सुमंगलम् : विकास का नया प्रतिमान
- विकास का नया प्रतिमान
- सुमंगलम्
- (ए न्यू पैराडाइम आफ डेवेलपमेंट-सुमंगलम्)
- पुस्तक का नाम - ए न्यू पैराडाइम आफ डेवेलपमेंट - सुमंगलम्
- लेखक - डा. बजरंग लाल गुप्त
- प्रकाशक - ज्ञान पब्लिशिंग हाउस, 23, मुख्य अंसारी मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-110002
भूूमिका
[सम्पादन]दुनिया में आज चारों तरफ एक अजीब-सी भागम-भाग, एक बेचैनी, एक अतृप्त अभीप्सा दिखाई देती है। जो पास है उसे दो-गुना करने की भागम-भाग, जो अपना है उसे छोड़ दूसरे के पास जो है उसे पाने की बेचैनी, एक चाहत दूसरे की नकल की, उस जैसा बनने या उस जैसी दौलत कमाने की। हर तरफ आगे निकलने की होड़ है, प्रतिद्वंद्विता है, दूसरे के सिर पर चढ़कर-उसे रौंदकर आगे जाने का उन्माद है, और एक पागलपन कि "तरक्की" करनी है। जो किया, थोड़ा है, और करना है। आज की दुनिया के पैमाने में इसे नाम दिया गया है "विकास"। पर इससे हासिल क्या हुआ? इससे हासिल हुआ संताप, क्लेश, रोग, वैमनस्य, कुंठा, विचलन, मूल्यों का ह्म#ास और नैतिकता को तिलांजलि।
पर आश्चर्य और विडम्बना की बात यह है कि इन सब दुष्परिणामों को जानते, समझते, देखते हुए भी बहुतांश में लोग उन्हीं - उन्हीं चीजों को करते हैं, उन्हीं रास्तों पर बढ़ते हैं और उन्हीं तरीकों को अपनाते हैं जो उस तरह के तथाकथित "विकास" के पैमाने हैं। और ऐसा करते हुए वे शान से खुद को "मॉड" या आधुनिकता के चौखटे में खड़ा दिखाते हैं। भारत या हर उस चीज पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं जो भारत से जुड़ी हो, यहां की माटी की गंध लिए हो, क्योंकि आंखों पर "विकास" के आदर्श-पश्चिमी देशों का चश्मा चढ़ा रहता है। आजादी के बाद भारत की बागडोर थामने वाले नेता, या कहें जिनके हाथ बागडोर थमा दी गई, वे खुद वही चश्मा पहने थे। परिणामत: गरीबी और अमीरी के बीच खाई बढ़ी है; खेत बंजर हुए हैं, युवक पढ़े-लिखे हैं पर रोजगारविहीन हैं; पीने को पानी नहीं है, है भी तो दूषित, रहने को दड़बेनुमा "घर" हैं, पर सांस लेने को शुद्ध हवा नहीं है। इस अत्यंत चिंताजनक और अनिष्टकारी वर्तमान के पीछे दोषी कोई है तो वह है विकास की गलत परिभाषा। इसके विपरीत जो भारत के मर्म को समझ प्रगति की राह बनाता है और भारतवासियों के खुशहाल व सुखमय जीवन का मार्ग प्रशस्त करता है वह है सुमंगल विकास पथ। समीक्ष्य पुस्तक "न्यू पैराडाइम आफ डेवेलपमेंट-सुमंगलम्" इसी विकास पथ की ओर इंगित करती है।
वरिष्ठ आर्थिक चिंतक डा. बजरंग लाल गुप्त आज देश के उन जाने-माने अर्थ विशेषज्ञों में से एक हैं जिन्होंने मंगलकारी विकास पथ पर देश को आगे बढ़ाने के लिए एक प्रकार से जन-चेतना अभियान छेड़ा हुआ है। दिल्ली विश्वविद्यालय में रीडर के पद से सेवानिवृत्त डा. बजरंग लाल गुप्त की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक "ए न्यू पैराडाइम आफ डेवेलपमेंट- सुमंगलम्" पश्चिमी विकास पथ की खामियों और भारत किंवा समस्त जगत के कल्याण वाले सुमंगल विकास पथ के हितकारी पहलुओं का एक सुविचारित विषद् चिंतन है। बजरंग जी वर्षों से भारत के ग्राम अधारित विकास पर अपने आख्यानों, लेखों, पत्रों, चर्चाओं के जरिए जन-जागरण करते रहे हैं और यह पुस्तक उनके इसी गहन चिंतन-अध्ययन का नवनीत है।
ग्राम आधारित विकास पथ की महिमा बताते हुए पुस्तक के प्राक्कथन में जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा. रामजी सिंह लिखते हैं- "विश्वपुष्टम् ग्रामेऽस्मिन् अनातुरम्" (ग्रामों द्वारा पोषित विश्व) के वैदिक आदर्श के माध्यम से सामाजिक और संगठनात्मक स्तरों पर आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त करना होगा। इसके लिए हमें आचार्य विनोबा भावे के ग्राम दान और ग्राम स्वराज के उपहार के साथ प्रयोग करना होगा। हम न तो पूंजीवादी निजीकरण स्वीकरते हैं, न कम्युनिस्ट शासन का राज्य-स्वामित्व। हमें ग्राम-केन्द्रित आदर्श प्राप्त करना है। गांव की संप्रभुता, गांव की कृषि, गांव का श्रम, गांव का विकास, गांव की परिषद्, गांव का कोष, गांव के प्रहरी, गांव के विद्यालय-यह है भारत का वास्तविक ग्राम स्वराज।"
आधुनिक पश्चिमवादी विकास के दोष की चर्चा करते हुए डा. गुप्त पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं- "समस्याओं को सुलझाने की बजाय विकास के प्रतिमान वास्तव में समस्याएं पैदा कर रहे हैं, उन्हें बढ़ा रहे हैं। हम देख सकते हैं कि दुनिया भर में गरीबी, असमानता और बेरोजगारी बढ़ती जा रही है।... नैतिक, सांस्कृतिक और मानवीय मूल्यों के ह्रास और पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन के क्षरण ने स्थिति को और बदतर बना दिया है। ये सब चीजें देखकर लोग ये सोचने पर मजबूर हो गए हैं कि कहीं हम विकास की ओर बढ़ते हुए तबाही की तरफ तो नहीं जा रहे? इसलिए आज हम देखते हैं कि वैश्विक अर्थतंत्र, खासकर विकासशील जगत का अर्थतंत्र विकास के अपने संघर्ष में चौराहे पर खड़ा है।"
पुस्तक को भिन्न आयामों, चिंतन बिन्दुओं के आधार पर तीन अध्यायों में बांटा गया है। प्रथम अध्याय पश्चिमी विकास प्रतिमान के अर्थ और आयामों तथा विरोधाभासों की चर्चा करता है। दूसरा अध्याय नए विकास पथ-यानी सुमंगलम् की खोज पर विस्तार से प्रकाश डालता है। तीसरा अध्याय सुमंगलम् के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सामाजिक-तकनीकी-आर्थिक ढांचे का एक मंगल प्रारूप प्रस्तुत करता है। 191 पृष्ठों की इस पुस्तक में पश्चिमी विकास प्रतिमान और भारतीय जीवन दृष्टि के बीच तुलनात्मक विवेचन अनेक आयामों के जरिए प्रस्तुत किया गया है, भारत की चिति पर आधारित सुमंगल पथ का प्रारूप सविस्तार समझाया गया है। पुस्तक के सामाजिक- तकनीकी आर्थिक ढांचे के मंगल प्रारूप पर प्रकाश डालते हुए डा. गुप्त ने आधुनिक तकनॉलाजी को भारतीय परिस्थितियों के अनुसार अंगीकृत करने की रूपरेखा पर अपनी चिंतनशील दृष्टि डाली है। वे लिखते हैं, "किस तरह की तकनालॉजी अपनानी चाहिए आदि प्रश्नों पर अपनी ऊर्जा व्यर्थ करने की बजाय हमें सबसे पहले इस सवाल का जवाब देना होगा कि तकनालॉजी किसके लिए? इसके अलावा, हमें सबसे पहले यह निर्धारित करना होगा कि हमारे देश की सबसे पहली और महत्वपूर्ण आवश्यकता है गरीब लोगों की स्थिति सुधारना। इस प्रक्रिया में, तकनालॉजी के संदर्भ में हमारी दिशा स्वत: ही स्पष्ट हो जाएगी। ये सवाल हमारे जीवन और मूल्यों के प्रति हमारे दृष्टिकोण से नजदीक से जुड़ा है।" पुस्तक में ही एक जगह डा. श्यामा चरण दुबे की कुछ पंक्तियां सरल शब्दों में मर्म रखती प्रतीत होती हैं। डा. दुबे कहते हैं, "वर्तमान जीवन शैली के झुकाव व्यक्तिगत सुख, व्यक्तिगत संतोष और व्यक्तिगत उपभोग की तरफ हैं। नए परिवेश में, निश्चित रूप से आनंद और संतोष की और ज्यादा अनुभूति होगी, भले ही कोई अपने व्यक्तिगत आनंद का कुछ हिस्सा समाज के व्यापक भले के लिए भुला दे, तो भी उसे आनंद ही होगा। सफलता का पैमाना यह नहीं होगा कि कोई अपने लिए या अपने परिवार के लिए कितना कर पाया है बल्कि पैमाना होगा कि वह समाज को समग्रता में क्या लाभ पहुंचा सका है। किसी व्यक्ति की सफलता उसके सामाजिक सरोकार और सामाजिक कल्याण में योगदान के संदर्भ में आंकी जाएगी।"
कह सकते हैं कि पुस्तक में नपे-तुले शब्दों में अत्यंत गंभीर विवेचन समाया हुआ है। यह विषय आज के सबसे ज्वलंत विषयों में से एक है जिसे नजरअंदाज किया जाना भारत के भविष्य के साथ खिलवाड़ करना होगा। व्यक्ति, समाज, देश और विश्व के कल्याण के लिए विकास पथ का सुमंगलकारी होना परम आवश्यक है। इस दृष्टि से यह पुस्तक भारत के आर्थिक उन्नयन के लिए हर चिंतनशील व्यक्ति को पाथेय उपलब्ध कराएगी।
सुमंगलम्-1
[सम्पादन]- पराये तंत्र-पराभूत मन ने की दुर्दशा - डा. बजरंग लाल गुप्ता
भारतीय अर्थव्यवस्था आज गहरे और गंभीर संकटों के भंवर में फंस गई है, ऐसा सभी मानने लगे हैं। अब प्रश्न यह है कि इस संकट-जाल से निकलने का मार्ग क्या हो? अथवा भारत अपने विकास की कौन-सी राह पकड़े?
इस प्रश्न के समाधान के बारे में दो प्रमुख मत हैं। एक मत के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, विदेशी पूंजीपतियों एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सहारे पश्चिम के सम्पन्न देशों के विकास माडल, विकास तकनीक एवं तकनालाजी को अपनाकर भारत अपने संकटों को पार कर सकता है।
इसके विपरीत दूसरे मत के अनुसार, समग्र-संतुलित विकास-दर्शन के आधार पर भारत स्वदेशी तंत्र, तकनीक एवं तकनालाजी को अपनाकर अपने ही बलबूते पर देश का विकास करने की सामथ्र्य जुटा सकता है।
विकास के ये दो ऐसे मार्ग हैं जिनके दर्शन, दिशा और दृष्टिकोण में भारी व आधारभूत अंतर है। अत: इनमें से किसी भी एक मार्ग को चुनने से पहले इन पर खुली व व्यापक बहस होनी चाहिए। आवश्यकता तो इस बात की थी कि आजादी से पहले ही हम इस विषय पर अधिक सार्थक बहस कर हम अपना कोई तंत्र व रास्ता खोजते किन्तु इसे देश का दुर्भाग्य कहा जाएगा कि उस समय हम इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं कर पाए।
क्यों नकारा "हिन्द स्वराज"?
स्वाधीनता आंदोलन के समय गांधीजी और उनके सहकर्मी कुछ विचारकों ने इस बारे में सार्थक पहल की थी और इस दृष्टि से उन्होंने अपनी "हिन्द स्वराज" नामक पुस्तक में कुछ महत्त्वपूर्ण दिशा संकेत भी दिए थे। किन्तु आजादी के बाद जिन हाथों में नेतृत्व आया उन्होंने इस बहस और इसकी दिशा को निरर्थक मानकर नकार दिया। इसका कारण शायद यह रहा कि पराधीनता की पराभूत मनोवृत्ति से ग्रसित होने के कारण हमारा नेतृत्व यह आत्मविश्वास ही नहीं जुटा पाया कि भारत का विकास भारत के अपने ही तंत्र और शक्ति सामथ्र्य के आधार पर किया जा सकता है। अत: स्वाभाविक रूप से उनकी दृष्टि दुनिया के विकसित देशों के तंत्र व प्रणालियों पर ही गई और उन्होंने इस पराये तंत्र को भारत पर लादना शुरू कर दिया। अत: विकास-पथ और विकास-रणनीति के बारे में स्वतंत्र भारत में जो कुछ थोड़ी-बहुत बहस चली, वह उन दिनों में प्रचलित दो प्रणालियों-पूंजीवादी व समाजवाद के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह गई। यही कारण था कि स्वतंत्र भारत में हम बाजार नियंत्रित पूंजीवादी व्यवस्था अथवा राज्य -नियंत्रित समाजवादी व्यवस्था अथवा इन दोनों के मिश्रण के किसी चौखटे में ही विकास की अपनी योजनाएं, नीतियां व कार्यक्रम बनाते व चलाते रहें। संसार के जिन देशों ने पूंजीवादी व समाजवादी प्रणालियों को अपनाया, उन सबके अनुभव और भारत के अनुभव अब हमारे सामने हैं। अत: इन अनुभवों के प्रकाश में सही विकास पथ की तलाश और उसकी बहस को प्रारंभ करने का यह सर्वाधिक उपयुक्त समय है।
पश्चिमी विकास-दर्शन
उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व के विषय को यदि छोड़ दिया जाए तो पूंजीवादी और समाजवादी, इन दोनों ही प्रणालियों में मनुष्य एवं विकास की संकल्पनाओं, जीवन के उद्देश्य, उत्पादन की तकनीक व तकनालाजी, विकास के कारक आदि अनेक विषयों को लेकर काफी कुछ समानता है। अत: इन दोनों ही प्रणालियों के अंतर्गत चलने वाले विकास को हम पश्चिमी विकास पथ कह सकते हैं। वर्तमान में भारत सहित विश्व के सभी देशों में पश्चिमी विकास-पथ ही चल रहा है। अत: किसी नए विकास-पथ की चर्चा करने से पहले इसका मूल्यांकन कर लेना उचित होगा।
विकास के पश्चिमी दर्शन एवं माडल के आधारभूत तत्वों का सार संक्षेप में इस प्रकार है-
1. कार्टिजिन- न्यूटोनियन दर्शन पर आधारित खंडित यांत्रिक विश्व-दृष्टि-पश्चिमी अर्थचिंतन कार्टिजियन-न्यूटोनियन दर्शन पर आधारित खंडित यांत्रिक विश्व दृष्टि में से उपजा है। यह गैलिलियो, बेकन, डेकार्ते, न्यूटन आदि के विचारों एवं अनुसंधानों पर आधारित है। इस विश्व-दृष्टि की निम्नलिखित मुख्य मान्यताएं हैं-
(क) समूचा ब्राहृांड अथवा प्रकृति एक विशाल मशीन (यंत्र) के समान है, जो कुछ निश्चित नियमों द्वारा संचालित होती है और इन्हें प्रयोगों एवं तर्कसंगत विश्लेषण द्वारा जाना जा सकता है।
(ख) एक ऐसा बाह्र संसार है जिसका हमसे पूर्णतया अलग अस्तित्व है, अत: इस जगत को हम पूर्णतया वस्तुगत होकर माप सकते हैं।
(ग) जिसे नापा-मापा और गणितीय सूत्रों में प्रस्तुत किया जा सकता हो, वही विज्ञान के क्षेत्र में आ सकता है। इसी में से निश्चयात्मक दृष्टिकोण एवं उस पर आधारित विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का विकास हुआ। इस प्रकार के विज्ञान के अनुसार प्रयोग की तकनीकी एवं गणितीय विश्लेषण विधियों के द्वारा ब्राहृांड की समस्त वास्तविकताओं को समझा जा सकता है। इस विचार के परिणामस्वरूप ही आगे चलकर मानवीय व्यवहारों, मानवीय अनुभूतियों, संवेदनाओं, आशाओं-आकांक्षाओं को भी मापने वाले शास्त्रों व पद्धतियों का विकास हुआ।
(घ) विभिन्न समस्याओं को अलग-अलग रूपों एवं अलग-अलग हिस्सों में देखा व समझा जा सकता है। जिसे हम सम्पूर्ण कहते हैं वह विभिन्न हिस्सों का योग मात्र है।
(ङ) विज्ञान की सहायता से प्रकृति पर विजय प्राप्त कर मनुष्य इसका पूर्णतया अपने लाभ के लिए उपभोग कर सकता है। इसी में से विकास का रास्ता खुलता है। इसी विचार में से न्यूनतम परिश्रम से प्रकृति का अधिकतम उपयोग करने की तकनीक व तकनालाजी सिखाने वाला विज्ञान पनपा है।
शोषण आधारित विकास!
न्यूटन के इस दृष्टिकोण को आधार बनाकर ही जान लॉक ने मानवीय व्यवहारों को निर्देशित व नियमित करने वाले नियमों का प्रतिपादन किया। इसी में से आगे चलकर व्यक्तिवाद, सम्पत्ति पर निजी स्वामित्व, स्वतंत्र बाजार-तंत्र एवं न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप पर आधारित एक सामाजिक-आर्थिक संरचना का जन्म हुआ जिसे पूंजीवादी व्यवस्था कहा गया। इस प्रकार की पूंजीवादी व्यवस्था में से जन्मे औद्योगिक समाज को मुक्त बाजार तंत्र की गला-काट प्रतियोगिता के बीच अपने अस्तित्व को बनाए और बचाए रखने के लिए लगातार बढ़ते हुए बाजार, सस्ते श्रम व कच्चे माल की उपलब्धि और तकनालाजी में लगातार सुधार करते जाने की आवश्यकता महसूस हुई। इस आवश्यकता में से ही इन समाजों ने जहां प्रकृति का बेरहमी से शोषण किया वहीं अपने देश के भीतर कमजोर व साधनहीन लोगों का भी शोषण किया। आगे चलकर इसी के परिणामस्वरूप पश्चिम के इन औद्योगिक देशों ने एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के देशों पर साम्राज्य स्थापित कर उनका सब प्रकार से दमन व शोषण किया और अब इन देशों के विकास के नाम पर इनका शोषण किए जाने की नई चाल चली जा रही है। परिणामस्वरूप दुनियाभर में सामाजिक व नैतिक मूल्य तेजी से पीछे छूटते जा रहे हैं।
मार्क्सवादी विकल्प
पूंजीवादी शोषण की प्रतिक्रियास्वरूप माक्र्स ने मुक्त बाजार-तंत्र से अलग एक साम्यवादी व्यवस्था दी। किन्तु माक्र्स ने भी अपने वैज्ञानिक समाजवाद का आधार कार्टिजियन-न्यूटोनियन यांत्रिक विश्व दृष्टि को ही बनाया। अंतर केवल इतना था कि उसने पूंजीपतियों द्वारा श्रमिकों के शोषण के खिलाफ नारा बुंलद किया और संपत्ति के साधनों के सरकारीकरण पर जोर दिया। पर उसी यांत्रिक विश्वदृष्टि के बने रहने के कारण इस व्यवस्था में भी प्रकृति एवं मनुष्यों का शोषण जारी रहा, केवल शोषण के स्थान व प्रकार बदल गए।
पश्चिमी तकनीकी-आर्थिक चिंतन की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यह धरती के सीमित साधनों से असीमित प्रगति कर लेना चाहता है। इसके कारण ही आपाधापी, लूट-खसोट, साम्राज्यवाद, शोषण, असमानता व संघर्ष की स्थिति सतत बढ़ती जा रही है। (जारी)
तलपट
दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर को विश्व के सबसे बड़े सर्वांग परिपूर्ण मंदिर के रूप में स्थान मिला है। इस मंदिर का निर्माण करने वाली अक्षरपुरुषोत्तम स्वामिनारायण संस्था के प्रमुख स्वामी जी महाराज का नाम 713 मंदिरों का निर्माण कराने के लिए विश्व कीर्तिमान की सूची में शामिल किया गया है।
सुमंगलम्-2
[सम्पादन]- पश्चिम की मान्यताएं और विकास दृष्टि
श्री गुरुजी जन्म शताब्दी समारोह के राष्ट्रीय सचिव रहे डा. बजरंगलाल गुप्त प्रख्यात अर्थशास्त्री हैं। वे रा.स्व.संघ, उत्तर क्षेत्र के क्षेत्र संघचालक हैं। कुछ समय पूर्व माधव स्मृति न्यास, अमदाबाद ने भारतीय आर्थिक चिंतन पर उनकी व्याख्यानमाला आयोजित की, जो बाद में "सुमंगलम्" (प्रकाशक-"माधव स्मृति न्यास" 6, मित्र मण्डल सोसाइटी, उस्मानपुरा, अमदाबाद-380013 (गुजरात) मूल्य- 25 रु.) नाम से पुस्तक रूप में संकलित हुई। प्रस्तुत है उन्हीं व्याख्यानों की दूसरी कड़ी-
पश्चिमी अर्थचिंतन की प्रमुख मान्यताएं इस प्रकार हैं-
(क) 'आर्थिक मनुष्य' की परिकल्पना-एक ऐसा मनुष्य जिसके निर्णय एवं प्रेरणा का आधार धन अथवा अर्थलाभ होता है। चूंकि इस प्रकार के मनुष्य की विभिन्न गतिविधियों एवं क्रियाकलापों के पीछे मुख्य संचालन शक्ति आर्थिक होती है, अत: ऐसे मनुष्य को आर्थिक मनुष्य की संज्ञा दी जाती है।
पश्चिम का समूचा विकास सिद्धांत मनुष्य को अर्थमानव मानकर ही दिया गया है। विचार कीजिए कितनी सही है यह मान्यता? जब कोई यह कहता है कि यह भाप का इंजन है तो इसका अर्थ है कि यह इंजन भाप से चलता है। जब कोई कहता है कि यह बिजली की मोटर है तो इसका अर्थ है कि यह मोटर बिजली से चलती है। इसी तरह जब पश्चिमी विचारक मनुष्य को अर्थमानव कहते हैं तो इसका अर्थ यह होता है कि यह मनुष्य अर्थ से चलता है। इसका आशय यह हुआ कि इस मनुष्य की निर्णय की एकमात्र कसौटी अर्थ का मिलना या न मिलना अथवा कम या ज्यादा मिलना ही होता है। कल्पना कीजिए, जो विकास का माडल इस प्रकार के अर्थमानव की कल्पना पर आधारित होगा उससे समाज को क्या मिलेगा? उसके परिणाम क्या होंगे? अर्थमानव के नाते एक उपभोक्ता के रूप में व्यक्ति जब बाजार में जाएगा तो वह किस आधार पर निर्णय करेगा? वह सोचेगा कि सस्ता मिलेगा तो खरीदूंगा और महंगा मिलेगा तो नहीं खरीदूंगा। उसका प्रयास रहेगा कि कम से कम दाम देना पड़े और अधिक से अधिक वस्तु मिल जाए। उत्पादक के नाते उसका व्यवहार कैसा होगा? जिससे अधिक लाभ मिलेगा उसका उत्पादन करेगा और जिससे कम लाभ मिलेगा वह उस वस्तु का उत्पादन नहीं करेगा, फिर चाहे समाज को हानि ही क्यों न हो। ऐसी स्थिति में समाज हित के लिए आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन उसकी प्राथमिकता नहीं बन सकेगी।
विक्रेता के नाते उसकी कोशिश यह रहेगी कि कम से कम चीज देकर ज्यादा से ज्यादा दाम वसूल लिए जाएं। जिससे ज्यादा पैसे मिलेंगे वह उस वस्तु को बेचेगा, और जिससे कम पैसे मिलेंगे उसे नहीं बेचेगा। कर्मचारी अथवा श्रमिक के नाते वह कम से कम काम करके अधिक से अधिक पारिश्रमिक वसूल करना चाहेगा। और नियोग्ता (या मालिक) के नाते उसकी कोशिश रहेगी कि कर्मचारी को कम से कम दाम देकर उससे अधिक से अधिक काम करवाया जाए।
कुल मिलाकर यदि सब मनुष्य अर्थमानव के नाते ही व्यवहार करना शुरू कर दे तो क्या समाज चलेगा? इसमें से नैतिक समाज का निर्माण कैसे हो सकेगा? फिर कोई मां-बाप की सेवा क्यों करे, अथवा आक्रमण के समय अपनी जान की बाजी लगाकर देश की रक्षा करने का व्यवहार कहां से आ पाएगा?
