समसामयिकी 2020/संस्कृति

विकिपुस्तक से
  • पंजाब राज्य के पटियाला में निहंग (Nihang) सिखों के एक समूह ने पंजाब पुलिस के एक अधिकारी पर हमला किया। निहंग सिख योद्धाओं का एक वर्ग है जो नीले वस्त्र, तलवार एवं भाले जैसे पुरातन हथियारों तथा स्टील की खूंटियों से सजाई गई पगड़ी धारण करते हैं।

मूल रूप से ‘निहंग’ शब्द संस्कृत भाषा के ‘निःशांक’ से उपजा है जिसका अर्थ भय रहित, निष्कलंक, पवित्र, ज़िम्मेदार और सांसारिक लाभ एवं आराम के प्रति उदासीन होता है। माना जाता है कि वर्ष 1699 में गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा के निर्माण के लिये निहंग समूह का गठन किया गया था। ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्नल जेम्स स्किनर (1778-1841) के अनुसार, खालसा सिखों को दो समूहों में विभाजित किया गया था। पहले वे जो नीले पोशाक पहनते हैं जो गुरु गोबिंद सिंह युद्ध के समय पहनते थे। दूसरे वे जो किसी भी रंग की पोशाक पहनते थे। ये दोनों समूह योद्धाओं की जीवनशैली का अनुसरण करते थे। निहंग (जो नीले वस्त्र धारण करते हैं) सख्ती से खालसा आचार संहिता का पालन करते हैं। निहंग सांसारिक गुरु के प्रति कोई निष्ठा नहीं रखते हैं। वे अपने गुरुद्वारों के ऊपर भगवा रंग के झंडे के बजाय नीले रंग का झंडा (नीला निशान साहिब) फहराते हैं। ऐतिहासिक संदर्भ: वर्ष 1715 के बाद जब मुगलों द्वारा बड़े पैमाने पर सिखों की हत्याएँ की गई तथा अफगान आक्रमणकारी अहमद शाह दुर्रानी (1748-65) के हमले के दौरान सिख पंथ की रक्षा करने में निहंगों की प्रमुख भूमिका थी। निहंगों ने अमृतसर के अकाल तख्त पर सिखों के धार्मिक मामलों को भी नियंत्रित किया। वे स्वयं को किसी भी सिख प्रमुख के अधीनस्थ नहीं मानते थे और इस तरह उन्होंने अपना स्वतंत्र अस्तित्त्व बनाए रखा। अमृतसर के अकाल तख्त में उन्होंने सिखों की भव्य परिषद (सरबत खालसा) का आयोजन किया और प्रस्ताव (गुरमाता) पारित किया। जून 1984 में ऑपरेशन ब्लूस्टार (Operation Bluestar) के दौरान कुछ निहंगों जैसे- अजीत सिंह पोहला ने आतंकवादियों को खत्म करने के लिये पंजाब पुलिस का साथ दिया था।

  • मिस्र के पुरावशेष मंत्रालय ने मिन्या गवर्नोरेट (Minya Governorate) में एक पुरातात्त्विक स्थल पर प्राचीन महायाजकों (Ancient High Priests) की समाधि और आकाश देवता होरस (Horus) को समर्पित पत्थरों से निर्मित एक कब्र की खोज की।

इस खुदाई में 16 समाधियों सहित पत्थरों से निर्मित 20कब्रें मिली हैं, अल-घोरिफा (Al-Ghoreifa) पुरास्थल जो काहिरा के दक्षिण में 300 किलोमीटर दूर स्थित है, पर कब्रों के बारे में चित्रलिपि में उत्कीर्ण है। साझा कब्रें देवता जेहुत्य (Djehuty) के महायाजकों एवं वरिष्ठ अधिकारियों को समर्पित थी जो लगभग 3000 वर्ष पहले की हैं। ये वरिष्ठ अधिकारी 15वें नोम (प्राचीन मिस्र के 36 प्रांतीय डिविज़न में से एक) से संबंधित थे, यह प्रांतीय डिविज़न एक गवर्नर द्वारा शासित था। पत्थरों से बनी एक कब्र (Sarcophagi) आइसिस (Isis) और ओसिरिस (Osiris) के पुत्र होरस को समर्पित है तथा इसमें पंखों को फैलाते हुए देवी नट की मूर्ति भी मिली है। मिस्र के पुरावशेष मंत्रालय ने 10,000 नीली और हरी उशाब्ती (मूर्ति) एवं 700 ताबीज़ों की भी खोज की है जिनमें कुछ शुद्ध सोने से बनी हैं। इनमें कुछ मूर्तियाँ दुपट्टे की तरह का परिधान धारण किये हुए हैं और कुछ मूर्तियों में साँप छत्र को भी दर्शाया गया है।

