सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन/भारतीय लोकतंत्र में समानता
असमानता के रूप
[सम्पादन]असमानता मानविय गरिमा को आहत कर व्यक्ति को भीतर तक झकझोड़ देती है।गरिमा का तात्पर्य अपने-आपको और दूसरे व्यक्तियों को सम्मान योग्य समझना।जाति,लिंग,धर्म और वर्ग (उच्च,मध्यम या निम्न वर्ग) असमानता के व्यवहार के पर्याप्त कारण हैं।दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने आत्मकथा 'जूठन' में अपने दलित बालक के रूप में जातिगत भेदभाव के साथ बड़े होेने का बड़ा हीं मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है-"लंबा-चौड़ा मैदान मेरे वजूद से कई गुना बड़ा था,जिसे साफ करने से मेरी कमर दर्द करने लगी थी।धूल से चेहरा,सिर अँट गया था।मुँह के भीतर धूल घुस गई थी।मेरी कक्षा के बाकी बच्चे पढ़ रहे थे और मैं झाड़ू लगा रहा था।हेडमास्टर अपने कमरे में बैठे थे लेकिन निगाह मुझ पर टिकी थी।पानी पीने तक की इजाजत नहीं थी।"यह क्रम अगले दो दिनों तक चलता रहा जब तक कि उनके पिता ने शिक्षकों को खरी-खोटी न सुनाई।"मास्टर हो इसलिए जा रहा हूँ..पर इतना याद रखिए मास्टर..यो ..यहीं पढेगा..इसी मदरसे में।और यों हीं नहीं इसके बाद और भी आवेंगे पढ़ने कू।"[१] मात्र चार वर्ष की उम्र में पूरे विधालय में झाड़ू लगवाकर शिक्षकों और छात्रों ने उनके सम्मान को बुरी तरह आहत किया और उन्हें यह महसूस कराया कि वे विद्यालय के अन्य छात्रों के समान नहीं,उनसे कमतर हैं। दूसरा उदाहरण :-1975 में बनी दीवार फ़िल्म में जूते पॉलिश करने वाला एक लड़का फ़ेक कर दिए गए पैसे को उठाने से इनकार कर देता है।वह मानता हैं कि उसके काम की भी गरिमा है और उसे उसका भुगतान आदर के साथ किया जाना चाहिए।
भारतीय लोकतंत्र में समानता स्थापित हेतू उपाय
[सम्पादन]भारतीय संविधान का भाग-३ का अनुच्छेद 14-18 में समानता का अधिकार उल्लेखनीय है |
- अनुच्छेद १४= विधि के समक्ष समानता।
- अनुच्छेद १५= धर्म,वंश,जाति,लिंग और जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव का निषेध।
- अनुच्छेद15(4)= सामाजिक एवम् शैक्षिक दष्टि से पिछडे वर्गो के लिए उपबन्ध।
- अनुच्छेद १६= लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता।
- अनुच्छेद १७= अस्पृश्यता का अन्त
- अनुच्धेद १८= उपाधियों का अन्त
सरकार ने उपरोक्त अधिकारों को दो तरह से लागू किया है- 1.कानून के द्वारा और 2.सरकार की योजनाओं व कार्यक्रमों द्वारा सुविधाहीन समाजों की मदद करके।
मध्याहन भोजन योजनासमाज में समानता स्थापन की दिशा में अभूतपूर्व प्रयोग है।इसके तहत सभी सरकारी प्राथमिक स्कूलों के बच्चों को दोपहर का भोजन दिया जाता है। यह योजना सर्वप्रथम तमिलनाडु राज्य में, तत्पश्चात 2001 में उच्चतम न्यायालय के आदेशानुसार छ:माह के भीतर सभी राज्यों में प्रारंभ की गई।इसके कई सकारात्मक परिणाम हुए।
- गरीब बच्चों ने अधिक संख्या में स्कूल में प्रवेश लेना और नियमित रूप से स्कूल जाना शुरू कर दिया।
- बच्चों की उपस्थिति में सुधार हुआ।
- माताएँ बच्चों को दोपहर में खाना खिलाने की चिंता छोड़कर निश्चिंत होकर काम पर जाने लगी।
- निम्न और उच्च जाति के बच्चों के साथ खाने से जातिगत पूर्वाग्रहों को कम करने में सहायता मिली।
- दलित महिलाओं को भोजन पकाने के लिए काम पर रखने से खानपान में अस्पृश्यता संबंधी मान्यताओं पर विराम लगा।
- निर्धन विद्दार्थियों की भूख मिटाने में सहायता की,जो प्राय:खाली पेट स्कूल आते है और इस कारण पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते हैं।
