सिविल सेवा मुख्य परीक्षा विषयवार अध्ययन/क्षेत्रवाद
क्षेत्रवाद एक विचारधारा है जिसका संबंध ऐसे क्षेत्र से होता है जो धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक या सांस्कृतिक कारणों से अपने पृथक अस्तित्व के लिये जाग्रत होती है या ऐसे क्षेत्र की पृथकता को बनाए रखने के लिये प्रयासरत रहती है।
इसमें राजनीतिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक और भाषायी आधार पर क्षेत्रों का विभाजन इत्यादि से संबंधित मुद्दों को शामिल किया जा सकता है। जब क्षेत्रवाद की विचारधारा को किसी क्षेत्र विशेष के विकास से जोड़कर देखा जाता है तो यह अवधारणा नकारात्मक बन जाती है। क्षेत्रवाद के उदय के कारण: भारतीय परिप्रेक्ष्य में क्षेत्रवाद कोई नवीन विचारधारा नहीं है। प्राचीन समय से लेकर वर्तमान परिदृश्य तक समय-समय पर ऐसे अनेक कारण रहे हैं, जिन्हें क्षेत्रवाद के उदय के लिये महत्त्वपूर्ण माना जाता रहा है, इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं-
वर्ष 1920 में कॉन्ग्रेस पार्टी द्वारा भाषायी आधार पर राज्यों के गठन की मांग की गई। वर्ष 1927 में नेहरू रिपोर्ट में इस मांग को फिर से दोहराया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् सबसे विवादित विषय भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन था अत: इस विवाद को समाप्त करने के लिये वर्ष 1948 में धर आयोग का गठन किया गया तथा इसके बाद जे.वी.पी. समिति ने भी भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की सिफारिश की। इसी क्रम में 1अक्तूबर,1953 को भाषायी आधार पर पहले राज्य के रूप में आंध्रप्रदेश का गठन किया गया। भाषायी आधार पर राज्यों की मांग को पूरा करने के लिये वर्ष 1956 में ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ की स्थापना की गई। इसके बाद अन्य क्षेत्रों में भी भाषायी आधार पर अलग राज्यों के गठन की मांग उठने लगी तथा आंदोलन प्रारंभ हो गए। इसके चलते वर्ष 1960 में महाराष्ट्र को दो भागों में बाँट दिया गया, वर्ष 1966 में पंजाब का विभाजन भी दो हिस्सों में कर दिया गया। इस प्रकार भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन ने क्षेत्रवाद को उत्पन्न करने तथा इसे विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।