चित्रकला[सम्पादन]

  • प्रसिद्ध भारतीय चित्रकार राजा रवि वर्मा (1848-1906) की जयंती 29 अप्रैल को मनाई जाती है जिन्हें भारतीय चित्रकला में प्रकृतिवाद की पश्चिमी संकल्पना तथा हिंदू देवी-देवताओं के शास्त्रीय प्रतिनिधित्व के लिये याद किया जाता है। त्रावणकोर राजघराने से संबंधित राजा रवि वर्मा का जन्म वर्ष 1848 में किलिमन्नूर गाँव (केरल) में हुआ था। 14 वर्ष की उम्र में त्रावणकोर के तत्कालीन शासक अयिल्यम थिरुनल (Ayilyam Thirunal) का संरक्षण प्राप्त किया और शाही चित्रकार रामास्वामी नायडू से जलरंगों का तथा बाद में ब्रिटिश चित्रकार थियोडोर जेन्सेन (Theodore Jensen) से ऑयल पेंटिंग का प्रशिक्षण प्राप्त किया।

त्रावणकोर के अलावा इन्होंने बड़ौदा के गायकवाड़ के लिये भी काम किया। इन्होने प्रतिकृति या पोट्रेट (Portrait) एवं मानवीय आकृतियों वाले चित्र या लैंडस्केप दोनों चित्रों पर काम किया और इन्हें ऑयल पेंट का उपयोग करने वाले पहले भारतीय कलाकारों में से एक माना जाता है। हिंदू पौराणिक आकृतियों को चित्रित करने के अलावा राजा रवि वर्मा ने कई भारतीयों के साथ-साथ यूरोपीयलोगों को भी चित्रित किया। इन्हें लिथोग्राफिक प्रेस (Lithographic Press) पर अपने काम के पुनरुत्पादन में महारत हासिल करने के लिये भी जाना जाता है जिसके माध्यम से उनके चित्रों को विश्व प्रसिद्धि मिली। उन्हें भारत में चित्रकला के यूरोपियनकृत स्कूल (Europeanised School of Painting) का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधि माना जाता है। उनके प्रसिद्ध चित्रों में चाँदनी रात में नारी, सुकेशी, श्री कृष्ण, बलराम, रावण और सीता, शांतनु एवं मत्स्यगंधा, शकुंतला का पत्र लेखन, इंद्रजीत की विजय, हरिश्चंद्र, फल बेचने वाली, दमयंती आदि शामिल हैं। पुरस्कार/सम्मान: इनके द्वारा वर्ष 1873 में बनाई गई पेंटिंग ‘अपने बालों को सजाती हुई नायर स्त्री’ (Nair Lady Adorning Her Hair) ने मद्रास प्रेसीडेंसी एवं वियना कला सम्मेलन में प्रस्तुत किये जाने पर प्रथम पुरस्कार जीता। वर्ष 1904 में ब्रिटिश सरकार की ओर से वायसराय लॉर्ड कर्जन ने राजा रवि वर्मा को कैसर-ए-हिंद गोल्ड मेडल (Kaiser-i-Hind Gold Medal) से सम्मानित किया। राजा रवि वर्मा के सम्मान में वर्ष 2013 में बुध ग्रह पर एक क्रेटर(गड्ढा) उनके नाम से नामित किया गया था।

