्यादि के रूप में प्रोत्साहन।

(घ) संविधान का 86वां संशोधन विधेयक — 13 दिसंबर, 2002 को अधिसूचित इस विधेयक में 6-14 वर्ष के आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए अनिवार्य एवं नि—शुल्क शिक्षा का प्रावधान किया गया है।

सर्वशिक्षा अभियान (एसएसए)[सम्पादन]

प्राथमिक शिक्षा के सार्वत्रीकरण के बहुप्रतीक्षित उद्देश्य को निर्धारित समय सीमा में प्राप्ति की दिशा में यह ऐतिहासिक पहल है। यह कार्यक्रम राज्यों के सहयोग से चलाया जाएगा, जिसके अंतर्गत देश के प्राथमिक शिक्षा क्षेत्र की चुनौतियों का सामना करने, संकल्प, वर्ष 2010 तक 6-14 आयुवर्ग के सभी बच्चों को उपयोगी एवं स्तरीय शिक्षा उपलब्ध कराना शामिल है। कार्यक्रम की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं-

(i) बालिकाओं पर विशेषत— अनुसूचित जाति/जनजाति और अल्पसंख्यक वर्ग की बालिकाओं पर ध्यान,

(ii) विद्यालय छोड़कर जा चुकी बालिकाओं को वापिस लाने हेतु अभियान चलाना,

(iii) लड़कियों के लिए नि—शुल्क पाठ्यपुस्तकें,

(iv) बालिकाओं हेतु विशेष प्रशिक्षण (कोचिंग) और तैयारी-कक्षाओं का आयोजन और सीखने के लिए सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाना,

(v) शिक्षा के समान अवसर को बढ़ावा देने हेतु शिक्षक जागरूकता कार्यक्रम,

(vi) बालिका शिक्षा से संबंधित प्रयोगात्मक परियोजनाओं पर विशेष ध्यान,

(vii) 50 प्रतिशत महिला शिक्षकों की नियुक्ति।

जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (डीपीईपी)[सम्पादन]

इस योजना का प्रमुख जोर बालिकाओं, अनुसूचित जाति/जनजाति कामकाजी बच्चों, शहरी वंचित बच्चों, विकलांगों आदि की शिक्षा के लिए विशेष सहयोग उपलब्ध कराना है। बालिकाओं एवं अनुसूचित जाति/ जनजाति के लिए विशेष रणनीतियां हैं, तथापि इन समूहों को शामिल करने के लिए समेकित रूप में वास्तविक लक्ष्य भी निर्धारित किए गए हैं। एनआईईपीए द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार डीपीईपी जिलों के स्कूलों में 60 प्रतिशत से अधिक बच्चे अनुसूचित जाति/जनजाति के हैं।

महिला समाख्या (एमएस)[सम्पादन]

महिला समाख्या शैक्षिक पहुंच एवं उपलब्धि के क्षेत्र में लैंगिक अंतर का निराकरण करती है। इसमें महिलाओं (विशेषत— सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ी एवं वंचित) को ऐसे सशक्तिकरण के योग्य बनाना शामिल है, ताकि वे अलग-थलग पड़ने और आत्मविश्वास की कमी जैसी समस्याओं से जूझ सकें और दमनकारी सामाजिक रीति-रिवाजों के विरूद्ध खड़े होकर अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर सकें।

प्राथमिक स्तर पर बालिका शिक्षा हेतु राष्ट्रीय कार्यक्रम (एनपीईजीईएल)[सम्पादन]

सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए) की वर्तमान योजना के अधीन एनपीईजीईएल प्राथमिक स्तर पर सहायताप्राप्ति से वंचित/पिछड़ी बालिकाओं हेतु अतिरिक्त संसाधन मुहैया कराता है। यह कार्यक्रम शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े उन विकास खंडों में चलाया जा रहा है, जहां ग्रामीण महिला साक्षरता की दर राष्ट्रीय औसत से कम है और लैंगिक भेदभाव राष्ट्रीय औसत से अधिक है। साथ ही यह कार्यक्रम ऐसे जिलों के विकास खंडों में भी चलाया जा रहा है, जहां कम से कम 5 प्रतिशत जनसंख्या अनुसूचित जाति/जनजाति की है और जहां अनुसूचित जाति/जनजाति महिला साक्षरता की दर 1991 के आधार पर राष्ट्रीय औसत से 10 प्रतिशत कम है।

शिक्षाकर्मी कार्यक्रम (एसकेपी)[सम्पादन]

एसकेपी का लक्ष्य बालिका शिक्षा पर प्रमुख रूप से ध्यान देने के अतिरिक्त राजस्थान के दूर-दराज के अर्धशुष्क एवं सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में प्राथमिक शिक्षा के सार्वत्रीकरण एवं गुणवत्ता में सुधार लाना है। यह उल्लेखनीय है कि शिक्षाकर्मी स्कूलों में अधिकतर बच्चे अनुसूचित जाति/जनजाति एवं अन्य पिछड़े वर्गों के हैं।

कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय[सम्पादन]

कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना के अंतर्गत मुख्य रूप से प्राथमिक स्तर पर अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जन जाति, अन्य पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यकों की बालिकाओं के लिए दुर्गम क्षेत्रों में आवासीय सुविधाओं के साथ 750 विद्यालय खोले जा रहे हैं। यह योजना शैक्षिक रूप से पिछड़े (ईबीबी) केवल ऐसे विकास खंडों में लागू की जाएगी, जहां वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार महिला साक्षरता की दर राष्ट्रीय औसत से कम और लैंगिक भेदभाव का स्तर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। ऐसे विकास खंडों में कम महिला साक्षरता वाले तथा/अथवा स्कूल न जाने वाली अधिकतर बालिकाओं वाले जनजातीय क्षेत्रों में विद्यालय खोले जाएंगे।

जनशिक्षण संस्थान (जेएसएस)[सम्पादन]

जेएसएस अथवा जनता की शिक्षा का संस्थान एक ऐसा बहुआयामी अथवा बहुमुखी वयस्क शिक्षा कार्यक्रम है, जिसका लक्ष्य लाभान्वित होने वाले लोगों के व्यावसायिक हुनर और निपुणता में सुधार लाना है। इस कार्यक्रम का लक्ष्य सामाजिक आर्थिक-रूप से पिछड़े तथा शहरी/ग्रामीण क्षेत्रों के शैक्षिक रूप से वंचित वर्गों, विशेषकर नवसाक्षरों, अर्ध-शिक्षितों, अनुसूचित जाति/जनजातियों, महिलाओं तथा बालिकाओं, मलिन बस्ती निवासियों, प्रवासी श्रमिकों इत्यादि का शैक्षिक, व्यावसायिक विकास करना है।

साक्षरता अभियान का अन्य सामाजिक क्षेत्रों पर भी व्यापक असर हुआ है। इसने समाज में सामाजिक न्याय और समानता के कारणों को मजबूती प्रदान की है। इससे भारत की महान मिली जुली संस्कृति तथा विविधता में एकता के बोध के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण को मजबूती मिली है। दोपहर भोजन योजना — दोपहर भोजन योजना एक सफल प्रेरणादय कार्यक्रम है। इसमें देश के सरकारी, स्थानीय निकाय और सरकार से मान्यता प्राप्त स्कूलों के प्राथमिक स्तर के बच्चों को शामिल किया जाता है। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य स्कूलों में विद्यार्थियों का नामांकन और उपस्थिति है। इसके अलावा बच्चों में पोषण तत्वों की उपयुkta मात्रा निश्चित करना है।

केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान (सीआईआईएल)[सम्पादन]

केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर की एक योजना जनजातीय भाषाओं सहित आधुनिक भारतीय भाषाओं में अनुसंधान, इनमें निपुण व्यक्तियों का विकास तथा इस हेतु उन्नत पाठ्य सामग्री तैयार करना है। संस्थान ने 90 से अधिक जनजातीय भाषाओं के क्षेत्र में कार्य किया है।

केंद्रीय विद्यालय (केवी)[सम्पादन]

इसमें नए छात्रों के दाखिले में क्रमश— 15 प्रतिशत एवं 7.5 प्रतिशत सीटें अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्रों के लिए आरक्षित हैं। इन वर्गों के छात्रों से 12वीं कक्षा तक किसी भी प्रकार का शिक्षण शुल्क नहीं लिया जाता।

नवोदय विद्यालय (एनवी)[सम्पादन]

अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्रों के पक्ष में आरक्षण संबंधित जिलों में उनकी आबादी के हिसाब से इस प्रकार दिया जाता है कि वह 22.5 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत (15 प्रतिशत अजा के लिए एवं 7.5 प्रतिशत अजजा के लिए) से किसी भी प्रकार कम न हो और अधिकतम दोनों वर्गों (अजा एवं अजजा) को मिलाकर 50 प्रतिशत से अधिक न हो। ये आरक्षण परस्पर परिवर्तनीय हैं तथा सामान्य दक्षता सूची से आने वाले छात्रों से अतिरिक्त हैं।

राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय संस्थान (एनआईओएस)[सम्पादन]

एससी/एसटी छात्रों को शुल्क में छूट

माध्यमिक पाठ्यक्रमों के लिए एससी/एसटी छात्रों को प्रवेश शुल्क में 450 रूपये तक तथा उच्च माध्यमिक पाठ्यक्रमों के लिए 525 रूपये तक प्रवेश शुल्क में छूट प्रदान की जाती है।

एससी/एसटी छात्रों के लिए छात्रवृत्ति योजना

अनुसूचित जाति और जनजाति के उन मेधावी छात्रों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए उनकी पहचान करने, उन्हें प्रोत्साहन देने और उनकी सहायता करने के विचार से 1992 में सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय के तहत स्थापित डा. अंबेडकर फाउंडेशन मेधावी छात्रों को डा. अंबेडकर राष्ट्रीय छात्रवृत्ति प्रदान करता है। इसके तहत शिक्षा बोर्ड/काउंसिल द्वारा आयोजित नियमित कक्षा दसवीं स्तर की परीक्षा में सर्वाधिक अंक पाने वाले तीन छात्रों को नकद पुरस्कार दिया जाता है। यह एससी/एसटी के लिए अलग होगा। यदि इन तीन छात्रों में कोई लड़की नहीं होती तो सर्वाधिक अंक पाने वाली लड़की को विशेष पुरस्कार दिया जाता है। जब भी समाज कल्याण और न्याय मंत्रालय इस योजना के तहत नाम मांगता है तो एनआईओएस पात्र छात्रों के नाम भेजता है।

माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्कूलों की छात्राओं के लिए बोर्डिंग और छात्रावास सुविधाओं में वृद्धि करने की योजना के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली एवं कमजोर वर्ग की किशोरियों को इन छात्रावासों में प्रवेश हेतु प्रेरित करने के लिए स्वैच्छिक संगठनों को शत प्रतिशत वित्तीय सहायता दी जाती है। इनमें शैक्षणिक रूप से पिछड़े जिलों को प्राथमिकता दी जाती है। विशेष रूप से वहां, जहां अनुसूचित जाति/जनजातियों के लोगों और शैक्षणिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यकों की बहुलता है। माध्यमिक स्तर पर ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिभावान बच्चों को दी जाने वाली 43,000 छात्रवृत्तियों में से 13,000 छात्रवृत्तियां कुछ शर्तों पर विशेष रूप से अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए आरक्षित हैं।

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी)[सम्पादन]

एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तकों, अभ्यास पुस्तिकाओं, अध्यापक निर्देशिकाओं, सहायक पठन सामग्री के विकास, पाठ्यपुस्तकों के मूल्यांकन, व्यावसायिक शिक्षा, शैक्षिक तकनीकी, परीक्षा सुधारों, सर्व शिक्षा अभियान को समर्थन, शैक्षिक रूप से वंचित वर्गों की शिक्षा पर ध्यान देती है। एनसीईआरटी विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्रों में शोधस्तर तक शिक्षा हेतु और चिकित्सा और इंजीनियरी जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में द्वितीय-डिग्री स्तर तक की पढ़ाई हेतु कुछ शर्तों के पूरा करने पर राष्ट्रीय प्रतिभा खोज योजना का संचालन करती है। कुल 1000 छात्रवृत्तियों में से 150 छात्रवृत्तियां अनुसूचित जाति एवं 75 अनुसूचित जनजातियों के छात्रों के लिए हैं।

राष्ट्रीय शैक्षिक नियोजन एवं प्रशासन संस्थान (एनआईईपीए)[सम्पादन]

अनुसूचित जाति और जनजाति का शैक्षिक विकास करना एनआईईपीए का एक प्रमुख कार्यक्षेत्र है। यह अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए चल रहे शैक्षिक कार्यक्रमों एवं योजनाओं का अध्ययन करता है। यह अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्रों के शैक्षिक विकास और उनसे संबद्ध शैक्षिक संस्थाओं के लिए सामग्री भी तैयार करता है।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी)[सम्पादन]

यूजीसी अनुसूचित जाति/जनजाति के वर्गों के लिए आरक्षण नीति के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए सभी विश्वविद्यालयों/विश्वविद्यालय के रूप में मान्य संस्थानों में अनुसूचित जाति/जनजाति एकक की स्थापना के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध कराता है। अभी इस आयोग ने केंद्रीय विश्वविद्यालयों समेत 113 विश्वविद्यालयों में अजा/अजजा एककों का गठन किया है। अजा/अजजा पर बनी स्थायी समिति विश्वविद्यालयों/महाविद्यालयों द्वारा इस क्षेत्र में किए गए कार्य पर नजर रखती है और उनकी समीक्षा करती है।

आरक्षण नीति के अंतर्गत आयोग ने केंद्र सरकार के अधीन सभी विश्वविद्यालयों/महाविद्यालयों में सभी शिक्षण एवं गैर शिक्षण पदों में भर्ती, प्रवेश, छात्रावास इत्यादि में अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए क्रमश— 15 प्रतिशत और 7.5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया है। राज्यों के विश्वविद्यालय संबंधित राज्य द्वारा बनाई गई आरक्षण नीति का पालन करते हैं। आयोग भारत सरकार की आरक्षण नीति को लागू करने के लिए समय-समय पर दिशा निर्देश/नीति निर्देश/आदेश जारी करता रहता है। आरक्षणों के अलावा अजा/ अजजा छात्रों के प्रवेश के लिए निर्धारित न्यूनतम अर्हता अंकों में छूट दिए जाने का भी प्रावधान है। यूजीसी यह सुनिश्चित करने के लिए कि सभी स्नातकों, जिनमें अजा/अजजा स्नातक शामिल हैं, के पास सामान्य रूप से नौकरी क्षेत्र एवं विशेष रूप से स्वरोजगार करने के लिए आवश्यक ज्ञान, निपुणता एवं रूझान है। आयोग अजा/अजजा छात्रों को प्रतिविधि कोचिंग के लिए वित्तीय सहायता देता है। यह यूजीजी/ सीएसआईआर द्वारा आयोजित कराई जाने वाली राष्ट्रीय अर्हता परीक्षा (एनईटी) के लिए अजा/अजजा के छात्रों को योग्य बनाने के लिए वर्तमान कोचिंग केंद्रों को वित्तीय सहायता भी उपलब्ध कराता है। आयोग विस्तार (प्रसार) गतिविधियों को वित्तीय सहायता प्रदान करता है। योजना के अंतर्गत अनुसूचित जाति/ जनजाति समेत समाज के सभी वर्गों को शामिल किया जाता है। सामाजिक समानता के कार्य में सहयोग देने और समाज के सुविधाओं से वंचित वर्ग की सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता बढ़ाने हेतु यूजीसी ने अवर स्नातक/स्नातकोत्तर स्तर पर प्रतिविधि कोचिंग योजना शुरू की है। योजना के प्रमुख उद्देश्य हैं-(i) विभिन्न क्षेत्रों में छात्रों की शैक्षिक निपुणता एवं भाषाई कुशलता को सुधारना, (ii) मूलभूत विषयों में समझ का स्तर बढ़ाना, ताकि उच्च शिक्षा के लिए एक सुदृढ़ आधार मिल सके, (iii) ऐसे छात्रों के ज्ञान, निपुणता एवं रूझान को ऐसे विषयों में बढ़ाना, जिनमें गुणात्मक प्रविधियां एवं प्रयोगशाला संबंधी कार्य किया जाता है, (i1) परीक्षाओं में ऐसे छात्रों का सकल प्रदर्शन सुधारना।

आयोग ने अनुसूचित जाति/जनजाति के योग्य छात्रों के लिए एक केंद्रीय डाटाबेस पूल तैयार किया है। वह विभिन्न विश्वविद्यालयों में शिक्षक पदों के लिए निर्धारित आरक्षित पदों को भरने के लिए उनका नाम भी प्रस्तावित करता है तथा केंद्रीय विश्वविद्यालयों में आरक्षण नीति के कार्यान्वयन की समीक्षा करने के लिए केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलसचिवों की समय-समय पर बैठकों का आयोजन कराता है। वर्तमान एककों के कार्यों की समीक्षा के लिए एक विशेष निगरानी एकक भी है।

सामुदायिक पॉलीटेकनीक[सम्पादन]

सामुदायिक पॉलीटेकनीक की योजना के अंतर्गत क्षेत्र विशेष में विज्ञान और प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके ग्रामीण/सामुदायिक विकास गतिविधियां चलाई जाती हैं। इसके अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्र के लोगों/स्थानीय समुदायों को उनके उपयुक्त एवं अनुरूप प्रौद्योगिकी उपलब्ध कराने के लिए मंच उपलब्ध कराया जाता है। प्रशिक्षण देने में ग्रामीण युवकों, अनुसूचित जाति/जनजाति के सदस्यों, महिलाओं, स्कूल बीच ही में छोड़ चुके व्यक्तियों तथा अन्य वंचित वर्गों को वरीयता दी जाती है और आवश्यकतानुसार रोजगार प्राप्त करने में सहायता दी जाती है। सामुदायिक पॉलीटेकनीकों की योजना चुनिंदा डिप्लोमास्तरीय संस्थाओं में 1978-79 से लागू है। इसमें निपुणता-उन्मुख अनौपचारिक प्रशिक्षण, तकनीकी हस्तांतरण तथा प्रौद्योगिक समर्थन सेवाओं के माध्यम से विज्ञान और प्रौद्योगिकी का प्रयोग होता है।

इंजीनियरी कॉलेज[सम्पादन]

केंद्र सरकार द्वारा संचालित उच्च शिक्षा संस्थान, जिनमें आईआईटी, आईआईएम तथा राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान शामिल हैं, में अनुसूचित जाति/जनजाति के छात्रों को क्रमश— 15 प्रतिशत एवं 7.5 प्रतिशत आरक्षण दिया जाता है। आरक्षण के अलावा इनमें अजा/अजजा छात्रों के लिए न्यूनतम अर्हता अंकों में भी छूट दिए जाने का प्रावधान है। छात्रावासों में भी सीटें आरक्षित हैं, तथापि राज्य सरकारों द्वारा संचालित संस्थाओं में संबंधित राज्य सरकारों की नीति के अनुसार आरक्षण दिया जाता है।

विशेष घटक योजना (एससीपी) तथा जनजातीय उप-योजना (टीएसपी)

प्राथमिक शिक्षा एवं साक्षरता तथा माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा विभागों के आवंटित बजट में क्रमश— 16.20 प्रतिशत तथा 8 प्रतिशत अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिए विशेष घटक योजना (एससीपी) और जनजातीय उपयोजना (टीएसपी) के अंतर्गत आवंटित है। माध्यमिक और उच्च शिक्षा विभाग ने वर्ष 2004-05 की वार्षिक योजना के 2225 करोड़ रूपये के योजना परिव्यय में से एससीपी और टीएसपी के लिए क्रमश— 333.75 करोड़ रूपये एवं 166.88 करोड़ रूपये आवंटित किए हैं। प्राथमिक शिक्षा एवं साक्षरता विभाग ने वर्ष 2004-05 की वार्षिक योजना के लिए 6000 करोड़ रूपये के योजना परिव्यय में से एससीपी और टीएसपी के लिए क्रमश— 900 करोड़ रूपये एवं 450 करोड़ रूपये आवंटित किए हैं।

साक्षरता दर[सम्पादन]

राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की वयस्क साक्षरता योजनाएं देश के लगभग सभी जिलों में लागू की जा रही हैं। अल्प महिला साक्षरता वाले जिलों (45) में जिला साक्षरता समितियों, गैर सरकारी संगठनों, महिला स्वयंसेवी अध्यापकों तथा पंचायतीराज कर्मियों के माध्यम से केंद्रीकृत प्रयास के रूप में विशेष योजनाएं शुरू की गई हैं। आजीवन चलने वाले शिक्षा अवसरों के प्रावधान, व्यावसायिक निपुणता प्रदान करने तथा देश के 272 जिलों में चल रहे सतत शिक्षा कार्यक्रम के माध्यम से नव साक्षरों के लिए आय में वृद्धि पर भी विशेष जोर दिया जा रहा है।

