समसामयिकी 2020/पर्यावरण और विश्व
- 22 मार्च को मनायेे गए विश्व जल दिवस की थीम ‘जल और जलवायु परिवर्तन’ (Water and Climate Change) है, जिसका उद्देश्य जल एवं जलवायु परिवर्तन के बीच संबंध का पता लगाना है। इसका उद्देश्य पेयजल की पहुँच के बिना रह रहे 2.2 बिलियन लोगों के प्रति अन्य लोगों को जागरुक करना है।
वर्ष 1993 में इसकी शुरुआत हुई और यह मीठे पानी के महत्त्व पर केंद्रित है। इस दिवस का मुख्य लक्ष्य वर्ष 2030 तक सभी के लिये सतत् विकास लक्ष्य(SDG-6):स्वच्छता और पानी के सतत् प्रबंधन की उपलब्धता सुनिश्चित करने का समर्थन करना है। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र द्वारा सतत् विकास के लिये जल की उपलब्धता हेतु अंतर्राष्ट्रीय दशक (2018-2028) मनाया जा रहा है।
- आर्कटिक परिषद की रचना का मूल आर्कटिक एनवायरनमेंटल प्रोटेक्शन स्ट्रेटजी (AEPS) अर्थात् आर्कटिक पर्यावरणीय संरक्षण रणनीति 1991 की स्थापना में आर्कटिक देशों के बीच पर्यावरण संरक्षण पहलों पर अंतर-सरकारी सहयोग के लिये एक ढाँचे के रूप में पाया जाता है, जिसमें कनाडा, डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, नार्वे, स्वीडन, रूस और अमेरिका शामिल हैं। AEPS ने आर्कटिक के देशज लोगों को उनके पुश्तैनी होमलैंड पर उनके अधिकार को मान्यता देते हुए उनके साथ परामर्श करने और उन्हें आकर्षित करने की कोशिश की।
तीन देशज लोगों के संगठन (IPOs) जो क्रमशः इनुइट (इनुइट सरकमपोलर काउंसिल-ICC), सामी (सामी काउंसिल- SC) और रशियन इंडिजेनस पीपल्स (रशियन एसोशिएशन ऑफ इंडिजेनस पीपल्स ऑफ द नॉर्थ-RAIPON) का प्रतिनिधित्व करते हैं, को पर्यवेक्षक के तौर पर (AEPS) में शामिल किया गया। आर्कटिक क्षेत्र में देशज लोगों के विशिष्ट संबंध की मान्यता में वृद्धि के परिणामस्वरूप, आर्कटिक देशों ने तीन देशज लोगों के संगठन को स्थायी भागीदारों का विशेष स्तर प्रदान किया, इस प्रकार अन्य AEPS पर्यवेक्षकों की तुलना में इन्हें विशेषाधिकार स्तर प्रदान किया। आर्कटिक परिषद आर्कटिक देशों साथ ही साथ आर्कटिक के देशज समुदायों और अन्य आर्कटिक निवासियों के बीच सहयोग, समन्वय और अनुक्रिया बढ़ाने के लिये एक उच्चस्तरीय अंतर-सरकारी निकाय है जिसकी स्थापना 1996 में ओटावा घोषणा से हुई। इस परिषद में सदस्य राज्य के रूप में आठ परिध्रुवीय देश शामिल हैं और इसे आर्कटिक पर्यावरण की रक्षा करने और देशज लोगों जिनके संगठन परिषद में स्थायी भागीदार हैं, की अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक और सांस्कृतिक कल्याण को प्रोन्नत करने का अधिदेश प्राप्त है।
मरुस्थलीकरण रोकथाम
[सम्पादन]- 17 जून को पूरे विश्व में मरुस्थलीकरण एवं सूखा रोकथाम दिवस के रूप में मनाया जाता है।
वर्ष 2020 के लिये इस दिवस की थीम “Food, Feed, Fibre” है जो खाद्य उपभोग के प्रभाव को कम करने के लिये व्यक्तियों को शिक्षित करने का आह्वान करता है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, मरुस्थलीकरण एवं सूखा रोकथाम दिवस 2020, उपभोग और भूमि के बीच संबंध पर केंद्रित है। इस वर्ष के 'वैश्विक अवलोकन कार्यक्रम' को कोरिया वन सेवा द्वारा वर्चुअल माध्यम में आयोजित किया गया।
- संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम अभिसमय(United Nations Convention to Combat Desertification (UNCCD)
वर्ष 1994 में स्थापित, संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम अभिसमय (UNCCD) कानूनी रूप से बाध्यकारी एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जो पर्यावरण तथा विकास को सतत् भूमि प्रबंधन से जोड़ता है। यह रियो सम्मेलन (Rio Convention) के एजेंडा-21 की प्रत्यक्ष सिफारिशों पर आधारित एकमात्र अभिसमय है। अभिसमय के तहत फोकस वाले क्षेत्र: यह अभिसमय विशेष रूप से शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और शुष्क उप-आर्द्र क्षेत्रों के समाधान से संबंधित है, जहाँ कुछ सर्वाधिक सुभेद्य पारिस्थितिक तंत्र और प्रजातियाँ पाई जाती हैं। भारत की तरफ से पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (Ministry of Environment, Forest and Climate Change) इस अभिसमय हेतु नोडल मंत्रालय है।
पर्यावरण प्रभाव आकलन
[सम्पादन]- जापान के ‘निप्पॉन फाउंडेशन’ (Nippon Foundation) तथा ‘जनरल बेथमीट्रिक चार्ट ऑफ द ओसियनस’ (General Bathymetric Chart of the Oceans-GEBCO) के सहयोग से संचालित ‘सीबेड 2030 प्रोजेक्ट’ के अंतर्गत संपूर्ण विश्व के समुद्र तल के लगभग पांचवें (⅕) हिस्से की मैपिंग का कार्य पूर्ण किया जा चुका है।
