हमारे अतीत/ईश्वर से अनुराग

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विशद् धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से शिव,विष्णु और दुर्गा को परम देवी-देवताओं के रूप में पूजा जाने लगा।साथ हीं विभिन्न क्षेत्रों में पूजे जानेवाले देवी देवताओं को इनका रूप माना जाने लगा।इसी दौरान स्थानीय मिथक तथा किस्से-कहानियाँ पौराणिक कथाओं के अंग बन गए। नयनार और अलवार 7वी-9वीं शताब्दी के मध्य हुए धार्मिक आंदोलों का नेतृत्व नयनारों (शैव संत) और अलवारों ने किया।इसमें सभी जातियों के संत थे,जिनमें पुलैया और पनार जैसी 'अस्पृश्य'जातियाँ सम्मिलित थे। वे बौद्ध और जैनों के कटु आलोचक थे और शिव तथा विष्णु के प्रति सच्चे प्रेम को मुक्ति का मार्ग बताते थे।उन्होंने संगम साहित्य में समाहित प्यार और शूरवीरता के आदर्शों को अपना कर भक्ति के मूल्यों में उनका समावेश किया।ये घुमक्कड़ साधु-संत थे। वे जिस किसी गाँव में जाते,वहाँ के स्थानीय देवी-देवताओं की प्रशंसा में सुंदर कविताएँ रचकर उन्हें संगीतबद्ध कर दिया करते थे। मणिक्कवसागार की एक काँस्य प्रतिमा तथा एक रचना मेरे हार्ड मांस के इस निर्मित पुतले में तुम आए जैसे यह कोई सोने का मंदिर हो मेरे कृपालु प्रभु मेरे विशुद्ध तम नयनार और अलवार कुल मिलाकर 63 नयनार ऐसे थे,जो कुम्हार,'अस्पृश्य' कामगार,किसान,शिकारी,सैनिक,ब्रह्मण और मुखिया जैसी अनेक जातियों में पैदा हुए थे।अप्पार,संबंदर,सुंदरार और मणिक्कवसागार सर्वाधिक प्रसिद्ध थे। तेवरम् और तिरुवाचकम् उनके गीतों के दो संकलन हैं। अलवार संत संख्या में 12 थे।वे भी विभिन्न प्रकार के पृष्ठभूमि से आए थे।सर्वाधिक प्रसिद्ध थे-पेरियअलवार ,उनकी पुत्री अंडाल,तोंडरडिप्पोडी अलवार और नम्मालवार।उनके गीत दिव्य प्रबंधम् में संकलित हैं।

10वीं से 12वीं सदियों के बीच चोल और पांड्यन राजाओं ने उन धार्मिक स्थलों पर विशाल मंदिर बनवाए,जहाँ की संत-कवियों ने यात्रा की थी। इसप्रकार भक्ति परंपरा और मंदिर पूजा के बीच गहरे संबंध स्धापित हो गए। इसी समय उनकी कविताओं का संकलन तथा इन संतों की धार्मिक जीवनियाँ रची गईं,जिनका उपयोग आज इतिहास लेखन के स्रोत के रूप में करते हैं।


अद्वैतवाद के समर्थक शंकर का जन्म 8वीं शताब्दी में केरल में हुआ।उनके अनुसार जीवात्मा और परमात्मा(जो परम सत्य है),दोनों एक ही हैं।उन्होंने ब्रह्मा को एकमात्र परम सत्य माना जो निर्गुण और निराकार है। शंकर ने हमारे चारों ओर के संसार को मिथ्या या माया माना और संसार का परित्याग करने अर्थात् संन्यास लेने और ब्रह्मा की सही प्रकृति को समझने और मोक्ष प्राप्त करने के लिए ज्ञान के मार्ग को अपनाने का उपदेश दिया।

11वीं शताब्दी में तमिलनाडु में जन्में रामानुज पर अलवार संतों का प्रभाव था।उनके अनुसार मोक्ष प्राप्ति का उपाय विष्णु के प्रति अनन्य भक्ति भाव रखना है।भगवान विष्णु की कृपा दृष्टी से भक्त उनके साथ एकाकार होने का परमानंद प्राप्त कर सकता है। इनके विशिष्टताद्वैत के अनुसार आत्मा,परमामत्मा से जुड़ने के बाद भी अपनी अलग सत्ता बनाए रखती है। बसवन्ना का वीरशैव बाद इन्होंने और अल्लामा प्रभु और अक्का महादेवी जैसे उनके साथियों द्वारा प्रारंभ किए गए वीरशैव आंदोलन 12 वीं शताब्दी के मध्य में कर्नाटक में प्रारंभ सभी व्यक्तियों की समानता के पक्ष में और जाति तथा नारी के प्रति व्यवहार के बारे में ब्राह्मणवादी विचारधारा के विरुद्ध अपने प्रबल तर्क प्रस्तुत किए इसके अलावा सभी प्रकार के कर्मकांड और मूर्ति पूजा के विरोधी थे।