(ख) स्वहित और आर्थिक विवेकशीलता की मान्यता-पश्चिमी विचारकों की मान्यता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने हित के लिए ही कार्य करता है और व्यक्ति स्वयं ही अपने हित के बारे में सर्वाधिक उपयुक्त निर्णय ले सकता है। चूंकि समाज व्यक्तियों से मिलकर बनता है, अत: जब प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने हित के बारे में चिंता करेगा तो समूचे समाज के हित के बारे में अपने आप ही चिंता हो जाएगी। उनके अनुसार व्यक्तिगत हितों का योग ही समाज का सामूहिक हित है।
आर्थिक विवेकशीलता का अर्थ है कि व्यक्ति को जिस काम में सर्वाधिक आर्थिक लाभ दिखाई देगा वह वही काम करेगा अर्थात् व्यक्ति निर्माण की कसौटी अपने लिए सर्वाधिक आर्थिक लाभ प्राप्त करना ही होना चाहिए। जो व्यक्ति इस कसौटी के अनुसार व्यवहार करता है, उसे ही आर्थिक दृष्टि से विवेकशील कहते हैं। आर्थिक सिद्धांत इसी आर्थिक विवेकशीलता की मान्यता के आधार पर बनाए जाते हैं।
(ग) प्रतियोगिता और संघर्ष ही संतुलन और प्रगति का आधार-पश्चिमी अर्थचिंतन में माना गया है कि विभिन्न आर्थिक वर्गों एवं आर्थिक इकाइयों के बीच विभिन्न स्तरों पर प्रतियोगिता एवं संघर्ष चलता रहता है। इस प्रतियोगिता एवं संघर्ष के परिणामस्वरूप ही अर्थव्यवस्था में संतुलन निर्माण होता है। फिर से प्रतियोगिता व संघर्ष के कारण यह संतुलन टूटता है और नया संतुलन निर्माण होता है। प्रतियोगिता, संघर्ष और संतुलन का यह क्रम ही प्रगति का मार्ग व दिशा तय करता है। उदाहरण के लिए - क्रेताओं के बीच आपस में, विक्रेताओं के बीच भी आपस में तथा क्रेताओं व विक्रेताओं के बीच भी आपस में प्रतियोगिता चलती रहती है, इसी में से बाजार में संतुलन-कीमत का निर्धारण होता है। इसी प्रकार उपभोक्ता संतुलन, उत्पादक संतुलन, न्यूनतम लागत संयोग, अधिकतम लाभ अथवा न्यूनतम हानि पर संतुलन आदि धारणाओं का विकास हुआ है।
(घ) सर्वोत्तम का अस्तित्व-डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत से प्रभावित होकर पश्चिमी विचारकों ने अर्थव्यवस्था में भी इस सिद्धांत को स्वीकार किया है कि प्रतियोगिता एवं संघर्ष के दौरान वही अपना अस्तित्व बनाए और बचाए रख सकता है जो दूसरों की तुलना में आर्थिक दृष्टि से अपने को अधिक उत्तम सिद्ध कर पाता है। आर्थिक दृष्टि से कमजोर व अशक्त अपने आप ही नष्ट होता चला जाता है। अत: अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए प्रत्येक को अपनी अर्थशक्ति का संचय व प्रदर्शन करना होता है।
(ङ) प्रकृति मनुष्य की दासी-पश्चिमी आर्थिक विचारकों ने प्रकृति को मनुष्य की दासी के रूप में स्वीकार किया है। वे अपनी सुख-सुविधा में वृद्धि के लिए प्रकृति के उपभोग को अपना अधिकार मानते हैं। इसीलिए उन्होंने प्रकृति पर विजय अभियान की भावना से खूब शोषण करने के लिए अनेक विधि, तकनीक व तकनोलाजी का विकास किया है।
विकास के बारे में दृष्टि व युक्ति
पश्चिमी अर्थशास्त्रियों ने विकास के सम्बंध में जिस दृष्टि व दृष्टिकोण को लेकर विचार किया है और उसके लिए जिस युक्ति को स्वीकार किया है, उसकी प्रमुख बातों को निम्नलिखित सूत्रों में बताया जा सकता है-
(1) विकास को प्रति व्यक्ति वास्तविक जी.डी.पी. में वृद्धि के रूप में परिभाषित करना- विकास के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) का माप और इसकी गणना अधूरी, गलत व भ्रमपूर्ण है। इसके सम्बंध में आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।
(2) वस्तुओं व सेवाओं का ज्यादा से ज्यादा उपभोग करके अपने रहन-सहन स्तर में वृद्धि को ही जीवन का लक्ष्य मानना। जरा देखें कि रहन-सहन का क्या अर्थ है? रहन-सहन स्तर का ऊंचा या नीचा होना कैसे तय होता है? पश्चिमी चिंतन के अनुसार रहन-सहन स्तर व्यक्ति के पास उपभोग के लिए उपलब्ध वस्तुओं व सेवाओं की मात्रा से निर्धारित होता है। इसका अर्थ है कि जिसके पास जितनी ज्यादा वस्तुएं व सेवाएं उपलब्ध होंगी, उसका रहन-सहन स्तर उतना ही ऊंचा माना जाएगा। यदि हम इस परिभाषा को स्वीकार कर लेते हैं तो एक व्यक्ति अपना रहन-सहन स्तर बढ़ाने के लिए दिन-रात अधिकाधिक उपभोग में जुटा रहेगा। बिना संयम के अधिकाधिक उपभोग करने पर उसे कोई न कोई बीमारी हो जाएगी, इस बीमारी को दूर करने के लिए वह डॉक्टर की सेवाएं और दवाएं लेगा। अब उसके पास वस्तुओं व सेवाओं की मात्रा और अधिक बढ़ गई। इस परिभाषा के अनुसार तो उसका रहन-सहन स्तर ऊंचा हो गया है, यह मानना पड़ेगा। इसके विपरीत एक व्यक्ति संयमपूर्वक उपभोग करता है, अत: वह बीमार नहीं होता। बीमार न होने के कारण उसे डाक्टर की सेवाओं और दवाओं की जरूरत नहीं रहती। इस प्रकार उसके पास वस्तुओं व सेवाओं की मात्रा कम रहती है, अत: वर्तमान परिभाषा के अनुसार उसका रहन-सहन स्तर नीचा माना जाएगा। इस प्रकार के रहन-सहन स्तर में वृद्धि को विकास का लक्ष्य मानना दिशाभ्रम ही कहा जाएगा। पश्चिमी चिंतन के अनुसार तो उपभोग को बढ़ावा देकर और भोगवादी जीवनशैली अपनाकर ही विकास के मार्ग पर अधिक तेजी से आगे बढ़ा जा सकता है। इनका मानना है कि जितना उपभोग बढ़ेगा, बाजार में उतनी ही मांग बढ़ेगी, मांग बढ़ने पर उत्पादन बढ़ेगा और अंततोगत्वा देश की विकास दर में वृद्धि होगी। इसीलिए आज के विकास माडल ने अधिकाधिक उपभोग के लिए अधिकाधिक अर्थार्जन को ही केंद्रीय क्रियाकलाप मान लिया है। किन्तु अब इसके दुष्परिणाम भी सामने आने लगे हैं। आज समूची दुनिया उपभोक्तावाद की समस्या से पीड़ित है। इस प्रकार पश्चिमी चिंतन अर्थ और काम केंद्रित अधूरा चिंतन है।
(3) उपभोग की सतत आकांक्षा व लालसा को पूरा करने के लिए उत्पादन वृद्धि पर जोर- जब अधिकाधिक उपभेाग को जीवन का लक्ष्य मान लिया जाता है तब अनेक उपायों के द्वारा मनुष्य की आवश्यकताओं में वृद्धि करने का प्रयत्न किया जाता है और इसे अच्छा भी माना जाता है। यही कारण है कि आवश्यकताओं की वृद्धि को सभ्यता के विकास के साथ जोड़कर देखा जाता है। जिस समाज अथवा व्यक्ति समुदाय की जितनी ज्यादा आवश्यकताएं होती हैं, उसे उतना ही सभ्य माना जाता है। इन बढ़ी हुई आवश्यकताओं एवं उपभोग को पूरा करने के लिए उत्पादन में वृद्धि करना अपरिहार्य हो जाता है। यही कारण है कि पश्चिमी चिंतन ने उपभोग और उत्पादन की दौड़ को ही विकास का मार्ग मान लिया है।
(4) उत्पादन वृद्धि के लिए-(अ) प्राकृतिक साधनों का भरपूर शोषण तथा (ब) मशीनचालित ऊर्जाभक्षी तकनोलाजी पर आधारित बड़े-बड़े उद्योगों वाले उत्पादन-तंत्र का निर्माण करना। कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा उत्पादन प्राप्त करने के लिए प्राकृतिक साधनों का भरपूर शोषण किया जाता है। इसके फलस्वरूप ही हम पर्यावरण ह्यास और प्रदूषण की समस्या से ग्रसित होते जा रहे हैं। बड़े पैमाने पर उत्पादन करने के लिए बड़ी-बड़ी कंपनियों के द्वारा बड़े-बड़े कारखाने बनाए जाने लगे हैं और इन कारखानों में बहुत अधिक ऊर्जा का प्रयोग करने वाले यंत्रों व मशीनों की सहायता से उत्पादन किया जाता है। इसने बेरोजगारी एवं ऊर्जा संकट जैसी समस्याओं को जन्म दे दिया है।
(5) इस उत्पादन तकनीक व उत्पादन तंत्र के संचालन के लिए पूंजी को प्रधान कारक मानकर (सामाजिक-सांस्कृतिक व मानवीय कारकों को स्थिर मानते हुए) निवेश व पूंजी-संचय पर जोर- पश्चिमी चिंतन के आधार पर बनाए गए सभी विकास माडलों में सामाजिक-सांस्कृतिक व मानवीय कारकों को स्थिर मान लिया गया है। ये उत्पादन वृद्धि एवं विकास के लिए पूंजी को सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक मानते हैं। अत: विकास की दर को बढ़ाने के लिए निवेश की दर में वृद्धि होना आवश्यक माना गया है। अधिक निवेश के लिए अधिक मात्रा में पूंजी का संचय करने पर जोर दिया गया है। इस प्रकार पूंजी प्रधान विकास रणनीति को स्वीकार किया गया है। यही कारण है कि दुनिया के गरीब देश विकास के नाम पर विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों से बड़ी मात्रा में सहायता व निवेश लेते जा रहे हैं। इसने इन देशों को कर्ज जाल में फंसा दिया है।
उपर्युक्त दर्शन व दृष्टिकोण के आधार पर ही अब तक विकास के अनेक सिद्धांत व माडल सामने आए हैं। हमारे देश का नेहरू-महलानोबिस माडल भी इसी का एक रूप है। (जारी)
सुमंगलम्-3
[सम्पादन]- विकास-अर्थशास्त्र का भ्रमजाल
- - डा. बजरंग लाल गुप्त; सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री, क्षेत्र संघचालक, उत्तर क्षेत्र रा.स्व.संघ
द्वितीय महायुद्ध के बाद एशिया और अफ्रीका के अनेक देशों को स्वतंत्रता मिली। परतंत्रता के कालखण्ड में साम्राज्यवादी (आज के तथाकथित विकसित) देशों ने इनका खुलकर आर्थिक शोषण किया। परिणामस्वरूप आजादी के समय इन देशों की आर्थिक स्थिति बहुत खराब अवस्था में थी। अत: राजनीतिक स्वतंत्रता के बाद इन देशों में आर्थिक विकास की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। इन देशों में यह भावना जोर पकड़ने लगी कि आर्थिक विकास के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है और राजनीतिक स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए सभी देशों की आर्थिक प्रगति आवश्यक है।
विश्व के विभिन्न देशों के बीच बढ़ती हुई आर्थिक खाई ने भी विकास के प्रयत्नों की आवश्यकता को और अधिक तीव्र बनाया। विश्व के केवल थोड़े से देश विकसित और सम्पन्न हों और अधिकांश देश पिछड़े व गरीब बने रहें-यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं चल सकती। अर्थात् संसार के बहुत से देशों की गरीबी विकसित देशों की सम्पन्नता के लिए भी खतरा बन सकती है। इस अहसास ने भी विकसित देशों की रुचि गरीब देशों के विकास में बढ़ाई। आवागमन के बढ़ते हुए साधनों और सम्पर्क की सुविधा के कारण भी गरीब देशों के निवासियों को विश्व के अन्य देशों के मुकाबले अपनी गरीबी का अधिक अहसास होने लगा है। अत: वे अपनी गरीबी के प्रति अधिक सचेत हो गए और उसे दूर करने के लिए अधिक आतुर दिखाई देने लगे हैं। इन सब कारणों से ही द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् आर्थिक विकास और उसकी समस्याओं के प्रति सम्पूर्ण विश्व का ध्यान अधिक आकर्षित हुआ है। विकास और उससे जुड़े हुए मुद्दों के इस महत्व के कारण ही अर्थशास्त्र के क्षेत्र में विकास-अर्थशास्त्र नामक एक अलग विषय का ही उदय हो गया।
किन्तु पिछले कुछ वर्षों से विकास-अर्थशास्त्र के एक स्वतंत्र विषय के रूप में अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न-सा उभरता दिखाई दे रहा है। पचास और साठ के दशक में विकास-अर्थशास्त्र के सिद्धांतों, माडलों, नीतियों व रणनीतियों के बारे में जो सहमति बनती जा रही थी और विभिन्न विकास योजनाओं के माध्यम से उनके क्रियान्वयन के बारे में जो उत्साह दिखाई देता था, वह आगे चलकर धीरे-धीरे ठंडा होता गया। यह एक गंभीर प्रश्न है कि गरीबी व पिछड़ेपन की समस्या को सुलझाए बिना ही ऐसा क्यों हो गया? अब तो विकास-अर्थशास्त्र की दिशा, दर्शन व दृष्टि को लेकर ही संदेह व्यक्त किया जाने लगा है। इस विकास-अर्थशास्त्र ने जिस विकास-पथ को प्रस्तुत किया और उस पर विश्व जब कुछ मात्रा में आगे बढ़ा तो समूचा वातावरण एक अजीब प्रकार के भय और आशंका से भर गया। इसीलिए कुछ अर्थशास्त्री इस पथ पर और आगे न चलने की चेतावनी देते हुए दिखाई देते हैं। ऐसे भी कई अर्थशास्त्री हैं जो "विकास-अर्थशास्त्र" नामक अलग विषय की आवश्यकता से ही इनकार करने लगे हैं, इनमें प्रमुख हैं- स्लट्ज, हैबरलर, बार, लिटिल, वाल्टर्स आदि। अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग "विकास-अर्थशास्त्र" को ही समाप्त कर देने की मांग करने लगा है।
विकास का अर्थ एवं माप
विकास के अर्थ और माप को लेकर अर्थशास्त्र में एक बहस और विवाद चला आ रहा है। इतनी लंबी बहस के बावजूद भी विकास का अर्थ ही स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। जब कोई अर्थशास्त्री विकास के बारे में अपना मंतव्य प्रकट करना चाहे तो वह विकास का अर्थ बताता है एवं उसकी परिभाषा देता है। किन्तु कुछ समय बाद वह स्वयं ही अपनी परिभाषा से असंतुष्ट दिखाई देता है। वह महसूस करता है कि वह जो कुछ चाहता था, वह कह नहीं पा रहा है, वह जहां जाना चाहता था, जा नहीं पा रहा है। यह एक अजीब स्थिति है कि विकास का अर्थ स्पष्ट हुए बिना ही विकास योजनाएं, विकास माडल, विकास नीति एवं रणनीति तैयार हो रहीं है और विकास के नाम पर प्रत्येक देश में अनेक प्रकार की गतिविधियां भी चल रही हैं। यह एक ऐसी ही स्थिति हुई जैसे किसी व्यक्ति को जिस स्थान पर जाना हो उसे उस स्थान का नाम और दिशा ही स्पष्ट न हो, किन्तु फिर भी वह चल पड़े।
समृद्धि या विकास-शब्दावली की दुविधा?
