संस्कृत में गणित एवं विज्ञान के सिद्धान्त

विकिपुस्तक से

गणित की परिभाषा तथा महत्व[सम्पादन]

भारतीय परम्परा में गणेश दैवज्ञ ने अपने ग्रन्थ बुद्धिविलासिनी में गणित की परिभाषा निम्नवत की है-

गण्यते संख्यायते तद्गणितम्। तत्प्रतिपादकत्वेन तत्संज्ञं शास्त्रं उच्यते।
(जो परिकलन करता और गिनता है, वह गणित है तथा वह विज्ञान जो इसका आधार है वह भी गणित कहलाता है।)


वेदांग ज्योतिष में गणित का स्थान सर्वोपरि (मूधन्य) बताया गया है -

यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्वद् वेदांगशास्त्राणां गणितं मूर्ध्नि संस्थितम् ॥ -- (वेदांग ज्योतिष - ५)
(जिस प्रकार मोरों के सिर पर शिखा और नागों के सिर में मणि सर्वोच्च स्थान में होते हैं उसी प्रकार वेदांगशास्त्रों में गणित का स्थान सबसे उपर (मूर्धन्य) है।

इसी प्रकार,

बहुभिर्प्रलापैः किम्, त्रयलोके सचरारे।
यद् किंचिद् वस्तु तत्सर्वम्, गणितेन् बिना न हि ॥ — महावीराचार्य, गणितसारसंग्रह में
(बहुत प्रलाप करने से क्या लाभ है ? इस चराचर जगत में जो कोई भी वस्तु है वह गणित के बिना नहीं है / उसको गणित के बिना नहीं समझा जा सकता)

खगोल-विज्ञान के साथ तो गणित का अन्योन्य सम्बन्ध माना गया है। भास्कराचार्य का कहना है कि खगोल तथा गणित में एक दूसरे से अनभिज्ञ पुरुष उसी प्रकार महत्त्वहीन है, जैसे घृत के बिना व्यंजन, राजा के बिना राज्य तथा अच्छे वक्ता के बिना सभा होती है—

भोज्यं यता सर्वरसं विनाज्यं राज्यं यथा राजविवर्जितं च।
सभा न भातीव सुवक्तृहीना गोलानभिज्ञो गणकस्तथात्र ॥ -- (सिद्धान्तशिरोमणि, गोलाध्याय, श्लोक 4)
गणकों के गुण

गणितसारसंग्रह के संज्ञाधिकार के अन्त में महावीराचार्य ने गणकों (गणितज्ञों) के ८ गुण गिनाए हैं-

अथ गणकगुणनिरूपणम्

लघुकरणोहापोहानालस्यग्रहणधारणोपायैः।
व्यक्तिकराङ्कविशिष्टैर् गणकोऽष्टाभिर् गुणैर् ज्ञेयः॥
(लघुकरण, उह, अपोह, अनालस्य, ग्रहण, धारण, उपाय, व्यक्तिकरांकविशिष्ट - इन आठ गुणों से गणक को जाना जाता है।)
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के अनुसार 'आचार्य' की योग्यताएँ
कुट्टक-ख-ऋण-धन-अव्यक्त-मध्य-हरण-एक-वर्ण-भावितकैस् ।
आचार्यस् तन्त्र-विदाम् ज्ञातैस् वर्ग-प्रकृत्या च ॥

बोधायन सूत्र (तथाकथित पाइथागोरस प्रमेय)[सम्पादन]

शुल्बसूत्रों में बौधायन का शुल्बसूत्र सबसे प्राचीन माना जाता है। इन शुल्बसूत्रों का रचना समय १२०० से ८०० ईसा पूर्व माना गया है।

बोधायन का सूल्व सूत्र इस प्रकार है-

दीर्घ चतुरस स्याक्ष्व्या रज्जुः पार्श्वमानी,
तिर्यङ्मानी च यत्पृथ्बभूते कुरु हस्तेदुर्भय करोति॥
अर्थात् दीर्घ चतुरस (आयत) के विकर्ण (रज्जू) का क्षेत्र (वर्ग) का मान आधार (पार्श्वमानी) एवं त्रियंगमानी (लंब) के वर्गों का योग होता है। सूल्व सूत्र आधुनिक काल में 'पाइथागोरस का सूत्र' के नाम से प्रचलित है। पैथागोरस ने ईसा पूर्व 535 में मिस्र की यात्रा की थी। संभव है कि पैथागोरस को मिस्र में सूल्व सूत्र की जानकारी प्राप्त हो चुकी हो।


