सिविल सेवा प्रारंभिक परीक्षा सहायिका/मध्यकालीन भारत

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चोल साम्राज्य(850 ई. में यानी 9वीं सदी के अंत में)[सम्पादन]

पल्लवों का सामंत विजयालय ने काँची के पल्लवों को पराजित करके इस साम्राज्य की स्थापना की।तत्पश्चात इसने दक्षिण तमिल देश जिसे टोंडमंडल कहा जाता था, तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया।इसने पाण्ड्यों की शक्ति को भी छीन लिया था।[१] राजराज द्वारा तंजावुर का राजराजेश्वर मंदिर का निर्मान किया गया।इस दौर में अनेक शिव और विष्णु मंदिर भी बनवाए गए।साथ हीं इन शासकों ने मंदिर की दीवारों पर लंबे-लंबे अभिलेख उत्कीर्ण कराने का चलन आरंभ किया, जिसमें वे अपनी जीतों के ऐतिहासिक विवरण लिखवाते थे।

राजेन्द्र-प्रथम द्वारा कलिंग के रास्ते बंगाल पर किये गए सैनिक अभियान में इसकी सेना ने गंगा को पार करते हुए स्थानीय राजाओं को हराया। उसने इस अभियान में समुद्रगुप्त के मार्ग का अनुसरण किया था और विजय स्मृति के रूप में कावेरी के मुहाने पर एक नई राजधानी गंगईकोंडचोलपुरम(गंगा के चोल विजेता)बनाई।

राजेन्द्र प्रथम ने पाण्ड्य और चेर शासकों पर आक्रमण करके उन्हें अपने साम्राज्य में मिला लिया। उसने अपनी यह विजय श्रीलंका तक जारी रखी और दक्षिण भारत में आरंभिक मध्यकालीन समय तक अपना प्रभुत्व कायम रखा।

चोलों ने अपनी सैन्य कार्रवाई के बल पर दक्षिण-पूर्व एशिया के शैलेंद्र शासकों पर आक्रमण किया और उनके कुछ क्षेत्रों को जीतकर अपने अधिकार में किया। उनका उद्देश्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ होने वाले व्यापार पर नियंत्रण स्थापित करना था।[२]

राष्ट्रकूटों के पतन के बाद उनका स्थान उत्तरी चालुक्यराजवंश ने लिया। इसकी राजधानी कल्याणी थी। इनसे चोलों के संघर्ष का कारण वैंगी (रायलसीमा), तुंगभद्र दोआब और उत्तर- पश्चिम कर्नाटक जिसे ‘गंगदेश’ कहा जाता था पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना था। इन दोनों के संघर्ष में निर्णायक विजय किसी की भी नहीं हुई।

व्यापार-वाणिज्य खूब फल-फूल रहे थे और व्यापारियों की कुछ बड़ी-बड़ी श्रेणियाँ थीं, जिन्हें गिल्ड कहते थे। ये श्रेणियाँ मुख्य रूप से जावा एवं सुमात्रा के साथ व्यापार करने के लिये जानी जाती थीं।

चोलकालीन अभिलेखों से हमें इस साम्राज्य के ग्राम प्रशासन की अधिक जानकारी प्राप्त होती है। यह प्रशासन दो इकाइयों में बँटा था

  1. उर-उर गाँव की आम सभा थी।
  2. महासभा (सभा)- गाँवों के वयस्क ब्राह्मण सदस्यों की सभा थी। इन्हें अग्रहार भी कहा जाता था। अग्रहार जिस भूमि में रहते थे वह लगानमुक्त भूमि होती थी।

चोलकाल में ग्राम प्रशासन की इकाई के रूप में महासभा गठित की जाती थी, उस सभा के सदस्य वयस्क ब्राह्मण होते थे, उन्हें रहने के लिये जो लगान-मुक्त भूमि उपलब्ध कराई जाती थी उसे ही अग्रहार कहते हैं। जैन विद्धान पंपा, पोन्ना और रन्ना को कन्नड़ काव्य का रत्न माना जाता है।


तिरुमुराई अलवार और नयनार संतों द्वारा लिखी गई रचनाओं का एक संकलन है जिसे पाँचवें वेद की संज्ञा दी गई है।


ग्राम प्रशासन की स्वायत्तता सबसे प्रमुख विशेषता थी। इनके मामलों को एक कार्यकारिणी समिति संभालती थी, जिसके सदस्यों का चुनाव पर्चियाँ निकालकर तीन वर्ष के लिये किया जाता था।

साम्राज्य मंडलों या प्रांतों में और मंडलम, वलनाडुओं और नाडुओं में बँटे होते थे। कभी-कभी राज परिवार के सदस्यों को ही प्रांतीय शासक नियुक्त किया जाता था और इन अधिकारियों को वेतन के रूप में राजस्व के रूप में प्राप्त भूमि दी जाती थी। चोल काल में दक्षिण भारत ने मूर्तिकला की ऊँचाई को स्पर्श किया, जिसका सबसे अच्छा उदाहरण कांस्य निर्मित नटराज की प्रतिमा तथा गोमतेश्वर की विशाल मूर्ति है।

छठी से लेकर नवीं सदी में उदित अलवार व नयनार संत शिव व विष्णु के भक्त थे। उन्होंने तमिल तथा उस श्रेत्र से संबंधित अन्य भाषाओं में गीतों और भजनों की रचना की। यही रचनाएँ तिरूमुराई नाम से संकलित की गईं।

अलवार और नयनार की रचनाओं को ग्यारह जिल्दों में संकलित किया गया है?इन संतों ने तमिल तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में गीतों और भजनों की रचना की, जिन्हें जिल्दों में संकलित किया गया है।

तंजावुर में बृहदीश्वर मंदिर

कंबन ग्यारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध तथा बारहवीं सदी के प्रारंभ तक चोल राजा के दरबार में रहा। इस काल को चोल साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है। चालुक्य राजा के दरबार में नन्नैया ने महाभारत का तेलगू पाठ आरंभ किया, जिसे तेरहवीं सदी में टिकन्ना ने पूरा किया। राष्ट्रकूट राजाओं ने तेलगू और कन्नड़ दोनों को संरक्षण दिया। राजा अमोघवर्ष ने कन्नड़ में काव्यशास्त्र लिखा। पंपा, पोन्ना और रन्ना कन्नड़ काव्य के रत्न माने जाते हैं, जो जैन धर्म से प्रभावित थे।

गोपुरम पाण्ड्य शासकों की स्थापत्य कला की विशेषता है। इस काल में मंदिर छोटे बनाए जाते थे, परंतु उनके चारों ओर अनेक प्राचीर बनाए जाते थे। यह प्राचीर तो सामान्य होते थे, लेकिन इनके प्रवेश द्वार जिन्हें गोरपुरम कहा जाता है, भव्य व विशाल होते थे, जो प्रचुर मात्रा में शिल्पकारिता से अंलकृत थे। इनके काल की विशेषता वास्तुकला न होकर गोपुरम थी। अतः यह तोरण पर बने अंलकृत बहुमंजिला भवन/द्वार हैं।

चोल-राजा राजराज-प्रथम ने तंजावुर में बृहदीश्वर मंदिर बनवाया, जो शिव व विष्णु को समर्पित है। यह मंदिर स्थापत्य कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।

भारत में इस्लाम का आगमन तथा धार्मिक परंपरएँ (1000-1200ई.तक)[सम्पादन]

गज़नी राजवंश की स्थापना अल्पतगीन ने की थी। इसका एक नाम यामीनी वंश भी था। इसने गजनी को अपनी राजधानी बनाया। उस समय भारत के उत्तर-पश्चिमी राज्य में हिंदूशाही शासक थे।

अल्पतगीन सामानी सूबेदारों में एक तुर्क गुलाम था, जिसने कालांतर में गज़नी को अपनी राजधानी बनाकर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की और मध्य एशियाई जनजातियों से इस्लामी क्षेत्रों की रक्षा का दायित्व भी गज़नवियों ने सँभाल लिया। 998 ई.-1030 ई. तक गज़नी पर शासन करने वाला महमूद गज़नी की गद्दी पर बैठने वाला पहला शासक था। इसे मध्यकालीन इतिहासकार इस्लाम का नायक मानते थे। इसने मध्य एशियाई तुर्क जनजातियों से राज्य और धर्म की रक्षा करने के लिये शूरवीरता से उनका सामना किया।


नवीं सदी का अंत होते-होते अब्वासी खिलाफत का पतन हो चुका था। खलीफाओं ने एकता को कायम रखने के लिये एक तरीका अपनाया और कहा कि जो सेनापति अपने लिये स्वतंत्र क्षेत्र स्थापित करने में कामयाब हो जाते हैं। उन्हें अमीर-उल-उमरा या सेनापतियों के सेनापति की उपाधि दी जाएगी। अतः अमीर-उल-उमरा स्वतंत्र क्षेत्र स्थापित करने वाले सेनापति थे।

नवीं सदी के अंतिम दौर में ट्रांस-ऑक्सियाना, खुरासान, और ईरान के कुछ हिस्सों पर सामानियों का शासन था, जो ईरानी मूल के थे। इन्होंने एक नए सैन्य बल का गठन किया जो गाज़ी कहलाए। अतः यह एक ईरानी मूल के शासक थे। तुर्क लोग प्राकृतिक शक्ति की पूजा करते थे। अतः यह गाज़ियों को विधर्मी मानते थे। इसलिये इनकी लड़ाई राज्य की सुरक्षा के साथ-साथ धर्म की रक्षा की भी लड़ाई थी। इसलिये सामानी जितने योद्धा थे उतने ही धर्म के रक्षक भी।

