सामान्य अध्ययन २०१९/केंद्र सरकार तथा राज्य सरकार
केंद्र सरकार
[सम्पादन]उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू द्वारा 15-सूत्रीय सुधार चार्टर का अनावरण
[सम्पादन]1 नवंबर 2019 को देश में संसदीय संस्थानों के कामकाज पर चिंता व्यक्त करते हुए इसका अनावरण किया है।
- संसदीय संस्थानों के प्रति जनता के विश्वास को बनाए रखा जाना चाहिये।
- सदस्यों द्वारा सदन के नियमों का पालन किया जाना चाहिये।
- सदनों की कार्यवाही में रोस्टर प्रणाली (Roster System) को अपनाते हुए सभी राजनीतिक दलों द्वारा अपने सांसदों की कम-से-कम 50% की उपस्थिति सुनिश्चित की जानी चाहिये।
- संसद द्वारा सदन में कोरम की 10% की आवश्यक उपस्थिति को बनाये रखना चाहिये।
- विधानसभाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्त्व को बढ़ाना चाहिये।
- राजनीतिक दलों की व्हिप (Whip) प्रणाली की समीक्षा की जानी चाहिये जिससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो सके।
- दल-बदल कानून की गहन समीक्षा की जानी चाहिये तथा पीठासीन अधिकारी द्वारा समय पर ऐसे मामलों का निपटारा किया जाना चाहिये।
- विभागों से संबंधित स्थायी समितियों के प्रभावी कामकाज के लिये आवश्यक उपायों पर चर्चा की जानी चाहिये।
- विधेयक पारित होने के पहले और बाद में सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय तथा प्रशासनिक स्तर पर विधायी प्रभावों का आकलन किया जाना चाहिये।
- ‘संविधान की मूल संरचना' (Basic Structure of the Constitution) की विशेषताओं में से एक ‘सरकार के संसदीय स्वरूप' (Parliamentary Form of Government) को बनाये रखा जाना चाहिये।
- आपराधिक पृष्ठभूमि वाले जन प्रतिनिधियों की बढ़ती संख्या की समस्या का विश्लेषण किया जाना चाहिये।
- जन प्रतिनिधियों के खिलाफ आपराधिक शिकायतों के समयबद्ध पालन के लिये विशेष अदालतों का गठन किया जाना चाहिये।
- उपलब्ध संसदीय साधनों का सहारा लेते हुए सरकारों को पक्ष और विपक्ष के प्रति उत्तरदायी रहना चाहिये।
- संसदीय संस्थानों में जन प्रतिनिधियों को बहस के दौरान ज़िम्मेदार व रचनात्मक रहना चाहिये।
- फर्स्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली (First Past The Post System- FPTP) के दोषों को देखते हुए एक साथ चुनाव के प्रस्ताव पर सहमति व्यक्त की जानी चाहिये।
- संसद के शीतकालीन सत्र में विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव (Privilege Motion) चर्चा में रहा जो किसी मंत्री द्वारा संसदीय विशेषाधिकारों के उल्लंघन से संबंधित है।
कोई भी सदस्य अध्यक्ष की अनुमति से किसी सदस्य या सभा या इसकी समिति के विशेषाधिकार के हनन से संबंधित कोई प्रश्न उठा सकता है । विशेषाधिकार के उल्लंघन के लिये दोषी पाए जाने पर किसी भी सदन के किसी भी सदस्य द्वारा प्रस्ताव के रूप में एक नोटिस दिया जाता है। विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव की जाँच प्रथम स्तर पर लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति द्वारा की जाती है। अध्यक्ष/सभापति स्वयं विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव पर निर्णय ले सकते हैं या इसे संसद की विशेषाधिकार समिति को संदर्भित कर सकते हैं। विशेषाधिकार समिति की कार्य प्रकृति अल्प-न्यायिक की तरह है,यह सदन एवं इसके सदस्यों के विशेषाधिकारों के उल्लंघन का परीक्षण करती है एवं उचित कार्यवाही की सिफारिश करती है।
- लोकसभा समिति में 15 सदस्य होते हैं।
- राज्यसभा समिति में 10 सदस्य होते हैं।
विशेषाधिकारों के स्रोत:
- मूल रूप में संविधान (अनुच्छेद 105) में दो विशेषाधिकार बताए गए हैं:
संसद में भाषण देने की स्वतंत्रता। इसकी कार्यवाही के प्रकाशन का अधिकार।
- लोकसभा नियम पुस्तिका के अध्याय 20 में नियम संख्या 222 तथा राज्यसभा की नियम पुस्तिका के अध्याय 16 में नियम संख्या 187 विशेषाधिकार को नियंत्रित करते हैं।