वर्ल्ड हाइड्रोग्राफी डे (World Hyderography day) के अवसर पर निप्पॉन फाउंडेशन द्वारा इस बात की जानकारी दी गई है कि GEBCO सीबेड 2030 प्रोजेक्ट के तहत नवीनतम ग्रिड में 1.45 करोड़ वर्ग किलोमीटर के बाथिमेट्रिक डेटा (Bathymetric Data) को शामिल किया जा चुका है। वर्ल्ड हाइड्रोग्राफी डे:-21 जून, 2020 को विश्व भर में ‘वर्ल्ड हाइड्रोग्राफी डे’ (World Hyderography day) मनाया गया है। वर्ष 2020 के लिये वर्ल्ड हाइड्रोग्राफी डे की थीम- ‘ऑटोनोमस टेक्नोलॉजीज़ को सक्षम करना’ (Enabling Autonomus Technologies) थी। इसका उद्देश्य-हाइड्रोग्राफी अर्थात जल विज्ञान के बारे में लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाना है। इस दिवस की शुरुआत वर्ष 2005 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में संकल्प पारित करके की गई थी। निप्पॉन फाउंडेशन-GEBCO के सीबेड 2030 प्रोजेक्ट, के अंतर्गत वर्ष 2030 तक संपूर्ण विश्व के समुद्र तल की मैपिंग का कार्य पूर्ण किया जाना है। वर्ष 2017 में इस प्रोजेक्ट की शुरुआत की गई तब से लेकर अब तक आधुनिक मानकों के अनुसार समुद्र तल सर्वेक्षण का लगभग 6 प्रतिशत से 19 प्रतिशत कार्य किया जा चुका है। सीबेड 2030 प्रोजेक्ट: इस परियोजना की घोषणा वर्ष 2017 में संयुक्त राष्ट्र महासागर सम्मेलन में की गई थी। परियोजना की वैश्विक पहल जापान के निप्पॉन फाउंडेशन तथा ‘जनरल बेथमीट्रिक चार्ट ऑफ द ओसियनस’ (GEBCO) के माध्यम से वर्ष 2017 में की गई। GEBCO एकमात्र अंतर-सरकारी संगठन है। GEBCO को संपूर्ण विश्व के समुद्र तल के नक्शे तैयार करने का आदेश प्राप्त है। इस परियोजना के द्वारा महासागर के विभिन्न हिस्सों से स्थित GEBCO ग्रिड के पाँच केंद्रों की सहायता से प्राप्त बाथमीट्रिक डेटा की सोर्सिंग एवं संकलन का कार्य किया जाता है।
- पर्यावरणीय संरक्षणवादियों के एक दल ने ग्लोबल वार्मिंग के कारण उत्तरी इटली में प्रेसेना ग्लेशियर (Presena Glacier) को पिघलने से रोकने के लिये इसके 100,000 वर्ग मीटर क्षेत्र में जियोटेक्सटाइल तिरपाल शीट बिछाने की प्रक्रिया शुरू की।
स्की सीज़न (Ski Season) की समाप्ति और ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत के साथ ही यह 6 सप्ताह की प्रक्रिया (ग्लेशियर संरक्षण की प्रक्रिया) प्रत्येक वर्ष दोहराई जाती है। जबकि प्रेसेना ग्लेशियर पर से तिरपाल शीट हटाने की प्रक्रिया सितंबर महीने से शुरू होती है। स्की सीज़न (Ski Season): यह एक ऐसी अवधि है जब स्कीइंग (Skiing), स्नोबोर्डिंग (Snowboarding) एवं अन्य अल्पाइन स्पोर्ट्स स्की रिसॉर्ट के लिये अनुकूल होते हैं। स्कीइंग, बर्फ पर फिसलने के लिये स्की का उपयोग करके चलने का एक साधन है। एक स्की रिसॉर्ट स्कीइंग, स्नोबोर्डिंग एवं अन्य शीतकालीन खेलों के लिये विकसित एक रिसॉर्ट है। ग्लेशियर को ढकने के लिये जियोटेक्सटाइल तिरपाल (Geotextile Tarpaulins) का प्रयोग किया जा रहा है जो सूर्य की किरणों को परावर्तित करता है और भीतर के तापमान को बाहर के तापमान से कम बनाए रखता है। इसके जरिये बड़े स्तर पर बर्फ को संरक्षित करने में मदद मिलती है। ग्लेशियर संरक्षण परियोजना पहली बार वर्ष 2008 में इटालियन फर्म कारोसेलो-टोनाले (Carosello-Tonale) द्वारा शुरू की गई थी। उस समय प्रेसेना ग्लेशियर के केवल 30,000 वर्ग मीटर क्षेत्र को कवर किया गया था। वर्ष 1993 से प्रेसेना ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के कारण अपनी मात्रा का एक तिहाई से अधिक भाग खो चुका है। प्रेसेना ग्लेशियर (Presena Glacier): यह उत्तरी इटली में ट्रेंटिनो (Trentino) एवं लोम्बार्डी (Lombardy) के क्षेत्रों के बीच अवस्थित है। यह ग्लेशियर प्रेसनेल्ला माउंटेन (Presanella Mountain) समूह का हिस्सा है।
- यूरोपियन यूनियन की कोपरनिकस एटमॉस्फियर मॉनिटरिंग सर्विस (Copernicus Atmosphere Monitoring Service-CAMS) की एक रिपोर्ट के अनुसार, आर्कटिक के ऊपर निर्मित ओज़ोन छिद्र अब समाप्त हो गया है।
जर्मन एयरोस्पेस सेंटर (German Aerospace Center) के वैज्ञानिकों के अनुसार, फरवरी 2020 में उत्तरी ध्रुव की ओज़ोन परत में छिद्र का पता लगाया गया था जो लगभग 1 मिलियन वर्ग किमी में फैला था। उल्लेखनीय है कि कोपरनिकस एटमॉस्फियर मॉनिटरिंग सर्विस की रिपोर्ट के अनुसार, COVID-19 की वज़ह से दुनियाभर में किये गए लॉकडाउन से प्रदूषण में गिरावट इसका प्रमुख कारण नहीं है। आर्कटिक के ऊपर बने ओज़ोन छिद्र के ठीक होने की वजह पोलर वर्टेक्स (Polar Vortex) है।
- यू.के में शोधकर्त्ताओं ने COVID-19 से प्रेरित लॉकडाउन अवधि का उल्लेख करने के लिये एक शब्द 'एंथ्रोपाॅज़' (Anthropause) गढ़ा है और वे अन्य प्रजातियों पर इस अवधि के प्रभाव का अध्ययन करेंगे।
'एंथ्रोपाॅज़' (Anthropause) दो शब्दों [एंथ्रोपो (Anthropo) अर्थात् मनुष्य से संबंधित और पाॅज़ (Pause) अर्थात् ठहराव] से मिलकर बना है। यह COVID-19 से प्रेरित लॉकडाउन अवधि के लिये अधिक सटीक शब्द है जिसे 'ग्रेट पॉज़' (Great Pause) के रूप में भी संदर्भित किया जा रहा है। यह विशेष रूप से आधुनिक मानव गतिविधियों के लिये वैश्विक ठहराव (विशेष रूप से यात्रा) को संदर्भित करता है। वैश्विक स्तर पर इस अवधि का विभिन्न प्रजातियों पर प्रभाव:-COVID-19 के मद्देनज़र विश्व के विभिन्न राष्ट्रों में लॉकडाउन के परिणामस्वरूप प्रकृति विशेष रूप से शहरी वातावरण में बदलाव देखा गया। लॉकडाउन के कारण वन्यजीवों का असामान्य व्यवहार एवं अप्रत्याशित वन्यजीवों को कई बार देखा गया है उदाहरण के तौर पर चिली के डाउनटाउन सैंटियागो (Santiago) में प्यूमा (Pumas) को, इटली में ट्राइस्टे (Trieste) बंदरगाह के पास शांत जल में डॉल्फिन को, तेल अवीव (इज़राइल) के शहरी पार्कों में दिन के उजाले में सियार को देखा गया। मानवीय नज़रों से दूर तथा पोत यातायात और ध्वनि प्रदूषण के स्तर में कमी के बाद वन्यजीव दुनिया के महासागरों में अधिक स्वतंत्र रूप से घूम रहे हैं। वहीँ दूसरी ओर विभिन्न शहरी आवास वाले जीव-जंतुओं जैसे चूहे और बंदरों के लिये लॉकडाउन अवधि अधिक कठिन एवं चुनौतीपूर्ण हो गया है जो मनुष्यों द्वारा प्रदान किये गए भोजन पर निर्भर हैं।
