संक्षिप्त भौतिकी

विकिपुस्तक से

भौतिक विज्ञान (भौतिकी) विज्ञान की वह शाखा है, जिसमें ऊर्जा के विभिन्न स्वरूपों तथा द्रव्य से उसकी अन्योन्य क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।

भौतिक विज्ञान की मुख्य शाखाएँ -

1. यांत्रिकी

2. ऊष्मा

3. ध्वनि

4. प्रकाश

5. चुम्बकत्व

6. विद्युत

7. आधुनिक भौतिकी

8. परमाणु भौतिकी

9. नाभिकीय भौतिकी

10. विकिरण भौतिकी

11. ऊर्जा भौतिकी

12. ठोस अवस्था भौतिकी

यांत्रिकी (Mechanics)[सम्पादन]

यांत्रिकी भौतिक विज्ञान की वह शाखा है जिसमें पिण्डों पर बल लगाने या विस्थापित करने पर उनके व्यवहार का अध्ययन करती है।

मात्रक (unit)

मात्रक दो प्रकार के होते हैं- मूल मात्रक (fundamental unit) और व्युतपन्न मात्रक (derived unit). S.I. पद्धति में मूल मात्रक की संख्या 7 है, जिसे नीचे की सारणी में दिया गया है:

भौतिक राशि S.I. के मूल मात्रक संकेत
लंबाई मीटर(meter) m (मी)
द्रव्यमान किलोग्राम (kilogram) Kg
समय सेकंड (second) s
ताप केल्विन (kelvin) K
विद्युत धारा ऐम्प‍ियर (ampere) A
ज्योति तीव्रता कैंडेला (candela) cd
पदार्थ का परिमाण मोल (mole) mol

(1) वे सभी मात्रक जो मूल मात्रकों की सहायता से व्यक्त किये जाते है, व्युतपन्न मात्रक कहलाते है।

(2) बहुत लंबी दूरियों को मापने के लिए प्रकाश-वर्ष प्रयोग किया जाता है अथार्त् प्रकाश-वर्ष दूरी का मात्रक है।

1 प्रकाश वर्ष = 9.46 x 10^15 मीटर

(3) दूरी मापने की सबसे बड़ी इकाई पारसेक है। 1 पारसेक = 3.26 प्रकाश वर्ष = 3.08 x 10^16 मीटर

(4) बल की C.G.S. पद्धति में मात्रक डाइन है और S.I. पद्धति में मात्रक न्यूटन है। 1 न्यूटन = 105 डाइन

(5) कार्य की C.G.S. पद्धति में मात्रक अर्ग है एवं S.I। पद्धति में मात्रक जूल है। 1 जूल =107 अर्ग

मात्रक

किसी भौतिक राशि को व्यक्त करने के लिए उसी प्रकार की राशि के मात्रक की आवश्यकता होती है। प्रत्येक राशि की माप के लिए उसी राशि को कोई मानक मान चुन लिया जाता है। इस मानक को मात्रक कहते हैं।

गति (motion)[सम्पादन]

अदिश राशि (scalar quantity ): वैसी भौतिक राशि, जिनमें केवल परिमाण होता है। दिशा नहीं, उसे अदिश राशि कहा जाता है: जैसे - द्रव्यमान, चाल , आयतन, कार्य , समय, ऊर्जा आदि।

नोट: विद्युत धारा (current), ताप (temprature), दाब (pressure) ये सभी अदिश राशियां हैं।

सदिश राशि (vector quantity): वैसी भौतिक राशि जिनमें परिमाण के साथ-साथ दिशा भी रहती है और जो योग के निश्चित नियमों के अनुसार जोड़ी जाती हैं, उन्हें संदिश राशि कहते हैं: जैसे- वेग, विस्थपान, बल, त्वरण आदि।

दूरी (distance): किसी दिए गए समयान्तराल में वस्तु द्वारा तय किए गए मार्ग की लंबाई को दूरी कहते हैं। यह एक अदिश राशि है। यह सदैव धनात्मक (+ve) होती हैं।

विस्थापन (displacement): दो बिन्दुओं के बीच की सीधी दूरी को विस्थापन कहते हैं। यह सदिश राशि है। इसका S.I. मात्रक मीटर है। विस्थापन धनात्मक, ऋणात्मक और शून्य कुछ भी हो सकता है।

चाल (speed): किसी वस्तु के विस्थापन की दर को चाल कहते हैं। अथार्त चाल = दूरी / समय यह एक अदिश राशि है। इसका S.I. मात्रक मी./से. है।

वेग (velocity ): किसी वस्तु के विस्थापन की दर को या एक निश्चित दिशा में प्रति सेकंड वस्तु द्वारा तय की दूरी को वेग कहते हैं। यह एक सदिश राशि है। इसका S.I. मात्रक मी./से. है।

त्वरण (acceleration): किसी वस्तु के वेग में परिवर्तन की दर को त्वरण कहते हैं। इसका S.I. मात्रक मी/से^ 2 है। यदि समय के साथ वस्तु का वेग घटता है तो त्वरण ऋणात्मक होता है, जिसे मंदन (retardation ) कहते हैं।

वृत्तीय गति (circular motion ) - जब कोई वस्तु किसी वृताकार मार्ग पर गति करती है, तो उसकी गति को वृत्तीय गति कहते हैं। यदि वह एक समान चाल से गति करती है तो उसकी गति को एक समान वृत्तीय गति कहते हैं। समरूप वृत्तीय गति एक त्वरित गति होती है क्योंकि वेग की दिशा प्रत्येक बिंदु पर बदल जाती है।

कोणीय वेग (circular and motion) वृताकार मार्ग पर गतिशील कण को वृत के केंद्र से मिलाने वाली रेखा एक सेकंड में जितने कोण से घूम जाती है, उसे उस कण का कोणीय वेग कहते हैं। इसे अकसर ω (ओमेगा) से प्रकट किया जाता हैं। यानी कि ω = Ѳ / t . यदि कण 1 सेकंड में n चक्कर लगाता हैं तो, ω = 2π n। (क्योंकि 1 चक्कर में कण 2π (360 डिग्री) रेडियन से घूम जाती है) अब यदि वृताकार मार्ग की त्रिज्या r है और कण 1 सेकंड में n चक्कर लगाता है तो उसके द्वारा एक सेकंड में चली गई दूरी = वृत्त की परिधि x n = 2 πrn, यही उसकी रेखीय चाल (linear speed) होगी।

यानी कि v = 2 πrn
v = 2π n x r = ω x r ( ω =2 π n )
रेखीय चाल = कोणीय चाल x त्रिज्या

न्यूटन का गति-नियम (newton 's laws of motion ): भौतिकी के पिता न्यूटन ने सन 1686 ई० में अपनी किताब "प्रिन्सिपिया" में गति के पहले नियम को प्रतिपादित किया था।

न्यूटन का पहला गति-नियम (newton's first law of motion ): यदि कोई वस्तु विराम अवस्था में है तो वह विराम अवस्था में रहेगी या यदि वह एक समान चाल से सीधी रेखा में चल रही है, तो वैसी ही चलती रहेगी, जब तक उस पर कोई बाहरी बल लगाकर उसकी वर्तमान अवस्था में परिवर्तन न किया जाए। प्रथम नियम को गैलिलियो का नियम या जड़त्व का नियम भी कहते हैं। बाह्य बल के आभाव में किसी वस्तु की अपनी विरामावस्था या समान गति की अवस्था को बनाए रखने की प्रवत्ति को जड़त्व कहते हैं। प्रथम नियम से बल की परिभाषा मिलती है।

बल की परिभाषा: बल वह बाह्य कारक है जो किसी वास्तु की प्रारम्भिक अवस्था में परिवर्तन करता है या परिवर्तन करने की चेष्टा करता है। बल एक सदिश राशि है। इसका S.I. मात्रक न्यूटन है।

जड़त्व के कुछ उदाहरण
(i) ठहरी हुई मोटर या रेलगाड़ी के अचानक चल पड़ने पर उसमे बैठे यात्री पीछे की ओर झुक जाते हैं।
(ii) चलती हुई मोटर कार के अचानक रुकने पर उसमें बैठे यात्री आगे की ओर झुक जाते हैं।
(iii) कंबल को हाथ से पकड़ कर डंडे से पीटने पर धूल के कण झड़कर गिर पड़ते हैं।

संवेग: किसी वस्तु के द्रव्यमान तथा वेग के गुणनफल को उस वस्तु का संवेग कहते हैं। अथार्त् संवेग = द्रव्यमान × वेग । यह एक सदिश राशि है। इसका S.I. मात्रक किग्राम x मी./से. है।

न्यूटन का द्वितीय गति नियम ( newton's second law of motion)
किसी वस्तु के संवेग में परिवर्तन की दर उस वस्तु पर आरोपित बल के समानुपाती होती है तथा संवेग परिवर्तन, बल की दिशा में होता हैं। अब यदि आरोपित बल F, बल की दिशा में उत्पन्न त्वरण a एवं वस्तु का द्रव्यमान m हो, तो न्यूटन के गति के दूसरे नियम से f = ma यानी कि न्यूटन के दूसरे नियम से बल का व्यंजक प्राप्त होता है।
नोट: प्रथम नियम दूसरे नियम का ही अंग हैं।
न्यूटन का तृतीय गति नियम (newton's third law of motion)
प्रत्येक क्रिया के बराबर, परन्तु विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया होती है। उदाहरण:
(i) बंदूक से गोली चलाने पर, चलाने वाले को पीछे की ओर धक्का लगना
(ii) नाव से किनारे पर कूदने पर पीछे की ओर हट जाना
(iii): रॉकेट को उड़ाने में.

संवेग संरक्षण का सिद्धांत: यदि कणों के किसी समूह या निकाय पर कोई बाह्य बल नहीं लग रहा हो, तो उस निकाय का कुछ संवेग नियत रहता है। यानी कि टक्कर के पहले और बाद का संवेग बराबर होता है।

आवेग (impulse): जब कोई बड़ा बल किसी वस्तु पर थोड़े समय के लिए कार्य करता है, तो बल तथा समय अंतराल के गुणनफल को उस बल का आवेग कहते हैं।

आवेग = बल x समय अंतराल = संवेग में परिवर्तन

आवेग एक सदिश राशि है , जिसका मात्रक न्यूटन सेकंड (Ns) है, तथा इसकी दिशा वही होती है, जो बल की होती है।

अभिकेंद्रीय बल (centripetal force): जब कोई वस्तु किसी वृत्ताकार मार्ग पर चलती है, तो उस पर एक बल वृत्त के केंद्र की ओर कार्य करता है। इस बल को अभिकेंद्रीय बल कहते हैं। इस बल के अभाव में वस्तु वृत्ताकार मार्ग पर नही चल सकती है। यदि कोई m द्रव्यमान का पिंड v चाल से r त्रिज्या के वृत्तीय मार्ग पर चल है, तो उस पर कार्यकारी वृत्त के केंद्र की ओर आवश्यक अभिकेंद्रीय बल f = m v^2/ r होता है।

अपकेंद्रीय बल (centrifugal force): अजड़त्वीय फ्रेम (non-inertial frame) में न्यूटन के नियमों को लागू करने के लिए कुछ एसे बलों की कल्पना करनी होती है, जिन्हें परिवेश में किसी पिंड से संबंधित नही किया जा सकता। ये बल छद्म बल या जड़त्वीय बल कहलाते हैं। अपकेंद्रीय बल एक ऐसा ही जड़त्वीय बल या छद्म बल है। इसकी दिशा अभिकेंद्री बल के विपरीत दिशा में होती है। कपडा सूखाने की मशीन, दूध से मक्खन निकालने की मशीन आदि अपकेंद्रीय बल के सिद्धांत पर कार्य करती हैं।

नोट: वृत्तीय पथ पर गतिमान वस्तु पर कार्य करने वाले अभिकेंद्रीय बल की प्रतिक्रिया होती है, जैसे "मौत के कुएं " में कुएं की दीवार पर मोटर साइकिल अंदर की ओर क्रिया बल लगाती है, जबकि इसका प्रतिक्रिया बल मोटर साइकिल द्वारा कुएं की दीवार पर बाहर की ओर कार्य करता हैं। कभी-कभी बाहर की ओर कार्य करने वाले इस प्रतिक्रिया बल को भ्रमवश अपकेंद्रीय बल कह दिया जाता है, जो कि बिल्कुल गलत है।

