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सिविल सेवा मुख्य परीक्षा विषयवार अध्ययन/शासन व्यवस्था में नैतिक मूल्य

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मानव धर्म

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मानव धर्म सभ्यता एवं संस्कृति की रीढ़ सदृश है।इसके बिना सभ्यता संस्कृति का विकास असंभव है।मानव धर्म की वास्तविकता एवं उपादेयता इसी में है कि मनुष्य के विकास के साथ ही विश्व भर के लोग सुख शांति और प्रेम भाव से रहें।प्राणी मात्र में रहने वाली आत्मा उसी परम पिता परमेश्वर का अंत है। प्रत्येक में एक ही जगत नियंता प्रभु का प्रतिबिंब झलकता है यह समझ कर प्रत्येक मनुष्य की ओर आदर भाव बनाए रखें ऐसा करके ही सभी तरह के आदर्श मूल्यों का विकास संभव है।

मानव धर्म का आध्यात्मिकता तथा नैतिकता से महत्वपूर्ण संबंध है।यदि कोई मानव सदाचारी नहीं है चारित्रिक एवं नैतिक आदर्शों में उसकी आस्था नहीं है। ईश्वरीय सत्ता में भी उसका लेश मात्र विश्वास नहीं और इनके अतिरिक्त सौजन्य, सहृदयता सात्विकता सरलता पर उपकारिता आदि सद्गुणों उसमें नहीं है।तब स्वीकार करना होगा अभी उसने मानव धर्म का स्वर व्यंजन भी नहीं सीखा है वास्तव में मानव धर्म के विनाश हेतु मानव ने चारों ओर स्वार्थ वश एक संकीर्ण घेरा बना रखा है जिसके बाहर वह निकल नहीं पाता वही उसे तोड़े बिना उससे बाहर निकले बिना कोई भी मानव मानवतावादी नहीं बन सकता आता अपने हृदय को परम उदार तथा सरल बनाने की नितांत आवश्यकता है इसके लिए प्रेम परिधि में स्नान पर्व अपेक्षित है जो अत्यंत आनंद की अनुभूति भी कराएगा।