जैव विविधता
[सम्पादन]प्रत्येक वर्ष 22 मई को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवसमनाया जाता है। इस वर्ष की थीम ‘हमारे समाधान प्रकृति में हैं’ (Our Solutions are in Nature) है। इसका उद्देश्य लोगों में जैव-विविधता के महत्त्व के बारे में जागरूकता उत्पन्न करना है।
- 20 दिसंबर,2000 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव द्वारा इसकी शुरुआत की गई थी।
22 मई, 1992 को नैरोबी में जैव-विविधता पर अभिसमय(CBD) के पाठ को स्वीकार किया गया था।
पर्यावरण संरक्षण
[सम्पादन]यू.एन.-प्लास्टिक कलेक्टिव (UPC) संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम, भारतीय उद्योग परिसंघ और WWF-भारत द्वारा शुरू की गई एक स्वैच्छिक पहल है। यह संगठन हमारे ग्रह के पारिस्थितिक और सामाजिक स्वास्थ्य पर प्लास्टिक जनित दुष्प्रभावों को कम करने का प्रयास करता है।
कार्बन संचय या कार्बन सिक्वेस्टरिंग(carbon sequestering)
[सम्पादन]- जुलाई 2020 में आस्ट्रेलियाई नेशनल यूनिवर्सिटी तथा मैक्वेरी विश्वविद्यालय के शोधकर्त्ताओं द्वारा कार्बन मूल्य निर्धारण एवं कार्बन उत्सर्जन को कम करने में कार्बन मूल्य निर्धारण की भूमिका को लेकर अब तक के सबसे बड़े शोध कार्य को प्रकाशित किया गया है।
शोध में शामिल 142 देशों में से 43 देशों में इस अध्ययन की समाप्ति तक कार्बन मूल्य का निर्धारण सामान ही रहा।
- कार्बन मूल्य का निर्धारण करने वाले देशों में औसतन, कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में वर्ष 2007 से वर्ष 2017 की अवधि में 2% प्रति वर्ष की गिरावट दर्ज़ की गई है।
जबकि अन्य देश जिनमें वर्ष 2007 से वर्ष 2017 की अवधि में कार्बन मूल्य का निर्धारण नहीं हुआ उनमें प्रति वर्ष कार्बन उत्सर्जन में 3% की वृद्धि देखी गई है।
- यह शोध कार्य पर्यावरण और संसाधन अर्थशास्त्र पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।
वर्ष 2012-14 के दौरान जब ऑस्ट्रेलिया में जीवाश्म ईंधन के दहन में कार्बन मूल्य निर्धारण को शामिल किया गया तो वहाँ कार्बन उत्सर्जन स्तर में कमी देखी गई, लेकिन वर्ष 2019 से वहाँ कार्बन उत्सर्जन में एक निरंतर वृद्धि देखी जा रही है। कार्बन उत्सर्जन कार्बन डाइऑक्साइड या ग्रीनहाउस गैसों के रूप में होता है। ग्रीन हाउस गैसों के प्रति व्यक्ति या प्रति औद्योगिक इकाई उत्सर्जन की मात्रा को उस व्यक्ति या औद्योगिक इकाई का कार्बन फुटप्रिंट कहा जाता है। कार्बन फुट प्रिंट को कार्बन डाइऑक्साइड के ग्राम उत्सर्जन में मापा जाता है।
- कार्बन फुट प्रिंट को ज्ञात करने के लिये ‘लाइफ साइकल असेसमेंट’विधि का प्रयोग किया जाता है। जिसमें व्यक्ति तथा औद्योगिक इकाईयों द्वारा वातावरण में उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड तथा अन्य ग्रीन हाउस गैसों की कुल मात्रा को जोड़ा जाता है।
- कार्बन मूल्य निर्धारण/ कार्बन क्रेडिट का निर्धारण किसी देश में उपलब्ध उद्योगों के अनुसार उस देश के द्वारा उत्सर्जित किये जाने वाले अधिकतम कार्बन की मात्रा के आधार पर किया जाता है।
किसी देश द्वारा निर्धारित कार्बन उत्सर्जन की अधिकतम मात्रा में कटौती करने पर उसे कार्बन क्रेडिट प्रदान किया जाता है। कार्बन मूल्य/ कार्बन क्रेडिट का निर्धारण: कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने तथा इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये किफायती साधनों को विकसित करने के लिये वर्ष 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल द्वारा विकसित देशों को तीन विकल्प दिये गए जो इस प्रकार है-
- अंतर्राष्ट्रीय उत्सर्जन व्यापार
- क्लीन डवलपमेंट मेकनिज़्म
- संयुक्त क्रियान्वयन
क्लीन डवलपमेंट मेकनिज़्म विकसित देशों में सरकार या कंपनियों को विकासशील देशों के लिये किये गए स्वच्छ प्रौद्योगिकी निवेश पर ऋण अर्जित करने की अनुमति देता है इस ऋण को ही कार्बन क्रेडिट कहा जाता है।
- कार्बन संगृहित कर रखा जा सकता है, जैसे- खनन-अयोग्य कोयले की खदानें, पूर्ण रूप से दोहित खदानें, लवण-निर्माण के स्थान इत्यादि।
इसमें फ्लू गैस द्वारा अवशोषण (कार्बन स्क्रबिंग), मेम्ब्रेन गैस पृथक्करण तथा अन्य अवशोषण प्रौद्योगिकियों की मदद से co2 ज़मीन के नीचे एक निश्चित स्थान पर पहुँचाया जाता है।
- मई 2019 में अंतर्राष्ट्रीय जलवायु और पर्यावरण अनुसंधान केंद्र’ संगठन (Center for International Climate and Environmental Research- CICERO) नार्वे द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से वर्ष 2020 मे वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में सबसे अधिक गिरावट दर्ज की गई है।
- CICERO द्वारा COVID-19 महामारी के कारण लगाए गए लॉकडाउन के ‘कार्बन उत्सर्जन’ पर प्रभाव का विश्लेषण किया गया है। वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में वर्ष 2020 में 4.2-7.5% कमी होने का अनुमान है।
