समसामयिकी 2020/विज्ञान और प्रौद्दोगिकी-भारत

विकिपुस्तक से

COVID-19 से संबंधित उपकरण एवं जाँच[सम्पादन]

  • पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने कहा प्लाज्मा उपचार के अलावा कॉर्ड ब्लड (Cord Blood) का इस्तेमाल COVID-19 रोगियों के इलाज के लिये किया जाएगा। कॉर्ड ब्लड (Cord Blood), नाभि रज्जु (Umbilical Cord) और गर्भनाल (Placenta) की रक्त वाहिकाओं में पाया जाता है और जन्म के बाद बच्चे की नाभि रज्जु काट कर एकत्र किया जाता है। इसमें रक्त बनाने वाली स्टेम कोशिकाएँ होती हैं जो कुछ रक्त और प्रतिरक्षा प्रणाली विकारों के इलाज में उपयोग की जाती हैं।

कॉर्ड ब्लड का उपयोग उसी तरह किया जाता है जैसे हेमटोपोइएटिक स्टेम सेल प्रत्यारोपण (Hematopoietic Stem Cell Transplantation) का उपयोग विभिन्न रक्त कैंसर के लिये विकिरण उपचार के बाद अस्थिमज्ज़ा को पुनर्गठित करने के लिये किया जाता है।

कॉर्ड ब्लड, रक्त में पाए जाने वाले सभी तत्वों से मिलकर बना होता है जिनमें लाल रक्त कोशिकाएँ, श्वेत रक्त कोशिकाएँ, प्लाज्मा, प्लेटलेट्स शामिल होते हैं। इसका उपयोग उन लोगों में प्रत्यारोपण के लिये किया जा सकता है जिन्हें इन रक्त बनाने वाली कोशिकाओं के पुनर्जनन की आवश्यकता होती है। इसे एकत्र करने के बाद इसे जमा कर कई वर्षों तक सुरक्षित रूप से संग्रहीत किया जा सकता है। इसे जमाने (फ्रीजिंग) की विधि जिसे 'क्रायोप्रेज़र्वेशन' (Cryopreservation) कहा जाता है, कोशिकाओं की अखंडता को बनाए रखने के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण होती है।

आमतौर पर कॉर्ड ब्लड संग्रह में स्टेम सेल रिकवरी की उच्च दर सुनिश्चित करने के लिये क्रायोप्रिज़र्वेशन से पहले लाल रक्त कोशिकाओं को नष्ट कर दिया जाता है।

  • देशभर के विभिन्न ‘राष्ट्रीय औषधीय शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान’ (National Institute of Pharmaceutical Education and Research- NIPER) ने COVID-19 से संबंधित विभिन्न शोधकार्य संपन्न किये हैं। COVID-19 से संबंधित बड़ी संख्या में बहुआयामी शोध प्रस्ताव अनुमोदन के लिये संबंधित एजेंसियों को प्रस्तुत किये गए हैं।

इन प्रस्तावों के प्रमुख विषयों में निम्नलिखित शामिल हैं-

  1. NIPER, मोहाली द्वारा एंटीवायरल एजेंट को लक्षित करने वाले प्रोटीज का डिज़ाइन।
  2. NIPER, (मोहाली एवं रायबरेली) द्वारा ‘खाद्य एवं औषधि प्रशासन’ (Food and Drug Administration- FDA) से अनुमोदित दवा-डेटाबेस का उपयोग करके कम्प्यूटेशनल रूप से निर्देशित दवा-पुनर्प्रयोजन।
  3. NIPER, मोहाली द्वारा रेमेड्सविर के ड्रग रुपांतरण के लिये प्रो-ड्रग का विश्लेषण।
  4. NIPER, हैदराबाद द्वारा बीमार रोगियों के लिये सहायक चिकित्सा आधारित नाक स्प्रे (Nasal Spray)।
  5. NIPER, हैदराबाद द्वारा COVID-19 के मरीज़ों के लिये क्वांटम-डॉट एवं चालकता आधारित बायो-सेंसर विकसित करना।
  6. COVID-19 के कारण पड़ने वाले दिल के दौरे को नियंत्रित करने के लिये एक विशेष अध्ययन।
  7. इसके साथ ही NIPER, रायबरेली ने पारंपरिक रूप से उपयोग में लाई जाने वाली जड़ी बूटियों का उपयोग करके ‘नए इम्युनो-बूस्टर फॉर्मुलेशन’ के विकास में आईआईटी एवं अन्य औद्योगिक साझेदार के साथ एक मेगा परियोजना शुरू की है।
  8. NIPER, कोलकाता CSIR-CECRI एवं एक निजी निर्माता के सहयोग से कम लागत वाला एक स्वदेशी एवं प्रभावी आईसीयू वेंटीलेटर तैयार करने पर काम कर रहा है।

राष्ट्रीय औषधीय शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (National Institute of Pharmaceutical Education and Research- NIPER) रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के फार्मास्यूटिकल्स विभाग के अधीन राष्ट्रीय महत्त्व का संस्थान है। ऐसे सात संस्थान (अहमदाबाद, हैदराबाद, हाजीपुर, कोलकाता, गुवाहाटी, मोहाली एवं रायबरेली) में कार्य कर रहे हैं। NIPER, फार्मास्युटिकल साइंसेज़ में पहला राष्ट्रीय स्तर का संस्थान है, जिसका उद्देश्य फार्मास्युटिकल साइंस में उन्नत अध्ययन एवं अनुसंधान के लिये उत्कृष्टता का केंद्र बनना है। इन संस्थानों में न केवल देश के भीतर बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया, दक्षिण एशिया एवं अफ्रीकी देशों में भी औषधि विज्ञान एवं संबंधित क्षेत्रों में नेतृत्त्व प्रदान करने की क्षमता है। NIPER, ‘एसोसिएशन ऑफ इंडियन यूनिवर्सिटीज़’ एवं ‘एसोसिएशन ऑफ कॉमनवेल्थ यूनिवर्सिटीज़’ का सदस्य है।

  • भारत बायोटेक’ द्वारा भारत में विकसित की जा रही पहली COVID-19 वैक्सीन 'कोवाक्सिन' (COVAXIN), के मानव क्लीनिकल परीक्षण के लिये ‘ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया’ द्वारा अनुमति दे दी गई है।भारत बायोटेक कंपनी द्वारा इस वैक्सीन को ‘भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद’ (ICMR) तथा ‘राष्ट्रीय विषाणु विज्ञान संस्थान’ (National Institute of Virology- NIV) के सहयोग से विकसित किया गया है।

ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया’ तथा ‘स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय’ द्वारा इस वैक्सीन के फेज़-1 एवं फेज़-2 के लिये मानव क्लीनिकल परीक्षण की मंज़ूरी प्रदान की है। जुलाई से इस वैक्‍सीन का इंसानों पर परीक्षण शुरू किया जाएगा। इस वैक्सीन को हैदराबाद जीनोम वैली में स्थित भारत बायोटेक कंपनी की बीएसएल-3 (बायो-सेफ्टी लेवल 3) हाई कंटेनमेंट फैसिलिटी के माध्यम से कोरोना वायरस स्ट्रेन से अलग किया गया है जिसे बाद में भारत बायोटेक कंपनी को भेजा गया जहाँ इस स्वदेशी वैक्सीन को विकसित किया गया है।

भारत बायोटेक कंपनी देश में महामारियों से निपटने के लिये राष्ट्रीय महत्त्व के विषय के रूप में टीका विकास को आगे बढ़ाने के लिये प्रतिबद्ध है। भारत बायोटेक अपने सेल कल्चर प्लेटफॉर्म (Cell Culture Platform) प्रौद्योगिकी द्वारा पोलियो, रेबीज़, रोटावायरस, जापानी एन्सेफलाइटिस, चिकनगुनिया और ज़ीका रोगों के लिये भी टीका विकसित करने के लिये भी प्रतिबद्ध है।

कॉवोफ्लू टीका तैयार करने के प्रयासों में लगी है।

  • दिल्ली स्थित ‘यकृत एवं पित्त विज्ञान संस्थान’ (The Institute of Liver and Biliary Sciences- ILBS) में भारत के प्रथम प्लाज़्मा बैंक (India’s first plasma bank) की शुरुआत की गई है। 18 से 60 वर्ष तक की आयु के ऐसे लोग, जिनका वज़न 50 किलोग्राम से कम नहीं है कोविड-19 मरीजों के इलाज हेतु अपना प्लाज्मा दान कर सकते हैं। प्लाज़्मा दनकर्त्ता के कोरोना सक्रमण से ठीक होने के 14 दिन बाद ही प्लाज्मा दान कर सकते हैं।

प्लाज़्मा दनकर्त्ताओं को 1031 या व्हाट्सएप 8800007722 पर कॉल करना होगा जिसके बाद सरकार दानकर्त्ताओं से संपर्क करके यह सुनिश्चित करेगी कि क्या वे प्लाज़्मा दान करने के लिये पात्र हैं अथवा नहीं। इसके अलावा वे महिलाएँ जो अपने संपूर्ण जीवनकाल में कभी भी गर्भवती हुई हो वो भी अपना प्लाज़्मा दान नहीं कर सकती है।

  • केरल के तिरुवनंतपुरम में स्थित श्री चित्रा तिरुनल इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल साइंसेज़ एंड टेक्नोलॉजी ने एक नैदानिक परीक्षण किट चित्रा जीनलैम्प-एन (Chitra GeneLAMP-N) विकसित की है जो कम लागत पर 2 घंटे में COVID-19 की पुष्टि कर सकती है।

श्री चित्रा तिरुनल इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल साइंसेज़ एंड टेक्नोलॉजी भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अंतर्गत विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Science and Technology) के तहत कार्य करता है। चित्रा जीनलैम्प-एन, SARS-CoV-2N-जीन के लिये अत्यधिक विशिष्ट है और यह जीन के दो क्षेत्रों का पता लगा सकते हैं जो यह सुनिश्चित करता है कि वायरल जीन का एक क्षेत्र अपने मौजूदा प्रसार के दौरान उत्परिवर्तन से गुजरता है या नहीं। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (Indian Council of Medical Research's- ICMR) के अंतर्गत केरल के अलप्पुझा में स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (NIV) द्वारा किये गए परीक्षण बताते हैं कि चित्रा जीनलैम्प-एन 100% सटीक है और इसके द्वारा किये गए परीक्षण RT-PCR किट द्वारा किये गए परीक्षण के परिणामों से मैच करते हैं। भारत में COVID-19 परीक्षण के लिये, ICMR को इसे मंज़ूरी देने का अधिकार दिया गया है जिसके निर्माण के लिये CDSCO से लाइसेंस प्राप्त करने की आवश्यकता है। भारत में मौजूदा पीसीआर किट से स्क्रीनिंग के लिये ई-जीन और पुष्टि के लिये आरडीआरपी-जीन (Rdrp-Gene) का पता लगाते हैं। चित्रा जीनलैम्प-एन किट से जीन टेस्टिंग के खर्च में काफी कमी आएगी और स्क्रीनिंग टेस्ट के बिना ही पुष्टि हो सकेगी। इस किट के माध्यम से COVID-19 संक्रमण का पता लगाने का समय केवल 10 मिनट है जबकि अंतिम परिणाम देने में 2 घंटे तक का समय लग जाता है। इस किट में एक बार में कुल 30 नमूनों का परीक्षण किया जा सकता है जिससे प्रत्येक दिन अधिक संख्या में नमूनों की जाँच की जा सकती है। इस चित्रा जीनलैम्प-एन परीक्षण किट के अलावा उपरोक्त संस्थान ने विशिष्ट RNA निष्कर्षण किट (RNA Extraction Kits) भी विकसित किये हैं। उपरोक्त तकनीक को एम/एस अगप्पे डायग्नोस्टिक्स लिमिटेड (M/S Agappe Diagnostics Ltd), एर्नाकुलम में निर्माण के लिये हस्तांतरित किया गया है जो राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय परिचालनों के साथ इन-विट्रो डायग्नोस्टिक्स (In-Vitro Diagnostics) की एक अग्रणी कंपनी है।

