सिविल सेवा मुख्य परीक्षा विषयवार अध्ययन/सेवा क्षेत्रक

विकिपुस्तक से

भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों का समाधान सर्वप्रथम, शीर्ष अधिकारियों की नियुक्ति और चयन व्यवस्था में बदलाव किये जाने की आवश्यकता है। इसके अंतर्गत कार्यकारी निदेशकों, बोर्ड के सदस्यों से लेकर अध्यक्ष तक सबके संदर्भ में बदलाव किये जाने की आवश्यकता है। शीर्ष प्रबंधन की गुणवत्ता बैंकिंग क्षेत्र की मुख्य समस्याओं में से एक है। इसका सबसे अहम् कारण यह है कि चयन प्रक्रिया में राजनीतिक हस्तक्षेप बहुत अधिक होता है, जिसके चलते एक निष्पक्ष चुनाव का विकल्प नहीं रह जाता है। ऐसे में होता यह है कि राजनीतिक दबाव की स्थिति में ऐसे अधिकारी बिना किसी उचित क्रेडिट मूल्यांकन के ही अग्रिम ऋण को मंज़ूरी दे देते हैं। ज़ाहिर सी बात है ऐसे बहुत से ऋण आगे चलकर NPA बन जाते हैं। हाल की बहुत सी घटनाओं में यह बात सामने आई है। व्यावहारिक रूप से बैंकों में कोई जवाबदेही प्रणाली मौजूद नहीं है, जो NPA की समस्या को बढ़ावा देने में भूमिका निभाती है। स्पष्ट रूप से भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा सतर्कता विभाग को सुदृढ़ किये जाने की दिशा में कार्य किया जाना चाहिये, ताकि प्रबंधन के स्तर पर होने वाली चूक को समय रहते सुधारा जा सके और किसी बड़ी परेशानी से बचा जा सके। वर्ष 1993 में समयबद्ध तरीके से ऋण की वापसी सुनिश्चित करने के लिये ऋण वसूली अधिकरण (Debt Recovery Tribunals) की स्थापना की गई। वर्ष 2000 में डिफाल्टर और विलफुल डिफाल्टर की पहचान सुनिश्चित करने के लिये क्रेडिट इन्फाॅर्मेशन ब्यूरो (Credit Information Bureau) का गठन किया गया। 5/25 योजना के तहत ऋण परिशोधन की अवधि को 25 वर्षों तक बढ़ा दिया जाता है एवं प्रत्येक 5 वर्षों की अवधि के पश्चात् ब्याज दरों को पुनः परिवर्तित करने का प्रावधान किया जाता है। एस.डी.आर. (Strategic Debt Restructuring) के अंतर्गत बैंक NPA से संबंधित कंपनियों को दिये गए ऋण को इक्विटी में बदलकर उसके प्रबंधन पर नियंत्रण कर सकते हैं, साथ ही बैंक 18 महीनों के अंदर इक्विटी को बेचकर अपने पैसे वापस ले सकते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिये सरकार ने 2015 में इंद्रधनुष 2.0 योजना शुरू की थी। यह योजना सरकारी क्षेत्र के बैंकों के पुनर्पूंजीकरण हेतु एक समग्र कार्यक्रम है, जिससे बैंकों को बासेल-III नियमों के तहत अपनी पूंजीगत स्थिति बनाए रखने में मदद मिलती है। जब रिज़र्व बैंक को लगता है कि किसी बैंक के पास जोखिम का सामना करने के लिये पर्याप्त पूंजी नहीं है, दिये गए उधार से न आय हो रही है और न ही मुनाफा हो रहा है, तो वह उस बैंक को Prompt Corrective Action फ्रेमवर्क में डाल देता है, ताकि उसकी वित्तीय हालत सुधारने के लिये तत्काल कुछ किया जा सके। भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता कोड यानी दिवालिया कानून के अनुसार, किसी ऋणी के दिवालिया होने पर एक निश्चित प्रक्रिया पूरी करने के बाद उसकी परिसंपत्तियों को अधिकार में लिया जा सकता है। निष्कर्ष- भारत की बैंकिंग प्रणाली ऐसी चुनौती भरी पृष्ठभूमि में अपेक्षाकृत लंबे समय से कार्य कर रही है जिसके कारण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की आस्ति गुणवत्ता, पूंजी पर्याप्तता तथा लाभ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इसके मद्देनज़र सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में वैश्विक जोखिम मानदंडों के अनुरूप उनकी पूंजी ज़रूरतों को पूरा करने और क्रेडिट ग्रोथ को बढ़ावा देने के लिये पूंजी लगा रही है। लेकिन एनपीए का स्तर 8 लाख करोड़ रुपए से अधिक हो जाने के कारण चिंता होना स्वाभाविक है, क्योंकि इतनी बड़ी राशि किसी काम की नहीं है। यदि इस राशि की वसूली हो जाती है तो सरकारी बैंकों की लाभप्रदता में इज़ाफा, लाखों लोगों को रोज़गार, नीतिगत दर में कटौती का लाभ कारोबारियों तक पहुँचना, आधारभूत संरचना का निर्माण, कृषि की बेहतरी, अर्थव्यवस्था को मज़बूती, विकास को गति देना आदि संभव हो सकेगा।