सिविल सेवा मुख्य परीक्षा विषयवार अध्ययन/भारतीय संस्कृति में साहित्य

विकिपुस्तक से
  • गुरु रविदास 14वीं शताब्दी के संत थे और उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन के सुधारक थे।
  • 12वीं शताब्दी में जयदेव की रचना गीत गोविंद भक्ति आंदोलन के दौरान की एक महत्त्वपूर्ण रचना है।

वैदिक ग्रंथों में आए शतमान और निष्क शब्द मुद्रा के नाम माने जाते हैं। अतः कथन (d) असत्य है, जबकि अन्य तीनों कथन सत्य हैं। पालि ग्रंथों में गाँव के तीन प्रकार बताए गए हैं-पहले प्रकार में सामान्य गाँव है जिनमें विविध वर्णों और जातियों का निवास रहता था। ऐसे गाँवों की संख्या सबसे अधिक थी। दूसरे, प्रकार में उपनगरीय गाँव थे जिन्हें शिल्पी-ग्राम कहते थे, ये गाँवों को नगरों से जोड़ते थे। तीसरे प्रकार में सीमांत ग्राम आते थे, जो जंगल से संलग्न देहातों की सीमा पर बसे थे। ‘भोजक’ पहले प्रकार के गाँव का मुखिया कहलाता था। किसान अपनी उपज का छठा भाग कर या राजांश के रूप में देते थे। कर की वसूली सीधे राजा के कर्मचारी करते थे।

इटली के एक मुसाफिर जो पानी का रैली जो लगभग 16 से 90 ईसवी में भारत से होकर गुजरा था इस बात का बड़ा सजीव चित्र पेश किया है कि किस तरह चांदी तमाम दुनिया से होकर भारत पहुंची थी।


अबुल फजल की आइन-ए-अकबरी[सम्पादन]

सोलहवीं तथा सत्रहवीं सदी के कृषि इतिहास को समझने के लिये ‘आइन-ए-अकबरी’ प्रमुख स्रोत है। इसमें खेतों की नियमित जुताई, करों की उगाही, राज्य व जमींदारों के मध्य संबंधों के नियमन आदि से संबंधित राज्य द्वारा उठाये गए कदमों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है। ‘आइन-ए-अकबरी’ के लेखन का मुख्य उद्देश्य अकबर के साम्राज्य का एक ऐसा खाका पेश करना था, जहाँ एक मज़बूत सत्ताधारी वर्ग सामाजिक मेल-जोल बनाकर रखता था। अबुल फज़ल के अनुसार मुगल राज्य के खिलाफ कोई बगावत या किसी भी किस्म की स्वायत्त सत्ता की दावेदारी का असफल होना तय था। दूसरे शब्दों में किसानों के बारे में जो कुछ हमें आइन-ए-अकबरी से पता चलता है वह सत्ता के ऊँचे गलियारों का नज़रिया है।


आइन-ए-अकबरी को अकबर के शासन के बयालीसवें वर्ष 1598 ई. में पाँच संशोधनों के बाद पूरा किया गया। आइन पाँच भागों का संकलन है जिसके पहले तीन भाग प्रशासन का विवरण देते हैं। मंजिल-आबादी के नाम से पहली किताब शाही घर-परिवार और उसके रखरखाव से ताल्लुक रखती हैं दूसरा भाग छिपा आबादी सैनिक व नागरिक प्रशासन और नौकरों की व्यवस्था के बारे में है इस भाग में शाही अफसरों मनसबदार विद्वानों कवियों और कलाकारों की संक्षिप्त जीवनी या शामिल हैं।[१] तीसरा मुल्क आबादी वह भाग है जो साम्राज्य व प्रांतों के वित्तीय पहलुओं तथा राजस्व की दरों के आंकड़ों की विस्तृत जानकारी देने के बाद 12 प्रांतों का बयान देता है।


आइन-ए-अकबरी में दी गई प्रशासनिक जानकारियों के संदर्भ में इसके मुल्क-आबादी भाग में उत्तर भारत के कृषि समाज का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसके अनुसार सयूरगल दान में दिया गया राजस्व अनुदान था। इसके मुल्क-आबादी भाग में उत्तर भारत के कृषि समाज का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसमें सूबों तथा उनकी प्रशासनिक और वित्तीय इकाइयों (सरकार, महल, परगना) का विस्तृत वर्णन मिलता है।