बल-आघूर्ण (moment of force): बल द्वारा पिंड को एक अक्ष के परितः घुमाने की प्रवत्ति को बल-आघूर्ण कहते हैं। किसी अक्ष के परितः एक बल का बल-आघूर्ण उस बल के परिमाण तथा अक्ष से बल की क्रिया रेखा के बीच की लंबवत दूरी के गुणनफल के बराबर होता है। अर्थात् कि बल-आघूर्ण (T ) = बल x आघूर्ण भुजा । यह एक सदिश राशि है। इसका मात्रक न्यूटन मी. है।

सरल मशीन (simple machines): यह बल आघूर्ण बल के सिद्धांत पर कार्य करती है। सरल मशीन एक ऐसे युक्ति है, जिसमें किसी सुविधाजनक बिंदु पर बल लगाकर, किसी अन्य बिंदु पर रखे हुए भार को उठाया जाता है। जैसे उत्तोलक, घिरनी, आनत तल, स्क्रू-जैक आदि।

उत्तोलक (lever): उत्तोलक एक सीधी या टेढ़ी छड़ होती है, जो किसी निश्चित बिंदु के चारों ओर स्वतंत्रतापूर्वक घूम सकती है। उत्तोलक में 3 बिंदु होते हैं:

(i) आलंब (fulcrum): जिस निश्चित बिंदु के चारो ओर उत्तोलक की छड़ स्वतंत्रतापूर्वक घूम सकती है उसे आलंब कहते हैं।
(ii) आयास (effort): उत्तोलक को उपयोग में लाने के लिए उस पर जो बल लगाया जाता है, उसे आयास कहते हैं।
(iii) भार (load): उत्तोलक के द्वारा जो बोझ उठाया जाता हैं, अथवा रुकावट हटाई जाती है, उसे भार कहते हैं।

उत्तोलक के प्रकार: उत्तोलक 3 प्रकार के होते हैं:

(i) प्रथम श्रेणी का उत्तोलक: इस वर्ग के उत्तोलक में आलंब F, आयास E तथा भार W के बीच में स्थित होता हैं। इस प्रकार के उत्तोलकों में यांत्रिक लाभ 1 से अधिक, 1 के बराबर तथा 1 से कम भी हो सकता है। इसके उदाहरण है: कैंची, पिलाश, शीशा, झूला, साइकिल का ब्रेक, हैंड पंप आदि।

(ii) द्वितीय श्रेणी का उत्तोलक: इस वर्ग के उत्तोलक में आलंब F तथा आयाम E के बीच भार w होता है। इस प्रकार के उत्तोलकों में यांत्रिक लाभ सदैव एक से अधिक होता है। इसके उदाहरण सरौता, नींबू निचोड़ने की मशीन, एक पहिए की कूड़ा ढोने की गाड़ी आदि।

(iii) तृतींय श्रेणी का उत्तोलक: इस वर्ग के उत्तोलक में आलंब F भार W के बीच में आयास E होता है। उदाहरण चिमटा, किसान का हल, मनुष्य का हाथ.

गुरुत्व केंद्र (center of gravity): किसी वस्तु का गुरुत्व केंद्र, वह बिंदु है जहां वस्तु का समस्त भार कार्य करता है। अतः गुरुत्वकेंद्र पर वस्तु के भार के बराबर उपरिमुखी बल लगाकर हम वस्तु को संतुलित करते हैं, चाहे वह जिस स्थि‍ति में रखी जाएं। वस्तु का भार गुरत्वकेंद्र से ठीक नीचे की ओर कार्य करता है। अत: गुरुत्व केंद्र पर वस्तु के भार के बराबर ऊपरीमुखी बल लगाकर हम वस्तु को संतुलित रख सकते हैं।

संतुलन के प्रकार: संतुलन 3 प्रकार के होते हैं- स्थायी, अस्थायी तथा उदासीन।

(i) स्थाई संतुलन (stable equilibrium): यदि किसी वस्तु को उसकी संतुलन स्थिति से थोड़ा विस्थापित किया जाए और बल हटाते ही पुनः वह पूर्व स्थिति में आ जाए तो ऐसे संतुलन को स्थाई संतुलन कहते हैं।
(ii) अस्थाई संतुलन (unstable equilibrium): यदि किसी वस्तु को उसकी संतुलन स्थिति से थोड़ा सा विस्थापित करके छोड़ने पर वह संतुलन की अवस्था में न आए तो ऐसे संतुलन को अस्थाई संतुलन कहते हैं।
(iii) उदासीन संतुलन (neutral equilibrium): यदि वस्तु को संतुलन की स्थिति से थोड़ा सा विस्थापित करने पर उसका गुरुत्वकेंद्र (G) उसी ऊंचाई पर बना रहता हैं तथा छोड़ देने पर वस्तु अपनी नई स्थिति में संतुलित हो जाती है, तो उसका संतुलन उदसीन कहलाता है।

स्थायी संतुलन की शर्तें: किसी वस्तु के स्थाई संतुलन के लिए दो शर्तों का पूरा होना जरूरी है:

(i) वस्तु का गुरुत्व केंद्र अधिकाधिक नीचे होना चाहिए।
(ii) गुरुत्व केंद्र से होकर जाने वाली ऊर्ध्वाधर रेखा वस्तु के आधार से गुजरनी चाहिए।

गुरुत्वाकर्षण (Gravitation)[सम्पादन]

न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम (newton's law of gravitation): किन्हीं दो पिंडो के बीच कार्य करने वाला आकर्षण बल पिंडो के द्रव्यमानों के गुणनफल के अनुक्रमानुपाती तथा उनके बीच की दूरी के वर्ग के व्युत्क्रमानुपाती होता है।

माना दो पिंड जिनका द्रव्यमान m1 एवं m2 है, एक दूसरे से R दूरी पर स्थ‍ित है, तो न्यूटन के नियम के अनुसार उनके बीच लगने वाला आकर्षण बल, F = G m1m2/R^2 होता है। जहां G एक नियतांक है, जिसे सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण नियतांक कहते हैं और जिसका मान 6.67 X 10^-11 Nm^2 / kg^2 होता है।

गुरुत्व (gravity): न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के अनुसार दो पिंडो के बीच एक आकर्षण बल कार्य करता है। यदि इनमें से एक पिंड पृथ्वी हो तो इस आकर्षण बल को गुरुत्व कहते हैं। यानी कि, गुरुत्व वह आकर्षण बल है, जिससे पृथ्वी किसी वस्तु को अपने केंद्र की ओर खींचती है। इस बल के कारण जो त्वरण उत्पन्न होती है, उसे गुरुत्व जनित त्वरण (g) कहते हैं, जिनका मान 9.8 m/s^2 होता है। गुरुत्व जनित त्वरण (g) वस्तु के रूप, आकार, द्रव्यमान आदि पर निर्भर नहीं करता है।

g के मान में परिवर्तन

i) पृथ्वी की सतह से ऊपर या नीचे जाने पर g का मान घटता है।

ii) 'g' का मान महत्तम पृथ्वी के ध्रुव (pole) पर होता है।

iii) 'g' का मान न्यूनतम विषुवत रेखा (equator) पर होता है।

iv) पृथ्वी की घूर्णन गति बढ़ने पर 'g' का मान कम हो जाता है।

v) पृथ्वी की घूर्णन गति घटने पर 'g' का मान बढ़ जाता है।

Vi) पृथ्वी के केन्द्र पर 'g' का मान 0 होता है।

नोट: यदि पृथ्वी अपनी वर्तमान कोणीय चाल से 17 गुनी अधिक चाल से घूमने लगे तो भूमध्य रेखा पर रखी हुई वस्तु का भार शून्य हो जाएगा.

लिफ्ट में पिंड का भार

i) जब लिफ्ट ऊपर की ओर जाती है तो लिफ्ट में स्थित पिंड का भार बढ़ा हुआ प्रतीत होता है।

ii) जब लिफ्ट नीचे की ओर जाती है तो लिफ्ट में स्थित पिंड का भार घटा हुआ प्रतीत होता है।

iii) जब लिफ्ट एक समान वेग से ऊपर या नीचे गति करती है, तो लिफ्ट में स्थित पिंड के भार में कोई परिवर्तन प्रतीत नही होता.

iv) यदि नीचे उतरते समय लिफ्ट की डोरी टूट जाए तो वह मुक्त पिंड की भांति नीचे गिरती है। ऐसी स्थिति में लिफ्ट में स्थित पिंड का भार शून्य होता है। यही भारहीनता की स्थति है।

v) यदि नीचे उतरते समय लिफ्ट का त्वरण गुरुत्वीय त्वरण से अधिक हो तो लिफ्ट में स्थित पिंड उसकी फर्श से उठकर उसकी छत से जा लगेगा.

ग्रहों की गति संबंधित केप्लर का नियम

i) प्रत्येक ग्रह सूर्य के चारों ओर दीर्घवृत्ताकार (eliiptical) कक्षा में परिक्रमा करता है तथा सूर्य ग्रह की कक्षा के एक फोकस बिंदु पर स्थति होता है।

ii) प्रत्येक ग्रह का क्षेत्रीय वेग (areal velocity) नियत रहता है। इसका प्रभाव यह होता है कि जब ग्रह सूर्य के निकट होता है, तो उसका वेग बढ़ जाता है और जब वह दूर होता है, तो उसका वेग कम हो जाता है।

iii) सूर्य के चारों ओर ग्रह एक चक्कर जितने समय में लगाता है, उसे उसका परिक्रमण काल (T) कहते है। परिक्रमण काल का वर्ग (T^2) ग्रह की सूर्य से औसत दूरी (r) के घन (r^3) के अनुक्रमानुपाती होता है। यानी कि T^2 ∝ r^3

अर्थात् सूर्य से अधिक दूर के ग्रहों का परिक्रमण काल भी अधिक होता है। उदाहरण: सूर्य के निकटतम ग्रह बुध का परिक्रमण काल 88 दिन है, जबकि दूरस्थ ग्रह वरुण (neptune) का परिक्रमण काल 165 वर्ष है।

नोट: आईएयु (I.A.U.) ने यम (PLUTO) के ग्रह की श्रेणी से निकाल दिया है इसलिए अब दूरस्थ ग्रह वरुण है।

उपग्रह (satellite): किसी ग्रह के चारों ओर परिक्रमा करने वाले पिंड को उस ग्रह का उपग्रह कहते हैं। जैसे चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है।

उपग्रह की कक्षीय चाल

i) उपग्रह की कक्षीय चाल उसकी पृथ्वी तल से उंचाई पर निर्भर करती है। उपग्रह पृथ्वी तल से जितना दूर होगा, उतनी ही उसकी चल कम होगी।

ii) उपग्रह की कक्षीय चाल उसके द्रव्यमान पर निर्भर नहीं करती है। एक ही त्रिज्या के कक्षा में भिन्न-भिन्न द्रव्यमानों के उपग्रहों की चाल समान होगी।

नोट: पृथ्वी तल के अति निकट चक्कर लगाने वाले उपग्रह की कक्षीय चाल लगभग 8 किमी./ सेकंड होती है।

उपग्रह का परिक्रमण काल (orbital speed of a satellite): उपग्रह अपनी कक्षा में पृथ्वी का एक चक्कर जितने समय में लगाता है, उसे उसका परिक्रमण काल कहते हैं

अतः परिक्रमण काल = कक्षा की परिधि/कक्षीय चाल

i) उपग्रह का परिक्रमण काल भी केवल उसकी पृथ्वी तल से ऊंचाई पर निर्भर करता है और उपग्रह जितना दूर होगा उतना ही अधिक उसका परिक्रमण काल होता है।

ii) उपग्रह का परिक्रमण काल उसके द्रव्यमान पर निर्भर नही करता है।

नोट: पृथ्वी के अति निकट चक्कर लगाने वाले उपग्रह पर परिक्रमण काल 1 घंटा 24 मिनट होता है।

भू-स्थायी उपग्रह (geo-stationary satellite): ऐसा उपग्रह जो पृथ्वी के अक्ष के लंबवत तल में पश्चिम से पूर्व की ओर पृथ्वी की परिक्रमा करता है तथा जिसका परिक्रमण काल पृथ्वी के परिक्रमण काल (24 घंटे) के बराबर होता है, भू-स्थायी उपग्रह कहलाता है। यह उपग्रह पृथ्वी तल से लगभग 36000 किमी. की ऊंचाई पर रहकर पृथ्वी का परिक्रमण करता है। भू-तुल्यकालिक (geosynchronous) कक्षा में संचार उपग्रह स्थापित करने की संभावना सबसे पहले ऑथर सी क्लार्क ने व्यक्त की थी.

