साहित्य और सत्ता/शासन की बंदूक और कोकिला की कूक

विकिपुस्तक से
  • डॉ.अनिल कुमार सिंह,हिंदी विभाग  
पी.जी.डी.ए.वी.वी.कॉलेज(सांध्य)
शासन की बंदूक बनाम कोकिला की कूक

शोध-आलेख का सारांश-नागार्जुन को पढ़ना एक जन नायक से भेंट करने जैसा है। उनका जैसा जीवन था, ठीक वैसे ही वे अपनी रचनाओं में भी थे। उनका व्यक्तित्व विषय की विभिन्न भंगिमाओं के साथ उनकी रचनाओं में विन्यस्त होते चला गया है। उनकी कविताएं जहाँ एक ओर पाठकों को अखिल भारतीय परंपरा से जोड़ती हैं, वहीं उनका कथा-साहित्य पाठकों को मिथिलांचल के गांवों की यात्रा भी कराते हैं। इस जुड़ाव और यात्रा में पाठकों को जीवन के वास्तविक संघर्ष के विहंगम दृश्य से साक्षात्कार हो जाता हैं। उनका पूरा रचना-संसार सीसे की तरह साफ और पारदर्शी है, किसी प्रकार का छिपाव या दुराव नहीं है, जो चाहे आर-पार देख ले। यह स्पष्टता विषय और अभिव्यक्ति दोनों के स्तर पर विद्यमान है। उनकी रचनाओं में विषय की विविधता विद्यमान है तो भाषा भी विषय के अनुरूप कभी सौष्ठव एवं प्रांजल रखी गई है तो कभी बिल्कुल सहज एवं अनगढ़। उनकी रचनाओं में आक्रोश का गहन वितान है। वे एक तरफ बेहद गंभीर दिखते हैं तो दूसरी तरफ निष्ठुर व्यंग्यकार भी। नागार्जुन का संपूर्ण लेखन उन्हें जनकवि के रूप में स्थापित करता है। उनकी कविता में मौजूद व्यवस्था के प्रति आक्रोश ‘प्रतिहिंसा’ की हद तक है, जिसका मूल कारण है सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था का सड़ांध।  

मूल पाठ

समान्यतः एक सजग कवि कविता लिखने के क्रम में ईमानदारी से अपने समय को दर्ज करता है और इस प्रक्रिया में इतिहास अपने आप उसमें दर्ज हो जाता है। नागार्जुन की कविता इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। नागार्जुन एक कुशल अन्वेषक की तरह अपने समय की गहन पड़ताल करते हैं और अपनी रचनाओं में समय की गवाही देने के लिए शब्द और साहस जुटाते हैं। अपने समय में सक्रिय उज्जवल और धूल-धूसरित शक्तियों की पहचान की विधि उन्हें व्यवस्था और तंत्र की बजाय जनमन के पक्ष में खुलकर खड़े होने का साहस नागार्जुन को एक कुशल राजनीतिक कवि बनाता है। उनकी काव्यात्मक आकांक्षा अंततः अपने समय की सीमा का अतिक्रमण करके कालजयी साबित हो जाती है। नागार्जुन की कविताओं को सावधानी से और कालानुक्रमिक अध्ययन के पश्चात भारत के सामाजिक राजनीतिक इतिहास का एक सधा हुआ पाठ खोजा जा सकता है। उनकी कविताओं को संग्रहित करके एक अनूठा महाकाव्य बनाया जा सकता है, जिसका नायक शोषित-पीड़ित संघर्षरत जनता होगी और प्रतिनायक उसके अपने ही चुने हुए भाग-विधाता सत्ता के शिखर पर बैठे नेतागण होंगे। यहाँ इस महागाथा का नायक तो निरंतर शोषित जनता ही है, लेकिन प्रतिनायक थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद बदलते जाते हैं। समग्रता में देखे तो नागार्जुन की सारी कविताएं दरअसल इसी असहाय जनता के सुख-दुख और संघर्ष की गायन तथा प्रतिनायकों के कपाल पर तबला वादन की जुगलबंदी है। इस जुगलबंदी के लिए शायरों जैसे जज्बात और जुनून की जरूरत पड़ती है। जज्बात और जुनून की यह अनूठी जुगलबंदी उन्हें अपने अनेक समकालीन ही नहीं बल्कि पूर्ववर्ती और परवर्ती कवियों से अलग करती है। कवि प्रदीप जब ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’- जैसी कविता लिख रहे थे तो नागार्जुन की मर्म भेदी आंखें ‘गांधी की चेलों की लीला’ को देख रही थी-

सीटो का हित साध रहे है तीनों बंदर बापू के
युग पर प्रवचन लाद रहे हैं तीनों बंदर बापू के

पूंजीपतियों की चाकरी में लगी राजनीति को नागार्जुन कितनी अस्पष्टता से देख रहे थे। बाबा की पंक्तियों के आलोक में आज के अतिवादी सत्ता के चरित्र को और उसके अमानवीय सरोकारों को बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। देश पर अधिकांश समय राज करने वाले नेहरू-गांधी परिवार के तीसरे प्रधानमंत्री राजीव गांधी को अस्सी के दशक में जाकर यह रहस्य पता चला कि केंद्र से अगर एक रूपया भेजा जाता है तो आम आदमी तक उसमें से सिर्फ पन्द्रह पैसे ही पहुंचते हैं। आजकल के नेता अगर 1958 ई. में लिखी गई बाबा की कविता को पढ़ लेते तो यह बात स्पष्ट हो जाती कि-

नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल

दो हजार मन गेहूं आया दस गांव के नाम
राधे चक्कर लगा काटने सुबह हो गई शाम
सौदा पटी बड़ी मुश्किल से पिघले नेता राम
पूजा पाकर साध गए चुप्पी हाकिम हुक्काम
भारत सेवक जी को था अपनी सेवा से काम

खुला चोर बाजार बढ़ा चुनी चोकर का दाम

नागार्जुन इन पक्तियों में कालाबाजारी की व्यवस्था की पूरी प्रक्रिया का खुलासा करते हैं और कालाबाजारी और राजनीति के नेक्सेस को बहुत सहजता से जनसामान्य को समझाते हैं यह खुद नागार्जुन के द्वारा घोषित कथन है कि उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से मूलतः भारतीय सामान्य जन-जीवन को वाणी देने का प्रयास किया है। सन् 1965 ई. में देश और जनता के प्रति अपनी भूमिका को स्पष्ट करते हुए उन्होंने स्वयं कहा था कि-

‘जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ?
जनकवि हूँ, मैं साफ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ?’

