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समसामयिकी 2020/पर्यावरण और भारत

विकिपुस्तक से
  • येल विश्वविद्यालय’ (Yale University) द्वारा जारी द्विवार्षिक 'पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक' (Environment Performance Index- EPI) में भारत 180 देशों में 168वें स्थान पर रहा है।

‘पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक’ येल विश्वविद्यालय के 'सेंटर फॉर एनवायरनमेंटल लॉ एंड पॉलिसी' तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय के 'सेंटर फॉर इंटरनेशनल अर्थ साइंस इंफॉर्मेशन नेटवर्क' की संयुक्त पहल है। EPI को ‘विश्व आर्थिक मंच’ (World Economic Forum- WEF) के सहयोग से तैयार किया जाता है।

भारत का प्रदर्शन:

EPI- 2018 में भारत का स्थान 177वाँ तथा स्कोर 30.57 के स्कोर (100 में से) रहा था। जबकि EPI- 2020 में भारत का स्थान 168 वाँ तथा स्कोर 27.6 रहा है। भारत केवल 11 देशों; बुरुंडी, हैती, चाड, सोलोमन द्वीप, मेडागास्कर, गिनी, कोटे डी आइवर, सिएरा लियोन, अफगानिस्तान, म्यांमार और लाइबेरिया, से बेहतर स्थिति में है। अफगानिस्तान को छोड़कर सभी दक्षिण एशियाई देश EPI रैंकिंग में भारत से आगे हैं।

  • पम्पा/पम्बा नदी के तट से लगभग एक माह पहले शुरू हुई रेत हटाने का प्रक्रिया पूरी होने वाली है। पम्पा नदी केरल की पेरियार और भरतपुझा के बाद तीसरी सबसे बड़ी नदी है। इसकी लंबाई 176 किलोमीटर है। केरल का प्रसिद्ध सबरीमाला मंदिर तीर्थ इसी नदी के तट पर स्थित है। इस नदी को 'दक्षिणा भागीरथी' और 'नदी बारिस' के नाम से भी जाना जाता है।

यह केरल में पश्चिमी घाट में पेरुमेदु पठार की पुलचिमलाई पहाड़ी से निकलती है।

  • भारतीय भू-चुंबकत्व संस्थान (Indian Institute of Geomagnetism-IIG) के शोधकर्त्ताओं ने भू-जल में मौसमी बदलावों के आधार पर हिमालय को घटते और अपनी स्थिति परिवर्तित करते हुए पाया है।

जर्नल ऑफ जियोफिजिकल रिसर्च में प्रकाशित इस नए अध्ययन से पता चलता है कि सामान्य कारणों के अलावा भू-जल में मौसमी बदलाव से भी इस प्रकार की कमी या स्थिति परिवर्तन देखने को मिलता है। अध्ययन के अनुसार, जल एक लुब्रिकेटिंग एजेंट (Lubricating Agent) के रूप में कार्य करता है, और इसलिये जब शुष्क मौसम में बर्फ पिघलने पर पानी की मौजूदगी में इस क्षेत्र में फिसलन की दर कम हो जाती है। शोधकर्त्ताओं ने ग्लोबल पोज़िशनिंग सिस्टम (GPS) और ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (GRACE) डेटा का एक साथ उपयोग किया, जिसके कारण शोधकर्त्ताओं के लिये हाइड्रोलॉजिकल द्रव्यमान की विविधता को निर्धारित करना संभव हो पाया है। अनुसंधानकर्त्ताओं के अनुसार, GPS और GRACE का संयुक्त डेटा हिमालय की उप-सतह में 12 प्रतिशत की कमी होने का संकेत देता है। ग्लोबल पोज़िशनिंग सिस्टम (GPS) ग्लोबल पोज़िशनिंग सिस्टम (GPS) जो कि उपग्रह आधारित नौवहन प्रणाली है, मुख्यत: तीन प्रकार की सेवाएँ प्रदान करती है- अवस्थिति, नेविगेशन एवं समय संबंधी सेवाएँ। ये सेवाएँ पृथ्वी की कक्षा में परिभ्रमण करते उपग्रहों की सहायता से प्राप्त की जाती हैं।

ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (GRACE) वर्ष 2002 में अमेरिका द्वारा लॉन्च किये गए ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (GRACE) उपग्रह, विभिन्न महाद्वीपों पर पानी और बर्फ के भंडार में बदलाव की निगरानी करते हैं।

लाभ चूँकि हिमालय भारतीय उपमहाद्वीप में जलवायु को प्रभावित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इसलिये इस अध्ययन से यह समझने में मदद मिलेगी कि जल-विज्ञान किस प्रकार जलवायु को प्रभावित करता है। यह अध्ययन वैज्ञानिकों और नीति-निर्माताओं के लिये हिमालयी क्षेत्र की मौजूदा स्थिति से निपटने में मददगार साबित हो सकता है जहाँ जल की उपलब्धता के बावजूद शहरी क्षेत्र पानी की कमी से जूझ रहे हैं। ध्यातव्य है कि अब तक किसी ने भी जल-विज्ञान संबंधी दृष्टिकोण से हिमालय का अध्ययन नहीं किया है। यह अध्ययन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (DST) द्वारा वित्तपोषित है। भारतीय भू-चुंबकत्व संस्थान (Indian Institute of Geomagnetism-IIG) भारतीय भू-चुंबकत्व संस्थान भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा स्थापित एक स्वायत्त अनुसंधान संस्थान है। भारतीय भू-चुंबकत्व संस्थान (IIG) की स्थापना वर्ष 1971 में एक स्वायत्त संस्थान के रूप में की गई थी और इसका मुख्यालय मुंबई (महाराष्ट्र) में स्थित है। IIG का उद्देश्य भू-चुंबकत्व के क्षेत्र में गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान करना और वैश्विक स्तर पर भारत को एक मानक ज्ञान संसाधन केंद्र के रूप में स्थापित करना है। IIG जियोमैग्नेटिज़्म और संबद्ध क्षेत्रों जैसे- सॉलिड अर्थ जियोमैग्नेटिज़्म/जियोफिज़िक्स, मैग्नेटोस्फीयर, स्पेस तथा एटमॉस्फेरिक साइंसेज़ आदि में बुनियादी अनुसंधानों का आयोजन करता है।

  • 9 अप्रैल 2020 को केंद्रीय आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय ने COVID-19 संकट से निपटने के लिये मौजूदा स्वच्छता-एमओएचयूए एप (Swachhata-MoHUA App) के संशोधित संस्करण को लॉन्च करने की घोषणा की।

इस एप के संशोधित संस्करण में निम्नलिखित नौ अतिरिक्त श्रेणियों को शामिल किया गया है।

  1. COVID-19 के दौरान फॉगिंग/स्वच्छता के लिये अनुरोध।
  2. COVID-19 के दौरान क्वारंटाइन का उल्लंघन।
  3. COVID-19 के दौरान लॉकडाउन का उल्लंघन।
  4. COVID-19 के संदिग्ध मामले की रिपोर्ट करें।
  5. COVID-19 के दौरान भोजन का अनुरोध करें।
  6. COVID-19 के दौरान आश्रय का अनुरोध करें।
  7. COVID-19 के दौरान चिकित्सा सुविधा का अनुरोध करें।
  8. COVID-19 रोगी परिवहन के लिये सहायता का अनुरोध करें।

क्वारंटाइन क्षेत्र से अपशिष्ट उठाने का अनुरोध करें। स्वछता एप एक प्रभावी डिजिटल टूल के रूप में कार्य करता है जो नागरिकों को अपने शहरों की स्वच्छता में सक्रिय भूमिका निभाने तथा शहरी स्थानीय निकायों की जवाबदेही तय करने में सक्षम बनाता है।

घर,समाज एवं देश में स्वच्छता को जीवनशैली का अंग बनाने के लिये स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत 2 अक्तूबर, 2014 में की गई थी। इस अभियान में दो उप-अभियान शामिल हैं- स्वच्छ भारत अभियान (ग्रामीण) तथा स्वच्छ भारत अभियान (शहरी)। इस अभियान में जहाँ ग्रामीण इलाकों के लिये ‘पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय’ व ‘ग्रामीण विकास मंत्रालय’ जुड़े हुए हैं, वहीं शहरों के लिये शहरी विकास मंत्रालय ज़िम्मेदार है।
  • वन सलाहकार समिति ने सिफारिश की है कि राज्य सरकारों/ केंद्रशासित प्रदेशों के प्रशासनों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रतिपूरक वनीकरण (Compensatory Afforestation) के लिये मौजूदा लागत मॉडल में पॉलिथीन बैग के स्थान पर वैकल्पिक बायोडिग्रेडेबल बैग की लागत को शामिल किया जाए।
भारत सरकार ने वर्ष 2016 में संशोधित प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियमों के तहत 50 माइक्रोन से कम मोटाई वाले प्लास्टिक बैग पर प्रतिबंध लगा दिया, साथ ही कई राज्य सरकारों ने पॉलिथीन बैग के साथ-साथ एकल उपयोग प्लास्टिक पर भी प्रतिबंध लगाने की घोषणा की है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2018-19 में बताया कि भारत प्रतिवर्ष लगभग 3.6 मिलियन टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न करता है।

