समसामयिकी 2020/नाभिकीय प्रौद्योगिकी

विकिपुस्तक से


  • 14 वर्ष बाद ‘इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरिमेंटल रिएक्टर’ (International Thermonuclear Experimental Reactor- ITER) ने अपने असेम्बलिंग फेज (Assembling Phase) में प्रवेश किया है। ITER एक प्रयोगात्मक टोकामक (Tokamak) परमाणु संलयन रिएक्टर है जिसे दक्षिणी फ्राॅन्स में बनाया जा रहा है।

यह एक अंतर्राष्ट्रीय नाभिकीय संलयन अनुसंधान एवं इंजीनियरिंग मेगाप्रोजेक्ट (International Nuclear Fusion Research and Engineering Megaproject) है, जो दुनिया का सबसे बड़ा चुंबकीय परिशोधन प्लाज्मा भौतिकी प्रयोग होगा। ITER का लक्ष्य संलयन ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के लिये वैज्ञानिक एवं तकनीकी व्यवहार्यता का प्रदर्शन करना है। यह परियोजना सात सदस्यों- यूरोपीय संघ, भारत, जापान, चीन, रूस, दक्षिण कोरिया और संयुक्त राज्य अमेरिका के वित्त पोषण द्वारा चलाई जा रही है। ITER लगभग 500 मेगावाट की तापीय ऊर्जा का उत्पादन करेगा जो लगभग 200 मेगावाट की विद्युत ऊर्जा के बराबर है।

नाभिकीय संलयन (Nuclear Fusion) दो हल्के नाभिक से एक एकल भारी नाभिक बनने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया को नाभिकीय अभिक्रिया कहा जाता है। संलयन द्वारा बनाया गया नाभिक पहले वाले नाभिक की तुलना में भारी होता है। इससे बड़ी मात्रा में ऊर्जा निर्मुक्त होती है। संलयन अभिक्रिया, हाइड्रोजन के दो समस्थानिकों, ड्यूटेरियम (Deuterium– D) तथा ट्राइटियम (Tritium– T) के मध्य होने वाली अभिक्रिया है।

ड्यूटेरियम (Deuterium–D) एवं ट्राइटियम (Tritium–T) की संलयन अभिक्रिया में ‘सबसे कम’ तापमान पर सर्वाधिक ऊर्जा उत्पन्न होती है। टोकामक (Tokamak) संलयन ऊर्जा को नियंत्रित करने के लिये तैयार की गई एक प्रायोगिक मशीन है। इसके अंदर, परमाणुओं के संलयन से उत्पादित ऊर्जा को एक विशाल बर्तन में ऊष्मा के रूप में अवशोषित किया जाता है। टोकामक को पहली बार 1960 के दशक के अंत में सोवियत संघ के एक अनुसंधान के दौरान विकसित किया गया था, इसके बाद में इसे चुंबकीय संलयन उपकरण की सबसे उत्कृष्ट तकनीक के रूप में पूरे विश्व द्वारा मान्यता प्रदान की गई है। ITER विश्व का सबसे बड़ा टोकामक होगा जो वर्तमान में कार्यरत सबसे बड़ी मशीन के आकार का दोगुना होगा तथा इसके प्लाज्मा चैंबर का आयतन दस गुना अधिक होगा।

  • हिरोशिमा (जापान) की एक ज़िला अदालत ने 1945 के परमाणु विस्फोट के बाद हुई ‘काली बारिश’ से जीवित बचे 84 लोगों को पीड़ितों के रूप में मान्यता दे दी है, अब ये सभी लोग परमाणु विस्फोट के पीड़ितों के रूप में उपलब्ध निःशुल्क चिकित्सीय सुविधा का लाभ उठा सकते हैं।

परमाणु विस्फोट की घटना 6 अगस्त और 9 अगस्त, 1945 को जापान के हिरोशिमा (Hiroshima) एवं नागासाकी (Nagasaki) पर अमेरिका ने परमाणु बम से हमला किया। एक अनुमान के अनुसार, इन दोनों विस्फोटों और परिणामी आग्नेयास्त्र (विस्फोट के कारण लगी बड़ी आग) से हिरोशिमा में लगभग 80,000 और नागासाकी में लगभग 40,000 लोगों की मौत हुई थी। विस्फोट के बाद रेडियोएक्टिव विकिरण के संपर्क में आने और विस्फोटों के बाद हुई ‘काली बारिश’ से भी दोनों शहरों में हज़ारों लोगों की मौत हो गई थी।

काली बारिश’ (Black Rain) क्या है?