अनुसूचित जाति और जनजाति की साक्षरता में प्राप्त उपलब्धियां भी वर्ष 1991 की जनगणना के आंकड़ों, अर्थात 37.41 प्रतिशत एवं 29.41 प्रतिशत की तुलना में उल्लेखनीय हैं। इसके अलावा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में महिला साक्षरता की दर भी पुरूष साक्षरता दर की तुलना में कहीं अधिक है।

स्कूलों में गुणवत्ता सुधार[सम्पादन]

दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान “स्कूलों में गुणवत्ता सुधार” की केंद्र द्वारा प्रायोजित एक ऐसी मिलीजुली योजना शुरू करने का निर्णय लिया गया, जिसमें निम्नलिखित घटकों को भी शामिल किया गया था-

(i) राष्ट्रीय जनसंख्या शिक्षा परियोजना,

(ii) स्कूली शिक्षा को पर्यावरणोन्मुखी बनाना,

(iii) स्कूलों में विज्ञान शिक्षा में सुधार करना,

(iv) स्कूलों में योग शिक्षा को बढ़ावा देना,

(v) अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान ओलंपियाड।

राज्यों को स्थानांतरित स्कूलों में, विज्ञान शिक्षा के सुधारों को छोड़कर अप्रैल, 2006 से उपर्युक्त चारों घटकों को एनसीईआरटी को स्थानांतरित करने का निर्णय लिया गया। दसवीं पंचवर्षीय योजना में इसके लिए 115 करोड़ रूपये का योजना खर्च रखा गया है। 2006-07 में इसके लिए 7 करोड़ का बजट प्रावधान किया गया जिसमें चार भाग एनसीईआरटी को स्थानांतरित किए गए हैं।

राष्ट्रीय जनसंख्या शिक्षा परियोजना[सम्पादन]

राष्ट्रीय जनसंख्या शिक्षा परियोजना देश की जनसंख्या और विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए स्कूली शिक्षा और अध्यापक शिक्षा प्रणाली में जनसंख्या शिक्षा को शामिल करने के उद्देश्य से अप्रैल 1980 में शुरू की गई। 2002 तक यह पूरी तरह संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या फंड (यूएनएफपीए) से एक बाहरी सहायता प्राप्त परियोजना के रूप में लागू की जा रही थी। यह परियोजना विश्वविद्यालय शिक्षा और प्रौढ़ शिक्षा क्षेत्र में भी चलाई जा रही थी। परियोजना की उपलब्धियों और महत्व को देखते हुए भारत सरकार ने इसे दसवीं पंचवर्षीय योजना में जारी रखने का निर्णय लिया है जिसमें स्कूली पाठ्यक्रम में जनसंख्या शिक्षा को पुन— परिकल्पित ढांचे के साथ और केंद्रित उद्देश्यों के साथ एकीकृत किया जाएगा।

इससे अधिक, यूएनएफपीए ने 2004 से किशोर प्रजनन और सेक्सुअल हेल्थ (एआरएसएच) पर केंद्रित एक सहगामी परियोजना की सहायता देने का निर्णय लिया है। इसके लिए 2004-2007 की अवधि के लिए 7.29 करोड़ रूपये का बजटीय प्रावधान किया गया है। 2006-07 के दौरान, एनपीईपी किशोर शिक्षा कार्यक्रम के एक अभिन्न भाग के रूप में लागू किया गया था जिसे राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नाको) के सहयोग से मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 2005 में शुरू किया गया।

स्कूली शिक्षा को पर्यावरणोन्मुखी बनाना[सम्पादन]

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनपीई), 1986 में यह व्यवस्था की गई है कि पर्यावरण संरक्षण एक ऐसा विषय है जो अन्य मानकों के साथ शिक्षा के सभी स्तरों पर पाठ्यक्रम का एक अभिन्न अंग बनना चाहिए। इस पुनीत लक्ष्य को कार्यरूप दिए जाने के लिए छात्रों के मन एवं प्रतिभा को प्रकृति का पर्यावरण संतुलन बिगाड़ने वाले तत्वों के खतरों के प्रति संवेदनशील बनाना आवश्यक होगा। इस चरण के अंतर्गत छात्रों को पर्यावरण-संख्या से संबंद्ध मूलभूत अवधारणाओं के प्रति जागरूक बनाना एवं उन्हें उनका सम्मान करना सिखाया जाएगा।

इस हेतु वर्ष 1988-89 में केंद्र द्वारा प्रायोजित “स्कूली शिक्षा को पर्यावरणोन्मुख बनाने” की योजना शुरू की गई। इस योजना में स्थानीय पर्यावरणीय परिस्थितियों को स्कूलों के शैक्षिक कार्यक्रमों से जोड़ने को बढ़ावा देने के उद्देश्य से प्रायोगिक एवं परीक्षणात्मक कार्यक्रम चलाने के लिए स्वयंसेवी संस्थाओं को सहायता देने का प्रावधान है। वर्ष 2006-07 के दौरान पर्यावरण शिक्षा के क्षेत्र में प्रायोगिक एवं परीक्षणात्मक परियोजनाएं चलाने के लिए स्वयंसेवी संस्थाओं को 90 लाख रूपये की वित्तीय सहायता प्रदान की गई।

स्कूलों में विज्ञान शिक्षा का सुधार[सम्पादन]

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के प्रावधानों के अनुसार विज्ञान शिक्षा के स्तर में सुधार लाने और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के उद्देश्य से केंद्र द्वारा प्रायोजित एक योजना “स्कूलों में विज्ञान शिक्षा का सुधार” वर्ष 1987-88 में प्रारंभ की गई। इस योजना के अंतर्गत राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों और स्वयंसेवी संगठनों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई गई। जहां स्वयंसेवी संस्थानों को यह सहायता प्रयोगात्मक एवं परीक्षणात्मक कार्यक्रमों के लिए मिली, वहीं केंद्रशासित प्रदेशों/राज्य सरकारों को उच्च प्राथमिक विद्यालयों में विज्ञान उपकरण किट मुहैया कराने, माध्यमिक/उच्च माध्यमिक विद्यालयों में प्रयोगशालाओं की स्थापना/वर्तमान प्रयोगशालाओं का उच्चीकरण करने, माध्यमिक/उच्च माध्यमिक विद्यालयों में पुस्तकालय सुविधाएं मुहैया कराने तथा विज्ञान और गणित के अध्यापकों के प्रशिक्षण कार्यों हेतु यह सहायता प्रदान की गई।

इस योजना का एक महत्वपूर्ण अंग भारतीय छात्रों को स्कूल स्तर पर आयोजित किए जाने वाले अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान ओलंपियाडों अर्थात— अंतर्राष्ट्रीय गणित ओलंपियाड (1989 से), अंतर्राष्ट्रीय भौतिकी ओलंपियाड (1998 से), अंतर्राष्ट्रीय रासायनिकी ओलंपियाड (1999 से) तथा अंतर्राष्ट्रीय जीवविज्ञान ओलंपियाड (2000 से) में भागीदारी करना है।

स्कूलों में योग शिक्षा की शुरूआत[सम्पादन]

स्कूलों में योग की शुरूआत 1989-90 के दौरान एक केंद्र प्रायोजित योजना के रूप में राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों/गैर-सरकारी संगठनों को वित्तीय सहायता देने के लिए की गई। इसका उद्देश्य प्रशिक्षण और शोध के लिए वित्तीय सहायता, पुस्तकालयों को अद्यतन बनाने और योग शिक्षकों के लिए छात्रावासों का निर्माण/विस्तार करना है। यह योजना राज्यों/कें.शा.प्र. के संबंधित शिक्षा विभागों के माध्यम से लागू की जा रही है। अप्रैल 2007 से इसे एनसीईआरटी को दे दिया गया। एनसीईआरटी ने इस योजना की नेशनल करीकुलम फ्रेमवर्क 2005 के नजरिए से समीक्षा करने की पहल की है।

2006-07 के दौरान गैर-सरकारी संगठनों को वित्तीय सहायता (योजना और गैर-दोनों) प्रदान की गई। प्रशिक्षण और पुस्तकालय संबंधी गतिविधियों को संचालित करने के लिए एजेंसी को गैर-योजना के रूप में 65 लाख की तथा 13 एजेंसियों को 26,38,000 रूपये की सहायता प्रदान की गई।

अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान ओलंपियाड[सम्पादन]

गणित, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान और जीव-विज्ञान विषयों की प्रतिभाओं की पहचान और उन्हें बढ़ावा देने के उद्देश्य से प्रत्येक वर्ष अंतर्राष्ट्रीय भौतिक िfद्यज्ञान ओलंपियाड, अंतर्राष्ट्रीय रसायन विज्ञान ओलंपियाड और अंतर्राष्ट्रीय जीव विज्ञान ओलंपियाड का आयोजन किया जाता है। भारत इन ओलंपियाड में क्रमश— 1989, 1998, 1999 और 2000 से भाग ले रहा है। इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले प्रत्येक देश को अंतर्राष्ट्रीय गणित ओलंपियाड के लिए 6 सेकेंड्री विद्यार्थी, भौतिकी ओलंपियाड के लिए 5, रसायन शास्त्र ओलंपियाड के लिए 4 और जीव विज्ञान ओलंपियाड के लिए 6 विद्यार्थी भेजने होते हैं। इनके साथ एक दल का नेता और एक उप नेता भी होता है। वर्ष 2002 से भारतीय विद्यार्थियों की टीम अंतर्राष्ट्रीय इंफार्मेटिक्स ओलंपियाड में भी भाग ले रही है।

मौजूदा वित्तीय प्रबंध के तहत ओलंपियाड आयोजित करने वाले देश को प्रतियोगिता में शामिल होने वाली टीमों के ठहरने, खाने-पीने और स्थानीय यातायात का व्यय वहन करना पड़ता है। अंतर्राष्ट्रीय यात्रा का खर्च प्रतियोगिता में भाग लेने वाले देश को वहन करना पड़ता है। पिछले ओलंपियाड में भारतीय टीम का खर्च संयुक्त रूप से माध्यमिक और उच्च शिक्षा विभाग और एनबीएचएम/होमी भाभा विज्ञान केंद्र (एचबीसीएसई/विज्ञान शिक्षा संघ बंगलौर) बीएएसई/भारतीय संगणना विज्ञान अनुसंधान संघ (आईएआरसीएस) और केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएससी) ने प्रायोजित किया था। अंतर्राष्ट्रीय आवागमन व्यय माध्यमिक और उच्च शिक्षा विभाग वहन करता है तथा विद्यार्थियों के चयन, आंतरिक यातायात और अन्य आकस्मिक खर्च एनबीएचएम/एचबीसीएसई/ आईएआरसी द्वारा वहन किया जाता है।