भारत कचरा संग्राहकों और पुनर्चक्रण करने वालों के अनौपचारिक नेटवर्क की एक शृंखला के माध्यम से 60% कचरे का पुनर्नवीनीकरण करता है जो वैश्विक औसत के 20% से तीन गुना अधिक है।

वन सलाहकार समिति केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MOEF&CC) के अंतर्गत कार्यरत एक शीर्ष निकाय है जो औद्योगिक गतिविधियों के लिये वनों में पेड़ों की कटाई की अनुमति पर निर्णय लेता है।

  • आंध्रप्रदेश सरकार ने ‘क्लीन कृष्णा-गोदावरी कैनाल्स मिशन’ और ‘प्लास्टिक विरोधी अभियान’ के तहत कृष्णा नदी से निकाली गई नहरों की सफाई हेतु मन कृष्णा (Mana Krishna) अभियान लॉन्च किया।

इस अभियान की शुरुआत आंध्रप्रदेश के रामावारप्पडू (Ramavarappadu) पंचायत से की गई। इसका उद्देश्य स्वच्छता को लेकर स्थानीय लोगों के बीच जागरूकता फैलाना और नहरों की सफाई करना है। लक्ष्य: आंध्रप्रदेश सरकार ने कृष्णा-गोदावरी डेल्टा क्षेत्र में कृष्णा,गुंटूर,पश्चिम गोदावरी तथा प्रकाशम ज़िलों की लगभग 7,000 किलोमीटर लंबाई की नदी एवं नहरों को प्रदूषण से मुक्त करने का लक्ष्य तय किया है। क्लीन कृष्णा-गोदावरी कैनाल्स मिशन (Clean Krishna-Godavari Canals Mission) के अध्यक्ष मुख्यमंत्री वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी हैं। यह नहरों एवं नदियों को साफ रखने का एक सतत् मिशन है।

  • महाराष्ट्र के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने वैनगंगा नदी (Wainganga River) पर गोसेखुर्ध सिंचाई परियोजना (Gosekhurdh Irrigation Project) हेतु निविदाओं में अनियमितता के लिये विदर्भ सिंचाई विकास निगम के 12 वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की।

वैनगंगा नदी (Wainganga River) का उद्गम मध्य प्रदेश के सिवनी (Seoni) ज़िले में स्थित महादेव पहाड़ियों से होता है। यह गोदावरी की एक प्रमुख सहायक नदी है। महादेव पहाड़ियों से निकलने के बाद यह नदी दक्षिण की ओर बहती है और वर्धा नदी (Wardha River) से मिलने के बाद इन दोनों नदियों की संयुक्त धारा प्राणहिता नदी (Pranahita River) कहलाती है और आगे चलकर यह नदी तेलंगाना के कालेश्वरम में गोदावरी नदी से मिल जाती है। गोदावरी नदी इसका उद्गम महाराष्ट्र में नासिक के पास त्रयंबकेश्वर है। अपवाह बेसिन: इस नदी बेसिन का विस्तार महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा राज्यों के अलावा मध्य प्रदेश, कर्नाटक और पुद्दुचेरी के कुछ क्षेत्रों में है। इसकी कुल लंबाई लगभग 1465 किमी. है। सहायक नदियाँ: प्रवरा, पूर्णा, मंजरा, वर्धा, प्राणहिता, इंद्रावती, मनेर और सबरी। इस नदी बेसिन का विस्तार मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र में है। इसकी कुल लंबाई लगभग 569 किमी इसकी सहायक नदियाँ थांवर, कठानी, हिर्री, चंदन, बवांथाडी, कन्हन आदि हैं।

  • रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) की एक प्रयोगशाला हिम और हिमस्खलन अध्ययन प्रतिष्ठान (Snow and Avalanche Study Establishment-SASE)[मुख्यालय मनाली (हिमाचल प्रदेश) में] ने लद्दाख क्षेत्र के लेह में हिमस्खलन की चेतावनी जारी की है।

इसका उद्देश्य भारतीय हिमालय के बर्फीले क्षेत्रों में सैनिकों के लिये उच्च परिचालन गतिशीलता की सुविधा हेतु क्रायोस्फेरिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी (Cryospheric Science and Technology) आधारित उत्कृष्टता केंद्र का निर्माण करना है।

‘क्रायोस्फीयर’ (Cryosphere) शब्द ग्रीक भाषा के ‘क्रियोस’ (Krios) शब्द से आया है जिसका अर्थ ‘ठंडा’ होता है।

पृथ्वी पर ऐसे स्थान हैं जहाँ पानी जमकर ठोस बर्फ बन गया है। इन क्षेत्रों का तापमान 32°F से नीचे होता है,इस प्रकार ये क्षेत्र क्रायोस्फीयर का निर्माण करते हैं। इन क्षेत्रों में समुद्री बर्फ, झील की बर्फ, नदी की बर्फ, जमी हुई बर्फ का आवरण, ग्लेशियर आदि शामिल हैं।

  • केरल राज्य ने शहरी वनीकरण को बढ़ावा देने के लिये मियावाकी पद्धति (Miyawaki Method) को अपनाया है।

इस पद्धति में शहरी और अर्द्ध-शहरी क्षेत्र की खाली पड़ी सरकारी भूमि, सरकारी कार्यालय परिसर, आवासीय परिसर, स्कूल परिसर के बैकयार्ड को छोटे बागानों में बदल कर शहरी वनीकरण को बढ़ावा दिया जाता है। मियावाकी पद्धति की खोज जापानी वनस्पति वैज्ञानिक अकीरा मियावाकी (Akira Miyawaki) ने की है। अकीरा मियावाकी जापान में प्राकृतिक आपदाओं तथा तटीय क्षेत्रों में मानवजनित गलतियों के कारण नष्ट हुई भूमि पर छोटे बागानों को बढ़ावा देने में कामयाब रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में केरल ने बाढ़, भू स्खलन और मृदा अपरदन का सामना किया है, अतः केरल के पुनर्निर्माण में यह पद्धति महत्त्वपूर्ण है। केरल वन विभाग ने राजधानी तिरुवनंतपुरम, वालावत्ती (Valavatti), एर्नाकुलम में नेदुम्बस्सेरी और त्रिशूर ज़िले के मुदिक्कोड में इस विधि को अपनाया है। पर्यावरण संरक्षण पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत परियोजनाओं को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है। पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत ‘A’ श्रेणी में उन परियोजनाओं को रखा जाता है जो ‘केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु मंत्रालय’ द्वारा अनुमोदित होती हैं। पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत ‘B’ श्रेणी में उन परियोजनाओं को रखा जाता है जिनका अनुमोदन राज्यों द्वारा किया गया हो।


UNEP और IUCN पारिस्थितिकी तंत्र आधारित अनुकूलन(2020-2024)के लिये संयुक्त रूप से ग्लोबल फंड लॉन्च कर रहे हैं

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  • मैड्रिड में संपन्न संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP 25) में जर्मनी के संघीय पर्यावरण मंत्रालय ने घोषणा की कि यह नए UNEP-IUCN कार्यक्रम के लिये 20 मिलियन यूरो प्रदान करेगा।
  • इस कार्यक्रम के अंतर्गत संबंधित गैर-सरकारी संगठनों और INGOs के साथ मिलकर काम करने पर विशेष बल दिया जाएगा,साथ ही इसमें तकनीकी ज्ञान और समझ में विशिष्ट अंतराल को ध्यान में रखते हुए सरकारों के साथ काम करने पर विशेष ध्यान होगा।
  • पारिस्थितिक तंत्र-आधारित अनुकूलन:-मानव समुदायों की जलवायु परिवर्तन की भेद्यता को कम करने के लिये पारिस्थितिक तंत्र का प्रबंधन।
  • उदाहरण के लिये, मैंग्रोव और प्रवाल भित्तियों की पुनर्स्थापना तटीय क्षेत्रों को बढ़ते समुद्री स्तर के प्रभावों से सुरक्षा प्रदान करती है,जबकि पहाड़ियों और पहाड़ों पर वनस्पतियों को रोपित करने तथा उनकी बहाली करने से इन क्षेत्रों की अत्यधिक वर्षा के दौरान होने वाले कटाव और भूस्खलन से रक्षा होती है।
  • EbA पारिस्थितिक तंत्र-आधारित या प्रकृति-आधारित जलवायु परिवर्तन अनुकूलन के उपायों को बढ़ावा देने की गतिविधि का एक प्रमुख स्तंभ है, पिछले कुछ वर्षों में व्यापक स्तर पर लोगों और वैज्ञानिकों का ध्यान गया है।
  • हालाँकि यह एक अंतर्राष्ट्रीय जलवायु पहल है, तथापि जर्मनी पारिस्थितिकी तंत्र आधारित अनुकूलन के लिये अपनी वित्तीय प्रतिबद्धताओं को तकरीबन €60 मिलियन तक बढ़ाने का प्रयास कर रहा है, जिसमें नया UNEP-IUCN कार्यक्रम भी शामिल है।
  • प्रकृति अक्सर जलवायु संबंधी कार्रवाई और जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिये सबसे बेहतर समाधान उपलब्ध कराती है।जलवायु संबंधी कार्रवाई और प्रकृति संरक्षण के अलावा ऐसी परियोजनाओं के सामाजिक लाभ भी होते हैं; ये जलवायु परिवर्तन के प्रति सुभेद्य विकासशील देशों के लिये भी लाभकारी साबित होती हैं,क्योंकि विकासशील देशों के लोग प्रकृति पर बहुत अधिक सीधे निर्भर होते हैं। कृषि और तटीय संरक्षण के संबंध में भी यही तथ्य सामने आता है।
  • पारिस्थितिकी-आधारित अनुकूलन सहित प्रकृति-आधारित समाधान सितंबर 2019 में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु कार्रवाई शिखर सम्मेलन के एक केंद्रीय बिंदु थे। इस दिशा में यूनेप भी निरंतर कार्य कर रहा है।
  • वर्ष 2009 में आईयूसीएन ने भी पारिस्थितिकी तंत्र-आधारित अनुकूलन की अवधारणा का प्रारूप तैयार किया था और तब से वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के प्रति समाज में लोचशीलता को बढ़ाने के लिए इसके उपयोग को बढ़ावा दे रहा है।