एक अनुमान के अनुसार, इस परमाणु हमले से नष्ट हुई इमारतों का मलबा और कालिख, बम से निकले रेडियोधर्मी पदार्थ के साथ मिलकर वातावरण में एक मशरूम रूपी बादल के रूप में प्रकट हुआ। ये पदार्थ वायुमंडल में वाष्प के साथ संयुक्त हो गए जिसके बाद काले रंग की बूंदों के रूप में धरती पर गिरने लगे जिसे ‘काली बारिश’ कहा गया। ‘काली बारिश’ से बचे लोगों ने इसे बारिश की बड़ी-बड़ी बूंदों के रूप में वर्णित किया जो सामान्य बारिश की बूंदों की तुलना में बहुत भारी थी। इस घटना में जीवित बचे लोगों के अनुसार, घटना के शिकार हुए बहुत से लोगों के शरीर की खाल जल गई और लोग गंभीर रूप से निर्जलित (Dehydrated) हो गए।

काकरापार परमाणु ऊर्जा परियोजना[सम्पादन]

गुजरात के तापी जिले में स्थित काकरापार परमाणु ऊर्जा परियोजना से जुड़े वैज्ञानिकों ने इस संयत्र की तीसरी इकाई [Kakrapar Atomic Power Project (KAPP-3)] में पहली बार क्रांतिकता (Criticality) प्राप्त की है। इस संयंत्र की पहली दो इकाइयाँ कनेडियन (Canadian) तकनीकी पर आधारित हैं, जबकि इसकी तीसरी इकाई पूर्णरूप से स्वदेशी तकनीकी पर आधारित है। इस संयंत्र में 220 मेगावाट के पहले ‘दबावयुक्त भारी जल रिएक्टर’ (Pressurized Heavy Water Reactor- PHWR) के निर्माण को 6 मई 1993 को और 220 मेगावाट के ही दूसरी इकाई के निर्माण को 1 सितंबर, 1995 को अधिकृत किया गया था। इस संयंत्र की तीसरी और चौथी इकाई के निर्माण का कार्य वर्ष 2011 में प्रारंभ हुआ था।

क्रांतिकता (Criticality) :-परमाणु ऊर्जा संयत्र की क्रांतिकता से आशय संयंत्र में पहली बार नियंत्रित स्व-संधारित नाभिकीय विखंडन (Controlled Self-sustaining Nuclear Fission) श्रृंखला की शुरुआत से है।

काकरापार परमाणु ऊर्जा परियोजना की तीसरी इकाई (KAPP-3)भारतीय घरेलू असैनिक परमाणु कार्यक्रम के लिये एक बड़ी उपलब्धि है। भारत पहली 700 मेगावाट विद्युत इकाई होने के साथ स्वदेशी तकनीक से विकसित PHWR की सबसे बड़ी इकाई है। PHWR प्राकृतिक यूरेनियम को ईंधन और भारी जल (D2O) को शीतलक के रूप में प्रयोग किया जाता है। अब तक भारत में स्वदेशी तकनीक से विकसित PHWR की सबसे बड़ी इकाई मात्र 540 मेगावाट की थी, इस प्रकार की दो इकाइयाँ महाराष्ट्र के तारापुर संयत्र में स्थापित की गई हैं। वर्ष 2011 में इस संयंत्र की तीसरी इकाई के निर्माण कार्य के शुरू होने के बाद मार्च 2020 के मध्य में इसमें ईंधन भरे जाने की प्रक्रिया शुरू की गई थी। विशेषताएँ:-भारत में स्वदेशी निर्मित इस 700 मेगावाट के PHWR में ‘स्टील लाइंड इनर कंटेंटमेंट’, निष्क्रिय क्षय ऊष्मा निष्कासन प्रणाली, रोकथाम स्प्रे प्रणाली, हाइड्रोजन प्रबंधन प्रणाली आदि जैसी उन्नत सुरक्षा सुविधाएँ उपलब्ध हैं।

भारत सरकार द्वारा वर्ष 2031 तक अपनी मौजूदा परमाणु ऊर्जा क्षमता को 6,780 मेगावाट से बढ़ाकर 22,480 मेगावाट करने की तैयारी की जा रही है। ऐसे में 700 मेगावाट के इस परमाणु संयंत्र की सफलता भारतीय ऊर्जा विस्तार योजना में एक मुख्य घटक के रूप में कार्य करेगी। वर्तमान में भारत की कुल ऊर्जा उत्पादन क्षमता [लगभग 371,054 मेगावाट (जुलाई 2020 तक)] में परमाणु ऊर्जा का योगदान लगभग 2% ही है।