- कुपोषण को कम करने में भी सहायता की
सरकार के इन प्रयासों के बावजूद सरकारी और निजी विद्दालयों के बिच बढ़ते खाई को सरकार नहीं पाट पा रही।
आत्मसम्मान के संबंध में डॉ.भीमराव अम्बेडकर के विचार |
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"अपने आत्मसम्मान को दाँव पर लगाकर जीवित रहना अशोभनीय है। आत्मसम्मान जीवन का सबसे जरुरी हिस्सा है।इसके बिना व्यक्ति नगण्य है।आत्मसम्मान के साथ जीवन बिताने के लिए व्यक्ति को कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करनी होती है।केवल कठिन और निरंतर संघर्ष से ही व्यक्ति बल,विश्वास और मान्यता प्राप्त कर सकता है।"
"मनुष्य नाशवान है।हर व्यक्ति को किसी-न-किसी दिन मरना है,परंतु व्यक्ति को यह संकल्प लेना चाहिए कि वह अपने जीवन का बलिदान,आत्मसम्मान के उच्च आदर्शों को विकसित करने और अपने मानव जीवन को बेहतर बनाने में करेगा।किसी साहसी व्यक्ति के लिए आत्मसम्मान रहित जीवन जीने से अधिक अशोभनीय और कुछ नहीं है।"[२] |
अन्य लोकतंत्रों में समानता के मुद्दे
[सम्पादन]संसार के अधिकांश लोकतंत्रीय देशों में,समानता के मुद्दे पर विशेष रूप संघर्ष हो रहे हैं।उदाहरणस्वरूप:-संयुक्त राज्य अमेरिका में अफ्रीकी-अमेरिकन लोग जिनके पूर्वज गुलाम थे और अफ्रीका ा से लाए गए थे,वे आज भी अपने जीवन को असमान बताते हैं।जबकि 1964 में निर्मित नागरिक अधिकार अधिनियमने नस्ल,धर्म और राष्ट्रीय मूल के आधार पर भेदभाव का निषेध कर दिया। इससे पूर्व अफ्रीकी-अमेरिकनों के साथ बहुत असमानता का व्यवहार होता था।और कानून भी उन्हें समान नहीं मानता था।उदाहरणस्वरूप:-बस से यात्रा करते समय उन्हें बस में पीछे बैठना पड़ता था,या जब भी कोई गोरा आदमी बैठना चाहे,उन्हें अपनी सीट से उठना पड़ता था।
1दिसंबर 1955 को एक अफ्रीकी-अमेरिकन महिला रोजा पार्क्स ने दिन भर काम करके थक जाने के बाद बस में उन्होंने अपनी सीट गोरे व्यक्ति को देने से मना कर दिया।इसके बाद अफ्रीकी-अमेरिकनों के साथ असमानता को लेकर एक विशाल आंदोलन प्रारंभ हुआ,जिसे नागरिक अधिकार आंदोलन (सिविल राइट्स मूवमेंट) कहा गया।जिसके परिणामस्वरूप 1964 में नागरिक अधिकार अधिनियम'बनाया गया।जिसमें यह प्रावधान किया गया कि अफ्रीकी-अमेरिकन बच्चों के लिए सभी स्कूल के दरवाजे खोले जाएँगे,उन्हें उन अलग स्कूलों में नहीं जाना पड़ेगा,जो विशेष रूप से केवल उन्हीं के लिए खोले गए थे।इतना होने के बावजूद अधिकांश अफ्रीकी-अमेरिकन गरीब हैं,और इनके बच्चे केवल ऐसे सरकारी स्कूलों में प्रवेश लेने की ही सामर्थ्य रखते हैं।जहाँ कम सुविधएँ हैं और कम योग्यता वाले शिक्षक हैं;जबकि गोरे विद्यार्थी ऐसे निजी स्कूलोें में जाते हैं या उन क्षेत्रों में रहते हैं ,जहाँ सरकारी स्कूलोंो का स्तर निजी स्कूलों जैसा ही उँचा है।
भारत सरकार द्वारा 1995 में स्वीकृत विकलांगता अधिनियम के अनुसार विकलांग व्यक्तियों को भी समान अधिकार प्राप्त हैं।और समाज में उनकी पूरी भागीदारी संभव बनाना सरकार का दायित्व है।सरकार को उन्हें नि:शुल्क शिक्षा देनी है साथ हीं उन्हें स्कूलों की मुख्यधारा में सम्मिलित करना है।कानून यह भी कहता है कि सभी सार्वजनिक स्थल,जैसे-भवन,स्कूल आदि में ढ़लान बनाए जाने चाहिए,जिससे वहाँ विकलांगों के लिए पहुँचना सरल हो । किसी समुदाय या व्यक्ति के द्वारा समानता और सम्मान दिलाने के लिए उठाए गए सवाल तथा संघर्ष लोकतंत्र को नए अर्थ प्रदान करते हैं।