आर्थिक समृद्धि कहें या आर्थिक विकास?- इन दोनों में से कौन-सी शब्दावली का प्रयोग करें- इसको लेकर भी अर्थशास्त्री दुविधा में हैं। साधारण बोलचाल की भाषा में तो आर्थिक समृद्धि और आर्थिक विकास इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता रहा है। लेकिन सबसे पहले प्रो. शूम्पीटर ने 1911 में प्रकाशित "थ्योरी आफ इक्नोमिक डेवलेपमेंट" नामक एक लेख में आर्थिक समृद्धि एवं आर्थिक विकास की अवधारणाओं में अंतर स्पष्ट किया था। उसके बाद से अनेक अर्थशास्त्रियों ने इन अवधारणाओं में अंतर बताया है। प्रो. किन्डलबर्जर के अनुसार, आर्थिक समृद्धि से तात्पर्य है अधिक उत्पादन, जबकि आर्थिक विकास में दोनों बातें शामिल होती हैं-अधिक उत्पादक तथा तकनीकी एवं संस्थागत व्यवस्थाओं में परिवर्तन। इस प्रकार आर्थिक समृद्धि की तुलना में आर्थिक विकास एक विस्तृत अवधारणा है।
यहां भी पश्चिम का विकास-अर्थशास्त्र एक अजीब विरोधाभास में फंसा खड़ा है। तकनीकी दृष्टि से समृद्धि एवं विकास की धारणाओं में अंतर मानते हुए भी ज्यादातर अर्थशास्त्रियों ने व्यावहारिक दृष्टि से समृद्धि और विकास को एक ही अर्थ में परिभाषित किया है। वे विकास को आय और उत्पादन वृद्धि से आगे की चीज मानते हुए भी उसे आय और उत्पादन वृद्धि के रूप में ही परिभाषित करते हैं। विकास को केवल प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) में वृद्धि के रूप में न मानते हुए भी वे विश्व के विकसित, विकासशील और अविकसित देशों के बीच विभाजन प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. के आधार पर ही करते हैं। यह कैसी विडम्बना है- एक ओर वे कहते हैं कि विकास यह नहीं है किन्तु दूसरी ओर जो नहीं है उसी को विकास स्वीकार कर लेते हैं। ऐसा लगता है कि विकास की संकल्पना के बारे में समूचे पश्चिमी अर्थशास्त्र में एक जबरदस्त भ्रम, उलझाव और विरोधाभास है।
विकास के माप या सूचक
विकास-अर्थशास्त्र में विकास के अर्थ एवं परिभाषा से भी बड़ा विवाद और भ्रम विकास के माप एवं सूचकों (संकेतों) को लेकर है। यह भी कह सकते हैं कि विकास के माप या सूचकों के विवाद में से ही विकास का अर्थ व परिभाषा का विवाद उत्पन्न हुआ है। प्रश्न यह है कि क्या विकास को संख्यात्मक रूप से मापा जा सकता है? पश्चिमी अर्थशास्त्र ने यह माना है कि विकास को संख्यात्मक रूप से मापा जा सकता है। यह मान लेने के बाद दूसरा सवाल यह उत्पन्न होता है कि विकास को कैसे और किन मापदंडों से मापा जा सकता है कि किसी देश का विकास हुआ है या नहीं और कितना हुआ है। समय-समय पर विकास को मापने के लिए अनेक सूचकों का सुझाव दिया जाता रहा है। विकास के इन विभिन्न सूचकों एवं इनकी सीमाओं को जान लेना भी उपयोगी रहेगा। विकास के विभिन्न सूचकों को हम मुख्यत: दो भागों में वर्गीकृत कर सकते हैं-आर्थिक सूचक एवं गैर-आर्थिक सूचक।
आर्थिक सूचक
1. सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.)-कुछ अर्थशास्त्री जैसे कुजनेट्स, मेयर एवं बाल्डविन, मीड आदि वास्तविक जी.डी.पी. को ही विकास का सर्वोत्तम सूचक मानते हैं। उनके अनुसार वास्तविक जी.डी.पी. में वृद्धि दर के आधार पर हम विकास की दर को माप सकते हैं। कुछ सीमा तक जी.डी.पी. को विकास का उपयोगी मापदंड होते हुए भी इसे समुचित मापदंड नहीं माना जा सकता है। इसकी प्रमुख कमियां इस प्रकार हैं-
(क) यदि किसी देश में जी.डी.पी. में हुई वृद्धि की तुलना में जनसंख्या में अधिक तीव्र दर से वृद्धि हो जाए तब प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. एवं वस्तुओं व सेवाओं की उपलब्धि पहले की तुलना में घट जाएगी। ऐसी स्थिति होने पर यदि हम यह घोषणा करें कि उस देश का विकास हुआ है तो यह हास्यास्पद बात ही होगी।
(ख) यह संभव है कि जी.डी.पी. में वृद्धि केवल अमीरों की आय में वृद्धि के कारण ही हो। इस प्रकार जी.डी.पी. से आय-वितरण के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाती।
(ग) यदि जी.डी.पी. की वृद्धि केवल युद्ध सामग्री के उत्पादन में वृद्धि के कारण हुई है तो भी इस स्थिति को विकास नहीं माना जा सकता।
2. प्रति व्यक्ति जी.डी.पी.-अधिकांश अर्थशास्त्री प्रति व्यक्ति वास्तविक जी.डी.पी. में वृद्धि को ही विकास का सर्वोत्तम, व्यावहारिक एवं सुविधाजनक मापदंड मानते हैं। किंडलबर्जर, मेयर, हिगीन्स, हार्वे लेबेन्स्टीन, डब्ल्यू.ए. लेविस, जेकब वाइनर आदि अर्थशास्त्री इसी मत के हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इसी माप को स्वीकार किया है। प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. को विकास का मापदंड स्वीकार कर लेने पर जनसंख्या की वृद्धि के प्रभाव का भी विचार हो जाता है, क्योंकि कुल जी.डी.पी. में कुल जनसंख्या का भाग देने पर ही प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. की गणना होती है। किन्तु विकास के मापदंड के रूप में प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. भी अधूरा मापदंड है और इसके भी कई दोष हैं। इनमें से प्रमुख हैं-
(क) यदि किसी देश की जी.डी.पी. और जनसंख्या में समान दर से वृद्धि हो तब भी हमें यह कहना पड़ेगा कि उस देश का विकास नहीं हुआ है। इसी प्रकार यदि किसी कारण से किसी देश की जनसंख्या घट जाए किन्तु जी.डी.पी. स्थिर रहे तो कहना पड़ेगा कि उस देश का विकास हुआ है।
(ख) चूंकि प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. एक औसत माप है, अत: प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. में वृद्धि होने पर भी यह संभव है कि अमीर अधिक अमीर और गरीब अधिक गरीब हो जाए। यदि प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. में वृद्धि अमीरों की आय में वृद्धि के परिणामस्वरूप ही हुई है तब तो देश के आम आदमी के उपभोग व रहन-सहन स्तर में कोई वृद्धि नहीं होगी। अत: प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. में वृद्धि को आर्थिक विकास का मापदंड स्वीकार करने से भ्रम उत्पन्न हो सकता है।
(ग) प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. में वृद्धि होने पर भी प्रति व्यक्ति उपभोग की मात्रा में वृद्धि होना आवश्यक नहीं है। हो सकता है कि लोग पहले की तुलना में अधिक बचत करने लग जाएं अथवा सरकार बढ़ी हुई आय को सैनिक उद्देश्यों में खर्च कर दे।
(घ) प्रति व्यक्ति वास्तविक जी.डी.पी. में वृद्धि होने पर भी यह संभव है कि देश में गरीबी की रेखा के नीचे गुजर करने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हो जाए। (क्रमश:)
सुमंगलम्-4
[सम्पादन]- क्या हों आर्थिक विकास के मापदण्ड? - डा. बजरंग लाल गुप्त
- सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री, क्षेत्र संघचालक, उत्तर क्षेत्र, रा.स्व.संघ
गतांक में हमने जी.डी.पी. एवं प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. को विकास के मापदंड रूप में स्वीकार किए जाने के कुछ दोषों व कमियों को बताया है।
(क) जी.डी.पी. की अभी तक कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं बन सकी है। इसकी गणना में क्या शामिल किया जाए और क्या नहीं- अभी तक इस प्रश्न का कोई संतोषजनक हल नहीं निकल पाया है।
(ख) विभिन्न देशों की जी.डी.पी. की गणना करते समय अमौद्रिक क्षेत्र की बहुत-सी वस्तुएं गणना से छूट जाती है। स्व-उपभोग तथा बाजार में विनिमय के लिए न लाई जाने वाली वस्तुओं व सेवाओं की राष्ट्रीय आय में ठीक से गणना नहीं हो पाती। उदाहरण के लिए, भारत जैसे देशों के गांवों में आज भी बहुत सारा लेन-देन मुद्रा के बिना ही होता है। किसान अनाज के बदले कपड़ा, बर्तन, लकड़ी का सामान व अन्य सेवाएं प्राप्त कर लेता है। इसी तरह किसान अपनी उपज का एक बड़ा भाग स्व-उपभोग के लिए भी रख लेते हैं। ये सब वस्तुएं बाजार में बिक्री के लिए प्रस्तुत ही नहीं की जाती, अत:
इसी प्रकार अवैतनिक सेवाओं की गणना भी राष्ट्रीय आय में नहीं हो पाती। उदाहरण के लिए: खाना बनाने, कपड़ा धोने, सफाई करने आदि का काम जब कोई नौकरानी वेतन लेकर करती है, तब तो ये सेवाएं राष्ट्रीय आय का अंग बन जाती हैं। किन्तु यही सेवाएं गृहणियों द्वारा की जाने पर वे राष्ट्रीय आय में शामिल नहीं हो पाती। एक जैसी ही सेवाओं का उत्पादन होने पर भी एक स्थिति में वे राष्ट्रीय आय में शामिल होती हैं जबकि दूसरी स्थिति में नहीं। इस कठिनाई का अभी तक कोई संतोषजनक हल नहीं ढूंढा जा सका है।
(ग) विभिन्न देशों की जी.डी.पी. की गणना उन देशों की मुद्रा में होती है। अत: विभिन्न देशों की जी.डी.पी. की तुलना करते समय उन्हें किसी एक मुद्रा में व्यक्त करना पड़ता है और इसके लिए विदेशी विनिमय दर का सहारा लिया जाता है। किन्तु कोई भी विदेशी विनिमय दर यह काम ठीक से नहीं कर पाती।
(घ) अल्पविकसित देशों में जी.डी.पी. के आंकड़े अपर्याप्त, अपूर्ण एवं अविश्वसनीय होते हैं। अत: ऐसे आंकड़ों के आधार पर विकास का सही माप हो ही नहीं सकता।
3. प्रति व्यक्ति उपभोग - कुछ विद्वानों का मत है कि विकास का अंतिम लक्ष्य लोगों के रहन-सहन व जीवन स्तर में वृद्धि करना होता है और रहन-सहन का स्तर उपभोग के लिए उपलब्ध वस्तुओं व सेवाओं की मात्रा पर निर्भर करता है। अत: प्रति व्यक्ति उपभोग का स्तर आर्थिक विकास का सर्वोत्तम मापदंड है। किन्तु इस माप की भी अपनी एक कठिनाई है। प्रत्येक देश को भविष्य में अधिक उत्पादन करने के लिए पूंजी-संचय व बचत की आवश्यकता होती है और इसके लिए उपभोग को कम करना पड़ता है। यदि कोई देश अपने उपभोग को कम करके बचत व पूंजी निर्माण में वृद्धि कर रहा होगा तो प्रति व्यक्ति उपभोग स्तर को विकास का मापदंड मान लेने पर उस देश का आर्थिक विकास नहीं माना जाएगा। दूसरी ओर, यदि एक देश वर्तमान में अपने उपभोग स्तर में तो काफी वृद्धि कर लेता है किन्तु उसकी बचत व पूंजी निर्माण कम हो जाता है, तो इससे भविष्य में उसके कुल उत्पादन में कमी आने की संभावना उत्पन्न हो जाएगी। किन्तु प्रति व्यक्ति उपभोग स्तर के मापदंड के अनुसार उस देश का आर्थिक विकास हुआ है, यह कहा जाएगा।
4. आर्थिक कल्याण- कुछ विद्वानों के अनुसार आर्थिक कल्याण ही आर्थिक विकास का सर्वोत्तम मापदंड हो सकता है। आर्थिक कल्याण का विचार करते समय हम केवल यह नहीं देखेंगे कि क्या और कितना उत्पादन किया जा रहा है, बल्कि इसके अंतर्गत यह भी देखेंगे कि यह किस प्रकार पैदा किया जा रहा है और इसका बंटवारा किस प्रकार हो रहा है। आर्थिक कल्याण में यह भी ध्यान में रखना होगा कि देश में जिन-जिन वस्तुओं का उत्पादन किया जा रहा है उनका तुलनात्मक महत्व कितना है? इस प्रकार इसमें हमें मूल्यात्मक निर्णय (वेल्यू जजमेंट) लेने होंगे। इसी तरह उत्पादन की सामाजिक लागत का भी विचार करना होगा। यद्यपि आर्थिक कल्याण का मापदंड विकास का अधिक उपयुक्त मापदंड है किन्तु फिर भी अभी तक अर्थशास्त्रियों ने इसका व्यवहार में प्रयोग नहीं किया है। इसका कारण उन्होंने यह बताया है कि मूल्यात्मक निर्णयों, न्यायपूर्ण वितरण, सामाजिक लागत आदि ऐसी बातें हैं जिनकी व्यवहार में गणना करना बहुत कठिन है, अत: आर्थिक कल्याण को अव्यावहारिक मानकर छोड़ दिया गया है।
5. समायोजित सकल राष्ट्रीय उत्पाद माप- विभिन्न देशों के बीच तुलनात्मक अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से कुछ अर्थशास्त्रियों ने समायोजित सकल राष्ट्रीय उत्पाद को विकास के मापदंड के रूप में स्वीकार करने का सुझाव दिया है। इस माप के माध्यम से राष्ट्रीय आय के लेखों को समायोजित करने के लिए क्रयशक्ति समता की अवधारणा का प्रयोग किया जाता है। किन्तु इस मापदंड में भी राष्ट्रीय आय के माप की सभी सीमाएं तो हैं ही, उसके अलावा राष्ट्रीय आय का समायोजन करना ही कोई सरल काम नहीं है, उसकी अपनी कठिनाइयां व सीमाएं हैं।
6. अन्य मापदण्ड- उपर्युक्त मापदंडों के अलावा कुछ विद्वानों ने विकास के और भी कई मापदंडों के प्रयोग का सुझाव दिया है। उदाहरण के लिए, कुल जनसंख्या में निर्धन वर्ग का प्रतिशत कम होना आर्थिक विकास का एक अच्छा मापदंड हो सकता है।
पर ये सभी मापदंड एकपक्षीय हैं और
गैरआर्थिक (सामाजिक) सूचक
सामाजिक सूचकों में मनुष्य की आधारभूत आवश्यकताओं के रूप में बताया गया है। मुख्य सामाजिक सूचकों में शामिल हैं-जीवन प्रत्याशा, केलौरी-पान, शिशु मृत्यु दर, विद्यालयों में प्राथमिक कक्षाओं में भर्ती संख्या, आवास, पोषण, स्वास्थ्य तथा ऐसी ही अन्य वे सब चीजें जो मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं से सम्बंध रखती हैं।
1. सामाजिक लेखा प्रणाली- इस प्रणाली को स्टोन एवं सीयर्स ने दिया था। इसी क्रम में पियट्ट एवं राउंड ने भी सोशल एकाउंटिंग मैट्रिक्स के नाम से एक सूचक दिया था। किन्तु इस प्रकार की प्रणाली की सबसे बड़ी कमी विश्वसनीय एवं उपयोगी आंकड़ों का न मिल पाना है। इसके अलावा इसमें सामाजिक विकास के सब पहलुओं को सम्मिलित कर पाना भी कठिन रहता है।
2. संयुक्त सामाजिक विकास सूचक- इस सूचक का विकास सामाजिक विकास पर संयुक्त राष्ट्र के शोध संस्थान द्वारा किया गया था। प्रारंभ में 73 सूचकों को जांचा गया जिनमें से अंत में 16 सूचकों का चयन किया गया। ये सूचक हैं-
- जन्म के समय जीवन प्रत्याशा
- 20,000 या उससे अधिक के क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि का प्रतिशत
- प्रति व्यक्ति, प्रतिदिन पशु प्रोटीन का उपभोग
- प्राथमिक एवं द्वितीयक स्तर पर कुल मिलाकर भर्ती विद्यार्थियों की संख्या
- व्यावसायिक भर्ती अनुपात
- प्रति कमरा औसत व्यक्तियों की संख्या
- प्रति 1000 जनसंख्या पर समाचार पत्र
- बिजली, गैस, पानी आदि से युक्त आर्थिक रूप से सक्रिय जनसंख्या का प्रतिशत
- प्रति पुरुष कृषि-श्रमिक कृषि उत्पादन
- कृषि में वयस्क पुरुष श्रमिकों का प्रतिशत
- प्रति व्यक्ति किलोवाट बिजली उपभोग
- प्रति व्यक्ति कि.ग्रा. स्टील उपभोग
- प्रति व्यक्ति ऊर्जा उपभोग
- विनिर्माण कार्यों से प्राप्त सकल घरेलू उत्पाद (प्रतिशत में)
- प्रति व्यक्ति विदेशी व्यापार
- आर्थिक दृष्टि से सक्रिय कुल जनसंख्या में वेतन एवं मजदूरी पर कार्य करने वालों का प्रतिशत।
उपरोक्त सूचकों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये भी विकास के उपयुक्त मापदंड नहीं बन सकते।
3. भौतिक गुणवत्ता का जीवन सूचक- विकास के इस सूचक को 1979 में मोरिस डी. मोरिस ने दिया था। इसके अंतर्गत तीन सूचकों का प्रयोग करने की बात कही गई थी- (क) एक वर्ष की आयु पर जीवन प्रत्याशा (ख) शिशु मृत्यु (ग) साक्षरता। यह सूचक भी अधूरा है। क्योंकि इसमें अनेक सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक सूचकों को शामिल ही नहीं किया गया है- जैसे सुरक्षा, न्याय, मानव अधिकार आदि।
4.आधुनिक आर्थिक संवृद्धि की विशेषताओं के बारे में कुटनेट्स का विश्लेषण- कुटनेट्स ने आधुनिक आर्थिक संवृद्धि की सात मुख्य विशेषताएं बताई हैं-(क) प्रति व्यक्ति उत्पादन में तीव्र दर से वृद्धि (ख) उत्पादकता की ऊंची वृद्धि दर (ग) संरचनात्मक परिवर्तन की ऊंची दर (घ) शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण (ङ) तीव्र सामाजिक एवं वैचारिक परिवर्तन (च) आधुनिक देशों का बाहर की ओर देखने का दृष्टिकोण (छ) भौतिक एवं मानवीय पूंजी का अंतरराष्ट्रीय प्रवाह। (क्रमश:)
सुमंगलम्-5
[सम्पादन]- यह विकास है या विनाश?
- डा. बजरंग लाल गुप्त ; सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री, क्षेत्र संघचालक, उत्तर क्षेत्र, रा.स्व.संघ
विभिन्न देशों का विकास क्रमांक
�
देश �
मानव विकास सूचक के आधार पर �
वास्तविक ; सकल घरेलू उत्पाद ; के आधार पर �
�
1. कनाडा �
1 �
8 �
�
2. संयुक्त राज्य अमरीका �
2 �
1 �
�
3. जापान �
3 �
9 �
�
4.नीदरलैंड �
4 �
20 �
�
5. फिनलैंड �
5 �
24 �
�
6. स्पेन �
9 �
29 �
�
7. स्विट्जरलैण्ड �
13 �
2 �
�
8. जर्मनी �
15 �
6 �
�
9. हांगकांग �
24 �
10 �
�
10. कोस्टारिका �
28 �
60 �
�
11. उरुग्वे �
32 �
53 �
�
12. सिंगापुर �
35 �
16 �
�
13. संयुक्त अरब अमीरात �
45 �
4 �
�
14. फिजी �
46 �
63 �
�
15. भारत �
134 �
141 �
�
विकास के विभिन्न मापदंडों व सूचकों की इस बहस ने उस समय एक नया मोड़ लिया जब 1990 में पहली मानव विकास रपट प्रकाशित की गई। इस रपट में विकास को मापने के लिए मानव विकास सूचक के नाम से एक मापदंड का प्रस्ताव किया गया था। मानव विकास की अवधारणा इस विश्वास पर आधारित है कि जनता की विकास प्रक्रिया में सहभागिता होनी चाहिए और उसकी उसके लाभ में भी भागीदारी होनी चाहिए। स्थिरता एवं आर्थिक समृद्धि से आगे जाकर विकास के बारे में इस व्यापक दृष्टिकोण ने विकास नीति से सम्बंधित बहस एवं विचारों को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करना प्रारंभ किया है। अब कई देशों में अपने राष्ट्र के स्वत्व की पहचान ने मानव विकास से सम्बंधित चिंताओं को राष्ट्रीय नीतियों के केन्द्र में ला दिया है।
मानव विकास की अवधारणा केवल अर्थव्यवस्था ही नहीं अपितु समूची समाज व्यवस्था को ध्यान में रखती है। यह चार महत्वपूर्ण आधार स्तंभों पर आधारित हैं- उत्पादकता, समता, वहनीयता और शक्तिकरण। यह अवधारणा बताती है कि विकास का उद्देश्य एक ऐसे वातावरण का निर्माण करना है जिसमें लोग दीर्घ, स्वस्थ एवं सृजनात्मक जीवन जी सकें। इस प्रकार मानव विकास की अवधारणा विकास को एक नया वैचारिक अधिष्ठान प्रदान करती है और सकल राष्ट्रीय उत्पाद वाले विकास सिद्धांतों का भी एक विकल्प प्रस्तुत करती है। यह आर्थिक विकास के परम्पराओं सिद्धांतों की तुलना में एक अधिक व्यापक अवधारणा है।
मानव विकास के महत्वपूर्ण आयामों के लिए ही मानव विकास सूचकांक का निर्माण किया गया है। इसमें तीन सूचक शामिल हैं-जीवन प्रत्याशा (जो लंबे एवं स्वस्थ जीवन को दर्शाती है), शैक्षिक उपलब्धि (जो ज्ञान के स्तर को प्रकट करती है) और वास्तविक घरेलू उत्पाद (जो एक अच्छे रहन-सहन स्तर को बताती है)। इस प्रकार मानव विकास सूचक को प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया है और अब विभिन्न देशों की प्रगति को मापने के लिए इसका प्रयोग तेजी से बढ़ता जा रहा है। किन्तु मानव विकास सूचक के प्रयोग के साथ ही विकास के मापदंड के क्षेत्र में एक अजीब विरोधाभास की स्थिति भी उत्पन्न हो गई है। अभी तक व्यावहारिक रूप से प्रति व्यक्ति वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद का ही विकास के मापदंड के रूप में प्रयोग होता रहा है और उसी के आधार पर विश्व के विभिन्न देशों का विकास क्रमांक भी तय होता रहा है। संसार के विभिन्न देशों को मानव विकास सूचक के आधार पर दिए गए क्रमांकों और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के आधार पर दिए गए क्रमांकों में काफी अंतर ध्यान में आया है। (देखिए तालिका)
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि इन दो मापदंडों-प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद और मानव विकास सूचक- में कौन-सा अधिक उपयुक्त है।
स्पष्ट है कि विकास के अर्थ और माप के बारे में समूचा पश्चिमी चिंतन जबर्दस्त भ्रम और विवाद में फंसा हुआ है। वास्तव में तो पश्चिमी अर्थशास्त्र द्वारा प्रस्तुत सभी माप अधूरे, एकांगी, भ्रामक और कभी-कभी आत्मघाती और विनाशकारी ही साबित हो रहे हैं। विकास की पश्चिमी अवधारणा मानव मन के मंगल एवं आनंद के साथ भी सुसंगत साबित नहीं हो पा रही है। यदि विकास को हम एक बहुआयामी, समग्र-सर्वतोमुखी अवधारणा के रूप में स्वीकार करते हैं तो फिर विकास के कई सूचक मानने होंगे और इन सूचकों की सूची व प्राथमिकता में भी देश-काल के अनुसार परिवर्तन करना होगा।
पश्चिमी विकास दर्शन व पारूप में से उपजे प्रश्न व विसंगतियां-
पश्चिमी विकास-दर्शन और पारूप ने इतने अधिक प्रश्नों को जन्म दिया है कि समूचे पश्चिमी चिंतन पर ही एक बहुत बड़ा प्रश्नवाचक चिह्न लग गया है। इन प्रश्नों के या तो उत्तर ही नहीं मिल पा रहे हैं या जो उत्तर हैं वे इस दर्शन और पारूप को ही नकार देने वाले साबित हो रहे हैं। इनमें से कुछ प्रमुख प्रश्नों को यहां दे रहे हैं-
1. विकास का सही अर्थ क्या है और क्या विकास के प्रचलित सिद्धांत विकास-प्रक्रिया को समझाने में समर्थ हैं?
2. क्या विकास का अर्थ औद्योगिकीकरण एवं नगरीकरण को स्वीकार कर लेना उचित होगा?
3. क्या विकास को प्रति व्यक्ति वास्तविक जी.डी.पी. में वृद्धि के रूप में जाना और मापा जा सकता है?
4. क्या धन से सब चीजों को खरीदा जा सकता है? क्या धन को मानव जीवन का सर्वोपरि उद्देश्य स्वीकार किया जा सकता है? क्या मात्र अधिकाधिक धन प्राप्त करके जीवन की सब समस्याओं को सुलझाया जा सकता है? क्या धन (अथवा वस्तुओं के अधिकाधिक उत्पादन) और सुख के बीच हमेशा सकारात्मक सहसंबंध पाया जाता है?
5. क्या सब देशों के लिए और सब समय के लिए एक समान विकास पारूप हो सकता है?
6. विकास की इस वर्तमान प्रक्रिया ने क्यों और कैसे विभिन्न देशों के बीच, एक ही देश के विभिन्न क्षेत्रों के बीच, और एक ही शहर के विभिन्न इलाकों के बीच अत्यंत अमीरी और भयंकर गरीबी को साथ-साथ जारी रखा है?
7. विश्व के गरीब देश ऋण-जाल में कैसे फंसे और किसने फंसाया? क्या इस ऋण-जाल का विकास की वर्तमान दिशा से कोई संबंध है? इस ऋणजाल का संपन्न देशों की अर्थव्यवस्था की दृष्टि से क्या निहितार्थ है?
8. विदेशी ऋण, विदेशी सहायता और विदेशी पूंजी-निवेश गरीब एवं संपन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं को कैसे प्रभावित करते हैं और इसके क्या निहितार्थ है?
9. विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को गरीब देशों में किस सीमा तक, किन क्षेत्रों में और किन शर्तों के साथ काम करने की छूट होनी चाहिए?
10. क्या वैश्वीकरण के नाम पर अंतरराष्ट्रीय व्यापार की वर्तमान व्यवस्था गरीब देशों के विकास की दृष्टि से वांछनीय है? इस प्रकार के व्यापार से किसे अधिक लाभ पहुंच रहा है?
11. क्या अधिक उत्पादन, अधिक उपभोग, अधिक व्यापार को विकास की दिशा में सही कदम कहा जा सकता है?
12. क्या पश्चिम की वर्तमान जीवन शैली को अपनाना विकास की दृष्टि से वांछनीय, लाभदायक और व्यावहारिक नीति है?
दो महाप्रश्न ; पश्चिमी विकास पारूप को अपनाकर दुनिया के कुछ चंद देशों ने विकास के नाम पर जो कुछ हासिल किया है, उसे देखकर दो प्रश्न उठते हैं-
(क) क्या इसे सही मायने में मनुष्य को सुखी बनाने वाला विकास कहा जा सकता है?
(ख) क्या इस प्रकार के विकास को दुनिया के सब देशों, सब मनुष्यों के लिए उपलब्ध करा पाना संभव और व्यावहारिक है अथवा क्या यह एक व्यवहारक्षम और स्थायी विकास-मार्ग है?