कार्बन डिस्क्लोज़र प्रोजेक्ट द्वारा 20 जनवरी,2020 को भविष्य की जलवायु और व्यावसायिक साझेदारी CDP इंडिया वार्षिक रिपोर्ट 2019 जारी की गई

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कार्बन डिस्क्लोज़र प्रोजेक्ट
  1. यह यूनाइटेड किंगडम में स्थित एक वैश्विक गैर-लाभकारी संगठन है जो प्रमुख कंपनियों के पर्यावरणीय प्रभाव का खुलासा करने में सहयोग करता है।
  2. कार्बन डिस्क्लोज़र प्रोजेक्ट,ग्लोबल रिपोर्टिंग इनिशिएटिव की एक पहल है जिसका उद्देश्य दुनिया भर के विभिन्न कंपनियों और फर्मों द्वारा संचालित कार्बन कटौती गतिविधियों को मापना।
  • विज्ञान-आधारित लक्ष्यों (Science Based Targets- SBT) के लिये कॉर्पोरेट प्रतिबद्धताओं का सर्वेक्षण और जलवायु परिवर्तन के जोखिम का मूल्यांकन किया जाता है।
  • कार्बन डिस्क्लोज़र प्रोजेक्ट 2019 के अनुसार,लगभग 6,900 कंपनियों ने वर्ष 2018 में CDP के माध्यम से पर्यावरण संबंधी डेटा का खुलासा किया है।इन फर्मों का वैश्विक पूंजीकरण में लगभग 55% का योगदान हैं।
  • जबकि फ्राँस को उनके विवरण का खुलासा करने वाली 51 कंपनियों के साथ चौथे स्थान पर रखा गया है और भारत को विज्ञान आधारित लक्ष्यों के लिए 38 कंपनियों के साथ पाँचवें स्थान पर रखा गया है। गौरतलब है कि वर्ष 2018 में भारत में SBT के लिये केवल 25 कंपनियाँ थीं।
  • SBT पहल में 18 कंपनियों के साथ नीदरलैंड 10 वें स्थान पर है।
SBT कंपनियों के आधार पर शीर्ष 5 देश
1.संयुक्त राज्य अमेरिका 135
2.जापान 83
3.यूनाइटेड किंगडम (यूके) 78
4.फ्राँस 51
5.भारत 38

भारत से संबंधित रिपोर्ट के महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • भारत,जर्मनी और स्वीडन से आगे 5वें स्थान पर है। इस प्रकार भारत पहली विकासशील अर्थव्यवस्था है जिसकी विज्ञान आधारित लक्ष्यों के लिये अधिकतम संख्या में कंपनियाँ हैं।
  • इस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के मूल्यांकन के लिये लगभग सभी बड़ी कंपनियों के गठन के साथ भारत में बदलते दृष्टिकोण को भी प्रदर्शित किया गया। ध्यातव्य है कि यह परिवर्तन जलवायु-सचेत निवेशकों और देश के युवाओं के बीच बढ़ी हुई जलवायु सक्रियता से प्रेरित है।
  • निवेशकों ने उन कंपनियों को बेहतर प्रतिक्रिया दी जिन्होंने अपनी पर्यावरणीय गतिविधियों का खुलासा किया है।
  • निवेशकों ने किसी संगठन में निवेश करने से पहले भारतीय कंपनियों से जलवायु परिवर्तन के जोखिम को भी ध्यान में रखा है।
  • कार्बन डिस्क्लोज़र प्रोजेक्ट रिपोर्ट 2019 के अनुसार, इस वर्ष कुल 58 भारतीय कंपनियों ने पर्यावरण से संबंधित गतिविधियों के बारे में जानकारी साझा की है।
  • 98 प्रतिशत से अधिक शीर्ष भारतीय कंपनियों ने जलवायु से संबंधित मुद्दों को पहचानने और संबोधित करने के लिये अपने संगठन के भीतर समिति या समूह का गठन किया है।
  • भारतीय कंपनियों ने बोल्ड एमिशन रिडक्शन टारगेट्स (Bold Emission Reduction Targets) में कमी लाने और अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिये जलवायु परिवर्तन की चुनौती को संबोधित करने हेतु अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है।

विश्व आर्थिक मंच द्वारा दावोस में अपनी वार्षिक बैठक 21-24 जनवरी से पहले ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट:2020 जारी

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रिपोर्ट के अनुसार,अगले दशक में पर्यावरण से संबंधित संभावित शीर्ष पाँच जोखिम हैं:-

  1. बाढ़ और तूफान जैसे चरम मौसम की घटनाएँ।
  2. जलवायु परिवर्तन को रोकने और अनुकूलन में विफलता।
  3. भूकंप, सुनामी, ज्वालामुखी विस्फोट और भू-चुंबकीय तूफान जैसी प्रमुख प्राकृतिक आपदाएँ।
  4. प्रमुख जैव विविधता के नुकसान और पारिस्थितिकी तंत्र का पतन।
  5. मानव निर्मित पर्यावरणीय क्षति और आपदाएँ।

यह रिपोर्ट वैश्विक जोखिमों की संभावना और प्रभाव के बारे में 750 से अधिक वैश्विक विशेषज्ञों और निर्णयकर्त्ताओं की धारणा पर आधारित है।

स्टेट ऑफ इंडियाज़ एन्वायरनमेंट रिपोर्ट 2020 के अनुसार,वर्ष 2019 में चरम मौसमी घटनाओं के कारण दुनिया भर में बहुत से लोगों की मृत्यु हो गई। ध्यातव्य है कि वर्ष 2019 में वैश्विक रूप से चरम मौसमी घटनाओं के कारण मारे गए लोगों में से 18 प्रतिशत से अधिक व्यक्ति एशिया और अफ्रीका से संबंधित थे। स्टेट ऑफ इंडियाज़ एन्वायरनमेंट रिपोर्ट, सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट एवं डाउन टू अर्थ द्वारा जारी की जाती है। इस रिपोर्ट में वनों, वन्य जीवन, कृषि, ग्रामीण विकास, जल एवं स्वच्छता और जलवायु परिवर्तन से संबंधित पहलू शामिल होते हैं।

जैव विविधता और उसका संरक्षण

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  • एक हालिया अध्ययन में हिमाचल प्रदेश के किन्नौर ज़िले में बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के विकास के लिये किये गए वन व्यपवर्तन (Forest Diversion) के बदले प्रतिपूरक वनीकरण (Compensatory Afforestation) के तहत केवल 10% पौधे ही लगाए गए। अध्ययन में यह भी पाया गया कि कुछ भूखंडों में लगाये गए पौधों के विकसित होने की दर 3.6% के बराबर थी।