  • FAITH Trial,COVID-19 की उपचार रणनीति के तहत ‘ग्लेनमार्क फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड इससे संबंधित अध्ययन शुरू करेगा। यह एक नया संयोजन नैदानिक परीक्षण है जिसे एफएआईटीएच (FAvipiravir+UmIfenovir Trial in Indian Hospital -FAITH) कहा जाता है। इस परीक्षण में दो एंटीवायरल दवाओं [फेविपिराविर (Favipiravir) एवं उमिफेनोविर (Umifenovir)] की संयुक्त प्रभावकारिता का परीक्षण करने के लिये एक नया यादृच्छिक, ओपन-लेबल अध्ययन शामिल है। इन दोनों एंटीवायरल ड्रग्स/दवाओं के कार्य करने के अलग-अलग तंत्र हैं और उनका संयोजन, रोग के प्रारंभिक चरण के दौरान रोगियों में उच्च वायरल की स्थिति के दौरान प्रभावी ढंग से निपटने में बेहतर उपचार प्रभावकारिता प्रदर्शित कर सकता है
  • नाड़ी (NAADI) एक डेटा विज्ञान आधारित उपकरण है,जिसे सी-डैक (C-DAC) ने COVID-19 से संक्रमित व्यक्तियों या देश भर में लोगों की आवाजाही पर नज़र रखने के कार्य को आसान बनाने के लिये किया है।

नाड़ी (NAADI) का पूर्ण रूप National Analytical Platform for Dealing with Intelligent Tracing, Tracking and Containment है। यह उपकरण देश भर में COVID -19 रोगियों या क्वारंटाइन लोगों के आवागमन को ट्रैक करने में मदद करेगा। इस उपकरण द्वारा उत्पन्न जानकारी एक मीटर तक सटीक होगी जो चिकित्सा पेशेवरों, कानून प्रवर्तन एजेंसियों एवं डेटा वैज्ञानिकों के लिये सहायक होगी। NAADI में प्रयोग की गई तकनीक: C-DAC द्वारा विकसित किये गए इस उपकरण में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित सुपर कंप्यूटर (Supercomputer using Artificial Intelligence), मशीन लर्निंग (Machine Learning), हेल्थकेयर एनालिटिक्स आधारित रिसर्च (Healthcare Analytics based Research) अर्थात् COVID-19 (SAMHAR) का प्रयोग किया गया है। SAMHAR परियोजना: भारत सरकार की SAMHAR परियोजना राष्ट्रीय सुपरकंप्यूटिंग मिशन (National Supercomputing Mission) के साथ साझेदारी में संचालित की जा रही है। इसकी शुरुआत COVID-19 से निपटने हेतु स्टार्टअप्स एवं उद्योगों के सहयोग से एक तीव्र सुपर कंप्यूटिंग सिस्टम एवं अनुसंधान समुदाय के निर्माण के उद्देश्य से की गई थी। सेंटर फॉर डवलपमेंट ऑफ एडवांस्ड कंप्यूटिंग (Centre for Development of Advanced Computing: C-DAC) सी-डैक (C-DAC) सूचना प्रौद्योगिकी, इलेक्ट्रॉनिक्स और अन्य संबंधित क्षेत्रों में अनुसंधान एवं विकास को बढ़ावा देने के लिये भारत सरकार के इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (Ministry of Electronics and Information Technology) के अंतर्गत एक स्वायत्त वैज्ञानिक सोसायटी है। वर्ष 2003 में नेशनल सेंटर फॉर सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी, ER&DCI इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (तिरुवनंतपुरम) तथा भारत के इलेक्ट्रॉनिक्स डिज़ाइन एवं प्रौद्योगिकी केंद्र (Centre for Electronics Design and Technology of India- CEDTI) का सी-डैक (C-DAC) में विलय कर दिया गया था। भारत का पहला स्वदेशी सुपर कंप्यूटर, परम-8000 वर्ष 1991 में C-DAC द्वारा ही बनाया गया था।

  • साइंटेक एयरआन(Scitech Airon)COVID-19 महामारी के मद्देनज़र महाराष्ट्र के पुणे में स्थित स्टार्ट-अप ने महाराष्ट्र के अस्पतालों को कीटाणुरहित करने के लिये साइंटेक एयरआन (Scitech Airon) तकनीक का विकास किया है।

इस निगेटिव आयन जेनरेटर (Negative Ion Generator)मशीन का एक घंटे का परिचालन कमरे के 99.7% वायरसों को खत्म कर सकता है। यह मशीन प्रति 8 सेकेंड में लगभग 100 मिलियन ऋण आवेशित आयन पैदा कर सकती है। इसके द्वारा उत्पादित निगेटिव आयन हवा में तैरते फफूंद, एलर्जी पैदा करने वाले सूक्ष्म कण, बैक्टीरिया, पराग-कण, धूल इत्यादि के इर्द-गिर्द एक क्लस्टर बना लेते हैं और रासायनिक अभिक्रिया द्वारा इन्हें निष्क्रिय कर देते हैं। इस रासायनिक अभिक्रिया में अत्यधिक प्रतिक्रियाशील ओएच (OH) समूह जिसे हाइड्रॉक्सिल रेडिकल्स (Hydroxyl Radicals) कहा जाता है और एचओ (HO) समूह जिसे वायुमंडलीय डिटरजेंट (Atmospheric Detergent) के रूप में जाना जाता है, का निर्माण होता है। इन डिटरजेंट विशेषताओं के कारण वायरस, बैक्टीरिया एवं एलर्जी पैदा करने वाले तत्त्वों के बाहरी प्रोटीन को विघटित कर दिया जाता हैं जिससे हवा के द्वारा फैलने वाले रोगों को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। जिससे शरीर की रोग प्रतिरोध क्षमता बढ़ती है और यह प्रतिरोध क्षमता आयन वातावरण से बाहर अगले 20-30 दिनों के लिये सहायक हो सकती है। यह कार्बन मोनोक्साइड (कार्बन डाइकॉक्साइड से 1000 गुना अधिक हानिकारक), नाइट्रोजन डाइऑक्साइड और वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों जैसे गैस प्रदूषकों को भी विघटित कर सकती है। कोविड-19 पॉज़िटिव मामलों और संदिग्धों के कारण जो स्थान संक्रमित हो गए हैं उन्हें यह कीटाणुरहित कर सकता है और वायु को प्रदूषण रहित कर सकता है। इस तकनीक को भारत सरकार के द्वारा शुरू किये गए निधि (NIDHI) एवं प्रयास (PRAYAS) कार्यक्रम के तहत विकसित किया गया है।

  1. निधि कार्यक्रम (NIDHI Program)विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा ज्ञान-आधारित और प्रौद्योगिकी संचालित नवाचारों एवं विचारों को लाभदायक स्टार्ट-अप में बदलने के उद्देश्य से शुरू किया गया है। निधि (NIDHI) का पूर्ण रूप ‘नेशनल इनिशिएटिव फॉर डेवलपिंग एंड हारनेसिंग इनोवेशंस’ (National Initiative for Developing and Harnessing Innovations) है।

इस कार्यक्रम के तहत अन्वेषकों एवं उद्यमियों के लिये इन्क्यूबेटर्स (Incubators), सीड फंड (Seed Fund), एक्सेलेरेटर्स (Accelerators) और ’प्रूफ ऑफ कॉन्सेप्ट’ (Proof of concept) अनुदान की स्थापना के कार्यक्रम शुरू किये गए हैं। NIDHI में 8 घटक होते हैं जो अपने विचार से बाज़ार चरण तक किसी स्टार्टअप को उसके प्रत्येक चरण में समर्थन करते हैं। पहले घटक ‘प्रयास’ (PRAYAS) का उद्घाटन 2 सितंबर, 2016 को किया गया था जिसका लक्ष्य इनोवेटर्स को उनके स्टार्ट-अप से संबंधित विचारों के प्रोटोटाइप बनाने के लिये प्रोत्साहित करना है।

  1. प्रयास (PRAYAS):-NIDHI के तहत ‘प्रयास’ (PRAYAS) कार्यक्रम शुरू किया गया है जिसका पूर्ण रूप ‘प्रमोटिंग एंड एक्सेलेरेटिंग यंग एंड एस्पायरिंग इनोवेटर्स एंड स्टार्टअप्स’ (Promoting and Accelerating Young and Aspiring innovators & Startups) है।

PRAYAS कार्यक्रम के अंतर्गत स्थापित टेक्नोलॉजी बिज़नेस इनक्यूबेटर्स (Technology Business Incubators-TBI) नवप्रवर्तनकर्त्ताओं एवं उद्यमियों को ‘प्रूफ ऑफ कॉन्सेप्ट’ और विकासशील प्रोटोटाइप के लिये अनुदान के साथ-साथ अन्य सहायता भी प्रदान करते हैं। PRAYAS केंद्र की स्थापना के लिये एक टेक्नोलॉजी बिज़नेस इनक्यूबेटर्स (TBI) को अधिकतम 220 लाख रूपए प्रदान किये जाते हैं, जिसमें प्रयास शाला (PRAYAS SHALA) के लिये 100 लाख रुपए तथा प्रयास (PRAYAS) केंद्र की परिचालन लागत के लिये 20 लाख रुपए और प्रोटोटाइप विकसित करने के लिये एक इनोवेटर को 10 लाख रुपए दिये जाते हैं।

  • कोरोनावायरस, एक विशिष्ट वायरस फैमिली से संबंधित है। इस वायरस फैमिली में कुछ वायरस सामान्य रोगों जैसे सर्दी, जुकाम और कुछ गंभीर रोगों जैसे श्वसन एवं आँत के रोगों का कारण बनते हैं।

कोरोनावायरस की सतह पर कई उभार होते हैं जिसके कारण यह वायरस आकार में राजा के मुकुट की तरह दिखता है, इसलिये इसका नाम ‘कोरोनावायरस’ है। कोरोनावायरस मनुष्य के अलावा सुअर, मवेशी, बिल्ली, कुत्ते, ऊँट, हाथी जैसे स्तनधारियों को भी प्रभावित कर सकता है। कोरोनावायरस के चार सामान्य निम्नलिखित प्रकार होते हैं-

  1. 229E अल्फा कोरोनावायरस (Alpha Coronavirus)
  2. NL63 अल्फा कोरोनावायरस (Alpha Coronavirus)
  3. OC43 बीटा कोरोनावायरस (Beta Coronavirus)
  4. HKU1 बीटा कोरोनावायरस (Beta Coronavirus)

चार सामान्य कोरोनावायरस के अतिरिक्त अन्य दो विशिष्ट निम्नलिखित कोरोनावायरस होते हैं-

  1. कोरोनावायरस मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम(Middle East Respiratory Syndrome- MERS CoV):-