वैश्विक ऊर्जा मांग में कमी:-वर्ष 2020 में तेल की कीमतों में औसतन 9% या इससे अधिक की गिरावट हुई है। कोयले की मांग में भी 8% तक की कमी हो सकती है, क्योंकि बिजली की मांग में लगभग 5% कमी देखी जा सकती है। बिजली और औद्योगिक कार्यों में गैस की मांग कम होने से वर्ष 2020 की पहली तिमाही की तुलना में आने वाली तिमाही में और अधिक गिरावट देखी जा सकती है।
वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 5% की गिरावट का वैश्विक तापन पर केवल 0.001°C तापमान कमी के बराबर प्रभाव रहता है। वैश्विक ऊर्जा मांग पर महामारी के प्रभाव का पहले भी विश्लेषण किया गया है। 'अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी' ( International Energy Agency- IEA) ने 'वन्स-इन-ए-सेंचुरी क्राइसिस’ (once-in-a-century crisis) रिपोर्ट में CO2 उत्सर्जन पर महामारी के प्रभाव का विश्लेषण किया है। रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2020 की पहली तिमाही में कार्बन-गहन ईंधन की मांग में बड़ी गिरावट हुई है। वर्ष 2019 की तुलना में वर्ष 2020 में कार्बन उत्सर्जन में 5% की कमी दर्ज की गई है।
- अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी’ द्वारा जारी ‘वैश्विक ऊर्जा और कार्बन डाइऑक्साइड स्थिति रिपोर्ट’ के अनुसार संयुक्त राज्य अमेरिका 14% के योगदान के साथ विश्व में सबसे अधिक कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन के लिये ज़िम्मेदार देश है।
हाल ही में हुई ऊर्जा मांग में वृद्धि में लगभग 70% योगदान चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत का है। OECD-Countries भारत द्वारा उठाए गए कदम:-
- जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना’ (NAPCC) को वर्ष 2008 में शुरू किया गया था। इसका उद्देश्य जनता के प्रतिनिधियों, सरकार की विभिन्न एजेंसियों, वैज्ञानिकों, उद्योग और समुदायों को जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरे और इससे मुकाबला करने के उपायों के बारे में जागरूक करना है। इस कार्ययोजना में मुख्यतः 8 मिशन शामिल हैं।
- अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन की शुरुआत भारत और फ्राँस ने वर्ष 2015 को पेरिस जलवायु सम्मेलन के दौरान की थी। ISA के प्रमुख उद्देश्यों में वैश्विक स्तर पर 1000 गीगावाट से अधिक सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता प्राप्त करना और 2030 तक सौर ऊर्जा में निवेश के लिये लगभग 1000 बिलियन डॉलर की राशि को जुटाना शामिल है।
प्रथम वर्चुअल पीटर्सबर्ग जलवायु संवाद
[सम्पादन]भारत ने प्रथम ‘वर्चुअल पीटर्सबर्ग जलवायु संवाद’ (Virtual Petersburg Climate Dialogue- VPCD) में 30 देशों के साथ जलवायु परिवर्तन से संबंधित मामलों पर विचार-विमर्श किया। VPCD ‘पीटर्सबर्ग जलवायु संवाद’ का ग्यारहवाँ सत्र है। प्रथम VPCD में भारत का प्रतिनिधित्व केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री ने किया है।
- ‘पीटर्सबर्ग जलवायु संवाद’ (Petersberg Climate Dialogue- PCD) को वर्ष 2010 में जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल की पहल पर प्रारंभ किया गया था। वर्ष 2009 में कोपेनहेगन जलवायु वार्ता के प्रभावी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचने के बाद से PCD को प्रारंभ किया गया।
यह प्रथम वर्चुअल जलवायु संवाद, पीटरबर्ग जलवायु संवाद का 11 वाँ सत्र था, जिसकी मेजबानी वर्ष 2010 से जर्मनी द्वारा की जा रही है। इस संवाद की प्रमुख विशेषता यह है कि UNFCCC के आगामी सम्मेलन की अध्यक्षता करने वाला देश PCD की सह-मेजबानी करता है।
- PCD का लक्ष्य मंत्रियों के बीच घनिष्ठ और रचनात्मक संवाद के लिये एक मंच प्रदान करना था।
PCD जलवायु के संबंध में अंतरराष्ट्रीय विचार विमर्श और जलवायु संबंधी कार्रवाई की उन्नति पर केंद्रित अनौपचारिक उच्च-स्तरीय राजनीतिक चर्चाओं हेतु एक मंच प्रदान करता है। 11 वें ‘पीटर्सबर्ग जलवायु संवाद’ की सह-अध्यक्षता जर्मनी और ब्रिटेन द्वारा की गई है। यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि ब्रिटेन ‘संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन’ (United Nations Framework Convention on Climate Change (UNFCCC) के आगामी कॉन्फ्रेंस ऑफ़ पार्टीज़- 26 (Conference of Parties 26- COP 26) का अध्यक्ष है। संवाद में लगभग 30 देशों के मंत्रियों और प्रतिनिधियों ने भाग लिया। संवाद का मुख्य एजेंडा: वर्चुअल संवाद का मुख्य उद्देश्य इस बात पर चर्चा करना था कि सामूहिक लोचशीलता को संवर्द्धित करने तथा जलवायु परिवर्तन कार्यवाई की दिशा में कैसे कार्य किया जाए। असहाय लोगों की सहायता करते हुए COVID-19 महामारी के बाद अर्थव्यवस्थाओं और समाजों में उत्पन्न चुनौतियों का सामूहिक रूप से कैसे सामना किया जाए। संवाद का महत्त्व: यह संवाद इसलिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसका आयोजन ऐसे समय में किया जा रहा है जहाँ एक तरह विश्व COVID-19 महामारी से जूझ रहा है वहीं दूसरी तरफ UNFCCC के तहत अपनाए गए ‘पेरिस समझौते’ पर वर्ष 2020 के बाद (Post-2020 Period) अपनाई जाने वाली रणनीति की तैयारी कर रहा है। संवाद में भारत द्वारा रखे गए पक्ष: पर्यावरण संबंधी प्रौद्योगिकी तक सभी की मुक्त रूप से तथा किफायती कीमत पर उपलब्धता होनी चाहिये। विकासशील विश्व को तत्काल प्रभाव से 1 ट्रिलियन डॉलर अनुदान देने की योजना तैयार करनी चाहिये। विश्व को सतत् जीवन शैलियों की आवश्यकता के अनुरूप उपभोग की ज्यादा टिकाऊ परिपाटियों को अपनाने पर विचार करना चाहिये। नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग में तेज़ी लाने और नवीकरणीय ऊर्जा तथा ऊर्जा दक्षता क्षेत्र में पर्यावरण के अनुकूल नए रोज़गारों को सृजित करने पर बल देने की आवश्यकता है। 