           

(हजार हजार बाहों वाली-नागार्जुन,पृष्ठ-142)

जाहिर है नागार्जुन की रचनाओं में दूर-दूर तक खोजने पर भी हकलाहट नहीं मिलती। आधुनिक हिन्दी आलोचना के प्रतिष्ठित आलोचक उन्हें जनकवि मानते हैं। लेकिन जनकवि होना इतना आसान नहीं होता, जनता के प्रति जवाबदेही इसकी मूल कसौटी है, नागार्जुन इस शर्त को जीवन भर निभाते हैं। जब वे साफ ढंग से सच कहते हैं, तो कई बार वामपंथी दलों के राजनीतिज्ञ और साहित्यिक नेताओं को भी नाराज करते हैं। ‘जो लोग राजनीति और साहित्य में सुविधा के सहारे जीते हैं वे दुविधा की भाषा बोलते हैं. नागार्जुन की दृष्टि में कोई दुविधा नहीं है,..यही कारण है कि खतरनाक सच और साफ-साफ बोलने का वे खतरा उठाते है।’ अपनी एक कविता “प्रतिबद्ध हूँ” में उन्होंने दो टूक लहजे में अपनी दृष्टि को स्पष्ट किया है-

‘प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ-

बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त-
संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ की ‘भेड़िया-धसान’ के खिलाफ
अंध-बधिर ‘व्यक्तियों’ को सही राह बतलाने के लिए
अपने आप को भी ‘व्यामोह’ से बारंबार उबारने की खातिर

प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ!’

उनकी कविताओं में प्रतिगामी मूल्यों के प्रति तिरस्कार भाव है। उनमें स्वभावतः शोषण के विरुद्ध आक्रोश, घृणा, मोहभंग तो है ही, साथ ही जीवट और जुझारूपन से उपजा आशावादी स्वर भी है, जिसके कारण वे दीन-हीन जनता से सहानुभूति रखते हैं और उन्हें सताधारियों एवं शोषकों के विरुद्ध प्रतिरोध के लिए आह्वान करते हैं। शोषक चाहे जिस वर्ग का हो, वे उसे नहीं माफ नहीं करते। इस प्रकार कबीर की तरह वे किसी प्रकार के भी अत्याचार पर करारी चोट करते हैं-

‘तुमसे क्या झगड़ा है/ हमने तो रगड़ा है,
इनको भी,उनको भी !’
(हजार हजार बाहों वाली-नागार्जुन,पृष्ठ-189)

इस बात का प्रमाण उन्होंने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आंदोलन के समय भी प्रस्तुत किया। सभी महत्वपूर्ण लोगों की तरह उन्होंने भी इंदिरा गाँधी के अपातकाल की कड़ी भर्तस्ना की, लेकिन जब उन्हे यह आभास हो गया कि इंदिरा शासन के विरुद्ध एक जुट हुई अधिकांश शक्तियों की नीयत ठीक नहीं है तो उन्होंने उन्हें भी नहीं छोड़ा। दरअसल जेल में रहते हुए उन्होंने देखा कि ‘यहाँ समान नीति वाले दलों का मेल नहीं है, सिर्फ ‘इंदिरा हटाओ-सत्ता हथियाओ’ के लिए की गई साठगाँठ है, जिसमें मार्क्सवादी भी हैं, जनसंघी भी हैं, समाजवादी भी हैं, दक्षिणपंथी भी हैं, जात बिरादरी पर आधारित दल भी हैं और सर्वोदयी भी हैं। इस लोभ भरे साठगाँठ पर उन्होंने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की-

‘मिला क्रांति में भ्रांति विलास

मिला भ्रांति में शांति विलास
मिला शांति में क्रांति विलास...

टूटे सींगों वाले सांड़ों का यह कैसा टक्कर था!
(खिचड़ी विप्लव देखा हमने-नागार्जुन,पृष्ठ-29)

जयप्रकाश आंदोलन की विसंगतियों को चौराहे पर लाने के बाद वे कांग्रेसी शासन के समर्थक नहीं बन जाते। नागार्जून की पहचान उस काल के उन बिरले कवियों में है, जिन्होंने कांग्रेस और इंदिरा गाँधी दोनों को सदैव अपने व्यंग बाणों का निशाना बनाए रखा-

‘जाने, तुम कैसी डायन हो!...

जय हो जय हो, हिटलर की नानी की जय हो!..
किस चुड़ैल का मुँह फैला है!
संविधान का पोथा,देखो पूरा का पूरा ही लील रही है!..
देशी तानाशाही का पूर्णावतार है
महाकुबेरों की रखैल है..
लोकतंत्र के मानचित्र को रौंद रही है, कील रही है
सत्तामद की बेहोशी में में हांफ रही है

आँय-बाँय बकती है कैसे, देखो कैसे काँप रही है।’
(वही, पृष्ठ-28)

सचमुच नागार्जुन जनकवि हैं, वे किसी विशेष प्रकार की काव्य सिद्धि की अपेक्षा नहीं करते सीधे-सीधे शब्दों में जनता को संबोधित करते हैं। शासन की ताकत से वे बिल्कुल नहीं डरते और ललकारते भी हैं-

जनकवि हूँ,क्यों चाटूँगा मैं थूक तुम्हारी
श्रमिकों पर क्यों चलने दूँ, बंदूक तुम्हारी’
(वही, पृष्ठ-83)।