  • COVID-19 महामारी के मद्देनज़र बिहार के विख्यात मधुबनी (Madhubani) कलाकार रेमंत कुमार मिश्रा मास्क पर हाथ से मधुबनी रूपांकनों का चित्रण करके ‘मास्क मैन’ के रूप में प्रसिद्ध हुए हैं।

मधुबनी (Madhubani) कला जिसे ‘मिथिला पेंटिंग’ भी कहा जाता है। यह बिहार के मिथिलांचल इलाके मधुबनी, दरभंगा और नेपाल के कुछ इलाकों में प्रचलित कला शैली है। इसे प्रकाश में लाने का श्रेय डब्ल्यू जी आर्चर (W.G. Archer) को जाता है जिन्होंने वर्ष 1934 में बिहार में भूकंप निरीक्षण के दौरान इस शैली को देखा था। मधुबनी कला की विशेषताएँ: इस शैली के विषय मुख्यत: धार्मिक हैं और प्राय: इनमें तीक्ष्ण रंगों का प्रयोग किया जाता है। इस शैली में व्यापक रूप से चित्रित विषय एवं डिज़ाइन हिंदू देवताओं के हैं जैसे- कृष्ण, राम, शिव, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, सूर्य एवं चंद्रमा, तुलसी का पौधा, शादी के दृश्य, सामाजिक घटनाएँ आदि। इस पेंटिंग की शैली में ज्यामितीय पैटर्न शामिल हैं। इसमें मुखाकृतियों की आँखें काफी बड़ी बनाई जाती हैं और चित्र में खाली जगह भरने हेतु फूल-पत्तियाँ, चिह्न आदि बनाए जाते हैं। मधुबनी (Madhubani) कलाकार: चित्रकला की इस शैली को पारंपरिक रूप से क्षेत्र की महिलाओं द्वारा बनाया जाता है। हालाँकि वर्तमान में मांग को पूरा करने के लिये इसमें पुरुष भी शामिल होते हैं। मधुबनी पेंटिंग्स की प्रसिद्ध महिला चित्रकार हैं- सीता देवी, गोदावरी दत्त, भारती दयाल, बुला देवी आदि।

हस्तकला[सम्पादन]

  • कला कुंभ (KALA KUMBH) हस्तशिल्प प्रदर्शनी का आयोजन भारत सरकार का कपड़ा मंत्रालय भौगोलिक संकेत (GI) शिल्प को बढ़ावा देने के लिये कर रहा है।

इसे भौगोलिक संकेत (GI) शिल्प एवं भारत की विरासत को बढ़ावा देने के उद्देश्य से आयोजित किया जा रहा है। एक्सपोर्ट प्रोमोशन काउंसिल फॉर हैंडीक्राफ्ट्स (EPCH) द्वारा प्रायोजित प्रदर्शनियाँ विकास आयुक्त (हस्तशिल्प) कार्यालय के माध्यम से आयोजित की जा रही हैं। ये प्रदर्शनियाँ बंगलूरू, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई जैसे प्रमुख शहरों में आयोजित की जाती हैं। ये प्रदर्शनियाँ 14-23 फरवरी, 2020 तक बंगलूरू और मुंबई में आयोजित की जाएंगी और मार्च 2020 में इनका आयोजन कोलकाता एवं चेन्नई में भी किया जाएगा।

  • असम के खिलोनजिआ(Khilonjia of Assam)

असम के नृजातीय समुदाय,गैर-आदिवासी समुदायों को राज्य के खिलोनजिआ (Khilonjia) समूह में शामिल करने का विरोध कर रहे हैं। वर्ष 1985 के असम समझौते (Assam Accord) के खंड 6 को लागू करने के लिये खिलोनजिआ कहलाने वाले समुदायों को सूचीबद्ध करते हुए विपक्ष ने एक रिपोर्ट पेश की। वर्ष 1985 के असम समझौते का खंड 6 असम राज्य में केवल स्थानीय (Indigenous) लोगों के लिये भूमि एवं संवैधानिक अधिकारों को निर्धारित करता है। वर्तमान में खिलोनजिआ समूह में बोडो ,देउरी,दिमासा,रभा,सोनोवाल कचरी, थेंगल कचरी और तिवा शामिल हैं।

  • खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग ने 3 जनवरी,2020 को गुजरात के सुरेंद्रनगर में प्रथम सिल्क प्रोसेसिंग प्लांट का उद्घाटन किया।

इस प्लांट से रेशम के धागों की उत्पादन लागत में कमी लाने के साथ-साथ गुजराती पटोला साडि़यों के लिये स्थानीय स्तर पर कच्चे माल की उपलब्धता एवं बिक्री बढ़ाने में सहायता मिलेगी। खादी संस्थान द्वारा 75 लाख रुपए की लागत से स्थापित इस संस्थान में KVIC ने 60 लाख रुपए का योगदान किया है। इस यूनिट में 90 स्थानीय महिलाएँ कार्यरत हैं। गुजरात की ट्रेडमार्क साड़ी ‘पटोला’ के निर्माण में प्रयुक्त होने वाला कच्‍चा माल (रेशम के धागे) कर्नाटक अथवा पश्चिम बंगाल से खरीदा जाता है,जहाँ सिल्‍क प्रोसेसिंग इकाइयाँ (यूनिट) अवस्थित हैं। इसी कारण फैब्रिक की लागत कई गुना बढ़ जाती है। अंतत:साड़ी की किमत काफी बढ़ जाती है। कोकून को कर्नाटक एवं पश्चिम बंगाल से लाया जाएगा और रेशम के धागों की प्रोसेसिंग स्‍थानीय स्‍तर पर की जाएगी, जिससे उत्‍पादन लागत घट जाएगी और साथ ही प्रसिद्ध गुजराती पटोला साडि़यों की बिक्री को काफी बढ़ावा मिलेगा।

प्रमुख उद्देश्य:-सुरेंद्रनगर, गुजरात का एक पिछड़ा ज़िला है, जहाँ KVIC ने सिल्‍क प्रोसेसिंग प्‍लांट की स्‍थापना के लिये 60 लाख रुपए का निवेश किया है।

इसका मुख्‍य उद्देश्‍य निकटवर्ती क्षेत्र में पटोला साड़ियाँ तैयार करने वालों को किफायती दर पर रेशम आसानी से उपलब्‍ध कराते हुए पटोला साड़ियों की बिक्री को बढ़ावा देना और लोगों की आजीविका का मार्ग प्रशस्‍त करना है। परंपरागत रूप से भारत के हर क्षेत्र में सिल्‍क की साड़ियों की अनूठी बुनाई होती है। उल्‍लेखनीय है कि पटोला सिल्‍क साड़ी को भी शीर्ष पाँच सिल्‍क बुनाई में शुमार किया जाता है।

संगीतकला[सम्पादन]

हाल ही में एस. सौम्या (S.Sowmya) को संगीत कलानिधि पुरस्कार से सम्मानित किया गया । मद्रास संगीत अकादमी द्वारा प्रदान किया जानेवाला यह पुरस्कार कर्नाटक संगीत के क्षेत्र में सर्वोच्च पुरस्कार माना जाता है। इस पुरस्कार में एक स्वर्ण पदक और एक बिरुदु पत्र (उद्धरण) दिया जाता है। मद्रास संगीत अकादमी (Madras Music Academy): अखिल भारतीय काॅन्ग्रेस के मद्रास अधिवेशन (वर्ष 1927) के साथ संगीत सम्मेलन का आयोजन हुआ था जिसमें मद्रास संगीत अकादमी का प्रस्ताव रखा गया था। इस प्रकार यह अखिल भारतीय काॅन्ग्रेस के मद्रास सत्र की एक शाखा है। यह अकादमी कर्नाटक संगीत को बढ़ावा देने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कर्नाटक संगीत (Carnatic Music): कर्नाटक संगीत मुख्य रुप से दक्षिणी भारत के आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु से जुड़ा हुआ है किंतु इसका अभ्यास श्रीलंका में भी किया जाता है। यह भारतीय शास्त्रीय संगीत की दो मुख्य शैलियों में से एक है जो प्राचीन हिंदू परंपराओं से विकसित हुई है। भारतीय शास्त्रीय संगीत की दूसरी शैली हिंदुस्तानी संगीत है जो फारसी और इस्लामी प्रभावों के कारण उत्तर भारत में विकसित हुई है।