पलायन वेग (escape velocity): पलायन वेग वह न्यूनतम वेग है जिससे किसी पिंड की पृथ्वी की सतह से ऊपर की ओर फेंके जाने पर वह गुरुत्वीय क्षेत्र को पार कर जाता है, पृथ्वी पर वापिस नहीं आता। पृथ्वी के लिए पलायन वेग का मान 11.2 km/s है। यानी कि पृथ्वी तल से किसी वस्तु को 11.2 km/s या उससे अधिक वेग से ऊपर किसी भी दिशा में फेंक दिया जाए तो वस्तु फिर पृथ्वी तल पर वापिस नहीं आएगी।

उपग्रह के लिए कक्षीय वेग Vo = √gRe तथा पृथ्वी तल से पलायन वेग Ve = √2gRe' अतः Ve = √2Vo यानी कि पलायन वेग कक्षीय वेग का √2 (यानी कि 41%) बढ़ा दिया जाए तो वह उपग्रह अपनी कक्षा को छोड़कर पलायन कर जाएगा।

ऊष्मा (Heat)[सम्पादन]

ऊष्मा एक प्रकार की ऊर्जा है, जो दो वस्तुओं के बीच उनके तापान्तर के कारण एक वस्तु से दूसरी वस्तु में स्थानान्तरित होती है। स्थानान्तरण के समय ही ऊर्जा ऊष्मा कहलाती है।

वस्तु का ताप, वस्तु में ऊष्मा की मात्रा तथा वस्तु के पदार्थ की प्रकृति पर निर्भर करता है, जबकि किसी वस्तु में निहित ऊष्मा उस वस्तु के द्रव्यमान व ताप पर निर्भर करती है।

ऊष्मा एक प्रकार की ऊर्जा है, जिसे कार्य में बदला जा सकता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण सबसे पहले रमफोर्ड ने दिया। बाद में डेवी ने दो बर्फ़ के टुकड़े को आपस में घिसकर पिघला दिया।

जूल ने अपने प्रयोगों से इस बात की पुष्टि की कि "ऊष्मा ऊर्जा का ही एक रूप है।" जूल ने बताया कि जब कभी कार्य ऊष्मा में बदलती है, या ऊष्मा कार्य में बदलती है, तो किए गए कार्य व उत्पन्न ऊष्मा का अनुपात एक स्थिरांक होता है, जिसे ऊष्मा का यांत्रिक तुल्यांक कहते हैं । १ कैलरी = ४.१८ जूल

ध्वनि (Sound)[सम्पादन]

ध्वनि तरंगें अनुदैर्घ्य तरंगें होती हैं। इसकी उत्पति वस्तुओं में कम्पन होने से होती है, लेकिन सब प्रकार का कम्पन ध्वनि उत्पन्न नहीं करता।

जिन तरंगों की आवृति लगभग 20 कम्पन प्राति सेकेण्ड से 20,000 कम्पन प्राति सेकेण्ड के बीच होती है, उनकी अनुभूति हमें अपने कानों द्वारा होती है । ध्वनि शब्द का प्रयोग केवल उन्हीं तरंगों के लिए किया जाता है, जिनकी अनुभूति हमें अपने कानों द्वारा होती है। भिन्न-भिन्न मनुष्यों के लिए ध्वनि तरंगों की आवृत्ति परास अलग-अलग हो सकते हैं।

प्रकाश(Light)[सम्पादन]

हमारी दृष्टि की अनुभूति जिस बाह्य भौतिक कारण के द्वारा होती है, उसे हम प्रकाश कहते हैं।

प्रकाश एक प्रकार की ऊर्जा है, जो विद्युत चुम्बकिय तरंगों के रूप में संचरित होती है।

प्रकाश विद्युत्चुम्बकीय तरंगों का ही भाग है जिसे हम देख सकते है। प्रकाश की सम्पूर्ण गुणों की व्याख्या के लिए प्रकाश के फोटाॅन सिद्धान्त का सहारा लेना पड़ता है क्योंकि विद्युतचुम्बकीय प्रकृति के आधार पर प्रकाश के कुछ गुणों जैसे परावर्तन, अपवर्तन, विवर्तन, व्यतिकरण एवं ध्रुवण की तो व्याख्या कि जा सकती है जो प्रकाश को तरंग रूप में मानते है। लेकिन प्रकाश-विद्युत प्रभाव तथा क्राॅम्पटन प्रभाव के लिए आइन्स्टीन के फोटाॅन सिद्धान्त का उपयोग किया जाता है।

फोटाॅन सिद्धान्त के अनुसार प्रकाश ऊर्जा के छोट-छोटे पैकेटों के रूप में है जिन्हें फोटाॅन कहते है।

परावर्तन

प्रकाश किरण का किसी सतह से टकराकर पुनः उसी माध्यम में लौट आना परावर्तन कहलाता है।

परावर्तन के नियम

परावर्तन के दो नियम हैं

  1. आपतित किरण, अभिलम्ब एवं परावर्तीत किरण तीनों एक ही तल में होने चाहिए।
  1. परावर्तन कोण एवं आपतन कोण के बराबर होना चाहिए।
  • आपतित किरण - सतह पर पड़ने वाली किरण को आपतित किरण किरण कहते हैं।
  • परावर्तित किरण - टकराने के पश्चात लौटने वाली किरण को परावर्तित किरण कहते हैं।
  • आपतन कोण - अभिलम्ब व आपतित किरण के बिच का कोण को आपतन कोण कहते हैं।
  • परावर्तन कोण - अभिलम्ब व परावर्तित किरण के बिच के कोण को परावर्तन कोण कहते हैं ।
उदाहरण

दर्पण में प्रतिबिम्ब का दिखाई देना। ग्रहों का चमकना। वस्तुओं के रंग का निर्धारण।

प्रकाश का पूर्ण आंतरिक परावर्तन (हमेशा सघन से विरल)

जब प्रकाश किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में प्रवेश करती है तो एक विशिष्ट आपतन कोण पर किरण समकोण पर अपवर्तित होती है। इस कोण को क्रान्तिक कोण कहते है। यदि आपतन कोण क्रान्तिक कोण से अधिक हो जाये तो प्रकाश किरण वापस उसी माध्यम में लौट आती है। इसे पूर्ण आन्तरिक परावर्तन कहते है। परावर्तन में प्रकाश किरण की आवृति परावर्तन के बाद कम हो जाती है। पूर्ण आन्तरिक परावर्तन में प्रकाश किरण की आवृति नहीं बदलती है।

उदाहरण

हीरे का चमकना। मृग मरीचिका। पानी में डूबी परखनली का चमकीला दिखाई देना। कांच का चटका हुआ भाग चमकीला दिखाई देना।

अपवर्तन

एक माध्यम से दूसरे माध्यम में प्रवेश करते समय प्रकाश किरण का मार्ग से विचलित हो जाना प्रकाश का अपवर्तन कहलाता है।

जब प्रकाश किरण विरल माध्यम से सघन माध्यम की ओर जाती है तो अभिलम्ब की ओर झुक जाती है। जब प्रकाश किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में आती है तो अभिलम्ब से दूर हट जाती है। अपवर्तन में प्रकाश का तरंग दैर्घ्य व प्रकाश का वेग बदलते हैं। जबकि आवृत्ति नहीं बदलती।

स्नेल का नियम
μ = sin i/sin r = sin θ
μ = निर्वात में प्रकाश का वेग/माध्यम में प्रकाश का वेग
उदाहरण

पानी में सिक्का ऊपर उठा हुआ दिखाई देता है। तारों का टिमटिमाना। पानी में रखी झड़ का मुड़ा हुआ दिखाई देना। सूर्य उदय से पहले सूर्य का दिखाई देना।

प्रकाश का वर्ण विक्षेपण

जब श्वेत प्रकाश को प्रिज्म में से गुजारा जाता है तो वह सात रंगों में विभक्त हो जाता है। इस घटना को वर्ण विक्षेपण कहते है तथा प्राप्त रंगों के समुह को वर्ण क्रम कहते है। अधिक तरंग दैर्घ्य वाले प्रकाश अर्थात लाल रंग का विचलन कम तथा कम तरंगदैर्घ्य वाले प्रकाश अर्थात बैंगनी का विचलन अधिक होता है।ये सात रंग है - बैंगनी (Voilet) ,जामुनी (Indigo), आसमानी (Blue), हरा (Green), पीला (Yellow), नारंगी (Orange), तथा लाल (Red), नीचे से ऊपर तक क्योंकि बैंगनी रंग में विक्षेपण सबसे अधिक व लाल रंग में सबसे कम होता है।

इसे आप ट्रिक रोय (ROY) जी(G) की बीवी (BIV) से याद रख सकते हैं जो की ऊपर से नीचे है।

R - Red

O - Orange

Y - Yellow

G - Green

B - Blue

I - Indigo

V - Voilet

आपतित किरण को आगे बढ़ाने पर तथा निर्गत किरण को पीछे बढ़ाने पर उनके मध्य जो कोण बनता है उसे प्रिज्म कोण कहते है।

इन्द्रधनुष

यह परावर्तन, अपवर्तन, पूर्ण आन्तरिक परावर्तन और वर्ण विक्षेपण की घटना होती है।

प्रथम - लाल - हरा - बैंगनी

द्वितीय - बैंगनी - हरा - लाल

रंग

वस्तुओं का अपना कोई रंग नहीं होता। प्रकाश का कुछ भाग वस्तुएं अवशोषित कर लेती हैं। जबकि कुछ भाग परावर्तित करती है। परावर्तित भाग ही वस्तु का रंग निर्धारित करता है। सफेद प्रकाश में कोई वस्तु लाल इसलिए दिखाई देती है क्योंकि वह प्रकाश के लाल भाग को परावर्तित करती है। जबकि अन्य सभी को अवशोषित करती है। अपादर्शी वस्तुओं का रंग परावर्तित प्रकाश के रंग पर निर्भर करता है जबकि पारदर्शी वस्तु का रंग उनसे पार होने वाले प्रकाश के रंग पर निर्भर करता है।

जो वस्तु सभी प्रकाशीय रंगों को परावर्तित करती है सफेद दिखती है तथा जो सभी रंगों को अवशोषित कर लेती है काली दिखती है।

प्राथमिक रंग

लाल, हरा, नीला रंग प्रथम रंग कहलाते है। बाकि सभी रंग इनसे ही बने है।

गौण रंग - दो प्राथमिक रंगों के संयोग से बना रंग गौण रंग कहलाता है।
लाल + हरा - पीला

जिन दो रंगों के मेल से श्वेत रंग प्राप्त होता है वह पूरक रंग कहलाते हैं।

तथ्य

सर्वप्रथम रोमर नामक वैज्ञानिक प्रकाश का वेग ज्ञात किया।

प्रकाश का वेग निर्वात में सर्वाधिक 3x108 मीटर/सैकण्ड होता है।

प्रकाश को सूर्य से धरती तक आने में लगभग 8 मिनट 19 सैकण्ड का समय लगता है।

चन्द्रमा से पृथ्वी तक आने में 1.28 सेकण्ड का समय लगता है।

हीरा पूर्ण आंतरिक परार्वतन के कारण चमकता है।

प्रकाश वर्ष दूरी का मात्रक है।

दृश्य प्रकाश की तरंग दैर्घ्य 4000-8000 Ao होता है।

सूर्य का श्वेत प्रकाश सात रंगों का मिश्रण है।

आकाश का रंग नीला प्रकिर्णन के कारण दिखाई देता है।

जल की सतह फैले कैरोसीन की परत सूर्य के प्रकाश में रंगीन व्यतिकरण के कारण दिखाई देती है।