2005 में ताइवान के ताइपेई में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय रसायन ओलंपियाड (आईसीएच.ओ-2005) में भारतीय टीम ने तीन रजत और एक कांस्य पदक जीता था। जुलाई 2005 में स्पेन के सलवांसा में आयोजित आईपीएचओ-2005 में भारतीय टीम को दो स्वर्ण, दो रजत और एक कांस्य पदक प्राप्त हुए थे। चीन के बीजिंग में आयोजित आईबीओ 2005 में भारतीय टीम ने एक स्वर्ण और तीन कांस्य पदक जीते। जुलाई, 2005 में मैक्सिको के मेरिडा में आयोजित आईएमओ 2005 में भारतीय टीम को एक रजत, एक कांस्य पदक प्राप्त हुआ था तथा तीन में उन्हें उल्लेखनीय सम्मान मिले। भारत ने अगस्त, 2005 में पोलेंड के नॉवे सेज में आयोजित (आईओआई-2005) में भी हिस्सा लिया।

नवोदय विद्यालय समिति[सम्पादन]

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में देश के हर जिले में एक मॉडल (आदर्श) विद्यालय खोलने का प्रावधान किया गया था। तदनुसार एक योजना बनाई गई, जिसके अंतर्गत सहशिक्षा आवासीय विद्यालय (अब जवाहर नवोदय विद्यालय) खोलने का निर्णय लिया गया।

नवोदय विद्यालय माध्यमिक स्तर तक शिक्षा प्रदान करने वाले पूर्ण आवासीय सह-शिक्षा विद्यालय हैं। वर्ष 1985-86 में मात्र दो विद्यालयों के साथ प्रायोगिक रूप से शुरू की गई इस योजना के अंतर्गत देश के 34 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में अब तक (31 मार्च, 2007 तक) इनकी संख्या बढ़कर 565 हो चुकी है और 31 मार्च 2007 तक इन विद्यालयों में एक लाख 93 हजार छात्र पढ़ रहे थे। प्रतिवर्ष 30,000 से अधिक छात्र इन विद्यालयों में प्रवेश लेते हैं। इन विद्यालयों में मुख्यत— ग्रामीण क्षेत्रों के ऐसे प्रतिभावान, प्रखर एवं मेधावी छात्रों का चयन (पहचान) कर विकास करने का प्रावधान है, जिन्हें इन विद्यालयों के अभाव में अच्छी शिक्षा प्राप्त करने के अवसरों से वंचित रहना पड़ता। यह सुनिश्चित करने के प्रयास किए जाते हैं कि प्रवेश पाने वाले छात्रों में कम से कम एक तिहाई (33 प्रतिशत) बालिकाएं हों।

छात्रों का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाकर शिक्षा लेना (शैक्षिक प्रवास) नवोदय विद्यालयों की एक विशिष्टता है। इसके अंतर्गत देश के हिंदीभाषी क्षेत्र में स्थित किसी एक नवोदय विद्यालय की नौवीं कक्षा में पढ़ रहे छात्रों के 30 प्रतिशत विद्यार्थी किसी अहिंदीभाषी क्षेत्र के विद्यालय में एक सत्र की पढ़ाई करते हैं। इसी तरह अहिंदीभाषी स्कूल के छात्र हिंदी भाषी इलाके के विद्यालय में जाकर एक सत्र तक पढ़ते हैं। इस योजना का उद्देश्य देश के नागरिकों की भाषा एवं संस्कृति की विविधता एवं बहुलता की समझ के माध्यम से राष्ट्रीय अखंडता (एकता) को बढ़ावा देना है।

केंद्रीय विद्यालय संगठन[सम्पादन]

केंद्र सरकार ने द्वितीय वेतन आयोग की सिफारिश के आधार पर 1962 में “केंद्रीय विद्यालय संगठन” की योजना को मंजूरी दी। शुरू में विभिन्न राज्यों में स्थित 20 सेना रेजिमेंटों के 20 स्कूलों का सेंट्रल स्कूलों के रूप में अधिग्रहण किया गया था। 1965 में केंद्रीय विद्यालय संगठन के रूप में एक स्वायत्तशासी निकाय का गठन किया गया, जिसका उद्देश्य था रक्षाकर्मियों एवं अर्ध सैनिक बलों के कर्मचारियों सहित अखिल भारतीय सेवाओं और देश भर में स्थानांतरित होने वाले केंद्रीय कर्मचारियों के बच्चों की एक समान शिक्षा की आवश्यकता पूरी करने के लिए केंद्रीय विद्यालयों की स्थापना करना और उसके काम पर नजर रखना। इस समय (17 जून 2005 तक) देश में 931 केंद्रीय विद्यालय हैं, जिनमें से तीन विदेश (अर्थात काठमांडू, मास्को एवं तेहरान) में स्थित हैं। सभी केंद्रीय विद्यालयों में एक जैसे पाठ्यक्रम हैं।

विकलांग बच्चों के लिए समेकित शिक्षा[सम्पादन]

केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित विकलांग बच्चों के लिए समेकित शिक्षा योजना वर्ष 1974 में समाज कल्याण विभाग की ओर से शुरू की गई थी। बाद में 1982-83 में यह योजना शिक्षा विभाग को हस्तान्तरित कर दी गई। यह योजना अंतिम बार 1992 में संशोधित की गई थी। यह योजना विकलांग बच्चों को शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराती है ताकि वे सामान्य स्कूलों में टिक कर अध्ययन करते हुए अपने आप को योग्य बना सकें।

आईईडीसी के तहत सामान्य स्कूलों में बहुत कम विकलांगता वाले बच्चों को शत प्रतिशत शिक्षा सहायता प्रदान की जाती है। जिन रूपों में शिक्षा सहायता उपलब्ध करायी जाती है वे इस प्रकार है — सहयोगी उपकरण, विशेष अध्यापकों के लिए वेतन और विकलांग छात्रों के लिए अनुदान शामिल हैं। 2005 के अंत तक 85 हजार स्कूलों के दो लाख विकलांग विद्यार्थियों को इस योजना का लाभ मिला। दसवीं पंचवर्षीय योजना में इसके लिए कुल 200 करोड़ का बजट रखा गया है तथा 2005-06 में इस योजना के लिए 45 करोड़ रूपये आबंटित किए गए।

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और विकास परिषद् (एनसीईआरटी)[सम्पादन]

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और विकास परिषद् (एनसीईआरटी) स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में तकनीकी संसाधन सहायता प्रदान करने वाली शीर्ष संस्था है। एनसीईआरटी के घोषणा पत्र में स्कूली पाठ्यक्रम तैयार करने के कार्य को विशेष स्थान दिया गया है। एनसीईआरटी से यह अपेक्षा रहती है कि वह शिक्षा का सर्वोच्च स्तर बनाए रखने के लिए और इसे सुनिश्चित करने हेतु स्कूली पाठ्यक्रम की समीक्षा नियमित रूप से समय-समय पर करता रहे। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनपीई) 1986 और कार्य योजना (पीओए) 1992 ने एक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचा बनाने और उसे प्रोत्साहन देने हेतु एनसीईआरटी को विशेष भूमिका प्रदान की है। एनपीई इस तरह के ढांचे को भारतीय संविधान द्वारा निर्धारित कुछ प्रमुख मानदंडों एवं परिवर्तनकारी लक्षणों को पूरा करने वाली राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली तैयार करने के साधन के रूप में देखता है।

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचा[सम्पादन]

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचा (एनसीए$फ) 2005 व्यापक विचार विमर्श एवं परिश्रम का परिणाम था। इस हेतु लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिक प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय संचालन समिति का गठन किया गया था। समिति के 35 सदस्यों में विभिन्न विषयों के विद्वान, प्रधानाचार्य एवं अध्यापक, जाने माने गैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधि तथा एनसीईआरटी के सदस्य शामिल थे। पाठ्यक्रम, राष्ट्रीय विषयों तथा व्यवस्थित विषयों को देखने वाले 21 राष्ट्रीय फोकस गु्रपों ने इसके कार्यों का समर्थन किया था। इस विषय पर पूरे देश में व्यापक विचार-विमर्श किया गया। इसके अलावा एनसीईआरटी ने ग्रामीण अध्यापकों, राज्यों के शिक्षा सचिवों तथा निजी विद्यालयों के प्रधानाचार्यों के साथ विचार-विमर्श किया। अजमेर, भोपाल, भुवनेश्वर, मैसूर तथा शिलांग के क्षेत्रीय शिक्षा संस्थानों में क्षेत्रीय सेमिनार आयोजित किए गए।

भाषाओं का विकास[सम्पादन]

भाषाएं परस्पर संवाद एवं शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण माध्यम हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति एवं कार्ययोजना में इनके विकास का महत्वपूर्ण स्थान है। अत— हिंदी और संविधान में अधिसूचित विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं के संवर्धन और विकास पर पर्याप्त ध्यान दिया गया है।

हिंदी[सम्पादन]

अहिंदीभाषी राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में त्रिभाषा फार्मूले के प्रभावी कार्यान्वयन में सहायता देने के लिए केंद्र प्रायोजित एक योजना के अंतर्गत इन अहिंदीभाषी राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में हिंदी शिक्षण के लिए अध्यापक नियुक्त करने हेतु वित्तीय सहायता दी जाती है। गैर सरकारी संस्थाओं को भी हिंदी शिक्षण कक्षाएं चलाने के लिए वित्तीय सहायता दी जाती है। अहिंदीभाषी छात्रों को हिंदी पढ़ाने के लिए केंद्रीय हिंदी संस्थान के माध्यम से सरकार परिष्कृत तरीकों के विकास को बढ़ावा देती है। संस्थान विदेशी नागरिकों को हिंदी पढ़ाने के लिए प्रतिवर्ष नियमित आधार पर एक विशेष पाठ्यक्रम चलाता है।

केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा हिंदीभाषी राज्यों एवं विदेश स्थित भारतीय दूतावासों में नि—शुल्क वितरण के लिए पुस्तकों की खरीद एवं प्रकाशन संबंधी कार्यक्रम चलाए जाते हैं। यह हिंदी के विकास एवं संवर्धन में लगे गैर सरकारी संगठनों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराता है। वैज्ञानिक एवं तकनीकी पारिभाषिक शब्दावली आयोग (नई दिल्ली) हिंदी एवं अन्य भाषाओं के विभिन्न विषयों के पारिभाषिक शब्दकोशों एवं शब्दावलियों का निर्माण एवं प्रकाशन करता है।