इसके अतिरिक्त ‘इंदुजी इंदुजी क्या हुआ आपको, शासन की बंदुक, बापू के तीन बंदर,चंदु मैंने सपना देखा जैसी कई चर्चित कविताए हैं, जिनमें तत्कालीन राजनीति की असंगतियों और भ्रष्टाचार पर करारा प्रहार किया गया है। ‘अब बंद करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन’ शीर्षक कविता में व्यंग्य के कई टुकड़े एक साथ रखे गए है, जैसे- सुस्त प्रतिपक्षी, शेर-साँप, वीराने में मुखर ठूँठ, दिन में खिलती रजनीगंधा, मंहगाई की सूपनखा, सोशलिज्म की नई ऋचाएं, दस बांहोंवाली देवी, कार्तूसों की माला, मतवाले पंडों की थिरकन आदि। ध्यान से देखें तो नागार्जुन का व्यंग्य इतना सपाट नहीं है, वह गहराई में उतरकर अर्थछवियों की पड़ताल करते हैं। नेताओं के टिकट पाने का दृश्य तो रसलीन के प्रसिद्ध मुहावरे को नया संदर्भ देता प्रतीत होता है-

‘श्वेत-स्याम-रतनार अंखिया निहार के

सिंडकेटी प्रभूओं की पग-धूर झार के
लौटे हैं दिल्ली से कल टिकट मार के
खिले हैं दांत ज्यों दाने अनार के

आये दिन बहार के’

यहाँ व्यंग्य के माध्यम से वे सामाजिक-राजनीतिक विद्रुपता का पर्दाफाश करते हैं, उनके मुखौटे उतारते हैं। नागार्जुन का व्यंग और आक्रोश सिर्फ देश के नेता और शोषकों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि विश्व की महाशक्ति अमेरिका पर भी वे निशाना साधने से नहीं चुकते। वैसे शोषक कहीं का भी हो, निंदनीय ही माना जाएगा, इसलिए नैतिक साहस के बल पर वे अमेरिका-वियतनाम युद्ध के मुद्दे को उठाते हैं, जिसमें वियतनामी जनता के स्वतंत्रता संग्राम ने अमेरिका के सारे शांति-प्रतीकों के मुँह पर कालिख पोत दिया था। वे ‘देवी लिबर्टी को लानत है सौ बार’ जैसी कविताओं के माध्यम से अमेरिकी दंभ पर करारा प्रहार करते हैं-

‘पिछली रात सपने में देखा तुमने

लिंकन का दिव्य प्रेत लिपटा पड़ा है

देवी लिबर्टी की प्रतिमा से..।’
(हजार हजार बाँहों वाली-नागार्जुन, पृष्ठ-155)

अमेरिका सहित सभी साम्राजवादी ताकतों की तथाकथित शांति की चालों में अंतर्निहित उनके स्वार्थों को वे देश के नेताओं के सामने प्रकट करते हैं और सचेत रहने के लिए कहते है..

‘पेटी में पिस्तौल संभाले, अमन चैन के बोल अधर पर

अब भी बाइबिल बाँट रहे हैं, गोरी चमड़ी वाले बर्बर...
कोरिया को विरान बनाने वाले
राजघाट में बापूजी की समाधि पर..
हमें शांति की सीख दे रहे चील गीध के चचे भतीजे
हमें शील का पाठ पढ़ाते

टाइ कालर सूट बूट से लैस अद्यतन बाघ भेड़िये?’
(तालाब की मछलियाँ-नागार्जुन,पृष्ठ-163)

वे देश के प्रधान-मंत्री जवाहर लाल नेहरू को भी सावधान करते हुए कहते हैं कि-

‘सावधान ओ पंडित नेहरू !
पैर तुम्हारे धंसे जा रहे डालर की दलदल में प्रतिपल।’
(हजार हजार बाँहो वाली-नागार्जुन,पृष्ठ- 44)

शोषक समाज और राजनीतिक सत्ता को बेनकाब करने वाली उनकी दो चर्चित कविताओं का मैं उल्लेख करना आवश्यक समझता हूँ। उनमें से एक है- ‘शासन की बंदूक’ और दूसरी कविता है- हरिजन-गाथा। शासन की बंदूक:- इस कविता में वे सच्चाई को प्रकट करने के साथ-साथ सत्ता को चुनौती भी देते हैं-

‘उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक

जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक,
बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक
सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक
जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक

बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक।’

                             

इस प्रकार की मुंहफट कविता में स्पष्टवादिता के लिए नागार्जुन को सदा याद किया जाएगा। नागार्जुन की इन सीधी सपाट कविताओं की सबसे बड़ी खासियत यह है कि सामान्य जनता से मुखातिब पोस्टर की तरह हैं, जिन्हे समझने के किसी अतिरिक्त अर्हता की जरूरत नहीं होती।‘उनकी यह कविता 1975 से 77 तक आपातकाल के दिनों की है। आपातकाल, इतिहास का केवल एक कालखंड ही नहीं है बल्कि यह बेहया और खुदगर्ज़ी भरे लोकतांत्रिक सत्ता का के अधोपतन का एक दस्तावेज भी है।’ हरिजन-गाथा : -इस कविता में गहन संघर्ष और जन चेतना का आह्वान है। बाबा नागार्जुन ने अपनी कविताओं का भाव-धरातल सदा सहज और प्रत्यक्ष यथार्थ रखा है। यहाँ यथार्थ का वह रुप है जिससे समाज का आम आदमी रोज जूझता है। यह भाव-धरातल एक ऐसा धरातल है जो नाना प्रकार के काव्य-आंदोलनों से उपजते भाव-बोधों के अस्थिर धरातल की तुलना में स्थायी और अधिक महत्वपूर्ण है। नागार्जुन ने सही मायने में शोषित, प्रताडित, गरीब लोगों कों वाणी दी। किसान, मजदूर और निम्न-मध्यवर्ग का शोषण करने वाली ताकतों के वे हमेशा विरोधी रहे और व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए क्रांति का आह्वान करते रहे। विश्वम्भर मानव के शब्दों में कहें तो, "व्यक्तिगत दुःख पर न रूककर वे व्यापक दुःख पर प्रकाश डालते हैं और यही सच्चे कवि की पहचान है।“