लैंस

लैंस एक अपवर्तक माध्यम है जो दो वक्र अथवा एक वक्र एवं एक समतल सतह से घिरा हो। लेंस मुख्यतः दो प्रकार के होते है। 1. उत्तल लेंस 2. अवतल लेंस

उत्तल लेंस ये पतले किनारे एवं मध्य भाग में मोटे होते हैं। उत्तल लैंस गुजरने वाले प्रकाश को सिकोड़ता है अतः इसे अभिसारी लेंस कहते है।

उत्तल लेंस के प्रकार 1. उभयोत्तल 2. अवत्तलोत्तल 3. समतलोत्तल

अवतल लेंस ये बीच में पतले एवं किनारों पर मोटे होते हैं। ये प्रकाश को फैलाते है। अतः इन्हें अपसारी लैंस भी कहते है।

1. उभयावतल 2. उत्तलावतल 3. समतलावतल

लेंस शक्ति का मात्रक - डाॅयप्टर

सिद्धान्त - अपवर्तन

  • वक्रता केन्द्र - लेंसों का केन्द्र वक्रता केन्द्र कहलाता है। तथा इनकी त्रिज्या वक्रता त्रिज्या।
  • मुख्य अक्ष - लेंस के केन्द्र से गुजरने वाली काल्पनिक सिधी रेखा।
  • मुख्य फोक्स (F) - लैंस के दो मुख्य फोकस होते है।
  • प्रथम - मुख्य अक्ष पर स्थित वह बिन्दु जिस पर रखी वस्तु का प्रतिबिम्ब अन्नत पर प्राप्त होता है।
  • द्वितिय - अन्नत पर रखी वस्तु का प्रतिबिम्ब मुख्य अक्ष पर जिस बिन्दु पर प्राप्त होता है।
  • प्रकाशिक केन्द्र - लेंस का केन्द्रिय बिन्दु इसका प्रकाशिक केन्द्र कहलाता है।
  • फोकस दूरी (f) - प्रकाशिक केन्द्र से मुख्य फोकस की दूरी फोकस दूरी कहलाती है।

उत्तल लैंस की फोकस दूरी - धनात्मक

अवतल लैंस की फोकस दूरी - ऋणात्मक

  • लैंस की क्षमता (P) - किसी लेंस द्वारा प्रकाश किरणों को फैलाने या सिकोड़ने की दक्षता लैंस क्षमता कहलाती है।
P = 1/f
लेंसों के उपयोग

चश्मा में - दृष्टि से सम्बधित रोगों में।

सुक्ष्मदर्शी में।

सिनेमा में चलचित्रों को बड़ा करके दिखाने में।

दृष्टिदोष एवं निराकरण

मनुष्य की दृष्टि परास 25 सेमी. से अन्नत तक होती है।

1. निकट दृष्टि दोष

दूर की वस्तुएं साफ दिखाई नहीं देती क्योंकि रेटिना पर प्रतिबिम्ब पहले(निकट) बन जाता है। इसके लिए अवतल लैंस का प्रयोग कर किरणों को अपसारित करके प्रतिबिम्ब रेटिना पर बनाया जाता है।

2. दूर दृष्टि दोष

निकट की वस्तुएं साफ दिखाई नहीं देती इसलिए उत्तल लेंस का प्रयोग किया जाता है।

3. जरा दृष्टि दोष

दोनों लेंस काम में आते है।

4. अबिन्दुता या दृष्टि वैषम्य

दो लम्बवत्त दिशाओं में विभेद नहीं हो सकता बेलनाकार लेंस उपयोग में लिये जाते है।

समतल दर्पण

समतल परावर्तक सतह वाला दर्पण समतल दर्पण कहलाता है यह शीशे पर चांदी या पारे की परत पाॅलिश कर बनाया जाता है।

समतल दर्पण में बना प्रतिबिम्ब समान दूरी, बराबर एवं आभासी होता है। समतल दर्पण में व्यक्ति को अपना पुरा प्रतिबिम्ब देखने के लिए दर्पण की ऊंचाई कम से कम व्यक्ति की ऊंचाई की आधी होनी चाहिए। यदि कोई व्यक्ति दर्पण की ओर चलता है। तो प्रतिबिम्ब दुगनी चाल से पास या दूर जाता हुआ प्रतित होता है।

यदि दो समतल दर्पण θ कोण पर परस्पर रखे है तो उनके मध्य रखी वस्तु के बने प्रतिबिम्बों की संख्या (360/θ)-1 होगी। अतः समकोण पर रखे दर्पणों के मध्य स्थित वस्तु के तीन प्रतिबिम्ब होंगे जबकि समान्तर स्थित दर्पणों के मध्य वस्तु के प्रतिबिम्ब अन्नत होंगे।

गोलीय दर्पण

दो प्रकार के अवतल व उत्तल

अवतल दर्पण

अभिसारी दर्पण भी कहते है।

अवतल दर्पण से बना प्रतिबिम्ब बड़ा एवं सीधा बनता है। अतः इसका प्रयोग दाढ़ी बनाने, डाॅक्टर द्वारा आंख, कान, नाक आदि के आन्तरिक भाग देखने में, गााड़ी की हेडलाइट, टार्च, सोलर कुकर में होता है।

उत्तल दर्पण

इसे अपसारी दर्पण भी कहते है।

उत्तल दर्पण से बना प्रतिबिम्ब छोटा होता है। इसका प्रयोग वाहनों में पिछे की वस्तुएं देखने के लिए किया जाता है। यह दर्पण विस्तार क्षेत्र अधिक होने से प्रकाश का अपसार करता है। अतः परावर्तक लैम्पों में किया जाता है।

तथ्य

वाहनों के पश्च दृश्य दर्पणों के रूप में उत्तल दर्पण का उपयोग किया जाता है।

समतल दर्पण पर बना प्रतिबिंब सदैव आभासी व सीधा होता है।

मानव के नेत्र का कॅार्निया भाग दान किया जाता है।

चुम्बकत्व (Magnetism)[सम्पादन]

चुम्बकत्व भौतिक विज्ञान की वह प्रक्रिया है, जिसमें चुम्बक लोहे के टुकड़ों को अपनी ओर आकर्षित करती है।

चुम्बक के गुण

चुम्बक में मुख्यतः निम्न गुण पाये जाते हैं-

1. आकर्षण

2. दिशात्मक गुण

3. ध्रुवों में आकर्षण-प्रतिकर्षण

चुम्बकीय पदार्थो के प्रकार[सम्पादन]

लोहचुम्बकीय पदार्थ(Ferromagnetic)

निकिल, कोबाल्ट, लोहा तथा स्टील और कई प्रकार के मिश्रित धातुओं के पदार्थ जो चुम्बक के प्रति बहुत ज़्यादा आकर्षित होते हैं। इन पदार्थो को लोहचुम्बकीय पदार्थ कहा जाता है। इन लौहचुम्बकीय पदार्थो को चुम्बक बनाने में अधिक काम में लाया जाता है क्योंकि इन पदार्थो में शक्ति की चुम्बकीय रेखायें आसानी से आर पार नहीं होती हैं। इन पदार्थो के लिये एक निर्धारित तापमान होता है इस तापमान को क्यूरी तापमान कहते हैं। यदि इससे ऊपर तापमान इन पदार्थो में दिया जाये तो ये पदार्थ अपना चुम्बकीय आकर्षण शक्ति खो देते हैं और पराचुम्बकीय चुम्बक बन जाते हैं।

प्रतिचुम्बकीय पदार्थ (Paramagnetic)

पैलेडियम, मैंगनीज तथा प्लैटीनम जैसे पदार्थ चुम्बकों द्वारा स्वतन्त्र रूप से आकर्षित होते हैं, जब इन पदार्थो को चुम्बक के पास लाया जाता है तो ये पदार्थ अपने आप को लम्बें अक्षों के सहारे ध्रुव के स्थिर खडे़ हो जाते हैं ऐसे पदार्थो को पराचुम्बकीय पदार्थ कहा जाता हैं।

पराचुम्बकीय पदार्थ (Dimagnetic)

एन्टिमोनी, विस्मथ तथा जिंक जैसे पदार्थ चुम्बक से बहुत जल्दी पृथक हो जाते है तथा ऐसे पदार्थ जो चुम्बक के पास लाया जाये तो वे अपने आप को अक्ष बनाकर ध्रुव के साथ सीधे खडे़ हो जाते है ऐसे पदार्थो को प्रतिचुम्बकीय पदार्थ कहा जाता हैं।

चुम्बकीय क्षेत्र[सम्पादन]

चुम्बक सभी प्रकार के चुम्बकीय पदार्थ को अपनी ओर आकर्षित करते है जो उसके आस पास रहते हैं और चुम्बक जिस स्थान से इन पदार्थो को अपनी ओर खींचता है अथवा आकर्षित करता है उस स्थान से चुम्बक तक की दूरी को चुम्बकीय क्षेत्र कहा जाता है। ये चुम्बकीय क्षेत्र चुम्बक के चारों ओर बराबर दूरी पर पाए जाता है और इसकी कोई सीमा रेखा नहीं होती है। कहने का अर्थ यह है कि चुम्बक के चुम्बकीय क्षेत्र का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विस्तार होता है और चुम्बक से दूर वाले जगह पर बहुत कम तीव्रता पाई जाती है। कुछ चुम्बकों का चुम्बकीय क्षेत्र अधिक सशक्त चुम्बकीय क्षेत्र भी हो सकता है तथा कुछ का चुम्बकीय क्षेत्र हल्का भी हो सकता हैं। चुम्बकीय क्षेत्र को ध्रुवों की शक्ति पर माप सकते है और यह पता करते है कि उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुव में एक जैसी शक्ति है या नहीं। चुम्बकीय क्षेत्र की शक्ति या तीव्रता को गौस अथवा ओरेस्टेड में मापा जा सकता हैं। चुम्बक के पास वाले स्थान पर उसकी क्षेत्र की तीव्रता अधिक पाई जाती है तथा चुम्बक से दूर वाले स्थान पर कम पाई जाती है। एक प्रयोगशाली चुम्बक के चारों ओर उसके क्षेत्र की तीव्रता 1000 गौस हो सकता है। इससे मज़बूत चुम्बक की क्षेत्र की तीव्रता 3-4 किलो गौस हो सकती हैं। विद्युत चुम्बकों के मदद से इससे भी अधिक चुम्बकीय क्षेत्र का उत्पादन हो सकता है।

विद्युत (Electricity)[सम्पादन]

विद्युत आवेश की उपस्थिति तथा बहाव के परिणामस्वरूप उत्पन्न उस सामान्य अवस्था को विद्युत कहते हैं जिसमें अनेकों कार्यों को सम्पन्न करने की क्षमता होती है।

विद्युत धारा (Electric Current)

आवेश प्रवाह की दर को विद्युत धारा कहते है।

I = Q/t Q = आवेश
मात्रक - एम्पियर

यदि इलेक्ट्राॅन पर आवेश e है तथा t समय में n इलेक्ट्रान किसी बिन्दु से गुजरते हैं तो t समय में उस बिन्दु से गुजरने वाला कुल आवेश

Q = ne e = 1.6x10-19

यानि यदि किसी बिन्दु से 1 सेकण्ड में गुजरने वाले आवेश का मान एक कुलाम हो तो विद्युत धारा 1 एम्पियर होगी। आवेश का मात्रक - कूलाम्ब । विद्युत परिपथ में विद्युत धारा मापने के लिए ऐमीटर का प्रयोग किया जाता है।

विद्युत धारा के प्रकार

प्रत्यावर्ती धारा (Alternating Current)

जब विद्युत धारा का परिमाण व दिशा दोनों समय के साथ बदलते हो तो उसे प्रत्यावर्ती धारा कहते हैं।
उदाहरण - घरों में आने वाली विद्युत धारा।