आधुनिक भारतीय भाषाएं[सम्पादन]

आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास करने के लिए भाषाई, साक्षरता, वैचारिक, सामाजिक, नृशास्त्रीय एवं सांस्कृतिक विषयों पर मौलिक लेखन, पुरानी पांडुलिपियों के समालोचनात्मक संस्करणों-विश्वकोशों, शब्दकोशों, ज्ञानवर्धक पुस्तकों के प्रकाशन हेतु स्वयंसेवी संगठनों एवं व्यक्तियों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है। राज्यों को क्षेत्रीय भाषाओं में विश्वविद्यालय स्तर की पुस्तकें तैयार करने के लिए विशेष सहायता प्रदान की जाती है। राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद (एनसीपीयूएल) एक स्वायत्तशासी निकाय के रूप में 1996 से उर्दू एवं अरबी तथा फारसी भाषा के संवर्धन के लिए कार्य कर रही है।

उर्दूभाषी जनसंख्या को उत्पादक मानव संसाधन के रूप में बदलना तथा वर्तमान सूचना प्रौद्योगिकी के युग का एक अंग बनाना और अल्पसंख्यक जनसंख्या वाले क्षेत्रों में जमीनी स्तर पर कंप्यूटर शिक्षा को प्रवेश दिलवाना एन.सी.पी.यू.एल. के कार्यों का एक उल्लेखनीय अंग है। सरकार ने सिंधी भाषा के विकास हेतु भी एक राष्ट्रीय परिषद का गठन किया है।

सरकार सभी भारतीय भाषाओं के अध्ययन हेतु भी वित्तीय सहायता प्रदान करती है। इस हेतु मैसूर स्थित केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान (सीआईआईएल) द्वारा भाषा विश्लेषण, भाषा शिक्षा शास्त्र, भाषा प्रौद्योगिकी एवं प्रयोग के क्षेत्रों में शोध किया जाता है। त्रिभाषा सूत्र को लागू करने के लिए शिक्षकों के प्रशिक्षण की आवश्यकता को पूरा करने हेतु यह संस्थान क्षेत्रीय भाषा केंद्रों का संचालन करता है। क्षेत्रीय भाषा केंद्र विभिन्न स्तरों पर विभिन्न भारतीय भाषाओं में मातृभाषा अध्यापकों के लिए प्रशिक्षण भी देते हैं।

अंग्रेजी तथा विभिन्न विदेशी भाषाएं[सम्पादन]

हैदराबाद स्थित केंद्रीय अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा संस्थान (सीआईईएफएल) इस मंत्रालय के अधीन विश्वविद्यालय के समकक्ष उच्च शिक्षा देने वाला एक ऐसा स्वायत्तशासी निकाय है, जहां माध्यमिक स्तर पर अंग्रेजी पढ़ाने वाले शिक्षकों की व्यावसायिक क्षमता में सुधार लाने के लिए अध्यापक शिक्षण कार्यक्रम चलाए जाते हैं। यह अंग्रेजी शिक्षण में स्नातकोत्तर एवं डिप्लोमा जैसे कई पाठ्यक्रम और दूरवर्ती शिक्षा (एवं पत्राचार) के माध्यम से शोध पाठ्यक्रम चलाता है। यह अरबी, जर्मन, जापानी, रूसी, स्पेनिश आदि कई प्रमुख विदेशी भाषाओं के शिक्षण पाठ्यक्रम भी चलाता है। शिलांग और लखनऊ में इसके क्षेत्रीय प्रशिक्षण केंद्र हैं। यह देश में अंग्रेजी शिक्षण/अध्ययन के क्षेत्र में आधारभूत सुधार लाने के उद्देश्य से भारत सरकार की दो योजनाओं-अंग्रेजी भाषा शिक्षण संस्थान (ईएलटीआई) तथा (डिस्ट्रिक्ट सेंटर्स फार इंगलिश) को भी लागू करता है और इसके लिए सीआईईएफएल द्वारा राज्य सरकारों को अनुदान भी दिया जाता है।

शिक्षा में सांस्कृतिक एवं मूल्य पक्ष को मजबूत बनाना[सम्पादन]

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 (1992 में संशोधित) तथा कार्ययोजना 1992 में सामाजिक एवं चारित्रिक मूल्यों का विकास करने के लिए शिक्षा को एक प्रभावपूर्ण उपकरण बनाने की आवश्यकता को उजागर करके मूल्य-आधारित शिक्षा पर पर्याप्त जोर दिया गया है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लक्ष्य पूरे करने के उद्देश्यों से शिक्षा में सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों का सर्वधन करने के लिए सहायता देने की एक केंद्रीय योजना चलाई जा रही है। इस योजना के अंतर्गत प्रौद्योगिक एवं प्रबंधन शिक्षा सहित पूर्व प्राथमिक शिक्षा प्रणाली से उच्च शिक्षा स्तर तक सांस्कृतिक एवं नैतिक (चारित्रिक) शिक्षा के उन्नयन हेतु सरकारी और गैर सरकारी विभागों, पंचायतीराज संस्थाओं को शत प्रतिशत अनुदान सहायता दी जाती है और इस सहायता की सीमा 10 लाख रूपये हैं।

संस्कृत विभाग[सम्पादन]

संस्कृत ने सभी भारतीय भाषाओं के विकास एवं देश की सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण में एक जीवंत भूमिका निभाई है। भारत सरकार राज्य सरकारों के माध्यम से (क) निर्धनता की स्थिति में जी रहे लब्धप्रतिष्ठ संस्कृत विद्वानों की सहायता, (ख) संस्कृत पाठशालाओं का आधुनिकीकरण करने, (ग) उच्च/उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में संस्कृत शिक्षण हेतु सुविधा प्रदान करने, (घ) उच्च/उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में संस्कृत पढ़ रहे छात्रों को छात्रवृत्ति प्रदान करने, (æ) संस्कृत को प्रोत्साहित करने की विभिन्न योजनाएं लागू करने, तथा (च) स्कूलों, संस्कृत महाविद्यालयों/विद्यापीठों को संस्कृत पढ़ाने के तरीकों में सुधार लाने हेतु शत-प्रतिशत वित्तीय सहायता प्रदान करती है। वर्तमान में इस योजना में संशोधन किया जा रहा है।

संस्कृत, पाली, अरबी तथा फारसी भाषा के लब्धप्रतिष्ठत विद्वानों को इन भाषाओं के संवर्धन करने के क्षेत्र में जीवन भर किए गए उनके श्रम एवं योगदान को मान्यता देते हुए प्रतिवर्ष स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर राष्ट्रपति पुरस्कार एवं मानपत्र से सम्मानित किया जाता है। तीस से चालीस वर्ष के आयु वर्ग के उन युवा विद्वानों को, जिन्होंने संस्कृत अथवा प्राचीन भारतीय मनीषा को आधुनिकता एवं परंपरा के समन्वयन की प्रक्रिया से जोड़ने के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की हो, के लिए महर्षि बादरायण व्यास सम्मान भी प्रारंभ किया गया है।

महर्षि सांदीपनि राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान (उज्जैन) एक स्वायत्तशासी निकाय है जो (क) वैदिक अध्ययनों की वाचिक परंपरा को नष्ट होने से बचाने, संरक्षण एवं विकास, (ख) पाठशालाओं के साथ-साथ अन्य माध्यमों एवं संस्थाओं से वेदों के अध्ययन, (ग) शोध सुविधाओं के निर्माण एवं संवर्धन, (घ) सूचनाओं के संग्रहण तथा इनके अनुरूप जानकारी के एकत्रीकरण हेतु आधारभूत ढांचे तथा अन्य लाभकारी परिस्थितियों के निर्माण को बढ़ावा देता है।

राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान (नई दिल्ली) भारत सरकार द्वारा 1970 में स्थापित एक स्वायत्तशासी संस्थान है। यह देश में संस्कृत शिक्षा के प्रसार, संवर्धन एवं विकास में संलग्न प्रमुख एजेंसी है। भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा विभाग द्वारा इसे शत-प्रतिशत वित्तीय सहायता दी जाती है। इस संस्थान को मानद विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया है। राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ (तिरूपति) में इंटरमीडिएट से लेकर विद्यावारिधी (पीएच.डी.) तक के पाठ्यक्रम चलाए जाते हैं। विद्यापीठ ने अपने भाषा-शिक्षण विभाग को उच्चीकृत करके उसे आधुनिक शिक्षा अध्ययन संस्थान (आईएएसई) बना दिया है।

श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ (नई दिल्ली) में शास्त्री से विद्यावाचस्पति (डी.लिट.) स्तर तक के पाठ्यक्रम पढ़ाए जाते हैं। वर्ष 1997-98 से विद्यापीठ ने वैदिक एवं रिफ्रेशर पाठ्यक्रमों में डिप्लोमा पाठ्यक्रम प्रारंभ किया है। ये उपाधियां-विद्यावारिधी (पीएच.डी.) तथा मानद उपाधि (मानद डी.लिट.) भी संस्थान द्वारा प्रदान की जाती हैं।

छात्रवृत्तियाँ[सम्पादन]

मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों के माध्यम से “राष्ट्रीय प्रतिभा छात्रवृत्ति योजना” नाम से केंद्र द्वारा एक प्रायोजित योजना चलाई जाती है, जिसके अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों के कक्षा 9 और 10 के प्रतिभावान छात्रों को शत-प्रतिशत वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है। इसके साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों के छात्रों सहित राज्य योग्यता सूची में शामिल प्रतिभाशाली छात्रों को 10वीं कक्षा के बाद स्नातकोत्तर स्तर तक के अध्ययन के लिए छात्रवृत्तियां भी प्रदान की जाती हैं। छात्रवृत्तियों की राशि पाठ्यक्रम के अनुसार 250 रूपये से 750 रूपये तक है। अहिंदीभाषी राज्यों के छात्रों के लिए हिंदी में 10वीं कक्षा के बाद से स्नातकोत्तर स्तर तक अध्ययन हेतु छात्रवृत्ति की दर 300 रूपये से 1000 रूपये प्रतिमाह है।