पहली बार MERS Cov का पता वर्ष 2012 में सऊदी अरब में लगाया गया था। इस कारण इस वायरस को मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम कोरोनावायरस (MERS CoV) कहा जाता है। MERS Cov से प्रभावित अधिकतर रोगियों में बुखार,जुकाम और श्वसन समस्याएँ हो जाती हैं। सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम कोरोनावायरस(Severe Acute Respiratory Syndrome- SARS CoV):- SARS CoV से पहली बार वर्ष 2002 में दक्षिण चीन के ग्वांगडोंग प्रांत (Guangdong Province) में मानव में संक्रमण पाया गया। SARS CoV से प्रभावित अधिकतर रोगियों में इन्फ्लूएंजा,बुखार,घबराहट,वात-रोग, सिरदर्द, दस्त, कंपन जैसी समस्याएँ पाई जाती हैं। गौरतलब है कि कोरोनावायरस संक्रमण के लिये अभी तक कोई टीका उपलब्ध नहीं है।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग(DST) का योगदान[सम्पादन]

3 अक्तूबर 2020 को केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा 17वें वार्षिक विज्ञान प्रौद्योगिकी और समाज (Science Technology and Society) फोरम में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संबंधी मंत्रिस्तरीय ऑनलाइन गोलमेज सम्मेलन (The online Science & Technology Ministerial Roundtable) में भारत द्वारा वैज्ञानिक आँकड़ों को साझा करने पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता को रेखांकित किया गया।

भारत की राष्ट्रीय डेटा साझाकरण और सुगम्यता नीति (National Data Sharing and Accessibility Policy- INDSAP) और एक खुले सरकारी डेटा पोर्टल से वैज्ञानिक आँकड़ों का साझाकरण बढ़ाया जा सकता है। भारत में कोरोना वायरस के टीके के उन्नत चरणों के परीक्षण तथा मानवता के एक बड़े हिस्से को टीके की आपूर्ति करने की क्षमता है। केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के अनुसार, वैज्ञानिक डेटा साझा करने को नए एसटीआईपी 2020 में शामिल किये जाने पर विचार किया जा रहा है। तथा इसे वैश्विक साझेदारों के रूप में साझा किया जा रहा है।” जापान ने इसकी मेजबानी की। सम्मेलन में अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान एवं विकास सहयोग, सामाजिक विज्ञान एवं मानविकी और विज्ञान की भूमिका पर विचार-विमर्श किया गया। इसमें दुनिया भर के लगभग 50 देशों के विज्ञान और प्रौद्योगिकी प्रमुखों ने भाग लिया। इसमें COVID-19 से उत्पन्न चुनौतियों का समाधान करने के लिये विज्ञान और प्रौद्योगिकी में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से उत्पन्न अवसरों का पता लगाया गया।

  • विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (DST) के तहत एक स्वायत्त संस्थान ‘नैनो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान’ (Nano Science & Technology- INST) के वैज्ञानिकों ने ‘नॉनस्टेरोइडल एंटी-इन्फ्लेमेट्री ड्रग’ (Nonsteroidal Anti-inflammatory Drug-NSAID) ‘एस्पिरिन’ (Aspirin) से नैनोरॉड (Nanorods) विकसित किये हैं।

‘एस्पिरिन’ (Aspirin)दर्द, बुखार या सूजन को कम करने के लिये इस्तेमाल की जाने वाली एक लोकप्रिय दवा है और इसे मोतियाबिंद के खिलाफ एक प्रभावी गैर-आक्रामक छोटे अणु-आधारित नैनोथेराप्यूटिक्स (Nanotherapeutics) के रूप में पाया जाता है।

‘मोतियाबिंद’ (Cataract)अंधापन का एक प्रमुख रूप है, यह तब होता है जब क्रिस्टलीय प्रोटीन की संरचना जो हमारी आँखों में लेंस का निर्माण करती है, खराब हो जाती है जिससे क्षतिग्रस्त या अव्यवस्थित प्रोटीन संगठित होकर एक नीली या भूरी परत बनाता है जो अंततः लेंस की पारदर्शिता को प्रभावित करता है। ‘नैनोरॉड’ (Nanorods) से संबंधित INST के वैज्ञानिकों के इस शोध को ‘जर्नल ऑफ मैटेरियल्स केमिस्ट्री बी’ (Journal of Materials Chemistry B) में प्रकाशित किया गया है जो किफायती एवं कम जटिल तरीके से मोतियाबिंद को रोकने में मदद कर सकता है।

‘एस्पिरिन नैनोरॉड’ (Aspirin Nanorods) क्रिस्टलीय प्रोटीन और इसके विखंडन से प्राप्त विभिन्न पेप्टाइड्स के एकत्रीकरण को रोकते हैं जो मोतियाबिंद के गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये जैव आणविक प्रक्रिया के माध्यम से प्रोटीन/पेप्टाइड के एकत्रीकरण को रोकते हैं। यह आणविक स्व-संयुग्मन की प्रक्रिया का उपयोग करके उत्पादित किये जाते हैं जो आम तौर पर नैनोकणों के संश्लेषण के लिये उपयोग की जाने वाली उच्च लागत और श्रमसाध्य भौतिक विधियों की तुलना में एस्पिरिन नैनोरॉड उत्पन्न करने के लिये सस्ती एवं प्रभावी तकनीक है।

आसान और कम लागत वाली इस उपचार पद्धति से विकासशील देशों में उन रोगियों को लाभ होगा जो मोतियाबिंद के महंगे उपचार के कारण अपना इलाज नहीं करा पाते हैं।
  • 28 फरवरी, 2020 को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के अवसर पर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय की दो पहलों- विज्ञान ज्योति (Vigyan Jyoti) और जीएटीआई (GATI) का उल्लेख किया गया।

विज्ञान ज्योति (Vigyan Jyoti)नामक पहल की शुरुआत वर्ष 2019 में भारत सरकार ने छात्राओं को स्टेम (STEM- Science, Technology, Engineering and Mathematics) शिक्षा हेतु प्रोत्साहित करने के लिये की थी। इस पहल के माध्यम से वर्ष 2020-2025 तक 550 ज़िलों की 100 छात्राओं को प्रशिक्षित किया जाएगा। इन छात्राओं का चयन उनके अंकों के प्रतिशत के आधार पर किया जाएगा। इस पहल में कक्षा 9 से 12 तक की छात्राओं को शामिल किया जाएगा। विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के आँकड़ों के अनुसार, वर्तमान में स्टेम शिक्षा में केवल 24% महिलाएँ शामिल हैं। इसके अतिरिक्त महिलाओं की भागीदारी स्नातकोत्तर स्तर पर 22%, एम फिल में 28%,पीएचडी स्तर पर 35% और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में मात्र 10% है।

जीएटीआई(Gender Advancement for Transforming Institutions- GATI)विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (STEM) में लैंगिक समानता का आकलन करने के लिये एक व्यापक चार्टर एवं रूपरेखा विकसित करेगा।
  • विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग का 50वाँ स्थापना दिवस(50th Foundation Day of Department of Science & Technology) केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री ने 3 मई, 2020 को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के 50वें स्‍थापना दिवस के अवसर पर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से सभी स्वायत्त संस्थानों तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Science & Technology) के अधीनस्थ कार्यालयों के प्रमुखों से S&T गतिविधियों तथा COVID-19 प्रकोप से निपटने के लिये उठाए गए प्रयासों के संबंध में चर्चा की।

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (Science & Technology-S&T) के नए क्षेत्रों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मई 1971 में स्थापित विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Science & Technology-DST) देश में S&T गतिविधियों के आयोजन, समन्वय और प्रचार के लिये एक नोडल विभाग की भूमिका निभाता है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (DST) भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अंतर्गत कार्य करता है। DST के प्रयासों के कारण भारत विज्ञान आधारित पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशनों की संख्या के मामले में चीन और अमेरिका के बाद वैश्विक स्तर पर तीसरे स्थान पर पहुँच गया है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के 50वें स्‍थापना दिवस के अवसर पर COVID-19 पर एक मल्टीमीडिया गाइड 'COVID कथा' भी लॉन्च की गई।

  • संयुक्त साइंस कम्युनिकेशन फोरम (Joint Science Communication Forum) का गठन विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र की विज्ञान संचार संस्थानों और एजेंसियों के बीच आपसी बातचीत, सहयोग और समन्वय को सुविधाजनक बनाने के लिये किया गया है। यह फोरम विभिन्न संस्थानों के विज्ञान संचार प्रयासों को एक साथ लाएगा और व्यापक स्तर पर एक आम नीति तथा सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाने में मदद करेगा। इसका लक्ष्य एक राष्ट्रीय विज्ञान संचार की रूपरेखा तैयार करना है। फोरम में विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (DST) के अलावा कृषि, स्वास्थ्य, संस्कृति, रक्षा, अंतरिक्ष, परमाणु ऊर्जा और सूचना और प्रसारण समेत विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों और विभागों के वरिष्ठ अधिकारियों को शामिल किया गया है। उल्लेखनीय है कि भारत में विज्ञान संचार के लिये एक मज़बूत संगठनात्मक संरचना मौजूद है। देश में कम-से-कम पाँच राष्ट्रीय संगठन, विज्ञान संचार के विकास के लिये कार्य कर रहे हैं।
  • कर्नाटक के बेंगलुरु में 20 मई, 2020 को एक सुपरसोनिक प्रोफाइल से युक्त ‘IAF टेस्ट फ्लाइट’ से निकली तेज़ ध्वनि जिसे 'सोनिक बूम'(Sonic Boom) के रूप में जाना जाता है, ने शहरवासियों को आश्चर्यचकित कर दिया। जब कोई वस्तु ध्वनि की गति से अधिक तेज़ी से हवा के माध्यम से यात्रा करती हुई शाॅक वेव्स (Shock Waves) बनाती है तो उसे 'सोनिक बूम'(Sonic Boom) के रूप में जाना जाता है। इस प्रक्रिया में ऊर्जा का विशाल उत्सर्जन (आमतौर पर ध्वनि के रूप में) हो सकता है जिसमें गरज के समान एक तेज़ विस्फोट होता है।

सोनिक बूम एक निरंतर ध्वनि है जिसे सुपरसोनिक गति से यात्रा कर रहे विमान द्वारा उत्सर्जित किया जाता है।

यदि विमान कम ऊँचाई पर उड़ रहा है तो सोनिक बूम से भूकंप आने और काँच के टूटने के समान झटके लग सकते हैं।
  • बाई-ल्यूमिनसेंट सुरक्षा स्याही का विकास CSIR की राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला के शोधकर्त्ताओं ने करेंसी नोटों की जालसाज़ी और पासपोर्ट की नकली छपाई को रोकने के लिये की है। यह स्याही 254 नैनो मीटर तरंगदैर्ध्य के पराबैंगनी प्रकाश के स्रोत के संपर्क में आने पर तीव्र लाल रंग का, जबकि पराबैंगनी प्रकाश स्रोत के बंद होने के तुरंत बाद हरे रंग का उत्सर्जन करती है। लाल रंग का उत्सर्जन प्रतिदीप्ति (Fluorescence) के कारण होता है, जबकि हरे रंग का उत्सर्जन स्फुरदीप्ति (Phosphorescence) की घटना के कारण होता है।

जब 254 नैनोमीटर व 365 नैनोमीटर तरंगदैर्ध्य पर दो अलग-अलग स्रोतों द्वारा प्रकाश उत्पन्न किया जाता है तो एक बाई-ल्यूमिनेसेंट सुरक्षा स्याही क्रमशः लाल एवं हरे रंग की रोशनी में दिखाई देती है। पिछले वर्ष ज़ारी आरबीआई (RBI) की एक वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2018-19 के दौरान बैंकों द्वारा पाए गए कुल नकली भारतीय मुद्रा नोटों में से RBI द्वारा 5.6 % और अन्य बैंकों द्वारा 94.4 % का पता लगाया गया था।


  • भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास और नैरोबी विश्वविद्यालय के शोधकर्त्ताओं ने बड़ी अवसंरचनाओं में दोषों/त्रुटि का पता लगाने के लिये मेटामैटेरियल्स (Metamaterials) का उपयोग किया है।मेटामैटेरियल्स (Metamaterials) अद्वितीय आंतरिक सूक्ष्म संरचना के साथ कृत्रिम रूप से तैयार किये गए पदार्थ होते हैं। यह अद्वितीय आंतरिक सूक्ष्म संरचना इन्हें अद्वितीय गुण प्रदान करती है, जो प्राकृतिक रूप से नहीं पाए जाते हैं। मेटामैटेरियल्स की घटक कृत्रिम इकाइयों को आकार, प्रकार एवं आंतरिक गुणों के अनुरूप बनाया जा सकता है जिससे असामान्य गुणों को प्रदर्शित किया जा सके।

गौरतलब है कि इमारतों, पाइपलाइनों एवं रेलवे जैसी कई इंजीनियरिंग अवसंरचनाओं में भयावह विफलताओं को रोकने के लिये समय-समय पर परीक्षण की आवश्यकता होती है। ‘बल्क अल्ट्रासोनिक’ निरीक्षण: उच्च आवृत्ति वाली ध्वनि तरंगें जो समूह (बल्क अल्ट्रासाउंड- Bulk Ultrasound) में विचरण करती हैं, व्यापक रूप से संरचनात्मक सामग्री के गैर-आक्रामक एवं गैर-विनाशकारी परीक्षण के लिये उपयोग की जाती हैं। पारंपरिक रूप से ‘बल्क अल्ट्रासोनिक’ निरीक्षण कठिन और अधिक समय लेने वाली प्रक्रिया है क्योंकि इसमें संरचनाओं का बिंदु-दर-बिंदु मूल्यांकन शामिल है और यह विशेष रूप से बड़ी अवसंरचनाओं के लिये चुनौतीपूर्ण साबित होता है। इस चुनौती का सामना करने के लिये भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास और नैरोबी विश्वविद्यालय के शोधकर्त्ताओं ने ‘गाइडेड वेव अल्ट्रासाउंड’ (Guided Wave Ultrasound) द्वारा बड़ी अवसंरचनाओं में दोषों/त्रुटियों का पता लगाने में सुधार करने के लिये मेटामैटेरियल्स का उपयोग किया है। ‘गाइडेड वेव टेस्टिंग’ (Guided Wave Testing- GWT) में ध्वनि तरंगों को संरचना के आतंरिक भाग में भेजने के बजाय संरचना की लंबाई के अनुरूप भेजा जाता है। मेटामैटेरियल्स के उपयोग से ध्वनि तरंगों को लंबी दूरी तक परीक्षण करने में सहायता मिलती है।

  • कोलैबकैड (CollabCAD) सॉफ्टवेयर का शुभारंभ अटल इनोवेशन मिशन,नीति आयोग और राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र (National Informatics Centre- NIC) ने 13 अप्रैल, 2020 को संयुक्त रूप से किया।

इसका उद्देश्य देश भर में अटल टिंकरिंग लैब (Atal Tinkering Lab-ATL) के छात्रों को रचनात्मकता एवं कल्पना के मुक्त प्रवाह के साथ 3D डिज़ाइन बनाने और संशोधित करने के लिये एक मंच प्रदान करना है। मुख्य बिंदु: यह कंप्यूटर सक्षम सॉफ्टवेयर सिस्टम का एक सहयोगी नेटवर्क है जो 2D प्रारूपण एवं 3D उत्पाद डिज़ाइन के विवरण से संपूर्ण इंजीनियरिंग समाधान प्रदान करता है। यह सॉफ्टवेयर छात्रों को पूरे नेटवर्क में डेटा निर्मित करने में सक्षम बनाता है और समवर्ती तरीके से भंडारण एवं विज़ुअलाइज़ेशन के लिये समान प्रारूप के डेटा तक पहुँच को सुनिश्चित करता है। नीति आयोग द्वारा कार्यान्वित अटल इनोवेशन मिशन नवाचार एवं उद्यमिता की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिये भारत सरकार की प्रमुख पहल है। स्कूल स्तर पर अटल इनोवेशन मिशन (AIM) भारत के सभी ज़िलों में अटल टिंकरिंग लैब (ATL) की स्थापना कर रही है। अब तक अटल इनोवेशन मिशन (AIM) ने अटल टिंकरिंग लैब (ATL) की स्थापना के लिये 33 विभिन्न राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में फैले देश भर के कुल 14916 स्कूलों का चयन किया है। देश भर में स्थापित अटल टिंकरिंग लैब (ATL) नवीनतम विचारों एवं रचनात्मकता को सुधारने के लिये बच्चों को एक मंच प्रदान करते हैं।

  • श्री चित्रा थिरुनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस एंड टेक्नोलॉजी(SCTIMST)तिरुवंतपुरम की शोध टीम ने मस्तिष्क की रक्त धमनियों में एन्यूरिज़्म (Aneurysms) के उपचार के लिये एक इंट्राक्रानियल फ्लो डायवर्टर स्टेंटस (Flow Diverter Stents) तकनीक विकसित की है।

श्री चित्रा थिरुनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस एंड टेक्नोलॉजी (SCTIMST) तिरुवंतपुरम केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय (Ministry of Science & Technology) के अंतर्गत राष्ट्रीय महत्त्व का एक संस्थान है। इस तकनीक का पहला परीक्षण जानवरों में और इसके बाद मानव में किया जाएगा। फ्लो डायवर्टरों को जब एन्यूरिज़्म से ग्रस्‍त मस्तिष्‍क की धमनी में तैनात किया जाता है तब यह एन्‍यूरिजम से रक्‍त के प्रवाह को मोड़ देता है इससे रक्त प्रवाह के दबाव से इसके टूटने की संभावना कम हो जाती है। फ्लो डायवर्टर धमनी के लिये यह लचीला एवं अनुकूलन योग्य है। साथ ही फ्लो डायवर्टर रक्त के प्रवाह पर लगातार ज़ोर न देकर धमनी की दीवार को भी मज़बूत करता है। एन्यूरिज़्म (Aneurysms): एन्यूरिज़्म मानव शरीर में धमनी का विस्तार है जो धमनी की दीवार में कमज़ोरी के कारण होता है। अर्थात् एन्यूरिज़्म एक धमनी की दीवार के कमज़ोर पड़ने को संदर्भित करता है जो धमनी में उभार या विकर्षण बनाता है।

  • तीन प्रमुख दूरसंचार सेवा प्रदाताओं (रिलायंस जियो इन्फोकॉम, भारती एयरटेल और वोडाफोन आइडिया) ने डार्क फाइबर (Dark Fibre) का उपयोग करने के लिये राज्य द्वारा संचालित भारत ब्रॉडबैंड नेटवर्क लिमिटेड (BBNL) से संपर्क किया है। यह दूरसंचार सेवा प्रदाताओं को उनके पूंजीगत व्यय में कटौती करने में मदद करेगा।

BBNL की अप्रयुक्त अवसंरचना का उपयोग ग्रामीण भारत में इंटरनेट का विस्तार करने और 4G सेवाओं के साथ-साथ मोबाइल टेलीफोनी सेवाओं जैसी अन्य दीर्घकालिक विकास (Long-Term Evolution- LTE) योजनाओं के लिये किया जाएगा। डार्क फाइबर (Dark Fibre) के बारे में यह एक अप्रयुक्त ऑप्टिकल फाइबर है जिसे बिछाया जा चुका है किंतु वर्तमान में फाइबर-ऑप्टिक संचार में इसका उपयोग नहीं किया जा रहा है। चूँकि फाइबर-ऑप्टिक केबल प्रकाश पुंज के रूप में सूचना प्रसारित करता है, जबकि डार्क केबल उसको संदर्भित करता है जिसके माध्यम से प्रकाश पुंजों को प्रेषित नहीं किया जा रहा है। अधिक बैंडविड्थ की आवश्यकता होने पर लागत पुनरावृत्ति से बचने के लिये कंपनियाँ अतिरिक्त ऑप्टिकल फाइबर बिछाती हैं। इसे अनलिट फाइबर (Unlit Fibre) के रूप में भी जाना जाता है। भारत ब्रॉडबैंड नेटवर्क लिमिटेड (BBNL) यह भारत सरकार द्वारा कंपनी अधिनियम, 1956 के तहत 1000 करोड़ रुपए की अधिकृत पूंजी के साथ स्थापित एक स्पेशल पर्पज़ व्हीकल (SPV) है। यह संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (Ministry of Communications and Information Technology) के अंतर्गत आता है। इसे भारत में राष्ट्रीय ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क (National Optical Fiber Network- NOFN) बनाने के लिये गठित किया गया है और यह भारतनेट परियोजना (BharatNet Project) के लिये कार्यान्वयन एजेंसी है।

अंतरिक्ष विज्ञान में भारत के अन्य संस्थाओं के योगदान[सम्पादन]

  • DST के स्वायत्त संस्थान, भारतीय तारा भौतिकी संस्थान (Indian Institute of Astrophysics-IIA) द्वारा किये गए अध्ययन में गर्म एक्सट्रीम हीलियम स्टार्स (Extreme Helium Star- EHe) के वायुमंडल में पहली बार एकल आयन फ्लोरीन की उपस्थिति का पता चला है। यह अध्ययन एस्ट्रोफिज़िकल जर्नल (Astrophysical Journal) में प्रकाशित हुआ है।

हानले, लद्दाख में स्थित भारतीय खगोलीय वेधशाला (Indian Astronomical Observatory-IAO) में संचालित 2-मी. हिमालयी चंद्र टेलीस्कोप पर लगे हुए हानले ऐशेल स्पेक्टोग्राफ (Hanle Echelle Spectrograph- HESP) से 10 गर्म EHes के उच्च-रिज़ॉल्यूशन ऐशेल स्पेक्ट्रा प्राप्त किये गए। इस वेधशाला का संचालन दूरस्थ रूप से भारतीय तारा भौतिकी संस्थान (IIA) द्वारा मैकडॉनल्ड्स वेधशाला, अमेरिका और यूरोपीय दक्षिणी वेधशाला (European Southern Observatory-ESO) के डेटा के साथ किया जाता है।

EHe कम द्रव्यमान वाला सुपरजायंट (बहुत बड़े व्यास और कम घनत्व का एक अत्यंत चमकीला तारा) है जिसमें हाइड्रोजन मौजूद नहीं होता है। जबकि हाइड्रोजन ब्रह्मांड का सबसे आम रासायनिक तत्त्व है। हमारी आकाशगंगा में अब तक ऐसे 21 तारों का पता लगाया गया है। इन हाइड्रोजन रहित पिंडों की उत्पत्ति और विकास एक रहस्य है। इनकी रासायनिक विशिष्टताएँ विकास के स्थापित सिद्धांत को चुनौती देती हैं,क्योंकि इनकी रासायनिक संरचना कम द्रव्यमान वाले विकसित तारों के समान नहीं होती है।

इस अध्ययन से स्पष्ट होता है कि EHe के निर्माण में मुख्य रूप से में कार्बन-ऑक्सीजन (CO) और एक हीलियम (He) श्वेत वामन तारों (White Dwarfs) का विलय शामिल होता है। श्वेत वामन (White Dwarfs) या सफेद बौने तारे का निर्माण तब होता है जब सूर्य जैसा कोई तारा अपने परमाणु ईंधन को समाप्त कर देता है। अपने परमाणु ईंधन के जलने के अंतिम चरण तक, इस प्रकार का तारा अपने बाह्य पदार्थों का सर्वाधिक निष्कासन करता है, जिसके परिणामस्वरूप निहारिका (nebula) का निर्माण होता है। तारे का केवल गर्म कोर शेष रहता है। यह कोर एक बहुत गर्म सफेद बौना तारा बन जाता है, जिसका तापमान 100,000 केल्विन से अधिक होता है। यद्यपि इनका आकार सूर्य के आकार का लगभग आधा होता है फिर भी ये पृथ्वी से बड़े होते हैं।