- संसद ने अभी तक विशेषाधिकारों को संहिताबद्ध करने के लिये कोई विशेष विधि नहीं बनाई है। यह पाँच स्रोतों पर आधारित है-
संवैधानिक उपबंध, संसद द्वारा निर्मित अनेक विधियाँ, दोनों सदनों के नियम, संसदीय परंपरा, न्यायिक व्याख्या।
विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव (Privilege motion) हाल ही में एक भारतीय सांसद ने एक टीवी चैनल और उसके एंकर के खिलाफ विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव पारित किया है। यह प्रस्ताव संसद में दिये गए भाषण को गलत तरीके से पेश करने के कारण लाया गया है। जब कोई व्यक्ति या प्राधिकारी व्यक्तिगत रूप में संसद के सदस्यों अथवा सामूहिक रूप से सभा के किसी विशेषधिकार, अधिकार और उन्मुक्ति की अवहेलना करता है या उन्हें चोट पहुँचाता है, तो इसे विशेषाधिकार का उल्लंघन कहा जाता है। यह कृत्य सदन द्वारा दंडनीय होता है। इसके अतिरिक्त सदन के आदेशों की अवज्ञा करना अथवा सदन, इसकी समितियों, सदस्यों और पदाधिकारियों के विरुद्ध अपमानित लेख लिखना भी विशेषाधिकारों का उल्लंघन माना जाता है। संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 में क्रमशः संसद एवं राज्य विधानमंडल के सदनों, सदस्यों तथा समितियों को प्राप्त विशेषाधिकार उन्मुक्तियों का उल्लेख किया गया है। संविधान के उपबंधों के तहत संसद की प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियमों और स्थाई आदेशों के अधीन रहते हुए संसद में बोलने की स्वतंत्रता होगी। संसद में या उसकी किसी समिति में संसद के किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिये गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध न्यायालय में कोई कार्रवाई नही की जाएगी।
भारत सरकार (कार्यकरण) नियमावली, 1961 के नियम 12
[सम्पादन]23 नवंबर, 2019 को बगैर केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक के प्रधानमंत्री ने नियम 12 के तहत प्रदत्त शक्ति का प्रयोग करते हुए महाराष्ट्र से राष्ट्रपति शासन हटा दिया। इसके साथ ही कई प्रश्न चर्चा का विषय बन गए हैं, जैस- नियम 12 क्या है? यह सरकार को क्या-क्या अधिकार प्रदान करता है?
- सरकार (कार्यकरण) नियमावली, 1961 का नियम 12 प्रधानमंत्री को अपने विवेक के आधार पर सामान्य नियमों से भटकाव की अनुमति है।
"नियमों से प्रस्थान" (Departure from Rules) शीर्षक को नियम 12 कहा जाता है। नियम 12 के तहत लिये गए किसी भी निर्णय के लिये मंत्रिमंडल कुछ समय बाद तथ्यात्मक स्वीकृति दे सकता है। नियम 12 का उपयोग किन परिस्थितियों में किया जाता है? आमतौर पर सरकार द्वारा प्रमुख निर्णयों के लिये नियम 12 का उपयोग नहीं किया जाता है। हालाँकि पूर्व में इसका उपयोग कार्यालय ज्ञापन को वापस लेने या एमओयू पर हस्ताक्षर करने जैसे मामलों में किया गया है। नियम 12 के माध्यम से आखिरी बड़ा फैसला 31 अक्तूबर, 2019 को तत्कालीन जम्मू कश्मीर राज्य के संदर्भ में लिया गया था। जम्मू कश्मीर राज्य का पुनर्गठन कर इसे केंद्रशासित प्रदेश जम्मू कश्मीर और केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख के रूप में विभाजित कर दिया गया है। इसके विषय में मंत्रिमंडल ने 20 नवंबर, 2019 को एक्स-फैक्टो स्वीकृति प्रदान की। महाराष्ट्र का मामला
23 नवंबर, 2019 की सुबह 5 बजकर 47 मिनट पर भारत सरकार के राजपत्र में महाराष्ट्र से राष्ट्रपति शासन को हटाए जाने की अधिसूचना प्रकाशित हुई। इसका अर्थ है कि राष्ट्रपति ने इसके लिये ज़रूरी दस्तावेज़ पर इस समय से पहले ही हस्ताक्षर किये होंगे। इसके बाद 23 नवंबर, 2019 को ही सुबह 7 बजकर 50 मिनट पर नए मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री को पद की शपथ दिला दी गई। विवादास्पद क्यों?