प्रमुख बिंदु: अध्ययन: यह अध्ययन वर्ष 2012 से वर्ष 2016 के बीच हिमधारा इनवायरमेंट रिसर्च एंड एक्शन कलेक्टिव (Himdhara Environment Research and Action Collective) द्वारा किया गया है। यह अध्ययन सरकारी आँकड़ों एवं ज़मीनी अनुसंधान पर आधारित है। अध्ययन आधारित आँकड़े: 31 मार्च, 2014 तक प्रतिपूरक वनीकरण के लिये सीमांकित किया गया कुल क्षेत्र गैर-वन गतिविधियों के लिये 984 हेक्टेयर वन भूमि के बदले में 1930 हेक्टेयर था जिसमें सड़क, पनबिजली परियोजनाएँ, ट्रांसमिशन लाइनें आदि भी शामिल हैं। किन्नौर ज़िले में कुल परिवर्तित वन भूमि में 11598 पेड़ खड़े थे जो 21 पादप प्रजातियों से संबंधित थे। गिरे हुए अधिकांश पेड़ शंकुधारी थे जिनमें देवदार (3,612) और लुप्तप्राय चिलगोज़ा पाइंस (2743) शामिल थे। वर्ष 2002 और वर्ष 2014 के बीच किन्नौर ज़िले की परियोजनाओं के लिये कैचमेंट एरिया ट्रीटमेंट (Catchment Area Treatment- CAT) प्लान कोष के तहत एकत्र किये गए 162.82 करोड़ रुपए में से 31 मार्च, 2014 तक केवल 36% निधि का खर्च किया गया था। CAT प्लान कोष को पनबिजली परियोजनाओं के लिये शमन उपायों के रूप में चुना जाता है। किन्नौर में 90% से अधिक वन व्यपवर्तन (Forest Diversion) जलविद्युत परियोजनाओं एवं पारेषण लाइनों के विकास के लिये होता है। हिमाचल प्रदेश में देश की 10,000 मेगावाट की जल विद्युत परियोजनाओं की उच्चतम स्थापित क्षमता है और सतलज बेसिन में अवस्थित किन्नौर 53 जलविद्युत परियोजनाओं के साथ इस राज्य का जल विद्युत परियोजना केंद्र है। प्रतिपूरक वनीकरण: प्रतिपूरक वनीकरण प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (Compensatory Afforestation Management and Planning Authority- CAMPA) के नियमों के अनुसार, वन भूमि के प्रत्येक हेक्टेयर के लिये, 'प्रतिपूरक वनीकरण' के लिये भूखंडों के रूप में 'निम्नीकृत' (Degraded) भूमि का दोगुना उपयोग किया जाता है। प्रतिपूरक वनीकरण प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (Compensatory Afforestation Management and Planning Authority- CAMPA): यह निगरानी, तकनीकी सहायता और प्रतिपूरक वनीकरण गतिविधियों के मूल्यांकन के लिये केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (National Advisory Council) के रूप में कार्य करता है। प्रत्येक बार वन भूमि को गैर-वन उद्देश्यों जैसे- खनन या उद्योग के लिये परिवर्तित किया जाता है तो उपयोगकर्त्ता एजेंसी गैर-वन भूमि (या गैर-वन भूमि उपलब्ध नहीं है तो निम्नीकृत वन भूमि के दो गुना क्षेत्र) में वन लगाने के लिये भुगतान करती है। नियमों के अनुसार, क्षतिपूरक वनीकरण कोष (CAF) का 90% धन राज्यों को दिया जाता है जबकि 10% धन केंद्र सरकार अपने पास रखती है। इस धन का उपयोग CAT के लिये किया जाता है जिसके तहत वन प्रबंधन, वन्यजीव संरक्षण और प्रबंधन, संरक्षित क्षेत्रों से गाँवों का स्थानांतरण, मानव-वन्यजीव संघर्ष का प्रबंधन, प्रशिक्षण एवं जागरूकता सृजन, लकड़ी की बचत करने वाले उपकरणों की आपूर्ति एवं संबद्ध गतिविधियाँ शामिल हैं। चुनौतियाँ: वन विभाग द्वारा लक्ष्य पूरा न कर पाने का कारण है कि प्रतिपूरक वनीकरण के लिये कोई भूमि उपलब्ध नहीं है। किन्नौर ज़िले का एक बड़ा हिस्सा चट्टानी एवं ठंडा रेगिस्तान है जहाँ कुछ भी नहीं उगता है। किन्नौर ज़िले का लगभग 10% हिस्सा पहले से ही वनाच्छादित है और बाकी का उपयोग या तो कृषि के लिये किया जाता है या वहाँ घास के मैदान हैं। वनीकरण के लिये चिन्हित किये गए कई भूखंड वास्तव में घास के मैदान हैं जो ग्रामीणों द्वारा मवेशियों को चराने के लिये उपयोग किये जाते हैं। कई उदाहरणों के रूप में ग्रामीणों ने वहाँ लगाए गए पौधों को उखाड़ दिया क्योंकि वे नहीं चाहते कि ये चरागाह जंगल में परिवर्तित हो जाए। वनीकरण के लिये सामाजिक-आर्थिक ज़रूरतों पर विचार नहीं किया जाता है और साथ ही वनीकरण की निगरानी भी नहीं होती है।

15-22 फरवरी, 2020 तक गुजरात की राजधानी गांधीनगर में ‘वन्यजीवों की प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण (Conservation of Migratory Species of Wild Animals-CMS) की शीर्ष निर्णय निर्मात्री निकाय कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ (COP) के 13वें सत्र का आयोजन किया गया। विषय (Theme):-“प्रवासी प्रजातियाँ पृथ्वी को जोड़ती हैं और हम मिलकर उनका अपने घर में स्वागत करते हैं।” (Migratory species connect the planet and together we welcome them home) शुभंकर (Mascot):-गिबी (ग्रेट इंडियन बस्टर्ड) COP-13 के प्रतीक चिह्न में दक्षिण भारत की एक पारंपरिक कला ‘कोलम’ का प्रयोग करते हुए भारत के महत्त्वपूर्ण प्रवासी जीवों-अमूर फाल्कन, मरीन टर्टल को दर्शाया गया है।

CMS सदस्य देशों का यह सम्मेलन प्रवासी पक्षियों, उनके प्रवास स्थान और प्रवास मार्ग के संरक्षण पर होने वाला विश्व का एकमात्र सम्मेलन है। इस सम्मेलन का आयोजन हर 3 वर्ष में किया जाता है। यह सम्मेलन इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मई 2019 में ‘जैव-विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिये अंतर-सरकारी विज्ञान नीति मंच (IPBES)’ द्वारा जैव-विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र पर जारी एक समीक्षा रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्तमान में वन्यजीवों और वनस्पतियों की लगभग 10 लाख प्रजातियाँ लुप्तप्राय की स्थिति में हैं। सम्मेलन में लिये गए निर्णय ‘पोस्ट 2020 वैश्विक जैव-विविधता फ्रेमवर्क’ रणनीति के लिये आधार प्रदान करेंगे। वर्ष 2020 में ही ‘पोस्ट 2020 वैश्विक जैव विविधता फ्रेमवर्क’ के तहत भविष्य की नीतियों की रूपरेखा तथा संयुक्त राष्ट्र के सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) के अंतिम दशक (2020-2030) के लक्ष्य निर्धारित किये जायेंगे। अतः COP-13 सम्मेलन में लिये गए निर्णय आगामी दशक में विकास और प्रकृति के बीच समन्वय के लिये महत्त्वपूर्ण होंगे। COP-13 के परिणाम COP-13 में CMS की संरक्षित प्रजातियों की सूची में 10 नई प्रजातियों को जोड़ा गया है। इस सूची के परिशिष्ट-I में 7 प्रजातियों ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, एशियाई हाथी, बंगाल फ्लोरिकन, जगुआर, वाइट-टिप शार्क, लिटिल बस्टर्ड और एंटीपोडियन अल्बाट्राॅस को शामिल किया है। ध्यातव्य है कि CMS के परिशिष्ट-I में वन्यजीवों की लुप्तप्राय (Endangered) प्रजातियों को रखा जाता है। परिशिष्ट-II में प्रवासी जीवों की 3 प्रजातियों को जोड़ा गया है। परिशिष्ट-II में वन्यजीवों की उन प्रजातियों को शामिल किया जाता है, जिनकी संख्या में असामान्य कमी दर्ज की गई हो तथा उनके संरक्षण के लिये वैश्विक सहयोग की ज़रूरत हो। परिशिष्ट-II में जोड़ी गई प्रजातियों में उरियल (Urial), स्मूथ हैमरहेड शार्क और टोपे शार्क (Tope shark) शामिल हैं। इसके साथ ही वन्य जीवों की लक्षित 14 अन्य प्रजातियों के संरक्षण हेतु ठोस कदम उठाने के लिये कार्ययोजना पर सहमति। गांधीनगर घोषणा (डिक्लेरेशन): COP-13 सम्मेलन के दौरान “गांधीनगर डिक्लेरेशन” नामक एक घोषणा-पत्र जारी किया गया, इस घोषणा-पत्र में प्रवासी पक्षियों और उनके वास स्थान के संरक्षण के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में CMS की भूमिका की सराहना की गई। इस घोषणा-पत्र में प्रवासी जीवों के वास स्थान के क्षरण और उनके अनियंत्रित दोहन को प्रवासी जीवों के अस्तित्व के लिये सबसे बड़ा खतरा बताया गया। घोषणा-पत्र में वर्तमान वैश्विक ‘पारिस्थितिक संकट’ (Ecological Crisis) को स्वीकार करते हुए इस समस्या से निपटने के लिये शीघ्र और मज़बूत कदम उठाने की आवश्यकता पर बल दिया गया। घोषणा-पत्र में CMS और अन्य जैव-विविधता से संबंधित सम्मेलनों के लक्ष्यों की प्राप्ति में ‘जलवायु परिवर्तन पर UNFCCC’ के पेरिस समझौते के महत्त्व को स्वीकार किया गया। पोस्ट 2020 ग्लोबल फ्रेमवर्क: आगामी दशकों में जैव-विविधता में सकारात्मक सुधार के लिये नीति-निर्धारण में ‘Post 2020 ग्लोबल फ्रेमवर्क’ के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। घोषणापत्र में ‘पोस्ट-2020 वैश्विक जैव-विविधता फ्रेमवर्क’ के अंतर्गत पर्यावरण संवर्द्धन के क्षेत्र में बहुपक्षीय पर्यावरण समझौतों, क्षेत्रीय और सीमा पार सहयोग प्रणाली, आदि के माध्यम से वैश्विक सहयोग बढ़ाने तथा सामुदायिक स्तर पर योजनाओं के बीच अनुभव साझा करने जैसे प्रयास शामिल करने की सलाह दी गई है। इसके साथ ही ‘पोस्ट-2020 वैश्विक जैव-विविधता फ्रेमवर्क’ के तहत योजना की सफलता (लक्ष्यों पर प्रगति की स्थिति, जैव-विविधताओं को जोड़ने पर कार्य-प्रगति) के मूल्यांकन के लिये प्रवासी प्रजातियों की स्थिति के विभिन्न सूचकांकों जैसे-वाइल्ड बर्ड इंडेक्स, लिविंग प्लैनेट इंडेक्स, आदि को शामिल करने की बात कही गई है। गांधीनगर घोषणा-पत्र में CMS सदस्यों और अन्य हितधारकों को प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण तथा जैव-पारिस्थितिकी के क्षेत्र में संपर्क एवं कार्य क्षमता को बढ़ाने के लिये ‘पोस्ट-2020 वैश्विक जैव-विविधता फ्रेमवर्क’, 2030 सतत् विकास लक्ष्य आदि योजनाओं के तहत वैश्विक सहयोग बढ़ाने व आवश्यक संसाधनों को उपलब्ध कराने की मांग की गई है। रैप्टर समझौता-ज्ञापन (Raptor MOU): COP-13 सम्मेलन में पूर्वी अफ्रीका के देश इथिओपिया (Ethiopia) ने CMS द्वारा प्रवासी पक्षियों के संरक्षण के लिये स्थापित ‘CMS एमओयू ऑन कंजर्वेशन ऑफ माइग्रेटरी बर्ड्स ऑफ प्रे इन अफ्रीका एंड यूरेशिया’ नामक समझौते पर हस्ताक्षर किये गए, इस समझौते को ‘रैप्टर समझौता-ज्ञापन (Raptor MOU)’ के नाम से भी जाना जाता है। यह समझौता अफ्रीका और यूरेशिया क्षेत्र में प्रवासी पक्षियों के शिकार पर प्रतिबंध और उनके संरक्षण को बढ़ावा देता है। भारत ने मार्च 2016 में इस समझौते पर हस्ताक्षर किये थे।