Ehe तारों के विकास के बारे में जानने के लिये उनकी रासायनिक संरचना के सटीक निर्धारण की आवश्यकता होती है और यदि कोई विशिष्टता हो, तो बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है।

हाइड्रोजन रहित इन पिंडों के विकास को समझने में फ्लोरीन बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। गर्म एक्सट्रीम हीलियम तारों में फ्लोरीन की खोज से उनके विकास के रहस्य के बारे में पता चल सकता है। ठंडे EHe तथा ठंडे चिरसम्मत हाइड्रोजन रहित पिंडों (Classical Hydrogen Deficient Stars) में सामान्य तारों (800- 8000 के क्रम का) की तुलना में उच्च फ्लोरीन संवर्द्धन पाया गया। RCB परिवर्तक यानी उत्तरकीरीट तारामंडल (Coronae Borealis) में उपस्थित तारे इन दोनों के बीच निकट विकासवादी संबंध को इंगित करते हैं।

भारतीय ताराभौतिकी संस्थान (Indian Institute of Astrophysics-IIA)खगोल ताराभौतिकी एवं संबंधित भौतिकी में शोधकार्य को समर्पित है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के अवलंब से संचालित यह संस्थान आज देश में खगोल एवं भौतिकी में शोध एवं शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र है।

संस्थान की प्रमुख प्रेक्षण सुविधाएँ कोडैकनाल (तमिलनाडु), कावलूर (कर्नाटक), गौरीबिदनूर (कर्नाटक) एवं हानले (लद्दाख) में स्थापित हैं। पृष्ठभूमि इसका उद्गम मद्रास (चेन्नई) में वर्ष 1786 में स्थापित की गई एक निजी वेधशाला से जुड़ा है, जो वर्ष 1792 में नुंगमबक्कम (Nungambakkam) में मद्रास वेधशाला के रूप में कार्यशील हुई। वर्ष 1899 में इस वेधशाला को कोडैकनाल में स्थानांतरित किया गया। वर्ष 1971 में कोडैकनाल वेधशाला ने एक स्वायत्त संस्था भारतीय ताराभौतिकी संस्थान का रूप ले लिया। वर्ष 1975 में संस्थान का मुख्यालय कोरमंगला, बंगलूरू में स्थानांतरित हुआ।

  • सरकार द्वारा प्रस्तावित ‘भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष संवर्द्धन तथा प्रमाणीकरण केंद्र’ (Indian National Space Promotion and Authorization Centre-IN-SPACe) भारतीय अंतरिक्ष क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा देने के माध्यम से दूरगामी सुधार सुनिश्चित करेगा।
  • प्राइमोर्डियल ब्लैक होल (Primordial Black Holes-PBH) का अध्ययन पुणे स्थित इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिज़िक्स (IUCAA) के एक वैज्ञानिक युगल ने किया है जो ब्रह्मांड (जब यह तेज़ी से विस्तार कर रहा था) के गतिज ऊर्जा स्तरों में एक छोटे से टकराव के परिणामस्वरूप पैदा हुए थे। हॉट बिग बैंग (Hot Big Bang) चरण के दौरान निर्मित हुए थे। ये बड़े पैमाने पर तारों के पतन जो किसी सामान्य ब्लैक होल को संदर्भित करते हैं, के विपरीत विकिरणों के पतन के परिणामस्वरूप बनते हैं।

3000 किलोमीटर के क्षेत्र में विस्तृत हो सकता है या एक परमाणु के नाभिक की तरह बेहद छोटा हो सकता है। गतिज ऊर्जा में इस मामूली वृद्धि के परिणामस्वरूप कई प्राइमोर्डियल ब्लैक होल का जन्म तथा शक्तिशाली गुरुत्वाकर्षण तरंगों का उत्सर्जन भी हुआ है।

  • नेचर एस्ट्रोनॉमी’ में प्रकाशित एक अध्ययन में सूर्य जैसे कम द्रव्यमान वाले तारों के कोर हीलियम (He) ज्वलन चरण के दौरान लिथियम उत्पति की परिघटना के विषय में ठोस पर्यवेक्षण साक्ष्य प्रस्तुत किये गए। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के एक स्वायत्त संस्थान ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स’ के वैज्ञानिकों ने अपने अंतर्राष्ट्रीय सहयोगियों के साथ मिलकर साक्ष्य प्रस्तुत किये।

वैज्ञानिकों ने ‘आकाशगंगा पुरातत्त्व परियोजना, एंग्लो-ऑस्ट्रेलियाई टेलीस्कोप, ऑस्ट्रेलिया’ (Galactic Archaeology project, Anglo-Australian Telescope, Australia- GALAH) के बड़े सर्वेक्षणों और यूरोपीय अंतरिक्ष मिशन (GAIA) से एकत्र हज़ारों तारों के स्पेक्ट्रा का उपयोग किया। GAIA यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी की एक अंतरिक्ष वेधशाला है, जिसे 2013 में लॉन्च किया गया था।

लिथियम की उत्पत्ति :-उच्च-ऊर्जा वाली ब्रह्मांडीय किरणों से इंटरस्टेलर स्पेस में कार्बन और ऑक्सीजन जैसे भारी तत्त्वों के टूटने से लिथियम का निर्माण हुआ।

तारों द्वारा बड़े पैमाने पर उत्क्षेपण और तारकीय विस्फोट भारी तत्त्वों की इस महत्त्वपूर्ण वृद्धि में प्राथमिक योगदानकर्त्ता हैं। हालाँकि लिथियम को एक अपवाद माना जाता है। बिग बैंग संकल्पना और लिथियम: लिथियम (Lithium- Li) बिग बैंग न्यूक्लियोसिंथेसिस (Big Bang Nucleosynthesis- BBN) से उत्‍पन्‍न तीन मौलिक तत्त्वों में से एक है। अन्‍य दो तत्त्व हाइड्रोजन (H) और हीलियम (He) हैं। लिथियम से संबंधित कुछ अवधारणाएँ आज के सर्वश्रेष्ठ मॉडलों पर आधारित वर्तमान समझ के अनुसार, हमारे सूर्य जैसे तारों में लिथियम उनके जीवनकाल में ही नष्ट हो जाता है। तथ्य के रूप में, सूर्य और पृथ्वी में सभी तत्त्वों की संरचना समान है। लेकिन, सूर्य में लिथियम की मात्रा पृथ्वी की तुलना में 100 गुनी कम है, हालाँकि दोनों का निर्माण एक साथ हुआ था। यह खोज लंबे समय से चली आ रही इस धारणा को चुनौती देती है कि तारे अपने जीवनकाल में ही लिथियम को नष्ट कर देते हैं, जिसका अर्थ है कि सूर्य स्वयं भविष्य में लिथियम का निर्माण करेगा, जिसकी भविष्यवाणी मॉडल द्वारा नहीं की जाती है, जो दर्शाता है कि तारा-सिद्धांत में कुछ भौतिक प्रक्रिया छूटी हुई है। अध्ययन से संबंधित कुछ अन्य तथ्य इसके अलावा, वैज्ञानिकों ने तारे के मुख्य हाइड्रोजन-ज्वलन चरण के अंत में लिथियम उत्पादन के स्रोत के रूप में "He फ्लैश" (विस्फोट के माध्यम से तारे में HE-प्रज्वलन की शुरुआत) की भी पहचान की। जबकि हमारा सूर्य लगभग 6-7 अरब वर्षों के बाद इस चरण में पहुँचेगा। इस अध्ययन में तारों को लिथियम-संपन्न के रूप में वर्गीकृत करने के लिये नई सीमा (A(Li) > -0.9~dex) का भी सुझाव दिया गया है, जो अब तक इस्तेमाल की गई सीमा (A(Li) > 1.5~dex) से 250 गुना कम है। वैज्ञानिकों के अनुसार, हमारे लिये अगला महत्त्वपूर्ण कदम He-फ्लैश और मिक्सिंग मैकेनिज़्म के दौरान लिथियम के न्यूक्लियोसिंथेसिस को समझना है, जो अभी तक अनजान है।

भारतीय खगोल-भौतिकी संस्थान’के शोधकर्त्ताओं ने लीथियम से समृद्ध सैकड़ों विशाल तारों की खोज की[सम्पादन]

नासा के 'केपलर स्पेस टेलीस्कोप' से प्राप्त डेटा का उपयोग करके वायुमंडलीय कंपन का विश्लेषण किया गया। लीथियम से समृद्ध सैकड़ों विशाल तारों के निर्धारण के लिये वैज्ञानिकों ने बारंबारता, दबाव, गुरुत्वाकर्षण आदि के मॉडलों का अध्ययन किया। लीथियम समृद्ध तारों तथा अन्य तारों में अंतर स्थापित करने के वैज्ञानिकों ने तारों कोर में होने वाली हीलियम दहन प्रक्रिया को आधार बनाया। हाइड्रोजन संलयन अभिक्रिया के कारण हीलियम का निर्माण होता है। हीलियम दहन अभिक्रिया की ग्रहों उपस्थिति यह बताती है कि इन ग्रहों में अन्य हल्के तत्त्व भी मौजूद हैं क्योंकि ड्यूटेरियम, हीलियम और लीथियम आदि हल्के तत्त्व बिग बैंग की घटना के दौरान बनने वाले प्रारंभिक पदार्थ थे।

शोध में यह बताया गया है लिथियम की अधिकता केवल हीलियम निर्माण/दहन वाले तारों में पाई जाती है। इन विशाल तारों को लाल तारे यानी रेड क्लंप जाइंट (Red Clump Giants) के रूप में भी जाना जाता है।

इंटरस्टेलर स्पेस (Interstellar Space) की शुरुआत को उस स्थान के रूप में परिभाषित किया है जहाँ सूर्य से आने वाली निरंतर प्रवाह सामग्री तथा चुंबकीय क्षेत्र, इसके आसपास के वातावरण को प्रभावित करते हैं। इसे हेलिओपॉज (Heliopause) भी कहा जाता है। प्लेनेटरी एंगुलफमेंट (Planetary Engulfment)प्रत्येक ग्रहीय प्रणाली में एक मेजबान या गेस्ट तारा होता है (जैसे- सूर्य सौर मंडल के ग्रहों के लिये मेजबान तारा है)। मेजबान तारा ‘सफेद बौना’ (White Dwarf) तारा बनने की प्रक्रिया में भाग नहीं लेता है अत: अपनी स्थिरता के कारण मेजबान तारा ‘इंटरस्टेलर स्पेस’ में मौजूद तारों के वायुमंडल की रासायनिक संरचना में बदलाव ला सकता है। बिग बैंग संकल्पना और लिथियम: लिथियम (Lithium- Li) बिग बैंग न्यूक्लियोसिंथेसिस (Big Bang Nucleosynthesis- BBN) से उत्‍पन्‍न तीन मौलिक तत्त्वों में से एक है। अन्‍य दो तत्त्व हाइड्रोजन (H) और हीलियम (He) हैं। बिग बैंग न्यूक्लियोसिंथेसिस (BBN)आधुनिक समय में ब्रह्मांड की उत्पत्ति संबंधी सर्वमान्य सिद्धांत है। इसे 'विस्तरित ब्रह्मांड परिकल्पना' भी कहा जाता है। इस संकल्पना के अनुसार ब्रह्मांड की शुरुआत एक छोटे से एकक परमाणु (Singularity) के साथ हुई थी तथा उसके 13.7 बिलियन वर्षों के बाद हमें आज की ब्रह्मांडीय व्यवस्था देखने को मिलती है। ब्रह्मांड के निर्माण के समय हल्के तत्त्वों की बहुतायत भी इस सिद्धांत को सत्यापित करती है। बिग बैंग के प्रारंभिक मिनटों में हल्के तत्त्वों (जैसे ड्यूटेरियम, हीलियम और लिथियम) का निर्माण हुआ जबकि हीलियम से भारी तत्त्वों का निर्माण बाद के क्रम में हुआ क्योंकि ऐसा माना जाता है कि भारी तत्त्वों का निर्माण तारों के आंतरिक भागों या कोर में होता है। सिद्धांत के अनुसार, ब्रह्मांड का लगभग 25% द्रव्यमान हीलियम से बना है जबकि 0.01% ड्यूटेरियम से तथा इससे भी कम लीथियम से निर्मित है।