तथ्यों के आलोक में जब हम इन प्रश्नों की जांच करते हैं तो इन दोनों ही प्रश्नों का उत्तर "न" में पाते हैं। विकास की ललक में पश्चिमी माडल द्वारा बनाई गई राह पर दौड़ने वाले देशों ने न केवल अपने लिए ही बल्कि समूचे प्राणिमात्र के लिए ही अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है। जल-प्रदूषण, वायु-प्रदूषण और मृदा-प्रदूषण के कारण हमारे चारों ओर प्रदूषित वातावरण का घेरा गहरा होता जा रहा है। इतना ही नहीं, इसके परिणामस्वरूप भाव व भावनाएं, मानवीय सम्बंध और संवेदनाएं भी प्रदूषित होती जा रही हैं। पिछले एक सौ वर्षों और विशेषकर पिछली चार दशाब्दियों में तो समूची पृथ्वी ही विनाश के कगार पर आकर खड़ी हो गई है। ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण धरती की तपन लगातार बढ़ती जा रही है। ऊर्जा रुाोत के रूप में तेल, प्राकृतिक गैस और कोयले को जलाने से उत्पन्न ग्रीनहाउस गैसे ही धरती की इस तपन को बढ़ाती है। धरती की तपन बढ़ने के कारण समुद्री-स्तरों में उफान आ सकते हैं और वे अपनी सीमाएं लांघकर सीमा पर बसे राज्यों को निगल सकते हैं। सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों से पृथ्वी की रक्षा करने वाली ओजोन गैस की परत पतली पड़ती जा रही है। अंटार्कटिका महाद्वीप के ऊपर इस परत में एक बड़ा छिद्र हो गया है। इसके अलावा, आस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड के ऊपरी वायुमंडल में भी वर्ष के कुछ महीनों में छिद्र बन जाने का पता चला है। एक अनुमान के अनुसार 1970 से ओजोन की मात्रा में 1.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से कमी हो रही है। वैज्ञानिक अध्ययनों का निष्कर्ष यह है कि भौतिक सुख-सुविधाओं की अंधी दौड़ में लिप्त आधुनिक मानव की करतूत ही ओजोन के विनाश का मूल कारण है। ओजोन परत के क्षय के कारणों में सबसे प्रमुख कारण है क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सी.एफ.सी.) वर्ग के लिए रसायनों का उत्पादन,जिनका उपयोग आए दिन रेफ्रीजरेटरों, वातानुकूलित यंत्रों, प्लास्टिक, फोम,रंग-रोगन, एरोसोल आदि उद्योगों में बढ़ता जा रहा है। ओजोन परत के नष्ट होने का दूसरा मुख्य कारण है शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण के लिए पेड़-पौधों की अंधाधुंध कटाई। अब तो पश्चिम के प्रबुद्ध विद्वान भी विकास के वर्तमान प्रारूप एवं तकनोलाजी के विनाशकारी दुष्प्रभावों को स्वीकार करने लगे हैं। आज हमें प्राकृतिक साधनों के तेजी से क्षरण, ऊर्जा संकट, वनों के ह्यास, भू-जल स्तर में कमी, जलवायु व वर्षा की अनियमितता, भूक्षरण, मनुष्य के नैतिक व मानवीय मूल्यों में ह्यास, सुख व शांति का अभाव, बढ़ती हुई हिंसा-प्रवृत्ति और मनुष्य-मनुष्य के बीच हिंसा आदि की जो समस्याएं दिखाई देती हैं, उन सबका मूल कारण भी विकास के इस पश्चिमी पारूप में ही निहित है। अत: इसे किसी भी मापदंड से मानव को सुख-शांति देने वाला विकास नहीं कहा जा सकता।
सुमंगलम्-6
[सम्पादन]- अटका और भटका विकास रथ - डा. बजरंग लाल गुप्ता
- सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री, क्षेत्र संघचालक, रा.स्व.संघ, उत्तर क्षेत्र
इस प्रश्न पर भी विचार कर लेना आवश्यक है कि विश्व के सम्पन्न देश विकास या रहन-सहन के अपने वर्तमान स्तर को किस लागत पर प्राप्त कर पाए हैं? अथवा उनके इस रहन-सहन स्तर के लिए विश्व के संसाधनों पर कितना बोझ पड़ रहा है? विश्व की कुल जनसंख्या के 20 प्रतिशत भाग वाले सम्पन्न देश अपने उपभोग व उत्पादन-ढांचे एवं जीवनशैली के लिए विश्व के कुल संसाधनों के लगभग 80 प्रतिशत भाग का उपयोग करते हैं, इनके पास विश्व के कुल भू-क्षेत्र का 50 प्रतिशत भाग है, ये 60 प्रतिशत ऊर्जा का उपभोग करते हैं। और विश्व की कुल आय में इनका 85 प्रतिशत हिस्सा है। एक औसत अमरीकी हर पांच वर्ष में कार के रूप में 2 टन से भी अधिक स्टील, प्रतिवर्ष 112 किलो मांस और लगभग 8000 किलो लीटर तेल का उपभोग करता है। एक अन्य अनुमान के अनुसार प्रत्येक अमरीकी नागरिक औसतन प्रतिदिन अपने शरीर के वजन के बराबर सामान का उपयोग करता है। 13 वर्ष से कम आयु का बच्चा वर्ष में औसतन 230 डालर जेब खर्च के रूप में इस्तेमाल करता है, जोकि विश्व के अधिकांश विकासशील देशों की औसत प्रति व्यक्ति आय से भी अधिक है। उपभोग व उत्पादन के इस स्तर को बनाए रखने के लिए दुनिया के ये सम्पन्न देश ही ग्रीन हाउस गैसों के रूप में 80 प्रतिशत क्लोरो-फ्लोरो कार्बन पर्यावरण में फेंकते हैं। इसमें अकेले अमरीका का हिस्सा ही 22 प्रतिशत (पांचवे भाग) से भी अधिक है। आज विश्व में केवल अमरीका ही इतना एल्युमीनियम का कचरा फेंकता है जिससे वर्ष में 6 हजार जैट विमान बनाए जा सकते हैं। अमरीका में प्रति इकाई राष्ट्रीय उत्पाद पर तेल का उपभोग भारत की तुलना में 16 गुना ज्यादा है। इस तथ्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि दुनिया के सब देश यदि पश्चिम के विकसित देशों, विशेषकर अमरीका के रहन-सहन स्तर को प्राप्त करना अपने विकास का लक्ष्य मान लें तो विश्व के वर्तमान ज्ञात संसाधनों के द्वारा इस लक्ष्य तक पहुंच पाना किसी भी प्रकार संभव नहीं हो सकता।
विकसित देशों में विवाह सम्बंधों में बढ़ती टूटन के कारण पारिवारिक बिखराव की प्रक्रिया तेज हुई है। मानव विकास रपट, 1994 में बताया गया था कि 1987-91 के दौरान कनाडा में 43 प्रतिशत, फिनलैंड में 58 प्रतिशत, डेनमार्क में 49 प्रतिशत, स्वीडन तथा अमरीका में 48 प्रतिशत, नार्वे में 45 प्रतिशत और ब्रिटेन में 42 प्रतिशत विवाह तलाक में परिणत हुए। 1985-92 के दौरान विवाहेत्तर सम्बंधों के कारण पैदा होने वाले बच्चों की संख्या अमरीका में 52 प्रतिशत और डेनमार्क में 47 प्रतिशत थी। अपराध और आपराधिक मानसिकता की दृष्टि से अमरीका दुनिया का नंबर एक देश हो गया है। औसतन एक लाख लोगों के पीछे एक वर्ष में अमरीका में 8 हत्याएं, 118 बलात्कार, 234 नशीली दवाओं से जुड़े अपराध और 426 लोगों की जेल जाने की संभावना है। 1993 में पुलिस में दर्ज किए गए अपराधों की संख्या 1 करोड़ 40 लाख थी। बिजनेस वीक पत्रिका के अनुसार ऐसे अपराधों के कारण एक वर्ष में 4,35,000 करोड़ डालर की क्षति होती है। अमरीका में 20 लाख से अधिक लड़कियां हर साल विवाह से पूर्व ही गर्भवती हो जाती हैं। इनमें से किशोरावस्था में ही गर्भधारण करने वाली लड़कियों की संख्या लगभग 10 लाख है। स्थिति की गंभीरता को इस बात से समझा जा सकता है कि लीडविल, कोलोरेडी की एक संस्था अपने को गर्भधारण से बचाकर रखने वाली अविवाहित लड़कियों को प्रतिदिन 1 डालर इनाम देती है। न्यू हैवन क्षेत्र में तो स्कूल में बच्चों को कंडोम बांटने का निर्णय लेना पड़ा है। इसी प्रकार अमरीका में पुरुषों की कुल मौतों की 75 प्रतिशत मौतें हत्या, आत्महत्या एवं शराब पीकर कार चलाने से होती है। वहां हर 21 मिनट में एक हत्या, हर 10 सेकेण्ड में एक सेंधमारी, हर 16 सेकेण्ड में एक स्त्री के बलात्कार की घटना होती है। एक अन्य रपट के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़े बताते हैं कि 31 औद्योगिक देशों में 34 प्रतिशत विवाहों का अंत तलाक में होता है और 17 प्रतिशत बच्चों का जन्म वैवाहिक सम्बंधों से इतर होता है। एक लाख आबादी पर औसतन वर्ष में 48 बलात्कार, 5 हत्याएं और 21 आत्महत्याएं होती हैं। इस रपट में स्पष्ट शब्दों में माना गया है कि प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. पर आधारित आर्थिक संवृद्धि और मानवीय विकास के बीच कोई स्वचालित सम्बंध नहीं पाया जाता। अर्थात् आर्थिक संवृद्धि की दर में वृद्धि होने पर मानवीय विकास की दिशा में प्रगति होना आवश्यक नहीं है। विकास के वर्तमान दर्शन, दृष्टि और दिशा ने ऐसे पांच प्रकार के विकास को जन्म दिया है जिनके कारण समस्याएं सुलझने की बजाय और अधिक उलझ गई हैं, ये हैं-रोजगार विहीन विकास, निष्ठुर विकास, मूक विकास, जड़हीन विकास और भविष्यहीन विकास।
रोजगार विहीन विकास उसे कहते हैं जब देश में सकल घरेलू उत्पाद में अच्छी गति से वृद्धि हो जाती है किन्तु उसकी तुलना में रोजगार अवसरों का पर्याप्त मात्रा में विस्तार नहीं हो पाता। उदाहरण के लिए भारत में छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) में सकल घरेलू उत्पाद की वार्षिक वृद्धि दर 5.7 प्रतिशत थी जबकि रोजगार की वृद्धि दर केवल 1.7 प्रतिशत थी। सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90) में ये क्रमश: 5.8 प्रतिशत और 1.9 प्रतिशत थी।
निष्ठुर विकास से तात्पर्य ऐसे विकास से है जिसमें विकास के ज्यादातर लाभ सम्पन्न वर्ग को मिलते हैं और देश में गरीबों की संख्या व स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हो पाता। उदाहरण के लिए, भारत में 1987-88 में 39.3 प्रतिशत (31.3 करोड़) व्यक्ति गरीबी की रेखा के नीचे थे, उसके कई वर्षों बाद 1993-94 में भी 37 प्रतिशत (32 करोड़) व्यक्ति गरीबी की रेखा के नीचे रह रहे थे।
मूक विकास वह विकास कहलाता है जिसमें आर्थिक विकास के साथ-साथ लोकतंत्र का विकास नहीं हो पाता। इसमें गरीब वर्ग के लोगों को सम्पत्ति के स्वामित्व अधिकार नहीं मिल पाते तथा शिक्षा, स्वास्थ्य एवं कौशल के क्षेत्र में भी उन्हें पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाते।
जड़हीन विकास वह विकास है जो जनसाधारण को उसकी अपनी सांस्कृतिक पहचान और जड़ों से काट देता है। बांधों, नहरों, बड़े-बड़े कल-कारखानों, रेलवे लाइनों आदि को ही विकास का पर्याय मान लेने से कई बार बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हो जाते हैं और अपने घर और रोजगार से भी वंचित हो जाते हैं।
भविष्यहीन विकास विकास की उस प्रणाली की ओर संकेत करता है जिसमें वर्तमान पीढ़ी, भावी पीढ़ी के लिए आवश्यक संसाधनों का अपव्यय करती है।
इसके अलावा, मनुष्य के नैतिक एवं मानवीय मूल्यों में हो रही सतत गिरावट, पारिवारिक व सामाजिक विघटन के कारण हम इस विकास को संस्कारहीन विकास भी कह सकते हैं। विकास की इस गलत दिशा को रोककर इसे सही दिशा में ले जाने की आवश्यकता है।
इसमें भी कोई दो मत नहीं कि आज संसार पहले की तुलना में अधिक सम्पन्न हुआ है और उसने अनेक क्षेत्रों में कई उपलब्धियां हासिल की हैं। 1950-92 के बीच विश्व की कुल आय 4 ट्रिलियन डालर से बढ़कर 23 ट्रिलियन डालर हो गई और प्रति व्यक्ति आय तीन गुने से भी अधिक हो गई। तकनीकी क्षेत्र में विशेषकर सूचना, संचार और औषधि के क्षेत्र में चमत्कारिक काम हुए हैं। इसके अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य एवं परिवहन की सुविधाओं में वृद्धि हुई है। मृत्यु दर कम हुई है और औसत आयु बढ़ी है। कृषि एवं उद्योग दोनों ही क्षेत्रों में उत्पादन बढ़ा है तथा मनुष्य की सुख-सुविधा एवं भोग-विलास के साजों-सामानों में भी वृद्धि हुई है। इन सब उपलब्धियों के बावजूद संसार आज अनेक अभावों व समस्याओं से ग्रस्त व त्रस्त है और नित नई समस्याएं खड़ी होती जा रही है। कुछ देशों में भुखमरी है तो दूसरे कुछ देशों में खाद्यान्न की बर्बादी की जा रही है। विश्व के गरीब देशों की 80 प्रतिशत जनसंख्या का विश्व की कुल आय में केवल 16 प्रतिशत हिस्सा है तो दूसरी ओर अमीर देशों की 20 प्रतिशत हिस्सा जनसंख्या ने विश्व की 84 प्रतिशत आय पर कब्जा जमाया हुआ है। मानव विकास रपट 1996 में बताया गया है कि 89 देशों की आर्थिक स्थिति 10 साल पहले की तुलना में और अधिक खराब हो गई है जिससे अमीर और गरीब देशों के बीच खाई और अधिक बढ़ गई है। इस रपट में यह चेतावनी भी दी गई है कि यदि वर्तमान प्रवृत्ति जारी रही तो विकसित और विकासशील देशों के बीच का आर्थिक अंतर असमान से भी आगे बढ़कर अमानवीय हो जाएगा।
इसके अलावा शिशु मृत्यु दर एवं मातृ मृत्यु दर ही नहीं, जन्म दर भी काफी ऊंची है। इन देशों का समूचा चित्र बहुत ही दर्दनाक और चिन्तनीय है। खाली एवं चिपके हुए पेट, नंगे अथवा अधनंगे शरीर, मुरझाई आंखें व पिचके हुए गाल, अनेक बीमारियों से ग्रस्त घूमते-फिरते हड्डी के ढांचे बने लोगों को देखकर मानो गरीबी के साक्षात् दर्शन हो जाते हैं। यहां हमें भूख से बिलबिलाते बच्चे, दर्द से कराहते लोग, प्रसव पीड़ा में दम तोड़ती माताएं तथा अपनी रोजी-रोटी की तलाश में दर-दर की ठोकरे खाते बेरोजगार नौजवान काफी बड़ी संख्या में दिखाई दे जाएंगे। इन देशों की गरीबी मात्र गरीबी ही नहीं वरन् यह मनुष्य के अस्तित्व का ही मानों प्रतिवाद है।
दूसरी ओर दुनिया के सम्पन्न औद्योगिक देशों के हालत भी कुछ अच्छे नहीं हैं। इन देशों में 15 लाख से अधिक लोग एड्स से पीड़ित हैं। कुल बेरोजगारी की दर 8 प्रतिशत है जबकि नौजवानों में बेरोजगारी की दर 15 प्रतिशत है। 40 प्रतिशत अत्यधिक गरीब परिवारों का कुल आय में केवल 18 प्रतिशत हिस्सा है। 100 मिलियन लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं और 5 मिलियन से भी अधिक लोगों के पास रहने को घर नहीं हैं। एक-तिहाई से भी अधिक विवाह का अंत तलाक में होता है तथा हर साल 1,30,000 बलात्कार होते हैं। वायु-प्रदूषण के कारण अकेले यूरोप में जंगलों के नष्ट होने से हर साल 35 मिलियन डालर के बराबर नुकसान हो रहा है। कुल मिलाकर ऐसा दिखाई देता है कि विकास का रथ कहीं अटक गया है तो कहीं भटक गया है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम इसकी जांच करें कि यह क्यों अटका-क्यों भटका। इस अटकाव व भटकाव को दूर करके एक नया वैकल्पिक विकास दर्शन प्रस्तुत करें।
सुमंगलम्-7
[सम्पादन]- एक नई राह
- डा. बजरंग लाल गुप्ता, सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री, क्षेत्र संघचालक, उत्तर क्षेत्र, रा.स्व.संघ
ऐसा लगता है कि अनेक प्रकार की असाधारण उपलब्धियों के बावजूद भी संसार के मनीषी-विद्वान आज पश्चिमी विकास माडल से संतुष्ट नहीं हैं और वे इसके स्थान पर किसी अधिक अच्छी सामाजिक-आर्थिक संरचना को लागू करना चाहते हैं। आज सब प्रकार के "वाद" मनुष्य की आधारभूत आर्थिक समस्याओं का सुंदर, सुखकारक एवं शांतिपूर्ण समाधान प्रस्तुत करने में अपने आपको असहाय पा रहे हैं। विभिन्न नीतियों, दर्शनों एवं दृष्टिकोणों के दीर्घकालीन अनुभवों के बाद आज सम्पूर्ण संसार एक नए वैकल्पिक दृष्टिकोण की बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहा है। इतना तो स्पष्ट ही है कि पश्चिम के भ्रान्त एवं आत्मघाती विकास-दर्शन और विदेशी आर्थिक शक्तियों के सहारे भारत का भला नहीं हो सकता। अत: आवश्यकता इस बात की है कि भारत पश्चिमी विकास माडल के भ्रमजाल से बाहर निकलकर नई राह तलाशे। यद्यपि यह एक ऐसा विषय है जो गहन अध्ययन और अन्वेषण चाहता है, तो भी यहां विकास के भारतीय दृष्टिकोण की एक मोटी रूपरेखा प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास किया गया है।
सुमंगलम् अथवा मंगल विकास की संकल्पना
हमारे अब तक के विवेचन से इतना तो स्पष्ट हो ही गया है कि विकास के अर्थ, माप, दृष्टि, दिशा व युक्ति को लेकर आधुनिक अर्थशास्त्रियों के बीच गहरे और गंभीर मतभेद हैं। इतना ही नहीं, सब संभ्रम की स्थिति में हैं। वे सब कुछ समय बाद अपने स्वयं के कथन को ही नकारते हुए दिखाई देते हैं। समूचे पश्चिमी विकास की अवधारणा का मनुष्य के सुख व कल्याण से कोई नाता-रिश्ता नहीं है। विकास की इस गलत परिभाषा ने क्राम्य पदार्थों की अधिकाधिक प्राप्ति को विकास का उद्देश्य बताकर सीधे-सादे भद्र मनुष्यों को गरीबी और कंगाली के काल्पनिक और मिथ्या संताप का शिकार बना दिया है। जिस मनुष्य के पास खाने को अन्न है, पीने को पानी व दूध है, पहनने को सादे कपड़े हैं और रहने को सादा मकान है किन्तु सोडा वटर, सिगरेट, शराब, सोफा, कालीन, अट्टालिकाएं, टी.वी., कार और फ्रिज जैसे ऐशोआराम के सामान नहीं हैं, उन्हें अविकसित या पिछड़ा करार दिया जा रहा है। अत: हमें विकास की इस गलत परिभाषा को बदलकर एक ऐसी परिभाषा देनी होगी जो मनुष्य का सर्वतोमुखी विकास सुनिश्चित कर सके। इस दृष्टि से यहां एक वैकल्पिक अवधारणा को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
परिभाषिक शब्दावली
आधुनिक अर्थशास्त्र में आर्थिक विकास, आर्थिक समृद्धि, प्रगति, मानव विकास, जीवन की गुणवत्ता आदि अनेक शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है। परन्तु इनमें से कोई भी शब्द ठीक से समूचे भावों को व्यक्त नहीं कर पा रहा है। यह प्रचलित पारिभाषिक शब्दावली के अधूरेपन को प्रकट करता है। पारिभाषिक शब्दावली के इस अधूरेपन के कारण भी दिशा भ्रम हो रहा है। अधिकांशत: समृद्धि या विकास शब्दों का प्रचलन है, किन्तु ये दोनों ही पारिभाषिक शब्द छोटे पड़ रहे हैं, असह्र साबित हो रहे हैं। पारिभाषिक शब्दावली की इस कंगाली को दूर करने के लिए मैंने भारतीय भाषा की शब्दावली का सहारा लिया है। इस दृष्टि से मैं विकास या समृद्धि के स्थान पर "सुमंगलम्" अथवा "मंगल विकास" की शब्दावली के प्रयोग का सुझाव देना चाहता हूं। मुझे ऐसा लगता है कि "सुमंगलम्" (मंगल-विकास) की अवधारणा अधिक सही, सटीक, सुसंगत एवं समग्र अवधारणा है और इसके माध्यम से हम जो कुछ चाहते हैं उसे अधिक अच्छी प्रकार व्यक्त कर सकते हैं।