भारत सरकार विभिन्न सांस्कृतिक/शैक्षिक आदान-प्रदान कार्यक्रमों के अंतर्गत विदेशी सरकारों से प्राप्त प्रस्तावों के आधार पर विदेशों में स्नातकोत्तर/शोध/शोध पश्चात अध्ययनों के लिए भारतीय छात्रों को छात्रवृत्ति प्रदान करती है। इन प्रस्तावों के लिए आवेदन पत्र मंगाते समय इन प्रस्तावों के विवरण और शर्तों का प्रकाशन सभी प्रमुख समाचार पत्रों में किया जाता है तथा ये विभाग की वेबसाइट पर भी उपलब्ध हैं। विदेशी सरकारों द्वारा दी जाने वाली धनराशि एवं सुविधाएं प्रत्येक देश के लिए समय-समय पर बदलती रहती हैं।

पूर्वोत्तर क्षेत्र में शैक्षिक विकास[सम्पादन]

पूर्वोत्तर क्षेत्र में उच्च साक्षरता दर वाले समृद्ध जातीय सांस्कृतिक विरासत और भाषाई विभिन्नता वाले आठ राज्य आते हैं। तथापि पूरे क्षेत्र में शिक्षा के आधारभूत ढांचे और सुविधाओं का अभाव है और इस क्षेत्र में दी जा रही शिक्षा के स्तर को सुधारने की आवश्यकता है। पूर्वोत्तर राज्यों को अपनी आधारभूत सुविधाओं में सुधार लाने के लिए समाप्त न होने वाले संसाधनों के केंद्रीय पूल (एनएलसीपीआर) से अनुदान सहायता दी जाती है। एनएलसीपीआर को लागू करने वाली उच्चाधिकार समिति ने 1998-99 में अपनी स्थापना के बाद से पूर्वोत्तर क्षेत्र में शैक्षिक आधारभूत ढांचे के विकास हेतु 480.68 करोड़ रूपये के प्रस्तावों को स्वीकृति दी है। 30 नवंबर, 2005 तक 392.81 करोड़ रूपये की राशि जारी की गई थी। इसमें से वर्ष 2005-06 में 14.84 करोड़ रूपये जारी किए गए।

केंद्रीय क्षेत्र में आने वाले प्रस्ताव मुख्यतः केंद्रीय संस्थानों के आधारभूत ढांचे के विकास, अर्थात पूर्वोत्तर में पांच केंद्रीय विश्वविद्यालय, जिनमें कर्मचारी आवासों, शैक्षणिक भवनों, पुस्तकालय भवनों, प्रशासनिक भवनों के निर्माण तथा प्रयोगशालाओं हेतु उपकरणों और पुस्तकों की खरीद इत्यादि से संबंधित हैं। ये परियोजनाएं विभिन्न चरणों में लागू की जा रही हैं। पूर्वोत्तर क्षेत्र में महत्वपूर्ण केंद्रीय संस्थान इस प्रकार हैं — आईआईटी, गुवाहाटी; एनईआरआईएसटी, ईटानगर; एनआईटी, सिल्चर; इग्नू के क्षेत्रीय केंद्र, असम, तेजपुर, मिजोरम, नगालैंड और एनईएचयू के केंद्रीय विश्वविद्यालय। एनएलसीपीआर के अंतर्गत जारी किए गए आवंटनों के अलावा माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा विभाग ने वर्ष 2003-04 के दौरान अपने बजट से एनएलसीपीआर के अंतर्गत दिए गए आश्वासनों को पूरा करने के मद के अधीन असम विश्वविद्यालय, तेजपुर; एनईएचयू तथा जेएनयू (एनईआर छात्रों के छात्रावास हेतु) में आधारभूत संरचनाएं तैयार करने की परियोजनाओं के लिए 40.42 करोड़ रूपये जारी किए।

बजट अनुमान 2005-06 में पूर्वोत्तर क्षेत्र में माध्यमिक और उच्च शिक्षा तथा प्राथमिक शिक्षा और साक्षरता के लिए क्रमश— 261.05 करोड़ और 1053 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है। इनमें से जनवरी 2006 तक माध्यमिक और उच्च शिक्षा विभाग तथा प्राथमिक शिक्षा और साक्षरता विभाग की विभिन्न योजनाओं के लिए क्रमश— 187.57 करोड़ और 501.60 करोड़ रूपये का व्यय प्रभावित किया जा चुका है।

केंद्रीय विद्यालय संगठन पूर्वोत्तर क्षेत्र में 86 विद्यालयों का संचालन कर रहा है। नवोदय विद्यालय समिति पूर्वोत्तर क्षेत्र के राज्यों के प्रत्येक जिले (78) में से प्रत्येक में एक नवोदय विद्यालय खोलने के अपने लक्ष्य को पाने का प्रयास कर रही है। पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए 76 जनवि स्वीकृत हो चुका है।

वर्ष 2003-04 के दौरान माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा विभाग पूर्वोत्तर राज्यों में अपने संशोधित बजट अनुमानों का 10 प्रतिशत से अधिक खर्च करने में सफल रहा। 276 भारत-2010

विश्वविद्यालय एवं उच्च शिक्षा[सम्पादन]

भारत में विश्वविद्यालयों एवं विश्वविद्यालय स्तर की संस्थाओं में 20 केंद्रीय विश्वविद्यालय, 215 राज्य विश्वविद्यालय, 100 समकक्ष विश्वविद्यालय, राज्य अधिनियम के अंतर्गत गठित 5 संस्थाएं तथा 13 राष्ट्रीय महत्व के संस्थान शामिल हैं। ये संस्थान 1800 महिला महाविद्यालयों सहित 17000 महाविद्यालयों के अतिरिक्त हैं।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग[सम्पादन]

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग 28 दिसंबर, 1953 को अस्तित्व में आया। संसद के एक अधिनियम द्वारा 1956 में इसे एक वैधानिक निकाय बना दिया गया। यह विश्वविद्यालय शिक्षा हेतु समन्वय, मानदंडों के निर्धारण और अनुरक्षण करने वाली राष्ट्रीय संस्था है। यह केंद्र एवं राज्य सरकारों तथा उच्च शिक्षा प्रदान करने वाली संस्थाओं के बीच समन्वयक संस्था के रूप में कार्य करता है। यह उच्च शिक्षा से जुड़े मामलों पर इन सरकारों और संस्थाओं की परामर्शदात्री संस्था के रूप में भी कार्य करता है। यूजीसी अधिनियम के खंड 12 में यह प्रावधान है कि आयोग विश्वविद्यालय शिक्षा के संवर्द्धन और समन्वयन हेतु तथा शिक्षण, परीक्षा एवं शोधन के क्षेत्र में संबंधित विश्वविद्यालयों के साथ विचार विमर्श करके जो कार्यवाही उचित समझे, कर सकता है। शिक्षण और अनुसंधान के साथ प्रसार को आयोग द्वारा शिक्षा के तीसरे आयाम के रूप में जोड़ा गया था। अपने कार्य को चलाने के उद्देश्य से आयोग अपने कोष से महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों को रखरखाव एवं विकास हेतु अनुदान आवंटन एवं वितरण करने, विश्वविद्यालय शिक्षा उन्नयन हेतु आवश्यक उपायों के लिए केंद्र सरकार, राज्य सरकारों तथा उच्च शिक्षा के संस्थानों को परामर्श देने और अधिनियम के अनुरूप नियम एवं प्रक्रिया निर्धारण करने का कार्य कर सकता है।

आयोग में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष तथा भारत सरकार द्वारा नियुक्त 10 अन्य सदस्य होते हैं। सचिव इसके कार्यकारी अध्यक्ष होते हैं।

आयोग के क्षेत्रीय कार्यालय हैदराबाद, पुणे, भोपाल, कोलकाता, गुवाहाटी तथा बंगलुरू में हैं। अभी तक गाजियाबाद में स्थित उत्तर क्षेत्रीय कार्यालय अब यूजीसी मुख्यालय से उत्तर क्षेत्रीय महाविद्यालय ब्यूरो (एनआरसीबी) के रूप में कार्य कर रहा है।

विश्वविद्यालय अनुदान आयेाग ने कुछ नए कदम उठाए हैं। जिनमें, उद्यमशीलता और ज्ञान आधारित उद्यमों को बढ़ावा देना, बौद्धिक संपदा अधिकारों का संरक्षण, भारतीय उच्च शिक्षा का संवर्द्धन, विदेशों में शिक्षा प्रशासकों के लिए प्रशिक्षण और विकास तथा व्यापक कंप्यूटरीकरण संबंधी उपाय शामिल हैं।

स्वायत्तशासी अनुसंधान संस्थान[सम्पादन]

वर्ष 1972 में गठित भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद् (आईसीएचआर) ऐतिहासिक शोध कार्यों की समीक्षा करती है और इतिहास के वैज्ञानिक लेखन को बढ़ावा देती है। नई दिल्ली स्थित यह परिषद शोध परियोजनाओं का संचालन, निजी शोधार्थियों द्वारा किए जा रहे शोध कार्यों को वित्तीय सहायता देना, फेलोशिप प्रदान करना, पुस्तक प्रकाशन एवं अनुवाद कार्य आदि का कार्य करती है।

भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद् (आईसीपीआर) अपने लखनऊ और नई दिल्ली स्थित कार्यालयों से वर्ष 1977 से कार्यरत है और दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में अनुसंधान कार्यक्रमों और परियोजनाओं की प्रगति की समीक्षा, उनका प्रायोजन और उनमें सहायता करने के साथ ही दर्शनशास्त्र और इससे संबद्ध विषयों में शोध हेतु निजी शोधार्थियों एवं संस्थाओं को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराती है। भारतीय उच्चतर अनुसंधान परिषद् (आईआईएएस) की स्थापना 1965 में शिमला में हुई थी। यह मानविकी, समाज विज्ञान और प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में उच्चतर शोध के लिए आवासीय सुविधायुक्त केंद्र है। यह ज्ञान के क्षेत्र से संलग्न विद्वानों का ऐसा समूह है, जो समकालीन प्रासंगिक प्रश्नों के वैचारिक विकास और उसके अंतरविषयी दृष्टिकोण पर दृष्टि रखते हैं।

नई दिल्ली स्थित भारतीय समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद् (आईसीएसएसआर) एक स्वायत्तशासी निकाय है जो सामाजिक विज्ञान में अनुसंधान के उन्नयन और समन्वयन का कार्य करता है। इसका प्रमुख कार्य समाज विज्ञान में शोध (अनुसंधान) की प्रगति की समीक्षा करना, सरकार या अन्य संगठनों/ व्यक्तियों को शोध संबंधी परामर्श देना, शोध कार्यक्रमों का प्रायोजन और समाज विज्ञान में अनुसंधान हेतु संस्थाओं और व्यक्तियों को वित्तीय सहायता प्रदान करना है।

राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषद् (एनसीआरआई) की स्थापना 1995 में केंद्र सरकार द्वारा पूर्ण रूप से वित्तपोषित स्वायत्तशायी संगठन के रूप में की गई थी। इसका कार्य महात्मा गांधी के क्रांतिकारी विचारों के अनुरूप ग्रामीण उच्चतर शिक्षा को बढ़ावा देना, गांधीवादी दर्शन के अनुसार शैक्षणिक संस्थानों और स्वायत्त एजेंसियों को सामाजिक एवं ग्रामीण विकास के उपकरण के रूप में बढ़ावा देना है।

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू)[सम्पादन]

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना सितंबर, 1985 में हुई थी। इसका दायित्व देश की शिक्षा व्यवस्था में मुक्त विश्वविद्यालयों को बढ़ावा देना एवं सुदूर शिक्षा प्रणाली प्रारंभ करने के साथ ही ऐसी प्रणाली में समन्वयन और मानकों का निर्धारण करना है। विश्वविद्यालय का प्रमुख उद्देश्य जनसंख्या के एक बड़े भाग तक उच्च शिक्षा की पहुंच का विस्तार करना, सतत् शिक्षा के कार्यक्रम आयोजित करना और विशेष लक्षित समूहों, जैसे-महिलाओं, शारीरिक रूप से विकलांग लोगों तथा पूर्वोत्तर और उड़ीसा के पिछड़े जिलों जैसे पिछड़े एवं पर्वतीय क्षेत्रों के निवासियों, मुख्यत— अनुसूचित जाति एवं जनजातीय बहुल क्षेत्रों में उच्च शिक्षा के विशेष कार्यक्रम प्रारंभ करना है।

इग्नू तृतीयक शिक्षा और प्रशिक्षण हेतु एक परीक्षणात्मक प्रणाली चलाता है। वह प्रणाली शिक्षा के तौर तरीकों तथा गति पाठ्यक्रमों को जोड़ने, पंजीकरण हेतु योग्यता प्रवेश की आयु और मूल्यांकन के तौर तरीकों के मामले में लचीली और खुली है। विश्वविद्यालय ने एकीकृत बहुमाध्यमी (मल्टीमीडिया) निर्देशन रणनीति अपनाई है, जिसमें प्रकाशित सामग्री, श्रव्य दृश्य पाठ्य सहायक सामग्री, शैक्षिक रेडियो तथा टेलीविजन, टेली कांफ्रेंसिंग और वीडियो कांफें्रसिंग शामिल हैं। यह देशभर में फैले अध्ययन केंद्रों के नेटवर्क के आमने सामने के परामर्श के माध्यम से होती है। यह समयबद्ध निरंतर मूल्यांकन के साथ- साथ सत्र के अंत में परीक्षाओं का आयोजन भी करता है।

इग्नू ने अपने कार्यक्रम 1987 में प्रारंभ किए और अभी तक 117 कार्यक्रम चलाए हैं, जिनमें पीएच.डी., स्नातकोत्तर, उच्च्तर/स्नातकोत्तर डिप्लोमा, डिप्लोमा कार्यक्रम तथा प्रमाण पत्र कार्यक्रम जैसे 900 कार्यक्रम शामिल हैं। वर्ष 2005 के दौरान 4.60 लाख से अधिक छात्रों का पंजीकरण विभिन्न अध्ययन कार्यक्रमों में किया गया।

विश्वविद्यालय ने देश के विभिन्न भागों में 60 क्षेत्रीय केंद्र, 7 उपक्षेत्रीय केंद्र एवं 1298 अध्ययन केंद्रों वाला एक व्यापक छात्र सहायता सेवाओं का नेटवर्क स्थापित किया है। इग्नू ने महिलाओं, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्तियों के लिए 269 अध्ययन केंद्रों की स्थापना की है। इग्नू ने 26 जनवरी, 2001 को एक शैक्षिक चैनल ज्ञानदर्शन की शुरूआत की थी, जो अब 24 घंटे का चैनल है तथा छह लगातार प्रसारण करने की इसकी क्षमता है। इग्नू ने नवंबर, 2001 में छात्रों को अतिरिक्त सुविधाएं देने के लिए एफ.एम. रेडियो नेटवर्क शुरू किया। इस समय 17 एफ. एम. रेडियो नेटवर्क चालू हालत में हैं जो कुछ समय बाद बढ़कर 40 हो जाएंगे। शिक्षित भारत बनाने हेतु दूरवर्ती शिक्षा के उन्नयन और विकास को बढ़ावा देने के लिए एक विशेष शैक्षिक चैनल एजुसेट की शुरूआत एक ऐतिहासिक अवसर है, जो लोगों को अच्छी शिक्षा देकर उनका सशक्तिकरण करेगा और जनाकांक्षाएं पूरी करेगा। वर्ष 2005 में विश्वविद्यालय ने देशभर में स्थित अपने क्षेत्रीय अध्ययन केंद्रों में एसआईटी के साथ 100 एजुसेट स्थापित किए। विश्वविद्यालय द्वारा एक वैधानिक निकाय के रूप में गठित दूरशिक्षा परिषद देश की दूरशिक्षा के समन्वयन और मानकों के निर्धारण करने वाली शीर्ष संस्था है।

अल्पसंख्यक शिक्षा[सम्पादन]

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 (1992 में संशोधित) में समानता और सामाजिक न्याय के हित में शैक्षिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यकों की शिक्षा पर विशेष बात कही गई है। संशोधित कार्ययोजना, 1992 के आधार पर केंद्र द्वारा प्रायोजित दो नई योजनाएं (1) शैक्षिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यकों के लिए गहन क्षेत्रीय कार्यक्रम, तथा (2) मदरसा शिक्षा आधुनिकीकरण वित्तीय सहायता योजना 1993-94 के दौरान प्रारंभ की गईं।

समय के साथ यह अनुभव किया गया कि इन सभी योजनाओं को एकीकृत रूप में क्रियान्वित करने की आवश्यकता है, जिससे इनका क्षेत्र व्यापक बन सके तथा अल्पसंख्यक शिक्षा कार्यक्रम अधिक प्रभावी एवं स्पष्ट रूप से लागू हो सके। दसवीं पंचवर्षीय योजना में इन दोनों योजनाओं को मिलाकर गहन क्षेत्रीय एवं मदरसा आधुनिकीकरण कार्यक्रम बना दिया गया। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्था आयोग 2004 का गठन संसद के एक अधिनियम द्वारा किया गया और जिसके तहत अल्पसंख्यक संस्थाएं अनुसूचित विश्वविद्यालय से स्वयं को संबद्ध कर सकती हैं। वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, असम विश्वविद्यालय, नगालैंड विश्वविद्यालय एवं मिजोरम विश्वविद्यालय इस सूची में आते हैं।

तकनीकी शिक्षा[सम्पादन]

देश में प्रौद्योगिक (तकनीकी) शिक्षा प्रणाली के दायरे में अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग), प्रौद्योगिकी, प्रबंधन, वस्तु विज्ञान (आर्किटेक्चर), फार्मेसी इत्यादि आते हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय स्नातक- पूर्व, स्नातकोत्तर और अनुसंधान (शोध) स्तर के कार्यक्रम चलाता है। केंद्रीय स्तर पर प्रौद्योगिक शिक्षा प्रणाली के अंग हैं — (अ) अखिल भारतीय प्रौद्योगिक (तकनीकी) शिक्षा विकास परिषद् (एआईसीटीई)- तकनीकी शिक्षा में उचित नियोजन और समन्वित विकास की देखरेख करने वाला निकाय, (ब) सात भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), (स) छह भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम), (द) भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) बंगलौर, (च) भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी एवं प्रबंधन संस्थान (आईआईआईटीएम) ग्वालियर, भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईआईटी) इलाहाबाद तथा इसका अमेठी स्थित विस्तार परिसर, एवं भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी डिजायन तथा निर्माण संस्थान, (आईआईआईडीएम) जबलपुर, (छ) 18 राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान 100 प्रतिशत सहायता पश्चात रीजनल इंजिनियरिंग कालेजों में परिवर्तित।

देश में भौतिक विज्ञान की शिक्षा और अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए नए कदम उठाए गए हैं। आईआईएस, बंगलुरू में प्रयोगशाला सहित अन्य ढांचागत सुविधाओं के सुधार के लिए इसे 100 करोड़ रूपये का विशेष अनुदान मंजूर किया गया। प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाहकार परिषद की सिफारिश पर कोलकाता और पुणे में दो भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थानों की स्थापना को मंजूरी प्रदान की गई है। इन संस्थानों में स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर विश्व स्तरीय अनुसंधान सुविधाओं के साथ भौतिक विज्ञान की शिक्षा दी जाएगी।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी शिक्षा में शोधात्मक उत्पादकता बढ़ाने तथा शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए सभी प्रौद्योगिकी संस्थानों को इलेक्ट्रॉनिक जर्नल्स और डाटाबेस सुलभ कराया जा रहा है। कम लागत के उद्देश्य से एआईसीटीई और भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी डाटा लाइब्रेरी (आईएनडीईएसटी) ने एक साथ मिलकर संयुक्त एआईसीटीई-आईएनडीईएसटी संकाय स्थापित करने के लिए कदम उठाया है।

दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान तकनीकी संस्थानों और कुल विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि हुई है। 10वीं योजना में माध्यमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा के लिए निर्धारित 13,825 करोड़ रूपये के योजना परिव्यय में से 4700 करोड़ रूपये का प्रावधान तकनीकी संस्थानों के 16 कार्यक्रमों के लिए किया गया।

इसमें से सबसे बड़ा हिस्सा 900 करोड़ रूपये विश्व बैंक सहायता प्राप्त-तकनीकी शिक्षा गुणवत्ता सुधार कार्यक्रम (टीईक्यूआईपी) के लिए दिया जाता है। एआईसीटीई के लिए 600 करोड़ और आई.आई.टी. के लिए 612 करोड़ रूपये का खर्च निर्धारित है। 2004-05 में तकनीकी शिक्षा के लिए वार्षिक योजना परिव्यय 750 करोड़ रूपये का था जिसमें से खर्च 615.85 करोड़ रूपये हुए। यूनेस्को के साथ सहयोग के लिए भारतीय आयोग (आईएनसीसीयू)

भारत 1946 से संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) का सदस्य रहा है। सरकार ने यूनेस्को के साथ सहयोग के लिए 1949 में एक अंतरिम भारतीय राष्ट्रीय आयोग (आईएनसीसीयू) का गठन किया, जिसे 1951 में स्थायी स्वरूप दिया गया। आयोग में शिक्षा, प्राकृतिक विज्ञान, समाज विज्ञान, संस्कृति एवं संचार से संबंधित पांच उप-आयोग हैं।