COP-13 में भारत की भूमिका COP-13 समेलन में CMS के ‘चैंपियन प्रोग्राम’(Champion Programme) के तहत भारत को ‘स्माल ग्रांट्स प्रोग्राम’ (Small Grants Program) के लिये अवार्ड से सम्मानित किया गया। इस सम्मेलन के बाद भारत को अगले तीन वर्षों के लिये COP का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। भारत सेंट्रल एशियाई फ्लाईवे (CAF) के मुद्दे का नेतृत्व करते हुए CAF के लिये एक फ्रेमवर्क का निर्माण करेगा।

पर्यावरण प्रभाव आकलन

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NGT) ने असम के ‘डिब्रू-सैखोवा राष्टीय उद्यान’ में प्रस्तावित सात उत्खनन ड्रिलिंग साइटों को पर्यावरणीय मंज़ूरी दिये जाने पर संबंधित संस्थाओं/इकाइयों से जवाब तलब किया है। NGT द्वारा इस संबंध में ‘पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ (Ministry of Environment, Forest and Climate Change- MoEFCC), ‘ऑयल इंडिया लिमिटेड’ (Oil India Limited- OIL) और असम राज्य के ‘प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ एवं ‘राज्य जैव विविधता बोर्ड’ से जवाब तलब किया गया है। NGT के ये निर्देश असम के दो पर्यावरण संरक्षणवादियों की याचिका पर आधारित थे। याचिकाकर्त्ताओं का पक्ष: NGT ने याचिकाकर्त्ताओं के इस तर्क पर ध्यान दिया कि OIL द्वारा 'पर्यावरणीय प्रभाव आकलन' (Environmenउt Impact Assessment- EIA)-2006, अधिसूचना के तहत सभी चरणों यथा; सार्वजनिक सुनवाई' (Public Hearing) तथा 'जैव विविधता मूल्यांकन' (Biodiversity Assessment) अध्ययन, का पालन नहीं किया गया है।

राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं समुद्री अनुसंधान केंद्र’ (National Centre for Polar and Ocean Research- NCPOR) द्वारा प्राचीन सूक्ष्म समुद्री शैवाल ‘कोकोलिथोफोरस’ का अध्ययन

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NCPOR ने पाया कि इस शैवाल के कारण दक्षिणी हिंद महासागर में कैल्शियम कार्बोनेट (CaCO3) की सांद्रता में कमी आई है। कोकोलिथोफोरस (Coccolithophores), विश्व के महासागरों की ऊपरी परतों में निवास करने वाला एकल-कोशिकीय शैवाल है। ये समुद्री फाइटोप्लैंकटन को चूने में परिवर्तित करते हैं जो खुले महासागरों में 40% तक कैल्शियम कार्बोनेट का उत्पादन करते हैं और वैश्विक निवल समुद्री प्राथमिक उत्पादकता (Global Net Marine Primary Productivity) के 20% के लिये ज़िम्मेदार हैं। ये अलग-अलग चाक (Chalk) एवं सी-शेल (Seashell) वाली कैल्शियम कार्बोनेट की जूप्लेटों से एक्सोस्कल्टन (Exoskeleton) बनाते हैं। इसके दौरान कार्बन डाइऑक्साइड का उत्पादन होता है किंतु : : : कोकोलिथोफोरस प्रकाश संश्लेषण के दौरान इसका अवशोषण करके वातावरण एवं महासागर से इसे हटाने में मदद करते हैं। संतुलन की अवस्था में ये उत्पादन करने की तुलना में अधिक कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) को अवशोषित करते हैं जो महासागरीय पारिस्थितिकी तंत्र के लिये लाभदायक है। दक्षिणी हिंद महासागर में कोकोलिथोफोरस की प्रचुरता एवं विविधता समय पर निर्भर है और यह विभिन्न पर्यावरणीय कारकों जैसे- सिलिकेट की सांद्रता, कैल्शियम कार्बोनेट की सांद्रता, डायटम (Diatom) की प्रचुरता, प्रकाश की तीव्रता और सूक्ष्म एवं संभवतः सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की उपलब्धता एवं सांद्रता (समुद्री प्रदूषण) से प्रभावित है। डायटम एकल-कोशिकीय शैवाल हैं जो जलवायु परिवर्तन एवं समुद्री अम्लीकरण के साथ समुद्री बर्फ के टूटने के बाद उत्पन्न होते हैं। यह जल में सिलिकेट की सांद्रता को बढ़ाता है और बदले में कैल्शियम कार्बोनेट की मात्रा को कम कर देता है तथा कोकोलिथोफोरस की विविधता को घटा देता है। विश्व महासागरीय पारिस्थितिक तंत्र के संभावित महत्त्व के साथ यह कोकोलिथोफोरस की वृद्धि एवं उसकी कंकाल संरचना (Skeleton Structure) को प्रभावित करेगा।

यह अध्ययन इंगित करता है कि परिवर्तित कोकोलिथोफोरे कैल्सीफिकेशन दर (The Altered Coccolithophore Calcification Rate) का एक प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन है जो समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र (Marine Ecosystem) और वैश्विक कार्बन प्रवाह में सकारात्मक बदलाव लाने के लिये महत्त्वपूर्ण है।

राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं समुद्री अनुसंधान केंद्र’ (National Centre for Polar and Ocean Research- NCPOR) भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अंतर्गत कार्यरत एक स्वायत्तशासी अनुसंधान एवं विकास संस्थान है। यह ध्रुवीय एवं दक्षिणी महासागरीय क्षेत्र में देश की अनुसंधान गतिविधियों के लिये ज़िम्मेदार संस्थान है। यह केंद्र गोवा में स्थित है। इसको अंटार्कटिका में भारत के स्थायी स्टेशन (मैत्री एवं भारती) के रखरखाव सहित भारतीय अंटार्कटिक कार्यक्रम के समन्वय एवं कार्यान्वयन के लिये नोडल संगठन के रूप में नामित किया गया है।