सुमंगलम् की इस अवधारणा को निम्नलिखित शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है-
"सुमंगलम्" से तात्पर्य है मुख्यत: स्वसाधनों से देश के समस्त लेागों के समग्र जीवन-स्तर को ऊपर उठाते हुए दीर्घकालीन सामाजिक सुख में वृद्धि करना एवं सबके मंगल की दिशा में आगे बढ़ना।
अथवा ; "सुमंगलम्" से आशय है अपने शाश्वत जीवन-मूल्यों के प्रकाश में अपने देश व समाज की प्रकृति-प्रवृत्ति, आशा-आकांक्षा, आवश्यकता और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के संदर्भ में मुख्यत: अपने ही शक्ति-सामथ्र्य, साधन-सम्पदाओं एवं कौशल-प्रतिभाओं के बलबूते पर देश की कर्मशक्ति व ऊर्जा शक्ति के जागरण के माध्यम से धारणक्षम, पोषणक्षम, संस्कारक्षम, सर्वमंगलकारी, समतामूलक, संतुलित एवं सर्वतोमुखी विकास का दर्शन।
2. सर्वंकश एकात्म विश्वदृष्टि-हम जानते हैं कि पश्चिम का समूचा विकास चिंतन खंडित यांत्रिक विश्व दृष्टि पर आधारित है जो सब प्रकार से असंगत, अव्यवहारिक, अनुपयोगी एवं विनाशकारी है। इसके विपरीत भारतीय चिंतकों ने प्रारंभ से ही एकात्म सर्वंकश विश्व दृष्टि को स्वीकार किया है। अब विज्ञान की नवीनतम खोजों से भी यह सिद्ध हो चुका है कि ब्राह्मंड एक समग्र, एकात्म एवं सर्वंकश इकाई है। "क्वांटम फिजिक्स" अब यह स्पष्ट घोषणा करती है कि ब्राह्मंड के अलग-अलग दिखने वाले विभिन्न हिस्से एक-दूसरे के चराचर जगत में एक ही चेतन तत्व व्याप्त है-"सर्वं खल्वमिदं ब्राहृ:"। इसी आधार पर यह कहा गया कि व्यष्टि, समष्टि और सृष्टि- ये अलग-अलग और स्वतंत्र इकाईयां नहीं है अपितु एक ही तत्व भिन्न-भिन्न स्तरों पर अपने को प्रकट किए हुए है। इनके बीच एक सावयवी अंगांगी (आर्गेनिक) सम्बंध है। अत: इनके बीच एकलयता एवं एकरसता बनी रहनी चाहिए। यह मानना गलत है कि संसार का उससे अलग-थलग रहकर वस्तु विवेचन- विश्लेषण किया जा सकता है। यह तो एक सहभागी सृष्टि है, इससे न तो हम अलग हैं और न ही अलग हो सकते हैं। सचाई तो यह है कि भावजगत वस्तुजगत का नियमन और निर्देशन करता है। भाव में परिवर्तन होने पर वस्तु में परिवर्तन होना अवश्यंभावी है। इसी आधार पर भारतीय मनीषियों ने कहा था कि अपने आपको पवित्र व शुद्ध बनाओ, संसार को पवित्र व शुद्ध होना ही पड़ेगा।
चूंकि मनुष्य, प्रकृति व पर्यावरण अविभाज्य हैं, अत: मनुष्य को प्रकृति के साथ तालमेल करते हुए रहना चाहिए और इसी को आधार बनाकर हमें अपनी सम्पूर्ण तकनीकी-आर्थिक संरचना का विकास करना चाहिए। इसी दृष्टिकोण के कारण भारतीय मनीषियों ने धरती के सीमित साधनों का मितव्ययितापूर्ण उपयोग करने पर जोर दिया था और प्रकृति को जननी के रूप में देखा था।
3. सर्वव्यापक ब्राहृ के स्वरूप में एकात्म मानव की अवधारणा-हम जानते हैं कि पश्चिमी अर्थशास्त्र एक ऐसे "आर्थिक मनुष्य" की अवधारणा पर आधारित है जिसके निर्णय मात्र वित्तीय एवं भौतिक सम्पत्ति के रूप में लाभ-हानि की गणनाओं पर आधारित होते हैं। पूंजीवादी प्रणाली मनुष्य को धन के पीछे भागने वाले एक स्वार्थी व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करती है तो साम्यवादी प्रणाली उसे जड़वत् काम करने वाले मशीन के पुर्जे के रूप में मानती है। किन्तु प्राचीन भारतीय चिंतन "अर्थ मानव" की इस अवधारणा को पूर्णतया नकारकर उसके स्थान पर "एकात्म मानव" की अवधारणा को प्रस्तुत करता है। चूंकि "अर्थ मानव", "वैज्ञानिक मानव", "जैविकीय इकाई", सामाजिक पशु, "यांत्रिक-मानव" आदि समस्त पश्चिमी अवधारणाएं आज अपर्याप्त एवं असंगत सिद्ध हो चुकी हैं, अत: "एकात्म मानव" की भारतीय अवधारणा ही हमारी भावी आर्थिक-सामाजिक संरचना का आधार बनना चाहिए। भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य आर्थिक इकाई से कहीं अधिक बड़ी व व्यापक इकाई है। भारतीय चिंतकों ने मनुष्य को केवल अपनी जैविकीय एवं भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यंत्रवत काम करने वाली किसी भौतिक एवं स्थूल इकाई के रूप में नहीं देखा है बल्कि वे तो उसे सर्वव्यापक ब्राहृ के स्वरूप में सूक्ष्म एवं चैतन्य "एकात्म मानव" के रूप में ही स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार प्रत्येक मनुष्य साक्षात् ब्राहृ का ही स्वरूप हैं-"अहं ब्राहृोऽसि"।
भारतीय चिन्तकों ने मनुष्य को शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के समुच्चय के रूप में माना है। इस विचार परम्परा के अनुसार, मनुष्य शरीर व बुद्धि का मिश्रण मात्र ही नहीं अपितु उसमें आत्मा की शक्ति भी है, जो शुद्ध, कल्याणकारक एवं दैवीय गुणों से परिपूर्ण है। अत: मनुष्य जहां अपने ह्मदय की दुर्बलताओं, मन की कमजोरियों एवं स्वार्थ वृत्तियों के कारण समाज में अनेक समस्याओं को जन्म देता है वहीं यदि उसके अंतस् की सद्वृत्तियों एवं देवत्व को जगाने एवं बढ़ाने का प्रयास किया जाए तो वह सब समस्याओं का सुन्दर-सुखकारक हल प्रस्तुत कर सामाजिक कल्याण का वाहक भी बन सकता है।
विश्व में प्रचलित वर्तमान व्यवस्थाओं में मनुष्य अपना स्थान खोज रहा है। मनुष्य व्यवस्था का केन्द्र बनने के स्थान पर व्यवस्था का दास बनता जा रहा है। अत: हमें मनुष्य-केंद्रित, मानवीय संदेवनाओं से परिपूर्ण एक मानवीय व्यवस्था का निर्माण करना होगा। यह एक ऐसी व्यवस्था होगी जिसमें मनुष्य को उसकी महानता का अहसास कराते हुए उसकी योग्यताओं व क्षमताओं का जागरण कर उसे उसका उचित स्थान दिलाना होगा, साथ ही उसके व्यक्तित्व में अंतर्निहित दैवीय ऊंचाइयों को प्राप्त करने के प्रयास में उसे सब प्रकार प्रोत्साहित करना होगा। (क्रमश:)
सुमंगलम्-8
[सम्पादन]- भारतीय चिंतन में अर्थ रचना
- डा. बजरंग लाल गुप्ता ; सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री, क्षेत्र संघचालक, उत्तर क्षेत्र, रा.स्व.संघ
भारतीय दर्शन एक समग्र, समन्वित एवं संतुलित दृष्टिकोण में विश्वास रखता है। इस दर्शन के अनुरूप वह आर्थिक प्रणाली सर्वोत्तम मानी जाएगी जिसमें व्यष्टि और समष्टि के बीच उचित समन्वय बनाए रखा जा सके। आर्थिक क्षेत्र में किसी एक सीमा तक स्वतंत्रता एवं स्वहित की प्रेरणा का महत्व होता है, किन्तु इसे नैतिक मूल्यों एवं वैधानिक प्रावधानों के माध्यम से सार्वजनिक हित में निर्देशित एवं नियमित भी किया जाना चाहिए। अत: हमारी आर्थिक संरचना ऐसी होनी चाहिए जिसमें निजी उद्यम, प्रेरणा व पहल के साथ-साथ सामाजिक-नैतिक नियंत्रण की भी व्यवस्था रहे।
भारतीय चिंतकों ने मनुष्य को उसकी विभिन्न आवश्यकताओं एवं समस्याओं के संदर्भ में अलग--अलग टुकड़ों में देखने-समझने की बजाय उसके समग्र एवं एकात्म स्वरूप के रूप में ही देखा है। उनकी दृष्टि में मनुष्य की विभिन्न समस्याएं एक-दूसरे के साथ गहरे रूप से जुड़ी-गुंथी हुई, परस्पर निर्भर एवं परस्पराश्रित होती हैं और एक-दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया के द्वारा सतत प्रभावित भी करती रहती हैं। अत: न तो किसी एक समस्या को अलग-अलग ठीक से समझा जा सकता है और न ही उसका अलग-अलग कोई हल ही प्रस्तुत किया जा सकता है। मानवीय जीवन से संबंधित इस प्रकार के समग्र दृष्टिकोण के कारण ही भारतीय चिंतकों ने आर्थिक समस्याओं को उनके अपने संकीर्ण अर्थों में केवल आर्थिक एवं वित्तीय दायरों तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि उनका संबंध संपूर्ण सामाजिक परिवेश से जोड़कर उसी व्यापक धरातल पर उनका हल भी खोजने का प्रयास किया।
भारतीय मनीषी वर्ग संघर्ष में नहीं बल्कि वर्ग-सहयोग एवं वर्ग-पूरकता के पक्षपाती थे। उनकी यह आधारभूत निष्ठा थी कि संपूर्ण समाज के विकास के लिए सभी वर्ग आवश्यक एवं उपयोगी होते हैं। वे कभी भी किसी एक वर्ग के हित की बलि चढ़ाकर किसी दूसरे वर्ग को बढ़ावा देने के पक्षपाती नहीं थे। इसीलिए उन्होंने सदैव समाज के विभिन्न वर्गों व हितों के बीच सुन्दर-सुखद सुमेल और समन्वय बनाने का प्रयास किया। इस प्रयत्न में इतना तो स्वाभाविक ही था कि समाज के कमजोर वर्ग के लोगों पर अधिक ध्यान दें ताकि एक न्यायपूर्ण समाज की रचना की जा सके। इस प्रकार प्राचीन भारतीय चिंतन के प्रकाश में हमें एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक संरचना विकसित करने का प्रयास करना चाहिए जिसमें धन और धर्म, भौतिकता एवं आध्यात्मिकता, संचय व त्याग, अर्जन और वितरण, व्यष्टि और समष्टि, निजी हित एवं सार्वजनिक हित, स्वतंत्रता एवं नियमन आदि अनेक तत्वों के बीच उचित समन्वय स्थापित किया जा सके।
धर्माधारित अर्थ रचना
भारत की चिन्तन परम्परा में पुरुषार्थ चतुष्टय अर्थात धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को जीवन का उद्देश्य स्वीकार किया गया है। इसके अनुसार अर्थार्जन के समस्त क्रियाकलाप और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपभोग के कार्य धर्म की मर्यादा के अनुसार चलाएं ताकि मनुष्य मोक्ष की दिशा में अग्रसर हो सके। अत: मंगल विकास की संकल्पना में पूंजी और बाजार आधारित अर्थ चिंतन के स्थान पर धर्म (नैतिकता) आधारित अर्थ चिंतन तथा वस्तु केन्द्रित चिंतन के स्थान पर मनुष्य केन्द्रित चिन्तन पर जोर रहेगा। यहां इस बात का प्रयास रहेगा कि देश में समृद्धि और सदाचार साथ-साथ चलें। इसका अर्थ है कि मंगल विकास में धर्माधारित अर्थ रचना के निर्माण का प्रयास रहेगा।
नि:संदेह भारतीय समाज, भारतीय विचार व मानस "धर्म प्रधान" रहा है। "धर्म" शब्द "धृ" धातु से बना है, जिसका अर्थ है "धारण करना", "निर्वाह करना", "पोषण करना" या "पालना"। यह स्पष्ट रूप में दर्शाता है कि "धर्म" की अवधारणा ऐसी व्यवस्थाओं एवं क्रियाकलापों का नाम है जो मनुष्य जीवन का निर्माण, निर्वाह और पोषण करती है। "धारणामद्धर्ममित्याहु धर्मणा विधृत: प्रजा"-इस दृष्टि से धर्म का अर्थ उन सामाजिक नैतिक नियमों तथा मर्यादाओं से है जो समाज के धारण, पोषण और विकास के लिए आवश्यक है। इस प्रकार धर्म और नैतिकता समानार्थक हो जाते हैं। प्राचीन भारतीय मनीषियों के अनुसार वही अर्थ रचना मंगलकारी हो सकती है जो धर्माश्रयी हो और धर्म नियंत्रित हो। अत: उनके अनुसार नैतिकता (अथवा धर्म) को अर्थशास्त्र, अर्थ व्यवहार, अर्थ रचना एवं आर्थिक सिद्धांतों से न तो अलग किया जा सकता है और न ही अलग किया जाना चाहिए।
भारतीय मनीषियों की मान्यता रही है कि यह संसार नैतिक नियमों के अधीन है और जीवन मनुष्य को नैतिक चुनाव का ही अवसर प्रदान करता है। शायद इसीलिए उन्होंने धर्म अथवा नैतिकता को अर्थशास्त्र का मूल आधार घोषित किया था। किन्तु इसका यह मंतव्य कतई नहीं है कि वे मनुष्य के जीवन में अर्थ के महत्व को स्वीकार ही नहीं करते थे। वे जिस बात पर जोर देते थे वह यह है कि अर्थ (धन) का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होते हुए भी यह जीवन का साधन है, साध्य नहीं। यह जीवन का एक भाग है, संपूर्ण जीवन नहीं। यह चार पुरुषार्थों में से केवल एक पुरुषार्थ है। अत: वे अर्थ के उचित समन्वय पर जोर देते थे। किन्तु यदि कभी अर्थशास्त्र के नियमों एवं धर्मशास्त्र के नियमों में विरोध उत्पन्न हो जाए तो नि:संकोच रूप से धर्मशास्त्र के नियमों को ही प्राथमिकता देनी चाहिए। इस संबंध में कौटिल्य, यज्ञावल्क्य, नारद आदि ने स्पष्ट रूप से घोषणा की थी कि-"अर्थशास्त्रास्तु बलवद्धर्मशास्त्रामिति स्थिति:"- (कौटिल्य; नारद 39, याज्ञ 11.21)। यही कारण था कि भारतीय चिंतन में अर्थ को धर्म की तुलना में द्वितीय स्थान दिया गया था। चार पुरुषार्थों के क्रम में धर्म के बाद ही अर्थ का स्थान इस बात का प्रमाण है। महाभारत के शांतिपर्व में नकुल व सहदेव ने धन और धर्म के बीच बहुत ही सुन्दर समन्वय का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि धर्मयुक्त धन और धनयुक्त धर्म ही संसार में अच्छे परिणाम ला सकता है। इस प्रकार भारतीय चिंतक एडम स्मिथ की तरह अर्थशास्त्र को केवल "धन का विज्ञान" स्वीकार नहीं करते। हिन्दू चिंतन के अनुसार अर्थशास्त्र को धर्मशास्त्र के नियमों व मर्यादाओं के प्रकाश में ही काम करना चाहिए। जब कभी भी इस नियम का उल्लंघन हुआ तब समाज को कष्ट उठाने पड़े।
यहां एक बात जो विशेष रूप से ध्यान देने की है वह यह है कि प्राचीन भारतीय मनीषियों ने अपने विचारों को व्यावहारिक रूप देने के लिए उस समय की सामाजिक संरचना में ऐसी संस्थाओं एवं व्यवस्थाओं का विकास किया जिनके माध्यम से नैतिक मूल्यों एवं सामाजिक आदर्शों के अनुरूप व्यवहार करना व्यक्ति की रोजमर्रा की दिनचर्या का अभिन्न अंग बन जाए। इस दृष्टि से हम चार पुरुषार्थों की कल्पना, वर्णाश्रम व्यवस्था, संयुक्त परिवार प्रणाली, शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली, पंच महायज्ञ व अन्य विभिन्न प्रकार के यज्ञ, दान, दक्षिणा, इष्टापूर्त, सर्वव्यापक ब्राहृ की अवधारणा, पुनर्जन्म, कर्मफल, प्रकृति के प्रति जननी भाव, दया, परोपकार, परहित एवं त्याग जैसे गुणों को महत्व, स्नेह, सहयोग, शुचिता, सात्विकता, सहभागिता एवं सर्वकल्याण की भावना पर जोर आदि भारतीय जीवन की विषेषताओं को देख सकते हैं। इस प्रकार प्राचीन चिंतन हमें उन सामाजिक-नैतिक मूल्यों की याद दिलाता है जिनके आधार पर युगानुकूल नवीन सामाजिक-आर्थिक संरचना की जानी चाहिए। इसके अनुसार संग्रह की बजाय त्याग, स्वार्थ की बजाय सेवा, शोषण की बजाय पोषण, संघर्ष की बजाय सहयोग, घृणा की बजाय स्नेह, संपत्ति पर पूर्ण निजी या सरकारी स्वामित्व की बजाय ईश्वर स्वामित्व - इस नयी अर्थ रचना के आधार सूत्र हो सकते हैं।
प्राचीन भारत में विभिन्न स्मृतिकार देश-काल की परिस्थितियों एवं समाज की बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुसार इन विभिन्न सामाजिक-आर्थिक संस्थाओं, उनके स्वरूप, उनकी कार्यप्रणाली, समाज जीवन के विभिन्न क्रियाकलापों के प्रति दृष्टि व दृष्टिकोण, समसामयिक सामाजिक मूल्यों आदि में परिवर्तन कर नई व्यवस्थाएं देने का काम करते रहे थे। आज सबसे बड़ी आवश्यकता इसी बात की है कि नैतिक एवं मानवीय मूल्यों को आर्थिक क्षेत्र में गतिमान एवं क्रियान्वित करने के लिए युगानुरूप संस्थाओं का निर्माण एवं विकास किया जाए, पुरानी व्यवस्थाओं की समयानुकूल नई परिभाषा एवं व्याख्या की जाए और यदि आवश्यक हो तो उन्हें छोड़ा जाए तथा वर्तमान संदर्भ में समाज की आवश्यकता के अनुरूप नवीन दृष्टिकोण एवं मान्यताओं की प्रस्थापना की जाए। (क्रमश:)
सुमंगलम्-9
[सम्पादन]- केवल विकास नहीं मंगल-विकास
- डा. बजरंग लाल गुप्ता
- सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री, क्षेत्र संघचालक, उत्तर क्षेत्र, रा.स्व.संघ
"सुमंगलम्" की अवधारणा बहुआयामी और अत्यंत व्यापक अवधारणा है। इसमें आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, शैक्षणिक, राजनीतिक आदि अनेक आयाम शामिल हैं। इसका व्याप मनुष्यों तक ही नहीं अपितु समस्त चराचर जगत और संपूर्ण प्रकृति तक जाता है और यह वर्तमान एवं भविष्य सबको अपने में समेटे है। यह अल्पकालीन, क्षणिक और वर्तमान पीढ़ी का ही नहीं अपितु दीर्घकालीन, दूरगामी, भावी पीढ़ियों एवं जन्म-जन्मांतर का विचार करने वाली परिकल्पना है। इसका संबंध मनुष्य की आवश्यकता पूर्ति से नहीं बल्कि उसके हित संवर्धन से है। इस प्रकार यह अपने आपमें एक अनूठी अवधारणा है जो बहुआयामी के साथ-साथ बहुअर्थी भी है।
इसमें स्वावलंबन एवं स्वदेशी के दर्शन को स्वीकार किया गया है। "स्वसाधन" शब्द अपने देश/क्षेत्र में उपलब्ध साधनों के प्रयोग द्वारा स्वावलंबी अर्थव्यवस्था खड़ी करने पर जोर देने के लिए प्रयुक्त किया गया है। स्वदेशी दर्शन की अवधारणा स्व के साक्षात्कार एवं स्वत्व के जागरण की अवधारणा है। यहां इस बात को समझ लेना भी आवश्यक है कि स्वदेशी दर्शन कोई संकुचित अवधारणा नहीं है वरन् व्यावहारिक धरातल पर यह एक सर्वव्यापक-सार्वभौमिक अवधारणा है। समूचे संसार के लिए विकास का एक जैसा प्रारूप हो ही नहीं सकता। प्रत्येक देश व समाज अपनी सहज-स्वाभाविक प्रकृति तथा वहां के पर्यावरण एवं परिस्थिति के अनुसार अपने-अपने विकास मार्ग पर चलकर ही मंगल विकास की अधिकतम संभव ऊंचाइयों तक पहुंच सकता है। हां, इतना अवश्य है कि विभिन्न देशों को अपनी-अपनी विकास यात्राओं के इस क्रम में एक-दूसरे के अनुभवों व प्रयोगों का लाभ अवश्य उठाते रहना चाहिए।