ग्रहों की स्थिति, काल एवं गति[सम्पादन]

महर्षि लगध ने ऋग्वेद एवं यजुर्वेद की ऋचाओं से वेदांग ज्योतिष संग्रहीत किया। वेदांग ज्योतिष में ग्रहों की स्थिति, काल एवं गति की गणना के सूत्र दिए गए हैं।

तिथि मे का दशाम्य स्ताम् पर्वमांश समन्विताम्।
विभज्य भज समुहेन तिथि नक्षत्रमादिशेत॥
अर्थात् तिथि को 11 से गुणा कर उसमें पर्व के अंश जोड़ें और फिर नक्षत्र संख्या से भाग दें। इस प्रकार तिथि के नक्षत्र बतावें।नेपाल में इसी ग्रन्थ के आधार मे विगत ६ साल से "वैदिक तिथिपत्रम्" व्यवहार मे लाया गया है।

पृथ्वी का गोल आकार[सम्पादन]

निम्नलिखित में पृथ्वी को 'कपित्थ फल की तरह' (गोल) बताया गया है और इसे 'पंचभूतात्मक' कहा गया है-

मृदम्ब्वग्न्यनिलाकाशपिण्डोऽयं पाञ्चभौतिकः।
कपित्थफलवद्वृत्तः सर्वकेन्द्रेखिलाश्रयः ॥
स्थिरः परेशशक्त्येव सर्वगोऴादधः स्थितः ।
मध्ये समान्तादण्डस्य भूगोलो व्योम्नि तिष्ठति ॥

प्रकाश का वेग[सम्पादन]

सायणाचार्यः ने प्रकाश का वेग निम्नलिखित श्लोक में प्रतिपादित किया है-

योजनानं सहस्रे द्वे द्वे शते द्वे च योजने ।
एकेन निमिषार्धेन क्रममाण नमोऽस्तुते ॥

इसकी व्याख्या करने पर प्रकाश का वेग ६४००० कोस (= १८५०० मील) इति उक्तम् अस्ति । प्रकाश के वेग का आधुनिक मान १८६२०२.३९६० मील/सेकेण्ड है।

त्रिकोणमितीय सन्निकटन (approximation)[सम्पादन]

In the third section ग्रहगणित, while treating the motion of planets, he (भास्कर द्वितीय) considered their instantaneous speeds. He arrived at the approximation:

for close to , or in modern notation:
.

भास्कर द्वितीय के शब्दों में,

बिम्बार्धस्य कोटिज्या गुणस्त्रिज्याहारः फलं दोर्ज्यायोरान्तरम्

इसी को मुञ्जलाचार्य या मञ्जुलाचार्य (९३२ ई०) ने भास्कर से भी पहले अपने ग्रन्थ 'लघुमानसम्' में ज्या सारणी (table of sines) में प्रतिपादित किया था। भास्कर ने यह भी कहा है कि अपने कक्षा के उच्चतम बिन्दु पर ग्रह की तात्क्षणिक चाल शून्य होती है।

संख्या रेखा की परिकल्पना (कॉन्सेप्ट्)[सम्पादन]

In Brhadaranyaka Aankarabhasya (4.4.25) Srisankara has developed the concept of number line. In his own words

एकप्रभृत्यापरार्धसंख्यास्वरूपपरिज्ञानाय रेखाध्यारोपणं कृत्वा एकेयं रेखा दशेयं, शतेयं, सहस्रेयं इति ग्राहयति, अवगमयति, संख्यास्वरूम, केवलं, न तु संख्याया: रेखातत्त्वमेव

जिसका अर्थ यह है-

1 unit, 10 units, 100 units, 1000 units etc. up to parardha can be located in a number line. Now by using the number line one can do operations like addition, subtraction and so on.