नागार्जुन की कविता सिर्फ़ यथार्थ का निरूपण ही नहीं करती है, बल्कि उन जन-शक्तियों की खोज का मार्ग भी दिखाती है जिसके द्वारा मुक्त और शोषण से मुक्त समाज की स्थापना की जा सकती है। नागार्जुन की जन रचनाकार होने की गवाह है ‘हरिजन गाथा’। यह कविता उन्होंने 1977 ई. में पटना से क़रीब चालीस किलोमीटर दूर स्थित बेलछी गाँव में हुए दलितों के नरसंहार के आक्रोश में लिखी थी। उस नरसंहार में 13 दलितों को ज़िंदा जला दिया गया था और उस अमानवीय कुकृत्य ने पूरे राष्ट्रीय मानस व मीडियावर्ग को झकझोर दिया था। बाद में 1977 में ही संपन्न हुए आम चुनाव में इस घटना का राजनीतिक लाभ उठाने के लिए इंदिरा गांधी उस गांव तक हाथी पर चढ़कर पहुंची थीं और वहीं से अपने चुनावी अभियान की शुरुआत की थी। पूरी कविता दलितों की मर्मांतक पीड़ा और प्रतिशोध भावना से भरी हुई है। आजादी के इतने दिनों के बाद भी देश की बड़ी आबादी कहे जानेवाले दलितों के साथ हो रहे अमानुषिक उत्पीड़न को यह कविता व्यक्त करती है। कविता प्रबंध काव्य के लयपूर्ण कथात्मक विन्यास में रचित है। कविता के भीतर कथा चलती है जो कविता का आख्यान में बदल देती है। कथा में नरसंहार के कुछ समय बाद दलित स्त्री के गर्भ से बच्चा पैदा होता है। उसके पिता की भी हत्या कर दी गयी है। वह पितृहीन संतान संसार में पैदा तो जाती है, पर उसके दुर्भाग्य के बारे में दलित वर्ग का हर व्यक्ति चिंतित है। उसके भावी जीवन के बारे में जानने के लिए एक रैदासी संत को बुलाया जाता है जो बच्चे की हाथ की रेखाओं को पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। वह भविष्यवाणी करता है कि बच्चा दलितों और शोषितों का नायक बनेगा और उन्हें हर प्रकार की ज़ुल्म और ज़्यादती से मुक्त कराएगा। उसके नाम से चोर-उचक्के और गुंडें थर-थर कांपेंगे और वह सर्वहारा की मुक्ति के लिए सशस्त्रा संघर्ष की राह ग्रहण करेगा। इस कथा-आख्यान से कंस-कृष्ण के पौराणिक द्वंद्व का आभास भी मिलता है, पर उससे यह इस मायने में भिन्न है कि इसमें नायक को सवर्ण के स्थान पर दलित जाति के घर पैदा होते दर्शाया गया है।यथा-

‘दिल ने कहा-अरे यह बालक

निम्न वर्ग का नायक होगा
....होंगे इसके सौ सहयोद्धा

लाख-लाख जन अनुचर होंगे’

‘नागार्जुन इस कविता उस समय लिख रहे थे, जब पूरा भोजपुर दहक रहा था। गाँवों में जमींदार और किसान आमने-सामने थे। विकल्प सिर्फ इतना बचा था कि या तो हिंसा का जवाब प्रतिहिंसा से दिया जाए या फिर खुद को अहिंसक बनाये रखकर सब कुछ सह लिया जाए। नागार्जुन ने हिंसा के बदले प्रतिहिंसा को प्रस्तावित किया। नागार्जुन ने कई बार साक्षात्कार में यह स्वीकार भी किया है कि प्रतिहिंसा मेरी कविता का स्थाई भाव है। इसके अतिरिक्त इस कविता में पारलौकिक शक्तियों के बल पर किसी दुष्ट आततायी के वध के स्थान पर व्यवस्था परिवर्तन करने वाले सामूहिक प्रयत्न की ओर संकेत किए गये हैं। इस कविता में भी वह राजनीतिक रूपांतरण के लिए पौराणिक चेतना का प्रयोग करते प्रतीत होते हैं पर उसका उद्देश्य धार्मिक वर्ण-व्यवस्था की क्रूरता का उद्घाटन हो जाता है। कविता में वह वर्ण-व्यवस्था की वीभत्स हिंसा को घटित होते इस प्रकार दिखाते हैं:-

‘ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि

एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं
तेरह के तेरह अभागे
अकिंचन मनुपुत्र/ ज़िंदा झोंक दिये गये हों
अग्नि की विकराल लपटों में
साधन-संपन्न ऊंची जातियों वाले

सौ-सौ-मनुपुत्रों द्वारा’

समाज की इस वीभत्सता को दिखाने में नागार्जुन बेहद संवेदनशीलता का परिचय देते हैं। प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने उनकी इस काव्य-प्रवृत्ति के प्रसंग में ठीक ही लिखा है, ‘संस्कृत काव्यशास्त्रा में नौ रसों के अंतर्गत वीभत्स की भी गणना की गयी है और खानापूरी के लिए थोड़ी-बहुत वीभत्स रस की रचनाएं भी हुई हैं। किंतु नागार्जुन पहले कवि हैं जिन्होंने सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ में वीभत्स को नयी शक्ति प्रदान की है।’ नागार्जुन की कविताएं केवल ख़बर की कविताएं नहीं बल्कि दख़ल की कविताएं हैं। सहजानंद सरस्वती, राहुल सांकृत्यायन, जेपी और नक्सल आंदोलनों में भागीदारी के कारण जनता से उनका सीधा जुड़ाव था। वे अपने समय की तमाम विसंगतियों को पूरी तरह समझते हैं और समाज में परिवर्तन के लिए जनता के राजनीतिक हस्तक्षेप को आवश्यक मानते हैं। वे स्वयं में कविता के माध्यम से अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करते हैं।नागार्जुन के लिए लिखना भी राजनीतिक कर्म था और जीना भी। उनकी कविताएं भी इसीलिए राजनीतिक घटनाओं व परिवर्तन के संघर्षों के प्रति संवेदनशील हैं और सबसे प्रमाणिक ढंग से जनजीवन से लगाव को व्यक्त करती हैं। ‘उनकी रचनाएं उनकी नज़र में विद्वता का प्रतिबिंबन नहीं बल्कि उनके आत्मविस्तार का साधन हैं। लोक उनके लिए किताबी तथ्य नहीं बल्कि रोजमर्रा का जीवनानुभव है।’‘हरिजन-गाथा’ कविता में भी वह जिस प्रकार राक्षसी कांड के बारे में लिखते हैं, वह समूची भारतीय कविता के सामने अदभुत एक उदाहरण बनकर उपस्थित होता है। उत्पीड़न की वेदना को वह बग़ावत में ढलते देखते हैं और उसमें केवल किसी तबके या वर्ग की तक़दीर नहीं बल्कि पूरे भारत के राष्ट्रीय-सामाजिक चरित्र में युगांतरकारी परिवर्तन का आहवान सुनते हैं। लिखते हैं:-