वर्तमान में जब देश में 900 मेगावाट क्षमता के ‘दाबयुक्त जल रिएक्टर’ (Pressurised Water Reactor- PWR) के विकास की तैयारी की जा रही है, ऐसे में KAPP-3 से प्राप्त हुआ अनुभव इस योजना में भी उपयोग किया जा सकेगा। वर्तमान में देश में ‘4700 मेगावाट’ क्षमता के परमाणु संयंत्रों पर कार्य किया जा रहा है, जिनमें से दो काकरापार (KAPP-3 और KAPP-4) तथा रावतभाटा (राजस्थान) में स्थित हैं। KAPP-3 और KAPP-4 का निर्माण ‘न्यूक्लियर पावर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड’ द्वारा किया गया है।

‘न्यूक्लियर पावर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड’(Nuclear Power Corporation of India Limited- NPCIL) एक सार्वजनिक क्षेत्र का उद्यम (Public Sector Enterprise- PSE) है। इसका मुख्यालय मुंबई (महाराष्ट्र) में स्थित है। भारत सरकार के परमाणु ऊर्जा विभाग के प्रशासनिक नियंत्रण में कार्य करता है। NPCIL को सितंबर, 1987 में 'कंपनी अधिनियम, 1956' के तहत एक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी के रूप में पंजीकृत किया गया था।

भारत-स्थित न्यूट्रिनो वेधशाला[सम्पादन]

गणतंत्र दिवस के अवसर पर तमिलनाडु के विभिन्न हिस्सों में ग्रामीणों द्वारा हाइड्रोकार्बन अन्वेषण और भारत-स्थित न्यूट्रिनो वेधशाला (India-based Neutrino Observatory- INO) परियोजनाओं जैसी पहलों के खिलाफ प्रस्ताव पारित करने के लिये ग्राम सभा की बैठकें आयोजित की गईं। ग्रामीणों के अनुसार, केंद्र सरकार ने तमिलनाडु के पुदुकोट्टई (Pudukottai) ज़िले के नेदुवासल किझक्कू पंचायत (Neduvasal Kizhakku panchayat) में एक हाइड्रोकार्बन अन्वेषण परियोजना की पर्यावरण मंज़ूरी प्राप्त करने के लिये सार्वजनिक सलाह नहीं ली। ग्रामीणों के अनुसार, यह परियोजना संबंधित क्षेत्र की उपजाऊ भूमि को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगी। इस परियोजना के विरोध में लगभग 300 से 400 ग्रामीणों ने स्वयं के हस्ताक्षर वाली एक याचिका पंचायत को सौंपी।

थेनी (Theni) ज़िले के पोट्टीपुरम पंचायत के ग्रामीणों ने INO के विरोध में भी एक प्रस्ताव पारित किया।

ग्रामीणों के अनुसार, इस परियोजना का क्रियान्वयन पर्यावरण और पश्चिमी घाट के लिये हानिकारक सिद्ध होगा। रामनाथपुरम ज़िले की ‘कडलूर’ (Kadalur) ग्राम पंचायत के ग्रामीणों ने 2x800 मेगावाट की ‘उप्पुर सुपरक्रिटिकल थर्मल पावर प्लांट’ (Uppur Supercritical Thermal Power Plant) परियोजना के क्रियान्वयन के विरोध में एक प्रस्ताव पारित किया। वर्ष 2016 में इसकी आधारशिला रखे जाने के बाद से इसे ग्रामीणों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है। कडलूर पंचायत में पर्यावरणीय क्षति: यह क्षेत्र महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिक क्षेत्र के अंतर्गत आता है क्योंकि यहाँ मैंग्रोव और आर्द्रभूमि स्थित हैं। इस पंचायत में लगभग 5000 व्यक्ति रहते हैं जिनमे से कुछ मछली पकड़ने के व्यवसाय पर आश्रित हैं परंतु संयंत्र के निर्माण कार्य से उत्पन्न मलबे को समुद्र में फेंका जा रहा है, जो मछली पकड़ने के व्यवसाय को प्रभावित कर रहा है। ग्रामीणों के अनुसार, इस संयंत्र के क्रियान्वयन से किसानों को लगभग 300 एकड़ कृषि योग्य भूमि से वंचित कर दिया जाएगा। भारत-स्थित न्यूट्रिनो वेधशाला: भारत स्थित न्यूट्रिनो वेधशाला (INO) एक बड़ी वैज्ञानिक परियोजना है। केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा वर्ष 2015 में तमिलनाडु के थेनी ज़िले में एक न्यूट्रिनो वेधशाला की स्थापना संबंधी परियोजना को मंज़ूरी दी गई थी। इसका उद्देश्य न्यूट्रिनो कणों का अध्ययन करना है। न्यूट्रिनो मूल कण होते हैं जिनका सूर्य, तारों एवं वायुमंडल में प्राकृतिक रुप से निर्माण होता है। INO की योजना न्यूट्रिनो भौतिकी के क्षेत्र में प्रयोगों के लिये छात्रों को विश्व स्तरीय अनुसंधान सुविधा प्रदान करने की है।