2020 से पहले के शमन प्रयास (Mitigation efforts prior to pre-2020): वर्ष 2012 में क्योटो प्रोटोकॉल की दूसरी प्रतिबद्धता अवधि (वर्ष 2013-2020 की अवधि) के लिये क्योटो प्रोटोकॉल में संशोधन किया गया। जिसे दोहा संशोधन के रूप में जाना जाता है। इसमें प्रोटोकॉल के पक्षकार विकसित देशों के लिये क्योटो प्रोटोकॉल की दूसरी प्रतिबद्धता अवधि के तहत परिमाणित उत्सर्जन सीमा या कटौती प्रतिबद्धताओं को शामिल किया गया। प्री- 2020 जलवायु कार्रवाई (Pre-2020 Climate Action): पेरिस जलवायु समझौते को अपनाने के बाद, वर्ष 2016 से 2020 की अवधि के लिये उत्सर्जन को कम करने वाले देशों का समर्थन करने की दिशा में कार्य करना। पोस्ट- 2020 UNFCCC: वर्ष 2020 के बाद की व्यवस्था जो कि ‘दीर्घकालिक जलवायु वित्त व्यवस्था’ का निर्माण करती है। इसके लिये निम्नलिखित व्यवस्था की जाएगी: द्विवार्षिक संचार समर्पित ऑनलाइन पोर्टल द्विवार्षिक संचार का संश्लेषण द्विवार्षिक इन-सत्र कार्यशालाएँ द्विवार्षिक उच्च-स्तरीय मंत्रिस्तरीय संवाद COP- 26: कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ (COP), UNFCCC सम्मेलन का सर्वोच्च निकाय है। इसके तहत विभिन्न प्रतिनिधियों को सम्मेलन में शामिल किया गया है। यह प्रतिवर्ष अपने सत्र आयोजित करता है। COP- 26 का आयोजन ग्लासगो (यूनाइटेड किंगडम) में नवंबर, 2020 में किया जाना था लेकिन COVID-19 महामारी के कारण इसे रद्द कर किया गया तथा अब इसका आयोजन वर्ष 2021में किया जाएगा।
जलवायु परिवर्तन
[सम्पादन]- ऑक्सफैम इंटरनेशनल और स्टॉकहोम एन्वायरनमेंटल इंस्टीट्यूट (Stockholm Environmental Institute- SEI) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, उत्सर्जन के मामले में विश्व के 1% सबसे अमीर (Richest) लोग 50% सबसे गरीब (Poorest) लोगों से अधिक उत्तरदायी हैं।
‘कंफ्रंटिंग कार्बन इनइक्वालिटी’ (Confronting Carbon Inequality) नामक इस रिपोर्ट में वर्ष 1990 से वर्ष 2015 के बीच उत्सर्जन आँकड़ों की समीक्षा की गई।वर्ष 1990- 2015 के बीच विश्व के सबसे अमीर वर्ग के 1% लोग 15% संचयी उत्सर्जन के लिये उत्तरदायी रहे, जबकि इसी दौरान विश्व के सबसे गरीब वर्ग के 50% लोग मात्र 7% संचयी उत्सर्जन के लिये उत्तरदायी थे। इस अवधि में विश्व के 10% सबसे अमीर लोग 31% कार्बन बजट (Carbon Budge) के अवक्षय (Depletion) के लिये उत्तरदायी रहे, जबकि इसमें विश्व के सबसे गरीब वर्ग के 50% लोगों की भूमिका मात्र 4% ही थी।
- वर्ष 2018 में दिल्ली स्थित ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट’ (Centre for Science and Environment- CSE) नामक संस्था द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार, एक भारतीय प्रतिवर्ष केवल 1.97 टन कार्बन डाइऑक्साइड (tCO2) उत्सर्जित करता है।
जबकि प्रतिवर्ष कनाडा या के एक व्यक्ति द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 16 टन से अधिक बताई गई। इसी तरह भारत में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन यूरोपीय संघ (6.78 tCO2 /प्रति व्यक्ति) और चीन (7.95 tCO2/प्रति व्यक्ति) से बहुत ही कम रहा।
- संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) तथा विश्व मौसम संगठन (WMO) की रिर्पोट ‘स्पेशल रिपोर्ट ऑन द ओसियन्स एंड क्रायोस्फीयर इन ए चेंजिंग क्लाइमेट (SROCC)’ में परमाफ्रॉस्ट/हिमावरण/हिममंडल पर जलवायु परिवर्तन व वैश्विक उष्मन के नकारात्मक प्रभाव के प्रति आगाह किया गया है। क्रायोस्फीयर जैवमंडल पारिस्थितिकी तंत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। क्रायोस्फीयर अनुसंधान के लिये अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। यह न केवल जलवायु प्रणाली को बल्कि पृथ्वी के भू-गर्भिक इतिहास को समझने के लिये भी महत्त्वपूर्ण है।
हिमावरण कार्बनडाई ऑक्साइड (CO2) एवं मीथेन (CH4) के सिंक के रूप में कार्य करता है। वस्तुतः वर्तमान में वायुमंडल में जितना कार्बन मौजूद है उसका लगभग दोगुना हिमावरण में उपस्थित है।
- यूनाइटेड किंगडम’ ने उड्डयन क्षेत्र में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के उद्देश्य से 'जेट ज़ीरो' (Jet Zero) योजना पर कार्य करने की घोषणा की है। यूनाइटेड किंगडम ने वर्ष 2050 तक देश को 'शुद्ध-शून्य अर्थव्यवस्था' (Net-Zero Economy) बनाने का लक्ष्य रखा है। वर्तमान पहल इसी का एक भाग है।
इस पहल का मुख्य उद्देश्य अटलांटिक पारगमनीय उड़ानों को कार्बन-मुक्त बनाना है।
- जेट ज़ीरो योजना पर कार्य करने के लिये 'जेट ज़ीरो काउंसिल' (Jet Zero Council) का गठन किया गया है। जिसका उद्देश्य निम्नलिखित लक्ष्यों को प्राप्त करना है:विभिन्न हितधारकों यथा उड्डयन क्षेत्र से जुड़े लोगों, पर्यावरण समूहों तथा सरकार के नेताओं को एक साथ लाना;