‘दिल ने कहा-दलित माओं के सब बच्चे

अब बाग़ी होंगे अग्निपुत्रा होंगे,

वे अंतिम विप्लव के सहभागी होंगे’

यह पूरी कविता क्रूर प्रशासन और सामंती ताक़तों के निर्लज्ज गठजोड़ पर चोट करती है। भारत में आज़ादी के बाद भी लंबे समय तक राज्य की भूमिका पर प्रश्न करना ईश्वर और समाज से द्रोह करने जैसा माना जाता रहा है। सदैव लोकतंत्र को राजतंत्र की तरह चलाने के प्रयास होतर रहे हैं। ‘ऐसे समय नागार्जुन की निगाह केवल नेहरूवादी शहरी भारत पर नहीं थी जहां आधुनिक मध्यवर्ग विकसित हो रहा था और पूरे भारत की किस्मत बदलने के लिए यह मध्यवर्ग अपनी किसी बड़ी भूमिका की कल्पना कर रहा था। वह किसी ऐसे शहरी भारत पर भी बहुत विश्वास करने के लिए तैयार नहीं थे जो ग्रामीण दरिद्रता व विस्थापन से पैदा श्रम के दोहन के बल पर टिका होता है।’ देश की सामाजिक और राजनीति बदलाव की ऐसी प्रवृत्ति का नागार्जुन भरपूर विरोध किया। नागार्जुन परिवर्तन के उभार का मुख्य केंद्र गांवों को मानते थे और गांवों के दलित-निम्नवर्ग को परिवर्तनकामी चेतना का वाहक घोषित करते हैं। उन्हें संगठित प्रतिरोध के बल पर नया इतिहास रचने वाली ताक़तें गांवों में ही दिखती थीं और गांव छोड़कर दिल्ली-पटना जाना उनके लिए ग़लत समझौते जैसा था। चूंकि किसान केवल भूमि से ही नहीं बल्कि शोषक वर्ग से पुश्तैनी संबंधों में बंधा रहता है इसलिए वह विद्रोह करने की स्थिति में कम रहता है। एक ही गांव में कई पुश्तों से रह रहा किसान ज़मींदार-शोषक वर्ग से पुश्तैनी रिश्तों में ख़ुद को बंधा पाता है और वह लड़ने के लिए तैयार नहीं रहता। वह पीढ़ियों से चले आ रहे उत्पीड़न को भी स्वीकार कर लेता है। पर किसी नये औद्योगिक वातावरण में जहां मज़दूरों का नया वर्ग अस्तित्व में आ रहा हो, वहां वह विरोध व विद्रोह की राजनीति के लिए शीघ्र तैयार हो जाता है। इसलिए नागार्जुन कविता में दलित शिशु का कर्मक्षेत्र व राजनीति झरिया, गिरिडीह व बोकारो होने की कल्पना करते है जहां कोयला व लोहे की खदानें हैं और जहां वह:-

‘खान खोदने वाले सौ-सौ

मज़दूरों के बीच पलेगा
युग की आंचों में फौलादी

सांचे-सा यह वहीं ढलेगा।’

नागार्जुन की कविताओं में हिंसा और प्रतिहिंसा ऐसे भाव हैं जिनसे उनका अच्छा-खासा लगाव है। उन्होंने लिखा भी है कि –

‘प्रतिहिंसा ही स्थायिभाव है मेरे कवि का/

जन-जन में जो ऊर्जा भर दे,

मैंउदगाता हूँ उस रवि का।’
(खिचड़ी विप्लव देखा मैंने,पृष्ठ-87)

प्रतिहिंसा का यह भाव जन-भावनाओं की ऊंचाई से अपनी उदात्त चेतना अर्जित करता है। प्रतिहिंसा का यह पूरा दर्शन मूलतः राज्य के खि़लाफ़ खड़े हिंसक आंदोलनों के निर्मम दमन और विश्व साम्यवाद से प्रेरित था। इसलिए उनकी कविता में 1947 ई. के बाद के भारत के बारे में तीखी आलोचनाएं उपस्थित हैं। ये आलोचनाएं उस व्यवस्था पर चोट करती हैं जो नौकरशाहों की फाइलों और राजनेताओं के स्वार्थों का गुलाम हो गयी है। नागार्जुन की भाषा-शैली:-निराला के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्होंने इतने छंद, इतने ढंग, इतनी शैलियाँ और इतने काव्य रूपों का इस्तेमाल किया है कि उन्हें आधुनिक रचनाकारों में अपनी भाषा-शिल्प के लिए अलग से याद किया जाता है। ‘पारंपरिक काव्य-रूपों को नए कथ्य के साथ इस्तेमाल करने और नितांत नए काव्य-कौशलों को संभव करनेवाले वे अद्वितीय रचनाकार हैं। ‘उनकी अभिव्यक्ति का ढंग तिर्यक भी है तो बेहद ठेठ और सीधा भी। अपनी तिर्यकता में वे जितने बेजोड़ हैं, अपनी वाग्मिता में वे उतने ही विलक्षण हैं।’ विविध काव्य रूपों को प्रयुक्त करने में उन्हें किसी प्रकार की कोई परेशानी महसूस नहीं होती। उन्होंने अनेक प्रकार के छंद-प्रयोगों से भी परहेज नहीं किया, बल्कि उसका अपनी कविताओं में तरह-तरह से इस्तेमाल करके दिखा दिया कि छंद को सावधानीपूर्वक साधा जाए, तो कविता में छंद का आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है। आलोचकों का एक बड़ा वर्ग उनके छंद-प्रयोगों को पर्याप्त आदर भाव से उद्धृत करता है। बाबा की कविताओं की लोकप्रियता का एक आधार उनके द्वारा किया गया छंदों का सधा हुआ चमत्कारिक प्रयोग भी है।