  • SIPRI ईयर बुक (SIPRI Yearbook) 2020 के अनुसार, भारत, पाकिस्तान और चीन ने विगत वर्ष में अपने परमाणु हथियार संग्रहण में वृद्धि की है साथ ही जिन देशों के पास पहले से ही परमाणु हथियार उपलब्ध हैं वे उनका आधुनिकीकरण कर रहे हैं।

SIPRI ईयर बुक स्वीडिश थिंक टैंक स्टॉकहोम इंटरनेशनल पेस रिसर्च इंस्टीट्यूट (Stockholm International Peace Research Institute (SIPRI) द्वारा जारी की जाती है। SIPRI एक स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय संस्थान है जो संघर्ष, आयुध, हथियार नियंत्रण और निशस्त्रीकरण में अनुसंधान के लिये समर्पित है। इसकी स्थापना वर्ष 1966 में की गई थी। SIPRI ईयर बुक का प्रथम संस्करण वर्ष 1969 में जारी किया गया था। SIPRI ट्रेंड्स इन वर्ल्ड मिलिट्री एक्सपेंडिचर (Trends in World Military Expenditure) नामक वार्षिक रिपोर्ट भी जारी करता है और वर्ष 2019 में, भारत सैन्य खर्च करने वाले शीर्ष तीन देशों में शामिल था।

डेटा विश्लेषण अमेरिका, रूस, यूनाइटेड किंगडम, फ्राँस, चीन, भारत, पाकिस्तान, इज़राइल तथा उत्तरी अमेरिका विश्व के 9 परमाणु हथियार संपन्न देश हैं। परमाणु हथियारों की ’अत्यधिक अनिश्चित’ संख्या के कारण रिपोर्ट में उत्तर कोरिया के पास उपलब्ध परमाणु हथियारों की संख्या को गणना में शामिल नहीं किया गया है।

इन देशों में परमाणु हथियारों की कुल संख्या वर्ष 2019 के 13,865 से घटकर वर्ष 2020 में 13,400 हो गई है। समग्र संख्या में गिरावट रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा न्यू स्टार्ट (New START) संधि के तहत पुराने परमाणु हथियारों का विघटन किये जाने के कारण हुई है। उल्लेखनीय है कि इन देशों देशों के पास उपलब्ध परमाणु हथियारों की संख्या (संयुक्त रूप से) विश्व भर में उपलब्ध कुल परमाणु हथियारों के 90% से अधिक है। रूस और अमेरिका द्वारा पहले ही अपने परमाणु हथियारों और डिलीवरी सिस्टम को बदलने तथा आधुनिक बनाने के लिये व्यापक योजनाओं की घोषणा भी की गई है।

सैटेलाइट तस्वीरों के अनुसार, ईरान की एक भूमिगत परमाणु सुविधा; जो यूरेनियम को समृद्ध करने के लिये कार्य करती है, में आग लगने की दुर्घटना हुई है।[सम्पादन]

समृद्ध यूरेनियम, यूरेनियम का एक विशेष प्रकार है, जिसमें यूरेनियम-235 की प्रतिशत मात्रा बढ़ाई जाती है।

नैटान्ज़, ईरान की राजधानी तेहरान से लगभग 250 किलोमीटर दक्षिण में स्थित एक ‘यूरेनियम संवर्द्धन’ केंद्र है। नैटान्ज़ को ईरान के प्रथम पायलट ईंधन संवर्द्धन संयंत्र के रूप में जाना जाता है।