COVID-19 महामारी के बाद उड्डयन क्षेत्र में हरित पहल को पुन: प्रारंभ करना; उड्डयन क्षेत्र में भविष्य की उड़ानों में 'शुद्ध शून्य उत्सर्जन' (Net Zero Emissions) को संभव बनाना।
- रूस के आर्कटिक क्षेत्र में स्थित विद्युत संयंत्र से हुए लगभग 20,000 टन तेल रिसाव (Oil Spil) का मुख्य कारण पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने को माना जा रहा है। मॉस्को से 3,000 किमी उत्तर-पूर्व में स्थित नॉरिल्स्क (Norilsk) शहर में भू-तापीय विद्युत संयंत्र पूरी तरह से पर्माफ्रॉस्ट पर निर्मित किया गया था। कई वर्षों में जलवायु परिवर्तन और अन्य मौसमी घटनाओं के कारण पर्माफ्रॉस्ट कमज़ोर हो गया था, परिणामस्वरूप पर्माफ्रॉस्ट पर बने भू-तापीय विद्युत संयंत्र के स्तंभ गिर गए, जिससे संयंत्र से तेल का रिसाव प्रारंभ हो गया।
इस तेल के रिसाव के कारण आर्कटिक क्षेत्र से बहने वाली अंबरनाया नदी व्यापक रूप से प्रदूषित हो गई जिससे सूक्ष्म जीवों को व्यापक हानि पहुँचने की आशंका व्यक्त की गई है। यह दुर्घटना रूस के इतिहास की दूसरी बड़ी तेल रिसाव की घटना है। इससे पूर्व ऐसी दुर्घटना वर्ष 1994 में कच्चे तेल के रिसाव के कारण हुई थी।
- पर्माफ्रॉस्ट अथवा स्थायी तुषार-भूमि वह मिट्टी है जो 2 वर्षों से अधिक अवधि से शून्य डिग्री सेल्सियस (32 डिग्री F) से कम तापमान पर जमी हुई अवस्था में है। पर्माफ्रॉस्ट मिट्टी में पत्तियाँ, टूटे हुए वृक्ष आदि के बिना क्षय हुए पड़े रहते है। इस कारण यह जैविक कार्बन से समृद्ध होती है। जब मिट्टी जमी हुई होती है, तो कार्बन काफी हद तक निष्क्रिय होता है, लेकिन जब पर्माफ्रॉस्ट का ताप बढ़ता है तो सूक्ष्मजीवों की गतिविधियों के कारण कार्बनिक पदार्थ का अपघटन तेज़ी से बढ़ने लगता है। फलस्वरूप वातावरण में कार्बन की सांद्रता बढ़ने लगती है।
ऐसा ध्रुवीय क्षेत्रों, अलास्का, कनाडा और साइबेरिया जैसे उच्च अक्षांशीय अथवा पर्वतीय क्षेत्रों में होता है जहाँ ऊष्मा पूर्णतया मिट्टी की सतह को गर्म नहीं कर पाती है।
मार्च 2020 में आस्ट्रेलिया की जेम्स कुक यूनिवर्सिटी (James Cook University) द्वारा किये गए एक व्यापक सर्वेक्षण में पाया गया कि समुद्री तापमान बढ़ने से केवल पाँच वर्षों में 2,300 किलोमीटर के ग्रेट बैरियर रीफ (Great Barrier Reef) को तीसरे बड़े प्रवाल विरंजन (Coral Bleaching) का सामना करना पड़ा है।
- सर्वेक्षण में बताया गया है कि पहली बार ग्रेट बैरियर रीफ के सभी तीनों क्षेत्रों उत्तरी,मध्य और अब दक्षिणी क्षेत्रों के बड़े हिस्से में भी व्यापक प्रवाल विरंजन हुआ है।
वर्ष 1998 में पहली बार ग्रेट बैरियर रीफ में प्रवाल विरंजन की घटना को देखा गया था तब से तापमान में वृद्धि जारी है जिससे प्रवाल को ठीक होने के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं मिली। पहली बार वर्ष 2016 में ग्रेट बैरियर रीफ के उत्तरी क्षेत्र में व्यापक प्रवाल विरंजन हुआ था वहीं वर्ष 2017 में तापमान में वृद्धि के कारण इसके मध्य क्षेत्र में व्यापक प्रवाल विरंजन की घटना दर्ज की गई। इस वर्ष प्रवाल विरंजन की यह विस्तार प्रक्रिया इसके दक्षिणी क्षेत्र में फैल गई है। ग्रेट बैरियर रीफ में प्रवाल विरंजन की क्षति फरवरी महीने में सबसे अधिक हुई जब मासिक समुद्री तापमान उच्चतम स्तर पर होता है।
- ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर स्थित ग्रेट बैरियर रीफ विश्व की सबसे बड़ी एवं प्रमुख अवरोधक प्रवाल भित्ति है।
यह ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड के उत्तर-पूर्वी तट में मरीन पार्क के समानांतर 1400 मील तक फैली हुई है। इसे वर्ष 1981 में विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया था। गौरतलब है कि ग्रेट बैरियर रीफ के कारण ऑस्ट्रेलियाई अर्थव्यवस्था को पर्यटन राजस्व से प्रति वर्ष लगभग 4 बिलियन डॉलर का लाभ प्राप्त होता है।
- 15 जनवरी 2020 को विश्व मौसम विज्ञान संगठन द्वारी जारी डाटा के अनुसार,वर्ष 2016 के बाद वर्ष 2019 दशक का दूसरा सबसे गर्म वर्ष रहा
- पाँच वर्ष(2015-2019) और दस वर्ष (2010-2019) के लिये औसत तापमान रिकॉर्ड स्तर पर काफी अधिक रहा।1980 के दशक से हर एक दशक पिछले दशक की तुलना में गर्म रहा है। इस प्रवृत्ति के आगे भी जारी रहने की उम्मीद है क्योंकि वायुमंडल में ऊष्मा को रोकने वाली ग्रीनहाउस गैसों के रिकॉर्ड स्तर के कारण पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन आ रहा है।
- इस समेकित विश्लेषण में इस्तेमाल किये गए पाँच डेटा सेटों के अनुमान के अनुसार, वर्ष 2019 में वार्षिक वैश्विक तापमान वर्ष 1850-1900 के औसत तापमान से 1.1 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा, जिसका उपयोग पूर्व-औद्योगिक परिस्थितियों का प्रतिनिधित्व करने के लिये किया जाता था। वर्ष 2016 एक मज़बूत अल नीनो (El Niño) के कारण रिकॉर्ड स्तर पर सबसे गर्म वर्ष रहा है,जिससे ऊष्मन और दीर्घकालिक जलवायु परिवर्तन प्रभाव अधिक होता है।
- वर्ष 2019 में जुलाई माह को यूरोप में सबसे गर्म माह के रूप दर्ज किया गया (जब से वर्ष के तापमान के विषय में रिकॉर्ड दर्ज किया जा रहा है, तब से अभी तक का सबसे गर्म माह), इसके चलते बहुत-से लोगों की मौत हो गई, दफ्तरों के साथ-साथ कई आवश्यक सेवाओं को भी बंद रखा गया।