"सुख" शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा से संबंधित एक व्यापक अवधारणा है जिसे मात्र आर्थिक उपयोगिताओं के रूप में प्रकट नहीं किया जा सकता। यह एक अनुभव सिद्ध सत्य है कि मात्र भौतिक एवं आर्थिक वस्तुएं मनुष्य को सुख नहीं प्रदान कर सकतीं। अर्थात् धन-दौलत अथवा साधन-संपदा की वृद्धि और सुख में हमेशा सकारात्मक सह-सबंध नहीं देखा जाता। किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि मनुष्य की भौतिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक साधन-संपदा के अभाव में भी मनुष्य जीवन सुखी नहीं हो सकता। अत: जहां हमें मनुष्य को जीवन के अस्तित्व एवं उसके सामाजिक-पारिवारिक दायित्वों के निर्वाह के लिए आवश्यक भौतिक वस्तुएं एवं सेवाएं उपलब्ध करानी होंगी; वहीं उसके मन, बुद्धि और आत्मा की संतुष्टि के लिए आवश्यक दर्शन, दृष्टिकोण, जीवन-मूल्यों एवं सामाजिक-मानवीय संबंधों की भी रचना करनी होगी। विकास की इस संपूर्ण प्रक्रिया के दौरान यह भी ध्यान रखना होगा कि कुल मिलाकर संपूर्ण समाज के सुख में वृद्धि हो।
इस परिभाषा में प्रयुक्त "जीवन-स्तर" शब्द भी "रहन-सहन स्तर" से व्यापक अर्थ वाला है। जहां रहन-सहन का स्तर केवल प्रति व्यक्ति वस्तुओं व सेवाओं की उपलब्धि पर निर्भर करता है, वहीं जीवन-स्तर में इसके अतिरिक्त जीवनादर्श, जीवन मूल्य-मानवीय, सामाजिक व नैतिक गुण-तनाव रहित जीवन, प्रदूषण रहित पर्यावरण, प्रेम, स्नेह, सहयोग, आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, समर्पण की भावना आदि बातें भी शामिल होती हैं। संक्षेप में, रहन-सहन का स्तर मनुष्य के केवल आर्थिक व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति होती है। "जीवन-स्तर" और "रहन-सहन स्तर" की इन दोनों धारणाओं को भारतीय विचार परम्परा में पायी जाने वाली दिव्य और भव्य तथा श्रेय और प्रेय जैसी धारणाओं से अधिक अच्छी प्रकार समझा जा सकता है।
"सुमंगलम्" एक ऐसा दर्शन है जो व्यक्ति को पशुत्व से देवत्व की ओर प्रवृत्त करता है और उस दिशा में आगे बढ़ने में सहायता रचना प्रस्तुत करता है। "सुमंगलम्" की इस अवधारणा को यदि स्वीकार कर लिया जाए तो यह समूचे विकास-साहित्य में ही जबरदस्त परिवर्तन लाने वाली साबित होगी। वस्तुत: विकास शब्द तब तक अधूरा है जब तक इसके साथ मंगल न जुड़ जाए, अत: हम केवल विकास नहीं मंगल-विकास चाहते हैं। मंगल विकास शब्द में ही इतनी सामथ्र्य और संपूर्णता है कि यह कहने के बाद ऐसा लगता है मानो हमने मन के समस्त भावों को और अपनी समूची चाह को व्यक्त कर दिया है।
मंगल-माप अथवा सूचक
हम विवेचन कर चुके हैं कि विकास की पश्चिमी अवधारणा के अनुसार विकास को मापने के अब तक जितने भी मापदंड या सूचक बताए जाते रहे हैं, वे सब आधे-अधूरे, एकाकी-एकांगी एवं असंगत-अव्यावहारिक हैं। इतना ही नहीं वे गलत, भ्रामक एवं विरोधाभासी भी हैं। अत: अब हमें नए वैकल्पिक मानदंडों व सूचकों को तलाशना होगा। यहां इस बात को भी स्पष्ट तौर पर समझ लिया जाना चाहिए कि सब देशों के लिए और सब समयों के लिए एक-समान मानदंड नहीं हो सकते। इसके अतिरिक्त मंगल-विकास का पूर्णतया गणितीय भाषा में संख्यात्मक माप भी नहीं दिया जा सकता। केवल कुछ ही पहलू ऐसे हैं जिनका कुछ मात्रा में संख्यात्मक माप संभव है किन्तु बहुत से अन्य महत्वपूर्ण पहलू ऐसे हैं जिन्हें केवल देखा जा सकता है अथवा जिनका सम्बंध भावजगत की अनुभूतियों से है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए भारत के संदर्भ में मंगल-विकास के मानदंडों एवं सूचकों को नीचे दिया जा रहा है। यह एक प्रारंभिक प्राथमिक प्रयास है, इसमें बहुत कुछ सुधार-संशोधन अपेक्षित है। अपनी इस सीमा को पहचानते हुए भी सूचकों के संबंध में चिंतन की दिशा को बताने के लिए ही इन सूचकों/संकेतों को तैयार किया गया है-
1. प्रति पूंजी-इकाई उत्पादन
2. प्रति ऊर्जा-इकाई उत्पादन
3. प्रति प्राकृतिक संसाधन-इकाई उत्पादन
4. रोजगार अनुपात-इसकी निम्नलिखित सूत्र की सहायता से गणना की जा सकती है रोजगार प्राप्त व्यक्ति की कुल संख्या
5. शून्य-रोजगार (अथवा रोजगार-विहीन) परिवारों की संख्या में कमी।
6. देश को कुल जनसंख्या में बुनियादी आवश्यकता प्राप्त व्यक्तियों का अनुपात/गरीबी-रेखा के नीचे के परिवारों/जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं से वंचित।
7. आय व साधनों के वितरण में समुचित समानता
8. निम्नतम 20 प्रतिशत और उच्चतम 20 प्रतिशत परिवारों के बीच आय अंतराल व उपभोग अंतराल में कमी।
9.शिक्षा व रोजगार के अवसरों की समानता
10. प्रदूषण रहित पर्यावरण
11. स्वस्थ जीवन
12. तनाव रहित जीवन मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, व्यावसायिक व अंतर्देशीय तनाव में कमी।
13. चैन की नींद
14. समरस, सुखद एवं प्रफुल्लित पारिवारिक एवं सामुदायिक जीवन।
15. महिलाओं, बच्चों एवं वृद्धों को समाज में सम्मानजनक स्थान तथा उनके पोषण एवं विकास की समुचित व्यवस्था।
16. स्नेह व सहयोग की भावना। 17. जीवन के उच्च आदर्शों की साधना के अवसर एवं सुविधा का मिलना।
18. मनुष्य के साथ-साथ पशु-पक्षी व कीट-पतंगों के भरण-पोषण की भी व्यवस्था व अवसरों का उपलब्ध रहना।
19. स्वतंत्रता।
20. सांस्कृतिक उन्नति।
आज समूचे विश्व में जी.डी.पी पर आधारित विकास के माप एवं मॉडल को बदलने की चर्चा चल पड़ी है। जापानी अर्थशास्त्री प्रो. शिगरोत्सुरु ने "निवल राष्ट्रीय कल्याण" की अवधारणा दी है। इसे प्राप्त करने के लिए सकल राष्ट्रीय उत्पाद में से दुर्घटना, परिवहन व यातायात की समस्या, प्रदूषण, सामाजिक जीवन का घटना स्तर आदि बातों को घटाया जाता है। भूटान के पूर्व राजा ने भी जी.डी.पी. के स्थान पर "सकल राष्ट्रीय सुख" की अवधारणा को अपनाने पर जोर दिया है। हमारे देश के पूर्व राष्ट्रपति श्री ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने राष्ट्रपति के रूप में रक्षा संस्थान के युवा वैज्ञानिकों को संबोधित करते हुए कहा था कि हमें जी.डी.पी. के स्थान पर "राष्ट्रीय समृद्धि सूचकांक" के आधार पर विकास को मापना चाहिए। यह सूचकांक नागरिकों के जीवन के न्यूनतम गुणवत्ता स्तर, सभ्यता की विरासत से लिए गए मूल्यों और भारत के निरालेपन से तय हो। उन्होंने समझाया कि इस निरालेपन का मूल्याकंन संयुक्त परिवार को बढ़ावा देने, मिलजुलकर काम करने की भावना और जीवन के सही मार्ग से होना चाहिए। अत: इन सब बातों को ध्यान में रखकर ही हमें मंगल-विकास के मापों एवं सूचकों के बारे में सोचना चाहिए, यह तर्कसंगत और व्यवहार संगत भी है और आज के समय की सबसे बड़ी आवश्कता भी है।
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[सम्पादन]सुमंगलम्-11
[सम्पादन]- विकास पथ के दिशा-सूत्र
- डा. बजरंग लाल गुप्ता, सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री, क्षेत्र संघचालक, उत्तर क्षेत्र, रा.स्व.संघ
वर्तमान तकनोलॉजी जैविकीय संबंधों को तहस-नहस कर रही है, सर्वत्र जहर फैला रही है, धरती के गैर-पुनरुत्पादनीय अत्यंत सीमित खनिज व ऊर्जा स्रोतों के भंडार को तेजी से खाली करती जा रही है और हिंसाचार (प्रकृति के विरुद्ध हिंसा और मनुष्यों के बीच परस्पर हिंसा) फैला रही है। संपूर्ण संसार के अनुभवों से अब यह स्पष्ट हो चुका है कि रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशी दवाओं और अधिक उपज देने वाले बीजों का प्रयोग दीर्घकाल में हानिप्रद है और यह कृषि को सतत ऊंची लागत वाले व्यवसाय के रूप में बदलता जा रहा है। उरुग्वे समझौते ने इस स्थिति को और भी अधिक बदतर और भयावह बना दिया है तथा आने वाले वर्षों में भारत जैसे देशों के गरीब किसान बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की दया पर काम करने के लिए मजबूर हो जाने वाले हैं।
आधुनिक पश्चिमी तकनोलॉजी को अपनाने की सलाह के पीछ मुख्य रूप से दो कारण (या मान्यताएं) बताए जाते हैं-यह अधिक उत्पादन करती है और यह वस्तुओं का उत्पादन सस्ते में करती है। यदि हम पश्चिमी तकनोलॉजी के इन दोनों दावों की गहराई से जांच करें तो पाएंगे कि यह महज एक भ्रम, धोखा और छलावा ही है।
अत: आंख बंदकर पश्चिमी तकनोलॉजी को पूर्णतया अपना लेना न तो आवश्यक है और न ही उपयोगी। क्योंकि इस तकनोलॉजी का विकास मुख्यत: केन्द्रीयकृत बड़े पैमाने के उद्योगों एवं शहरी समाज के हितों को साधने के लिए ही हुआ है। वस्तुत: यह शोषण पर आधारित अर्थव्यवस्था के अस्तित्व को बनाये रखने और साधन-सम्पन्न व साधनहीन लोगों के बीच के अंतर को और अधिक बढ़ाने का ही काम करती है। इस प्रकार अनेक शोधों से अब यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रचलित तकनोलॉजी लागत-कुशल, श्रम-कुशल और पूंजी-कुशल नहीं है। यह तो संसाधनों का जबरदस्त अपव्यय करती है और इसी कारण पिछले 200 वर्षों के दौरान संसार की 20 प्रतिशत जनसंख्या ने केवल अपने लिए धरती की लगभग तीन-चौथाई संपदा का इस्तेमाल कर डाला।
इस स्थिति में अब मुख्य प्रश्न केवल यही रह जाता है कि हम कैसी तकनोलॉजी का विकास व प्रयोग करें। इस दृष्टि से पिछले वर्षों के दौरान उपयुक्त तकनोलॉजी की अवधारणा का विचार सामने आया है। इस अवधारणा का प्रयोग सबसे पहले 1960 के दशक के प्रारंभ में प्रो. शुमारवर ने किया था। विकास की किसी भी वैकल्पिक राह व रणनीति की सफलता बहुत कुछ उपयुक्त तकनोलॉजी पर ही निर्भर करती है। अत: यहां हमें इस अवधारणा के अर्थ और आयामों को ठीक से समझ लेना होगा। संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन की 1978 की दिल्ली बैठक में उपयुक्त तकनोलॉजी को इस प्रकार परिभाषित किया गया था- "उपयुक्त तकनोलॉजी की अवधारणा को उस तकनीकी मिश्रण के रूप में समझा गया जो प्रत्येक देश के साधनों एवं परिस्थितियों के संदर्भ में उसके आर्थिक, सामाजिक एवं पर्यावरण संबंधी उद्देश्यों को प्राप्त करने में सर्वाधिक योगदान दे सकती है। उपयुक्त तकनोलॉजी एक ऐसी प्रावैगिक एवं परिवर्तनशील अवधारणा है जो विभिन्न देशों की विभिन्न दशाओं एवं बदलती हुई परिस्थितियों का उत्तर दे सके।"
इस प्रकार स्पष्ट है कि उपयुक्त तकनोलॉजी की अवधारणा एक परिवर्तनशील एवं सापेक्ष अवधारणा है जो देश-विशेष के विकास-लक्ष्यों, साधनों एवं सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों द्वारा निर्धारित होती है। यही कारण है कि सब देशों, सब समयों एवं सब परिस्थितियों में कोई एक तकनोलॉजी उपयुक्त तकनोलॉजी नहीं हो सकती है। कोई भी तकनालॉजी अपने आप में न उपयुक्त होती है और न ही अनुपयुक्त। किसी एक देश-विशेष में, एक काल में जो तकनोलॉजी उपयुक्त होगी, हो सकता है कि किसी दूसरे देश में वह अनुपयुक्त रहे। यह भी संभव है कि एक ही देश में एक काल-विशेष में जो तकनोलॉजी उपयुक्त हो, वह किसी दूसरे काल के लिए अनुपयुक्त रहे। अत: उपयुक्त तकनोलॉजी का विचार देश-काल की परिस्थितियों के अनुसार ही किया जाना चाहिए।
तकनोलॉजी के चुनाव की कसौटियां
भारत जैसे अल्पविकसित देशों के लिए उपयुक्त तकनोलॉजी का विकास व चयन निम्नलिखित दिशा-सूत्रों के आधार पर किया जाना चाहिए। हमारी तकनोलॉजी ऐसी होनी चाहिए-
1. जिसके द्वारा वस्तुओं का प्रसन्नतापूर्वक उत्पादन एवं स्वस्थ उपभोग हो सके और जो मनुष्य की स्वायत्तता को बनाए रख सके।
2. जो भारत की प्रकृति, प्रवृत्ति, आवश्यकताओं, जीवन-दर्शन व जीवन-मूल्यों के अनुकूल हो, देश के सामने उपस्थित समस्याओं का उचित ढंग एवं उचित समय पर समाधान कर सके और देश की वर्तमान सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियों में कार्य कर सके।
3. जो हमारे भोग-विलास की सामग्रियों में वृद्धि करने की बजाय आम आदमी की आम जरूरत की चीजों का उत्पादन कर सके और जो मनुष्य के अमानवीयकरण को रोककर उसे मनुष्यता की ऊंचाईयों की ओर अग्रसर होने में मदद कर सके।
4. जो पूंजी व ऊर्जा की बचत करने वाली, श्रम को अधिक सार्थक व लाभप्रद रोजगार में लगाने वाली और श्रम की उत्पादकता बढ़ाने वाली हो।
5. जो विकेंद्रित अर्थतंत्र की रचना में सहायक हो।
6. जो गैर-उत्पादनीय ऊर्जा स्रोतों के स्थान पर पुनरुत्पादनीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग कर सके।
7. जो प्रदूषण-मुक्त पर्यावरण को बनाए रखने में सहायक हो।
8. जो आर्थिक व सामाजिक विषमता को कम करने में सहायक बन सके।
9. जो स्थानीय साधनों व स्थानीय कौशल का कुशलतम प्रयोग व विकास कर सके।
संक्षेप में भारतीय परिस्थितियों में एक आदर्श व उपयुक्त तकनोलॉजी वह होगी जो प्रति इकाई उत्पादन पर अधिकतम रोजगार दे सके किन्तु साथ ही साथ जो पूंजी के प्रयोग, उत्पादन-लागत और ऊर्जा के प्रयोग को न्यूनतम कर सके। आयात पर बहुत अधिक निर्भर न हो, निर्यात क्षमता का बढ़ा सके, पर्यावरण को शुद्ध बनाए रख सके, स्थानीय साधनों, श्रम व कौशल का कुशलतम प्रयोग कर सके और आम जनता के उपयोग की वस्तुओं का उत्पादन कर सके।
भारत की परिस्थितियों के अनुसार एक ऐसी उपयुक्त तकनोलॉजी के विकास की आवश्यकता है जो सामान्य जनता की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके और कम पूंजी व कम ऊर्जा खर्च करके अधिक रोजगार दे सके। इस दृष्टि से भारत में उपयुक्त तकनोलॉजी के विकास के कार्यक्रम को निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना होगा-
1. उत्पादन स्वीकार्यता-ऐसे उत्पादन का चुनाव करना होगा जो समाज के लिए स्वीकार्य हो। अत: उत्पादन में बदलती हुई आवश्यकताओं एवं रुचियों के अनुसार अपने को ढालने की क्षमता होनी चाहिए।
2. तकनोलॉजी- संयंत्र, मशीनरी और उत्पादन-प्रक्रिया जहां तक संभव हो वहां तक छोटे से छोटे पैमाने पर कार्य कर सके किन्तु साथ ही इसे किस्म व लागत की दृष्टि से बड़े पैमाने के उत्पादन के साथ प्रतियोगिता में टिक पाना भी संभव होना चाहिए।
3. संगठन-स्वामित्व, वित्त एवं बाजार व्यवस्था का संगठन एवं प्रबंध इस प्रकार से किया जाना चाहिए कि निम्नतम स्तर पर अतिरिक्त पूंजी उपलब्ध रहे और उसे आगे स्थानीय विकास के लिए प्रयोग किया जा सके।
इन सब तत्वों का जब तक ठीक प्रकार से समन्वय नहीं होगा। तब तक किसी भी तकनीकी कार्यक्रम का सफल होना संभव नहीं होगा। उदाहरण के लिए, कपड़ा उत्पादन के लिए तकनीकी उपलब्ध हो सकती है किन्तु जब तक इसके द्वारा उत्पन्न कपड़े की किस्म समाज को स्वीकार्य नहीं होगी तब तक यह तकनीकी बेकार ही रहेगी। दूसरी ओर, एक उचित तकनीकी तब तक भी काम नहीं कर पाएगी, जब तक इसके प्रयोग एवं स्वामित्व के लिए उपयुक्त संगठन एवं उद्यमी उपलब्ध नहीं होंगे। भारत में ए.टी.डी.ए.ने इन बातों को ध्यान में रखकर तीन आधारभूत क्षेत्रों का चुनाव किया है।
(अ) ऐसी औद्योगिक क्रियाएं जो अपने क्षेत्र में मुद्रा-प्रवाह में वृद्धि करती हैं। इस दृष्टि से सीमेंट, कागज, कपास, कताई, जूटकताई एवं बुनाई, ऊन कताई, रासायनिक उर्वरक तथा चीनी उत्पादन की लघु तकनीकी में सुधार जैसे काम शामिल किए जा सकते हैं।
(ब) ऐसे उद्योग जो थोड़ी पूंजी के द्वारा छोटे उद्योगपतियों द्वारा प्रारंभ किए जा सकते हैं जैसे-हथकरघा उद्योग, लोहारी का काम, खेती का काम, खाद्य तेल उद्योग, ग्रामीण बर्तन उद्योग, चमड़ा व जूता उद्योग, चावल मिलें आदि।
(स) ऐसी तकनीक जो औद्योगिक एवं गृहकार्य दोनों के लिए वस्तुएं प्रदान कर सकती हैं जैसे ग्रामीण यातायात, गोबर-गैस, सौर-चूल्हा, पशुपालन, वन-पदार्थों पर आधारित उद्योग, छोटे ट्रैक्टरों में सुधार, ग्रामीण ऊर्जा, ग्रामीण शौचालय एवं पर्यावरणीय स्वच्छता आदि।
जब कभी भी गरीब लोगों के लिए तकनीकी का विकास करना हो तब उनकी आवश्कताओं, स्थितियों एवं साधनों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि भारत के गांवों एवं छोटे कस्बों में रहने वाले 85 प्रतिशत लोगों के लिए रहने के मकानों की व्यवस्था करनी हो तो हमें ऐसी तकनीक का प्रयोग करना होगा जिसमें मिट्टी की ईंटों, बांस, घास-फूस, स्थानीय रूप से उपलब्ध लकड़ी एवं अन्य चीजों का प्रयोग होता हो। सीमेन्ट, स्टील, सरिया, संगमरमर तथा बड़े-बड़े उपकरणों पर आधारित तकनीकी से तो शायद देश के 15 प्रतिशत लोगों को ही मकान की सुविधा उपलब्ध कराई जा सके। गरीब लोगों को बैल, हल, साधारण औजार, खाद्य, बीज आदि खरीदने के लिए ऋण-प्रदान करने की व्यवस्था आधुनिक बैकिंग प्रणाली पर आधारित नहीं होनी चाहिए। अपनी विशेष प्रकृति के कारण आधुनिक बैंक सौ-सौ रुपए के ऋण हजार लोगों को देने की बजाय हजार-हजार रुपए के ऋण सौ लोगों को देने के लिए अधिक उपयुक्त हैं। अत: ग्रामीण क्षेत्र के गरीब लोगों को ऋण देने की नई व्यवस्था विकसित करनी होगी जो कम खर्चीली, सहज, सरल व सुगम हो।
सुमंगलम्-12
[सम्पादन]- स्वदेशी तकनीकी संरक्षण एवं विकास
- डा. बजरंग लाल गुप्ता ; सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री, क्षेत्र संघचालक, उत्तर क्षेत्र, रा.स्व.संघ
भारत में उपयुक्त तकनोलाजी के विकास के लिए हमें दो दिशाओं में प्रयास करने होंगे-