अकबरनामा की रचना तीन जिल्दों में हुई है,जिनमें पहली दो जिल्दों में ऐतिहासिक दास्तान पेश की गई। तीसरी जिल्द में आइन-ए-अकबरी को शाही नियम-कानून के सारांश और साम्राज्य के एक राजपत्र के रूप में संकलित किया गया है।

अमीन एक अधिकारी था जिसकी ज़िम्मेदारी यह सुनिश्चित करना था कि प्रांतों में राजकीय नियम-कानूनों का पालन हो रहा है। मनसबदारी पर राज्य के सैनिक व नागरिक मामलों की ज़िम्मेदारी थी। कुछ मनसबदारों को नकद भुगतान किया जाता था, जबकि उनमें से अधिकतर को साम्राज्य के अलग-अलग हिस्सों में राजस्व के आवंटन के ज़रिये भुगतान किया जाता था। समय-समय पर उनका स्थानांतरण भी किया जाता था। कणकुत तथा भाओली फसल के रूप में राजस्व उगाहने के दो तरीके थे। इसमें कणकूत का अर्थ अनाज का अंदाज़ा लगाने तथा भाओली का अर्थ बटाई से है।

कृषि समाज और मुगल साम्राज्य(16वीं और 17वीं शताब्दी)[सम्पादन]

17वीं सदी में ज़मींदारों को शोषक के रूप में नहीं दिखाया गया। आमतौर पर राज्य के राजस्व अधिकारी किसानों के गुस्से का शिकार होते थे। इस काल में भारी संख्या में कृषि विद्रोह हुए और उनमें राज्य के खिलाफ ज़मींदारों को अक्सर किसानों का समर्थन मिला। दीवान के दफ्तर पर पूरे राज्य की वित्तीय व्यवस्था की देखरेख की ज़िम्मेदारी थी। हर प्रांत में जुती हुई तथा जोतने लायक दोनों तरह की ज़मीन की नपाई की जाती थी।ज़मीन चार भागों में बँटी थी:

  1. परती (परौती) : वह ज़मीन जिस पर कुछ दिनों के लिये खेती रोक दी जाती थी ताकि वह पुनः उर्वर हो सके।
  2. पोलज : इसे कभी खाली नहीं छोड़ा जाता था।
  3. चचर : यह ज़मीन तीन-चार वर्षों तक खाली रहती थी।
  4. बंजर : वह ज़मीन जिस पर पाँच या उससे अधिक वर्षों से खेती नहीं की गई हो।

उपर्युक्त युग्मों का सही सुमेलन निम्न प्रकार से है-

  • परगना : मुगल प्रांतों में एक प्रशासनिक प्रमंडल।
  • पेशकश : मुगल राज्य के द्वारा ली जाने वाली एक तरह की भेंट।
  • पायक : असम राज्य के ऐसे लोग जिन्हें ज़मीन के बदले सैनिक सेवा देनी पड़ती थी।

मिल्कियत ज़मींदारों की व्यक्तिगत ज़मीनें।

मुगल काल के भारतीय फारसी स्रोत किसान के लिये आमतौर पर रैयत या मुज़रियान शब्द का इस्तेमाल करते थे।सत्रहवीं सदी के स्रोतों से दो प्रकार के किसानों का वर्णन मिलता है : खुद-काश्त और पाहि-काश्त।

  • खुद-काश्त वे किसान थे जो उन्हीं गाँवों में रहते थे जिनमें उनकी ज़मीन थी। [२]
  • पाहि-काश्त वे किसान थे जो दूसरे गाँवों से ठेके पर खेती करने आते थे। लोग अपनी मर्ज़ी से भी पाहि-काश्त बनते थे (अगर करों की शर्तें दूसरे गाँव में बेहतर हों) और मजबूरन भी (मसलन, अकाल या

