समसामयिकी 2020/केंद्र एवं राज्य सरकार

विकिपुस्तक से

सर्वोच्च न्यायालय ने मणिपुर विधानसभा में विधायकों की अयोग्यता से संबंधित केशिम मेघचंद्र सिंह बनाम मणिपुर विधानसभा अध्यक्ष वाद पर चर्चा करते हुए सिफारिश की है कि सदन के अध्यक्ष के किसी एक राजनीतिक दल से विशेष संबंध को देखते हुए संसद को इस बात पर पुनर्विचार करना चाहिये कि लोकसभा या विधानसभा अध्यक्ष को एक अर्द्धन्यायिक प्राधिकारी के रूप में दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य ठहराए जाने वाली याचिकाओं पर निर्णय लेने का अधिकार दिया जाना चाहिये या नहीं।

लोकसभा अध्यक्ष के संदर्भ में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि “अध्यक्ष सदन की गरिमा तथा उसकी स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व करता है और चूँकि सदन राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिये अध्यक्ष एक प्रकार से राष्ट्र की स्वतंत्रता और स्वाधीनता का प्रतीक होता है।” सदन का अध्यक्ष सदन के प्रतिनिधियों का मुखिया तथा उनकी शक्तियों और विशेषाधिकारों का अभिभावक होता है। भारत के राजनीतिक इतिहास में ऐसे कई महत्त्वपूर्ण उदाहरण मौजूद हैं, जिनमें सदन के अध्यक्षों ने महत्त्वपूर्ण निर्णय लेकर राज्य या राष्ट्र की राजनीति को प्रभावित किया है: वर्ष 1988 में तमिलनाडु विधानसभा अध्यक्ष पी.एच. पांडियन ने अपनी ही पार्टी- अन्नाद्रमुक (AIADMK) के छह वरिष्ठ मंत्रियों को अयोग्य ठहराया था।

अध्यक्ष की भूमिका:-सदन का अध्यक्ष सदन का प्रधान प्रवक्ता होता है और सदन में सामूहिक मत का प्रतिनिधित्व करता है। दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता के मामलों सहित सभी संसदीय मामलों में अध्यक्ष का निर्णय अंतिम और बाध्यकारी होता है, जिसे सामान्यतः न्यायालय के समक्ष चुनौती नहीं दी जा सकती है। इस प्रकार अध्यक्ष सदन में मध्यस्थ के रूप में भी कार्य करता है। हालाँकि किहोतो होलोहन बनाम जाचिल्लू मामले (1993) में सर्वोच्च न्यायालय का मत था कि दसवीं अनुसूची के तहत सदस्यों की अयोग्यता के संबंध में सदन के अध्यक्ष के निर्णय को न्यायालय के समक्ष चुनौती दी जा सकती है। अध्यक्ष सदन की कार्यवाही को सुचारु रूप से चलाने और उसे विनियमित करने के लिये सदन में व्यवस्था और शिष्टाचार बनाए रखने का कार्य भी करता है। अध्यक्ष को बहस के लिये अवधि आवंटित करने और सदन के सदस्यों को अनुशासित करने का अधिकार है। साथ ही वह सदन की विभिन्न समितियों द्वारा लिये गए निर्णयों को भी रद्द कर सकता है। सदन का अध्यक्ष सदन के कामकाज से संबंधित नियमों का अंतिम व्याख्याकार भी होता है।

पक्षपात का आरोप:-अध्यक्ष पद के साथ निहित तमाम अधिकारों और शक्तियों के कारण स्वतंत्रता और निष्पक्षता इस पद के लिये एक अनिवार्य शर्त हो जाती है। किंतु इसके बावजूद समय-समय पर अध्यक्ष पद पर राजनीतिक दल का एजेंट होने का आरोप लगाकर आलोचना की जाती है। वर्ष 2006 के जगजीत सिंह बनाम हरियाणा राज्य वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने निष्पक्षता के मामले में अध्यक्ष की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगाया था। किहोतो होलोहन बनाम जाचिल्लू मामले (1993) में सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने कहा था कि सदन के अध्यक्ष की निष्पक्षता पर संदेह से इनकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि उसका चुनाव और कार्यकाल सदन के बहुमत (या विशेष रूप से सत्ता पक्ष) पर निर्भर करता है।