1. देश में पहले से उपलब्ध परंपरागत तकनोलाजी में सुधार करना- देश के भावी विकास की दृष्टि से इस क्षेत्र में काफी बड़ी संभावनाएं मौजूद हैं। भारत में बुनाई, जूता बनाने, बढ़ईगिरी, लोहारी, तेल निकालने वाली घानियों, बर्तन, चमड़ा जैसे वर्तमान ग्रामीण हस्तशिल्प एवं कुटीर उद्योग-धंधों में प्रयुक्त परंपरागत तकनीक को उन्नत करने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से खुरजा (उ.प्र.) में बर्तन उद्योग की तकनीकी को उन्नत करने का सफल प्रयोग हुआ है। आज खुरजा के बर्तन देश और विदेश में काफी लोकप्रिय हुए हैं। इसी प्रकार के प्रयोग चिन्हट एवं गौरा (लखनऊ‚ के पास के गांव) तथा फूलपुर (इलाहाबाद के पास) में भी हुए हैं। इस प्रकार भारत के कस्बों एवं ग्रामीण क्षेत्र में चलने वाले कुटीर-धंधों एवं हस्तकलाओं का क्रमबद्ध अध्ययन करके विज्ञान एवं नवीन ज्ञान के आधार पर उनमें तकनीकी सुधार करके उत्पादकता एवं कार्यकुशलता में वृद्धि की जा सकती है। इस प्रकार का प्रयास कम साधनों से अधिक उपयोगी साबित हो सकता है। भारत में खादी एवं ग्रामीण उद्योग कमीशन तथा कुछ व्यक्तियों जेसे कोयम्बतूर में बालसुंदरम्, सूरत में मोहन पारीख, पूना में मनीभाई देसाई, वर्धा में जन्नासाहेब सहस्रबुद्धे और गोंडा में नानाजी देशमुख द्वारा भी इस प्रकार के सफल प्रयोग हुए हैं।
2. आधुनिक तकनोलाजी को देशानुकूल बनाना- अन्य देशों में विकसित आधुनिक तकनोलाजी को हमारे देश की परिस्थितियों, आवश्यकताओं व साधनों के अनुरुप ढालना। विदेशी तकनोलाजी का सीधा हस्तांतरण एक खतरनाक प्रक्रिया है। अत: तकनोलाजी हस्तांतरण की बजाय हमें तकनोलाजी अनुकूल की प्रक्रिया को अपनाना चाहिए। जिस प्रकार की किसी सर्जन द्वारा मानव शरीर में अंग प्रत्यारोपित को करने से पहले उत्तकों का मिलान किया जाता है, उसी प्रकार किसी बाहरी तकनोलाजी को ग्रहण करने से पहले यह देखना चाहिए कि वह हमारे राष्ट्र शरीर के अनुकूल है अथवा नहीं।
भारत में इस दृष्टि से कुछ विचार तो प्रारंभ हुआ है, किन्तु संपूर्ण देश की दृष्टि से सर्वांगीण योजना बनाकर, क्रमबद्ध प्रयास में अभी काफी कुछ कमी है। हमारे देश का योजना आयोग एवं सरकार अभी तक दुविधा की स्थिति में फंसे हुए हैं। हम अभी तक विकसित देशों की तकनीकी के प्रयोग के मोह से मुक्त नहीं हो पाए हैं और यही कारण है कि बड़े पैमाने पर अपने देश में उपयुक्त तकनीकी के विकास एवं प्रयोग को अभी तक गति नहीं मिल पाई है। हमें तकनीकी कैसी अथवा तकनीकी विकास पर कितना व्यय जैसे प्रश्नों में ही न उलझकर "तकनीकी किनके लिए" सबसे पहले इस प्रश्न का उत्तर देना होगा। जब हम इस निष्कर्ष पर पहुंच जाएंगे कि हमारे देश की सबसे पहली और प्रमुख आवश्यकता गरीब लोगों की दशा में सुधार करने के लिए तकनीकी के प्रयोग की है तो हमारी तकनीकी की दृष्टि से दिशा स्पष्ट हो जाएगी। यह प्रश्न हमारे जीवन के दृष्टिकोण एवं मूल्यों से जुड़ा है। इसके लिए हमें अपने मूल्यों में परिवर्तन करना होगा तभी हम इस कार्यक्रम को प्रभावी ढंग से लागू कर पाएंगे। जब हम भारत के लिए हर क्षेत्र में उपयुक्त तकनीकी आवश्यक रूप से परंपरागत छोटे पैमाने की लघु एवं कुटीर उद्योगों वाली तकनीकी ही होगी। भारत एक इतना विशाल और विस्तृत देश है कि यह अपने आपमें एक संसार ही है। यहां कुछ काम व क्षेत्र ऐसे भी हो सकते हैं कि जिनमें बड़े पैमाने की पूंजी गहन तकनीकी अधिक उपयुक्त हो। उदाहरण के लिए कृषि व लघु उद्योगों में काम आने वाले अनेक उपकरण व यंत्रों के उत्पादन के लिए हमें बड़े पैमाने की पूंजी-गहन तकनीकी का प्रयोग करना ही पड़ेगा। यही बात अंतरिक्ष विज्ञान, सूचना तकनोलाजी, परमाणुशक्ति संयंत्रों आदि के बारे में सच है। अत: हमें उचित समन्वय के साथ आगे बढ़ना होगा जिससे विदेशी निर्भरता के बिना अपने देश की सामान्य जनता के जीवन-स्तर को उन्नत बनाया जा सके।
ग्राम-संकुल आधारित विकेन्द्रित स्वावलंबी अर्थतंत्र
गांधीजी ने ग्राम स्वराज की बात कही थी और उसके अंतर्गत देश के प्रत्येक गांव को एक स्वावलंबी गांव बनाने की कल्पना की गई थी। किन्तु आज परिवहन और संचार के जिस प्रकार के साधन हो गए हैं और लोगों की कई प्रकार की नई आवश्यकताएं पैदा हो गई हैं, इस स्थिति में एक अकेले गांव का स्वावलंबी हो पाना अर्थात अपनी आवश्यकता की सभी वस्तुओं को स्वयं पैदा कर लेना संभव नहीं लगता। अत: हमें दस-पंद्रह गांवों को मिलाकर ग्राम-समूहों या ग्राम परिवारों की रचना करनी पड़ेगी। इसे ही मैंने ग्राम-संकुल कहा है। इस प्रकार के ग्राम-संकुलों की रचना भौगोलिक, वानस्पतिक एवं जलवायु आदि बातों को ध्यान में रखकर करनी होगी। इस प्रकार का ग्राम संकुल कमोबेश रूप में स्वावलंबी बन सके, इसका प्रयास करना होगा। इस सबके बावजूद भी प्रत्येक ग्राम-संकुल पूर्णतया स्वावलंबी नहीं बन सकता। ऐसी स्थिति में एक ग्राम संकुल यदि कोई वस्तु उत्पन्न नहीं कर रहा है तो वह उस वस्तु को पड़ोस के ग्राम संकुल से प्राप्त करे। इस प्रकार निकट के ग्राम-संकुलों के बीच वस्तुओं का विनिमय हो और फिर भी यदि वे अपनी आवश्यकता की वस्तुएं प्राप्त नहीं कर पा रहे हो तो देश के दूर-दराज के दूसरे ग्राम संकुलों से प्रापत करें। इस प्रकार घरेलू अर्थव्यवस्था में निकट से दूर के ग्राम-संकुलों से प्रापत करें। इस प्रकार घरेलू अर्थव्यवस्था में निकट से दूर के ग्राम-संकुलों के बीच क्रमश: विनिमय की प्रक्रिया चले। जिन वस्तुओं का देश की घरेलू अर्थव्यवस्था में उत्पादन करना संभव व लाभप्रद न लगता हो उन्हें दुनिया के अन्य बाजारों से प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार ग्राम-संकुलों के आधार पर समूचे अर्थतंत्र की पुनर्रचना करनी होगी। इस प्रकार की रचना में स्थानीय संसाधनों, स्थानीय कौशल और स्थानीय श्रम के आधार पर स्थानीय आवश्यकताओं की अधिकाधिक पूर्ति हो सकेगी। इससे साधनों का अपव्यय, परिवहन लागत और प्रदूषण घटेगा और रोजगार बढ़ेगा।
त्रिक्षेत्रीय अर्थतंत्र को अपनाना
भारतीय अर्थव्यवस्था एकरूप अर्थतंत्र वाली अर्थव्यवस्था नहीं है, यहां विविधता है। यह विविधता हमारी समृद्धि और सामथ्र्य का स्रोत है, इसे समझकर ही योजनाएं बनानी होंगी। भारतीय अर्थव्यवस्था को मुख्य रूप से तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है: वनतंत्र (ट्रायबल इकोनामी), ग्राम तंत्र (रूरल इकोनामी) और नगर तंत्र (अरबन इकोनामी) अत: हमें इस त्रिक्षेत्रीय अर्थतंत्र के अनुरूप ही मंगल-विकास की योजनाएं बनानी होगी। इस विविधता के महत्व को ठीक से न समझ पाने के कारण हम कई बार जल्दबाजी में वनवासी क्षेत्र या गांव को शहर जैसा बना देने को ही विकास मान बैठते हैं। हम इस बात को भुला बैठते हैं कि इन अलग-अलग क्षेत्रों के संसाधन, समस्याएं और आवश्यकताएं अलग-अलग हैं, अत: हमें उनको ध्यान में रखकर ही आगे बढ़ना चाहिए। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि एक ही आवश्यकता की पूर्ति सब क्षेत्रों में एक जैसी ही वस्तु के उत्पाद से पूरा करना भी उचित नहीं होता। एक उदाहरण- स्वास्थ्य के लिए दांतों का साफ रहना आवश्यक है। चूंकि शहरों में आसानी से दातुन नहीं मिल पाती, अत: नगरवासियों द्वारा दांत साफ करने के लिए टूथपेस्ट का प्रयोग करना किसी एक हद तक उचित हो सकता है। किन्तु वनवासी या ग्रामीण क्षेत्रों में जहां दातुन आसानी से मिल जाता है, विकास के नाम पर उन्हें टूथपेस्ट बेचना कहां तक उचित है? यह तो साधनों का अपव्यय है। मूल उद्देश्य तो दांत साफ रखना है। किन्तु हमने ऐसा मानस और माहौल बना दिया है कि टूथपेस्ट की उपलब्धि व प्रयोग को ही विकास का मानक मान लिया है। बड़े-बड़े महानगरों के होटलों में व्यक्ति सलाद के नाम पर रेफ्रिजरेटर में रखे गाजर, मूली व टमाटर आदि का उपभोग करता है और ऐसे व्यक्तियों को ऊ‚ंचे रहन-सहन के स्तर वाला कहा जाता है। दूसरी ओर गांव का व्यक्ति अपने खेत में से निकालकर और धोकर जब ताजा गाजर, मूली व टमाटर खाता है तो उसे पिछड़ा करार दिया जाता है। इसी प्रकार के दृष्टिकोण के कारण हम गांवों व नगरों के जल संसाधनों, उत्पादन के तौर-तरीकों, भवन-निर्माण, उपभोग शैली आदि में अंतर नहीं कर पाते। अत: हमें विविधता के इस अंतर को ठीक प्रकार से समझना होगा।
आमतौर पर वनवासी जनसंख्याएं अल्पकेन्द्रित और ग्राम जनसंख्याएं आत्मतुष्ट होती हैं। सभी अर्थतंत्रों का शहरीकरण अनुचित भी है और अवैज्ञानिक भी है। इसलिए हमें तीनों अर्थ तंत्रों के स्वायत्त और संपूरक विकास के संबंध में अधिक सतर्कता व कुशलता के साथ दीर्घकालीन धारणक्षम संतुलित कार्य-योजनाएं बनानी होंगी। तीनों अर्थतंत्रों की प्राथमिकताओं का क्रम अलग-अलग रखना होगा।
वनतंत्र की रचना में इस बात पर विशेष रूप से ध्यान देना होगा कि वनों की सभी उत्पादक भूमियों का संरक्षण व समुचित उपयोग हो, वनवासियों को उनकी वन उपज के उपयोग के लिए शिक्षित किया जाए और वन उपज को उनकी आमदनी और आजीविका का साधन बना सकने वाले तरीके व तकनीक विकसित की जाए।
ग्रामतंत्र के अंतर्गत ग्रामोद्योग, कृषि-आधारित उद्योग एवं ग्रामीण उत्पादनों की विविधता में वृद्धि हो, खाद्य व अखाद्य फसलों के बीच देश की आवश्यकता के अनुरूप उचित संतुलन बना रहे, पशुपालन और पंचगव्य आधारित उत्पादन तंत्र को बल मिले।
नगरतंत्र में नवीन तकनोलाजी पर आधारित वनतंत्र व ग्रामतंत्र के पोषक प्रदूषण मुक्त उद्योगों तथा विपणन व वित्तीय संस्थाओं की संरचना हो। कुल मिलाकर हमें जल, जमीन, जंगल, जीव और जन के बीच समुचित संतुलन बनाते हुए अपनी रचना-योजना बनाना होगा। (क्रमश...)
सुमंगलम्-13
[सम्पादन]- भारत की माटी के अनुकूल हो खेती की तकनीक
- डा. बजरंग लाल गुप्ता ; सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री, क्षेत्र संघचालक, उत्तर क्षेत्र, रा.स्व.संघ
भारतीय अर्थव्यवस्था की एक और प्रकार से भी वर्गीकरण करने की परंपरा रही है, यह है-कृषि क्षेत्र, उद्योग क्षेत्र (जिसमें है कुटीर व लघु उद्योग, तथा बड़े उद्योग), और सेवा क्षेत्र। स्वतंत्रता के बाद पश्चिमी विकास दर्शन के दबाव में हमने विभिन्न क्षेत्रों के बीच के संबंध को बिगाड़ दिया है। हमने अपनी अर्थव्यवस्था में बड़े उद्योगों को केन्द्रीय स्थान पर रख दिया और इसलिए उन्हें मूलभूत एवं भारी उद्योग कहा जाने लगा। कुटीर व लघु उद्योगों को सहायक उद्योग नाम दिया गया। इसका अर्थ यह हुआ कि हमने यह मान लिया कि कुटीर व लघु उद्योग बड़े उद्योगों की सहायता व सेवा करने के लिए हैं, अत: उन्हें बड़े उद्योगों के अनुसार और उनकी कृपा पर चलना होगा। इसके परिणाम स्वरूप भारत के कुटीर व लघ उद्योगों की स्वायत्तता व स्वालंबन समाप्त होता गया। इसके बाद हमने अर्थव्यवस्था में बचा-खुचा स्थान कृषि क्षेत्र को दिया। प्राथमिकता के इस क्रम के अनुसार निवेश का आवंटन किया जाने लगा और नीतियों का निर्माण होने लगा। इतना ही नहीं, इस पश्चिमी विकास दर्शन ने तो हमें यहां तक सिखा-पढ़ा दिया कि विकास के पथ पर आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है कि अर्थव्यवस्था के व्यावसायिक ढांचे में कृषि का स्थान घटता जाए और उद्योग व सेवा क्षेत्र का स्थान बढ़ता जाए। ऐसी स्थिति में भारत के कृषि क्षेत्र एवं असंगठित क्षेत्र संकटग्रस्त हो गए और उसके फलस्वरूप देश में बेरोजगारी, गरीबी, असमानता एवं खाद्य संकट जैसी समस्याओं का उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक ही था। अत: आज आवश्यकता इस बात की है कि हम इन क्षेत्रों के परस्पर संबंधों की पुनर्रचना करें। हमें अपने देश की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र को केन्द्रीय स्थान देना होगा। इस कृषि क्षेत्र की सहायता, सहयोग व सेवा के लिए कुटीर व लघु उद्योग क्षेत्र काम करें। कृषि क्षेत्र के लिए आवश्यक उपकरणों का निर्माण व आपूर्ति कुटीर व लघु उद्योग क्षेत्र करें। इसके साथ ही कृषि उपज का उपयोग करने की दृष्टि से कृषि उत्पाद आधारित छोटे उद्योगों की श्रृंखला खड़ी हो, जो उपभोक्ताओं की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वस्तुओं का उत्पादन करे। इसके बाद कृषि क्षेत्र एवं लघु उद्योग की सहायता के लिए बड़े उद्योग काम करे। इस नए प्राथमिकता के क्रम को बनाये और चलाये रखने के लिए सेवा क्षेत्र के विभिन्न क्रियाकलाप चलाये जाएं। भारत में कृषि को इसी प्रकार का केन्द्रीय स्थान प्राप्त होता रहा है, और इसीलिए भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि अर्थव्यवस्था कहलाती रही है। कृषि की प्रगति को देश की प्रगति का सर्वप्रमुख आधार माना जाता था।
ऋग्वेद की ऋचाओं में भी पर्यावरण, वानिकी, पशुपालन, कृषि-उपकरण, खेती का मापन, कृषि सूक्त व अक्षसूक्त में खेती के महत्व को दर्शाया गया है।
भारत में नए संदर्भों में युगानुरूप गोवंश-आधारित अर्थतंत्र के निर्माण के प्रयोग करना चाहिए। गोकुल के राजा नंद के पास 9 लाख गायें थी तो वृषभानु के पास 12 लाख गायें थीं। किंतु इसमें लगातार कमी आती जा रही है। स्वतंत्रता के बाद यह और अधिक कम हुआ है। 1951 में प्रति एक हजार मनुष्यों के पीछे 430 गोवंश थे, अब तो यह घटकर मात्र 130 ही रह गए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गोवंश भारत की पहचान है। इसीलिए तो कोलम्बस भारत से लौटते समय गाय और गन्ना साथ लेकर गया था।
द्विस्तरीय मंगल-विकास रणनीति बने
भारत में मंगल-विकास रणनीति को साथ-साथ और समानांतर रूप से दो स्तरों पर चलाना होगा। पहला स्तर वह है जिसमें भारत के 15-20 करोड़ लोगों का एक विशिष्ट वर्ग आता है। इनमें से तेजस्वी, गुणवान एवं समाज के प्रति संवेदनशील लोगों को चुनकर उनकी प्रतिभाओं-क्षमताओं का जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सर्वोत्कृष्टता प्राप्त करने में प्रयोग किया जाना चाहिए और उन्हें सब प्रकार से सहयोग किया जाना चाहिए। ऐसे प्रतिभावान लोग ही समाज की वर्तमान चुनौतियों को स्वीकार करके विभिन्न क्षेत्रों के लिए उपयोगी व समयानुकूल तकनीक, तकनोलॉजी, विधियों, विधि-विधानों, परंपराओं व मानदंडों की खोज कर नई दिशा देने का काम कर सकते हैं।
दूसरा स्तर वह है जिसमें 80-90 करोड़ जनसंख्या वाला सामान्य वर्ग आता है। इन लोगों के लिए वर्गानुसार एवं क्षेत्रानुसार अलग-अलग व्यावहारिक कार्य योजनाएं बननी चाहिए। इसकी क्षमता-संभावनाओं, आवश्यकताओं एवं जमीनी वास्तविकताओं को ध्यान में रखकर योजनाएं बनायी जानी चाहिए। इन बातों की उपेक्षा करके बनाई गई कोई भी योजना व नीति लाभप्रद होने की बजाय अंततोगत्वा हानिप्रद ही होती है। इसे हम एक-दो उदाहरणों से अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं। उदाहरण के लिए हमारे देश के कृषि क्षेत्र को ही लीजिए। हम जानते हैं कि भारत में लगभग 80 प्रतिशत छोटे व सीमांत किसान हैं जिनकी औसत जोत का आकार 1.6 हेक्टेयर है। अत: आवश्यकता तो इस बात की है कि इन छोटे किसान-परिवारों को स्वावलंबी बना सकने वाली तकनीक-तकनोलॉजी, कृषि पद्धति व अन्य आवश्यक तंत्र व योजनाओं का निर्माण व क्रियान्वयन हो। किंतु हमने देश की इस मूल प्रकृति को समझे बिना विदेशों की नकल करके अधिक उपज वाले बीजों पर आधारित नई कृषि तकनीक को अपना लिया और इस तकनीक के आधार पर खाद्यान्नों के उत्पादन में हुई वृद्धि को "हरित क्रांति" का नाम दे डाला। यह हरित क्रांति पंजाब, हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में ही अपना प्रभाव दिखा सकी, शेष क्षेत्रों में नहीं। ऐसा क्यों हुआ? हम जानते हैं कि अधिक उपज वाले बीजों से अधिक उपज प्राप्त करने के लिए उन्हें देशी बीजों की तुलना में अधिक मात्रा में पानी, रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक दवाओं का प्रयोग करना पड़ता है। अत: देश के जिन भागों में पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं था, वहां हरित क्रांति सफल नहीं हो सकी। रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग के कारण धरती की स्वाभाविक उर्वरा शक्ति घट गई और बड़ी मात्रा में कृषि भूमि बंजर बनती जा रही है। इसके अलावा खाद्यान्नों, फल-फूल-सब्जियों में रासायनिक द्रव्यों की मात्रा बढ़ गई और इनका प्रयोग करने के कारण लोगों में अनेक तरह की बीमारियां पनपने लगी हैं। इसका परिणाम यह भी हुआ है कि छोटा किसान इस नई तकनीक की लागत को बर्दाश्त नहीं कर पाता, अत: अपनी जमीन छोड़कर शहर की ओर भाग रहा है और बड़ी-बड़ी कंपनियां इन जमीनों को किसानों से हथियाकर निगमीय खेती की दिशा में आगे बढ़ रही हैं। उपज के लालच में किसान कर्ज लेकर इस नई तकनीक को अपनाते हैं किंतु अपेक्षा के अनुसार उपज न मिल पाने और कर्ज न चुका पाने के कारण दुखी होकर बड़ी मात्रा में वे आत्महत्याएं कर रहे हैं। इन नए बीजों के कारण देश में से देशी बीज गायब हो रहे हैं और देश का किसान धीरे-धीरे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के संकर बीजों पर निर्भर होता जा रहा है। इससे देश की खाद्य सुरक्षा और देशी बीजों की संप्रभुता के सामने गहरे और गंभीर संकट खड़े होते जा रहे हैं। अत: समय रहते हमें शीघ्रता से प्रभावी उपाय-योजना करनी होगी। इस दृष्टि से भारत की जलवायु, मिट्टी, कृषि जोत का आकार, संसाधन व अन्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बीज, खाद, कृषि उपकरण, सिंचाई के साधन, बिक्री व वित्तीय सहयोग तंत्र का निर्माण किया जाना चाहिए और तदनुरूप ही हमारे कृषि विश्वविद्यालयों एवं कृषि शोध संस्थानों में शोध की दिशा तय होनी चाहिए और देश की कृषि नीति बननी चाहिए। (क्रमश...)