फिरदौसी की रचना शाहनामा है, जो फारसी भाषा में लिखी गई है। सामानी राज्य में फारसी भाषा और साहित्य को प्रोत्साहन मिला। इस ग्रंथ में ईरान पर अरबों की जीत (सन 636 ई.) के पूर्व के शासकों का चरित्र वर्णित है। यह दोहों में लिखी गई है। धा महमूद गज़नवी ने खुद दावा किया है कि वह ईरान के पौराणिक राजा अफ्रासियाब का वंशज है। उसने यह दावा तब किया जब फारसी भाषा और संस्कृति गज़नवी साम्राज्य की भाषा और संस्कृति बन गई। महमूद गज़नी ने भारत पर 17 बार आक्रमण किया, परंतु उसका लक्ष्य भारत में स्थायी मुस्लिम शासन स्थापित करना नहीं था बल्कि लूटपाट करना था।

1001 ई. में महमूद ने जयपाल को हराकर उसे बंदी बना लिया तो उसके पुत्र आनंदपाल ने पेशावर के निकट वैहिंद में 1008-9 ई. के बीच महमूद के साथ निर्णायक युद्ध लड़ा। इस युद्ध में पंजाब के खोखर जनजाति ने भी आनंदपाल का साथ दिया था। महमूद का भारत पर हमले का उद्देश्य धन लूटना और इस्लाम का यश बढ़ाना था। उसने कन्नौज और सोमनाथ पर आक्रमण करके खुद को ‘बुतशिकन’ अर्थात् मूर्तिभंजक के तौर पर पेश किया।

महमूद गज़नी ने 1018 ई. में कन्नौज पर आक्रमण किया। उसके बाद 1025 ई. में सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण करके उसे खूब लूटा। उस समय गुजरात का शासक भीम था। महमूद का भारत पर आक्रमण करने का उद्देश्य उत्तर भारत के धनधान्य से पूर्ण मंदिरों को लूटना था। ताकि लूटे धन से वह मध्य एशियाई शत्रुओं के खिलाफ संघर्ष जारी रख सके। वह भारत पर शासन नहीं करना चाहता था। प्रतिहार साम्राज्य के विघटन के बाद उत्तर भारत में कई राजपूत राज्यों का उदय हुआ। इनमें महत्त्वपूर्ण थे- कन्नौज के गाहडवाल, मालवा के परमार और अजमेर के चौहान। इनमें गाहडवालों ने पालों को बिहार से निकाल दिया। चौहानों ने गुजरात, पंजाब और दिल्ली तक अपना साम्राज्य फैलाया।

नागर शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं - गर्भगृह या देउल जिसे कक्ष भी कहते हैं इसकी छत गुबंदनुमा बनी होती थी। मुख्य कक्ष अक्सर वर्गाकार होता था। उसकी प्रत्येक भुजा से लगाकर कक्ष बनवाए जाते थे। गर्भगृह के सामने एक मंडप बनवाया जाता था। मंदिर चारदीवारी से घिरा होता था जिस पर बड़े-बड़े सिंहद्वार होते थे। इस शैली में खजुराहों व भुवनेश्वर के मंदिर बने हुए हैं।

यह सभी मंदिर नागर शैली में बने हैं।

जिसमें खजुराहो का पार्श्वनाथ मंदिर एवं विश्वनाथ मंदिर हैं। कंदरिया का महादेव मंदिर इस शैली को अलंकृत करता है। ग्याहरवीं सदी में बना कोणार्क का सूर्य मंदिर और उड़ीसा का लिंगराज मंदिर भी इसी शैली से बने मंदिर हैं।

ग्यारहवीं सदी में बने उत्तर भारत के मंदिरों में अत्यधिक विस्तार एवं अलंकरण दिखाई देता है। यह मंदिर इस काल में सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन के केंद्र बन गए थे। इन मंदिरों ने अकूत संपत्ति अर्जित कर ली थी। सोमनाथ मंदिर इसका उदाहरण था। यह मंदिर कई-कई गाँवों पर शासन करते थे और व्यावसायिक गतिविधियों में भी भाग लेते थे।

चालुक्य राजा भीमदेव-I का मंत्री वस्तुपाल एक श्रेष्ठ लेखक था। उसने अनेक विद्धानों को आश्रय दिया और माउंट आबू स्थित दिलवाड़ा के जैन मंदिर को बनवाया।


मोहम्मद-बिन-साम(मोहम्मद गौरी) ने 1173 ई. में भारत पर आक्रमण किया। उसकी सेना में बख्तियार खलजी शामिल था। मोहम्मद गौरी नहीं। खलजी ने बिहार के कुछ प्रसिद्ध विहारों को अपना लक्ष्य बनाया, जिसमें नालंदा और विक्रमशीला विहार भी शामिल थे। साम तुर्क वंश का था। मोहम्मद गौरी ने 1178 ई. में गुजरात पर आक्रमण किया था। उस समय भीम-II ने आबू पर्वत के निकट गौरी से मुकाबला किया और उसे पराजित कर दिया। यह गौरी की भारत में पहली पराजय थी। द्वितीय तराइन युद्ध के बाद तुर्क सेना ने सरस्वती के निकट पृथ्वीराज को बंदी बना लिया तथा हाँसी, सरस्वती और समाना के किलों पर कब्जा कर लिया। पृथ्वीराज को कुछ समय तक मुहम्मद गौरी ने अजमेर पर शासन करने दिया। क्योंकि इसकी जानकारी लड़ाई के बाद मिले सिक्कों से होती है, जिसमें एक तरफ पृथ्वीराज और उसकी तिथि का उल्लेख है तथा दूसरी तरफ मुहम्मद साम लिखा है।

पश्चिम पंजाब की युद्ध में परांगत खोखर जाति ने जब गौरी के विरूद्ध विद्रोह करके लाहौर और गजनी के बीच संचार मार्ग बंद कर दिया तो खोखरों को सबक सिखाने के लिये गौरी ने 1206 ई. में खोखरों पर आक्रमण किया। जिसमें खोखरों की हार हुई। यह गौरी का भारत पर अंतिम आक्रमण था।

दिल्ली सल्तनत(1200-1526 ई.तक)[सम्पादन]

गुलाम वंश[सम्पादन]

कुतुबुद्दीन ऐबक(1206-10)एक तुर्क गुलाम था और उसे भारतीय प्रदेशों का उत्तराधिकार 1206 ई. में गौरी की मृत्यु के बाद मिला था। ऐबक ने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया। उसने दिल्ली को कभी भी राजधानी बनाने का रुख नहीं किया। ऐबक को तराइन के युद्ध के बाद गौरी ने भारत में सल्तनत के विस्तार हेतु नियुक्त किया था।

1210 ई. में ऐबक की मृत्यु के बाद इल्तुतमिश दिल्ली की गद्दी पर बैठा। उसके गद्दी पर बैठने के बाद अली मर्दान खान ने स्वयं को बंगाल और बिहार का राजा घोषित कर लिया और ऐबक के साथी गुलाम कुबाचा ने स्वयं को मुलतानन का स्वतंत्र शासक होना ऐलान किया। अतः उसने तुर्को की भारत विजय को स्थायित्व प्रदान किया। इल्तुतमिश आरंभिक वर्षों में उत्तर- पश्चिम पर जीत हासिल करना चाहता था, परन्तु गजनी पर ख्वारिज्म शाह की विजय ने उसकी चिंता बढ़ा दी। अब मध्य एशिया तक ख्वारिज्म साम्राज्य शक्तिशाली हो गया। अतः इस खतरे को टालने के लिये इल्तुतमिश ने लाहौर के लिये कूच किया और उस पर कब्ज़ा कर लिया। इल्तुतमिश पहला ऐसा मुस्लिम शासक था जिसने अपनी राजधानी लाहौर से दिल्ली स्थानांतरित की।इल्तुतमिश ने 1210 ई. से 1236 ई. तक दिल्ली में राजधानी बनाकर शासन किया, जबकि ऐबक ने लाहौर को राजधानी बनाकर वहाँ से ही शासन किया।

जब इल्तुतमिश पश्चिमी इलाकों पर ध्यान दे रहा था तभी बंगाल और बिहार में इवाज़ ने सुल्तान गयासुद्दीन की पदवी धारण की और अपनी आज़ादी का ऐलान किया। अपने जीवन के अंतिम वर्ष उत्तराधिकारी को लेकर इल्तुतमिश काफी परेशान था। बेटों को गद्दी लायक न समझ कर उसने रज़िया को गद्दी पर बैठाने का फैसला किया और उलेमाओं तथा अमीरों को रज़ामंद कर लिया। रज़िया ने तीन वर्ष तक दिल्ली में शासन किया। परन्तु उसी के शासनकाल में सत्ता के लिये राजतंत्र और उन तुर्क सरदारों के बीच संघर्ष आरंभ हो गया, जिन्हें चहलगामी कहा जाता था। चलहगानी तुर्क सरदार थे, जिनसे इल्तुतमिश बहुत आदर से पेश आता था। अतः इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद वे अपने किसी सरदार को कठपुतली बनाकर गद्दी पर बिठाना चाहते थे, परन्तु रज़िया के गद्दी पर बैठने के बाद इन्होंने विद्रोह कर दिया। रज़िया को गद्दी से हटाने में सर्वाधिक योगदान तुर्क सरदारों ने दिया। इन्होंने भटिंडा के गवर्नर अल्तूनिया से मिलकर इसे बंदी बना लिया और मार डाला।


इल्तुतमिश की मृत्यु के समय बलबन सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद का नायब था, जिसे उसने गद्दी हासिल करने में मदद की थी। अतः अपनी स्थिति मज़बूत बनाने के लिये बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह महमूद के साथ करा दिया था। तुर्क सरदार उलुग खाँ ने जब 1265 ई. में दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर अधिकार कर लिया तो बलबन के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हो गया। बलबन राजपद की शक्ति और प्रतिष्ठा की वृद्धि हेतु हमेशा प्रयत्नशील रहा। उसने गद्दी पर अपने दावे को मज़बूत करने के लिये खुद को ईरानी शहंशाह अफ्रासियाब का वंशज कहा। वह भारत में एक शक्तिशाली कठोर शासक बनकर उभरा और सत्ता की सारी शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित की। उसने शक्तिशाली सेना भी गठित की। दिल्ली पर रौब जमाकर बलबन उत्तर- पश्चिम भारत को मंगोलों से सुरक्षित रखना चाहता था पर वह कामयाब नहीं हो पाया और उत्तरी भारत को मंगोल हमलों से सुरक्षित नहीं रख सका।