इसरो के कार्य[सम्पादन]

  • अंतरिक्ष विभाग के राज्य मंत्री ने ‘विकेंद्रीकृत योजना के लिये अंतरिक्ष आधारित सूचना सहायता पर राष्ट्रीय कार्यशाला’ (National Workshop on Space based Information Support for Decentralised Planning- SISDP) का उद्घाटन किया।

इस अवसर पर उन्होंने बंगलूरू में भुवन पंचायत वी 3.0 वेब पोर्टल (Bhuvan Panchayat V 3.0 Web Portal) भी लॉन्च किया। इसरो (ISRO) ने सरकारी परियोजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन और निगरानी के लियेा तीसरा संस्करण लॉन्च किया है। इस पोर्टल के माध्यम से पहली बार पूरे देश के लिये 1:1000 के पैमाने पर आधारित एक विषयगत डेटाबेस उपलब्ध होगा, इस डेटाबेस को एकीकृत उच्च रिज़ॉल्यूशन उपग्रह डेटा के आधार पर तैयार किया गया है। यह परियोजना कम-से-कम दो साल तक चलेगी। इस परियोजना के तहत इसरो ग्राम पंचायत सदस्यों और हितधारकों के साथ मिलकर उनकी डेटा आवश्यकताओं को समझेगा। यह पोर्टल पंचायत सदस्यों एवं अन्य लोगों के लाभ के लिये डेटाबेस विज़ुलाइज़ेशन एवं सेवाएँ प्रदान करेगा। यह परियोजना पंचायती राज मंत्रालय की ग्राम पंचायत विकास योजना प्रक्रिया में सहायता करने के लिये भू-स्थानिक सेवाएँ प्रदान करेगी। पंचायत स्तर पर विकेंद्रीकृत योजना के लिये समर्थन(Support for Decentralised Planning at Panchayat level- SISDP): इसरो ने विकासात्मक योजनाओं के कार्यान्वयन एवं निगरानी के लिये उपग्रह से प्राप्त डेटा के आधार पर बुनियादी योजनागत इनपुट के साथ ज़मीनी स्तर पर ग्राम पंचायतों की मदद के लिये SISDP परियोजना शुरू की। इस परियोजना में हैदराबाद स्थित नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर (National Remote Sensing Centre) प्रमुख भूमिका निभाएगा।SISDP परियोजना का चरण-I वर्ष 2016-17 में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। SISDP के चरण-I के अनुभव के आधार पर 'SISDP-Update' आरंभ किया गया है। इस परियोजना के तहत तैयार किये गए जियोडेटाबेस, उत्पादों और सेवाओं का भुवन जियो पोर्टल के माध्यम से प्रसार किया जा सकता है।

  • भारत के नवीनतम संचार उपग्रह जीसैट- 30 (GSAT- 30) को 17 जनवरी, 2020 को फ्रेंच गुयाना के कौरु (Kourou) स्थित गुयाना स्पेस सेंटर से अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया गया। यह 15 वर्षों तक कार्य करेगा। इसमें 12 C-बैंड और 12 Ku-बैंड ट्रांसपोंडर लगे हुए हैं।

GSAT-30 को यूरोपीय प्रक्षेपण यान एरियन- 5 VA-251 से भू-तुल्यकालिक कक्षा में स्थापित किया गया है। एरियन- 5 के माध्यम से GSAT- 30 के अतिरिक्त यूरोपीय संचार उपग्रह यूटेलसैट कनेक्ट (EUTELSAT KONNECT) को भी अंतरिक्ष में स्थापित किया गया है । यह उपग्रह वर्ष 2005 में भेजे गए INSAT-4A उपग्रह का स्थान लेगा। यह मिशन वर्ष 2020 का इसरो का पहला मिशन है। यह संचार उपग्रह उच्च गुणवत्ता वाली टेलीविज़न, दूरसंचार एवं प्रसारण सेवाएँ मुहैया कराएगा। जीसैट- 30 का उपयोग डायरेक्ट-टू-होम (DTH) टेलीविज़न सेवाएँ, VSAT कनेक्टिविटी (जो बैंकों के कामकाज में सहयोग करती है) प्रदान करने, एटीएम, स्टॉक एक्सचेंज, टेलीविज़न अपलिंकिंग और टेलीपोर्ट सेवाएँ, डिजिटल उपग्रह समाचार संग्रहण तथा ई-गवर्नेंस एप्लीकेशन इत्यादि सेवाओं के लिये किया जाएगा। यह उपग्रह लचीला आवृत्ति खंड (Flexible Frequency segment) और फ्लेक्सिबल कवरेज (Flexible Coverage) प्रदान करेगा। यह उपग्रह Ku-बैंड के माध्यम से भारतीय मुख्य भूमि और द्वीपों को संचार सेवाएँ प्रदान करेगा और C-बैंड के माध्यम से खाड़ी देशों, बहुत से एशियाई देशों तथा ऑस्ट्रेलिया में व्यापक कवरेज प्रदान करेगा। GSAT- 30 को अल्फा डिज़ाइन टेक्नोलॉजीज़ लिमिटेड द्वारा बंगलूरू में असेंबल किया गया है। इसके पहले यह समूह IRNSS- 1H एवं IRNSS- 1I नौवहन उपग्रह में भी काम कर चुका है।

भारत ने यूरोपीय प्रक्षेपण यान एरियन-5 को GSAT-30 (वज़न 3357 किलोग्राम) के प्रक्षेपण हेतु चुना है क्योंकि GSAT-30 का भार भारतीय भू-तुल्यकालिक प्रक्षेपण यान- MK II (GSLV- MK II) के भार उठाने की क्षमता से काफी अधिक है। इसरो द्वारा नए और अधिक शक्तिशाली GSLV-MkIII, जिसकी भार उठाने की क्षमता 4,000 किलोग्राम तक है, को वर्ष 2022 में गगनयान मिशन और दो पूर्ववर्ती क्रू-लेस परीक्षणों (two preceding crew-less trials) के लिए बचाने के उद्देश्य से इसका उपयोग इस मिशन हेतु नहीं किया गया। साथ ही GSLV- MKIII के उपयोग से मिशन की लागत में वृद्धि को देखते हुए भी इसका प्रयोग प्रक्षेपण हेतु नहीं किया गया।
एरियन- 5 यूरोपीय प्रक्षेपण यान है। इसने पिछले 30 वर्षों में भारत के लगभग 24 संचार उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित किया है। इसकी शुरुआत वर्ष 1981 के एप्पल (APPLE) प्रयोगात्मक उपग्रह के प्रक्षेपण से हुई थी। इसने आखिरी बार फरवरी 2019 में एक प्रतिस्थापन उपग्रह जीसैट- 31 को लॉन्च किया था।
  • क्वालकॉम टेक्नोलॉजीज (Qualcomm Technologies) ने भारतीय क्षेत्रीय उपग्रह नेविगेशन प्रणाली- नाविक (NavIC) की सुविधा प्रदान करने वाली एक मोबाइल चिपसेट का अनावरण किया है। इस मोबाइल चिपसेट से युक्त नाविक का उपयोग भारतीय क्षेत्र एवं इसके पड़ोसी देशों में कर सकेंगे। चिपसेट जारी करने से स्मार्टफोन ओरिजिनल इक्विपमेंट मैन्युफैक्चरर्स (OEM) द्वारा नाविक के उपयोग में वृद्धि होगी। यह कंपनी स्मार्टफोन के पार्ट्स एवं उपकरणों जिन्हें किसी अन्य कंपनी द्वारा निर्मित किया जाता है, को खरीदती है। यह भारतीय बाज़ार के लिये किसी भी नए मॉडल को जारी कर सकते हैं जो नाविक के अनुकूल होगा। इस प्रकार आगामी हैंडसेट, एप्लीकेशन, प्रोसेसर, आदि में एक मानक विशेषता के रूप में नाविक उपलब्ध रहेगा। कई मोबाइलों में नाविक की उपलब्धता से इस क्षेत्र (भारतीय उपमहाद्वीप) में स्मार्टफोन की जियोलोकेशन क्षमता को बढ़ाने में मदद मिलेगी।

अपराध के खिलाफ मदद करने में सक्षम:-अप्रैल 2019 में भारत सरकार द्वारा निर्भया मामले में दिए गए फैसले के अनुसार, देश के सभी वाणिज्यिक वाहनों के लिये नाविक आधारित वाहन ट्रैकर्स को अनिवार्य कर दिया गया है। नाविक युक्त मोबाइल होने से सभी वाणिज्यिक वाहनों में वाहन ट्रैकिंग सिस्टम और पैनिक बटन लगाने में मदद मिलेगी। यह ग्लोबल पोज़िशनिंग सिस्टम (GPS) जैसी अंतर्राष्ट्रीय प्रणालियों के विपरीत वाहनों की निगरानी के लिये स्थानीय कानून प्रवर्तन एजेंसियों को सुविधा प्रदान करता है। नाविक के अलावा यह चिपसेट व्यापक रूप से इस्तेमाल किये जाने वाले ग्लोबल नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम (GNSS) के भी अनुकूल होगा।

  • रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) ने 71वें गणतंत्र दिवस परेड के दौरान अपनी एंटी-सैटेलाइट (Anti-Satellite) मिसाइल और वायु रक्षा सामरिक नियंत्रण रडार (Air Defence Tactical Control Radar- ADTCR) का प्रदर्शन किया। मुख्य अतिथि के रूप में ब्राज़ील के राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो (Jair Bolsonaro) को आमंत्रित किया गया था। भारतीय वायु सेना के चिनूक हेलीकॉप्टर और अपाचे हेलीकॉप्टर ने गणतंत्र दिवस पर फ्लाईपास्ट (Flypast) में पहली बार भाग लिया। इसके अलावा सेना ने अपने 155 मिमी. धनुष और हॉवित्जर तोप एवं K9-वज्र स्व-चालित तोपखाने का प्रदर्शन किया।

यह पहला अवसर था जब चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (CDS) सहित चार सैन्य अधिकारी गणतंत्र दिवस समारोह/परेड में शामिल रहे। गणतंत्र दिवस परेड में पहली बार सेना की मार्चिंग टुकड़ियों के बीच कोर ऑफ आर्मी एयर डिफेंस की एक टुकड़ी भी थी। सेना की सिग्नल कोर टुकड़ी का नेतृत्व चौथी पीढ़ी की अधिकारी कैप्टन तान्या शेरगिल ने किया।

A-SAT एक इंटरसेप्टर मिसाइल है जो अंतरिक्ष में उपग्रहों को नष्ट या जाम कर देती है। यह मुख्यतः दो प्रकार की हैं:-
  1. काइनेटिक ए-सैट (Kinetic A-SAT) बैलिस्टिक मिसाइलों की भाँति यह किसी उपग्रह को नष्ट करने के लिये प्रत्यक्ष रूप से उस पर प्रहार करता है।
  2. नॉन-काइनेटिक ए-सैट (Non-Kinetic A-SAT) अंतरिक्ष में वस्तुओं को अप्रत्यक्ष रूप से निष्क्रिय या नष्ट करते हैं, इसमें आवृत्ति जैमिंग (Frequency Jamming), ब्लाइंडिंग लेजर (Blinding Lasers) या साइबर-हमले शामिल हैं।