पाई[सम्पादन]

अपरिमेय (इर्रेशनल) के रूप में पाई

आर्यभट ने पाई ( π ) के सन्निकटन (approximation) पर कार्य किया और शायद उन्हें इस बात का ज्ञान हो गया था कि पाई अपरिमेय (इर्रेशनल) है। आर्यभटीय (गणितपाद) के दूसरे भाग में वह लिखते हैं:

चतुराधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्त्राणाम्।
अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्य आसन्नौ वृत्तपरिणाहः॥
१०० में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर ६२००० जोड़ें। इस नियम से २०००० परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है।
(१०० + ४) * ८ + ६२०००/२०००० = ३.१४१६

पृथ्वी गतिशील है[सम्पादन]

अनुलोम-गतिस् नौ-स्थस् पश्यति अचलम् विलोम-गम् यद्-वत् ।
अचलानि भानि तद्-वत् सम-पश्चिम-गानि लङ्कायाम् ॥ (आर्यभटीय गोलपाद ९)
जैसे एक नाव में बैठा आदमी आगे बढ़ते हुए स्थिर वस्तुओं को पीछे की दिशा में जाते देखता है, बिल्कुल उसी तरह श्रीलंका में (अर्थात भूमध्य रेखा पर) लोगों द्वारा स्थिर तारों को ठीक पश्चिम में जाते हुए देखा जाता है।

सतत भिन्न द्वारा अनिर्धार्य समीकरण का हल[सम्पादन]

Indian scholar Narayana (1350 A. D.) composed two books, viz. (i) बीजगणितम and (ii) गणितकौमुदी. He perhaps used the knowledge of simple recurring continued fraction in the solution of the indeterminate equation of type Nx2 + K<su2 = y2.

Result I. (Ganita Kaumudi, Varga prakrti Vss. 2−412)

hrasvajyesthaksepan kramasastesamadho nyaset tanstu
anyanyesam nyasa stasya bhaved bhavana-nama || 2 ||
vajrabhyasau hrasva jyesthakayoh samyutirbhaved hrasvam
laghughatah prakrtihato jyesthavadhenanvito jyestham || 3 ||
ksiptorghatah ksepah syad vajrabhyasayorviseso va
hrasvam lavdhorghatah prakrtighno jyesthyosca vadhah || 4 ||
tadvivaram jyesthapadam ksepah ksiptyoh prajayate ghatah 412

अंग्रेजी अनुवाद:

Set down successively (क्रमशः) the lesser (ह्रस्व) root, greater (ज्येष्ठ) root and interpolator (क्षेप) and below them set down in order the same or another (set of similar quantities). [From them by the principle of composition can be obtained numerous roots]. The principle of composition (भवन) will be explained here.

"(Find) the two cross products (वज्रभ्यासो) of the two lesser and two greater roots ; their sum is a lesser root. Add the product of the two lesser roots multiplied by prakrti to the product of the two greater roots. The sum will be a greater root. (3).

In that (equation) the interpolator will be the product of the two previous interpolators. Again the difference of the two cross products is a lesser root. Subtract the product of the two lesser roots multiplied by prakrti from the product of the greater roots; (The difference) will be a greater root. Here also the interpolator is the product of the two (previous) interpolator (4,412)."

छन्दशास्त्र में गणित[सम्पादन]

पिंगल के छन्दशास्त्र में 'मेरूप्रस्तर' नाम से पास्कल त्रिकोण (पास्कल ट्रैंगिल) की चर्चा है। हलायुध ने इस पर 'मृतसंजीवनी' नामक टीका लिखी है।

हलायुध के व्याख्यान से उद्धृत-

परे पूर्णमिति । उपरिष्टादेकं चतुरस्रकोष्ठं लिखित्वा तस्याधस्तात् उभयतोर्धनिष्क्रान्तं कोष्ठद्वयं लिखेत् । तस्याप्यधस्तात् त्रयं तस्याप्यधस्तात् चतुष्टयं यावदभिमतं स्थानमिति मेरुप्रस्तारः । तस्य प्रथमे कोष्ठे एकसंख्यां व्यवस्थाप्य लक्षणमिदं प्रवर्तयेत् । तत्र परे कोष्ठे यत् वृत्तसंख्याजातं तत् पूर्वकोष्ठयोः पूर्णं निवेशयेत् ।