अमीरों पर नियंत्रण के लिये बलबन ने सज़दा और पैबोस रस्म की शुरुआत की, जिसमें सज़दा -राजा को दंडवत् प्रणाम करना और पैबोस-राजा के कदम चूमना था।
उत्तर- पश्चिम में मंगोलों का सामना करने के लिये बलबन ने एक शाक्तिशाली केंद्रीकृत सेना संगठित की और एक सैन्य विभाग बनाया, जिसे दीवान-ए-अर्ज़ नाम दिया।
जब दिल्ली के आसपास के इलाकों तथा दोआब में शांति सुव्यवस्था की स्थिति काफी बिगड़ गई, गंगा-यमुना दोआब तथा अवध की सड़कें चोर-डाकुओं से घिरी रहती थीं, आसपास के पूर्वी क्षेत्र में कुछ राजपूत ज़मींदारों ने किले बना लिये थे और शासन को चुनौती दे रहे थे। इन सबसे निपटने के लिये बलबन ने खून और फौलाद की नीति अपनाई तथा बदायूँ के राजपूत गढ़ों को नष्ट कर दिया और सड़कों को साफ कराकर अफगान सिपाही वहाँ नियुक्त कर दिये।
बलबन ने अपने पुत्र बुगरा खाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था। उसने दिल्ली की बजाय बंगाल पर स्वतंत्र रूप से शासन करना पसंद किया और 40 वर्ष तक वहाँ शासन किया।

इलबरी तुर्क जिन्हें मामलुक या गुलाम तुर्क भी कहा जाता था, के शासनकाल में दिल्ली के सुल्तानों को न केवल विदेशी आक्रमण का सामना करना पड़ा, बल्कि आंतरिक विद्रोहों से भी लड़ना पड़ा, जिसमें कुछ महत्त्वाकांक्षी मुसलमान सरदार थे।


मध्यकालीन राज्य वर्तमान नाम

  1. तिरहुत  : उत्तरी बंगाल
  2. राधा  : दक्षिण बंगाल
  3. जाजनगर  : उड़ीसा

दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजियेः

  1. इन्होंने एक सशक्त राजतंत्र की स्थापना की।
  2. मंगोलों का सफलतापूर्वक सामना किया।
  3. दोआब पर शासन करते हुए पूर्वी राजस्थान पर नियंत्रण किया।
  4. बिहार और बंगाल इनके नियंत्रण में नहीं रहे।

ख्वारिज्म साम्राज्य मध्य एशिया का सबसे शक्तिशाली राज्य था। उसकी पूर्वी सीमा सिंधु नदी तक फैली हुई थी, जो इल्तुतमिश की चिंता का कारण थी। 1220 ई. में ख्वारिज्म साम्राज्य को मंगोलों ने नष्ट कर दिया और एक नए साम्राज्य की स्थापना की, जिसकी सीमा चीन से लेकर भूमध्य सागर तथा कैस्पियन सागर से लेकर जक्सार्टिस नदी तक फैली हुई थी।

जब रज़िया जनाना पोशाक में दरबार में आती थी और युद्ध का नेतृत्व करती थी तो यह कट्टरपंथी उलेमाओं को पसंद नहीं आता था। निज़ाम उल-मुल्क जुनैदी ने उसकी गद्दी-नशीनी का विरोध किया और उसके खिलाफ अमीरों का समर्थन किया। रज़िया ने राजपूतों को काबू में करने के लिये सर्वप्रथम रणथंभौर पर आक्रमण किया और पूरे राज्य में शांति व्यवस्था कायम की। रज़िया जब लाहौर और सरहिंद विजय के बाद लौट रही थी तो उस समय उसी के खेमें में विद्रोह भड़क उठा और तबरहिंद के निकट उसे बंदी बना लिया गया।

भारत पर मंगोल आक्रमण इल्तुतमिश के समय से प्रारंभ हुआ और तेरहवीं सदी के अंत तक चलता रहा, परंतु वे भारत में अपना स्थायित्व कायम करने में कामयाब नहीं हो सके। क्योंकि दिल्ली के सुल्तानों ने इनका डटकर सामना किया। अलाउद्दीन खिलजी ने दिल्ली के निकट सीरी में नई राजधानी बनाई और किलेबंदी करके मंगोलों का सामना करने के लिये महीनों बैठा रहा। धीरे-धीरे दिल्ली के शासकों ने लाहौर पर अधिकार करते हुए झेलम के निकट साल्ट पर्वत श्रेणियों तक अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।

खिलजी वंश[सम्पादन]

अलाउद्दीन ने ज़मींदारों को खूत और मुकद्दम कहा और उसने आशा की कि जिस तरह आम लोग ‘कर’ देते हैं, उसी तरह वे लोग (ज़मींदार) भी ‘कर’ दें। अलाउद्दीन का दक्षिण के सभी राज्यों पर एक के बाद एक आक्रमण धन का लालच तथा गौरव की ललक थी न कि उनकी आंतरिक नीति में हस्तक्षेप करना था। वह इन जीते हुए दक्षिणी राज्यों को अपने कब्ज़े में करना चाहता था, लेकिन उन पर प्रत्यक्ष शासन नहीं करना चाहता था।

मलिक काफूर ने जब देवगिरी पर दूसरा आक्रमण किया तो राजा राय रामचंद्र ने आत्मसमर्पण कर दिया। खिलजी ने उसके साथ सम्मानजनक व्यवहार किया और उसे राय रायन की उपाधि दी तथा उसे अपने पद पर फिर से प्रतिष्ठित कर दिया।

अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी बाज़ार नियंत्रण नीति के तहत खाद्यान्नों, शक्कर, रसोई तेल से लेकर सुई तक तथा आयात किये गए कीमती वस्त्रों, घोड़े, मवेशी तथा गुलामों तक की कीमतें तय कर दी थी। इसके लिये उसने दिल्ली में तीन बाज़ार निर्मित कियेः- खाद्यान्न, कीमती वस्त्र और घोड़े, गुलाम तथा मवेशी। इन बाज़ारों को एक उच्च अधिकारी अपने नियंत्रण में रखता था, जिसे शहना कहा जाता था। शहना अधिकारी ही व्यापारियों की एक पंजिका रखता था जिसमें सबका लेखा-जोखा रहता था तथा दुकानदारों और कीमतों पर कड़ी निगाह रखता था।

अलाउद्दीन खिलजी ने खाद्यान्नों की नियमित तथा सस्ती आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये घोषणा की कि दोआब क्षेत्र अर्थात् यमुना के निकट मेरठ से लेकर इलाहाबाद के निकट कड़ा की सीमा तक के प्रदेशों की भू-राजस्व अदायगी सीधे राज्य को की जाएगी। इसके अलावा भू-राजस्व के रूप में उपज का आधा हिस्सा (50%) नकद जमा करवाना होगा।

तुगलक वंश[सम्पादन]

मुहम्मद-बिन-तुगलक के शासन के प्रारंभिक वर्षों में ही मंगोल सेना ने तर्मसरिन के नेतृत्व में सिंध पर आक्रमण कर दिया और उनका एक दल मेरठ तक पहुँच गया था। तुगलक ने झेलम के निकट मंगोलों को परास्त किया तथा कलानौर से लेकर पेशावर एवं सिंध तक अपना वर्चस्व कायम रखा। देवगिरी से लौटने के बाद तुगलक ने गजनी और अफगानिस्तान पर कब्ज़ा करने के लिये एक सैन्य दल तैयार किया था। वह गजनी और ईरान पर अधिकार कर प्राकृतिक या वैज्ञानिक सीमा कायम करना चाहता है।

मुहम्मद बिन तुगलक मध्यकालीन शासकों में सबसे अधिक शिक्षित व सभी धर्मों को सम्मान देने वाला शासक था। उसने धर्म व दर्शन का गहरा अध्ययन किया था। वह योग्यता के आधार पर किसी को भी उच्च पदों पर नियुक्त कर देता था, चाहे वह अमीर (कुलीन) हो या अदना (छोटे परिवार)।

उसने अपने शासनकाल में चार प्रयोग किये, जो असफल रहे। अतः उसे अभागा आदर्शवादी की संज्ञा दी गई। जब उसने दिल्ली से दौलताबाद राजधानी स्थानांतरित की तो उसने सड़क और सराय बनवाए और संचार में सुधार किया। उसने दिल्ली से पीर-औलिए भी भेजे, ताकि धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विचारों में भी परिवर्तन लाया जा सके, जिससे लोगों में प्रभावशाली प्रक्रिया भी दिखी। मोरक्को यात्री इब्नबतूता 1333 ई. में दिल्ली आया और उसने तुगलक के प्रयोगों का कोई हानिकारक प्रभाव नहीं देखा, जिसकी उसने कोई निंदा नहीं की।

मुहम्मद-बिन-तुगलक दिल्ली सल्तनत का एक ऐसा शासक था, जिसने धर्म और दर्शन का गहरा अध्ययन किया। वह कई धर्मों को मानता था। जैन कवि जिनप्रभा सूरी उसके दरबार में कई वर्षों तक रहे।


फिरोजशाह तुगलक ने जाजनगर (उड़ीसा) के शासक पर आक्रमण किया और वहाँ के मंदिरों को नष्ट करके धन लूटा, लेकिन उड़ीसा को सल्तनत में मिलाने का प्रयास नहीं किया। फिरोजशाह तुगलक का शासनकाल शांति और मूक विकास का युग था। उसने हुक्म जारी किया कि अमीर की मृत्यु होने पर इक्ता सहित उसका स्थान पुत्र, दामाद या गुलाम को उत्तराधिकारी मानकर दिया जाए, जो बाद में हानिकारक सिद्ध हुआ। उसने वंशानुगत सिद्धांत को सेना पर लागू किया। वह सिपाहियों को नगद वेतन नहीं देता था बल्कि वेतन की जगह अलग-अलग गाँवों के भू-राजस्व उनके नाम कर दिये जाते थे।