नियम 12 के क्रियान्वित होने से प्रतीत होता है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के शीर्ष नेताओं को भी आगे की कार्यवाही के बारे में जानकारी नहीं थी। जबकि सामान्य नियमों के तहत राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने तथा समाप्ति के लिये केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक आवश्यक होती है, इसके पश्चात् इसे राष्ट्रपति के पास अनुमोदन के लिये भेजा जाता है।
राज्य सरकार
[सम्पादन]- ओडिशा सरकार ने केंद्र सरकार से ओडिशा में एक विधानपरिषद की स्थापना के लिये राज्यसभा में एक प्रस्ताव लाने का आग्रह किया है। ओडिशा विधानसभा ने 7 सितंबर, 2018 को विधानपरिषद की स्थापना के लिये एक प्रस्ताव पारित किया था। ओडिशा सरकार के अनुसार,ओडिशा में विकास की गति में वृद्धि के लिये विधानपरिषद के माध्यम से व्यापक परामर्श की आवश्यकता है।
राजस्थान और असम में विधानपरिषद के गठन के प्रस्ताव संसद में लंबित हैं।
- संविधान का अनुच्छेद 171 किसी राज्य में विधानसभा के अलावा एक विधानपरिषद के गठन का विकल्प भी प्रदान करता है। राज्यसभा की तरह विधानपरिषद के सदस्य सीधे मतदाताओं द्वारा निर्वाचित नहीं होते हैं।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 168 राज्य में विधानमंडल का प्रावधान करता है। अनुच्छेद 169 के अनुसार, किसी राज्य में विधानपरिषद के गठन तथा उत्सादन/समाप्ति (Abolition) के लिये राज्य विधानसभा द्वारा दो-तिहाई बहुमत से विधान परिषद के गठन तथा उत्सादन का संकल्प पारित कर संसद के पास भेजा जाता है। तत्पश्चात् संसद उसे साधारण बहुमत से पारित कर दे तो विधानपरिषद के निर्माण व उत्सादन की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। हालाँकि इस प्रकार के संशोधन से संविधान में परिवर्तन आता है किंतु इसे अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान संशोधन नहीं माना जाता है।
आंध्र प्रदेश विधानसभा द्वारा विधानपरिषद को भंग करने के लिये एक प्रस्ताव पारित
[सम्पादन]दिसंबर 2019 में पारित इस प्रस्ताव के पश्चात् राज्य सरकार यह प्रस्ताव संसद की स्वीकृति हेतु केंद्र सरकार के पास भेजेगी। यदि संसद के दोनों सदनों में यह प्रस्ताव बहुमत से पारित हो जाता है, तो राज्य की विधानपरिषद का विघटन हो जाएगा।
दिसंबर 2019 में राज्य सरकार ने राज्य की तीन नई राजधानियों, कार्यकारी राजधानी-विशाखापत्तनम, विधायी राजधानी- अमरावती एवं न्यायिक राजधानी- कुरनूल, का प्रस्ताव पारित किया था। इसके पीछे राज्य सरकार का तर्क है कि इससे राज्य के तीनों क्षेत्रों उत्तरी तट, दक्षिणी तट और रॉयल सीमा का समान विकास संभव हो सकेगा।
इसके लिये राज्य सरकार ने दो बिल- ‘आंध्र प्रदेश विकेंद्रीकरण एवं सभी क्षेत्रों का समावेशी विकास विधेयक-2020’ और ‘आंध्र प्रदेश राजधानी क्षेत्र विकास प्राधिकरण (एपीसीआरडीए) अधिनियम (निरसन) विधेयक’ विधानसभा से पारित कर विधानपरिषद में भेजे थे। परंतु विधानपरिषद में विपक्ष ने इन दोनों विधेयकों पर मतदान से पहले इन्हें प्रवर समिति को भेजने की सिफारिश की थी। इसके बाद राज्य सरकार ने विधानपरिषद को विकास कार्यों में बाधक और विपक्ष पर सदन में राजनीति से प्रेरित नकारात्मक व्यवहार करने का आरोप लगाते हुए यह निर्णय लिया। ध्यातव्य है कि 58 सदस्यों वाली आंध्र विधानपरिषद में सत्तारूढ़ दल के पास मात्र 9 सीटें हैं, जबकि मुख्य विपक्षी दल 28 सीटों के साथ बहुमत में है।
आंध्र प्रदेश विधानपरिषद का इतिहास:-वर्ष 1956 में राज्य के गठन के पश्चात् राज्य सरकार ने विधानपरिषद के गठन का प्रस्ताव पारित किया और 1 जुलाई, 1968 को राज्य में 90 सदस्यीय विधानपरिषद का गठन हुआ। वर्ष 1984 में तात्कालिक राज्य सरकार ने विधानपरिषद भंग करने का प्रस्ताव दिया और संसद की सहमति से 31 मई, 1985 को आंध्र प्रदेश विधानपरिषद भंग हो गई। 22 जनवरी, 1990 को राज्य की नई सरकार द्वारा विधानपरिषद के गठन का प्रस्ताव दिया गया परंतु यह प्रस्ताव संसद में लंबित पड़ा रहा। जुलाई 2004 में राज्य में पुनः विधानपरिषद के गठन का प्रस्ताव दिया गया और 10 जनवरी, 2007 को संसद की सहमति के पश्चात् 30 मार्च, 2007 को राज्य में पुनः विधानपरिषद का गठन हुआ। राज्य के पुनर्गठन के बाद आंध्र प्रदेश विधानसभा की सीटें 90 से घटकर मात्र 58 रह गई थीं।