दिष्ट धारा

जब विद्युत धारा का परिमाण व दिशा दोनों समय के साथ स्थिर रहते है तो उसे दिष्ट धारा या स्थिर दिष्ट धारा कहते है।

जब विद्युत धारा का परिमाण स्थिर रहे व दिशा बदले तो इसे परिवर्ती दिष्ट धारा कहते है।

दिष्ट धारा का उदाहरण - सेल व बैटरीयों से प्राप्त विद्युत धारा। घरों में लगे इन्वर्टर प्रत्यावर्ती धारा को दिष्ट धारा में व दिष्ट धारा को प्रत्यावर्ती धारा में बदलने का कार्य करते हैं।

विद्युत धारा के प्रभाव[सम्पादन]

विद्युत धारा का तापीय प्रभाव

जब हम किसी चालक को विद्युत ऊर्जा देते हैं तो ऊर्जा का कुछ भाग उष्मा में बदल जाता है और वह चालक गर्म हो जाता है। इसे विद्युत धारा का तापीय प्रभाव कहते है।

उपयोग बल्ब, हिटर, प्रेस, निमजन छड़, केतली आदि।

विद्युत बल्ब का फिलामेन्ट टंगस्टन धातु का बना होता है।

H ∝ I2

H ∝ R

H ∝ t

H ∝ I2 R t

विद्युत धारा का चुम्बकिय प्रभाव

किसी चालक तार में विद्युत धारा प्रवाहित करने पर उसके चारों ओर चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है। इसे विद्युत धारा का चुम्बकीय प्रभाव कहते है।

उपयोग घन्टी, टेलीफोन, विद्युत के्रन आदि।

चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा के नियम[सम्पादन]

1. दाहिने हाथ के अंगुठे का नियम/दक्षिणी हस्त नियम

यदि चालक तार को दाहिने (Right) हाथ से इस प्रकार पकड़े की अंगुठा धारा की दिशा में रहे तो मुड़ी हुई अंगुलियां चुम्बकिय बल रेखाओं की दिशा/ चुम्बकिय बल की दिशा को बतायेगी।

2. दक्षिणी पेच नियम / मैक्सवेल स्क्रु नियम

पेच को इस प्रकार घुमाया या कसा जाता है कि पेच की नोक विद्युत धारा की दिशा में आगे बढ़े तो पेच घुमाने की दिशा चुम्बकीय क्षेत्र को व्यक्त करेगी।

चुम्बकीय क्षेत्र का मात्रक - टेसला

चुम्बकीय फलक्स φ

किसी चुम्बकिय क्षेत्र (B) में लम्बवत् रखे बन्द पृष्ट(A) से गुजरने वाली चुम्बकीय बल रेखाओं की संख्या चुम्बकीय फलक्स कहलाती है। मात्रक - वेबर

φ = BA
चुम्बकीय पदार्थ

1. प्रतिचुम्बकीय - इनमें प्रतिकर्षण होता है। चुम्बकिय क्षेत्र में रखने पर लम्बवत होता है।

2. अनुचुम्बकीय - आकर्षण समान्तर

3. लौह चुम्बकीय - अत्यधिक आकर्षण तेजी से समान्तर

क्युरी ताप

वह ताप जिससे कम ताप पर पदार्थ लौह - चुम्बकीय की तरह तथा अधिक ताप पर अनुचुम्बकीय पदार्थ की तरह व्यवहार करेगा।

विद्युत चुम्बकीय प्रेरण

जब किसी कुण्डली व चुम्बक के बीच सापेक्ष गति कराई जाती है तो कुण्डली में विद्युत धारा बहने लगती है इसे विद्युत चुम्बकीय प्रेरण कहते है।

विद्युत चुम्बकीय प्रेरण के कारण उत्पन्न विद्युत वाहक बल, प्रेरित वि. वा. बल तथा उत्पन्न धारा प्रेरित विद्युत धारा कहलाती है।

फैराडे का प्रथम नियम

जब कुण्डली व चुम्बक के मध्य सापेक्ष गति करवाई जाती है तो कुण्डली में से गुजरने वाली चुम्बकीय बल रेखाओं की संख्या (चुम्बकीय फलक्स) में परिवर्तन होता है जिसके कारण प्रेरित विद्युत धारा उत्पन्न होती है।

फैराडे का दूसरा नियम

कुण्डली में उत्पन्न प्रेरित वि. वा. बल फलक्स में परिवर्तन की दर के समानुपाती होता है। अर्थात कुण्डली व चुम्बक के मध्य सापेक्ष गति तेज या मन्द गति से करवाने पर कुण्डली से गुजरने वाली चुम्बकीय बल रेखाओं की संख्या में परिवर्तन भी तेज या मन्द गति से होता है। प्रेरित वि. वा. बल की दिशा लेन्ज के नियम से ज्ञात करते हैं।

लेन्ज का नियम

वि. चुम्बकीय प्रेरण की प्रत्येक अवस्था में प्रेरित वि. वा. बल व प्रेरित धारा कि दिशा इस प्रकार होती है कि उन कारणों का विरोध करती है जिनके कारण इनकी उत्पति हुई है। लेन्ज का नियम ऊर्जा संरक्षण पर आधारित है।

विद्युत जनित्र (डायनेमो)

ऐसा साधन जो यान्त्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित कर दे। यह वि. चु. प्रेरण के सिद्धान्त पर कार्य करता है।

उपयोग -- विद्युत धारा उत्पन्न करने में।

विद्युत मोटर

विद्युत ऊर्जा को यान्त्रिक ऊर्जा में रूपान्तरित करती है।

उपयोग पंखों में, मिक्सी में, कारखानों में, खेतों में पानी निकालने में आदि।

रासायनिक प्रभाव

जब किसी विलयन में विद्युत धारा प्रवाहित होती है। तो उसका विद्युत अपघटन हो जाता है। यह विद्युत धारा का रासायनिक प्रभाव कहलाता है।
उपयोग

धातु के शुद्धिकरण में। विद्युत लेपन में। विद्युत मुद्रण में। जिस उपकरण में यह रासायनिक प्रभाव होता है उसे वोल्टामीटर कहा जाता है।

विभव

एकांक धनावेश को अन्नत से विद्युत क्षेत्र में किसी बिन्दु तक लाने में किया गया कार्य उस बिन्दु पर विद्युत विभव कहलाता है।

विभान्तर

एकांक धनावेश को विद्युत क्षेत्र में एक बिन्दु से दुसरे बिन्दु तक ले जाने में किया गया कार्य विभान्तर कहलाता है।

मात्रक : विभव और विभान्तर - वोल्ट

v = W/q जूल/कुलाम

विभव को मापने के लिए वोल्टमीटर का प्रयोग किया जाता है। आदर्श वोल्ट मिटर का प्रतिरोध अन्नत होता है। इसे परिपथ में समान्तर क्रम में लगाया जाता है।

ओम का नियम

किसी चालक तार की भौतिक अवस्थाएं स्थिर रहती है तो उसके सिरों पर उत्पन्न विभवान्तर प्रवाहित धारा के समानुपाती होता है।

V ∝ I
V = IR
R = नियतांक(प्रतिरोध)

मात्रक

R = V/I =वोल्ट/ऐम्पियर (ओम Ω)
if V =1 volt I = 1 amp. then R = 1 ohm(Ω)

प्रतिरोध के व्युत्क्रम को चालकता कहते है।

प्रतिरोध की निर्भरता

1. पदार्थ कि प्रकृति पर

2. चालक तार की लम्बाई पर R ∝ l

3. पदार्थ के अनुप्रस्थ काट पर R ∝ 1/A

4. ताप पर - चालक में ताप बढ़ाने पर प्रतिरोध बढ़ेगा। अर्द्धचालक में ताप बढ़ाने पर प्रतिरोध कम होगा। अचालक में कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

अतः

R ∝ l/A
R = Kl/A
K= विशिष्ट प्रतिरोध

विशिष्ट प्रतिरोध का मात्रक ओम-मिटर

विशिष्ट प्रतिरोध की निर्भरता

1. पदार्थ कि प्रकृति

2. पदार्थ के ताप पर

विशिष्ट प्रतिरोध का व्युत्क्रम विशिष्ट चालकता कहलाता है।


विद्युत धारा: किसी चालक में विद्युत आवेश की प्रवाह दर को विद्युत धारा कहते हैं। विद्युत धारा की दिशा घन आवेश की गति की दिशा की ओर मानी जाती है। इसका S.I. मात्रक एम्पेयर है, यह एक अदिश राशि है। यदि किसी चालाक तार में एक एम्पीयर (1A) विद्युत धारा प्रवाहित हो रही है तो इसका अर्थ है कि उस तार में प्रति सेकंड 6.25 X 10^18 इलेक्ट्रान के सिरे से प्रविष्ट होते हैं। ये इलेक्ट्रॉन दूसरे सिरे से बाहर निकल जाते हैं।

प्रतिरोध (resistance): किसी चालक में विद्युत धारा के प्रवाहित होने पर चालक के परिमाणों तथा अन्य कारकों द्वारा उत्पन्न किये गए व्यवधान को ही चालक का प्रतिरोध कहते है। इसका S.I. मात्रक ओम (Ω) होता है।

ओम का नियम (ohm's law): यदि चालक की भौतिकी अवस्था जैसे-ताप आदि में कोई परिवर्तन न हो तो चालक के सिरों पर लगाया गया विभवांतर उसमे प्रवाहित धारा के अनुक्रमानुपाती होता है। यदि किसी चालक के दो बिन्दुओं के बीच विभान्तर V वोल्ट हो तथा उसमें प्रवाहित धारा I एम्पीयर हो, तो ओम के नियामानुसार-

V ∝ I या V=RI

जहां R एकनियतांक है, जिसे चालक का प्रतिरोध कहते हैं।

ओमीय प्रतिरोध (ohmic resistance): जो चालक ओम के नियम का पालन करते है, उनके प्रतिरोध को ओमीय प्रतिरोध हैं। जैसे- मैगनीज का तार.

अनओमीय प्रतिरोध (non-ohmic resitance): जो चालाक ओम के नियम का पालन नहीं करते हैं, उनके प्रतिरोध को कहते हैं। जैसे- डायोड बल्ब का प्रतिरोध, ट्रायोड बल्ब का प्रतिरोध.

चालक

चालकता (conductance): किसी चालक प्रतिरोध के व्युत्क्रम को चालक की चालकता कहते हैं। इसे G से सूचित करते हैं। (G=1/R) इसकी SI इकाई ओम^-1 (Ω^-1) होता है, मूहो भी कहते है। इसका SI इकाई सीमेन भी होता है।

विशिष्ट प्रतिरोध: किसी चालक का प्रतिरोध उसकी लम्बाई के अनुक्रमनुपाती तथा उसके अनुप्रस्थ काट के क्षेत्रफल के व्युत्क्रमानुपाती होता है, अथार्त यदि चालक की लंबाई l और उसकी अनुप्रस्थ काट का क्षेत्रफल A है, तो R ∝ 1/R या, R=ρ l/A जहां ρ एक नियतांक है, जिसे चालक का विशिष्ट प्रतिरोध कहा जाता है। अतः, एक ही मोटे पदार्थ के बने हुए मोटे तार का प्रतिरोध कम तथा पतले तार का प्रतिरोध अधिक होता है।

विशिष्ट चालकता:किसी चालक के विशिष्ट प्रतिरोध व्युत्क्रम को चालक का विशिष्ट चालकता हैं। इसे सिग्मा (σ) से सूचित करते हैं (σ=1/ρ). इसकी S.I. इकाई ओम^-1मीटर^-1 (Ω^-1M^-1) होती है।

प्रतिरोधों का संयोजन (combination of resistance): सामान्यतः प्रतिरोधों का संयोजन दो प्रकार से होता है।

(i) श्रेणी क्रम (series combination)
(ii) समानांतरण क्रम (parallel combinatin)