प्रभाव तपती गर्मी ने न केवल पूरे गोलार्द्ध के मौसम में परिवर्तन किया,बल्कि ऑस्ट्रेलिया में अभी तक के सबसे गर्म एवं शुष्क वर्ष के रूप में दर्ज किये गए सितंबर 2019 से जारी खतरनाक ने वनाग्नि जैसी स्थिति को भी जन्म दिया जिसकी व्यापकता एवं भयावता ने संपूर्ण विश्व को झकझोर कर रख दिया। अत्यधिक तापमान,ग्रीष्म लहर या हीटवेव और रिकॉर्ड स्तर पर सूखे की स्थिति कोई विसंगतियाँ नहीं हैं बल्कि ये सभी एक बदलती जलवायु की व्यापक प्रवृत्तियाँ हैं। यदि वैश्विक तापमान में और अधिक वृद्धि होती है तो इससे उत्पन्न होने वाले प्रभावों की भयावहता की कल्पना अतिशयोक्ति नहीं होगी। 3.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि UNEP की उत्सर्जन गैप रिपोर्ट 2019 के अनुसार, कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के मौजूदा स्तर पर, यदि हम केवल पेरिस समझौते की वर्तमान जलवायु प्रतिबद्धताओं पर निर्भर करते हैं और उन्हें पूरी तरह से लागू करते हैं,तो 66 प्रतिशत संभावना यह है कि सदी के अंत तक वैश्विक ऊष्मन में 3.2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि होगी। क्या किया जा सकता है? सरकार, कंपनियाँ, उद्योग और जी20 देशों की जनता,जो ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 78 प्रतिशत के लिये ज़िम्मेदार हैं, के डीकार्बोनाइज़ेशन (अर्थात् किसी पदार्थ से कार्बन या कार्बनिक अम्ल को अलग करना) के लिये सटीक लक्ष्य और समयसीमा तय की जानी चाहिये ताकि इस दिशा में प्रभावी कार्यवाही संभव हो सके। इसके अतिरिक्त दक्ष प्रौद्योगिकियों,स्मार्ट खाद्य प्रणालियों और शून्य-उत्सर्जन क्षमता तथा अक्षय ऊर्जा से संचालित इमारतों को विकसित करना चाहिये,साथ ही इसी के अनुरूप अन्य विकल्प अथवा उपाय अपनाने चाहिये ताकि आने वाली पीढ़ी के अस्तित्व को सुरक्षित रखा जा सके।
- शोधकर्त्ताओं ने यह पता लगाया है कि आर्कटिक के ताज़े जल के अटलांटिक महासागर में मिलने से अटलांटिक महासागर की धाराओं के प्रवाह में परिवर्तन के कारण इस क्षेत्र की जलवायु में व्यापक स्तर पर बदलाव आ सकता है।
ऐसी जलधाराएँ जो पश्चिमी यूरोप को गर्म रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं,आर्कटिक में बर्फ के पिघलने से अटलांटिक महासागर में ठंडे पानी की अत्यधिक मात्रा के कारण इसकी जलधाराओं के सामान्य गुणों में परिवर्तन आ सकता है। जिससे ये जलधाराएँ अपने आस-पास के क्षेत्रों को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती हैं। अध्ययन के अनुसार, हर पाँच से सात वर्षों में हवाओं की दिशा में परिवर्तन होता है लेकिन दशकों से पश्चिमी हवा आर्कटिक क्षेत्र के लिये अपरिवर्तित रही है। किंतु यदि हवा की दिशा बदल जाती है तो यह वामावर्त दिशा में चलने लगेगी तथा धारा की दिशा परिवर्तित हो जाएगी और यहाँ एकत्र पूरा ताज़ा जल अटलांटिक महासागर में प्रवाहित हो जाएगा।
पश्चिमी यूरोप या अटलांटिक क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के कारण
- यदि ब्यूफोर्ट गायर से अटलांटिक महासागर में ताज़ा जल प्रवाहित होगा तो इससे अटलांटिक क्षेत्र की जलवायु प्रभावित होगी और पश्चिमी यूरोप में जलवायु परिवर्तन सहित इस गोलार्द्ध में व्यापक प्रभाव प्रदर्शित होंगे।
- आर्कटिक महासागर से उत्तरी अटलांटिक में ताज़े पानी का प्रवाह सतह के जल के घनत्व को परिवर्तित कर देगा। जिससे जलधाराओं की दिशा में परिवर्तन संभव है।
- इससे उष्णकटिबंधीय एवं शीतोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों की जलवायु प्रभावित होगी।
- आर्कटिक का जल वायुमंडल में गर्मी और नमी खो देता है और महासागर के नीचे तक चला जाता है, जहाँ यह उत्तरी अटलांटिक महासागर से नीचे कटिबंधों तक जल को एक कन्वेयर-बेल्ट की तरह प्रवाहित करता है, जिसे वर्तमान में अटलांटिक मेरिडिनल ओवरटर्निंग सर्कुलेशन कहा जाता है।
- यह धारा उष्णकटिबंधीय उष्मीय जल को यूरोप और उत्तरी अमेरिका जैसे उत्तरी अक्षांशों तक ले जाकर इस क्षेत्र की जलवायु को विनियमित करने में मदद करती है किंतु यदि यह प्रक्रिया धीमी हो जाएगी तो यह जीवन के सभी रूपों विशेषकर समुद्री जीवों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।
आर्कटिक एवं अटलांटिक क्षेत्र: सामान्य स्थिति में
ब्यूफोर्ट गायर (Beaufort Gyre)समुद्री जलधारा आर्कटिक महासागर की सतह के पास ताज़े जल के भंडारण से ध्रुवीय वातावरण को संतुलित रखती है।
- ब्यूफोर्ट गायर आर्कटिक महासागर की प्राथमिक परिसंचरण विशेषताओं में से एक है,जो कनाडा के बेसिन में मीठे पानी,समुद्री बर्फ और ऊष्मा का भंडारण और परिवहन करती है और क्षेत्रीय और वैश्विक जलवायु प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
- ब्यूफोर्ट गायर में हवा कनाडा के उत्तर में पश्चिमी आर्कटिक महासागर के चारों ओर दक्षिणावर्त दिशा (Clockwise) में चलती है।गायर इन क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से ग्लेशियरों के पिघलने से और नदी अपवाह से ताजा पानी एकत्र करती है।
- यह ताज़ा जल आर्कटिक के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह जल गर्म एवं नमकीन पानी के ऊपर तैरता है और समुद्री बर्फ को पिघलने से बचाने तथा पृथ्वी की जलवायु को नियंत्रित करने में मदद करता है।