यह ईरान के साथ वर्ष 2015 में किये गए 'संयुक्त व्यापक क्रियान्वयन योजना’ (Joint Comprehensive Plan of Action- JCPOA) परमाणु समझौते के बाद ‘अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी’ (International Atomic Energy Agency- IAEA) द्वारा निगरानी की गई साइटों में से एक है। यूरेनियम संवर्द्धन एक संवेदनशील प्रक्रिया है जो परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के लिये ईंधन का उत्पादन करती है। सामान्यतः इसमें यूरेनियम-235 और यूरेनियम-238 के आइसोटोप का प्रयोग किया जाता है। यूरेनियम संवर्द्धन के लिये सेंट्रीफ्यूज (Centrifuges) में गैसीय यूरेनियम को शामिल किया जाता है।

नैटान्ज़ तब चर्चा में आया जब IAEA ने यहाँ विस्फोटक नाइट्रेट्स के सफल परीक्षण की आशंका के बाद अक्तूबर, 2019 में निरीक्षण का निर्णय किया परंतु ईरान ने IAEA इंस्पेक्टर को सुविधा के निरीक्षण की अनुमति देने से इनकार कर दिया।

नाइट्रेट एक सामान्य उर्वरक हैं, हालाँकि जब इसे उचित मात्रा में ईंधन के साथ मिलाया जाता है, तो सामग्री ट्राईनाईट्रोटॉलूइन (Trinitrotoluene- TNT) के रूप में शक्तिशाली विस्फोटक बन सकती है। स्टक्सनेट कंप्यूटर वायरस (Stuxnet Computer Virus):-इसे वर्ष 2010 में ईरान के परमाणु कार्यक्रम के दौरान पश्चिमी देशों अमेरिका तथा इज़राइल द्वारा निर्मित वायरस माना जाता है, जिसका उद्देश्य ईरान के नैटान्ज़ परमाणु कार्यक्रम को बाधित और नष्ट करना था।

‘ज्वाइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन’ (Joint Comprehensive Plan of Action- JCPOA):-वर्ष 2015 में बराक ओबामा प्रशासन के दौरान अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, चीन, फ्राँस और जर्मनी के साथ मिलकर ईरान ने परमाणु समझौता किया था। इस समझौते के अनुसार, ईरान को संबंधित यूरेनियम के भंडार में कमी करते हुए अपने परमाणु संयंत्रों की निगरानी के लिये अनुमति प्रदान करनी थी। इसके बदले ईरान पर आरोपित आर्थिक प्रतिबंधों में रियायत दी गई थी।

अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी(International Atomic Energy Agency- IAEA) IAEA परमाणु क्षेत्र में विश्व का सबसे बड़ा परमाणु सहयोग केंद्र है। इसकी स्थापना वर्ष 1957 में की गई थी। यह संगठन परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग को बढ़ावा देने और किसी भी सैन्य उद्देश्य के लिये परमाणु हथियारों के प्रयोग को रोकने का कार्य करता है। IAEA विश्व भर में परमाणु प्रौद्योगिकी और परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग में वैज्ञानिक एवं तकनीकी सहयोग हेतु एक अंतर-सरकारी मंच के रूप में भी कार्य करता है। हालाँकि एक अंतर्राष्ट्रीय संधि (International Treaty) के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र द्वारा इसकी स्थापना की गई थी लेकिन यह संगठन संयुक्त राष्ट्र के प्रत्यक्ष नियंत्रण में नहीं आता है। IAEA, संयुक्त राष्ट्र महासभा (United Nations General Assembly) और सुरक्षा परिषद (Security Council) दोनों को रिपोर्ट करता है। इसका मुख्यालय ऑस्ट्रिया के विएना (Vienna) में है।

परमाणु हथियारों की नवीन दौड़ का प्रारंभ[सम्पादन]

संयुक्त राज्य अमेरिका के विदेश विभाग’ द्वारा जारी एक रिपोर्ट में इस बात पर चिंता व्यक्त की है कि चीन ‘व्यापक परमाणु-परीक्षण-प्रतिबंध संधि’ (Comprehensive Nuclear-Test-Ban Treaty- CTBT) के नियमों का उल्लंघन करके लोप नूर (Lop Nur) नामक परीक्षण स्थल पर परमाणु परीक्षण कर रहा है। चीन के अलावा रूस ने भी ‘कम-प्रभाव उत्पन्न करने वाले परमाणु परीक्षण’ (Low-Yield Nuclear Testing) किये हैं, अत: इस प्रकार का परमाणु परीक्षण CTBT में अंतर्निहित 'शून्य प्रभाव (Zero Yield) की अवधारणा से असंगत हैं। रूस और चीन ने अमेरिका के दावों को खारिज कर दिया है, लेकिन यह रिपोर्ट प्रमुख परमाणु शक्तियों के बीच बढ़ती प्रतिद्वंद्विता के साथ परमाणु हथियारों की नवीन प्रतिस्पर्धा की ओर संकेत करती है।

