हमारे अतीत/जनजातियाँ,खानाबदोश और एक जगह बसे हुए समुदाय

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भारतीय उपमहाद्वीप के कई समाज जो ब्राह्मणों द्वारा सुझाए गए सामाजिक नियमों और कर्मकांड़ों को नहीं मानते थे और न हीं वे कई असमान वर्गों में विभाजित थे।इन्हें हीं जनजातियाँ कहा जाता रहा है। प्रत्येक जनजाति के सदस्य नातेदारी के बंधन से जुड़े होते थे।ये खेतीहर,शिकारी,संग्राहक या पशुपालक थे।कुछ जनजातियाँ खानाबदोश थीं और वे एक जगह से दूसरी जगह घूमती रहती थीं।ये समूह,संयुक्त रूप से भूमि और चारागाहों पर नियंत्रण रखते थे और अपने खुद के बनाए नियमों के आधार पर परिवारों के बीच इनका बँटवारा करते थे।

जनजातियों का क्षेत्र[सम्पादन]

जनजातीय लोग लिखित दस्तावेज नहीं रखते थे।लेकिन समृद्ध रीति-रिवाजों और मौखिक परंपराओं का वे संरक्षण करते थे।ये परंपराएँ हर नयी पीढी को विरासत में मिलती धीं।

  • पंजाब में खोखर जनजाति 13वीं और 14वीं सदी के दौरान बहुत प्रभावशाली थी बाद में गक्खर लोग हुए।उनके मुखिया,कमाल खान गक्खर को अकबर ने मनसबदार बनाया था।
  • मुल्तान और सिंध में मुगलों द्वारा अधीन किए जाने से पहले लंगाह और अरघुन लोगों का प्रभुत्व अत्यंत विस्तृत क्षेत्र पर था।
  • बलोच-उत्तर -पश्चिम की एक और विशाल एवं शक्तिशाली जनजाति थी-।ये लोग अलग-अलग मुखियों वाले कई छोटे-छोटे कुलों में बँटे हुए थे।
  • गडड्ी गड़रियों-पश्चिम हिमालय में
  • नागा,अहोम-उत्तर-पूर्वी
  • चेर सरदारशाहियों का उदय-12वींसदी में।अकबर के प्रसिद्ध सेनापति राजा मान सिंह ने 1591 में चेरों पर हमला कर उन्हें परास्त कर अच्छा-खासा माल इकट्ठा किया,लेकिन वे पूरी तरह अधीन नहीं बनाए गए।औरंगजेब के समय मुगल सेनाओं ने चेर लोगों के कई किलों पर कब्जा किया और इस जनजाति को अपना अधीनस्थ बना लिया।मुंडा और संथाल प्रमुख जनजाति थे।यद्दपि ये उड़ीसा और बंगाल में भी रहते थे।
  • कोली और बेराद कर्नाटक और महाराष्ट्र में,कोली लोग गुजरात में भी।
  • कोरागा(कर्नाटक),वेतर(केरल),मारवार(तमिल)दक्षिण भारत में।
  • भील-पश्चिमी और मध्य भारत में।16वीं सदी तक कई एक जगह बसे हुए खेतिहर और जमींदार बन चुके थे।तब भी भीलों के कई कुल शिकारी-संग्राहक बने रहे।
  • गोंड-मौजूदा छत्तीसगढ़,मध्य प्रदेश,महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में ।

खानाबदोश चरवाहे[सम्पादन]

ये अपने जानवरों के साथ दूर-दूर तक घूमते थे।उनका जीवन दूध औरअन्य पशुचारी उत्पादों पर निर्भर था।वे खेतिहर गृहस्थों से अनाज,कपड़े,बर्तन के लिए ऊन,घी का विनिमय भी करते थे। बंजारा सबसे महत्वपूर्ण व्यापारी-खानाबदोश थे।उनाका कारवाँ'टांडा'कहलाता था।अलाउद्दीन खिलजी बंजारों का इस्तेमाल नगर के बाजारों तक अनाज ढ़ुलाई के लिए करते थे। जहाँगीर ने अपने संस्मरणों में इन बंजारों का उल्लेख किया है।ये विभिन्न इलाकों से अपने बैलों पर अनाज ले जाकर शहरों बेचते थे।सैन्य अभियानों के दौरान वे मुगल सेना के लिए खाद्दान्नों की ढुलाई का काम करते थे।किसी भी विशाल सेना के लिए 100,000 बैल अनाज ढ़ोते होंगे।6-7सौ लोगों का यह टंडा एक दिन में 6-7 मील तक सफर करता है ठंडे में भी। कई पशुचारी जनजातियाँ मवेशी और घोड़ों,जैसे जानवरों को पालने-पोसने और संपन्न लोगों के हाथ उन्हें बेचने का काम करती थीं।कभी-कभी भिक्षुक लोग भी घूमंतू सौदागरों का काम करते थे। कांस्य मगरमच्छ कुट्टिया कोंड जनजाति,उड़ीसा