आयोग का प्रमुख उद्देश्य यूनेस्को के अधिकार क्षेत्र में आने वाले विषयों पर सरकार को परामर्श देना एवं यूनेस्को के कार्यों, विशेषकर कार्यक्रमों की तैयारी और इनमें क्रियान्वयन में भूमिका निभाना है। मानव संसाधन विकास मंत्री इस आयोग के अध्यक्ष होते हैं तथा केंद्र सरकार में माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा विभाग का सचिव इस आयोग का महासचिव होता है। आयोग की सदस्यता दो प्रकार की होती है-(1) व्यक्तिगत और (2) सांस्थानिक। ये पांच उप-आयोगों में बंटे होते हैं। राष्ट्रीय आयोग यूनेस्को के कार्यक्षेत्र में आने वाले सभी मामलों में राष्ट्रीय स्तर पर सलाहकार संयोजक और संपर्क एजेंसी के रूप में कार्य करता है। यह क्षेत्र के राष्ट्रीय आयोगों और यूनेस्को के क्षेत्रीय आयोगों से शिक्षा, विज्ञान, संस्कृति और सूचना के क्षेत्र में क्षेत्रीय, उप-क्षेत्रीय और द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने के लिए समझौते भी करता है।

पुस्तक प्रोत्साहन[सम्पादन]

नेशनल बुक ट्रस्ट, (भारत) मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्तशासी संगठन है जिसकी स्थापना 1957 में हुई थी। इसका कार्य (i) प्रकाशन, (ii) पुस्तक और पुस्तक पठन को प्रोत्साहन (iii) विदेशों में भारतीय पुस्तकों को प्रोत्साहन, (i1) लेखकों और प्रकाशकों को सहायता, तथा (1) बाल साहित्य को बढ़ावा देना है। यह विभिन्न शृंखलाओं के अंतर्गत हिंदी, अंग्रेजी तथा अन्य प्रमुख भारतीय भाषाओं तथा ब्रेल लिपि में पुस्तकें प्रकाशित करता है। यह हर दूसरे वर्ष नई दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले का आयोजन करता है, जो एशिया और अफ्रीका का सबसे बड़ा पुस्तक मेला है। ट्रस्ट हर वर्ष 14 से 20 नवंबर तक “राष्ट्रीय पुस्तक सप्ताह” भी मनाता है।

17वां नई दिल्ली पुस्तक मेला 27 जनवरी से 4 फरवरी 2006 तक आयोजित किया गया। 18 देशों के 37 प्रकाशकों सहित कुल 1300 प्रतिभागियों ने इसमें हिस्सा लिया। भाग लेने वालों में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.), विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) और यूरोपीय संघ (ई.यू.) भी शामिल थे।

कॉपीराइट[सम्पादन]

कॉपीराइट अधिनियम, 1957 की निगरानी का उत्तरदायित्व मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पास है। यह कानून देश में बौद्धिक अधिकार संपदा (आईपीआर) से जुड़े कई अधिनियमों में से एक है। कॉपीराइट कार्यालय की स्थापना जनवरी 1958 में विभिन्न रचनात्मक कार्यों के वर्गों के पंजीकरण हेतु की गई थी। कॉपीराइट अधिनियम के अनुच्छेद 33 के अनुसार, कॉपीराइट संबंधी कार्य करने के लिए सरकार द्वारा कॉपीराइट समितियों का गठन भी किया जाता है। प्रौद्योगिकीय बदलावों को ध्यान में रखते हुए भारतीय कॉपीराइट अधिनियम 1957 में 1994 में व्यापक संशोधन किए गए। संशोधित अधिनियम 10 मई 1995 से लागू हुआ। सन 1999 में इस अधिनियम में आगे भी संशोधन किया गया और यह नए रूप में 15 जनवरी 2000 से प्रभावी हुआ। कॉपीराइट अधिनियम 1957 की धारा 11 के प्रावधानों के अंतर्गत भारत सरकार ने एक बोर्ड का गठन किया है, जिसे कॉपीराइट बोर्ड कहा गया है। यह बोर्ड एक अर्द्ध न्यायिक निकाय है, जिसमें एक अध्यक्ष के अतिरिक्त कम से कम दो एवं अधिकतम 14 सदस्य होते हैं। अध्यक्ष एवं सदस्यों की नियुक्ति पांच वर्षों के लिए की जाती है। कॉपीराइट बोर्ड 22 फरवरी 2001 से पांच वर्षों के लिए पुनगर्ठित किया गया है। यह बोर्ड कॉपीराइट पंजीकरण में सुधार, कॉपीराइट प्रदान करने से जुड़े विवादों और जनता से वापस ली गई रचनाओं को लाइसेंस प्रदान करने से संबंधित मामलों की सुनवाई करता है।

भारत में कॉपीराइट प्रवर्तन[सम्पादन]

भारतीय कॉपीराइट अधिनियम 1957 में कॉपीराइट कानून का उल्लंघन करने के लिए दंड का प्रावधान है और यह पुलिस को आवश्यक कार्रवाई करने हेतु प्राधिकृत करता है। वस्तुत— इस कानून को लागू करना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में अनधिकृत प्रतियां बनाने (पाइरेसी) पर रोक लगाने के लिए कॉपीराइट कानून में सुधार लाने हेतु केंद्र सरकार ने कई कदम उठाए हैं। इन कदमों में कॉपीराइट प्रवर्तन सलाहकार परिषद (सीईएसी) का गठन भी शामिल है, जिसमें सभी संबंधित विभागों और उद्योग जगत के प्रतिनिधियों को सदस्य बनाया जाता है। यह परिषद कॉपीराइट कानून के पालन और नकल को रोकने से संबंधित प्रावधानों की समीक्षा करती है। केंद्र सरकार ने इस संबंध में कई कदम उठाए हैं और राज्य सरकारों को (1) कॉपीराइट कानून लागू कराने के लिए राज्य प्रशासन में विशेष सेल का गठन, (2) उद्योग जगत और कानून लागू कराने वाली एजेंसियों के बीच समन्वय को बढ़ावा देने के लिए राज्यों में नोडल अधिकारियों की नियुक्ति, (3) कॉपीराइट कानून के बारे में जनता को जागरूक बनाने के लिए सेमिनार/कार्यशाला आदि का आयोजन, (4) कॉपीराइट समितियों द्वारा सामूहिक प्रशासन तथा भारत सरकार के नियम (कार्य आवंटन) 1961 में ताजा संशोधन के अनुसार डब्ल्यूआईपीओ के साथ समन्वय का काम वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के औद्योगिक नीति और प्रोत्साहन विभाग को हस्तांतरित कर दिया गया है।

डब्ल्यूआईपीओ के साथ सहयोग[सम्पादन]

भारत विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (डब्ल्यूआईपीओ) का सदस्य है, जो इस क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र संघ की विशिष्ट एजेंसी है। यह एजेंसी कॉपीराइट और बौद्धिक संपदा अधिकार के मामलों का निपटान करती है एवं संबंधित विचार-विमर्श में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत सरकार (कार्य आवंटन) नियम 1961 में किये गये संशोधन के अनुसार इस संगठन को वाणिíय और उद्योग के औद्योगिक नीति और संवर्धन विभाग को दे दिया गया है।

सेवाओं के व्यवसाय पर आम समझौता (जीएटीएस)[सम्पादन]

शुल्क एवं व्यापार पर आम समझौता (जीएटीएस) के अंतिम दौर के बाद 1994 में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के अंतर्गत व्यापार से संबंधित अनेक बहुपक्षीय समझौते किए गए। डब्ल्यूटीओ पहली जनवरी 1995 को अस्तित्व में आया। उससे पहले सेवाओं पर किसी तरह का बहुपक्षीय समझौता नहीं होता था। वर्ष 1996 में अगले दौर की वार्ताओं के बाद सेवाओं के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर एक व्यापक समझौता हुआ। इस समझौते का उद्देश्य सेवाओं के व्यापार का प्रगतिशील उदारीकरण है। इसके अंतर्गत सेवाओं के क्षेत्र में अधिक खुला बाजार बनाना था, ठीक उसी तरह जिस तरह गैट ने वस्तुओं के व्यापार के क्षेत्र में किया था। शिक्षा उन बारह सेवाओं में से एक है, जिन पर सेवाओं के व्यापार पर आम समझौता (जीएटीएस) के तहत समझौता किया जाना है। समझौता वार्ता के उद्देश्य से शिक्षा को पांच क्षेणियों-उच्च शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा, प्राथमिक शिक्षा, वयस्क शिक्षा एवं अन्य शिक्षा में बांटा गया। जीएटीएस शिक्षा सेवा समेत सेवाओं के व्यापार के क्षेत्र में चार तरह के प्रस्ताव करता है-(क) सीमापार आपूर्ति सेवा में दूर शिक्षा अथवा इंटरनेट के माध्यम से उपलब्ध कराया जाने वाला किसी भी प्रकार का पाठ्यक्रम, किसी भी प्रकार की परीक्षण सेवा तथा शैक्षणिक सामग्री, जो राष्ट्रीय सीमाओं के पार जा सके, (ख) विदेशों में खपत सेवा में मुख्यत— विदेश जाने वाले छात्र शामिल हैं और यह शैक्षणिक सेवाओं के व्यापार का सामान्य उदाहरण है, (ग) व्यावसायिक उपस्थिति का आशय किसी मेजबान देश में विदेशी निवेशकों की वास्तविक उपस्थिति है। इसमें वे विदेशी विश्वविद्यालय शामिल हैं, जो दूसरे देश में पाठ्यक्रम उपलब्ध कराते हैं या संस्थान की स्थापना कर देते हैं, तथा (घ) ऐसे सक्षम व्यक्तियों की उपस्थिति, जो शैक्षिक सेवाएं प्रदान करने के लिए दूसरे देशों की यात्रा करने में समर्थ हैं।

शिक्षा सेवाओं के तहत भारतीय संशोधित प्रस्तावों में उच्च शिक्षा क्षेत्र के लिए कई शर्तें रखी गई हैं। इनके अनुसार उच्च शिक्षा संस्थान को सक्षम अधिकार के माध्यम से शुल्क निर्धारित करने की अनुमति है लेकिन यह शुल्क कैपिटेशन शुल्क की तरह मुनाफे पर आधारित नहीं होना चाहिए। इसके अलावा सभी उच्च शिक्षा सेवाएं ऐसे नए नियमों तथा पहले से मौजूद नियमों के अनुपालन के लिए बाध्य होंगी।