भुखमरी के बाद आर्थिक तंगी)।

रहट के ज़रिये सिंचाई किये जाने का वर्णन बाबरनामा में मिलता है। तिलहनी तथा दलहनी फसलों की गणना नकदी फसलों में की जाती थी।मक्का अफ्रीका तथा स्पेन के रास्ते भारत आया और सत्रहवीं सदी तक इसकी गिनती पश्चिम भारत की मुख्य फसलों में होने लगी। तम्बाकू का पौधा सबसे पहले पुर्तगालियों के माध्यम से दक्कन पहुँचा और वहाँ से 17वीं सदी की शुरुआत में उत्तर भारत लाया गया। 1604 ई. के बाद तम्बाकू के प्रयोग में तेज़ी आई जिससे चिंतित होकर जहाँगीर ने तम्बाकू पर पाबंदी लगा दी। 17वीं सदी के अंत तक तम्बाकू पूरे भारत में खेती, व्यापार और उपयोग की मुख्य वस्तुओं में से एक बन गया था।

मुगल काल में जहाँ बारिश या सिंचाई के अन्य साधन हर वक्त मौजूद थे, वहाँ साल में तीन फसलें भी उगाई जाती थीं । आगरा में 39 किस्म की फसलें उगाई जाती थीं जबकि दिल्ली में 43 फसलों की पैदावार होती थी तथा बंगाल में सिर्फ चावल की 50 किस्मों के उत्पादन की जानकारी मिलती है। सर्वोत्तम फसलों के लिये जिन्स-ए-कामिल शब्द का प्रयोग किया जाता था। गन्ना तथा कपास फसलें इसमें शामिल थीं।

मीरास या वतन-महाराष्ट्र में ऐसी ज़मीनें जिन पर दस्तकारों का पुश्तैनी अधिकार होता था। उत्तर भारत में ऐसे उदाहरण नहीं मिलते।

मुगलों के केंद्रीय इलाकों में कर की गणना और वसूली दोनों नकद में की जाती थी। जो दस्तकार निर्यात के लिये उत्पादन करते थे, उन्हें उनकी मज़दूरी या पूर्व भुगतान भी नगद में ही मिलता था। किसी वस्तु का जितना वाणिज्यीकरण होता था, उसके उत्पादन के लिये महिलाओं के श्रम की उतनी ही मांग होती थी।तलाकशुदा तथा विधवा दोनों ही कानूनन शादी कर सकती थीं।

बड़े खेतिहर परिवारों में महिलाओं को पुश्तैनी संपत्ति का हक मिला हुआ था।विधवा महिलाएँ (विशेषकर राजस्थान) पुश्तैनी संपत्ति के विक्रेता के रूप में ग्रामीण ज़मीन के बाज़ार में सक्रिय हिस्सेदारी रखती थीं। हिंदू तथा मुसलमान महिलाओं को ज़मींदारी उत्तराधिकार में मिलती थी जिसे बेचने अथवा गिरवी रखने के लिये वे स्वायत्त थीं। बंगाल में भी महिला ज़मींदार पाई जाती थी, यह 18वीं सदी में सबसे बड़ी तथा मशहूर ज़मींदारियों में से एक थी राजशाही की ज़मींदारी जिसकी कर्ता-धर्ता एक स्त्री थी।

नई ज़मीनों को बसाकर (जंगल-बारी),अधिकारों के हस्तांतरण के ज़रिये, राज्य के आदेश से या फिर खरीदकर। यही वे प्रक्रियाएँ थीं जिनके ज़रिये अपेक्षाकृत "निचली" जातियों के लोग भी ज़मींदारों के दर्जे में दाखिल हो सकते थे क्योंकि ज़मींदारी खरीदी तथा बेची जा सकती थी।

तमिल साहित्य[सम्पादन]

कुराल को तमिल साहित्य का बाइबिल और लघुवेद माना जाता है। इसे 'मुप्पल' के नाम से भी जाना जाता है। इसे प्रसिद्ध कवि तिरुवल्लुवर ने लिखा था।हर्से के अनुसार तिरुवल्लुवर ब्रह्मा का आगमन था।

अन्य साहित्य[सम्पादन]

अमीर खुसरो प्रसिद्ध फारसी लेखक थे।अमीर खुसरो की खजैन उल फतह अलाउद्दीन की विजय के बारे में बताती है।

संदर्भ[सम्पादन]

  1. भारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग 2,एनसीईआरटी,पृ-218
  2. भारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग 2,एनसीईआरटी,पृ-198