फिरोज़ ने खुद को सच्चा मुसलमान माना। उसने अपने राज्य को इस्लामी राज्य घोषित किया तथा जज़िया को अलग ‘कर’ बना दिया, जो पहले भू-राजस्व में ही शामिल था। उसने ब्राह्मणों पर भी जज़िया लगा दिया। इस टैक्स से सिर्फ महिलाएँ, बच्चे, अनाथ, अंधे एवं अपंग लोगों को ही बाहर रखा गया।

देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिये फिरोज़शाह तुगलक ने लोक- निर्माण विभाग की स्थापना की। उसने कई नहरों की मरम्मत कराई। उसने आर्थिक के साथ-साथ राजनीतिक महत्त्व का कदम उठाते हुए यह आदेश दिया कि जब भी किसी स्थान पर हमला करें, तो कुलीन परिवारों में उत्पन्न लड़कों को गुलाम बनाकर मेरे पास भेज दें। तैमूर का आक्रमण 1398 ई. में हुआ, तब दिल्ली सल्तनत कमज़ोर पड़ चुकी थी और आक्रमण का सामना करने के लिये दिल्ली में कोई सशक्त शासक नहीं था। उस समय दिल्ली का शासक फिरोज़शाह का पुत्र मुहम्मद था।

भक्ति-सूफी परम्पराएँ(8वीं से 18वीं सदी तक)[सम्पादन]

‘महान’ और ‘लघु’ जैसे शब्द बीसवीं शताब्दी में समाजशास्त्री राबर्ट रेडफील्ड द्वारा एक कृषक समाज के सांस्कृतिक आचरणों का वर्णन करने के लिये किये गए।[३] इन्होंने देखा कि किसान उन कर्मकाण्डों और पद्धतियों का अनुकरण करते थे, जिनका समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग जैसे पुरोहित और राजा द्वारा पालन किया जाता था। इन परंपराओं को ‘महान’ परंपरा की संज्ञा दी। कृषक समुदाय कुछ भिन्न परंपराओं का भी पालन करते थे, इन्हें ‘लघु’ परंपरा कहा जाता था। रेडफील्ड के अनुसार महान और लघु दोनों ही परंपराओं में समय के साथ हुए पारस्परिक आदान-प्रदान के कारण परिवर्तन हुए।

शिव के अनुयायीमणिक्वचक्कार तमिल में भक्तिगान की रचना करते थे। मारिची देवी का संबंध बौद्ध धर्म से है।अधिकांशतः देवी की आराधना पद्धति को तांत्रिक नाम से जाना जाता है। इस पद्धति से शैव तथा बौद्ध दोनों दर्शन प्रभावित हुए।

प्रारम्भिक भक्ति आंदोलन(लगभग 6ठी शताब्दी में)अलवारों तथा नयनारों के नेतृत्व में हुआ। अलवार विष्णु भक्त थे, जबकि नयनार शिव भक्त थे।अलवार तथा नयनार परंपरा की सबसे बड़ी विशेषता इनमें स्त्रियों की उपस्थिति थी। अंडाल (अलवार) तथा करइक्काल अम्मइयार (नयनार) प्रमुख महिला संत हुई। ‘तवरम’ में कविताओं का संगीत के आधार पर वर्गीकरण किया गया है।[४] शक्तिशाली चोल (नवीं से तेरहवीं शताब्दी) सम्राटों ने ब्राह्मणीय और भक्ति परम्परा को समर्थन दिया तथा विष्णु और शिव के मंदिरों के निर्माण के लिये भूमि-अनुदान दिये। उदाहरण : चिदम्बरम्, तंजावुर और गंगैकोंड चोलपुरम् के विशाल मंदिरों का निर्माण चोल सम्राटों के अनुदान से संभव हुआ।वेल्लाल किसानों (धनी) ने भी अलवार तथा नयनार कृषकों को सम्मानित किया। परांतक प्रथम ने संत कवि अप्पार संबंदर और सुंदरार की धातु प्रतिमाएँ शिव मंदिर में स्थापित करवाई।


मध्यकालीन संतों को कालक्रमानुसार लगाइये :-शंकराचार्य- रामानुज(11वीं सदी)- मधवाचार्य- वल्लवाचार्य शंकर का दर्शन अद्धैतवाद ने नवीं सदी में जैन व बौद्ध धर्म को चुनौती देते हुए हिन्दू धर्म को नए सिरे से सूत्रबद्ध किया।केरल में जन्में शंकर ने ईश्वर व उसकी सृष्टि को एक माना और मोक्ष का मार्ग ईश्वर की भक्ति को बताया जिसका आधार ज्ञान है। शंकर ने वेदों को प्रतिष्ठित किया।

तमिल भक्ति रचनाओं में मुख्यतः जैन तथा बौद्ध धर्म का विरोध देखने को मिलता है। इसके साथ ही उस समय परस्पर विरोधी धार्मिक समुदायों में राजकीय अनुदान को लेकर प्रतिस्पर्द्धा भी विद्यमान थी।

लिंगायत आंदोलन या वीरशैव आंदोलन 12वीं शताब्दी में बासवन्ना (1106-68)व चन्नबासव द्वारा इस धार्मिक आंदोलन का जन्म हुआ। यह शिव के उपासक थे।बासवन्ना प्रारंभ में जैन धर्म को मानते थे। ये चालुक्य राजा( कलचुरी दरबार) के दरबार में मंत्री थे। और जैनों से विवाद के बाद इन्होंने इसकी स्थापना की। इनके अनुयायी वीरशैव (शिव के वीर) व लिंगायत (लिंग धारण करने वाले) कहलाए। इन्होंने जाति प्रथा का प्रबल विरोध किया और उपवास, भोज, तीर्थ यात्रा तथा यज्ञ को नकार दिया। इन्होंने सामाजिक क्षेत्र में बाल-विवाह का विरोध किया और विधवा विवाह का समर्थन किया।


जंगम’ शब्द का प्रयोग यायावर भिक्षुओं के लिये किया जाता था।लिंगायत धर्मशास्त्र में बताए गए श्राद्ध संस्कार का पालन न करके मृतकों को विधिपूर्वक दफनाते थे। लिंगायतों ने जाति की अवधारणा और कुछ समुदायों के ‘दूषित’ होने की ब्राह्मणीय अवधारणा का विरोध किया तथा पुनर्जन्म के सिद्धांत पर भी प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया। सामाजिक व्यवस्था में गौण स्थान पाने वाले लोग इसमें शामिल हुए।

उलमा-(आलिम का बहुवचन)- इस्लाम धर्म के ज्ञाता थे। वे धार्मिक, कानूनी तथा अध्ययन संबंधी ज़िम्मेदारी निभाते थे। जिम्मी- जिम्मी संरक्षित श्रेणी थी, इसमें वे लोग आते थे जो इस्लाम को नहीं मानते थे, जैसे इस्लामी शासकों के क्षेत्र में रहने वाले यहूदी और ईसाई। ये लोग जज़िया नामक कर चुकाकर मुसलमान शासकों द्वारा संरक्षण दिये जाने के अधिकारी हो जाते थे। भारत में इसके अंतर्गत हिन्दुओं को भी शामिल कर लिया गया। शरिया- शरिया मुसलमान समुदाय को निर्देशित करने वाला कानून है। यह कुरान शरीफ और हदीस पर आधारित है। हदीस का अर्थ है पैगम्बर मोहम्मद साहब से जुड़ी परंपराएँ, जिनके अंतर्गत उनके स्मृत शब्द तथा क्रियाकलाप आते हैं। अरब क्षेत्र से बाहर कियास (सदृशता के आधार पर तर्क) और इजमा (समुदाय की सहमति) को भी कानून का स्रोत माना जाने लगा। खोजकी- खोजकी लिपि है, जिसका प्रयोग व्यापारी करते थे। इसका उद्भव स्थानीय लंडा अर्थात् व्यापारियों की संक्षिप्त लिपि से हुआ है। पंजाब,सिंध और गुजरात के खोजा लोग लंडा का

श्रीनगर की झेलम नदी के किनारे पर बनी शाह हमदान मस्जिद कश्मीर की सभी मस्जिदों में ‘मुकुट का नगीना’ समझी जाती है। इसका निर्माण 1395 ई. में हुआ। यह कश्मीरी लकड़ी की स्थापत्य का सर्वोत्तम उदाहरण है। इसके शिखर और नक्काशीदार छज्जे पेपरमैशी से सजाए गए हैं।

संत रैदास को रविदास के नाम से भी जाना जाता था। इनकी रचनाएँ राजस्थान में हस्तलिखित ग्रंथों के रूप में भी मिलती हैं। इसके अतिरिक्त इनके बहुत से पद ‘गुरुग्रंथ साहिब’ में भी संकलित मिलते हैं । एक प्रचलित कहावत ‘ मन चंगा तो कठौती में गंगा’ इन्हीं के द्वारा कही गई थी।

सूफी सिलसिला[सम्पादन]

भारत में सुहरावर्दी संतों ने लगभग उसी समय प्रवेश किया था जब चिश्तियों का आगमन हुआ था। चिश्तियों के विपरीत सुहारावर्दी संत गरीबी का जीवन बिताने में विश्वास नहीं करते थे। इन्होंने राज्य की सेवाएँ स्वीकार की तथा मज़हबी विभाग में उच्च पदों हेतु नियुक्त किये गए थे।चिश्ती संत राज्य की राजनीति से अलग रहना ही पसंद करते थे और शाहों तथा अमीरों की संगति से दूर रहते थे ।

