साहित्य सिद्धान्त - 1/प्रमुख बीज शब्द : अनुभूति, कल्पना, भाववाद, मानवतावाद

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मानवतावाद:- मानवतावाद दर्शन की स्थापित शाखा न होकर एक दार्शनिक दृष्टिकोण है, जो मानव मूल्यों व मानवीय गरिमा का केंद्र में रखकर मानव की आत्मनिर्भरता, संवेदना, अनुभव, एवम मानव ज्ञान की पूर्णता को प्रकाशित करता है। यूरोपीय नवजागरण में धर्म की बेड़ियों एवम वाह्य आडंबरों को तोड़कर मानव महिमा को प्रतिष्ठित करने का जो आंदोलन हुआ उसके मूल में तो मानव का भौतिक उन्नयन था किंतु उसकी उच्च परिणति पाश्चात्य साहित्य के मानव के 'स्व ' की खोज एवम आत्मसाक्षात्कार से हुई मनुष्यता में ईश्वरत्व की परिकल्पना तक पहुंच दर्शन के उच्चतम शिखर को छूती है।

 मानवतावाद से आशय उन सभी विभिन्न विचारों व दृष्टिकोण से है जिनके मूल में मानव की प्रतिष्ठा, उसका सम्मान एवम प्रेम की स्वीकार्यता, उसके जीवन की समरसता पूर्ण एवम बहुमुखी विकास हेतु आवश्यक परिस्थितियों संरचना तथा अंतोगतवा मानव जीवन को उच्चतम मूल्य मानने का भैया हो।
 दार्शनिक पृष्टभूमि में मानवतावादी विचार प्राचीन भारतीय और चीनी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिपादित और प्रसारित किए गय किंतु मूलतः इसकी सुस्पष्ट अभिव्यक्ति प्राचीन ग्रीस और रोम के दर्शन, कला और साहित्य में हुई जहां मानव को पूर्ण समन्वित जीव के रूप में देखा गया। इनके कलात्मक और साहित्यिक अभिव्यक्तियों में मानव अनुभवों को केंद्र में रखा गया जबकि इनके पूर्व हिब्रू और कालांतर में ईसाई कला और साहित्य के केंद में ईश्वर था। होमर का महाकाव्य इलियट जिस केंद्रीभूत मानवीय भाव से आरंभ होता है वह है ' क्रोध '।
 इसके विपरित ईसाई धर्म ईश्वर - सृजित - मानव के मूल्यों के उदातवत्ता प्रदान करता है लेकिन साथ ही उसे ' अदिपाप ' ( आदि पिता एडम और आदिमाता इव) के भार से परिणाम: जीवनपर्यंत प्रायश्चित की अनिवार्यता के द्वारा नियंत्रित कर कातर बनने पर विवश कर देता है।
 यद्यपि मानवतावादी और लोकतांत्रिक मूल्य कहीं - कहीं रहस्यवाद के स्वरूप में आते तो है किंतु मध्ययुगीन रोमन कैथोलिक चर्च में पाप एवम मानव की महत्वहीनता का विचार ही प्रतिपादित और प्रचारित होता है।
इटली के मानवतावादीयों  ने मानव को वैयक्तिक स्वतंत्रता में निहित मानवीय मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में देखा तथा उसकी प्रतिष्ठा को एक ऐसे अस्तित्व के रूप में समर्थन दिया जो अच्छाई के प्रति स्वाभावगत   अभिलाषा से अनुप्राणित है, जो समग्र विश्व के प्रति क्रियाशील मनोवृति रखता हो। इन मानवतावादीयो ने न केवल प्राचीन उच्च साहित्य की मनावतावादी परंपरा को संदर्भित किया बल्कि आद्य ईसाइयत में प्रतिपादित विचारों को भी उद्घाटित किया जिनके अनुसार मानव की सर्जना ईश्वर के बिंब रूप में उसकी सादृश्यता के अनुरूप हुई है।
 आज जिन अर्थों में (भौतिक या आध्यात्मिक) मानवतावाद का प्रयोग होता है वैसी अभिनव अभिव्यक्तियों भारतीय वाडमय से अलौकिक महिमा प्रदान करने। का मार्ग प्रशस्त कर अमूर्तता की उस ऊंचाई पर पहुंचता है जहां वास्तविक जगत उपेक्षित हो जाता है, तो दूसरी तरफ भारतीय दर्शन की लोकायत परंपरा पूर्णरूप से केंद्रित है, यहां तक कि अलौकिक सत्ता को अस्वीकार करने से भी नही हिचकती। बुद्ध भी अलौकिक सत्ता को देखते है तथा समस्त पीड़ित जीवों की पीड़ा को कम करने तथा उनके सुख को बढ़ाने के भाव को प्रतिष्ठापित करते है।