प्रतिरोधों के क्रम से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

श्रेणी क्रम में संयोजित प्रतिरोधों का समतुल्य प्रतिरोध समस्त प्रतिरोधों के योग के बराबर होता है।
समानांतरण क्रम में संयोजित प्रतिरोधों के समतुल्य प्रतिरोध का व्युत्क्रम (inverse) उनके प्रतिरोधों के व्युत्क्रमों के योग के बराबर होता है।
विद्युत शक्ति (elctric power): विद्युत परिपथ में ऊर्जा के क्षय होने की डॉ को शक्ति कहते हैं। इसका S.I. मात्रक वाल्ट है।
किलोवाट घंटा मात्रक अथवा यूनिट: 1 किलोवाट घंटा मात्रक अथवा यूनिट विद्युत ऊर्जा की वह मात्रा है, जो कि किसी परिपथ में एक घंटा होती है, जबकि परिपथ में 1 किलोवाट हो.
किलोवाट घंटा मात्रक= (वोल्ट X एम्पीयर X घंटा)/1000 = (वाट X घंटा)
प्रतिरोधों का संयोजन

श्रेणी क्रम

1. धारा समान
2. वोल्टेज असमान
R = R1 + R2 + R3 + R4

समान्तर क्रम

1. धारा अलग-अलग
2. वोल्टेज समान
1/R = 1/R1 + 1/R2 + 1/R3 + 1/R4

घरों में लाईट के उपकरण समान्तर क्रम में लगे होते हैं।

घरों में लड़ियों के बल्ब, फ्यूज तार श्रेणी क्रम में लगे होते हैं।

फ्यूज तार का गलनांक व प्रतिरोध दोनों कम होते हैं यह टिन व रांगा(सीसा) का बना होता है।

विद्युत सेल

विद्युत सेल एक ऐसा साधन है जो रासायनिक ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करने का कार्य करता है। सेल दो प्रकार के होते हैं -

1. प्राथमिक सेल 2. द्वितियक सेल

प्राथमिक सेल

ऐसे सेल जिनको एक बार ही उपयोग में लिया जा सके और पुनः चार्ज नहीं किया जा सके, उन्हें प्राथमिक सेल कहते हैं। प्राथमिक सेल में होने वाली क्रियाएं अनुत्क्रमणीय होती है।

जैसे - शुष्क सेल, लेक्लांशी सेल, डेनियल सेल आदि।

शुष्क सेल

इसमें जस्ते के पात्र में |NH4Cl(अमोनियम क्लोराइड) भरा होता है। इसमें एक मलमल की थैली होती है जिसमें MnO2 (मैंगनीज डाईआक्साइड) भरा होता है। तथा कार्बन की छड़ इसमें बिचों बिच सिधी खड़ी रखी होती है। जिस पर पितल की टोपी लगी होती है जो धनाग्र (+) का कार्य करती है तथा जस्ते का पात्र ऋणाग्र(-) का कार्य करता है। रासायनिक अभिक्रिया के कारण इनसे विद्युत धारा प्रवाहित होती है।

उपयोग

टार्च, रेडियो, विद्युत घण्टी, दीवार घड़ी आदि।

द्वितियक सेल

ऐसे सेल जिनको बार-बार उपयोग में लिया जा सकता है तथा चार्ज किया जा सके, द्वितियक सेल कहते है।

द्वितियक सेल में होने वाली क्रियाएं उत्क्रमणीय होती है। अर्थात सेल में बाहर से विद्युत प्रवाहित कर विद्युत ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में बदला जाता है तथा आवश्यकता होने पर संग्रहित रासायनिक ऊर्जा को पुनः विद्युत ऊर्जा में बदला जाता है। जैसे - सीसा संचायक सेल, क्षारीय संचायक सेल।

सीसा संचायक सेल

इस प्रकार के सेल में प्लास्टिक के पात्र में H2SO4(सल्फ्यूरिक अम्ल) भर कर उसमें लेड मोनोआॅक्साइड (PbO) लेपित दो कांच की पट्टियां रखते है, जिससे निम्न अभिक्रिया होती है।
PbO + H2SO4 - PbSO4 + H2O

सेल में विद्युत धारा प्रवाहित करने पर एक पट्टि पर लेड डाईआक्साइड PbO तथा दुसरी प स्पंजी लेड Pb बनता है। यह सेल विद्युत ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा के रूप में संचित करता है अतः इसे संचायक सेल कहते है। क्षारीय संचायक सेल - लोह निकल संचायक सेल व निकल कैडमियम सेल है।

सौर सेल

सौर सेल में सिलिकन का उपयोग किया जाता है। दो या दो से अधिक सौर सेल को जोड़ने पर सौर पैनल बनता है जो सुर्य के प्रकाश को विद्युत ऊर्जा में बदलता है जिसका उपयोग दूर दराज के क्षेत्र में प्रकाश करने के लिए, खेतों में पानी निकालने हेतु पम्प चलाने में किया जाता है।

संचायक सेल का उपयोग

मोटर गाड़ीयों के इंजन चालू करने में।
पनडुब्बियों में।
आजकल घरों में इन्वर्टर के साथ।

विद्युत ऊर्जा (P)

विद्युत द्वारा उत्पन्न ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा कहते है। एवं किसी विद्युत परिपथ में धारा प्रवाहित करने पर प्रति सैकण्ड किये गये कार्य की दर को विद्युत शक्ति कहते है।
P = W/t V= W/q
ऊर्जा का मात्रक - किलो वाट घंटा या वाट सैकण्ड जिसे हम युनिट कहते है।
शक्ति का मात्रक - वाट
1000 वाट का बल्ब एक घण्टे जलने पर 1 युनिट विद्युत ऊर्जा खर्च करता है।
1 हार्स पावर - 746 वाॅट
घरों में विद्युत 220 वोल्ट, 5 एम्पियर व 50 हर्टज पर होती है।

तथ्य

विद्युत बल्ब का आविष्कार थाॅमस अल्वा एडीसन ने किया था।
डायनेमो यांत्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करता है।
1 हार्स पॅावर - 746 वॅाट
विद्युत धारा का मापन अमीटर द्वारा किया जाता है।
विद्युत आवेश का मात्रक कूलाम है।
बिजली के हीटर में नाइक्रोम के तार का प्रयोग किया जाता है।
बिजली के बल्ब में आर्गन गैस भरी होती है।
अल्यूमिनियम व निकल को मिला कर चुम्बक बनाया जाता है।

तरल[सम्पादन]

दाब (pessure): किसी सतह के एकांक क्षेत्रफल पर लगने वाले बल को दाब कहते हैं , अर्थात्

दाब(P) = F/A = पृष्ठ के लंबवत बल/पृष्ठ का क्षेत्रफल
दाब का S.I. मात्रक N / m^2 होता है, जिसे पास्कल (Pa) भी कहते हैं। दाब एक अदिश राशि है।
वायुमंडलीय दाब (atmospheric pressure): सामान्यता वायुमंडलीय दाब वह दाब होता है, जो पारे के 76 सेमी. लंबे कॉलम के भार के बराबर होता है। वायुमंडलीय दाब का S.I. मात्रक बार (bar) होता है।
1 बार = 10^5 N/m^2
वायुमंडलीय दाब 10^5 न्यूटन / मीटर^2 यानी कि एक बार के बराबर होता है।
पृथ्वी की सतह से ऊपर जाने पर वायुमंडलीय दाब कम होता जाता है, जिसके कारण
(i) पहाड़ों पर खाना बनाने में कठिनाई होती है।
(ii) वायुयान में बैठे यात्री के फाउंटेन पेन से स्याही रिस जाती है।
वायुमंडलीय दाब को बैरोमीटर से मापा जाता है। इसकी सहायता से मौसम संबंधी पूर्वानुमान भी लगाया जा सकता है।
बैरोमीटर का पाठ्यांक जब एकाएक नीचे गिरता है, तो आंधी आने की संभावना होती है।
बैरोमीटर का पाठ्यांक जब धीरे-धीरे नीचे गिरता है, तो वर्षा होने की संभावना होती है।
बैरोमीटर का पाठ्यांक जब धीरे-धीरे नीचे-ऊपर चढ़ता है, तो दिन साफ होने की संभावना होती है।

द्रव में दाब (pressure in liquid): द्रव के अणुओं के द्वारा बर्तन की दीवार अथवा तली के प्रति एकांक क्षेत्रफल पर लगने वाले बल को द्रव का दाब कहते हैं। द्रव के अंदर किसी बिंदु पर द्रव के कारण दाब द्रव की सतह से उस बिंदु की गहराई (h) द्रव के घनत्व (d) तथा गुरुत्वीय त्वरण (g) के गुणनफल के बराबर होती है।

अर्थात् p(दाब) = h x d x g

द्रव्यों में दाब के नियम:

(i) स्थिर द्रव में एक ही क्षैतिज तल में स्थित सभी बिन्दुओं पर दाब समान होता है।
(ii) स्थिर द्रव के भीतर किसी बिंदु पर दाब प्रत्येक दिशा में बराबर होता है।
(iii) द्रव के भीतर किसी बिंदु पर दाब स्वतंत्र तल से बिंदु की गहराई के अनुक्रमानुपाती होता है।
(iv) किसी बिंदु पर द्रव का दाब द्रव के घनत्व पर निर्भर करता है। घनत्व अधिक होने पर दाब भी अधिक होता है।

द्रवों में दाब के नियम:

पास्कल के नियम का प्रथम कथन:- यदि गुरुत्वीय प्रभाव को नगण्य माना जाए तो संतुलन की अवस्था में द्रव के भीतर प्रत्येक बिंदु पर दबाव समान होता है।

पास्कल के नियम का द्वितीय कथन:- किसी बर्तन में बंद द्रव के किसी भाग पर आरोपित बल, द्रव द्वारा सभी दिशाओं में समान परिमाण में संचरित कर दिया जाता है।

पास्कल के नियम पर आधारित कुछ यंत्र हैं: हाइड्रोलिक लिफ्ट, हाइड्रोलिक प्रेस, हाइड्रोलिक ब्रेक आदि।
द्रव का दाब उस पात्र के आकार या आकृति पर निर्भर नहीं करता जिसमें द्रव रखा जाता है।

गलनांक तथा क्वथनांक पर दाब का प्रभाव (effect of pressure on melting point and boiling point):

गलनांक पर प्रभाव
(i) गर्म करने पर जिन पदार्थों का आयतन बढ़ता है, दाब बढ़ाने पर उनका गलनांक भी बढ़ जाता है: जैसे- मोम, घी आदि।
(ii) गर्म करने पर जिन पदार्थों का आयतन घट जाता है, दाब बढ़ाने पर उनका गलनांक भी कम हो जाता है: जैसे- बर्फ

क्वथनांक पर प्रभाव: सभी द्रवों का क्वथनांक बढ़ाने पर दाब बढ़ जाता है।

उत्प्लावक बल (Buoyant force): द्रव का वह गुण जिसके कारण वह वस्तुओं पर ऊपर की ओर एक बल लगाता है, उसे उत्क्षेप या उत्प्लावक बल कहते हैं। यह बल वस्तुओं द्वारा हटाए गए द्रव के गुरुत्व-केंद्र पर कार्य करता है, जिसे उत्प्लावक केंद्र (center of buoyancy) कहते हैं। इसका अध्ययन सर्वप्रथम आर्कमिडीज ने किया था।

आर्कमिडीज का सिद्धांत: जब कोई वस्तु किसी द्रव में पूरी अथवा आंशिक रूप से डुबोई जाती है, तो उसके भार में कमी का आभार होता है। भार में यह आभासी कमी वस्तु द्वारा हटाए गए द्रव के भार के बराबर होती है।

प्लवन (Flotation) का नियम :

(i) संतुलित अवस्था में तैरने पर वस्तु अपने भार के बराबर द्रव विस्थापित करती हैं।
(ii) ठोस का गुरुत्व-केंद्र तथा हटाए गए द्रव का गुरुत्व-केंद्र दोनों एक ही उर्ध्वाधर रेखा में होने चाहिए।