निज़ामुद्दीन औलिया यौगिक प्राणायाम में इतने पारंगत थे कि योगी लोग उन्हें सिद्ध पुरुष कहा करते थे। अजोधन में बाबा फरीद ने इन्हें अपना उत्तराधिकारी चुना था। वली(बहुवचन औलिया) अर्थात् ईश्वर का मित्र वह सूफी, जो अल्लाह के नज़दीक होने का दावा करता था और उनसे मिली बरकत से करामात करने की शक्ति रखता था। अधिकतर सूफी वंश उन्हें स्थापित करने वालों के नाम पर पड़े। उदाहरण : कादरी सिलसिला शेख अब्दुल कादिर जिलानी के नाम पर पड़ा । कुछ अन्य का नामकरण उनके जन्मस्थान पर हुआ, जैसे चिश्ती नाम मध्य अफगानिस्तान के चिश्ती शहर से लिया गया। शरिया के नियमों का पालन न करने वालों को बे-शरिया कहा जाता था तथा शरिया का पालन करने वालों को बा-शरिया कहा जाता था।

शेख-फरीदुद्दीन गंज-ए-शकर की दरगाह अजोधन (पाकिस्तान) में है। मुहम्मद बिन तुगलक पहला सुल्तान था, जो मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर आया, किंतु इसकी मज़ार पर सबसे पहली इमारत मालवा के सुल्तान गियासुद्दीन खिलजी ने पंद्रहवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बनवाई।

मुइनुद्दीन चिश्ती को ‘गरीब नवाज़’ कहा जाता था।कश्फ-उल-महजुब (परदे वाले की बेपर्दगी) की रचना अबुल हसन अल हुजविरी ने की। इसमें तसव्वुफ के मायने तथा इसका पालन करने वाले सूफियों के विषय में वर्णन किया गया है। हुजविरी आज भी दाता गंज बख्श के रूप में आदरणीय हैं। उनकी दरगाह को ‘दाता दरबार’ कहा जाता था।

बाबा फरीद की काव्य रचना को गुरुग्रंथ साहिब में संकलित किया गया। कुछ सूफियों ने मनसवी भी लिखी जिसमें ईश्वर के प्रति प्रेम को मानवीय प्रेम के रूपक के रूप में अभिव्यक्त किया गया। मलिक मोहम्मद जायसी का प्रेमाख्यान ‘पद्मावत’ पद्मिनी तथा चित्तौड़ के राजा रतनसेन की प्रेम कथा पर आधारित है। अमीर खुसरो (1253-1323) महान कवि संगीतज्ञ तथा शेख निजामुद्दीन औलिया के अनुयायी थे। उन्होंने कौल (अरबी शब्द जिसका अर्थ है कहावत) का प्रचलन करके चिश्ती सभा को विशिष्ट आकार दिया। कौल को कव्वाली की शुरुआत तथा अंत में गाया जाता है। उल्लेखनीय है कि कव्वाली पर कन्नड़ के वचन और पंढरपुर के संतों द्वारा लिखे गए हैं। मराठी के अभंगों ने भी उन पर अपना प्रभाव छोड़ा। इस माध्यम से इस्लाम दक्कन के गाँवों में जगह पाने में सफल हुआ।

शेख निजामुद्दीन औलिया को उनके अनुयायी ‘सुल्तान-उल-मशेख’ (शेखों का सुल्तान) कहकर संबोधित करते थे। मुलफुज़ात-सूफी संतों की बातचीत को कहते हैं। इसका आरंभिक ग्रंथ फवाइद-अल-फुआद है, जो शेख निजामुद्दीन औलिया की बातचीत पर आधारित है। इसे हसन देहलवी ने लिखा। मक्तुबात- ये वे पत्र थे ,जो सूफी संतों द्वारा अपने अनुयायियों तथा सहयोगियों को लिखे गए। तज़किरा- सूफी संतों की जीवनियों का स्मरण है। भारत में लिखा पहला सूफी तज़किरा मीर खुर्द किरमानी का सियार-उल-औलिया है।

बाबा फरीद के वंशज शेख सलीम चिश्ती की दरगाह का निर्माण अकबर ने फतेहपुर सीकरी में कराया। सिक्खों के पाँचवें गुरु अर्जुन देव ने गुरुनानक व उनके चार उत्तराधिकारियों और अन्य धार्मिक कवियों जैसे बाबा फरीद, रविदास और कबीर की बानी को आदि ग्रंथ में संकलित किया, जिसको ‘गुरुबानी’ कहा जाता है। 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में 10वें गुरु गोविन्द सिंह ने 9वें गुरु तेग बहादुर की रचनाओं को भी इसमें शामिल कर इसे ‘गुरुग्रंथ साहिब’ कहा। गुरु गोविन्द सिंह ने ही खालसा पंथ की नींव डाली। गुरु नानक देव (1469-1539) का जन्म लाहौर के निकट तलवंडी राय भोई नामक एक गाँव में हुआ था (इसका नाम बाद में ननकाना साहिब रखा गया)। उन्होंने भक्ति के 'निर्गुण' रूप अर्थात् निराकार परमात्मा की पूजा को बढ़ावा दिया। अतः कथन 1 सही है। उन्होंने हिंदू और मुस्लिम दोनों के त्याग, अनुष्ठानिक स्नान, मूर्ति पूजा, तपस्या और शास्त्रों को खारिज कर दिया। उनका समानता संबंधी विचार उनके द्वारा दिये गए निम्नलिखित नवीन सामाजिक संस्थाओं द्वारा निगमित जा सकता है: लंगर: सामूहिक भोजन बनाना और बाँटकर खाना। पंगत: जातिगत भेदभाव त्यागकर सबके साथ बैठकर भोजन करना। संगत: सामूहिक भजन-कीर्तन करना। उन्होंने "दशवंध" की अवधारणा का भी समर्थन किया जिसमे अपनी आय का दसवां हिस्सा ज़रूरतमंद व्यक्तियों को दान किया जाता है। त्यागराज (1767-1847) निर्विवाद रूप से कर्नाटक संगीत के सबसे प्रसिद्ध कवि-संगीतकार और गायक थे। त्यागराज के गीत और रचनाएँ उनके भगवान राम के प्रति समर्पण एवं भक्ति से परिपूर्ण हैं।

पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में असम में शंकरदेव वैष्णव धर्म के मुख्य प्रचारक के रूप में उभरे। उनके उपदेशों को ‘भगवती धर्म’ कहकर संबोधित किया जाता है, क्योंकि वे भगवद्गीता और भगवत पुराण पर आधारित थे। शंकरदेव ने भक्ति के लिये नाम कीर्तन और श्रद्धावान भक्तों के सत्संग में ईश्वर के नाम उच्चारण पर बल दिया।उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान के प्रचार के लिये सत या मठ तथा नामधर जैसे प्रार्थनागृह की स्थापना को बढ़ावा दिया। आज भी ये संस्थाएँ कार्यरत हैं। शंकरदेव की प्रमुख काव्य रचना ‘कीर्तनघोष’ है। कबीर ने परम सत्यक को वर्णित करने के लिये अनेक परिपाटियों का सहारा लिया। इस्लामी दर्शन की तरह वे इस सत्य को अल्लाह, खुदा, हज़रत और पीर कहते हैं। वेदांत दर्शन से प्रभावित होकर सत्य को अदृश्य, निराकार, ब्रह्मन्, आत्मन् कहते हैं। कबीर कुछ और शब्द-पदों का उल्लेख करते हैं, जैसे- शब्द और शून्य, यह अभिव्यंजनाएँ योगी परंपरा से ली गई हैं। उनकी कुछ कविताएँ इस्लामी दर्शन के एकेश्वरवाद और मूर्तिभंजन का समर्थन करते हुए हिन्दू धर्म के बहुदेववाद और मूर्तिपूजा का खंडन करती हैं। इनकी अन्य कविताएँ ज़िक्र और इश्क के सूफी सिद्धांतों का इस्तेमाल ‘नाम सिमरन’ की हिन्दू परंपरा की अभिव्यक्ति करने के लिये करती हैं।

धार्मिक शिक्षक-राज्य

संबंदर,अप्पार,सुंदरमूर्ति,रामानुजाचार्य - तमिलनाडु ज्ञानदेव मुक्ताबाई, चोखमेला, तुकाराम - महाराष्ट्र लाल देद - कश्मीर मीर सैयद मौहम्मद गेसू दराज - गुलबर्गा इसके अतिरिक्त अन्य प्रमुख संत और उनसे संबंधित राज्य:

  1. चैतन्य (1500-1600 ई.) - बंगाल
  2. शेख अब्दुस कुद्दस - उत्तर प्रदेश
  3. मियाँ मीर - पंजाब
  4. अब्दुल्ला सत्तारी - ग्वालियर
  5. मुहम्मद शाह आलम - गुजरात
  6. बल्लभाचार्य - गुजरात


  1. मध्यकालीन लेखक संबंधित रचनाएँ
  2. अब्दुल वहीद बेलगामी  : हकैक-ए-हिंदी
  3. नक्शबी  : कोकशास्त्र
  4. औरंगज़ेब  : फतवा-ए-आलमगीरी
  5. हुमायूँनामा  : गुलबदन बेगम

शासक और इतिवृत्त[सम्पादन]

यूरोप को भारत के बारे में जानकारी जेसुइट धर्म प्रचारकों, यात्रियों, व्यापारियों और राजनयिकों के विवरणों से हुई। मुगल दरबार के यूरोपीय विवरणों में जेसुइट वृत्तांत सबसे पुराने हैं। पुर्तगाली राजा भी जेसुइट प्रचारकों की मदद से ईसाई धर्म के प्रचार में रुचि रखता था। सोलहवीं शताब्दी के दौरान भारत आने वाले जेसुइट शिष्टमंडल व्यापार और साम्राज्य निर्माण की प्रक्रिया का भाग थे।