मार्शल आर्ट[सम्पादन]

सिख समुदाय के लोगों ने बाबा दीप सिंह की 338वीं जयंती के उपलक्ष्य में गतका (Gatka) का प्रदर्शन किया। यह सिख धर्म से जुड़ा एक पारंपरिक मार्शल आर्ट है। पंजाबी नाम ‘गतका’ इसमें इस्तेमाल की जाने वाली लकड़ी की छड़ी को संदर्भित करता है। यह युद्ध-प्रशिक्षण का एक पारंपरिक दक्षिण एशियाई रूप है जिसमें तलवारों का उपयोग करने से पहले लकड़ी के डंडे से प्रशिक्षण लिया जाता है। गतका का अभ्यास खेल (खेला) या अनुष्ठान (रश्मि) के रूप में किया जाता है। यह खेल दो लोगों द्वारा लकड़ी की लाठी से खेला जाता है जिन्हें गतका कहा जाता है। इस खेल में लाठी के साथ ढाल का भी प्रयोग किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि छठे सिख गुरु हरगोबिंद ने मुगल काल के दौरान आत्मरक्षा के लिये ’कृपाण’ को अपनाया था और दसवें सिख गुरु गोबिंद सिंह ने सभी के लिये आत्मरक्षा हेतु हथियारों के इस्तेमाल को अनिवार्य कर दिया था। अन्य राज्यों में पारंपरिक मार्शल आर्ट: क्रम संख्या राज्य मार्शल आर्ट 1. मणिपुर हुयेन लंग्लों (Huyen langlon), मुकना (Mukna) 2. केरल कलारिपयट्टु (Kalaripayattu) 3. असम खोमलेने (Khomlainai) (बोडो कुश्ती) 4. महाराष्ट्र मर्दानी 5. तमिलनाडु सिलांबम (Silambam)

नृत्यकला[सम्पादन]

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में आधिकारिक सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान कत्थक कलाकार मंजरी चतुर्वेदी को कव्वाली (Qawwali) के साथ कत्थक (Kathak) का प्रदर्शन करने से रोक दिया गया।

मंजरी चतुर्वेदी मशहूर सूफी व कत्थक नृत्यांगना हैं। इनका ताल्लुक लखनऊ घराने से है जो देश भर में गंगा-जमुनी तहजीब के लिये जाना जाता है। कव्वाली: कव्वाली सूफी भक्ति संगीत का एक रूप है अर्थात कव्वाली सूफियों द्वारा भगवान से आध्यात्मिक निकटता प्रदर्शित करने के लिये गाया जाने वाला एक संगीत है। माना जाता है कि कव्वाली की उत्पत्ति 8वीं शताब्दी के आसपास फारस में हुई किंतु कव्वाली मूल रूप से 11वीं शताब्दी में ‘समा’ (जो एक आध्यात्मिक संगीत कार्यक्रम है) की परंपरा से शुरू हुई और यह भारतीय उपमहाद्वीप, तुर्की तथा उज़्बेकिस्तान में विस्तारित हो गई। भारतीय उपमहाद्वीप में कव्वाली एक लोकप्रिय सूफी भक्ति संगीत है और यहाँ कव्वाली गीत ज़्यादातर पंजाबी और उर्दू भाषा में गाए जाते हैं। अमीर खुसरो भारतीय इतिहास के मध्यकालीन युग के प्रसिद्ध सूफी संत, कवि तथा संगीतज्ञ थे। संगीत के क्षेत्र में खुसरो ने गज़ल, कव्वाली तथा तराने का श्री गणेश किया। कत्थक: कत्थक उत्तर प्रदेश की ब्रजभूमि की रासलीला परंपरा से जुड़ा हुआ है। इसमें पौराणिक कथाओं के साथ ही ईरानी एवं उर्दू कविता से ली गई विषय-वस्तुओं के नाट्य रूप का प्रस्तुतीकरण किया जाता है। लखनऊ घराना: लखनऊ घराना भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैली कत्थक के कलाकारों से जुड़ा प्रसिद्ध घराना है। इसका उदय अवध के नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में हुआ था। लखनऊ घराने के नृत्य पर मुगल व ईरानी सभ्यता के प्रभाव के कारण यहाँ के नृत्य में श्रृंगारिकता के साथ-साथ अभिनय पक्ष पर भी विशेष ध्यान दिया गया। वर्तमान में पंडित बिरजू महाराज इस घराने के मुख्य प्रतिनिधि माने जाते हैं।