उपाय:- ब्रिटेन में सदन का अध्यक्ष अनिवार्य रूप से एक निर्दलीय सदस्य होता है। ब्रिटेन में यह परंपरा है कि अध्यक्ष को अपनी पार्टी से इस्तीफा देना होगा और राजनीतिक रूप से तटस्थ रहना होगा। इसके अलावा वह एक बार निर्वाचित होने पर सेवानिवृत्ति तक पद पर बना रहता है, भले ही सदन में उसके दल का बहुमत न रहे।

न्यायालय ने हालिया केशिम मेघचंद्र सिंह बनाम मणिपुर विधानसभा अध्यक्ष वाद में एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण के गठन का सुझाव दिया है जो दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता से संबंधित मामलों को निपटने के लिये लोकसभा और विधानसभाओं के अध्यक्ष का स्थान लेगा। इस स्वतंत्र न्यायाधिकरण का नेतृत्व सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश द्वारा किया जाएगा। निष्पक्षता और स्वायत्तता किसी भी मज़बूत संस्थान की पहचान होते हैं। अतः आवश्यक है कि सदन के अध्यक्ष पद की निष्पक्षता और स्वायत्तता को बरकरार रखा जाए।

एक देश-एक चुनाव’ की ज़रूरत क्यों[सम्पादन]

आज बहस के केंद्र में है, लेकिन विगत में 1952, 1957, 1962, 1967 में ऐसा हो चुका है, जब लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ करवाए गए थे। यह क्रम तब टूटा जब वर्ष 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएँ विभिन्न कारणों से समय से पहले भंग कर दी गईं। वर्ष 1971 में पहली बार लोकसभा चुनाव भी समय से पहले हो गए थे। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब इस प्रकार चुनाव पहले भी करवाए जा चुके हैं तो अब क्या समस्या है?

चुनावों को लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव माना जाता है। अगर हम देश में होने वाले चुनावों पर नज़र डालें तो पाते हैं कि हर वर्ष किसी-न-किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं। चुनावों की इस निरंतरता के कारण देश लगातार चुनावी मोड में बना रहता है। इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं बल्कि देश के खजाने पर भी भारी बोझ भी पड़ता है। हाल ही में हुए 17वीं लोकसभा के चुनाव में एक अनुमान के अनुसार, 60 हज़ार करोड़ रुपए से अधिक का खर्च आया और लगभग तीन महीने तक देश चुनावी मोड में रहा।

निश्चित ही ऐसी परिस्थतियों में ‘एक देश-एक चुनाव’ विचार पहली नज़र में अच्छा प्रतीत होता है, पर यह व्यावहारिक है या नहीं, इस पर विशेषज्ञों की अलग-अलग राय है। बेशक बार-बार होने वाले चुनावों के बजाय एक स्थायित्व वाली सरकार बेहतर होती है, लेकिन इसके लिये सबसे ज़रूरी है आम सहमति का होना और यह कार्य बेहद मुश्किल है। राजनीतिक सर्वसम्मति के अभाव में संविधान में आवश्यक संशोधन करना संभव नहीं होगा, क्योंकि इसके लिये दो-तिहाई बहुमत की ज़रूरत पड़ेगी, जो कि बिना आम सहमति के नहीं किया जा सकता।

एक देश एक चुनाव’ कितना फायदेमंद?

‘एक देश-एक चुनाव’ के सिद्धांत को अमल में लाकर चुनाव के खर्च, पार्टी के खर्च आदि पर नज़र तथा नियंत्रण रखने में सहूलियत होगी। जब वर्ष 1951-52 में लोकसभा का पहला चुनाव हुआ था तो 53 दलों ने चुनाव में भागीदारी की थी, 1874 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था और चुनाव खर्च लगभग 11 करोड़ रुपए आया था। अब इसकी तुलना हाल ही में संपन्न 17वीं लोकसभा के चुनाव से करते हैं...610 राजनीतिक दल थे और लगभग 9000 उम्मीदवार। लेकिन इन पर लगभग 60 हज़ार करोड़ रुपए (सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ का अनुमान) खर्च हुए, जबकि राजनीतिक दलों ने अपने चुनावी खर्चों की जानकारी अभी नहीं दी है। 7 चरणों में 75 दिनों में संपन्न हुए इस आम चुनाव को अब तक का सबसे खर्चीला चुनाव बताया जा रहा है। इस लिहाज़ से एक वोट पर औसतन 700 रुपए खर्च किये गए और हर लोकसभा क्षेत्र में 100 करोड़ रुपयए खर्च हुए। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में लगभग 30 हज़ार करोड़ रुपए का खर्च आया था, जो मात्र पाँच वर्षों में बढ़कर दोगुना हो गया।