अकबर ईसाई धर्म के बारे में जानने को बहुत उत्सुक था। सर्वप्रथम अकबर ने जेसुइट पादरियों को आमंत्रित करने के लिये एक दूतमंडल गोवा भेजा। पहला जेसुइट शिष्टमंडल फ़तेहपुर सीकरी के मुगल दरबार में 1580 में पहुँचा और वहाँ दो वर्ष रहा। लाहौर के दरबार में दो शिष्टमंडल 1591 और 1595 में भेजे गए। पहले जेसुइट शिष्टमंडल के नेता का नाम पार्दे रुडोल्फ एक्वाविना था। जेसुइट विवरणों से मुगलकाल के राज्य अधिकारियों और सामान्य जन-जीवन के बारे में फारसी इतिहासकारों द्वारा दी गई सूचना की पुष्टि होती है।

अकबर ने फतेहपुर सीकरी के इबादतखाने में विद्वान मुसलमानों, हिन्दुओं, जैनों, पारसियों और ईसाइयों के बीच अंतर-धर्मीय वाद-विवाद का आरंभ किया। अकबर और अबुल फज़्ल ने प्रकाश के दर्शन का सृजन किया और राजा की छवि तथा राज्य की विचारधारा को आकार देने में इसका प्रयोग किया।

मुगल नीति का यह निरंतर प्रयास रहा कि सामरिक महत्त्व की चौकियों विशेषकर काबुल तथा कंधार पर नियंत्रण के द्वारा हिंदूकुश की ओर से आ सकने वाले संभावित सभी खतरों से बचा जा सके । कंधार सफावियों और मुगलों के बीच द्वंद्व का कारण था। कंधार का किला-नगर आरंभ में हुमायूँ के अधिकार में था। 1595 में अकबर ने भी कंधार पर अधिकार किया।

मुहम्मद काज़िम द्वारा औरंगजेब के शासन के पहले दस वर्षों के इतिहास का संकलन ‘आलमगीरनामा’ के नाम से किया गया है। मुगल नाम मंगोल से व्युत्पन्न हुआ है, मुगलों ने स्वयं को तैमूरी कहा, क्योंकि वे पितृपक्ष से तैमूर के वंशज थे। पहला मुगल शासक बाबर मातृपक्ष से चंगेज़ खां का वंशज था। उल्लेखनीय है की रुडयार्ड किपलिंग की जंगल बुक का नायक मोगली का नाम भी मुगल शब्द से प्रेरित है। अकबर ने हिन्दुकुश पर्वत तक अपने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार किया और ईरान के सफाविद तथा तूरान के उज़बेकों की विस्तारवादी योजनाओं पर नियंत्रण बनाए रखा। मुगल साम्राज्य का अंतिम शासक बहादुरशाह ज़फर द्वितीय था।

मुगल दरबार की भाषा फ़ारसी थी, जबकि उनकी मातृभाषा तुर्की थी। अकबर ने संभवतः यह भाषा ईरान के साथ सांस्कृतिक और बौद्धिक संपर्कों को बनाए रखने के लिये चुनी । फ़ारसी के हिन्दवी के साथ सम्पर्क से उर्दू के रूप में एक नई भाषा निकलकर आई। नस्तलिक लेखन की एक शैली थी। यह एक सरल शैली थी, जिसे लम्बे सपाट प्रवाही ढंग से लिखा जाता था। चित्रकार मीर सैय्यद अली और अब्दुस समद का संबंध ईरान से था, इन चित्रकारों को हुमायूँ अपने साथ दिल्ली लाया। बिहज़ाद सफावी दरबार का चित्रकार था। अतः कथन 4 सही है। बिहज़ाद जैसे चित्रकारों ने सफावी दरबार की सांस्कृतिक प्रसिद्धि को चारों ओर फैलाने में बहुत योगदान दिया।


  1. बादशाहनामा - अब्दुल हमीद लाहौरी
  2. हुमायूँनामा - गुलबदन बेगम
  3. चार चमन - चंद्रभान
  4. मुन्तखाब-उत -तवारीख़ - अब्दुल कादिर बदायूँनी

अबुल फज़्ल के शिष्य अब्दुल हमीद लाहौरी द्वारा बादशाहनामा लिखी गई। शाहजहाँ ने उसे अकबरनामा के नमूने पर अपने शासन का इतिहास लिखने के लिये नियुक्त किया था। बाद में शाहजहाँ के वज़ीर सादुल्लाह खाँ ने उसमें सुधार किया। 1784 में सर विलियम जोन्स द्वारा एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की गई। उसने कई भारतीय पांडुलिपियों का संपादन, प्रकाशन तथा अनुवाद किया। अकबरनामा और बादशाहनामा के संपादित पाठान्तर सबसे पहले एशियाटिक सोसाइटी द्वारा उन्नीसवीं शताब्दी में प्रकाशित किये गए। 20वीं शताब्दी के आरंभ में हेनरी बेवरिज द्वारा अकबरनामा का अंग्रेज़ी अनुवाद किया गया।

सुहरावर्दी दर्शन प्लेटो की रिपब्लिक से प्रेरित है, जहाँ ईश्वर को सूर्य के रूप में निरूपित किया गया है। सुहरावर्दी की रचनाओं को इस्लामी दुनिया में व्यापक रूप से पढ़ा जाता था। शेख मुबारक तथा उनके पुत्रों फैज़ी और अबुल फज़्ल ने इसका अध्ययन किया था। अबुल फज़्ल ईरान के सूफी शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी के विचारों से प्रभावित था, इसलिये उसने ईश्वर (फर-ए-इज़ादी) से निःसृत प्रकाश को ग्रहण करने वाली चीज़ों के पदानुक्रम में मुगल राजत्व को सबसे ऊँचे स्थान पर रखा। अबुल फज़्ल ने सुलह-ए-कुल की नीति को प्रबुद्ध शासन की आधार शिला माना है। इस नीति में सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी परंतु साथ ही एक शर्त यह भी थी कि वे राज्य-सत्ता को क्षति नहीं पहुँचाएंगे।

उपर्युक्त युग्मों का सही सुमेलन इस प्रकार है: (अकबर द्वारा लिए गए निर्णय) (संबंधित तिथि) अकबर द्वारा तीर्थ यात्रा कर की समाप्ति : 1563 ज़जिया कर की समाप्ति की घोषणा : 1564 राजधानी का लाहौर स्थानांतरण  : 1585

शेख सलीम चिश्ती के मकबरे का निर्माण अकबर ने सीकरी में जुम्मा मस्जिद के बगल में कराया। बुलंद दरवाज़े का निर्माण अकबर ने गुजरात विजय के उपलक्ष्य में करवाया। अकबर ने उत्तर-पश्चिम में नियंत्रण मज़बूत करने के लिये राजधानी लाहौर स्थानांतरित की तथा 13 वर्षों तक इस सीमा पर मज़बूत नियंत्रण स्थापित किया। कोर्निश : औपचारिक अभिवादन का एक तरीका था, जिसमें हाँथ की तलहथी को ललाट पर रखकर आगे की ओर सिर झुकाते थे। चार तसलीम : इसमें दाएँ हाथ को ज़मीन पर रखने से शुरू करते थे, तलहथी ऊपर की ओर होती थी। इसके बाद हाथ को धीरे-धीरे उठाते हुए व्यक्ति खड़ा होता था तथा तलहथी को सिर के ऊपर रखता था। ऐसी तसलीम चार बार होती थी। सिजदा : आत्मनिवेदन का उच्चतम रूप सिजदा या दंडवत लेटना था। शाहजहाँ के शासनकाल में सिजदा जैसे तरीकों के स्थान पर चार तसलीम या ज़मींबोसी (ज़मीन चूमना) के तरीके अपनाए गए।

टॉमस रो जेम्स प्रथम का दूत था, जो जहाँगीर के दरबार में आया। झरोखा दर्शन प्रथा की शुरुआत अकबर ने की। दीवान-ए-खास में निजी सभाएँ होती थीं तथा गोपनीय मुद्दों पर चर्चा की जाती थी, जबकि दीवान-ए-आम एक सार्वजनिक सभा भवन था। शब-ए-बारात का संबंध हिज़री कैलेंडर के आठवें महीने अर्थात चौदहवें सावन को पड़ने वाली पूर्णचन्द्र रात्रि से है।

ज़ात:-शाही पदानुक्रम में मनसबदारों के पद तथा वेतन का सूचक। सवार : यह सूचित करता था कि शासक मनसबदारों से कितने घुड़सवारों को रखने सम्बन्धी अपेक्षा करता है। दीवान-ए-आला : वित्त मंत्री । मदद-ए-माश : अनुदान मंत्री । उल्लेखनीय है कि मीरबक्शी उच्चतम वेतनदाता था। दीवान-ए-आला के अतिरिक्त केंद्र में एक अन्य महत्त्वपूर्ण मंत्री सद्र-उस-सुदूर था। वाकिया नवीस दरबारी लेखक होते थे।

मुगल काल में ‘हरकारों’ का संबंध डाक विभाग से था, इन्हें कसीद अथवा पथमार भी कहा जाता था। बांस के डिब्बों में लपेटकर रखे कागज़ों को लेकर हरकारों के दल दिन-रात दौड़ते रहते थे। सार्वजनिक समाचार के लिये पूरा साम्राज्य ऐसे ही तीव्र सूचना तंत्रों से जुड़ा हुआ था।

मुगलकाल में केंद्र प्रांतों (सूबों) में तथा प्रांत, सरकारों में एवं सरकारें परगनों में बँटी हुई थीं। परगना (उप-जिला)स्तर पर स्थानीय प्रशासन की देख-रेख तीन अर्द्ध-वंशानुगत अधिकारियों ,कानूनगो (राजस्व आलेख रखने वाला), चौधरी (राजस्व संग्रह का प्रभारी) और काज़ी द्वारा की जाती थी।

आठवीं सदी के बाद और दसवीं से बारहवीं सदी के बीच के उत्तर भारत में मंदिर निर्माण चरमोत्कर्ष पर था। इस काल में मंदिर निर्माण हेतु नागर शैली प्रचलित थी।