इस मिसाइल का परीक्षण मार्च 2019 में मिशन शक्ति (Mission Shakti) के अंतर्गत किया गया था। वायु रक्षा सामरिक नियंत्रण रडार (ADTCR) के बारे में ADTCR का उपयोग वॉल्यूमेट्रिक सर्विलांस (Volumetric Surveillance),डिटेक्शन (Ditection), ट्रैकिंग और विभिन्न प्रकार के हवाई लक्ष्यों (मित्र/दुश्मन) की पहचान और कई कमांड पोस्ट तथा हथियार प्रणालियों के लिये प्राथमिकता वाले टारगेट डेटा के प्रसारण हेतु किया जाता है। यह बहुत छोटे लक्ष्यों और कम उड़ान वाले लक्ष्यों का पता लगाने में भी सक्षम है।

  • इंडियन डेटा रिले सिस्टम (IDRSS) नामक दो उपग्रहों वाली इस प्रणाली का उद्देश्य इसरो को अंतरिक्ष में उपग्रहों से संपर्क स्थापित करने में सहायता प्रदान करना है। 2000 किग्रा. भारवर्ग की इस प्रणाली को GSLV प्रक्षेपक द्वारा पृथ्वी की भू-स्थिर कक्षा (Geostationary Orbit-GEO) में लगभग 36000 किमी. दूर स्थापित किया जाएगा। IDRSS प्रणाली के अंतर्गत दो उपग्रहों को भू-स्थिर कक्षा में स्थापित किया जाएगा, जिसमें से पहले उपग्रह को वर्ष 2020 के अंत तक तथा दूसरे को वर्ष 2021 में अंतरिक्ष में भेजने की योजना है।

भू-स्थिर कक्षा में स्थित एक उपग्रह धरती के एक-तिहाई (1/3) क्षेत्र पर निगरानी करने में सक्षम होता है तथा इस कक्षा में तीन उपग्रह धरती के 100% क्षेत्र पर निगरानी की क्षमता प्रदान करते है। इंडियन डेटा रिले सैटेलाइट सिस्टम की ज़रूरत क्यों? वर्तमान में भू-स्थिर कक्षा में स्थित उपग्रहों से संपर्क व इन उपग्रहों की निगरानी में विभिन्न देशों में स्थित नियंत्रण केंद्रों की सहायता ली जाती है। इस प्रणाली के तहत 24 घंटों में किसी भी उपग्रह से अनेक प्रयासों के बाद कई टुकड़ों (discontinuous fragments) में औसतन 10-15 मिनट ही संपर्क हो पाता है। जबकि IDRSS द्वारा इन उपग्रहों से 24 घंटे लगातार संपर्क स्थापित किया जा सकेगा। यह प्रणाली इसरो को अंतरिक्ष प्रक्षेपणों की निगरानी करने में मदद के साथ इसरो की भविष्य की योजनाओं को नई शक्ति प्रदान करेगी। इस प्रणाली द्वारा पृथ्वी की निकटतम कक्षा (Lower Earth Orbit-LEO) के कार्यक्रमों जैसे-स्पेस डाॅकिंग (Space Docking), स्पेस स्टेशन तथा अन्य बड़े अभियानों जैसे- चंद्रयान, मंगल मिशन आदि में सहायता प्राप्त होगी। मानव मिशन के दौरान जब अंतरिक्षयान पृथ्वी की कक्षा में 400 किमी. की दूरी पर चक्कर लगाता है तो इस दौरान अंतरिक्षयान के लिये हर समय पृथ्वी पर किसी नियंत्रण केंद्र के संपर्क में रहना अनिवार्य होता है। ऐसे में IDRSS के अभाव में हमें कई अंतरिक्ष केंद्र बनाने पड़ेंगे या महत्त्वपूर्ण सूचनाओं के लिये अन्य देशों पर निर्भर रहना पड़ेगा। इस प्रणाली का पहला लाभ वर्ष 2022 के गगनयान अभियान के दौरान मिलेगा, परंतु इसरो के अनुसार, इस प्रणाली को गगनयान अभियान से पहले प्रयोग हेतु कार्यक्रमों में पूर्णरूप से सक्रिय करने की योजना है।

अमेरिका (USA) और रूस ने इस श्रेणी की प्रसारण उपग्रह प्रणाली के कार्यक्रमों की शुरुआत 1970-80 के दशक से ही कर दी थी और वर्तमान में कुछ देशों के पास आज इस प्रणाली के अंतर्गत लगभग 10 उपग्रह हैं। रूस ने इस तकनीकी का इस्तेमाल अपने अंतरिक्ष स्टेशन मीर (MIR) की निगरानी और संपर्क बनाये रखने तथा अन्य अंतरिक्ष कार्यक्रमों के लिये किया। मीर (MIR): यह वर्ष 1986 में सोवियत संघ द्वारा पृथ्वी की निचली कक्षा में भेजा गया एक स्पेस स्टेशन था। वर्ष 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद वर्ष 2001 में इस कार्यक्रम के बंद होने तक इसका संचालन रूस द्वारा किया गया।

अमेरिका ने इस तकनीकी की सहायता से ही अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन व हब्बल स्पेस टेलीस्कोप जैसे अभियानों में सफलता पाई। वर्तमान में अमेरिका तीसरी पीढ़ी की ट्रैकिंग एंड डेटा रिले सैटेलाइट (Tracking & Data Relay Satellites-TDRS) तैयार कर रहा है, जबकि रूस के पास सैटेलाइट डेटा रिले नेटवर्क (Satellite Data Relay Network) नामक प्रणाली है। यूरोप भी इस क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के लिये यूरोपियन डेटा रिले सिस्टम (European Data Relay System) बना रहा है तथा वर्तमान में चीन अपनी दूसरी पीढ़ी की टिआनलिआन-II सिरीज़ (Tianlian II series) पर काम कर रहा है।

  • इसरो ने कर्नाटक के चित्रदुर्ग ज़िले के चैलकेरे में मानव अंतरिक्ष उड़ान केंद्र (Human Space Flight Centre- HSFC) की स्थापना संबंधी योजना प्रस्तावित की है।

इस क्षेत्र में पहले से ही ISRO, रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) के उन्नत वैमानिकी परीक्षण रेंज, भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र और भारतीय विज्ञान संस्थान की कुछ सुविधाएँ मौजूद हैं। इस प्रकार इसे साइंस सिटी के रूप में भी जाना जाता है। इसके अलावा ISRO ने श्रीहरिकोटा स्पेसपोर्ट (Sriharikota Spaceport) में एक संगरोध सुविधा (Quarantine Facility) जोड़ने की भी योजना बनाई है। इसमें लोगों और वस्तुओं की आवाजाही पर प्रतिबंध है जिसका उद्देश्य बीमारी या कीटों के प्रसार को रोकना है। यहाँ अंतरिक्षयान में प्रवेश करने वाले अंतरिक्ष यात्री को रखा जाएगा।

वर्ष 2022 के गगनयान मिशन के लिये चार अंतरिक्ष यात्रियों का पहला समूह रूस में प्रशिक्षण के लिये गया है। भारत को इस प्रकार की अंतरिक्ष प्रशिक्षण सुविधाओं हेतु विदेश में बड़ी राशि का भुगतान करना पड़ता है।

चैलकेरे कर्नाटक के चित्रदुर्ग ज़िले में स्थित है। इसको तेल शहर (Oil City) कहा जाता है क्योंकि इसके आसपास कई खाद्य तेल मिलें हैं। चैलकेरे स्थानीय कुरुबा लोगों द्वारा बनाए गए कंबलों (बुने हुए कंबल) के लिये प्रसिद्ध है। इसे भारत के ‘दूसरे मुंबई’ के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि यह मुंबई के बाद खाद्य तेल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक/आपूर्तिकर्त्ता है।

  • इसरो चीफ के अनुसार चन्द्रयान-3 अभियान को 2021 तक एवं गगनयान अभियान को 2022 तक पूरा होने की संभावना है। गगनयान के संबंध में इसरो चीफ ने निम्नलिखित जानकारियाँ प्रदान की हैं-

भारतीय वायु सेना (Indian Air Force- IAF) के चार पायलट जनवरी महीने में रूस के लिये रवाना होंगे, जहाँ वे गगनयान के अंतरिक्ष यात्रियों के रूप में प्रशिक्षण प्राप्त करेंगे। उन्हें फिटनेस और उनके धैर्य परीक्षण के बाद इस मिशन के लिये चुना गया है। उनका प्रारंभिक परीक्षण IAF के इंस्टीट्यूट ऑफ एयरोस्पेस मेडिसिन, बंगलूरू और रूस में किया गया था। चारों अंतरिक्ष यात्री जनवरी के तीसरे सप्ताह में मास्को के यूरी गेगरिन कॉस्मोनॉट सेंटर (Yuri Gagarin Cosmonaut Centre) में प्रशिक्षण के लिये रवाना होंगे। इसरो के अनुसार, ह्यूमनॉइड (Humanoid) के साथ गगनयान की दो पूर्व उड़ानों में से पहली को इस साल के अंत में लॉन्च किया जाएगा।

  • तमिलनाडु सरकार ने इसरो के दूसरे लॉन्च पोर्ट के लिये थूथुकुडी (Thoothukudi) ज़िले में 2,300 एकड़ भूमि के अधिग्रहण का कार्य शुरू कर दिया है। वर्तमान में उपग्रहों को आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा प्रक्षेपण केंद्र से लॉन्च किया जाता है। नव निर्मित लॉन्च पोर्ट से मुख्य रूप से छोटे उपग्रह लॉन्च वाहन (Small Satellite Launch Vehicle- SSLV) प्रक्षेपित किये जाएंगे। SSLV अंतरिक्ष में 500 किलोग्राम तक का पेलोड ले जाने में सक्षम है। SSLV और लॉन्च पोर्ट दोनों अभी विकासाधीन है।
  • चंद्रयान- 3; चंद्रयान-2 का उत्तराधिकारी है और यह चंद्रमा की सतह पर सॉफ्ट लैंडिंग का प्रयास करेगा। चंद्रयान-2 के विक्रम लैंडर की हार्ड लैंडिंग के कारण यह चंद्रमा की सतह पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। चंद्रयान- 3 में लैंडर और रोवर के साथ एक प्रोपल्शन मॉड्यूल भी होगा। चंद्रयान- 3 से संबंधित टीम का गठन किया जा चुका है और इस मिशन पर सुचारु रूप से कार्य प्रारंभ है। कुल लागत 600 करोड़ रुपए से अधिक होगी। जबकि चंद्रयान-2 की कुल लागत लगभग 1000 करोड़ रुपए थी। चंद्रयान -3 मिशन में लैंडर, रोवर, और प्रॉपल्शन मॉड्यूल के लिये 250 करोड़ रुपए खर्च होंगे, जबकि मिशन के लॉन्च पर 365 करोड़ रुपए खर्च होंगे। इस प्रकार इस मिशन की कुल लागत 615 करोड़ रुपए होगी।

गगनयान की घोषणा भारत के प्रधानमंत्री द्वारा अगस्त 2018 में की गई थी। इस मिशन को 2022 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है तथा इस मिशन की लागत लगभग 1000 करोड़ रुपए है। गगनयान भारत का पहला मानव अंतरिक्ष कार्यक्रम है। इस मिशन को 400 कि.मी. की कक्षा में 3-7 क्रू सदस्यों को अंतरिक्ष में 3-7 दिन बिताने के लिये डिज़ाइन किया गया है।