वर्ष 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराने का समर्थन किया था।

चुनाव सुधारों पर विधि आयोग की इस रिपोर्ट को देश में राजनीतिक प्रणाली के कामकाज पर अब तक के सबसे व्यापक दस्तावेज़ों में से एक माना जाता है। इस रिपोर्ट का एक पूरा अध्याय इसी मुद्दे पर केंद्रित है। राजनीतिक व चुनावी सुधारों से संबंधित इस रिपोर्ट में दलीय सुधारों की बात भी कही गई है। राजनीतिक दलों के कोष, चंदा एकत्रित करने के तरीके और उसमें अनियमितताएँ तथा इन सबका राजनीतिक प्रक्रियाओं पर प्रभाव आदि का भी इस रिपोर्ट में विश्लेषण किया गया है। आज EVM में नोटा (NOTA) का जो विकल्प है, उसकी सिफारिश भी विधि आयोग ने अपनी इस रिपोर्ट में नकारात्मक मतदान की व्यवस्था लागू करने की बात कहकर की थी। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर यह विकल्प मतदाताओं को दिया गया।

चुनौतियाँ

इसकी राह में सबसे बड़ी चुनौती लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को समन्वित करने की है, ताकि दोनों का चुनाव निश्चित समय के भीतर हो सके। राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को लोकसभा के साथ समन्वित करने के लिये राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को तदनुसार घटाया और बढ़ाया जा सकता है, लेकिन इसके लिये कुछ संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता होगी: अनुच्छेद 83: इसमें कहा गया है कि लोकसभा का कार्यकाल उसकी पहली बैठक की तिथि से पाँच वर्ष का होगा। अनुच्छेद 85: यह राष्ट्रपति को लोकसभा भंग करने का अधिकार देता है। अनुच्छेद 172: इसमें कहा गया है कि विधानसभा का कार्यकाल उसकी पहली बैठक की तिथि से पाँच वर्ष का होगा। अनुच्छेद 174: यह राज्य के राज्यपाल को विधानसभा भंग करने का अधिकार देता है। अनुच्छेद 356: यह केंद्र सरकार को राज्य में संवैधानिक मशीनरी की विफलता के मद्देनज़र राष्ट्रपति शासन लगाने का अधिकार देता है। इनके अलावा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के साथ-साथ संबंधित संसदीय प्रक्रिया में भी संशोधन करना होगा। ‘एक देश-एक चुनाव’ के लिये सभी राजनीतिक दलों को राज़ी करना आसान काम नहीं है। कुछ राजनीतिक विशेषज्ञों का यह मानना है कि ‘एक देश-एक चुनाव’ की आवधारणा देश के संघात्मक ढाँचे के विपरीत सिद्ध हो सकती है। इसके अतिरिक्त चुनाव में बड़ी मात्रा में खर्च होने वाला धन भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले कारणों में सबसे ऊपर है। ऐसे में चुनाव की बारंबारता में रोक भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मज़बूत कदम साबित हो सकता है।

लोकसभा के प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियम[सम्पादन]

नियम 378 के अनुसार, लोकसभा अध्यक्ष द्वारा सदन में व्यवस्था बनाई रखी जाएगी तथा उसे अपने निर्णयों को प्रवर्तित करने के लिये सभी शक्तियाँ प्राप्त होंगी।