उनकी कविताओं में ‘विश्व व्यथा के बीज भी हैं और स्वागत शोक भी। इस तरह की शैली ज़्यादातर आख्यानात्मक और गद्य कविताओं में अधिक सामर्थ्य के साथ प्रकट होती है। उनकी गद्य लय का उठान काव्य लय के स्तर तक जाता है और कई बार उनकी काव्य लय ठेठ गद्य की लय को छूने लगती है। इसमें उनकी विवरण कला और बातूनीपन का विलक्षण युग्म देखा जा सकता है।’ विशेष रूप से उत्तर भारत और पूर्वांचल के लोगों का बातूनीपन, गप्प मारने, हँसने-हँसाने, ठिठोली करने, बीच-बीच में चिऊँटी काटने, यहाँ तक कि भाषा में शरारत का बेहद सतर्क उपयोग उनकी कविताओं में विद्यमान है। इस शैली के लचीलेपन का उपयोग करते हुए नागार्जुन कई तरह की स्वतंत्रता भी ले लेते हैं। वे कई बार एक से अधिक काव्य रूपों या छंदों का इस्तेमाल एक ही कविता में भी कर लेते है। इस तरह के मिश्रण से नाटकीयता तो पैदा होती ही है, साथ ही हमारी सामाजिक संरचना का बोध भी हो जाता है। उनकी रचनाओं की इस शैली में घुमक्कड़ी की मुक्ततता भी रची-बसी है और यायावरी की गतिमता भी। वे उन कवियों में नहीं हैं जो अपने ज्ञान और कौशल से स्वयं भी आक्रांत होते हैं और सदैव पाठकों और आलोचकों को चमत्कृत करने की मनोग्रंथि से ग्रस्त रहते हैं। स्वगत और मुक्त बातचीत की शैली में लिखित उनकी लंबी कविता ‘नेवला’ तथा ‘हरिजन गाथा’ अत्यंत महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं।यह महज़ संयोग नहीं है कि आत्मकथात्मक हिस्से अक्सर उनकी उस प्रकार की कविताओं में दिखाई पड़ते हैं, जिनमें सहज संप्रेषणीयता भी है और अद्भुत नाटकीयता भी। उनकी काव्यगत नाटकीयता में व्यंग्य, हँसी, गुस्सा और चुहलपन तो है, लेकिन सारा आयोजन एक बेहद सजग और जागृत राजनीतिक प्रयोजन के तहत् किया गया है। उनकी हँसी महज़ फुहड़पन नहीं है, वह बेहद साहस के साथ अनुगूंजित है,जो समाज और राजनीति के तथाकथित अभिजात्य मनोग्रंथि को भेदती है एवं अन्यायी एवं शोषक सत्ता का मज़ाक़ उड़ाती है। इसके अलावा जन सामान्य को शोषकों पर हँसने और उसका विरोध करने का साहस भरती है।‘आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी’ कविता के उदाहरण से इस बात को आसानी से समझा जा सकता है-            

‘यह तो नई-नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो

एक बात कह दूँ मलका, थोड़ी-सी लाज उधार लो
बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो
जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की!
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!
रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की!
यही हुई है राय जवाहरलाल की!

आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!

‘थोड़ी-सी लाज उधार’, ‘अपने पुरखों से उपहार लो’,‘रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की’ आदि प्रयोग ऐसे ही हैं, जहाँ कवि के क्रोध की उफान को समझा जा सकता है। ‘कई बार गुस्सा उनके व्यंग्य की जगह ले लेता है, तब नागार्जुन बहुत मुखर हो जाते है।उनकी कविता नुक्कड़ नाटक के समांतर एक भूमिका भी अदा करती है। वहाँ उनका अंदाज़े बयां नज़ीर की तरह और काव्य-विवेक भारतेन्दु हरिश्चंद की तरह प्रतीत होता है।’ उनकी राजनीतिक कविताएँ कई बार विवाद का विषय रही हैं। यह विवाद उनकी मूल वर्गीय राजनीतिक चेतना को लेकर उतना नहीं है, जितना वह उनकी व्यावहारिक राजनीति की समझ और उस पर की गई टिप्पणीयों को लेकर है। उपर्युक्त पंक्तियों मे इंदिरा गाँधी की कार्य शैली की कवि ने तीखी आलोचना की है। गौर से देखा जाए तो किसी भी रचनाकार की राजनीतिक दृष्टि उसकी पूरी रचना प्रक्रिया और रचना कौशल के अंदर निहित होती है। वह उसके शिल्प, उसकी भाषा और उसके काव्य मुहावरे में स्वतः प्रतिबिम्बित होती है। अतः उसका मूल्यांकण उसी प्रक्रिया के तहत् किया जाना चाहिए।