आर्थिक एवं सामाजिक जीवन, शिक्षा और धार्मिक विश्वास[सम्पादन]

छठी सदी में दक्षिण भारत तथा दक्षिण -पूर्व एशिया के देशों के बीच ज़ोर-शोर से व्यापार का आरंभ हुआ। इस समय भारतीय व्यापारी गिल्ड़ों में संगठित होकर व्यापार करते थे। मणिग्रामन एवं नानादेसी श्रेणियाँ प्रारंभिक काल से हीं सक्रिय थीं। दक्षिण-पूर्व एशिया के व्यापार में व्यापारियों के पीछे-पीछे पुरोहित भी उन देशों में पहुँचे और उन क्षेत्रों में बौद्ध एवं हिन्दू धर्म का समावेश हुआ न कि हिन्दू और मुस्लिम। जावा के बोरोबुदूर का बौद्ध मंदिर तथा कंबोडिया के अंकोरवाट का विष्णु मंदिर दोनों ही इन धर्मों के प्रसार के प्रमाण हैं।

8वीं-10वीं सदी के बीच भारत के दक्षिण-पूर्व एशिया व चीन के साथ अच्छे व्यापारिक संबंध थे । उस समय कुछ पुरानी श्रेणियाँ उपजातियों के रूप में उभरीं। द्वादश श्रेणी वैश्यों की एक उपजाति श्रेणी थी। उस समय जैन धर्म को व्यापारियों का संरक्षण प्राप्त था। वाणिज्य-व्यापार में गिरावट आने से जैन धर्म की भी क्षति हुई। आंतरिक व्यापार का ह्रास होने से व्यवसायों में लगे लोगों के संगठन जिन्हें ऋणी या संघ कहते थे, की संख्या कम होने लगी थी ।

फ्यूडल समाज में प्रभुत्व की स्थिति उन लोगों की होती थी जो ज़मीन को जोतने-बोने का काम तो नहीं करते थे, लेकिन अपनी जीविका उसी से प्राप्त करते थे। भारत में फ्यूडल समाज से राजा की स्थिति कमज़ोर हुई और वह इनके सरदारों पर निर्भर हो गया। छोटे राज्य, गाँवों की अर्थव्यवस्था को प्रश्रय देते थे, जिससे गाँव के समूह या गाँव आत्मनिर्भर होते थे। फ्यूडल सरदारों ने ग्रामीण स्वशासन पर भी अपना प्रभुत्व कायम करके इसे कमज़ोर बना दिया। इनके सरदारों के पास अपनी-अपनी सेनाएँ होती थीं, जिनका उपयोग वह राजा के खिलाफ करते थे।

‘कलान’ मध्यकालीन भारत में राजपूत कुल की एक नई जाति को परिभाषित करता है, जो खुद को महाभारत में उल्लिखित सूर्यवंशी और चंद्रवंशी क्षत्रियों से जोड़ते हैं।

10वीं सदी के दक्षिण- पूर्व एशिया व्यापार के साथ चीन भी एशियाई बंदरगाहों को पसन्द करता था, लेकिन चीन अपने व्यापार के लिये ‘कैंटन’ नामक समुद्री बंदरगाह का उपयोग करता था। इसे अरब यात्रियों ने ‘कानफू’ कहा है।

प्रारंभिक मध्यकाल में स्त्रियों की दशा अत्यंत दयनीय थी। इन्हें मानसिक दृष्टि से हीन माना जाता था। उनका कर्तव्य आँख मूँद कर पति की व उसके परिवार की सेवा करना था। उस काल में स्त्रियों के लिये वेद पढ़ना वर्जित था। मत्स्य पुराण पति को यह अधिकार देता है कि अगर पत्नी गलती करती है, तो उसे कोड़े या खपच्ची से पीट सकता है।

छठी सदी में हरिषेण ने अपनी रचना वृहत्कथा कोष में भारतीय क्षेत्र की भाषाओं, वेश-भूषा आदि का वर्णन किया है। छठी सदी में द्वितीय भास्कर ने लीलावती ग्रंथ की रचना की, जो दीर्घकाल तक मानक ग्रंथ बना रहा। पाणिनी की रचना अष्टाध्यायी है। न्याय, गौतम की रचना है।

चतुर्दान एक जैन सिद्धांत है जो नवीं और दसवीं सदी में विद्या, आहार, औषधि और आश्रय दान को लोकप्रिय बनाने में सहायक सिद्ध हुआ।


विजय नगर एवं बहमनी राज्यों का उदय तथा पुर्तगालियों का आगमन (1350 ई.-1565 ई.)[सम्पादन]

16वीं सदीं में पुर्तगाली लेखक नुनिज ने विजयनगर की यात्रा की थी। फारसी यात्री अर्ब्दुरज्ज़ाक ने देवराय द्वितीय के शासनकाल में विजयनगर की यात्रा की थी। इतालवी यात्री निकोलो कोण्डी पंद्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में (1420) में विजयनगर आया था। क्रिस्टोफर कोलंबस जिसने ‘अमेरिका’ की खोज की थी, जिनेवा का निवासी था। यद्यपि अमेरिका पहुँचने वाला वह प्रथम व्यक्ति नहीं था। उसने अमेरिका की चार बार यात्रा की तथा हिस्पानिओला द्वीप पर बस्ती बनाने की कोशिश की। उसने पुर्तगाल के राजा जॉन द्वितीय के सामने भारत की खोज करने का प्रस्ताव रखा था।

1333 ई. में वारंगल के काकतीय साम्राज्य में सामंत रहे हरिहर और बुक्का ने विजयनगर की स्थापना की थी। गुरु विद्यारण्य ने हरिहर और बुक्का को इस्लाम से हिन्दू धर्म में दीक्षित किया था।

विजय नगर राज्य की स्थापना हरिहर और बुक्का नाम के दो भाइयों ने की थी। यह दोनों वारंगल के काकतीय राजा के यहाँ सामंत थे और बाद में कांपिली राज्य (आधुनिक कर्नाटक) में मंत्री बने। मुहम्मद तुगलक ने जब एक मुसलमान विद्रोही को कर्नाटक में शरण देने की खबर सुनी तो उसने उस पर आक्रमण कर दिया और जीत हासिल कर हरिहर और बुक्का को बंदी बनाकर इस्लाम में दीक्षित कर दिया।

1422 ई.-1446 ई. तक देवराय द्वितीय ने विजयनगर पर शासन किया। उसे इस राजवंश का सबसे प्रतापी शासक माना जाता है। सेना को मज़बूत बनाने के लिये उसने मुसलमानों की ज़्यादा भर्ती की थी। फरिश्ता के अनुसार देवराय द्वितीय ने 2000 मुसलमानों की भर्ती की, उन्हें जागीरें दीं और हिन्दू सिपाहियों तथा अफसरों को धनुर्विद्या सीखने का आदेश भी दिया।

कृष्णदेव राय ने 1509 ई. से 1530 ई. तक शासन किया, उसने पुर्तगालियों के समुद्री व्यापार विस्तार पर विराम लगा दिया था। उसने उड़ीसा के राजा को हराकर कृष्णा नदी के प्रदेश वापस लिये और बीजापुर तथा गुलबर्गा पर अधिकार कर लिया था।

कृष्णदेव राय का उत्तराधिकारी सदाशिव राय था। जिसने 1567 ई. में शासन किया। इसके समय में वास्तविक सत्ता रामराजा के हाथों में थी। दक्षिण के अन्य राजाओं जैसे- चोलों और विजयनगर के विपरीत कृष्णदेव ने नौसेना के विकास की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था। पेस, बारबोसा और नूनिज आदि विदेशी यात्रियों ने कृष्णदेव के प्रशासन की प्रंशसा की थी। कृष्णदेव ने संस्कृत तथा तेलुगु के साथ-साथ कन्नड़ और तमिल कवियों को भी अपने दरबार में प्रश्रय दिया।

विजयनगर राज्य में राजा को सलाह देने के लिये एक मंत्रिपरिषद होती थी, जिसमें राज्य के सरदार हुआ करते थे। यह राज्य मण्डलम, नाडु, उपज़िला और ग्राम में विभाजित थे। प्रांतीय शासकों का नियमित कार्यकाल नहीं होता था। उनका कार्यकाल उनकी योग्यता और शक्ति पर निर्भर था। ये पुराने कर माफ करने और नए कर लगाने का अधिकार रखते थे। विजयनगर का राजा सैनिक सरदारों को निश्चित राजस्व वाला क्षेत्र (अमरम) दिया करता था। पालिगार (पलफूगार) नायक सरदार थे, जो राज्य की सेवा के लिये निश्चित संख्या में पैदल सेना, घोड़े और हाथी रखते थे।

1346 ई. में पूरा होयसल राज्य विजयनगर के शासकों के हाथ में आ गया तथा हरिहर और बुक्का ने विजित प्रदेशों के प्रशासन को संभाला और आरंभ में विजयनगर राज्य में एक सरकारी राज्य व्यवस्था (कोऑपरेटिव कॉमनवेल्थ) लागू की। विजयनगर की बढ़ती शक्ति का दक्षिण में मैसूर के सुल्तानों ने विरोध किया। हसनगंगू ने बहमनी राज्य की स्थापना की थी।

विजयनगर की कर व्यवस्था कई भागों में बँटी थी, जिसमें 1/3, 1/4, 1/6 आदि भाग शामिल थे। उसमें कुरुवै एक प्रकार का चावल था, जिसे सर्दी के मौसम में उगाया जाता था और उपज का एक-तिहाई भाग कर रूप में देना अनिवार्य था।
कल्याण मंडप' हम्पी के आसपास केंद्रित विजयनगर के मंदिरों की प्रमुख विशेषता है।