घनत्व (density): द्रव्यमान/आयतन इसका S.I. मात्रक किलोग्राम मीटर^-3 होता है।

आपेक्षिक घनत्व (relative density): वस्तु का घनत्व/4°C पर पानी का घनत्व

आपेक्षिक घनत्व एक अनुपात है। अतः इसका कोई मात्रक नहीं होता है। आपेक्षिक घनत्व को हाइड्रोमीटर से मापा जाता है। सामान्य जल की अपेक्षा समुद्री जल का घनत्व अधिक होता है, इसलिए उसमें तैरना आसान होता है। जब बर्फ पानी में तैरती है, तो उसके आयतन का 1/10 भाग पानी के ऊपर रहता है। किसी बर्तन में पानी भरा है और उस पर बर्फ तैर रही है; जब बर्फ पूरी तरह पिघल जाएगी तो पात्र में पानी का तल बढ़ता नहीं है, पहले के समान ही रहता है। दूध की शुद्धता दुग्यमापी (lactometer) से मापी जाती है।

मित केंद्र (meta center): तैरती हुई वस्तु द्वारा विस्थापित द्रव के गुरुत्व-केंद्र को उत्प्लावन-केंद्र कहते हैं। उत्प्लावन-केंद्र से जाने वाली उर्ध्व रेखा जिस बिंदु पर वस्तु के गुरुत्व-केंद्र से जाने वाली प्रारंभिक उर्ध्व रेखा को काटती हैं उसे मिट केंद्र कहते हैं।

तैरने वाली वस्तु के स्थायी संतुलन के लिए शर्तें:

(i) मिट केंद्र गुरुत्व-केंद्र के ऊपर होना चाहिए।
(ii) वस्तु का गुरुत्व-केंद्र तथा हटाए गए द्रव का गुरुत्व-केंद्र यानी कि उत्प्लावन केंद्र दोनों को एक ही उर्ध्वाधर रेखा में होना चाहिए।

प्रत्‍यास्‍थता (Elasticity)[सम्पादन]

प्रत्यास्थता (Elasticity): प्रत्यास्थता पदार्थ का वह गुण है, जिसके कारण वस्तु, उस पर लगाए गए बाहरी बल से उत्पन्न किसी भी प्रकार के परिवर्तन का विरोध करती है तथा जैसे ही बल हटा लिया जाता है, वह अपनी पूर्व अवस्था में वापस आ जाती है।

प्रत्यास्थता की सीमा (Elastic limit): विरुपक बल के परिमाण की वह सीमा जिससे कम बल लगाने पर पदार्थ में प्रत्यास्थता का गुण बना रहता है तथा जिससे अधिक बल लगाने पर पदार्थ का प्रत्यास्थता समाप्त हो जाता है, प्रत्यास्थता की सीमा कहलाती है।

विकृति (strain): किसी तार पर विरूपक बल लगाने पर उसकी प्रांरभिक लंबाई L में वृद्धि l होती है, तो l/L की विक्ति कहते है।

प्रतिबल (stress): प्रति एकांक क्षेत्रफल पर लगाए गए बल को प्रतिबल कहते हैं।

प्ररत्यास्थता का यंग मापांक (young 's modulus of elasticity): प्रतिबल और विकृति के अनुपात को तार के पदार्थ की प्रत्यास्थता का यंग मापांक कहते हैं।

हुक का नियम (hooke's law): प्रत्यास्थता की सीमा में किसी बिंदु में उत्पन्न विकृति उस पर लगाए गए प्रतिबल के अनुक्रमानुपाती होती है।

अर्थात प्रतिबल/विकृति = E (एक नियतांक) = प्रत्यास्थता का गुणांक
प्रत्यास्थता गुणांक (E) का मान भिन्न-भिन्न होता है। इसका S.I. मात्रक न्यूटन मीटर ^-2 होता है। जिसे पास्कल कहते हैं।
यंग का प्रत्यास्थता गुणांक, Y = अनुदैर्घ्य प्रतिबल/अनुदैर्घ्य विकृति

यदि विकृति आयतन में हो तो उसे आयतन प्रत्यास्थता गुणांक (K) कहते हैं। अपरूपण विकृति (shear) के लिए इसे द्रढ़ता गुणांक (η) कहते है।

ध्वनि तरंग (sound waves)[सम्पादन]

1. ध्वनि तरंग अनुदैर्घ्य यांत्रिक तरंगें होती हैं।

2. जिन यांत्रिक तरंगों की आवृत्ति 20Hz से 2000Hz के बीच होती है, उनकी अनुभूति हमें अपने कानों के द्वारा होती है, और इन्हें हम ध्वनि के नाम से पुकारते हैं।

ध्वनि तरंगों का आवृत्ति परास

(i) अवश्रव्य तरंगें (infrasonic waves) : 20Hz से नीचे से आवृत्ति वाली ध्वनि तरंगों को अवश्रव्य तरंगें कहते हैं। इसे हमारा कान नहीं सुन सकता है। इस प्रकार की तरंगो को बहुत बड़े आकर के स्रोत्रों से उत्पन्न किया जा सकता है।

(ii) श्रव्य तरंगें (audible waves): 20Hz से 2000Hz के बीच की आवृत्ति वाली तरंगों को श्रव्य तरंगें कहते हैं। इन तरंगों को हमारा कान सुन सकता है।

(iii) पराश्रव्य तरंगें (ultrasonic waves): 2000Hz से ऊपर की तरंगों को पराश्रव्य तरंगें कहा जाता है। मुनष्य के कान इसे नहीं सुन सकता है। परंतु कुछ जानवर जैसे :- कुत्ता,बिल्ली,चमगादड़ आदि, इसे सुन सकते है। इन तरंगों को गाल्टन की सीटी के द्वारा तथा दाब वैद्युत प्रभाव की विधि द्वारा क्वार्ट्ज के क्रिस्टल के कंपन्नों से उत्पन्न करते है। इन तरंगो की आवृत्ति बहुत ऊंची होने के कारण इसमें बहुत अधिक ऊर्जा होती है। साथ ही इनका तरंगदैर्घ्य छोटी होने के कारण इन्हें एक पतले किरण पुंज के रूप में बहुत दूर तक भेजा जा सकता है।

3. पराश्रव्य तरंगें के उपयोग:

(i) संकेत भेजने में
(ii) समुद्र की गहराई का पता लगाने में
(iii) कीमती कपड़ो वायुयान तथा घड़ियों के पुर्जो को साफ़ करने में
(iv) कल-कारखानों की चिमनियों से कालिख हटाने में
(v) दूध के अंदर के हानिकारक जीवाणुओं की नष्ट में
(vi) गठिया रोग के उपचार एवं मष्तिष्क के ट्यूमर का पता लगाने में
सरल लोलक और सरल आवर्त गति

सरल आवर्त्त गति (simple harmonic motion):

1. आवर्त गति (periodic motion): एक निश्चित पथ पर गति करती वस्तु जब किसी निश्चित समय -अंतराल के पश्चात बार-बार अपनी पूर्व गति को दोहराती है, तो इस प्रकार की गति को आवर्त गति कहते हैं।

2. दोलन गति (oscillatory motion): किसी पिंड की साम्य स्थिति के इधर-उधर करने को दोलन गति या कम्पनिक गति कहते हैं। दोलन किसे कहते हैं-

(i) दोलन- एक दोलन या एक कपंन: दोलन करने वाले कण का अपनी साम्य स्थिति के एक ओर जाना फिर साम्य स्थिति में आकर दूसरी ओर जाना और पुनः साम्य स्थिति में वापस लौटना, एक दोलन या कपंन कहलाता है।
(ii) आवर्त काल (time period): एक दोलन पूरा करने के समय को आवर्त काल कहते है।

3. आवृत्ति (frequency): कंपन करने वाली वस्तु एक सेकंड में जितना कंपन करती है, उसे उसकी आवृत्ति कहते है। इसका S.I. मात्रक हर्ट्ज़(hertz) होता है। यदि आवृत्ति n तथा आवर्त काल T हो, तो n = 1/T होता है।

सरल आवर्त गति (simple harmonic motion): यदि कोई वस्तु एक सरल रेखा पर मध्यमान स्थिति (mean position) के इधर-उधर इस प्रकार की गति करे कि वस्तु का त्वरण मध्यमान स्थिति से वस्तु के विस्थापन के अनुक्रमानुपाती हो तथा त्वरण की दिशा मध्यमान स्थिति की ओर हो, तो उसके गति सरल आवर्त कहलाती है।

सरल आवर्त गति की विशेषताएं :

(i) उस पर कोई बल कार्य नहीं करता है।

(ii) उसका त्वरण शून्य होता है।

(iii) वेग अधिकतम होता है।

(iv) गतिज ऊर्जा अधिकतम होती है।

(v) स्थितिज ऊर्जा शून्य होती है।

4. सरल आवर्त गति करने वाला कण जब अपनी गति के अंत बिंदुओं से गुजरता है, तो

(i)उसका त्वरण अधिकतम होता है।

(ii) उस पर कार्य करने वाला प्रत्यानयन बल अधिकतम होता है।

(iii) गतिज ऊर्जा शून्य होती है।

(iv) स्थितिज ऊर्जा अधिकतम होती है।

(v) वेग शून्य होता है।

5. सरल लोलक (simple pendulum): यदि एक भारहीन व लंबाई में न बढ़नेवाली डोली के निकले सिर से पदार्थ के किसी गोल परतु भारी कण को लटकाकर डोरी को किसी दृढ़ आधार से लटका दें तो इस समायोजन को 'सरल लोलक' कहते है। यदि लोलक (bob) को साम्य स्थिति से थोड़ा विस्थापित करके छोड़ दे तो इसकी गति सरल आवर्त गति होती है। यदि डोरी को प्रभावी लंबाई l एवं गुरुत्वीय त्वरण g हो, टी सरल

6. लोलक का आवर्त कार्य

T = 2π √ (l/g) होता है।

इससे निम्न निष्कर्ष निकलते है:

(i) T ∝ √l, अथार्त लंबाई बढ़ने पर T बढ़ जाएगा. यही कारण है कि यदि कोई लड़की झूल झूलते -झूलते खड़ी हो जाए तो उसका गुरुत्व केंद्र ऊपर उठ जायेगा और प्रभावी लंबाई घट जाएगी जिससे झूले का आवर्त काल घट जाएगा। अथार्त झूला जल्दी-जल्दी दोलन करेगा.

(ii) आवर्तकाल लोलक के द्रव्यमान पर निर्भर नहीं करता है, अतः झूलने वाली लड़की की लड़की आकर बैठ जाए तो आवर्तकाल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा.

(iii ) T = √(l/g) यानी किसी लोलक घड़ी को पृथ्वी तल से ऊपर या नीचे ले जाया जाए तो घड़ी का आवर्तकाल (T) बढ़ जाता है, अथार्त घड़ी सुस्त हो जाती है, क्योंकि पृथ्वी तल से ऊपर या नीचे पर 'g' का मान कम होता है।

(iv) यदि लोलक को उपग्रह पर ले जाएं तो वहां भारहीनता के कारण g = 0, अतः घड़ी का आवर्तकाल (T) अनंत ही जाएगा; अतः उपग्रह में लोलक घड़ी काम नहीं करेगी।

7. गर्मियों में लोलक की लंबाई (l) बढ़ जाएगी तो उसका आवर्तकाल (T) भी बढ़ जाएगा. अतः घड़ी सुस्त पड़ जाएगी। सर्दियों में लंबाई (l) कम हो जाने पर आवर्तकाल (T) भी बढ़ जाएगा और लोलक घड़ी तेज चलने लगेगी।

8. चंद्रमा पर लोलक घड़ी ले जाने पर उसका आवर्तकाल बढ़ जाएगा, क्योंकि चंद्रमा पर g का मान पृथ्वी के g के मान का 1/6 गुना है।

पृष्ठ तनाव[सम्पादन]

पृष्ठ तनाव (surface tension): द्रव के स्वतंत्र पृष्ठ में कम-से-कम क्षेत्रफल प्राप्त करने की प्रवृत्ति होती है, जिनके कारण उसका पृष्ठ सदैव तनाव की स्थिति में रहती है। इसे ही पृष्ठ तनाव कहते हैं। किसी द्रव का पृष्ठ तनाव वह बल है, जो द्रव के पृष्ठ पर खींची काल्पनिक रेखा की इकाई लंबाई पर रेखा के लंबवत कार्य करता है। यदि रेखा कि लंबाई (l) पर F बल कार्य करता है, तो पृष्ठ तनाव, T = F/l . पृष्ठ तनाव का S.I. मात्रक न्यूटन/मीटर होता है।