13वीं से 17वीं शताब्दी तक महाराष्ट्र में अनेकानेक संत हुए जिनके सरल मराठी भाषा में लिखें गीत आज भी जन मन को प्रेरित करते हैं। उनमें ज्ञानेश्वर,नामदेव,एकनाथ और तुकाराम तथा सखूबाई जैसी स्त्रियां तथा चोखामेला का परिवार जो अदृश्य समझी जाने वाली महार जाति का था भक्ति किया खेत्री परंपरा पंढरपुर में विट्ठल विष्णु का एक रूप पर और जन मन के हृदय में विराजमान व्यक्तिगत देव ईश्वर संबंधी विचारों पर केंद्रित थी। इन संत कवियों ने कर्मकांड ओ पवित्रता क्यों ढूंढ और जन्म पर आधारित सामाजिक अंदर ओं का विरोध किया इन्होंने संन्यास के विचार को भी ठुकरा दिया और किसी भी अन्य व्यक्ति की तरह रोजी-रोटी कमाते हुए परिवार के साथ रहने और विनम्रता पूर्वक जरूरतमंद व्यक्तियों की सेवा करते हुए जीवन बिताने को अधिक पसंद किया उन्होंने इस बात पर बल दिया असली भक्ति दूसरों के दुखों को बांट लेना है।सुप्रसिद्ध गुजराती संत नरसी मेहता ने कहा था "वैष्णव जन तो तेने कहिए पीर पराई जाने रे"। सामाजिक व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह संत तुकाराम का एक अभंग मराठी भक्ति गीत जो दीन दुखियों पीड़ितों को अपना समझता है वही संत है क्योंकि ईश्वर उसके साथ है। चोखा मेला के पुत्र द्वारा रचित एक अभंग तुमने हमें नीची जाति का बनाया मेरे महाप्रभु तुम सलाम यह स्थिति स्वीकार करके तो देखो।

नाथपंथी,सिद्ध और योगी[सम्पादन]

इन्होंने साधारण तर्क वितर्क का सहारा लेकर रूढ़ीवादी धर्म के कर्मकांड ओं और अन्य बनावटी पहलुओं तथा समाज व्यवस्था की आलोचना की। उन्होंने संसार का परित्याग करने का समर्थन किया।उनके अनुसार निराकार परम सत्य का चिंतन मनन और उनके साथ एक हो जाने की अनुभूति भी मूंछ का मार्ग है। इसके लिए उन्होंने योगासन प्राणायाम और चिंतन- मनन जैसी क्रियाओं के माध्यम से मन एवं शरीर को कठोर प्रशिक्षण देने की आवश्यकता पर बल दिया यह समूह 'नीची' कही जाने वाली जातियों में बहुत लोकप्रिय हुआ। उनके द्वारा की गई रूढ़ीवादी धर्म की आलोचना ने भक्तिमार्गीय धर्म के लिए आधार तैयार किया, जो आगे चलकर उत्तर भारत में लोकप्रिय हुआ।

इस्लाम और सूफी मत[सम्पादन]

मुस्लिम विद्वानों (उलेमा)द्वारा निर्मित धार्मिक कानून 'शरीयत' को सूफियों ने कफी हद तक नकार दिया। मध्य एशिया के महान सूफी संतों में गजाली रूमी और शादी के नाम उल्लेखनीय हैं। नाथपंथी यू सिद्धू और योगियों की तरह सूफी भी यही मानते थे कि दुनिया के प्रति अलग नजरिया अपनाने के लिए दिल को सिखाया पढ़ाया जा सकता है। उन्होंने किसी औलिया या पीर की देखरेख में जिक्र नाम का जाप चिंतन समा गाना रख नृत्य नीति कर्जा सांस पर नियंत्रण आदि के जरिए प्रशिक्षण की विस्तृत तृतीयो का विकास किया।इस प्रकार सूफी उस्तादों की पीढ़ियों, सिलसिलाओं का प्रादुर्भाव हुआ। सर्वाधिक प्रभावशाली चिश्ती सिलसिला में अजमेर के ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दिल्ली के कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी पंजाब के बाबा फरीद दिल्ली के ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया और गुलबर्ग के बंदा नवाज विशुद्ध राज्य थे। सूफी संत अपने रहने के स्थान खानकाह में विशेष बैठक आयोजित करते थे। मालिक (प्रभु)की खोज जलालुद्दीन रूमी 13 मी सदी का महान सूफी शायर था ईरान का रहने वाला फारसी भाषा में उसकी काव्य रचना का एक उदाहरण ईसाइयों की सूली पर नहीं था मैं हिंदू मंदिरों में गया वहां भी उसका कोई नामोनिशान नहीं था ना तो वो झाइयों में मिला ना खाने में नमक का नकाब।

13वीं सदी के पश्चात उत्तरी भारत में भक्ति आंदोलन की एक नई लहर[सम्पादन]