16वीं शताब्दी में निर्मित विठ्ठल मंदिर विजयनगर काल के सबसे प्रमुख मंदिरों में से एक है। एक विशाल प्रांगण युक्त विठ्ठल मंदिर में तीन विशाल द्वार हैं जो उत्तर, पूर्व और दक्षिण में भव्य गोपुरमों से सुसज्जित हैं। प्रांगण में मुख्य पूजास्थल, गौण पूजास्थल, कल्याण मंडप, उत्सव मंडप, सौ स्तंभों युक्त मंडप और एक पाषाण रथ स्थित हैं। कल्याण मंडप एक खुला मंडप था जिसका प्रयोग मंदिर के देवता के प्रतीकात्मक विवाह समारोहों के आयोजन हेतु प्रयोग किया जाता था।


इसे तालिकोटा या राक्षस तंगडि की लड़ाई के नाम से भी जाना जाता हैं। यह लड़ाई विजयनगर के खिलाफ अहमदनगर, गोलकुंडा तथा बीजापुर ने मिलकर लड़ी थी, जिसमें विजयनगर को हार का सामना करना पड़ा। इसकी सेना का नेतृत्व रामराजा कर रहा था। यह लड़ाई 1565 ई. में लड़ी गई थी। 1347 ई. में बहमनी राज्य की स्थापना एक अफगान व्यक्ति ने की थी, जिसका नाम अलाउद्दीन हसन था। वह भारत में गंगू नाम के एक ब्राह्मण की सेवा करता था। इसलिये उसे ‘हसनगंगू’ के नाम से भी जाना जाता है। गद्दी में बैठने के बाद उसने अलाउद्दीन हसन बहमनशाह की उपाधि धारण की थी।

अहमदशाह बहमनी ने विजयनगर से बदला लेने के लिये पूर्वी समुद्रतट पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिये संघर्ष जारी रखा। उसने अपनी राजधानी गुलबर्गा से बीदर स्थानांतरित की और मालवा, गोड़वाना तथा कोंकण की ओर ध्यान दिया।
अहमदशाह बहमनी ने महमूद गवान को मलिक-उर-तुज्ज़ार की उपाधि से सम्मानित किया था, जो मूलतः ईरानी मूल का था और व्यापार वाणिज्य का प्रधान था। इसके नेतृत्व में ही बहमनी सेना ने डाभोल और गोवा तक साम्राज्य विस्तार किया था।

कैलास का दुर्ग और गोलकुंडा के पहाड़ी किले पर हरिहर द्वितीय ने नहीं बल्कि हसनगंगू ने कब्ज़ा किया था। उस समय हरिहर द्वितीय दक्षिण में इतना व्यस्त था कि उसे संघर्ष में हस्तक्षेप करने का समय ही नहीं मिला।

1406 ई. में देवराय प्रथम सिंहासन पर बैठा। उसकी तुंगभ्रदा दोआब पर बहमनियों से भिंड़त हुई, जिसमें वह हार गया और उसने अपनी बेटी की शादी हसनगंगू के पुत्र फिरोज़ के साथ करवा दी। देवराय प्रथम ने रचनात्मक और कल्याणकारी कार्यों पर काफी रुचि दिखाई तथा तुंगभद्रा नदी पर बाँध बनवाए।

फिरोज़शाह बहमनी दक्कन को भारत का सांस्कृतिक केंद्र बनाने हेतु कटिबद्ध था। उसने पूर्व विधान (ओल्ड टेस्टामैंट) और नवविधान (न्यू टेस्टामैंट) दोनों को पढ़ा था। वह दक्कन में सिर्फ शासन करना चाहता था न कि अफगान शासन स्थापित करना चाहता था।

  • सोलहवीं सदी के शासकों के कार्यकाल को क्रमानुसार लगाइयेः-विजयनगर - बहमनी- सालुव - तुलुव

1498 ई. में वास्कोडिगामा दो जहाज़ों के साथ कालीकट पहुँचा। इस यात्रा का मार्गदर्शन गुजराती यात्री अब्दुल मज़ीद ने किया था।

पुर्तगाली अपनी नई नीति पर अमल करते हुए अलबुकर्क ने 1510 ई. में बीजापुर से गोवा को छीन लिया और वहाँ के प्राकृतिक बंदरगाह पर किला बनाकर अपनी सामरिक स्थिति मज़बूत की।

1509 ई. में पुर्तगाली सेना ने मिस्र के बेड़े को हराकर हिंद महासागर में कुछ समय तक खुद को शक्तिशाली बनाए रखा तथा फारस की खाड़ी और लाल सागर तक अपना विस्तार किया।

उत्तर भारत में साम्राज्य के लिये संघर्ष (1400 ई.-1525 ई.)[सम्पादन]

तैमूर के आक्रमण के बाद दिल्ली में सैय्यद राजवंश स्थापित हुआ। उस समय पंजाब पर अफगान शासकों ने सत्ता स्थापित कर ली थी। उनमें बहलोल लोदी प्रमुख था, जिसे सरहिंद की इक्तेदारी प्राप्त भी। इसने सर्वप्रथम साल्ट रेंजेज में रहने वाले खोखर जाति के खूँखार लड़ाका कबीले की बढ़ती हुई शक्ति पर अंकुश लगाया और शीघ्र ही पूरे पंजाब पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।

सिकंदर लोदी एक कट्टर-धार्मिक शासक था। उसने स्त्रियों को पीरों की मज़ारों पर जाने तथा जुलूस निकालने पर रोक लगा दी थी। उसने हिन्दुओं पर जज़िया फिर से लगा दिया था। उसने अपने सैन्य अभियान के दौरान प्रसिद्ध हिंदू मंदिर नागरकोट को तोड़ा और लूटपाट की।

सिकंदर लोदी ने 1506 ई. में आगरा नगर की स्थापना की। उसका उद्देश्य था कि यहाँ से पूर्वी राजस्थान के प्रदेशों तथा मालवा व गुजरात को जाने वाले मार्गो पर नियंत्रण रखा जा सके। कुछ समय पश्चात् आगरा को सिकंदर ने अपनी दूसरी राजधानी बनाया।

अलबरुनी के अनुसार 15वीं सदी में कश्मीर में हिन्दुओं को प्रवेश नहीं करने दिया जाता था, जो वहाँ के सरदारों से व्यक्तिगत रूप से परिचित नहीं थे। उस समय कश्मीर, शैव धर्म के केंद्र के रूप में विख्यात था। जब 1420 में जैनुल आबिदीन गद्दी पर बैठा तो कश्मीरी समाज काफी बदल चुका था। उस समय मध्य एशिया के मुसलमान संत और शरणार्थी कश्मीर पहुँच रहे थे, जिससे एक नई हिन्दू-इस्लाम शृंखला का उदय हुआ, जो सूफी कहलाए। इन्हें लोग ऋषि भी कहते थे।

जैनुल आबिदीन संगीत प्रेमी था। वह फारसी, कश्मीरी, संस्कृत और तिब्बती भाषाओं में पारंगत था। उसी के समय ‘उत्तम सोम पण्डित’ ने कश्मीर का इतिहास कश्मीरी भाषा में लिखा।

गुजरात राज्य का वास्तविक संस्थापक मुजफ्फरशाह का पौत्र अहमदशाह-प्रथम था। इसने गुजरात के हिंदुओं पर जज़िया कर लगाया, जो पहले कभी नहीं लगाया गया था।

महमूद बेगढ़ा ने पुर्तगालियों के साथ जमकर संघर्ष किया, क्योंकि वे पश्चिम एशिया के देशों के साथ गुजरात के व्यापार में भी दखलंदाज़ी कर रहे थे। इसलिये उनकी नौसेना पर लगाम लगाने के लिये उसने मिस्र के शासक के साथ मित्रता की।

यद्यपि महमूद को औपचारिक शिक्षा का ज्ञान नही था, परंतु उसके शासनकाल में अनेक रचनाएँ अरबी से फारसी में अनुवादित की गईं। ‘उदयराज’ उसका दरबारी कवि था, जो संस्कृत कविताएँ लिखता था। 1454 ई. में उसने चंपानेर पर अधिकार कर लिया था और मुहम्मदबाद नामक एक नया शहर बसाया।

मालवा की राजधानी पहले ‘धार’ थी, जिसे हुशांगशाह स्थानांतरित करके माँडू ले गया था। मालवा की स्थापत्य शैली गुजरात शैली से भिन्न थी।

राणा कुंभा ने चित्तौड़ का कीर्ति स्तंभ बनवाया था। इसके अतिरिक्त उसने सिंचाई के लिये अनेक झीलें एवं कुंभलगढ़ का प्रसिद्ध किला भी बनवाया। वह नाट्यशास्त्र का प्रमुख ज्ञाता था। उसने चंडीशतक एवं गीतगोविंद जैसे ग्रंथों की रचना की। उसने अचलगढ़ सास बहू का मंदिर तथा सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया।

दिल्ली का शासक इब्राहिम लोदी मालवा की पराजय से चिंतिंत हो गया और उसने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। उस समय मेवाड़ पर राणा सांगा शासन कर रहा था, उसने लोदी को बुरी तरह से घटोली की लड़ाई में हराया।

जोधपुर मेवाड़ की राजधानी थी।

मध्यकालीन भारत में 1525 ई. तक उत्तर भारत में इतनी उथल-पुथल उत्पन्न हो रही थी कि यहाँ की राजनीतिक परिस्थितियाँ तेज़ी से बदल रही थीं और इस प्रदेश में प्रभुत्व स्थापित करने के लिये एक निर्णायक युद्ध अवश्यंभावी प्रतीत हो रहा था। जब बाबर भारत के दरवाज़े पर दस्तक दे रहा था, उस समय दिल्ली का शासक इब्राहिम लोदी था। वह अपनी आंतरिक स्थिति को मज़बूत करने में लगा हुआ था।

संदर्भ[सम्पादन]

  1. https://www.britannica.com/topic/Chola-dynasty
  2. https://www.cs.mcgill.ca/~rwest/wikispeedia/wpcd/wp/c/Chola_dynasty.htm
  3. भारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग-2,12वीं,NCERT,पृ-141
  4. भारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग-2,12वीं,NCERT,पृ-144