शून्य-प्रभाव (Zero-Yield) की अवधारणा उस परमाणु परीक्षण को संदर्भित करती है, जहां परमाणु बम हथियारों के कारण कोई विस्फोटक अभिक्रिया श्रृंखला प्रारंभ नहीं होती है। यह अवधारणा ‘सुपरक्रिटिकल हाइड्रो-न्यूक्लियर टेस्ट’ (Supercritical Hydro-Nuclear Test) प्रतिबंध की बात करता है लेकिन ‘सब-क्रिटिकल हाइड्रोडायनामिक न्यूक्लियर टेस्ट’ (Sub-Critical Hydrodynamic Nuclear Tests) पर प्रतिबंध नहीं लगाता है।

CTBT की पृष्ठभूमि:-परमाणु परीक्षणों पर प्रतिबंध लगाने की दिशा में दशकों से प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन शीत युद्ध की राजनीति के कारण यहसंभव नहीं हो सका। हालाँकि वर्ष 1963 में ‘आंशिक परीक्षण प्रतिबंध संधि’ (Partial Test Ban Treaty- PTBT) को अपनाया गया। आंशिक परीक्षण प्रतिबंध संधि (PTBT) को सभी प्रकार के क्षेत्रों में परमाणु परीक्षण के उद्देश्य से लाया गया था लेकिन राष्ट्रों के मध्य पानी के अंदर (महासागरों) तथा वायुमंडलीय परीक्षणों पर रोक लगाई गई लेकिन भूमिगत परीक्षण को इस संधि में शामिल नहीं किया गया।

जब वर्ष 1994 में जेनेवा में CTBT पर वार्ता शुरू हुई तो वैश्विक भू-राजनीति में काफी बदलाव आ चुका था। शीत युद्ध समाप्त हो गया था जिससे परमाणु हथियारों की दौड़ भी समाप्त हो गई थी। वर्ष 1991 में रूस ने परमाणु परीक्षण पर एकतरफा स्थगन की घोषणा की तथा इसके बाद 1992 में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा द्वारा भी इसी प्रकार की घोषणा की गई। शीतयुद्ध की समाप्ति तक अमेरिका 1,054 और रूस 715 परमाणु परीक्षण कर चुके थे।

भारत का CTBT के संबंध में पक्ष:-CTBT संधि का अनुच्छेद 14 भी इस संधि को अपनाने में प्रमुख बाधा उत्पन्न करता है। क्योंकि भारत के अनुसार संधि बहुत ही संकीर्ण है, क्योंकि यह केवल नए विस्फोट रोकने की बात करती है, पर नए तकनीकी विकास एवं नए परमाणु शस्त्रों के विषय में संधि मौन है । भारत पूर्ण परमाणु निशस्त्री:करण ढाँचे को अपनाने पर बल देता है, परंतु भारत के प्रस्तावों को स्वीकृति नहीं मिलने पर जून 1996 में भारत ने वार्ता से हटने के अपने निर्णय की घोषणा कर दी।

उत्तर कोरिया, भारत और पाकिस्तान तीन ऐसे देश हैं, जिन्होंने संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। तीनों देशों द्वारा वर्ष 1996 के बाद परमाणु परीक्षण भी किये गए हैं; भारत और पाकिस्तान मई 1998 तथा उत्तर कोरिया ने वर्ष 2006 से वर्ष 2017 के बीच छह बार परमाणु परीक्षण किये हैं।

CTBT में अमेरिका का वर्चस्व: CTBT को सत्यापित करने के लिये ‘व्यापक परमाणु-परीक्षण-प्रतिबंध संधि संगठन’ (Comprehensive Nuclear-Test-Ban Treaty Organisation- CTBTO) को 130 मिलियन डॉलर के वार्षिक बजट के साथ वियना में स्थापित किया गया था। 17 मिलियन डॉलर की हिस्सेदारी के साथ अमेरिका CTBT में सबसे बड़ा योगदानकर्त्ता है।

नई सामरिक शस्त्र न्यूनीकरण संधि (Strategic Arms Reduction Treaty-START)[सम्पादन]

संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस के बीच सामरिक हथियारों में कमी लाने तथा उन्हें सीमित करने संबंधी एक संधि है। 5 फरवरी, 2011 को लागू हुई थी। यह नई स्टार्ट संधि शीत युद्ध के अंत में वर्ष 1991 में हुई स्टार्ट संधि की अनुवर्ती है। 1991 की संधि दोनों पक्षों के लिये रणनीतिक परमाणु वितरण वाहन की संख्या को 1,600 और वारहेड्स की संख्या को 6,000 तक सीमित करती हैं। यह 700 रणनीतिक लॉन्चर और 1,550 ऑपरेशनल वारहेड्स की मात्रा को दोनों पक्षों के लिये सीमित कर, अमेरिकी और रूसी रणनीतिक परमाणु शस्त्रागार को कम करने की द्विपक्षीय प्रक्रिया को जारी रखती है। यदि इस संधि को पाँच वर्ष की अवधि के लिये विस्तारित नहीं किया जाता है तो यह संधि फरवरी 2021 में व्यपगत हो जाएगी।

मध्यम-दूरी परमाणु बल(Intermediate-Range Nuclear Forces-INF)संधि पर शीत युद्ध के दौरान हस्ताक्षर किये गए थे।

वर्ष 1987 में संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ द्वारा हस्ताक्षरित यह एक परमाणु हथियार-नियंत्रण समझौता था। इसके तहत दोनों देशों ने परमाणु वारहेड ले जाने में सक्षम मध्यम और कम दूरी की भूमि आधारित मिसाइलों को नष्ट करने पर सहमति जताई थी। संयुक्त राज्य अमेरिका अगस्त 2019 में इस संधि से पीछे हट गया था। नोट: 'आक्रामक शस्त्र' शब्द रणनीतिक परमाणु वितरण वाहन (SNDV) द्वारा तैनात परमाणु हथियारों के लिये इस्तेमाल किया जाता है। रणनीतिक बमवर्षक, युद्धपोतों (रणनीतिक पनडुब्बियों सहित) और क्रूज मिसाइलों सहित हवा एवं समुद्र में लॉन्च की गई क्रूज मिसाइलें तथा 5,500 किलोमीटर से अधिक रेंज वाली अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलों (ICBMs) को SNDV में शामिल किया जाता है।

भारत की परमाणु नीति[सम्पादन]

वर्ष 1998 में पोखरण में दूसरे परमाणु परीक्षण के पश्चात् भारत ने स्वयं को परमाणु क्षमता संपन्न देश घोषित कर दिया, इसके साथ ही एक परमाणु नीति की आवश्यकता महसूस की गई। वर्ष 1999 में परमाणु नीति का ड्राफ्ट प्रस्तुत किया गया तथा इसके तीन वर्ष से भी अधिक समय पश्चात् सुरक्षा पर कैबिनेट समिति (CCS) ने परमाणु नीति की घोषणा की। इस नीति में सुरक्षा के लिये न्यूनतम परमाणु क्षमता के विकास की बात कही गई। भारत की परमाणु नीति का आधार 'नो फर्स्ट यूज़' यानी परमाणु अस्त्रों का पहले उपयोग नहीं करना रहा है, लेकिन हमला होने की स्थिति में कड़ा जवाब दिया जाएगा।

वर्ष 1962 में चीन के साथ युद्ध, वर्ष 1964 में चीन द्वारा परमाणु परीक्षण तथा वर्ष 1965 में पाकिस्तान से युद्ध आदि घटनाक्रम के पश्चात् भारत को अपनी नीति में बदलाव के लिये विवश होना पड़ा। इस नीति में बदलाव के साथ भारत ने पोखरण में वर्ष 1974 में प्रथम परमाणु परीक्षण किया। यह परीक्षण इसलिये भी आवश्यक था कि वर्ष 1965 के पश्चात् ऐसे देश जो परमाणु शक्ति संपन्न थे, उनको छोड़कर किसी अन्य को परमाणु क्षमता हासिल करने पर रोक लगा दी गई। किंतु वर्ष 1968 में विभिन्न देशों पर परमाणु अप्रसार संधि (NPT) थोप दी गई, हालाँकि भारत ने इस संधि पर अभी तक हस्ताक्षर नहीं किये हैं।