  • COVID-19 महामारी के दौरान, ‘ताल-मद्दले’ जो कि यक्षगान रंगमंच की एक पारंपरिक कला का प्रदर्शन भी वर्चुअल रूप से किया जाने लगा है। ताल मद्दले, में कलाकार किसी भी वेशभूषा में मंच पर एक स्थान पर बैठ कर चुने गए कथानक के आधार पर अपनी वाक् कला का प्रदर्शन करता है।

यह यक्षगान का एक पारंपरिक कला रूप तो है लेकिन इसमें नृत्य या विशेष वेशभूषा के बिना शब्द बोले जाते हैं। जबकि, यक्षगान में प्रदर्शन के दौरान कलाकार को विशेष वेशभूषा धारण करनी होती है तथा नृत्य अभिनय का प्रदर्शन करना होता है। कला का यह रूप दक्षिण भारत के कर्नाटक तथा केरल के करावली एवं मलनाड क्षेत्रों में प्रचलित है।

  • यक्षगान समिति द्वारा 60वें वार्षिक यक्षगान (60th Annual Yakshagana) का आयोजन कर्नाटक के पद्मानुर गाँव में किया गया। यक्षगान समिति को आधिकारिक तौर पर सार्वजनिक यक्षगान बायलता समिति के रूप में जाना जाता है और इसे वर्ष 1959 में स्थापित किया गया था।

यह एक बहु-धार्मिक समिति है जिसमें हिंदू,ईसाई और मुस्लिम शामिल हैं। यक्षगान (Yakshagana)कर्नाटक के तटीय क्षेत्र में किया जाने वाला यह प्रसिद्ध लोकनाट्य है। यक्ष का शाब्दिक अर्थ है- यक्ष के गीत। कर्नाटक में यक्षगान की परंपरा लगभग 800 वर्ष पुरानी मानी जाती है। इसमें संगीत की अपनी शैली होती है जो भारतीय शास्त्रीय संगीत ‘कर्नाटक’ और ‘हिन्दुस्तानी’ शैली दोनों से अलग है। यह संगीत,नृत्य,भाषण और वेशभूषा का एक समृद्ध कलात्मक मिश्रण है,इस कला में संगीत नाटक के साथ-साथ नैतिक शिक्षा और जन मनोरंजन जैसी विशेषताओं को भी महत्त्व दिया जाता है। यक्षगान की कई सामानांतर शैलियाँ हैं जिनकी प्रस्तुति आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में की जाती है।

  • 3 जनवरी,2020 को मद्रास संगीत अकादमी में शुरू हुए 14वें नृत्य महोत्सव में प्रसिद्ध भरतनाट्यम नृत्यांगना प्रियदर्शनी गोविंद को नृत्य कलानिधि पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

भरतनाट्यम भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से जन्मी इस नृत्य शैली का विकास तमिलनाडु में हुआ। मंदिरों में देवदासियों द्वारा शुरू किये गए इस नृत्य को 20वीं सदी में रुक्मिणी देवी अरुंडेल और ई. कृष्ण अय्यर के प्रयासों से पर्याप्त सम्मान मिला। नंदिकेश्वर द्वारा रचित ‘अभिनय दर्पण’ भरतनाट्यम के तकनीकी अध्ययन हेतु एक प्रमुख स्रोत है। इसके संगीत वाद्य मंडल में एक गायक, एक बाँसुरी वादक, एक मृदंगम वादक, एक वीणा वादक और एक करताल वादक होता है। इसके कविता पाठ करने वाले व्यक्ति को ‘नट्टुवनार’ कहते हैं। भरतनाट्यम में शारीरिक क्रियाओं को तीन भागों में बाँटा जाता है- समभंग,अभंग और त्रिभंग। इसमें नृत्य क्रम इस प्रकार होता है- आलारिपु (कली का खिलना),जातीस्वरम् (स्वर जुड़ाव),शब्दम् (शब्द और बोल),वर्णम् (शुद्ध नृत्य और अभिनय का जुड़ाव), पदम् (वंदना एवं सरल नृत्य) तथा तिल्लाना (अंतिम अंश विचित्र भंगिमा के साथ)। भरतनाट्यम एकल स्त्री नृत्य है।