चक्रीय चतुर्भुज का क्षेत्रफल[सम्पादन]

ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के गणिताध्याय के क्षेत्रव्यवहार के श्लोक १२.२१ में निम्नलिखित श्लोक वर्णित है-

स्थूल-फलम् त्रि-चतुर्-भुज-बाहु-प्रतिबाहु-योग-दल-घातस् ।
भुज-योग-अर्ध-चतुष्टय-भुज-ऊन-घातात् पदम् सूक्ष्मम् ॥
(त्रिभुज और चतुर्भुज का स्थूल (लगभग) क्षेत्रफल उसकी आमने-सामने की भुजाओं के योग के आधे के गुणनफल के बराबर होता है। तथा सूक्ष्म (exact) क्षेत्रफल भुजाओं के योग के आधे में से भुजाओं की लम्बाई क्रमशः घटाकर और उनका गुणा करके वर्गमूल लेने से प्राप्त होता है। )

ब्रह्मगुप्त प्रमेय[सम्पादन]

चक्रीय चतुर्भुज के विकर्ण यदि लम्बवत हों तो उनके कटान बिन्दु से किसी भुजा पर डाला गया लम्ब सामने की भुजा को समद्विभाजित करता है।

ब्रह्मगुप्त ने श्लोक में कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त किया है-

त्रि-भ्जे भुजौ तु भूमिस् तद्-लम्बस् लम्बक-अधरम् खण्डम् ।
ऊर्ध्वम् अवलम्ब-खण्डम् लम्बक-योग-अर्धम् अधर-ऊनम् ॥ -- (ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त, गणिताध्याय, क्षेत्रव्यवहार १२.३१)

वर्ग-समीकरण का व्यापक सूत्र[सम्पादन]

ब्रह्मगुप्त का सूत्र इस प्रकार है —

वर्गचतुर्गुणितानां रुपाणां मध्यवर्गसहितानाम् ।
मूलं मध्येनोनं वर्गद्विगुणोद्धृतं मध्यः ॥ -- ब्राह्मस्फुट-सिद्धांत - 18.44

अर्थात :-

व्यक्त रुप (c) के साथ अव्यक्त वर्ग के चतुर्गुणित गुणांक (4ac) को अव्यक्त मध्य के गुणांक के वर्ग (b²) से सहित करें या जोड़ें। इसका वर्गमूल प्राप्त करें तथा इसमें से मध्य अर्थात b को घटावें। पुनः इस संख्या को अज्ञात ञ वर्ग के गुणांक (a) के द्विगुणित संख्या से भाग देवें। प्राप्त संख्या ही अज्ञात ञ राशि का मान है।

श्रीधराचार्य ने इस बहुमूल्य सूत्र को भास्कराचार्य का नाम लेकर अविकल रुप से उद्धृत किया —

चतुराहतवर्गसमैः रुपैः पक्षद्वयं गुणयेत् ।
अव्यक्तवर्गरूपैर्युक्तौ पक्षौ ततो मूलम् ॥ -- भास्करीय बीजगणित, अव्यक्त-वर्गादि-समीकरण, पृ. - 221

अर्थात :-

प्रथम अव्यक्त वर्ग के चतुर्गुणित रूप या गुणांक (4a) से दोनों पक्षों के गुणांको को गुणित करके द्वितीय अव्यक्त गुणांक (b) के वर्गतुल्य रूप दोनों पक्षों में जोड़ें। पुनः द्वितीय पक्ष का वर्गमूल प्राप्त करें।

आर्यभट की ज्या (Sine) सारणी[सम्पादन]

आर्यभटीय का निम्नांकित श्लोक ही आर्यभट की ज्या-सारणी को निरूपित करता है:

मखि भखि फखि धखि णखि ञखि ङखि हस्झ स्ककि किष्ग श्घकि किघ्व ।
घ्लकि किग्र हक्य धकि किच स्ग झश ङ्व क्ल प्त फ छ कला-अर्ध-ज्यास् ॥