नियम 373 के अनुसार, यदि लोकसभा अध्यक्ष की राय में किसी सदस्य का व्यवहार अव्यवस्थापूर्ण है तो अध्यक्ष उस सदस्य को लोकसभा से बाहर चले जाने का निर्देश दे सकता है और जिस सदस्य को इस तरह का आदेश दिया जाएगा, वह तुरंत लोकसभा से बाहर चला जाएगा तथा उस दिन की बची हुई बैठक के दौरान वह सदन से बाहर रहेगा। नियम 374 (1), (2) तथा (3) के अनुसार, यदि लोकसभा अध्यक्ष की राय में किसी सदस्य ने अध्यक्ष के प्राधिकारों की उपेक्षा की है या वह जान बूझकर लोकसभा के कार्यों में बाधा डाल रहा है तो लोकसभा अध्यक्ष उस सदस्य का नाम लेकर उसे अवशिष्ट सत्र से निलंबित कर सकता है तथा निलंबित सदस्य तुरंत लोकसभा से बाहर चला जाएगा। नियम 374 (क) (1) के अनुसार, नियम 373 और 374 में अंतर्विष्ट किसी प्रावधान के बावजूद यदि कोई सदस्य लोकसभा अध्यक्ष के आसन के निकट आकर अथवा सभा में नारे लगाकर या अन्य प्रकार से लोकसभा की कार्यवाही में बाधा डालकर जान बूझकर सभा के नियमों का उल्लंघन करते हुए घोर अव्यवस्था उत्पन्न करता है तो लोकसभा अध्यक्ष द्वारा उसका नाम लिये जाने पर वह लोकसभा की पाँच बैठकों या सत्र की शेष अवधि के लिये (जो भी कम हो) स्वतः निलंबित हो जाएगा। निलंबन से संबंधित कुछ उदाहरण:

जनवरी 2019 में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने 45 सांसदों को लगातार कई दिनों तक लोकसभा की कार्यवाही बाधित करने के कारण निलंबित कर दिया था। फरवरी 2014 में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने अविभाजित आंध्र प्रदेश के 18 सांसदों को निलंबित किया था। ये सांसद तेलंगाना राज्य के निर्माण के निर्णय का समर्थन या विरोध कर रहे थे। दिसंबर 2018 में लोकसभा की नियम समिति ने सदन की वेल (Well) में प्रवेश करने वाले तथा पीठासीन के बार-बार मना करने के बावजूद नारे लगाकर लोकसभा के कार्य में बाधा डालने वाले सदस्यों के स्वतः निलंबन की सिफारिश की थी। हालाँकि आमतौर पर देखा गया है कि सत्ताधारी दल हमेशा सदन में अनुशासन और व्यवस्था बनाए रखने पर जोर देता है तथा विपक्षी दल विरोध करने के अपने अधिकार पर बल देते हैं लेकिन उनकी भूमिकाएँ बदलने के साथ ही उनकी स्थितियाँ भी बदल जाती हैं।

राज्यसभा या राज्यपरिषद (Council of States) भारतीय संसद का दूसरा सदन है, जिसकी स्थापना मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार, 1919 के आधार पर की गई।

  • राज्यसभा चुनावों के लिये खुली मतपत्र प्रणाली (Open Ballot System) होती है, किंतु इसके अंतर्गत खुलापन काफी सीमित रूप में होता है।क्रॉस-वोटिंग की जाँच करने के लिये एक ऐसी व्यवस्था अपनाई गई, जिसमें प्रत्येक दल के विधायक को मतपेटिका में अपना मत डालने से पूर्व दल के अधिकृत एजेंट को दिखाना होता है। यदि एक विधायक द्वारा स्वयं के दल के अधिकृत एजेंट के अतिरिक्त किसी अन्य दल के एजेंट को मतपत्र दिखाया जाता है तो वह मत अमान्य हो जाएगा। वहीं अधिकृत एजेंट को मतपत्र न दिखाना भी मत को अमान्य कर देगा।
  • राज्यसभा और NOTA:-भारत निर्वाचन आयोग (ECI) द्वारा 24 जनवरी, 2014 और 12 नवंबर, 2015 को दो परिपत्र जारी किये गए थे, जिसमें राज्यसभा चुनावों में नोटा (None of the Above- NOTA) के विकल्प के प्रयोग की बात की थी।

हालाँकि 21 अगस्त, 2018 को सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में जस्टिस ए.एम. खानविलकर तथा जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड की पीठ ने एक अहम फैसला सुनाते हुए कहा था कि राज्यसभा चुनाव में नोटा का इस्तेमाल नहीं होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि नोटा डीफेक्शन (Defection) को बढ़ावा देगा और इससे भ्रष्टाचार के लिये दरवाज़े खुलेंगे। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, नोटा को सिर्फ प्रत्यक्ष चुनावों में ही लागू किया जाना चाहिये।