नागार्जुन की भाषा कई बार अनियंत्रित-सी लगती है और वह कहीं पर बहुत सघन तो कहीं बेहद संकुल और फिर कहीं-कहीं बहुत उन्मुक्त होकर प्रकट होती है। यह महज संयोग नहीं है, बल्कि इसके पीछे कई प्रकार के विषयगत और समयगत दबाव का असर आसानी से समझा जा सकता है। जिन रचनाओं में नागार्जुन भाषा के स्तर पर बेहद संयमित और गंभीर दिखते हैं, उनमें उनकी रूचि और काव्य समर्पण दोनों को जाँचा जा सकता है, लेकिन जिन रचनाओं को उन्होंने संपादकों या मित्रों के तत्काल आग्रह पर लिखा है,उसमें भाषा के स्तर पर कुछ खामियाँ रह गई हैं। यद्यपि यह दलील उनके संपूर्ण रचनाकर्म पर लागू नहीं किया जा सकता। ‘बादल को घिरते देखा है’, ‘कालीदास सच-सच बतलाना’, ‘अकाल के बाद’ जैसी कविताओं में भाषाई कौशल स्पष्ट दिखता है, जबकि राजनीति पर लिखी गई उनकी कई कविताएं भाषाई दृष्टि से कमजोर हैं। ‘गरीबदास’, ‘नई पौध’ जैसे उपन्यास की भाषा की भी इसी आधार पर आलोचना की जाती है। नगार्जुन की खास बात यह है कि उनकी रचनाओं में विभिन्न बोलियों के, संस्कृत, ऊर्दू और अग्रेज़ी के भी कई शब्द मौजूद हैं। नागार्जुन की रचनात्मक-भाषा शब्दों को ग्रहण करने के मामले में बहुत लचीली और समावेशी है। उसके तल में बोलियों की सहस्त्र धारा का अंतर्प्रवाह सतत् मौजूद रहता है। डॉ. रामविलास शर्मा ने नागार्जुन की भाषा के लिए लिखा है-‘‘हिन्दी भाषी क्षेत्र के किसान मजदूर जिस तरह की भाषा आसानी से समझते और बोलते हैं, उसका निखरा हुआ काव्यमय रूप नागार्जुन के यहाँ है। जीवन की भाषा को पकड़ने में उनके कान बहुत चौकन्ने हैं और स्मृति भी विलक्षण है, इसलिए उनकी भाषा में मिथिला की माटी की गंध और गंगा तट का ही संगीत नहीं, शिप्रा के तट की मालवी मिठास और बेतवा के तट की बुंदेली ठसक भी सुनाई पड़ती है।” एक कविता में अपने भाषा संबंधी आग्रह को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि ‘हिन्दी की असली रीढ़ गँवारू बोली है।’

वेवे कविता में बतकही की भाषा को भी अपनाते हैं, जिसके लिए वे स्थानीय शब्दों को तो चुनते ही हैं, साथ ही अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्दों को भी अपनी रचनाओं में घुला मिलाकर प्रसतुत कर देते हैं। इस कारण भाषा सीधे पाठक से जुड़ जाती है। मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान भी उनके लिए इसी उद्देश्य में सहायक रहा है। उनका गतिशील, सक्रिय और प्रतिबद्ध सुदीर्घ जीवन उनके काव्य में जीवंत रूप से प्रतिध्वनित-प्रतिबिंबित है। सही अर्थों में भारतीय मिट्टी से बने वे आधुनिकतम कवि हैं। जन संघर्ष में अडिग आस्था, जनता से गहरा लगाव और एक न्यायपूर्ण समाज का सपना, ये तीन गुण नागार्जुन के व्यक्तित्व में ही नहीं, उनके साहित्य में भी घुले-मिले हैं। इस आस्था, लगाव और सपने को उनकी रचनात्मक भाषा के संदर्भ में भी समझा जा सकता है। राजेश जोशी उनकी कविता के लोक-लय के बारे में लिखते हैं कि ‘नागार्जुन कई बार एक पद या अर्धाली की आवृति से एक लयात्मक वर्तुल बनाते है,जिसमें पहले बाहर की ओर फैलते आवर्त्त बनते हैं और बाद में केन्द्र की ओर लौटते आवर्त्त। कभी-कभी लगता है जैसे कोई ‘जनचक्र’ को घुमा रहा हो।’

‘कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त’
वहीं कविता के दूसरे पैरा में लय उलट जाती है -
‘दाने आए घर के अंतर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद

कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।’

लगता है जैसे कवि की सारी यात्राएँ कविता में भी प्रकट होकर बार-बार वापस मिथिला की ओर लौट रही हैं। आवृत्ति घटना का अतिक्रमण करके उसमें अंतर्निहित प्रवृति को प्रकट कर देती है। इस प्रकार के शब्द संघात से कई बार नागार्जुन एक विराट ध्वनि बिम्ब भी रचते है। क्योंकि भाषा पर बाबा का गज़ब अधिकार है। देशी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय पदावली तक उनकी भाषा के अनेक स्तर हैं।

जिस प्रकार उनकी काव्य चेतना के संदर्भ में कहा जाता है, वैसे ही भाषा की दृष्टि से भी यह कहा जा सकता है कि बाबा की कविताओं में कबीर से लेकर धूमिल तक की पूरी हिन्दी काव्य-परंपरा एक साथ जीवंत रूप में मौजूद है। उनकी कविता कोई बात घुमा-फिराकर नहीं कहती, बल्कि सीधे और सहज ढंग से कह जाती है। ‘उनके अलावा आधुनिक हिन्दी साहित्य में इस तरह की भाषाई विशेषता केवल गद्य-विधा के दो शीर्षस्थ लेखकों, आजादी से पूर्व के दौर में प्रेमचन्द और आजादी के बाद के दौर में हरिशंकर परसाई, में रेखांकित की जा सकती है। बाबा की कविताओं में यह खासियत इसीलिए भी आई है कि उनका काव्य-संघर्ष उनके जीवन-संघर्ष से संबद्ध है और दोनों के बीच किसी अबूझ-सी पहेली का पर्दा नहीं लटका है।उनका संघर्ष अंतर्द्वंद्व, कसमसाहट और अनिश्चितता भरा संघर्ष नहीं है, बल्कि खुले मैदान का, निर्द्वन्द्व, आर-पार का खुला संघर्ष है और इस संघर्ष के समूचे घटनाक्रम को बाबा मानो अपनी डायरी की तरह अपनी कविताओं में दर्ज करते गए हैं।’ बाबा की कविताओं की इसी विशेषता के एक अन्य कारण की चर्चा करते हुए केदारनाथ सिंह कहते हैं कि बाबा अपनी कविताओं में ‘बहुत से लोकप्रिय काव्य-रूपों को अपनाते हैं और उन्हें सीधे जनता के बीच से ले आते हैं’। उनकी ‘मंत्र कविता’ देहातों में झाड़-फूँक करके उपचार करने वाले ओझा की शैली में है।’