इस नृत्य के प्रमुख कलाकारों में पद्म सुब्रह्मण्यम, अलारमेल वल्ली, यामिनी कृष्णमूर्ति, अनिता रत्नम, मृणालिनी साराभाई, मल्लिका साराभाई, मीनाक्षी सुंदरम पिल्लई, सोनल मानसिंह, वैजयंतीमाला, स्वप्न सुंदरी, रोहिंटन कामा, लीला सैमसन, बाला सरस्वती आदि शामिल हैं।
  • बिजयानी सत्पथी (Bijayani Satpathy) ने ‘डांस फॉर डांस फेस्टिवल’ के अवसर पर चेन्नई के ‘भारतीय विद्या भवन’ में ओडिसी नृत्य का अभिनय किया। ओडिसी ओडिशा में प्रचलित शास्त्रीय नृत्य है।
ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में ‘महरिस’ नामक संप्रदाय हुआ जो शिव मंदिरों में नृत्य करता था,कालांतर में इसी से ओडिसी नृत्यकला का विकास हुआ है।
ओडिसी नृत्य में त्रिभंग पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। त्रिभंग में एक पाँव मोड़ा जाता है और देह थोड़ी,किंतु विपरीत दिशा में कटी और ग्रीवा पर वक्र की जाती है। इस नृत्य की मुद्राएँ एवं अभिव्यक्तियाँ भरतनाट्यम से मिलती-जुलती हैं।

ओडिसी नृत्य में भगवान कृष्ण के बारे में प्रचलित कथाओं के आधार पर नृत्य किया जाता है तथा इस नृत्य में ओडिशा के परिवेश एवं वहाँ के लोकप्रिय देवता भगवान जगन्नाथ की महिमा का गान किया जाता है। इस नृत्य में प्रयोग होने वाले छंद संस्कृत नाटक ‘गीतगोविंदम’ से लिये गए हैं। इस नृत्य से जुड़े प्रमुख कलाकार हैं- सोनल मानसिंह, कुमकुम मोहंती, माधवी मुद्गल, अदिति आदि।

  • तेलंगाना में प्रचलित चिंदू यक्षगानम् (Chindu Yakshaganam) एक प्राचीन लोकनाट्य है।

दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में विकसित यह कला कर्नाटक के यक्षगान से मिलती-जुलती है। यह लोकनाट्य कला नृत्य,संगीत,संवाद,पोशाक,मेकअप और मंच तकनीकों को आपस में एक साथ संकलित करती है। तेलुगू भाषा में 'चिंदू' शब्द का अर्थ 'कूदना' है। यक्षगान को प्रस्तुत करने वाला प्रस्तुति के दौरान बीच-बीच में छलांग लगाता एवं कूदता है, इसी वजह से इसे चिंदू यक्षगानम् कहा जाता है। माना जाता है कि ‘चिंदू’ शब्द यक्षगान कलाकारों की जाति चिंदू मडिगा (Chindu Madiga) से आया है, जो मडिगा (Madiga) अनुसूचित जाति की एक उप-जाति है।

  • चिंदू यक्षगानम् को ‘चिंदू भागवतम्’ भी कहा जाता है क्योंकि इसमें वर्णित अधिकांश कहानियाँ ’भागवतम्’ (Bhagavatam) से संबंधित हैं।
  • भागवतम् का संबंध भागवत पुराण से है जो भगवान विष्णु के उपासकों के इतिहास पर आधारित है।

सन्दर्भ[सम्पादन]