  • ISRO एक नए भू प्रेक्षण (Earth Observation- EO) उपग्रह GISAT-1 को मार्च के पहले सप्ताह में लॉन्च करने की तैयारी कर रहा है। वर्ष 2019-20 के लिये भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की नवीनतम वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2020-21 के दौरान इसरो द्वारा 10 भू प्रेक्षण (Earth Observation) उपग्रहों को भेजे जाने की योजना है।

इसरो की वार्षिक योजना के अंतर्गत 36 मिशनों का उल्लेख किया गया है जिसमें एक वर्ष के दौरान उपग्रह और उनके लॉन्चर दोनों के विकास एवं प्रक्षेपण को शामिल किया गया है। चालू वित्त वर्ष 2019-20 में 17 मिशनों को शुरू करने की योजना बनाई गई है और इनमें से 6 मिशनों को 31 मार्च 2020 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। इसरो को हाल ही में अगले वित्त वर्ष के लिये लगभग 13,480 करोड़ रुपए का बजट आवंटित किया गया है।

GISAT-1 एक जियो इमेजिंग सैटेलाइट जो 36,000 किमी. दूर स्थित भूस्थैतिक कक्षा में स्थापित किये जाने वाले दो योजनाबद्ध भारतीय EO अंतरिक्षयानों में से पहला होगा। इसे एक निश्चित स्थान पर स्थापित किया जाएगा जिससे यह हर समय भारतीय महाद्वीप पर नज़र रख सकेगा। अभी तक सभी भारतीय पृथ्वी अवलोकन उपग्रहों को केवल 600 किमी. की दूरी की कक्षा में स्थापित किया जाता था, ये उपग्रह ध्रुव-से-ध्रुव के बीच चक्कर लगाते थे। इसे GSLV MK II के माध्यम से प्रक्षेपित किया जाएगा।

GISAT- 1 में पाँच प्रकार के मल्टीस्पेक्ट्रल कैमरे होंगे जिनकी सहायता से देश के विभिन्न क्षेत्रों की रियल टाइम इमेज प्राप्त की जा सकती है। साथ ही इस उपग्रह की सहायता से देश की भौगोलिक स्थिति में किसी भी प्रकार के परिवर्तन की निगरानी भी की जा सकती है। भू प्रेक्षण उपग्रह का उपयोग मुख्य रूप से भूमि एवं कृषि संबंधी निगरानी के लिये किया जाता है किंतु सेना के लिये सीमा की निगरानी करने हेतु इसके द्वारा ली गई इमेजेस का भी बहुत महत्त्वपूर्ण उपयोग है। RISAT जैसे उपग्रह, जो सिंथेटिक एपर्चर रडार से लैस होते हैं, सुरक्षा एजेंसियों को 24-घंटे सभी प्रकार की जानकारी प्रदान करते हैं।

GISAT- 1 के अलावा अंतरिक्ष एजेंसी एकल PSLV लॉन्चर पर एक त्रिगुट के रूप में उच्च रिज़ॉल्यूशन HRSAT की एक नई शृंखला लॉन्च करने की योजना बना रही है।

आगामी EO उपग्रहों में रडार इमेजिंग उपग्रह RISAT-2BR2, RISAT- 1A और 2A, ओशनसैट -3 एवं रिसोर्ससैट -3 / 3 एस शामिल हैं। RISAT-2BR2 अपने पूर्ववर्तियों RISAT-2B और RISAT-2B1 के साथ एक ट्रायड बेड़ा बनाएगा जो लगभग 120 डिग्री के आसपास घूमेंगे तथा वे अंतरिक्ष से मौसम, दिन/रात इमेजिंग सेवाएँ प्रदान करने के लिये महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में अवलोकन की आवृत्ति में वृद्धि करेंगे।

  • नासा के सूर्य मिशन पार्कर सोलर प्रोब (Parker Solar Probe) से प्राप्त आँकड़ों के आकलन से संबंधित जानकारी को प्रकाशित किया गया। इसरो अगले वर्ष चंद्रयान- 3 तथा वर्ष 2022 तक अंतरिक्ष में मानव मिशन भेजने की तैयारी के साथ सूर्य से संबंधित परीक्षण के लिये आदित्य एल-1 मिशन को भेजने की तैयारी कर रहा है।

आदित्य एल-1 मिशन के वर्ष 2020 में शुरू होने की उम्मीद है यह सूर्य का नज़दीक से निरीक्षण करेगा और इसके वातावरण तथा चुंबकीय क्षेत्र के बारे में अध्ययन करेगा। ISRO ने आदित्य L-1 को 400 किलो-वर्ग के उपग्रह के रूप में वर्गीकृत किया है जिसे ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान- XL (PSLV- XL) से लॉन्च किया जाएगा। यह मिशन भारतीय खगोल संस्थान (Indian Institute of Astrophysics- IIA), बंगलूरू, इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स (Inter University Centre for Astronomy and Astrophysics- IUCAA), पुणे और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस , एजुकेशन एंड रिसर्च (Indian Institute of Science, Education and Research- IISER), कोलकाता के साथ-साथ ISRO की विभिन्न प्रयोगशालाओं के सहयोग से संचालित होगा।

सितंबर 2015 में एस्ट्रोसैट के बाद आदित्य एल-1 इसरो का दूसरा अंतरिक्ष-आधारित खगोल विज्ञान मिशन होगा। इस मिशन के अंतर्गत अंतरिक्ष-आधारित वेधशाला में सूर्य के कोरोना, सौर उत्सर्जन, सौर हवाओं और फ्लेयर्स तथा कोरोनल मास इजेक्शन (Coronal Mass Ejections- CME) का अध्ययन करने के लिये बोर्ड पर 7 पेलोड (उपकरण) होंगे।

आदित्य एल- 1 को सूर्य एवं पृथ्वी के बीच स्थित एल-1 लग्रांज बिंदु के निकट स्थापित किया जाएगा। सूर्य का अध्ययन क्यों महत्त्वपूर्ण है? पृथ्वी सहित हर ग्रह और सौरमंडल से परे एक्सोप्लैनेट्स विकसित होते हैं और यह विकास अपने मूल तारे द्वारा नियंत्रित होता है। सौर मौसम और वातावरण जो सूरज के अंदर और आसपास होने वाली प्रक्रियाओं से निर्धारित होता है, पूरे सोलर सिस्टम को प्रभावित करता है। सोलर सिस्टम पर पड़ने वाले प्रभाव उपग्रह की कक्षाओं को बदल सकते हैं या उनके जीवन को बाधित कर सकते हैं या पृथ्वी पर इलेक्ट्रॉनिक संचार को बाधित कर सकते हैं या अन्य गड़बड़ी पैदा कर सकते हैं। इसलिये अंतरिक्ष के मौसम को समझने के लिये सौर घटनाओं का ज्ञान होना महत्त्वपूर्ण है। पृथ्वी पर आने वाले तूफानों के बारे में जानने एवं उन्हें ट्रैक करने तथा उनके प्रभाव की भविष्यवाणी करने के लिये निरंतर सौर अवलोकन की आवश्यकता होती है, इसलिये सूर्य का अध्ययन किया जाना महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

  • 22 जनवरी 2020 को बंगलूरू में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO), इंटरनेशनल एकेडमी ऑफ एस्ट्रोनॉटिक्स (IAA) और एस्ट्रोनॉटिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया (ASI) के पहले सम्मेलन में इसरो द्वारा मानवयुक्त गगनयान मिशन हेतु एक अर्द्ध-मानवीय महिला रोबोट ‘व्योममित्र’ को लॉन्च किया।
27 मार्च 2019 को भारत ने मिशन शक्ति को सफलतापूर्वक अंजाम देते हुए एंटी-सैटेलाइट मिसाइल (A-SAT) से तीन मिनट में एक लाइव भारतीय सैटेलाइट को सफलतापूर्वक नष्ट कर दिया।

11 अप्रैल 2018 को इसरो ने नेवीगेशन सैटेलाइट IRNSS लॉन्च किया। यह स्वदेशी तकनीक से निर्मित नेवीगेशन सैटेलाइट है। इसके साथ ही भारत के पास अब अमेरिका के जीपीएस सिस्टम की तरह अपना नेवीगेशन सिस्टम है।

5 जून 2017 को इसरो ने देश का सबसे भारी रॉकेट GSLV MK 3 लॉन्च किया। यह अपने साथ 3,136 किग्रा का सैटेलाइट जीसैट-19 साथ लेकर गया। इससे पहले 2,300 किग्रा से भारी सैटेलाइटों के प्रक्षेपण के लिये विदेशी प्रक्षेपकों पर निर्भर रहना पड़ता था।

14 फरवरी 2017 को इसरो ने पीएसएलवी के जरिये एक साथ 104 सैटेलाइट लॉन्च कर विश्व में कीर्तिमान स्थापित किया। इससे पहले इसरो ने वर्ष 2016 में एकसाथ 20 सैटेलाइट प्रक्षेपित किया था जबकि विश्व में सबसे अधिक रूस ने वर्ष 2014 में 37 सैटेलाइट लॉन्च कर रिकार्ड बनाया था। इस अभियान में भेजे गए 104 उपग्रहों में से तीन भारत के थे और शेष 101 उपग्रह इज़राइल, कज़ाखस्तान, नीदरलैंड, स्विटज़रलैंड और संयुक्त राज्य अमेरिका के थे। 25 सितंबर 2014 को भारत ने मंगल ग्रह की कक्षा में पहले ही प्रयास में सफलतापूर्वक मंगलयान स्थापित किया। इसके अलावा यह अभियान इतना सस्ता था कि अंतरिक्ष मिशन की पृष्ठभूमि पर बनी एक फिल्म ग्रैविटी (Graviti) का बजट भी भारतीय मिशन से महँगा था। भारतीय मंगलयान मिशन का बजट करीब 460 करोड़ रुपये (6.70 करोड़ डॉलर) था जबकि वर्ष 2013 में आयी ग्रैविटी फिल्म करीब 690 करोड़ रुपये (10 करोड़ डॉलर) में बनी थी। 22 अक्टूबर 2008 को इसरो ने देश का पहला चंद्र मिशन चंद्रयान-1 सफलतापूर्वक लॉन्च किया था।

  • भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन(ISRO) और परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा डॉ. विक्रम साराभाई की 100वीं जयंती के उपलक्ष्य में राष्ट्रीय स्तर पर एक वर्ष तक चलने वाले कार्यक्रम के तहत विभिन्न आयोजन किये जा रहे हैं। यह उत्सव 12 अगस्त, 2019 को अहमदाबाद में शुरू हुआ था, जहाँ 12 अगस्त, 1919 को साराभाई का जन्म हुआ था।

डॉ. विक्रम साराभाई ने गुजरात के अहमदाबाद में भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला (Physical Research Laboratory- PRL) की स्थापना में अहम भूमिका निभाई थी। इस प्रयोगशाला की स्थापना वर्ष 1947 में की गई थी। इस समारोह का समापन 12 अगस्त, 2020 को केरल के तिरुवनंतपुरम में होगा जहाँ उन्होंने भारत का पहला रॉकेट लॉन्चिंग स्टेशन स्थापित किया था। इसरो ने अंतरिक्ष विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं अनुसंधान के क्षेत्र में सक्रिय योगदान देने वाले पत्रकारों की पहचान कर उन्हें पुरस्कृत करने के लिये ‘विक्रम साराभाई पत्रकारिता पुरस्कार’ की घोषणा की है।