कबीर तथा गुरु नानक जैसे संतों ने सभी आडंबर पूर्ण रूढ़िवादी धर्म को अस्वीकार किया वहीं दूसरी ओर तुलसीदास तथा सूरदास ने उस में विद्यमान विश्वासों और पद्धतियों को स्वीकार करते हुए सबकी पहुंच में लाने का प्रयत्न किया। चैतन्यदेव 16वीं शताब्दी के बंगाल के एक भक्ति संत उन्होंने कृष्ण राधा के प्रति निष्काम भक्ति भाव का उपदेश दिया। असम के शंकर देव ने विष्णु की भक्ति पर बल दिया और असमिया भाषा में कविताएं तथा नाटक लिखें उन्होंने नाम घर कविता पाठ और प्रार्थना ग्रह स्थापित करने की पद्धति चलाई जो आज तक चल रही है।

16 वीं शताब्दी में मेवाड़ के राजघराने में ब्याही गई मीराबाई ने अस्पृश्य जाति के रविदास की अनुयाई बनी। कृष्ण के प्रति समर्पित मीरा ने अपने गहरे भक्तिभाव को कई भजनों में अभिव्यक्त किया उनके गीतों ने उनसे जाति के रितु नियमों को खुली चुनौती दी तथा यह राजस्थान और गुजरात की जनसाधारण में काफी लोकप्रिय हुआ

कबीर15वीं-16वीं सदी[सम्पादन]

उनका पालन पोषण बनारस या उसके आसपास के एक मुस्लिम जुलाहा यानी बुनकर परिवार में हुआ।

उनका पालन पोषण बनारस या उसके आसपास के एक मुस्लिम जुलाहा यानी बुनकर परिवार में हुआ। उनके विचारों की जानकारी उनकी शक्तियों और पदों के विशाल संग्रह से मिलते हैं जिसे घुमंतू भजन गायकों द्वारा गाया जाता था इनमें से कुछ भजन गुरु ग्रंथ साहब पंजवानी और बीजक में संग्रहित एवं सुरक्षित है। उनके अनुसार भक्ति के माध्यम से ही यानी मुक्ति प्राप्त हो सकती हैं हिंदू और मुसलमान दोनों उनके अनुयाई थे।

बाबा गुरु नानक(1469)[सम्पादन]

तलवंडी(पाकिस्तान में ननकाना साहब) में जन्म लेने और करतारपुर(रावी नदी के तट पर डेरा बाबा नानक)में एक केंद्र स्थापित करने से पहले कई यात्राएं की। उन्होंने अपने अनुयायियों के लिए करतारपुर में एक नियमित उपासना पद्धति अपनाई जिसमें उनके शब्दों भजनों को गाया जाता था उनके अनिवार्य अपने अपने पहले धर्म या जाति अथवा लिंगभेद को नजरअंदाज करके एक सांझी रसोई में इकट्ठे खाते पीते हैं इसे लंगर कहा जाता था इन्होंने उपासना और धार्मिक कार्यों के लिए जो जगह नियुक्त की उसे धर्मसाल कहा गया आज उसे गुरुद्वारा कहते हैं। मृत्यु से पूर्व अपने अनुयायी लहणा को उत्तराधिकारी चुना जो गुरु अंगद के नाम से प्रसिद्ध हुए।ये नानक के ही अंग माने गए।

मृत्यु से पूर्व अपने अनुयाई लहना को उत्तराधिकारी चुना जो गुरु अंगद के नाम से प्रसिद्ध हुए। गुरु अंगद ने नानक की रचनाओं को संग्रहित कर उसमें अपनी रचना को जोड़कर गुरुमुखी लिपि में एक नई संग्रह प्रकाशित किया गुरु अंगद के तीन उत्तर अधिकारियों ने भी अपनी रचनाएं नानक के नाम से लिखा। गुरु अर्जुन ने 16 से 4 ईसवी में इसे संग्रहित किया इसमें शेख फरीद संत कबीर भगत नामदेव और गुरु तेग बहादुर जैसे सूफियों संतों और गुरु की वाणी जोड़ी गई 1706 में इस बृहद वृहद संग्रह को गुरु तेग बहादुर के पुत्र का उत्तराधिकारी गुरु गोविंद सिंह ने प्रमाणित किया आज इस संग्रह को सिखों के पवित्र ग्रंथ ग्रंथ साहब के रूप में जाना जाता है। उनके अनुयायियों में कई जातियों के व्यापारी कृषक और शिल्पकार थे 17 में शताब्दी के प्रारंभ में केंद्रीय गुरुद्वारा हरमंदर साहब स्वर्ण मंदिर के आसपास रामदासपुर शहर अमृतसर विकसित होने लगा था। जो प्रशासन में स्वायत्त था आधुनिक इतिहासकार इसी युग के सिख समुदाय को राज्य के अंतर्गत राज्य मानते हैं मुगल सम्राट जहांगीर इस समुदाय को संभावित खतरा मानता था उसने 1606 में गुरु अर्जुन को मृत्युदंड देने का आदेश दिया।

1699 में गुरु गोविंद सिंह ने खालसा की स्थापना की खालसा पंथ