प्रदूषण और स्वच्छता

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  • दिल्ली में यमुना नदी के पानी में अमोनिया के उच्च स्तर (लगभग 3 पार्ट पर मिलियन) का पता चला है जिसके कारण दिल्ली में पानी की आपूर्ति बाधित हुई है। भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) केअनुसार, पीने के पानी में अमोनिया की स्वीकार्य अधिकतम सीमा 0.5 पार्ट पर मिलियन (Parts Per Million-ppm) है।

अमोनिया का रासायनिक सूत्र NH3 है। यह एक रंगहीन गैस है जिसका उपयोग उर्वरक, प्लास्टिक, सिंथेटिक फाइबर, रंजक एवं अन्य उत्पादों के उत्पादन में एक औद्योगिक रसायन के रूप में किया जाता है। इसका निर्माण पर्यावरण में जैविक अपशिष्ट पदार्थ के टूटने से स्वाभाविक रूप से होता है तथा ज़मीन और सतह के जल स्रोतों में यह औद्योगिक अपशिष्टों, सीवेज द्वारा संदूषण या कृषि अपवाह के माध्यम से रिसकर अपना मार्ग स्वयं बना लेता है। अमोनिया के उच्च स्तर का प्रभाव:-

  1. अमोनिया पानी में ऑक्सीजन की मात्रा को कम कर देता है।
  2. यह नाइट्रोजन के ऑक्सीकरण रूप को परिवर्तित कर देता है जिससे ‘जैव रासायनिक ऑक्सीजन माँग’ (BOD) बढ़ जाती है।
  3. अगर जल में अमोनिया की मात्रा 1 ppm से अधिक है तो यह जल मछलियों के लिये विषाक्त है।
  4. मनुष्यों द्वारा 1 ppm या उससे ऊपर के अमोनिया स्तर वाले जल के दीर्घकालिक अंतर्ग्रहण से आंतरिक अंगों को नुकसान हो सकता है।

उपचार:-मीठे पानी का प्रदूषित अमोनिया पानी के साथ मिश्रण। क्लोरीनीकरण। क्लोरीनीकरण पानी में सोडियम हाइपोक्लोराइट जैसे क्लोरीन या क्लोरीन यौगिकों को जोड़ने की प्रक्रिया है। इस विधि का उपयोग नल के पानी में कुछ बैक्टीरिया एवं अन्य रोगाणुओं को मारने के लिये किया जाता है हालांकि क्लोरीन अत्यधिक विषाक्त है।

लखवार-व्यासी बांध (उत्तराखंड), ताजेवाला बैराज बांध (हरियाणा) आदि यमुना पर स्थित बांध है।
  • 8 अगस्त, 2020 को भारतीय प्रधानमंत्री ‘राष्ट्रीय स्वच्छता केंद्र’ का उद्घाटन करेंगे जो स्वच्छ भारत मिशन पर एक परस्पर संवादात्‍मक अनुभव केंद्र है। गाँधीजी के चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी समारोह के अवसर पर महात्मा गाँधी को श्रद्धांजलि देते हुए प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रीय स्वच्छता केंद्र (RSK) की घोषणा पहली बार 10 अप्रैल, 2017 को की गई थी। इस केंद्र से आने वाली पीढ़ियाँ दुनिया के सबसे बड़े व्यवहार परिवर्तन अभियान ‘स्वच्छ भारत मिशन’ की सफल यात्रा से सही ढंग से अवगत हो पाएंगी। RSK में डिजिटल एवं आउटडोर इंस्टॉलेशन के संतुलित मिश्रण से स्वच्छता एवं संबंधित पहलुओं के बारे में विभिन्‍न सूचनाएँ, जागरूकता और जानकारियाँ प्राप्‍त होंगी।

वर्ष 1917 में बिहार में हुआ चंपारण सत्याग्रह, भारत में गाँधीजी का प्रथम सत्याग्रह था। यह सत्याग्रह ‘तिनकठिया पद्धति’ से संबंधित था। राजकुमार शुक्ल के आग्रह पर गाँधीजी ने चंपारण आने और कृषकों की समस्याओं की जाँच की थी। एन. जी. रंगा ने गाँधीजी के चंपारण सत्याग्रह का विरोध किया था जबकि रवींद्रनाथ टैगोर ने चंपारण सत्याग्रह के दौरान इन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी थी।

  • 8 अगस्त, 2020 को भारतीय प्रधानमंत्री ने 'स्वच्छता' के लिये एक सप्ताह (8 अगस्त से 15 अगस्त) तक चलने वाले ‘गंदगी मुक्त भारत’ (Gandagi Mukt Bharat) अभियान की शुरुआत की। इस सप्ताह के दौरान 15 अगस्त, 2020 तक प्रत्येक दिन शहरी एवं ग्रामीण भारत में 'स्वच्छता' के लिये 'जन-आंदोलन' को फिर से लागू करने के लिये विशेष 'स्वच्छता' कार्यक्रम आयोजित किये जाएंगे।

भारतीय प्रधानमंत्री ने नई दिल्ली में राजघाट पर गांधी स्मृति और दर्शन समिति में राष्ट्रीय स्वच्छता केंद्र का शुभारंभ किया जो ‘स्वच्छ भारत मिशन’ पर एक संवादात्मक अनुभव केंद्र है। केंद्र सरकार द्वारा 'गंदगी मुक्त भारत' अभियान शुरू किये जाने के बाद 9 अगस्त, 2020 को बिहार सरकार ने राज्य के लोगों को स्वच्छता के महत्त्व के बारे में सूचित करने के लिये एक जागरूकता अभियान शुरू किया।

  • दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 5 अक्तूबर 2020 को स्वच्छ राष्ट्रीय राजधानी के लिये ‘युद्ध प्रदूषण के विरुद्ध’ नाम से एक वायु-प्रदूषण विरोधी अभियान शुरू किया है। इस अभियान के तहत राज्य ने दिल्ली शहर के सभी 13 प्रदूषण हॉटस्पॉट्स के लिये अलग-अलग योजनाएँ तैयार की हैं। इस अभियान के फोकस क्षेत्रों में पेड़ों का प्रत्यारोपण, इलेक्ट्रिक वाहन को अपनाना और धूल नियंत्रण जैसे विभिन्न उपाय शामिल हैं। इस अभियान की शुरुआत करते हुए दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने यह घोषणा की है कि वायु प्रदूषण से लड़ने के लिये सरकार द्वारा उठाए गए सभी प्रदूषण-विरोधी उपायों की निगरानी के लिये दिल्ली में एक ‘वॉर रूम’ बनाया जा रहा है। दिल्ली के मुख्यमंत्री ने यह भी घोषणा की है कि ‘ग्रीन दिल्ली’ नामक एक मोबाइल ऐप का भी विकास किया जा रहा है, जो लोगों के द्वारा प्रदूषण पैदा करने वाली गतिविधियों को दिल्ली सरकार के ध्यान में लाने में मदद करेगा।
  • उच्चतम न्यायालय द्वारा 13 जनवरी 2020 को दिये गए आदेश के बाद राजधानी दिल्ली में 14 बड़ी निर्माण परियोजना स्थलों पर एंटी-स्मॉग गन (Anti-smog Gun) उपकरण लगाए गए हैं। उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि जिन परियोजनाओं में राज्य या केंद्र से पर्यावरणीय मंज़ूरी की आवश्यकता होती है और वे परियोजनाएँ 20,000 वर्ग मीटर से अधिक क्षेत्र के अंतर्गत आती हैं, उनमें एंटी-स्मॉग गन की अनिवार्यता होगी। इसके निर्णय के अनुसार, दिल्ली में 47 बड़ी परियोजनाओं में इन एंटी-स्मॉग गन को स्थापित किया जाना था।
प्रदूषक भुगतान नीति (Polluter Pays Policy):-वहीं न्यायालय ने इन स्थलों पर एंटी-स्मॉग गन की स्थापना की लागत को संतुलित करने के लिये एक प्रदूषक भुगतान नीति (Polluter Pays Policy) तैयार करने का आदेश भी दिया था। जिसका अर्थ है कि जो लोग प्रदूषण पैदा करते हैं उन्हें मानव स्वास्थ्य या पर्यावरण को नुकसान से बचाने के लिये इसे प्रबंधित करने की लागत वहन करनी चाहिये।
एंटी-स्मॉग गन एक ऐसा उपकरण है जो वायु प्रदूषण को कम करने के लिये हवा में नेबुलाइज्ड (Nebulised) जल की बूंदों का छिड़काव करता है।