बदलते समाज में नयी जातियों और श्रेणियों का उद्भव[सम्पादन]

अर्थव्यवस्था और समाज की जरूरत बढ़ने पर,नए हुनर वाले लोगों की आवश्यकता पड़ी।वर्णों के भीतर छोटी -छोटी जातियाँ उभरी।ब्राह्मणों के बीच नई जातियाँ सामने आईं।कई जनजातियों और सामाजिक समूहों को जाति विभाजित समाज में शामिल कर उन्हें जातियों का दर्जा दे दिया गया।विशेषज्ञता प्राप्त शिल्पियों-सुनार,लोहार,बढ़ई और राजमिस्त्री को भी ब्रह्मणों द्वारा जातियों के रूप में मान्यता दे दी गई। वर्ण के बजाए जाति समाज संगठन का आधार बनी। 11वीं और 12वीं सदी तक आते-आते क्षत्रयों के बीच नए राजपूत गोत्रों की ताकत बढ़ी।वे हूण,चंदेल,चालुक्य से आते थे। पंजाब,सिंध और उत्तर-पश्चिचमी सरहद की प्रभुत्वशाली जनजातियों ने काफी पहले इस्लाम को अपनाया।वे जाति व्यवस्था को नकारते रहे।सनातनी हिंदू धर्म द्वारा प्रस्तावित गैर-बराबरी वाली सामाजिक व्यवस्था को स्वीकार नहीं की गई।

जातेिव्यवस्था पर विमर्श
तमिलनाडु के तिरूचिरापल्ली में स्थित उईयाकोंडन उदेायार के 12वीं शताब्दी के अभिलेख में ब्रह्मणों की एक सभा के विचार-विमर्श का वर्णन मिलता है।वे रथकारों की सामाजिक स्थिति पर विचार -विमर्श कर रहे थे।उन्होंने इस जाति के कामकाज तय किए जिनमें वास्तुकला,रथों और गाड़ियों का निर्माण,मंदिर द्वार बनाना,मूर्तियाँ स्धापित करना,बलि के लिए लकड़ियों से बने साज-सामान तैयार करना,मंडप बनाना और राजा के लिए जेवर बनाना शामिल थे।

गोंड़[सम्पादन]

  • गोंड़वाना नामक विशाल वनप्रदेश में रहते तथा स्थानांतरीय कृषि करते।
  • कई कुलों में विभाजित।प्रत्येक कुल का अपना राजा या राय अकबरनामा मे उल्लखित गढ़ कटंगा के गोंड राज्य में 70,000गाँव थे।इन राज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था केंद्रीयकृत हो रही थी।राज्य,गढ़ों में विभाजित थे।प्रत्येक गढ़ किसी खास गोंड़ कुल के नियंत्रण में था
  • राज्य-गढ़-(कुल) -चौरासी-बरहोतों(12गाँव)
  • बड़े राज्यों के उदय के कारण समाज असमान सामाजिक वर्गों में विभाजित हो गया।ब्रह्मण लोगों ने गोंड राजाों से अनुदान में भूमि प्राप्त कर अधिक प्रभावशाली बन गए।गोंड़ सरदारों को अब राजपूतों के रूप में मान्यता प्राप्तकरने की चाहत हुई।
  • गढ़ कटंगा के गोंड राजा अमन दास ने संग्रामशाह की उपाधि धारण की।उसके पुत्र दलपत ने महोबा के चंदेल राजपूत राजा सालबाहन की पुत्री दुर्गावती से विवाह किया।दुर्गावती ने अपने पाँच वर्षीय पुत्र वीर नारायण के नाम पर शासन कर राज्य का और अधिक विस्तार किया।
  • 1565 में आसिफ खान के नेतृत्व में मुगल सेनाओं ने गढ़ कटंगा पर हमला किया।रानी दुर्गावती ने जमकर सामना किया।परंतु हार के पश्चात समर्पण के बजाय मरना बेहतर समझा।
  • गढ़ कटंगा ने हाथियों को पकड़ने और दूसरे राज्यों में उनका निर्यात करने के व्यापार में खासा धन कमाया।जब मुगलों ने गोंड़ों को हराया,तो उन्होंने लूट में बेशकीमती सिक्के और हाथी बहुतायत में हथिया लिए।मगलों ने राज्य का एक भाग अपने कब्जे में लेकर शेष वीर नारायण के चाचा चंदर शाह को दे दिया।इस राज्य के पतन के बावजूद गोंड राज्य कुछ समय तक चलता रहा।