भारत का परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम

विश्व परमाणु उद्योग स्थिति रिपोर्ट (World Nuclear Industry Status Report) 2017 से पता चलता है कि स्थापित किये गए परमाणु रिएक्टरों की संख्या के मामले में भारत का विश्व में तीसरा स्थान है। भारत अपने परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के तहत वर्ष 2024 तक 14.6 गीगावाट बिजली का उत्पादन करेगा, जबकि वर्ष 2032 तक बिजली उत्पादन की यह क्षमता 63 गीगावाट हो जाएगी। फिलहाल भारत में 21 परमाणु रिएक्टर सक्रिय हैं, जिनसे लगभग 7 हज़ार मेगावाट बिजली का उत्पादन होता है। इनके अलावा 11 अन्य रिएक्टरों पर विभिन्न चरणों में काम चल रहा है और इनके सक्रिय होने के बाद 8 हज़ार मेगावाट अतिरिक्त बिजली का उत्पादन होने लगेगा। चूँकि भारत अपने हथियार कार्यक्रम के कारण परमाणु अप्रसार संधि में शामिल नहीं है। अतः 34 वर्षों तक इसके परमाणु संयंत्रों अथवा पदार्थों के व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, जिस कारण यह वर्ष 2009 तक अपनी सिविल परमाणु ऊर्जा का विकास नहीं कर सका। पूर्व के व्यापार प्रतिबंधों और स्वदेशी यूरेनियम के अभाव में भारत थोरियम के भंडारों से लाभ प्राप्त करने के लिये परमाणु ईंधन चक्र का विकास कर रहा है। भारत का प्राथमिक ऊर्जा उपभोग वर्ष 1990 से वर्ष 2011 के मध्य दोगुना हो गया था।

चीन ने परमाणु परीक्षण के पश्चात् विश्व में सर्वप्रथम नो फर्स्ट यूज़ की नीति की घोषणा की थी। इसके बाद भारत ने वर्ष 2003 में इसी प्रकार की नीति की घोषणा की। भारत एवं चीन के अतिरिक्त किसी भी परमाणु संपन्न देश ने इस नीति को नहीं अपनाया। हालाँकि रूस ओर अमेरिका सुरक्षा के लिये इसके उपयोग की बात करते रहे हैं।

परमाणु हथियारों को लेकर भारत की छवि एक ज़िम्मेदार राष्ट्र की बनी है तथा NTP पर हस्ताक्षर के बिना ही भारत MTCR (Missile Technology Control Regime), वासेनर अर्रेंजमेंट तथा ऑस्ट्रेलिया समूह का हिस्सा बन चुका है। इसके अतिरिक्त भारत NSG (Nuclear Supplier Group) की सदस्यता के लिये भी प्रयास कर रहा है। NSG समूह की सदस्यता सिर्फ उन्ही राष्ट्रों को मिल सकती है जो NPT के हस्ताक्षरकर्त्ता हैं।

परमाणु अप्रसार संधि(Nuclear Non-Proliferation Treaty-NPT)
इस संधि पर वर्ष 1968 में हस्ताक्षर किये गए तथा वर्ष 1970 यह प्रभाव में आई। वर्तमान में इसके 190 हस्ताक्षरकर्त्ता सदस्य हैं। इस संधि के अनुसार कोई भी देश न वर्तमान में और न ही भविष्य में परमाणु हथियारों का निर्माण करेगा। हालाँकि सदस्य देशों को परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग की अनुमति होगी।

इस संधि के तीन प्रमुख लक्ष्य हैं: परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकना, निरस्त्रीकरण को प्रोत्साहित करना तथा परमाणु तकनीक के शांतिपूर्ण उपयोग के अधिकार को सुनिश्चित करना। भारत उन पाँच देशों में शामिल है जिन्होंने या तो संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं अथवा बाद में इस संधि से बाहर हो गए हैं। भारत के अतिरिक्त इसमें पाकिस्तान, इजराइल, उत्तर कोरिया तथा दक्षिण सूडान शामिल हैं। भारत का विचार है कि NPT संधि भेदभावपूर्ण है अतः इस में शामिल होना उचित नहीं है। भारत का तर्क है कि यह संधि सिर्फ पाँच शक्तियों (अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन और फ्राँस) को परमाणु क्षमता का एकाधिकार प्रदान करती है तथा अन्य देश जो परमाणु शक्ति संपन्न नहीं हैं सिर्फ उन्हीं पर लागू होती है।

व्यापक परमाणु-परीक्षण-प्रतिबंध संधि(The Comprehensive Nuclear-Test-Ban Treaty- CTBT) सभी प्रकार के परमाणु हथियारों के परीक्षण एवं उपयोग को प्रतिबंधित करती है। यह संधि जिनेवा के निरस्त्रीकरण सम्मेलन के पश्चात् प्रकाश में आई। इस संधि पर वर्ष 1996 में हस्ताक्षर किये गए। अब तक इस संधि पर 184 देश हस्ताक्षर कर चुके हैं।