वाहन पर स्थापित एंटी-स्मॉग गन एक पानी की टंकी से जुड़ा हुआ होता है जो धूल एवं अन्य कणों को जमीन पर लाने के लिये हवा में 50 मीटर की ऊँचाई तक पानी का छिड़काव करता है। इस उपकरण को शहर में कहीं भी ले जाया जा सकता है। यह एक प्रकार की कृत्रिम वर्षा होती है जिससे छोटे धूलकणों (मुख्य प्रदूषक पीएम 2.5) को नीचे भूमि पर लाने में मदद मिलती है। गौरतलब है कि अक्टूबर महीने के अंतिम सप्ताह से दिल्ली में वायु प्रदूषण की स्थिति खतरनाक स्तर पर पहुँच जाती है जिसके कुछ समय के लिये हवा की गुणवत्ता ‘गंभीर’ श्रेणी के अंतर्गत दर्ज की जाती है। दिल्ली में वायु प्रदूषण एवं स्मॉग तीन इनपुटों (स्थानीय स्तर पर प्रदूषकों का उत्सर्जन, अन्य राज्यों एवं क्षेत्रों से उत्सर्जित प्रदूषकों का परिवहन, मौसम संबंधी कारक जैसे- हवा की गति एवं तापमान) का परिणाम है।

असम के शोधकर्त्ताओं ने कार्बन नैनो कणों/कार्बन डॉट्स के उत्पादन हेतु जलकुंभी (Water Hyacinth) पौधे का प्रयोग किया।

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जलकुंभी के उपयोग से उत्पादित इन अत्यधिक छोटे (10 नैनोमीटर से भी कम) कणों का इस्तेमाल (आमतौर पर प्रयोग किये जाने वाले) तृणनाशक/हर्बिसाइड- प्रेटिलाक्लोर (Pretilachlor) का पता लगाने के लिये किया जा सकता है। हर्बिसाइड का पता लगाने के मामले में इन नैनो कणों को चयनात्मक और संवेदनशील पाया गया। इस अध्ययन के आधार पर, शोधकर्त्ताओं का एक समूह प्रेटिलाक्लोर की ऑन-साइट पहचान करने के लिये एक पेपर स्ट्रिप-आधारित सेंसर विकसित करने पर कार्य कर रहा है।

कार्बन डॉट्स के निर्माण हेतु जलकुंभी के पत्तों से पर्णहरिम यानी क्लोरोफिल को पृथक किया गया, उसके बाद इन्हें सूखाकर पाउडर के रूप में परिवर्तित किया गया। जब एक नैनो कण का आकार 10 नैनोमीटर से कम होता है तो इस एक डॉट या नैनोडॉट कहा जाता है। इस पाउडर को कार्बन डॉट्स में परिवर्तित करने के लिये कई चरणों में इसे उपचारित किया गया जिसमें पाउडर को 150 डिग्री सेल्सियस पर गर्म करना भी शामिल था।

ये कार्बन डॉट्स पराबैंगनी प्रकाश में हरे रंग की प्रतिदीप्ति (Fluorescence) उत्पन्न करने में सक्षम हैं। इस प्रतिदीप्ति का कारण डॉट की सतह पर अत्यंत छोटे ऑक्सीजन कार्यात्मक समूह की उपस्थिति हैं। हर्बिसाइड की उपस्थिति में इन कार्बन डॉट्स की प्रतिदीप्ति प्रबलता बढ़ जाती है। डॉट और हर्बिसाइड के बीच इलेक्ट्रॉन के स्थानांतरण से प्रतिदीप्ति में वृद्धि होती है। ये कार्बन डॉट प्रेटिलाक्लोर (हर्बिसाइड) के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं तथा यह हर्बिसाइड की अत्यंत कम मात्रा की पहचान करने में भी सक्षम है। लाभ:-कार्बन डॉटस के माध्यम से हर्बिसाइड का पता लगाना तुलनात्मक रूप से एक सस्ता एवं बेहतर विकल्प है क्योंकि इस तकनीक में कच्चे माल के रूप में प्रयोग की जाने वाली जलकुंभी सरलता से उपलब्ध हो सकती है। इस तकनीक की मदद से जलकुंभी जैसे अपशिष्ट पदार्थ का प्रयोग उपयोगी तकनीक के विकास में किया जा सकेगा। हर्बिसाइड प्रदूषण (Herbicide Pollution): गैर कृषि क्षेत्रों में अवांछनीय पौधों या खरपतवार को नष्ट करने के लिये हर्बिसाइड्स का उपयोग किया जाता है। लेकिन जब हर्बिसाइड अपने संपर्क में आने वाले उपयोगी पौधों को भी नष्ट कर देते हैं तो उसे हर्बिसाइड प्रदूषण कहा जाता है।

जलकुंभी (Water Hyacinth)एक जलीय पौधा (Hydrophytic Plant) है, जो जल की सतह पर तैरता है। इसका मूल स्थान दक्षिण अमेरिका है। यह अपनी संख्या को 2 सप्ताह में ही लगभग दोगुना करने की क्षमता रखता है। इसके बीजों में लगभग 30 वर्षों तक अंकुरण की क्षमता बनी रहती है। इसका वैज्ञानिक नाम Eichhornia crassipes है। जलकुंभी के लाभ:-जलकुंभी में नाइट्रोजन प्रचुर मात्रा में होती है, अत: इसका उपयोग बायोगैस उत्पादन के विकल्प के रूप में भी किया जा सकता है। जलकुंभी आर्सेनिक संदूषित पेयजल से आर्सेनिक को हटाने में भी सक्षम है। अत: पेयजल को शुद्ध करने का यह एक बेहतर विकल्प हो सकता है।

जलवायु परिवर्तन

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  • जल नीति पत्रिका के अनुसार, जलवायु परिवर्तन तथा अपर्याप्त शहरी नियोजन के कारण हिंदू-कुश हिमालय क्षेत्र के चार देशों - बांग्लादेश, भारत, नेपाल और पाकिस्तान के 13 नगरों में से 12 नगर जल-असुरक्षा (Water Insecurity) का सामना कर रहे हैं।

यह हिंदू-कुश हिमालय पर किया गया प्रथम अध्ययन है जो पानी की उपलब्धता, पानी की आपूर्ति प्रणाली, बढ़ते नगरीकरण और जल की मांग (दैनिक और मौसमी दोनों) में वृद्धि तथा बढ़ती जल असुरक्षा के मध्य संबंध स्थापित करता है। इस अध्ययन में भौतिक वैज्ञानिक, मानवविज्ञानी, भूगोलविद् और योजनाकार आदि से मिलकर बनी बहु-अनुशासित टीम शामिल स्थी।

हिंदू-कुश हिमालयन (HKH) क्षेत्र भारत,नेपाल और चीन सहित आठ देशों में फैला हुआ है, जो लगभग 240 मिलियन लोगों की आजीविका का साधन है। तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है क्योंकि यह उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के बाद स्थायी हिम आवरण का तीसरा बड़ा क्षेत्र है।

यहाँ से 10 से अधिक नदियों का उद्गम होता है, जिनमें गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेकांग जैसी बड़ी नदियाँ शामिल हैं। जल-असुरक्षा के कारण: इस अध्ययन में जल असुरक्षा के निम्नलिखित कारणों की पहचान की गई है:

  1. खराब जल प्रशासन
  2. खराब शहरी नियोजन
  3. खराब पर्यटन प्रबंधन
  4. जलवायु संबंधी जोखिम और चुनौतियाँ

यहाँ के योजनाकारों और स्थानीय सरकारों ने इन नगरों में दीर्घकालिक रणनीतियँ बनाने पर विशेष ध्यान नहीं दिया। ग्रामीण क्षेत्रों से नगरों की ओर प्रवासन से हिंदू-कुश हिमालय क्षेत्र में नगरीकरण लगातार बढ़ रहा है। यद्यपि वर्तमान में यहाँ के बड़े नगरों की आबादी केवल 3% तथा छोटे शहरों की आबादी केवल 8% है, लेकिन अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2050 तक नगरीय आबादी 50% से अधिक हो जाएगी, इससे जल तनाव बहुत बढ़ जाएगा। यहाँ 8 कस्बों में जल की मांग और आपूर्ति का अंतर 20-70% के बीच है तथा मांग-आपूर्ति का यह अंतर वर्ष 2050 तक दोगुना हो सकता है।

जल संकट से प्रभावित नगर: हिंदू-कुश हिमालय क्षेत्र के 12 नगरों में जल प्रबंधन संबंधी समस्या देखी गई है, ये इस प्रकार हैं: मुर्रे(Murree) और हैवेलियन (पाकिस्तान) काठमांडू, भरतपुर, तानसेन और दामौली (नेपाल) मसूरी, देवप्रयाग, सिंगतम, कलिम्पोंग और दार्जिलिंग (भारत) सिलहट (बांग्लादेश)

भारतीय मौसम विज्ञान संस्थान'पुणे,द्वारा एक जलवायु पूर्वानुमान मॉडल विकसित

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यह मॉडल भारतीय उपमहाद्वीप पर वैश्विक तापन के प्रभाव को दर्शाने वाला प्रथम 'राष्ट्रीय पूर्वानुमान मॉडल' है। यह पूर्वानुमान मॉडल, 'जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल' (Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC) की अगली रिपोर्ट; जो वर्ष 2022 तक तैयार होने की उम्मीद है, का एक भाग है। यह पूर्वानुमान मॉडल इस अवधारणा पर आधारित है कि वैश्विक समुदाय द्वारा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर अंकुश लगाने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किये गए तो जलवायु परिवर्तन की क्या स्थिति होगी। जलवायु मॉडल के प्रमुख पूर्वानुमान:

जलवायु पूर्वानुमान मॉडल के आधार पर निम्नलिखित प्रमुख निष्कर्ष निकाले गए हैं:-
  • औसत तापमान में वृद्धि:-वर्ष 1986-2015 के बीच की अवधि में सबसे गर्म दिन तथा सबसे ठंडी रातों के तापमान में क्रमशः 0.63°C और 0.4°C की वृद्धि हुई है।

21 वीं सदी के अंत तक दिन तथा रात के तापमान में वर्ष 1976-2005 की अवधि की तुलना में लगभग 4.7 °C और 5.5°C वृद्धि होने का अनुमान है। वर्ष 2040 तक, वर्ष 1976-2005 की अवधि की तुलना में तापमान में 2.7 °C और इस सदी के अंत तक तापमान में 4.4 °C वृद्धि होने का अनुमान है। 'प्रतिनिधि संकेंद्रण मार्ग' (Representative Concentration Pathway 8.5- RCP 8.5) जो प्रति वर्ग मीटर में विकिरण प्रभाव की गणना करता है, के अनुसार, भविष्य के गर्म दिन तथा गर्म रातों की संख्या वर्ष 1976-2O05 की संदर्भ अवधि के सापेक्ष क्रमशः 55% और 70% तक बढ़ने का अनुमान है।

प्रतिनिधि संकेंद्रण मार्ग (RCP), IPCC द्वारा ग्रीनहाउस गैसों के संकेंद्रण को दर्शाने वाला प्रक्षेप वक्र है। RCP को IPCC द्वारा 'पाँचवी आकलन रिपोर्ट' (Assessment Report- AR5) में अपनाया गया था।

भविष्य के ग्रीनहाउस गैस संकेंद्रण को चार प्रक्षेप वक्रों के माध्यम से दर्शाया गया। इन प्रक्षेप वक्रों का निर्धारण भविष्य में संभावित ग्रीनहाउस गैसों के संकेंद्रण के आधार पर किया गया है। इसमें RCP- 2.6, RCP- 4.5, RCP- 6 और RCP 8.5 प्रक्षेप वक्र बनाए गए हैं।

  • उष्ण लहरों की आवर्ती में वृद्धि:-21वीं सदी के अंत तक भारत में उष्ण-लहरों की बारंबारता (Frequency) तीन से चार गुना अधिक होने का अनुमान है।

रिपोर्ट के अनुसार, भारत की जलवायु में तेज़ी से परिवर्तन के कारण देश की प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र, कृषि उत्पादकता और जल संसाधनों पर दबाव बढ़ेगा।

  • एयरोसोल की मात्रा में वृद्धि:-रिपोर्ट के अनुसार, वायु मे एयरोसोल अर्थात कणकीय पदार्थों की मात्रा में जीवाश्म ईंधन दहन, उर्वरकों के प्रयोग में वृद्धि तथा कुछ प्राकृतिक प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप काफी वृद्धि हुई है।

रिपोर्ट के अनुसार, ‘एरोसोल ऑप्टिकल डेप्थ’ Aerosol Optical Depth- AOD) में मौसम के साथ परिवर्तनशीलता देखने को मिलती है। दिसंबर-मार्च के शुष्क महीनों के दौरान AOD में वृद्धि की दर बहुत अधिक होती है। एयरोसोल ऑप्टिकल डेप्थ (Aerosol optical depth- AOD): एयरोसोल ऑप्टिकल डेप्थ कणकीय पदार्थों तथा धुंध के कारण सौर किरण की कमी को मापने का एक मापक है। वायुमंडल में उपस्थित कणकीय पदार्थ (धूल, धुआँ, प्रदूषण) प्रकाश को अवशोषित, विकर्णित अथवा परावर्तित कर सकते हैं। AOD हमें बताता है कि इन एयरोसोल कणों द्वारा सूर्य के प्रत्यक्ष प्रकाश की कितनी मात्रा को पृथ्वी पर पहुँचने से रोका गया है। AOD का मान यदि 0.01 का हो तो यह अत्यंत स्वच्छ वातावरण को जबकि 0.4 का मान बहुत धुंधली स्थिति को दर्शाता है।

  • वर्षा के प्रतिरूप में बदलाव:-वर्षा के पैटर्न में व्यापक बदलाव देखने को मिला है। वर्षा की तीव्रता में वृद्धि हुई है लेकिन वर्षा-अंतराल में लगातार वृद्धि हुई है। अरब सागर से उत्पन्न होने वाले अत्यधिक गंभीर चक्रवातों की आवृत्ति में वृद्धि हुई है।
  • समुद्र स्तर में वृद्धि:-ग्लेशियर पिघलने तथा महासागरीय तापमान में वृद्धि से हिंद महासागर के स्तर में लगातार वृद्धि हो रही है।

मुंबई तट के साथ समुद्र स्तर में प्रति दशक में 3 सेमी. की वृद्धि जबकि कोलकाता तट के साथ प्रति दशक में 5 सेमी. की वृद्धि दर्ज की गई है।

ग्रेट निकोबार द्वीप के पांच समुद्र तटों का अस्तित्व प्लास्टिक के कारण ख़तरे में

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एक सर्वेक्षण में पाया गया कि भारत के इस प्राचीनतम दक्षिणी द्वीप के तटों पर प्लास्टिक की बोतलें पाई गई हैं। भारत सहित लगभग 10 देश (मलेशिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड, सिंगापुर, फिलीपींस, वियतनाम, भारत, म्याँमार, चीन और जापान) द्वीप पर प्लास्टिक कचरे के ज़िम्मेदार हैं। सर्वेक्षण में गैर भारतीय मूल के लगभग 60 तटों को शामिल किया गया था तथा इन पर लगभग- 40.5% कचरा मलेशियाई मूल का 23.9% कचरा इंडोनेशियाई मूल का तथा 16.3% कचरा थाईलैंड का था। इन तटों पर भारतीय मूल का केवल 2.2% कचरा था।

द्वीप पर कचरे का कारण इंडोनेशिया और थाईलैंड से प्लास्टिक कचरे में वृद्धि का कारण इनकी अंडमान द्वीप से निकटता हो सकती है। इसके अलावा मलक्का जलडमरूमध्य जो एक प्रमुख जल मार्ग है, के माध्यम से जल धाराओं के कारण प्लास्टिक ने द्वीप पर अपना रास्ता बना लिया है। इस द्वीप पर समुद्री मलबे की भारी मात्रा, मछली पकड़ने, समुद्री कृषि गतिविधि और जहाज यातायात आदि के कारण ठोस अपशिष्ट के अनुचित प्रबंधन की वजह हो सकती है।

अंडमान और ग्रेट निकोबार द्वीपसमूह भारत के पूर्वी तट पर बंगाल की खाड़ी में स्थित हैं और भारत की दक्षिण-पूर्वी सीमा बनाते हैं। इसके अलावा ये द्वीपसमूह अंडमान सागर से घिरे हैं और मलेशिया, म्याँमार, थाईलैंड, सिंगापुर तथा इंडोनेशिया जैसे कुछ दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से निकटता रखते हैं। अंडमान और निकोबार को दस डिग्री चैनल ( Ten Degree Channel) द्वारा अलग किया जाता है जो लगभग 150 किमी. तक विस्तृत है।

ग्रेट निकोबार द्वीप भारत का दक्षिणतम द्वीप है। जिसका क्षेत्रफल लगभग 1044 वर्ग किमी है। 2011 की जनगणना के अनुसार, यहाँ की आबादी लगभग 8,069 है। यह द्वीप भारत की सबसे आदिम जनजाति शोम्पेंस (Shompens) का निवास स्थान है। इस द्वीप में ग्रेट निकोबार बायोस्फीयर रिज़र्व (Great Nicobar Biosphere Reserve-GNBR) भी अवस्थित है जिसे यूनेस्को द्वारा बायोस्फीयर रिज़र्व्स के विश्व नेटवर्क के रूप में घोषित किया गया है। इस बायोस्फीयर रिज़र्व में गैलाथिया नेशनल पार्क और कैम्पबेल बे नेशनल पार्क शामिल हैं। यह द्वीप उष्णकटिबंधीय आर्द्र सदाबहार वनों, पर्वत श्रृंखलाओ और तटीय मैदानों से पारिस्थितिक तंत्रों की एक विस्तृत श्रृंखला का निर्माण करता है। इस द्वीप पर विशाल केकड़ों, केकड़े खाने वाले मकाक ( Crab-Eating Macaques), दुर्लभ मेगापोड (Megapode) के साथ-साथ लेदरबैक कछुए(Leatherback Turtles) भी पाए जाते हैं। भारत में चार जैव विविधता वाले आकर्षण केंद्रों में से एक सुंडालैंड है जिसमें निकोबार द्वीपसमूह भी शामिल है।