अहोम[सम्पादन]

ये लोग म्यानमार से आकर तेरहवीं सदी में ब्रह्मपुत्र घाटी में आ बसे।उन्होंन भुइयाँ (भूस्वामी) लोगों की पुरानी राजनीतिक व्यवस्था का दमन करके नए राज्य की स्थापना की। 16वीं सदी के दौरान उन्होंने चुटियों (1523)और कोच-हाजो(1581) के राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया।1530 के दशक में ही,आग्नेय अस्त्रों का इस्तेमाल किया।1660 वे उच्चस्तरीय बारूद और तोपो का निर्माण करने में सक्षम हो गए थे।1662 में मीर जुमला के नेतृत्व में मुगलों ने अहोम राज्य पर हमला किया,परंतु मुगलों का प्रत्यक्ष नियंत्रण ज्यादा समय तक नहीं रह सका। यह राज्य बेगार पर निर्भर था।राज्य के लिए जिन लोगों से जबरन काम लिया जाता था,वे 'पाइक' कहलाते थे।प्रत्येक गाँव को अपनी बारी आने पर निश्चित संख्या में पाइक भेजने होते थे ।इसके लिए जनगणना के बाद सघन आबादी वाले इलाकों से कम आबादी वाले इलाकों में लोगों को स्थानांतरित किया गया था।इस प्रकार अहोम कुल टूट गए। ।17वी शताब्दी का पुर्वार्द्ध पूरा-पूरा होते होते प्रशासन खासा केंद्रीकृत हो चुका था। सभी वयस्क पुरुष युद्ध के दौरान सेना में अपनी सेवाएँ प्रदान करते थे।दूसरे समय वे बाँध,सिंचाई व्यवस्था इत्यादि के निर्माण या अन्य सार्वजनिक कार्यों में जुटे रहते थे।ये लोग चावल की खेती के नए तरीके भी अमल में लाए।अहोम समाज 'खेल' नामक कुलों में विभाजित था। एक खेल के नियंत्रण में कई गाँव होते थे। ग्राम समुदाय के द्वारा जमीन किसानों को दी जाती थी ।समुदाय की सहमति के बगैर राजा तक जमीन वापस नहीं ले सकता था। वहाँ दस्तकारों की बहुत कम जातियाँ थीं।इसलिए दस्तकार निकटवर्ती क्षेत्रों से आए थे। प्रारंभ में ये अपने जनजातीय देवताओं की उपासना करते थै।सिब सिंह (1714-44)के काल में हिंदू धर्म वहाँ का प्रधान धर्म बन गया,परंतु अहोमों ने हिंदू धर्म के बाद भी अपनी पारंपरिक आस्थाओं को बरकरार रखा। कवियों और विद्वानों को अनुदान में जमीन दी जाती थी।नाट्य-कर्म को प्रोत्साहन दिया जाता था।संस्कृत की महत्वपूर्ण कृतियों का स्थानीय भाषा में अनुवाद किया गया था।बुरंजी नामक ऐतिहासिक कृतियों का पहले अहोम भाषा में और फिर असमिया में लिखा गया।

कान के आभूषण,कबोई नागा जनजाति,मणिपुर

मंगोल
इतिहास के सबसे प्रसिद्ध पशुचारी और शिकारी-संग्राहक जनजाति।वे मध्य एशिया के घास के मैदानों(स्टेपी) और थोड़ा उत्तर की ओर के वन प्रांतों में बसे हुए थे।1206 में चंगेज खान ने मंगोल और तुर्की जनजातियों में एकता पैदा करके उन्हें एक शक्तिशाली सैन्य बल में बदल डाला।