माधव की ज्या सारणी[सम्पादन]

निम्नांकित श्लोक में माधव की ज्या सारणी दिखायी गयी है। जो चन्द्रकान्त राजू द्वारा लिखित 'कल्चरल फाउण्डेशन्स आफ मैथमेटिक्स' नामक पुस्तक से लिया गया है।

श्रेष्ठं नाम वरिष्ठानां हिमाद्रिर्वेदभावनः।
तपनो भानुसूक्तज्ञो मध्यमं विद्धि दोहनं।।
धिगाज्यो नाशनं कष्टं छत्रभोगाशयाम्बिका।
म्रिगाहारो नरेशोऽयं वीरोरनजयोत्सुकः।।
मूलं विशुद्धं नालस्य गानेषु विरला नराः।
अशुद्धिगुप्ताचोरश्रीः शंकुकर्णो नगेश्वरः।।
तनुजो गर्भजो मित्रं श्रीमानत्र सुखी सखे!।
शशी रात्रौ हिमाहारो वेगल्पः पथि सिन्धुरः।।
छायालयो गजो नीलो निर्मलो नास्ति सत्कुले।
रात्रौ दर्पणमभ्राङ्गं नागस्तुङ्गनखो बली।।
धीरो युवा कथालोलः पूज्यो नारीजरैर्भगः।
कन्यागारे नागवल्ली देवो विश्वस्थली भृगुः।।
तत्परादिकलान्तास्तु महाज्या माधवोदिताः।
स्वस्वपूर्वविशुद्धे तु शिष्टास्तत्खण्डमौर्विकाः।। २.९.५

पाई (π) का मान[सम्पादन]

निम्नलिखित श्लोक में संगमग्राम के माधव ने वृत्त की परिधि और उसके व्यास का सम्बन्ध (अर्थात पाई का मान) बताया है जो इस श्लोक में भूतसंख्या के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है-

विबुधनेत्रगजाहिहुताशनत्रिगुणवेदाभवारणबाहवः
नवनिखर्वमितेवृतिविस्तरे परिधिमानमिदं जगदुर्बुधः

इसका अर्थ है- 9 x 1011 व्यास वाले वृत्त की परिधि 2872433388233 होगी।

33 2 8 8
विबुध (देव) नेत्र गज अहि (नाग)
3 3 3
हुताशन (अग्नि) त्रि गुण
4 27 8 2
वेदा भ (नक्षत्र) वारण (गज) बाहवै (भुजाएँ)

त्रिभुज के अन्तःवृत्त की त्रिज्या[सम्पादन]

परिधेः पादेन भजेदनायतक्षेत्रसूक्ष्मगणितं तत् ।
क्षेत्राभ्यन्तरवृत्ते विष्कम्भोsयं विनिर्दिष्टः॥ -- गणितसारसंग्रह २२३ १/२

The area of any rectangualar figure other than rectangle divided by one-fourth of the perimeter gives the diameter of the inscribed circle.

पूर्णांक को इकाई भिन्नों के रूप में व्यक्त करना[सम्पादन]

To express 1 as the sum of n unit fractions (गतिणसारसंग्रह कलासवर्ण 75, examples in 76):

रूपांशकराशीनां रूपाद्यास्त्रिगुणिता हराः क्रमशः ।
द्विद्वित्र्यंशाभ्यस्ताव आदिमचरमौ फले रूपे ॥

When the result is one, the denominators of the quantities having one as numerators are [the numbers] beginning with one and multiplied by three, in order. The first and the last are multiplied by two and two-thirds [respectively].

1 = 1 1 ⋅ 2 + 1 3 + 1 3 2 + ⋯ + 1 3 n − 2 + 1 2 3 ⋅ 3 n − 1

विविध[सम्पादन]

भास्कराचार्य ने लीलावती में लिखा है-

तत्कृत्योर्योगपदं कर्णः दोष्कर्णवर्गयोर्विवरात् ।
मूलं कोटिः कोटिश्रुतिकृत्योः अन्तरात् पदं बाहुः ॥

बाहरी सूत्र[सम्पादन]