- गायर लगभग 8,000 क्यूबिक किलोमीटर ताज़ा जल या अमेरिका में मिशिगन झील में उपलब्ध जल की मात्रा का लगभग दोगुना जल संचय करता है।
- मीठे/ताज़े जल की प्राप्ति एवं संकेंद्रण का प्रमुख कारण गर्मियों और शरद ऋतु में समुद्री बर्फ का पिघलना है।
- पश्चिम की ओर चलने वाली तेज़ हवाएँ लगातार 20 वर्षों से अपनी गति और आकार को बढ़ाने के साथ-साथ आर्कटिक महासागर के ताज़े जल को निम्न अक्षांश की ओर जाने से रोकती हैं।
न्यूयार्क यूनिवर्सिटी के शोधकर्त्ताओं ने अंटार्कटिका क्षेत्र में थ्वाइट्स ग्लेशियर (Thwaites Glacier)के नीचे गर्म जल का पता लगाया
[सम्पादन]इस ग्लेशियर का आकार लगभग ब्रिटेन के आकार के बराबर है,इस ग्लेशियर के सबसे विस्तृत स्थान की अधिकतम चौड़ाई 120 किलोमीटर तथा इसका क्षेत्रफल 1.9 लाख वर्ग किमी. है, अपने विस्तृत आकार के कारण इसमें समुद्री जल स्तर को आधा मीटर से अधिक बढ़ाने की क्षमता है। अध्ययन में पाया गया है कि पिछले 30 वर्षों में इसकी बर्फ पिघलने की दर लगभग दोगुनी हो गई है। प्रतिवर्ष बर्फ के पिघलने से समुद्र स्तर के बढ़ने में इसका 4% का योगदान है। यदि इसके पिघलने की दर इसी तरह रही तो यह 200-900 वर्षों में समुद्र में समा जाएगा।
- शोधकर्त्ताओं ने थ्वाइट्स ग्लेशियर के ‘ग्राउंडिंग ज़ोन’ (Grounding Zone) या ‘ग्राउंडिंग लाइन’ (Grounding Line) पर हिमांक बिंदु से सिर्फ दो डिग्री ऊपर जल होने की सूचना दी।
अंटार्कटिक, आइस शीट की ग्राउंडिंग लाइन वह हिस्सा है जहाँ ग्लेशियर महाद्वीप सतह के साथ स्थायी न रह कर तैरते बर्फ शेल्फ बन जाते हैं। ग्राउंडिंग लाइन का स्थान ग्लेशियर के पीछे हटने की दर का एक संकेतक है। जब ग्लेशियर पिघलते हैं और उनके भार में कमी आती है तो वे उसी स्थान पर तैरते हैं जहाँ वे स्थित थे। ऐसी स्थिति में ग्राउंडिंग लाइन अपनी यथास्थिति से पीछे हट जाती है। यह समुद्री जल में ग्लेशियर के अधिक नीचे होने की स्थिति को दर्शाता है जिससे संभावना बढ़ जाती है कि यह तेज़ी से पिघल जाएगा। परिणामस्वरूप पता चलता है कि ग्लेशियर तेज़ी से बढ़ रहा है, बाहर की ओर खिंचाव हो के साथ पतला हो रहा है, अतः ग्राउंडिंग लाइन कभी भी पीछे हट सकती है। आइसफिन नामक एक महासागर-संवेदी उपकरण का प्रयोग ग्लेशियर की सतह के नीचे गर्म जल का पता लगाने के लिये किया जिसे 600 मीटर गहरे और 35 सेंटीमीटर चौड़े छेद के माध्यम से बर्फ की सतह के नीचे प्रवेश कराया गया।
- थ्वाइट्स ग्लेशियर अंटार्कटिका क्षेत्र के लिये अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह समुद्र में स्वतंत्र रूप से बहने वाली बर्फ की गति को धीमा कर देता है।
आद्रभूमि
[सम्पादन]- 2 फरवरी को विश्व आर्द्रभूमि दिवस (World Wetland Day) मनाया जाता है। इस वर्ष की थीम ‘आर्द्रभूमि और जैव विविधता’थी।
आर्द्रभूमि/वेटलैंड्स पर रामसर अभिसमय/कन्वेंशन की स्थायी समिति द्वारा 2021 के लिये स्वीकृत की गई थीम आर्द्रभूमि और जल है। रामसर अभिसमय के तहत आर्द्रभूमि की परिभाषा में दलदल, बाढ़ के मैदान, नदी एवं झीलें, मैंग्रोव, प्रवाल भित्तियाँ, समुद्री क्षेत्र (जो 6 मीटर से अधिक गहरे नहीं हैं) तथा मानव निर्मित आर्द्रभूमियाँ जैसे- तालाब और जलाशय शामिल हैं। 2 फरवरी, 1971 में कैस्पियन सागर के तट पर स्थित ईरान के शहर रामसर में आर्द्रभूमि पर एक अभिसमय (Convention on Wetlands) को अपनाया गया था। अभी कुछ दिन पहले ही भारत सरकार के पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने घोषणा की थी कि रामसर अभिसमय (Ramsar Convention) ने देश की 10 आर्द्रभूमि को अंतर्राष्ट्रीय महत्व के स्थलों के रूप में घोषित किया जिससे देश में रामसर स्थलों की कुल संख्या 37 हो गई। विश्व आर्द्रभूमि दिवस पहली बार 2 फरवरी, 1997 को रामसर सम्मेलन के 16 वर्ष पूरे होने पर मनाया गया था। जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं (Biodiversity and Ecosystem Services) पर अंतर-सरकारी विज्ञान नीति प्लेटफॉर्म (The Intergovernmental Science Policy Plateform-IPBES) ने वैश्विक मूल्यांकन में आर्द्रभूमि को सबसे अधिक खतरे वाले पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में पहचान की है।
- इंटरगवर्नमेंटल साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज (IPBES):-
IPBES जलवायु परिवर्तन पर बेहतर जानकारी हेतु एक वैश्विक वैज्ञानिक निकाय है। यह एक स्वतंत्र अंतर-सरकारी निकाय है। IPBES, प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र और जैव विविधता के संदर्भ में कार्य करने के लिये प्रतिबद्ध है। इसके अंतर्गत वैज्ञानिकों द्वारा पृथ्वी के जलवायु में होने वाले परिवर्तन संबंधी अनुमान लगाने तथा इसकी समय-समय पर समीक्षा की जाती है। वर्ष 2012 में गठित IPBES द्वारा पेश की गई यह पहली वैश्विक मूल्यांकन रिपोर्ट है। यूनेस्को (UNESCO) के अनुसार विश्व के 40% पौधों एवं जीवों की प्रजातियाँ आर्द्रभूमि में रहती हैं। भारत में वर्ष 2017 में आर्द्रभूमियों के संरक्षण के लिये आर्द्रभूमि (संरक्षण एवं प्रबंधन नियम) 2017 (Wetland (Conservation and Management) Rules, 2017) नामक एक नया वैधानिक ढाँचा (Legal Framework) लाया गया है।