द्रव के पृष्ठ के क्षेत्रफल में एकांक वृद्धि करने के लिए, किया गया कार्य द्रव के पृष्ठ तनाव के बराबर होता है। इनके अनुसार पृष्ठ तनाव का मात्रक जूल/मीटर^२ होगा. द्रव का ताप बढ़ाने पर पृष्ठ तनाव कम हो जाता है और क्रांतिक ताप (critical temp) पर यह शून्य हो जाता है।

संसंजक बल (cohesive force): एक ही पदार्थ के अणुओं के मध्य लगने वाले आकर्षण-बल को संसंजक बल कहते हैं। ठोसों में संसंजक बल का मान अधिक होता है, फलस्वरूप उनके आकार निश्चित होते हैं। गैसों में संसंजक बल का मान नगण्य होता है।

आसंजक बल (adhesive force): दो भिन्न पदार्थों के अणुअों के मध्य लगने वाले आकर्षण-बल को आसंजक बल कहते हैं। आसंजक बल के कारण ही एक वस्तु दूसरी वस्तु से चिपकती है।

केशिकत्व (capillarity tube): एक ऐसी खोखली नली, जिसकी त्रिज्या बहुत कम तथा एक समान होती है, केशनली कहलाता है। केशनली में द्रव के ऊपर चढ़ने या नीचे दबने की घटना को केशिकत्व (capillarity) कहते है।

किस सीमा तक द्रव केशनली में चढ़ता या उतरता है, यह केशनली की त्रिज्या पर निर्भर करता है। संकीर्ण नली में द्रव का चढ़ाव अधिक तथा चौड़ी नली में द्रव का चढ़ाव कम होता है। सामान्यतः जो द्रव कांच को भिंगोता है, वह केश नली में ऊपर चढ़ जाता है, और जो द्रव कांच को नही भिंगोता है वह नीचे दब जाता है। जैसे- जब केशनली को पानी में डुबाया जाता है, तो पानी ऊपर चढ़ जाता है और पानी का सतह केशनली के अंदर धंसा हुआ रहता है। इसके विपरीत केशनली को जब पाने में डुबाया जाता है, तो पारा केशनली में बर्तन में रखे पारे की सतह से नीचे ही रहता है और केशनली में पारा की सतह उभरा हुआ रहता है।

केशिकत्व के उदाहरण

(i) ब्लॉटिंग पेपर- स्याही की शीघ्र सोख लेता है, क्योंकि इसमें बने छोटे-छोटे छिद्र केशनली की तरह कार्य करते हैं।

(ii) लालटेन या लैंप की बत्ती में केशिकत्वन के कारण ही तेल ऊपर चढ़ता है।

(iii) पेड़-पौधों की शाखाओं, तनों एवं पंक्तियों तक जल और आवश्यक लवण केशिकत्व की क्रिया के द्वारा ही पहुँचते हैं।

(iv) कृत्रिम उपग्रह के अंदर (भारहीनता की अवस्था) यदि किसी केशनली को जल में खड़ा किया जाए तो नली में चढ़ने वाले जल स्तंभ का प्रभावी भार शून्य होने के कारण जल नली के दूसरे सिरे तक पहुंच जाएगा चाहे केशनली कितनी भी लंबी क्यों न हो.

(v) वर्षा के बाद किसान अपने खेतों की जुताई कर देते है, ताकि मिट्टी में बनी केशनलियां टूट जाए और पानी ऊपर ना आ सके व मिट्टी में नमी बनी रह सके.

(vi) पतली सुई पृष्ठ तनाव के कारण ही पानी पर तैराई जा सकती है।

(vii) साबुन डिटर्जेंट आदि जल का पृष्ठ तनाव कम कर देता है, अतः वे मैल में गहराई तक चले जाते हैं जिससे कपड़ा ज्यादा साफ़ होता है। साबुन के घोल के बुलबुले बड़े इसलिए बनते हैं की जल में साबुन घोलने पर उसका पृष्ठ तनाव कम हो जाता है।

(viii) पानी पर मच्छरों के लार्वा तैरते रहते है, परंतु पानी में मिट्टी का तेल छिड़क देने पर उसका पृष्ठ तनाव कम हो जाता है, जिससे लार्वा पानी में डूब कर मर जाते है।

विद्युतचुंबकीय तरंगे[सम्पादन]

तरंग (wave): तरंगों को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है:

(i) यांत्रिक तरंग (mechanical wave)

(ii) अयांत्रिक तरंग (non-mechanical wave)

यांत्रिक तरंग: वे तरंगें जो किसी पदार्थिक माध्यम (ठोस, द्रव, अथवा गैस) में संचरित होती है, यांत्रिक तरंगें कहलाती है। यांत्रिक तरंगों को मुख्यतः दो भागों में बांटा गया है:

(a) अनुदैर्घ्य तरंग (longitudinal wave): जब तरंग गति की दिशा माध्यम के कणों के कंपन करने की दिशा के समांतर होती है, तो ऐसी तरंग को अनुदैर्घ्य तरंग कहते है। ध्वनि अनुदैर्घ्य तरंग का उदाहरण है।
(b) अनुप्रस्थ तरंग (transverse wave): जब तरंग गति की दिशा माध्यम के कणों के कंपन्न करने की दिशा के लंबवत होती है, तो इस प्रकार की तरंगों को अनुप्रस्थ तरंग कहते हैं।

अयांत्रिक तरंग या विद्युतचुंबकीय तरंग (electromagnetic waves): वैसे तरंगें जिसके संचरण के लिए किसी भी माध्यम की आवश्यकता नहीं होती है, अथार्त तरंगे निर्वात में भी संचरित हो सकती हैं, जिन्हें विद्युत चुंबकीय या अयांत्रिक तरंग कहते हैं:

सभी विद्युत चुंबकीय तरंगें एक ही चाल से चलती हैं, जो प्रकाश की चाल के बराबर होती है।
सभी विद्युत चुंबकीय तरंगें फोटोन की बनी होती हैं।
विद्युत चुंबकीय तरंगों का तरंगदैर्घ्य परास (रेंज) 10^-14 मी. से लेकर 10^4मी. तक होता है।
विद्युत चुंबकीय तरंगों के गुण

(a) यह उदासीन होती है।

(b) यह अनुप्रस्थ होती है।

(c) यह प्रकाश के वेग से गमन होती है।

(d) इसके पास ऊर्जा एवं संवेग होता है।

(e) इसकी अवधारणा मैक्सवेल के द्वारा प्रतिपादित की गई है।


प्रमुख विद्युत चुंबकीय तरंगें
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गामा-किरणें

खोजकर्ता: बैकुरल

तरंग दैर्घ्य परास: 10^-14m से 10^-10m तक

आवृत्ति परास Hz: 10^20 से 10^18 तक

उपयोग: इसकी वेधन क्षमता अत्यधिक होती है, इसका उपयोग नाभिकीय अभिक्रिया तथा कृत्रिम रेडियो धर्मिता में की जाती है।


एक्स किरणें

खोजकर्ता: रॉन्जन;

तरंग दैर्घ्य परास: 10^-10m से 10^-8m तक

आवृत्ति परास Hz: 10^18 से 10^16 तक

उपयोग: चिकित्सा एवं अौद्योगिक क्षेत्र में इसका उपयोग किया जाता है।


विद्युत चुंबकीय तरंगें: पराबैंगनी किरणें

खोजकर्ता: रिटर

तरंग दैर्घ्य; परास: 10^-8m से 10^-7m तक

आवृत्ति परास Hz: 10^16 से 10^14 तक

उपयोग: सिकाई करने, प्रकाश-वैद्युत प्रभाव को उतपन्न करने, बैक्टीरिया को नष्ट करने में किया जाता है।


दृश्य विकिरण

खोजकर्ता: न्यूटन

तरंग दैर्घ्य परास: 3.9 x 10^-7m से7.8 x10^-7m तक

आवृत्ति परास Hz:10^14 से 10^12 तक

उपयोग: इससे हमें वस्तुएं दिखलाई पड़ती हैं।


अवरक्त विकिरण

खोजकर्ता: हरशैल

तरंग दैर्घ्य परास: 7.8 x 10^-7m से 10^-3m तक

आवृत्ति परास Hz: 10^12 से 10^10तक

उपयोग: ये किरणें उष्णीय विकिरण है, ये जिस वस्तु पर पड़ती है, उसका ताप बढ़ जाता है। इसका उपयोग कोहरे में फोटो ग्राफी करने एवं रोगियों की सेंकाई करने में किया जाता है।


लघु रेडियो तरंगें या हर्टज़ियन तरंगें

खोजकर्ता: हेनरिक हर्ट्ज़

तरंग दैर्घ्य परास: 10^-3m से 1m तक

आवृत्ति परास Hz: 10^10 से 10^8 तक

उपयोग: रेडियो, टेलीविजन और टेलीफोन में इसका उपयोग होता है।


दीर्घ रेडियो तरंगें;

खोजकर्ता: मारकोनी

तरंग दैर्घ्य परास: 1 m से 10^4 m तक

आवृत्ति परास Hz: 10^6 से 10^4 तक

उपयोग: रेडियो और टेलीविजन में उपयोग होता है।

नोट: 10^-3 m से 10^-2m की तरंगें सूक्ष्म तरंगें कहलाती हैं।


तरंग गति[सम्पादन]

तरंग-गति (wave motion): किसी कारक द्वारा उत्पन्न विक्षोभ के आगे बढ़ाने की प्रक्रिया को तरंग-गति कहते हैं।

कंपन की कला (phase of vibration): आवर्त गति में कंपन करते हुए किसी कण की किसी क्षण पर स्थिति तथा गति की दिशा को जिस राशि द्वारा निरूपित किया जाता है। उससे उस क्षण पर उस के कंपन की कला कहते है। निम्न तरंगें विद्युतचुंबकीय नहीं है:-

(i) कैथोड किरणें

(ii) कैनाल किरणें

(iii) α-किरणें

(iv) β- किरणें

(v) ध्वनि तरंगें

(vi) पराश्रव्य तरंगें

आयाम (amplitude): दोलन करने वाली वस्तु अपनी साम्य स्थिति की किसी भी ओर जितनी अधिक-से-अधिक दूरी तक जाती है, उस दूरी को दोलन का आयाम कहते हैं।

तरंगदैर्घ्य (wave-length): तरंग गति में समान कला में कंपन करने वाले दो क्रमागत कणों के बीच की दूरी को तरंगदैर्घ्य कहते हैं। इसे ग्रीक अक्षर λ(लैम्डा) से व्यक्त किया जाता है। अनुप्रस्थ तरंगों में दो पास-पास के श्रंगों अथवा गर्त्तो के बेच की दूरी तथा अनुदैर्घ्य तरंगों में क्रमागत दो सम्पीडनों या विरलनों के बीच की दूरी तरंगदैर्घ्य कहलाती है। सभी प्रकार की तरंगों में तरंग की चाल, तरंगदैर्घ्य एवं आवृत्ती के बीच निम्न संबंध होता है:-

तरंग-चाल = आवृत्ति x तरंगदैर्घ्य

परमाणु भौतिकी (Atomic physics)[सम्पादन]

यह भौतिकी की एक शाखा है, जो अणु के नाभिक से सम्बंधित है। परमाणु भौतिकी (Atomic physics) के अन्तर्गत परमाणुओं का अध्ययन इलेक्ट्रानों तथा परमाणु नाभिक के विलगित निकाय के रूप में किया जाता है। इसमें अध्ययन का बिन्दु मुख्यतः यह होता है कि नाभिक के चारों तरफ इलेक्ट्रानों का विन्यास (arrangement) कैसा है और किस प्रक्रिया के द्वारा यह विन्यास परिवर्तित होता है।

इसके तीन मुख्य पहलू हैं :-

  • मौलिक कणों (प्रोटान और न्यूट्रान) और उनकी परस्पर प्रभाव की जांच करना,
  • नाभियों के गुणों को वर्गीकृत एवं व्याखित करना
  • प्रौद्योगिक विकास के तत्त्व जुटाना