सुमंगलम्-14
[सम्पादन]- ईश्वरीय स्वामित्व की अवधारणा
- डा. बजरंग लाल गुप्ता, सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री, क्षेत्र संघचालक, उत्तर क्षेत्र, रा.स्व.संघ
वर्तमान परिस्थिति में उत्पादकों व श्रमिकों के बीच आपसी समझदारी से कार्य-संस्कृति के विकास की भी नितांत आवश्यकता है। हड़ताल व तालाबंदी तथा आपसी संघर्षों के परिणामस्वरूप होने वाली हानि के बोझ को यह देश अब और अधिक बर्दाश्त नहीं कर सकता। इसके लिए आवश्यक है कि उद्योगपति श्रम विरोधी दृष्टिकोण बदलें और श्रमिकों को उद्योग के संचालन, निर्णय एवं लाभ में साझीदार व भागीदार बनाने के मार्ग तलाशें। दूसरी ओर श्रमिकों को भी प्रामाणिकता से उत्पादन को हानि न पहुंचाने वाले मानस एवं कार्य संस्कृति को अपनाने के बारे में सोचना चाहिए। इस दृष्टि से हमें उद्योग परिवार की संकल्पना को व्यावहारिक रूप प्रदान करने की दृष्टि से कार्य करना होगा। कुल मिलाकर आवश्यकता इस बात की है कि हम भारत की विशिष्टताओं, क्षमताओं, संभावनाओं एवं कौशल प्रतिभाओं को पहचानकर तद्नुरूप व्यावहारिक योजनाओं का निर्माण करें। भारत के पास विशाल कृषि योग्य भूमि (1200 लाख हेक्टेयर), गंगा-यमुना का सर्वश्रेष्ठ विशाल उर्वरक मैदान, विस्तृत नदी जल स्रोत, वर्ष भर सूर्यप्रकाश की उपलब्धि, छ:ऋतुएं, समृद्ध जैव संपदा (लगभग 85000 प्रकार के पौधे), 3.5 मिलियन से भी अधिक वैज्ञानिक एवं तकनीकी विशेषज्ञ (विशेषत: अत्याधुनिक सूचना-तकनीकी विशेषज्ञों की श्रेष्ठ मानवशक्ति), आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों वाले पौधों का विशाल भंडार, परंपरागत तकनीकी कौशल की समृद्ध परंपरा, योग व आयुर्वेद पर आधारित चिकित्सा व समग्र स्वास्थ्य पद्धति, श्रद्धावान, संतोषी, मितव्ययी एवं परिश्रमी जनशक्ति, समृद्ध सांस्कृतिक-सामाजिक परंपराएं व संस्थाएं हैं, हम अपनी मंगल-विकास की योजना में इस समृद्ध विरासत का कुशलता से उपयोग करें।
रोजगारोन्मुखी मितव्ययी उत्पादन-प्रक्रिया
आज की उत्पादन-प्रक्रिया लंबी, घुमावदार एवं अपव्ययी है। इसमें अधिक साधन लगाकर अधिक उत्पादन किया जाता है। प्रारंभ में कच्चा माल अथवा खनिज पदार्थ जितनी मात्रा में उत्पादन प्रक्रिया में डाले जाते हैं, अंतिम उत्पाद के रूप में जब उपभोक्ता के पास पहुंचते हैं तब तक उनका काफी कुछ क्षरण एवं अपव्यय हो चुका होता है। यह उत्पादन-तंत्र अत्यधिक मात्रा में मशीनों एवं ऊर्जा पर आधारित होता है, अत: इसे चलाये रखने के लिए ही मशीनों व उपकरणों के रूप में लोहे की और ऊर्जा के लिए कोयले की बड़ी मात्रा में खपत होती रहती है। अत: आज की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम एक ऐसी उत्पादन प्रक्रिया व तंत्र का निर्माण करें जिसमें कम से कम साधनों से अधिक से अधिक उत्पादन हो, साधनों का कम से कम अपव्यय या क्षरण हो और जो उत्पादकों व उपभोक्ताओं के बीच मानवीय संबंध विकसित कर सके। इसके साथ ही हमें उत्पादन की उस तकनीक को अपनाने पर अधिक बल देना होगा जो रोजगार में वृद्धि कर सके और काम करने वाले को आत्मसंतुष्टि भी प्रदान कर सके।
सदाचारी उपभोग शैली एवं जीवन शैली
जो तथ्य सामने आ रहे हैं वे यह बताते हैं कि आज का उपभोक्ता ज्यादा से ज्यादा खरीदने के चक्कर में अपनी आय को खींच रहा है और इसके परिणामस्वरूप परिवारों की बचत घटती जा रही है और ऋण बढ़ते जा रहे हैं। आक्रामक विज्ञापनों के माध्यम से उपभोक्ता को अपनी वस्तुएं बेचने को लेकर जबरदस्त होड़ चल रही है। एक अनुमान के अनुसार समस्त विश्व में विज्ञापनों पर प्रतिवर्ष लगभग 435 बिलियन डालर खर्च किया जा रहा है। भारत में भी इन आक्रामक प्रतियोगी विज्ञापनों का तेजी से प्रसार होता जा रहा है। अब इस बात को तो सब स्वीकार करने लगे हैं कि विकास के वर्तमान संकटों व समस्याओं का मूल कारण है दोषपूर्ण उपभोग शैली व जीवन शैली। अत: वर्तमान विकास प्रक्रिया में से उपजे संकटों व समस्याओं से यदि बचना है तो सामाजिक आचरण के मानदंडों एवं जीवन मूल्यों में सम्यक परिवर्तन के माध्यम से हमें सीमित, संयमित, सदाचारी एवं मितव्ययी जीवन शैली एवं उपभोग शैली को विकसित करने की ओर ध्यान देना होगा। हमें एक ऐसी जीवन शैली के विकास पर ध्यान देने की आवश्यकता है जो पर्यावरण-पोषक हो, गरीबों की हित-संवर्धक हो, जिससे सहभागिता पनपे, मानवीय क्षमताओं का विस्तार हो, सामाजिक जिम्मेदारी आए, जो वर्तमान पीढ़ी की ही नहीं वरन भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं की भी चिंता करे और जो सृजनशील व्यक्तियों एवं समुदायों को प्रोत्साहित करे। इस काम को अंजाम देने की दृष्टि से गरीब लोगों के काम आने वाली उपभोक्ता वस्तुओं, कम लागत वाली भवन निर्माण सामग्री, ऊर्जा बचाने वाले उपकरणों आदि के उत्पादन तथा खाद्यान्न की सस्ती व सुरक्षित भंडारण प्रणाली के विकास पर तुरंत ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। जैविक खेती, रसायनों से मुक्त खाद्य पदार्थ एवं हर्बल आधारित विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के उत्पादन एवं उपभोग पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। उपभोक्ताओं को विशेषत: खाद्य व पेय पदार्थों, दवाओं, स्वास्थ्य सेवाओं, घरेलू साज-सामानों,यातायात सुरक्षा आदि के बारे में सही व स्पष्ट जानकारियां भी मिलनी चाहिए। स्वास्थ्य के सामान्य नियमों, आहार-विहार पर संयम, जड़ी-बूटियों, योग, आसन, प्राणायाम, आयुर्वेद, घरेलू उपचार आदि का प्रयोग सामाजिक एवं दैनंदिन के क्रियाकलापों में परिवार की कम होती जा रही भूमिका को पुन: प्रतिष्ठित करने जैसे उपायों से भी सहज-सरल एवं सादा जीवन शैली के विकास में मदद मिलेगी।
परस्परावलंबी स्वैच्छिक अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक संबंध
हमें एक बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि वर्तमान विश्व पटल पर विभिन्न देशों के बीच अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक संबंध एवं अंतरराष्ट्रीय व्यापार के संबंध समान धरातल पर खड़े देशों के संबंध नहीं है। एक ओर थोड़े से अत्यंत सम्पन्न देश हैं और दूसरी ओर दुनिया के गरीब देश। ये अमीर देश खुली प्रतियोगिता के नाम पर गरीब देशों के साथ व्यापार करते समय अपनी शर्तें लादते हैं और आयात और निर्यात दोनों में ही उनका शोषण करते हैं। इस प्रकार के अंतरराष्ट्रीय व्यापार की प्रक्रिया में गरीब देश अमीर देशों पर निर्भर होने को मजबूर हो गए हैं। अत: वर्तमान के अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक संबंध परावलंबी एवं परोपजीवी आर्थिक संबंध अथवा शोषक-शोषित संबंध हैं। संबंधों की इस रचना में गरीब देश अमीर देशों पर अवलंबित एवं आश्रित बने रहते हैं अथवा अमीर देश गरीब देशों के शोषण पर जीवित रहते हैं और विकास करते हैं। हम इस प्रकार के संबंधों के समर्थक नहीं है। हम एक ऐसी रचना के समर्थक हैं जिसमें विभिन्न देशों के बीच परस्परावलंबी आर्थिक संबंध बने।
इस दृष्टि से विचार करने पर यह ध्यान में आता है कि अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा भारत की आर्थिक पुनर्रचना के लिए चल रहे प्रयास बाहरी हितों से प्रेरित हैं। अत: ये मूलत: भारतीय हितों के विपरीत हैं। ये संस्थायें भारत के हित को केन्द्र में मानकर नहीं बनाई गई हैं। इतना ही नहीं ये समूची मानवता के हित के लिए भी नहीं बनाई गई हैं।
वैश्वीकरण के नाम पर अपनाई गई नई आर्थिक नीति के बाद से न तो देश का विकास हुआ है, न ही रोजगार बढ़ा है बल्कि गरीबी, असमानता और महंगाई में वृद्धि हुई है। कृषि व छोटे उद्योगों पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। भारत के प्राकृतिक संसाधनों एवं जैव विधिता को कब्जा करने के प्रयास तेज हुए हैं और भारतीय बाजारों में विदेशी कंपनियों के सामानों की और घर-परिवार में विदेशी अपसंस्कृति की पैठ बढ़ी है। विनिवेश के नाम पर पिछले पचास वर्षों में अर्जित परिसंपत्तियों, स्वदेशी कारखानों एवं उनके उत्पादों को जल्दबाजी में विवादास्पद तौर तरीकों से विदेशी कंपनियों के हवाले किया जा रहा है। इतना ही नहीं विश्व व्यापार संगठन के नीति निर्देशों की अनुपालना के लिए पेटेंट कानून के संशोधनों की काली छाया राष्ट्रीय संप्रभुता पर भी पड़ रही है। विदेशी पूंजी निवेश के मोहजाल एवं विदेशी व्यापार के मकड़जाल में न फंसते हुए इनके क्षेत्र, प्रकार, मात्रा एवं शर्तों का निर्धारण राष्ट्रीय हित की कसौटी पर अधिक सतर्कता एवं बुद्धिमत्ता से किए जाने की आवश्यकता है। देश को पराश्रित बना देने की नीति आत्मघाती ही होगी।
वर्तमान में विश्व व्यापार संगठन से तुरंत छुटकारा पाना तो संभव नहीं, अत: इसके तंत्र व प्रावधानों की बारीकियों को ठीक से समझकर, इसकी ताकत व कमजोरियों को पहचानकर भारत के हित में इसका प्रयोग कर लेने की कुशलता भी विकसित करनी होगी और विश्व के अनेक देशों के बहुस्तरीय गठबंधन के द्वारा इसके आंतरिक अंतर्विरोधों को उभारने का प्रयास भी करना होगा, इसी में से विश्व व्यापार संगठन के चित्र व चरित्र को बदलने की प्रक्रिया प्रारंभ होगी।
ईश्वर स्वामित्व एवं ममतामयी वितरण व्यवस्था
किसी भी आर्थिक प्रणाली के लिए एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि साधन-संपदा पर किसका अधिकार माना जाए। पूंजीवादी प्रणाली के देशों में इस प्रश्न के उत्तर में कहा है कि उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व होना चाहिए। इस प्रकार साधनों पर व्यक्ति का अधिकार हो जाता है और वह अपनी साधन संपदा में अधिकाधिक वृद्धि करने और उसका अपने हित में अपनी इच्छा के अनुसार प्रयोग करने का हर संभव प्रयास करता है। इतिहास साक्षी है कि इसका परिणाम देश को संघर्ष, शोषण और असमानता के रूप में भुगतना पड़ता है। इसके विपरीत समाजवादी प्रणाली वाले देशों ने कहा कि उत्पादन साधनों पर राज्य का स्वामित्व होना चाहिए, इसी को उन्होंने राष्ट्रीयकरण का नाम दिया। उनके अनुसार देश के संसाधन राज्य के स्वामित्व में रहेंगे। इस प्रकार की प्रणाली में जब साधनों पर व्यक्ति के स्वामित्व को पूर्णतया नकार दिया जाता है तो उत्पादन प्रेरणा का सवाल खड़ा हो जाता है। साम्यवादी देशों के अनुभव इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि राज्य के डंडे के आधार पर बहुत अधिक समय तक व्यक्ति को अपनी पूरी क्षमता के साथ उत्पादन करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। ऐसी प्रणाली में व्यक्ति, व्यक्ति के रूप में कार्य न करके मशीन के पुर्जे के रूप में काम करता है और इसमें से उसकी प्रेरणा और पहल दोनों समाप्त हो जाती है।
ऐसी स्थिति में प्रश्न यह उपस्थित होता है कि साधन संपदा पर किसका स्वामित्व स्वीकार किया जाए जिससे कि समाज संघर्ष व शोषण से भी बचा रहे और देश के लोगों में काम करने की प्रेरणा व पहल भी भरपूर बनी रहे। इस दृष्टि से भारतीय चिंतन के प्रकाश में मंगल विकास की रचना में ईश्वर स्वामित्व की एक अभिनव अवधारणा को स्वीकार किया गया है। इसका अर्थ है कि उत्पादन के साधनों पर न तो व्यक्ति का और न ही सरकार का अपितु परमात्मा (अर्थात् समाज) का स्वामित्व माना जाना चाहिए।
प्राचीन भारत मनीषियों द्वारा बार-बार के ईशावास्यमिदं सर्वं यÏत्कचित् ईशावास्य उपनिषद् जगत्यां जगत। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध:कस्यस्विद्धनम्।। (1) के संदेश का उल्लेख तथा तुलसीदास जी द्वारा रामचरितमानस में "सियाराम मय सब जग जानी" या विनोबा भावे द्वारा "सवै भूमि गोपाल की या में अटक कहां" और गांधी जी द्वारा ट्रस्टीशिप (न्यासी) के सिद्धांत के रूप में व्यक्त विचार वास्तव में "ईश्वर स्वामित्व" की इस अभिनव अवधारणा को ही प्रकट करते हैं। इसके अनुसार साधनों पर अंतिम स्वामित्व तो परमात्मा का ही रहेगा, व्यक्तियों के पास जो स्वामित्व होगा वह "हस्तांतरित स्वामित्व" होगा। अत: व्यक्ति अपनी साधन संपदा का उपयोग केवल व्यक्तिगत काम के लिए ही न करके उसका न्यासी के रूप में उपयोग करेगा। यह अवधारणा स्वीकार कर लेने पर सर्वसामान्य समाज में परमात्मा पर अटूट श्रद्धा व आस्था जगाकर परमात्मा का कार्य मानकर प्रत्येक व्यक्ति के मन में अपनी पूरी क्षमता से उत्पादन की प्रेरणा जगाई जा सकती है। साथ ही, परमात्मा की वस्तु होने के कारण संपूर्ण उत्पादन में से मात्र अपनी आवश्यकता के अनुसार ग्रहण कर शेष को उसी परमात्मा की सृष्टि के प्राणियों के हित के लिए समर्पित कर देने की भावना भी निर्माण की जा सकती है। यह बात शायद वर्तमान वित्तीय एवं आर्थिक गणनाओं के अभ्यस्त लोगों को अजनबी और अव्यावहारिक लग सकती है किंतु मानव व्यवहार की बारीकियों एवं सूक्ष्मताओं को समझने वाले लोग इसे अवश्य स्वीकार करेंगे कि साधन संपदा के साथ मनुष्य का नाता रिश्ता बहुत कुछ उसके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है और दृष्टिकोण में परिवर्तन होने पर मानव व्यवहार में भी उसी दिशा में परिवर्तन होना प्रारंभ हो जाता है। क्रमश...
सुमंगलम्- 15
[सम्पादन]- विकास का सूत्र वाक्य
- पोषणक्षम अर्थतंत्र, धारणक्षम तकनालॉजी और संस्कारक्षम समाज-तंत्र
- डा. बजरंग लाल गुप्ता, सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री, क्षेत्र संघचालक, उत्तर क्षेत्र, रा.स्व.संघ
पाञ्चजन्य में नियमित रूप से 15 भागों में प्रकाशित "सुमंगलम्" वस्तुत: डा. बजरंग लाल गुप्ता द्वारा "मंगल विकास" विषय पर दिए गए 3 व्याख्यानों का संकलन है। माधव स्मृति न्यास (कर्णावती, गुजरात) ने 23 से 25 मार्च, 2007 तक इस व्याख्यानमाला का आयोजन किया था। इस व्याख्यानमाला में डा. गुप्ता ने भारतीय और वैश्विक अर्थ व्यवस्था और भविष्य के दिशा-सूत्रों को जिस प्रकार रेखांकित किया वह अत्यंत सहज, सरल और सर्वग्राही हैं। इसी कारण माधव स्मृति न्यास 6, मित्र मण्डल सोसायटी, उस्मानपुरा, अमदाबाद 380013 ने इसे पुस्तक रूप में प्रकाशित किया। मात्र 25 रु. की यह पुस्तक सुरुचि कला निकेत, देशबन्धु गुप्ता मार्ग, झण्डेवाला, नई दिल्ली-110055 पर भी उपलब्ध है।-सं.
एक दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि धन व आय के वितरण के संबंध में क्या दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए? इस बारे में मंगल विकास की रचना में इस बात पर बल दिया जाएगा कि धन का अर्जन तो जरूर किया जाए किंतु यह उचित मार्ग से, न्यायपूर्वक एवं नैतिकता से ही होना चाहिए। इसका अर्थ है कि चोरी, डकैती, भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, जमाखोरी, सट्टाबाजारी जैसे गलत तरीकों से धन नहीं कमाया जाना चाहिए। धनार्जन का काम सामाजिक एवं नैतिक मर्यादाओं के भीतर उचित मार्ग से ही होना चाहिए। कुल मिलाकर, धनार्जन के बारे में हमें एक ऐसी आचारसंहिता बनानी होगी जिससे अर्थ अर्जन की प्रवृत्ति व प्रेरणा शिथिल न पड़ने पाये और साथ ही वह अनियंत्रित व उच्छृंखल बनकर समाज के लिए अभिशाप भी न बन जाए। इसे ध्यान में रखते हुए हमें समाज में साधन सामग्रियों के समुचित एवं न्यायपूर्ण वितरण की दृष्टि से दो प्रकार की व्यवस्थाएं बनानी होंगी- एक नैतिक व्यवस्था और दूसरी कानूनी व्यवस्था।
जब व्यक्ति की नैतिक, धार्मिक, मानवीय एवं दैवीय भावनाओं को जगाकर और तद्नुरूप सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाएं एवं परंपराएं विकसित कर अपनी अतिरिक्त साधन संपदा को समाज हित के लिए समर्पित कर देने की प्रेरणा जगाई जाती है तो उसे वितरण की नैतिक व्यवस्था कहा जाता है। यह एक प्रकार से ममता से समता लाने का प्रयास है। इसे ही ईशोपनिषद् में "तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा:" (त्यागपूर्वक भोग करना) की भावना कहा गया है। हमारे देश की परंपरा में इसी व्यवस्था को व्यवहार में लाने पर जोर दिया जाता रहा है। आज उसी परंपरा के पुर्नस्मरण और उसमें युगानुरूप आवश्यक संशोधन कर उसे व्यवहार में उतारने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से भारतीय जीवन व्यवस्था में इष्ट (यज्ञ, दान-दक्षिणा आदि) और जनकल्याण के विभिन्न काम जैसे कुएं, तालाब, बावड़ी, नहर, प्याऊ, गोशाला, धर्मशाला, नि:शुल्क चिकित्सालय, नि:शुल्क पाठशालाएं, बाग-बगीचे, वृक्षारोपण आदि महत्वपूर्ण संकल्पनाएं मिलती हैं। इनके माध्यम से समाज में सहज रीति से धन व आय का वितरण होता रहता है और विषमता पर अंकुश लगता रहता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद समाज की संपत्ति को समाज को ही अर्पित कर देने की भावना एवं परंपरा का विकास करना ही नैतिक वितरण व्यवस्था का आधार है। यह दृष्टिकोण का विषय है और हम जानते हैं कि दृष्टिकोण बदल जाने पर व्यक्ति का व्यवहार भी बदल जाता है। इसे हम एक सरल उदाहरण से समझ सकते हैं। मान लीजिए कि रमेश नाम का एक व्यक्ति है, उसकी बर्फी खाने की इच्छा हो जाती है। वह बाजार जाता है और एक किलो बर्फी खरीदकर ले आता है। जब वह बाजार से घर आ रहा होता है तो उसकी इच्छा होगी कि उसे रास्ते में कोई परिचित व्यक्ति न मिले अन्यथा इस बर्फी में से कुछ हिस्सा उसे देना पड़ेगा। यदि रास्ते में उसका मित्र सुरेश मिल जाएगा तो वह उससे भी बचकर निकलने की कोशिश करेगा। क्योंकि उसे घर जाकर बर्फी खानी है। वह उस बर्फी में से कुछ मात्रा में अपने घर-परिवार को खिलाकर शेष का स्वयं ही उपभोग करना चाहेगा। सब साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व रहता है तो दृष्टिकोण भी यही रहता है कि मेरे पास जो साधन-संपदा है, उसका केवल मैं ही अधिकाधिक उपभोग करूं, इसी में से विषमता एवं उपभोक्तावाद जन्म लेते हैं।
अब मान लीजिए कि वही रमेश उसी दुकान से एक किलो बर्फी मंदिर में प्रसाद चढ़ाने के लिए लेकर आता है। रास्ते में जब उसका मित्र सुरेश मिलता है और पूछता है कि क्या लाये हो तो उसका जबाव होगा, भगवान का प्रसाद लाया हूं। यह भगवान का प्रसाद है। भगवान का स्वामित्व हो गया ना। रमेश ने बर्फी पर अपना स्वामित्व न मानकर भगवान का स्वामित्व मान लिया और फिर उसने भगवान के मंदिर में जाकर "त्वदीयम् वस्तु गोविन्दम् तुभ्यमेव समर्पयेत्"। के भाव से भगवान को समर्पित कर दी। पुजारी जी भगवान का भोग लगाकर जब कुछ हिस्सा निकालते हैं। तो आज तक किसी ने ऐतराज नहीं किया। यह एक प्रकार का कराधान ही है जिसको लगाते समय आपने ऐतराज नहीं किया। क्योंकि आपका दृष्टिकोण बदल जाने के कारण आपने इस वस्तु को अपना माना ही नहीं।आपको शेष प्रसाद पुजारी जी जब देते हैं तो आपका दृष्टिकोण इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों में बांटकर खाने का रहेगा। इस प्रसाद का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा कई लोगों में बांटकर आप स्वयं भी एक हिस्सा लेते हैं। ऐसा लेने पर सब महसूस करते हैं कि प्रसाद के सेवन से बड़ा संतोष मिल गया। आखिर हम वस्तुओं का उपभोग करके ज्यादा से ज्यादा संतुष्टि ही तो प्राप्त करना चाहते हैं। इसे ही अर्थशास्त्र में "अधिकतम संतुष्टि का सिद्धांत" कहते हैं। इस प्रकार वस्तुओं को भगवान का प्रसाद समझकर अधिक से अधिक लोगों में उसका वितरण करते हुए उपभोग करने से व्यक्ति को अधिकतम संतुष्टि मिल सकती है। इसीलिए तो भारतीय मनीषियों ने कहा था कि अकेला उपभोग करने वाला पापी होता है, अत: सौ हाथों से अर्जन करो और हजारों हाथों से वितरण करो (शतहस्त समाहर सहरुाहस्त संकिर-अथर्ववेद)।
यदि कोई व्यक्ति नैतिक नियमों एवं मर्यादाओं का पालन न करे और संपत्ति का आवश्यकता से अधिक अपने पास ही संचय करे और अकेला ही उपभोग करता चला जाए तो ऐसे व्यक्तियों से कानून के द्वारा संपत्ति के समाज में वितरण की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसे हम वितरण की वैधानिक व्यवस्था कहेंगे।
इस प्रकार मंगल विकास की रचना में समाज में धन संपदा का वितरण करे हुए विषमता को कम करने के लिए नैतिक एवं वैधानिक दोनों प्रकार की व्यवस्था करनी होगी।
परिवार-एक सामाजिक-आर्थिक इकाई
भारत में परिवार की एक बहुआयामी संस्था अर्थात् सामाजिक, सांस्कृतिक-धार्मिक, आर्थिक आदि के रूप में भूमिका रही है। हमें इसके महत्व को समझकर फिर से इस संस्था को सुदृढ़ करने पर जोर देना होगा। संयुक्त दायित्व बोध एवं सुख-दु:ख में सहभाग इसका आधार रहा है। अत: परिवार का वातावरण संस्कारक्षम, स्नेह व श्रद्धामय संबंधों से युक्त, तनावमुक्त, ममत्व, आनंद व हर्ष से ओतप्रोत बना रहना चाहिए। जहां विदेशों में सरकार को अपनी जी.डी.पी. का 30 से 40 प्रतिशत तक सामाजिक सुरक्षा उपायों का खर्च करना पड़ता है, वहीं भारत में यह काम अधिक अच्छे ढंग से परिवारों के द्वारा होता रहा है। इस दृष्टि से परिवार में बच्चों का लालन-पालन, वृद्धों की सेवा, बीमार, असहाय, अपंग व्यक्तियों की देखभाल आदि का काम भली प्रकार चलते रहना चाहिए।
भारत में परिवार सामाजिक दायित्वों के निर्वहन की इकाई, धार्मिक-सांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं एवं संस्कारों के संरक्षक के रूप में भी कार्य करते रहे हैं। अत: हमें यह प्रयास भी करना पड़ेगा कि हमारे परिवार समाजोपयोगी युगानुरूप बोधमूल्यों, नैतिक व सामाजिक मूल्यों, सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं, प्रथाओं परंपराओं के विकास तथा प्रचार-प्रसार का भी काम करें। भारत में परिवार अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करते रहे हैं। विदेशों में जो काम होटल करते हैं, भारत में वे काम अधिक अच्छी प्रकार से परिवार करते हैं। हमारे देश में पारिवारिक उद्योगों का भी काफी बड़ा तंत्र हैं और देश की कुल बचत में परिवारों की बचत का सबसे बड़ा हिस्सा है। इस प्रकार भारत में परिवार हमारी अर्थव्यवस्था का भी सशक्त आधार है। हमें सीमित-संयमित-सदाचारी उपभोग शैली के अनुरूप घर परिवार के लिए साजो-सामानों की खरीद व उपभोग करने की परंपरा का भी विकास करना होगा। अर्थार्जन के कार्यों एवं परिवार के प्रति कर्तव्यों व जिम्मेदारियों के बीच समुचित तालमेल बिठाने की आज सर्वाधिक आवश्यकता है।
नैतिक नेतृत्व
मंगल विकास के उद्देश्यों को प्राप्त करने और तद्नुसार सामाजिक-आर्थिक संरचना बनाने एवं उसके क्रियान्वयन के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता सर्वसामान्य समाज में नैतिकता एवं सामाजिक दायित्व के संस्कार जगाकर नैतिक नेतृत्व के निर्माण करने की है। हम नैतिक नेतृत्व के माध्यम से ही समाज के स्वत्व, स्वाभिमान एवं स्वावलंबन का जागरण कर मंगल विकास की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। प्रसिद्ध चिंतक और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रो.गुनार मिर्डल ने कहा था कि भारत की समस्याओं का हल विदेशी ऋण और विदेशी पूंजी नहीं है बल्कि नैतिक नेतृत्व ही है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मंगल विकास में हम एक ऐसी रचना खड़ी करेंगे जिसमें नैतिकता, अर्थव्यवस्था, परिस्थितिकी, उर्जा और रोजगार के बीच संतुलन बन सके। संक्षेप में इस नवरचना के तीन आधारभूत सूत्र होंगे:पोषणक्षम अर्थतंत्र, धारणक्षम तकनालॉजी और संस्कारक्षम समाज-तंत्र।
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