‘ओं भैरो, भैरो, भैरो, ओं बजरंगबली

ओं बंदूक का टोटा, पिस्तौल की नली
ओं डालर, ओं रूबल, ओं पाउंड
ओं साउंड, ओं साउंड, ओं साउंड
ओम् ओम् ओम्

ओम् धरती, धरती, धरती, व्योम् व्योम व्योम्’

नागार्जुन की भाषा और उनके छंद मौके के अनुरूप बड़े कलात्मक ढंग से बदल जाया करते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि यदि हम अज्ञेय, शमशेर या मुक्तिबोध की कविताओं को देखें तो उनके यहाँ भाषा इस कदर नहीं बदलती है, क्योंकि ये कवि अपने प्रयोग और बदलाव प्रतीकों और बिम्बों के स्तर पर करते हैं, भाषा की जमीन के स्तर पर नहीं। नागार्जुन अपनी कविता के लिए शब्द तलाशते हुए भाषा की गहराई तक जाते हैं और कई बार बिल्कुल ठेठ जनपदीय भाषा-प्रयुक्तियों को कविता के बीच इस प्रकार स्थापित कर देते है कि उसे उस जगह से हिलाना मुश्किल हो जाता है। कविता में प्रयुक्त शब्दों के स्थान पर उन शब्दों के यदि पर्याय को रख दिया जाए तो कविता का पूरा समीकरण और अर्थ ही बिगड़ जाता है। उनके समकालीन कवि त्रिलोचन शास्त्री ने मुक्तिबोध और नागार्जुन की कविताओं की तुलना करते हुए एक बार ठीक ही कहा था कि-‘मुक्तिबोध की कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी या यूरोप की दूसरी भाषाओं में करना ज्यादा आसान है, क्योंकि उसकी भाषा भले भारतीय है, पर उसमें मानसिकता का प्रभाव पश्चिम से आता है; लेकिन नागार्जुन की कविताओं का यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद करना बहुत कठिन है। यदि ऐसी कोशिश होगी भी तो तीन-चार पंक्तियों के अनुवाद के बाद ‘फुटनोट’ से पूरा पन्ना भरना पड़ेगा।’ यह असल में बाबा की कविताओं के ठेठ भारतीय और मौलिक धरातल की पहचान है।

नागार्जुन की काव्य-भाषा का असर उनकी कथा-भाषा पर भी स्पष्ट देखा जा सकता है। चूँकि उनके सभी उपन्यास मिथिला जनपद को आधार बनाकर लिखे गए हैं, इसलिए उनके उपन्यासों एवं कहानियों में मैथिली भाषा का स्पष्ट प्रभाव है। कई बार तो बिना किसी चिंता के वे मैथिली के शब्दों को उसके मूल रूप में ही रख देते हैं। सुथनी, अल्हुआ, पहुना, भरिया, बखिया, चिवड़ा, कोठार जैसे कई मैथिली शब्द हू-ब-हू प्रयुक्त हुए हैं। कई बार वे उपन्यासों के बीच मैथिली गीत भी संयोजित कर देते हैं। यथा-

‘सखि हे मजरल आमक बाग?

कुहू-कुहू चिकरए कोईलिया
झींगुर गावई फाग !
कंत हमर परदेस बसई छथि

बिसरई राग-अनुराग !’

नागार्जुन एक समर्थ रचनाकार हैं, इसलिए उनका भाषा प्रयोग बहुरुपा है। उनके कथा-साहित्य में गीत के साथ-साथ ग्रामीण कहावत-मुहावरों के भाषाई सरसता स्वाभाविक रूप से आ गई है। मुझे लगता है उनके काव्य और कथा के भाषा और शैली को अलग करके देखना सही नहीं होगा। उनकी कई कविताओं में कथा और आख्यान का रुप प्रकट हो गया है, वहीं उनके उपन्यासों की भाषा में काव्यात्मकता सहज ही आ गई है। उनके कथानकों में आत्मकथा, संस्मरण, रपोर्ताज आदि की विशेषताएं भी सम्मिलित हो गई हैं। काव्य,कथा-साहित्य एवं अन्य गद्य रचनाओं की दृष्टि से विचार किया जाए तो नागार्जुन भाषा के सच्चे उन्नायक कहे जा सकते हैं।

सहायक ग्रंथ-सूची[सम्पादन]

1. नागार्जुन: मेरे बाबूजी, शोभाकांत, वाणी प्रकाशन,दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1990

2. नागार्जुन:एक लंबी जिरह,विष्णु चंद्र शर्मा,वाणी प्रकाशन,दिल्ली, प्रथम संस्करण,2001

3. नागार्जुन की कविता, अजय तिवारी, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, द्वितीय संस्करण,1998

4. नागार्जुन और उनका रचना संसार, विजय बहादुर सिंह,वाणी प्रकाशन, दिल्ली. 1986

5. नागारजुन रचना संचयन, राजेश जोशी, साहित्य अकादमी, 2005

6. नागार्जुन: मेरे साक्षात्कार, संपादक,शोभाकांत, किताबघर,दिल्ली, संस्करण 2000

7. नागार्जुन(पत्रिका), संपादक, सुरेशचन्द्र त्यागी,सहारनपुर, फरवरी,1984

8. बाबा नागार्जुन,डॉ.सुरेश चन्द्र गुप्त,उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान,लखनऊ, 2009

9. नागार्जुन जन्मशती विशेषांक,नयापथ,सं.-मुरली मनोहर प्रसाद सिंह,जनवरी-जून 2011

10. नागार्जुन की काव्य-यात्रा, डॉ.रतन कु.पांडेय, विश्वविद्यालय प्रकाशन,वाराणसी,प्रथम सं. 1986

11. नागार्जुन का उपन्यास साहित्य:समसामयिक संदर्भ,डॉ. सुरेंद्र कु.यादव, वाणी प्रकाशन,2001

2. वेब पते -

1. www.abhivyakti-hindi.org

2. www.anubhuti-hindi.org

3. www.vimisahitya.wordpress.com

4. www.gadyakosh.org


…….अभी जारी है