हिंदी आत्मकथा कोश/आपहुदरी(एक जिद्दी लड़की की आत्मकथा)

विकिपुस्तक से

मजदूरों,आदिवासियों दलितों स्त्रियों व अल्पसंख्यकों के प्रति समर्पित रमणिका गुप्ता 21 देशों के महत्वपूर्ण आयोजनों में भागीदार रह चुके हैं।

  • 1948 में बीवी जी(मां) ने कहा "पर वह तो कुजात है,बनिया है।हम तो खत्री हैं,!कैसे होगी शादी?"

कुजात है तो क्या हुआ? पढ़ा-लिखा है। कमाता है।मामा से एक पद नीचे है।जात से क्या फर्क पड़ता है।चाचा कांशीराम ने मेम से विवाह किया था यह तो फिर भी हिंदुस्तानी है।"मैंने तर्क दिया।फिर क्या था थप्पड़- चप्पल सबसे मेरी पिटाई हुई।मेरी चीखें कमरे में बैठा प्रकाश सुन रहा था और कुछ कर नहीं पा रहा था मामा के स्टाफ में यह चर्चा का विषय बन गया था।(पृ-193)

  • प्रकाश के पिता जी को मेरा खुले मुंह और नंगे सिर घूमना पसंद नहीं था एक दिन उन्होंने मुझे कह हीं दिया," दो चोटियां मत बांधो बहू!यह हमारे घर की बहूओं का रिवाज नहीं है।"

मैं चुप रही लेकिन मैंने प्रकाश को कड़े शब्दों में जाकर कहा "मैं अब से चार चोटियां बांधूगी।मेरे निजी मामले में कोई दखल दे यह मुझे अच्छा नहीं लगता।मैं आपके मां-बाबूजी के खान-पान और रहन-सहन में जब किसी किस्म का दखल नहीं देती,तो वे मुझे भी टोक नहीं सकते।तुम उन्हें यह बता दो।"

  • बाबूजी(ससूरजी) को बड़ी भाभी के यहां रहना अच्छा लगता था। वह लंबा घुंघट निकाल कर उनके सामने आती थीं।भले घुंघट निकाले- निकाले हुए उन्हें जली-कटी भी सुनाती रहती थीं,कभी-कभी अपशब्द तक कह देती थीं।इसके विपरीत मैं कभी उनके मुंह नहीं लगी।मैंने उन्हें हमेशा आदर का स्थान दिया।

पर बाबूजी की नजर में मर्यादा की कसौटी शब्द या अपशब्द नहीं बल्कि घूंघट जैसी प्रथाओं का पालन था।हां टोकने के बाद मैं मुंह उघारे हीं नहीं, सिर नंगा करके जानबूझकर उनके सामने घूमने लगे, ताकि मेरी आजादी के हक को पहचानें।(पृ-240-41)

  • प्रकाश ने एक दिन गुस्से में कहीं दिया "यह कर्नल साहब की बेटी हो सकती है पर अब यह एक मामूली गरीब अफसर की बीवी है, मेरी औकात के अनुसार ही रहना होगा इसे इसे भूलना होगा यह कर्नल की बेटी है,और सुपरिटेंडेंट इंजीनियर की बहन।"
  • सन 1949 हम दोनों में अब मारपीट शुरू हो गई थी प्रकाश मुझे घर की चहारदीवारी में बांधना चाहता था लेकिन मैंने घर के साथ बंधन तोड़ कर उससे प्रेम विवाह करने की हिम्मत की थी,तो मेरे लिए किसी बंधन या सीमा में ज्यादा देर तक रहना कैसे संभव हो सकता था? मेरी सोच के बाहर था प्यार के सिवा कोई भी बंधन! मैं मुक्त थी,आजाद थी, असीम आकाश की उदारता मुझे बांध सकती थी,मुक्त हवाओं की स्वच्छन्दता मुझे सहेज सकती थी, अथाह प्यार,अगाध विश्वास, आनंत आदर मुझे रोक सकता था, किसी घर की दीवारें या व्यक्ति की भुजाएं नहीं।मैं 1 साल तक प्रकाश की बाहों में के दायरे में प्यार,उदारता और विश्वास की उष्णता की तलाश में बंधी रही। मारपीट होने पर भी प्रकाश के आने का इन्तजार करती।(पृ-243)

उनकी मान्यता थी कि किसी से प्यार करने के लिए कोई आकर्षण या कोई समानता तो होनी ही चाहिए। प्रेमी का कोई स्तर भी होना चाहिए,जो प्यार करने वाला हो वह मेरे अनुरूप हो इसे मैं जरूरी मानती थी यानी वह मेरे आकर्षण का केंद्र बनने के लायक या स्तर का जरूर हो।(पृ-257)

परिवार की नजरों में बदसूरत दादी से सटी रहने वाली बूंद और जिद्दी लड़की जो सबके लिए किस से भी लड़ जाती थी। प्रकाश के प्रेम ने मुझे परंपरा तोड़ने रूढ़ियां छोड़ने,जाति तोड़ने की हिम्मत दी थी जिसने मुझे प्रेम से परिचित कराया था।जिसने मुझ में औरतों के उस एहसास को युवा किया था,जिसे मैं अपारिचित थी।(पृ-158)

घर में तीन पीढ़ियां थी दादी पुरानी पीढ़ी की पर बेटे की खुशी के लिए किसी भी बदलाव को स्वीकारने को तत्पर।बहु 10:00 बजे तक बेटे के साथ सोई रहे दादी ने कभी नहीं जगाया। बेटे को दुख होगा बहू के जागने पर बेटे की चिंता सर्वोपरि थी उनके लिए।मैं और भाभी तीसरी पीढ़ी की थी जो पुरानी दो पीढ़ियों के ग्लैमर और विकृतियों के साथ-साथ उनके पारंपरिक मूल्यबोध त्याग और स्वार्थ के बेमेल गठबंधनों के प्रभाव से गुजर रही थी।(पृ121)


हासिल करना मेरा लक्ष्य जरूर था लेकिन हासिल करके संतुष्ट हो जाना ना मैंने जाना नहीं मैंने सीखा।तुरंत कोई दूसरी मुहिम छेड़ देना मेरा स्वभाव था इसलिए मैं खूब जोर से हवा चलने पर ही घर के अंदर जाती थी थोड़ी बहुत हवा के थपेड़ों को तो मैं खुद थपेड़े मारकर चलता कर देती विपरीत परिस्थितियों में जीने की चुनौती स्वीकार करना मेरी शैली बनता जा रहा था।(पृ-120)

काश मुझे भी भैया जैसा पति मिले जो मुझे मुफ्त हवा में उड़ने दे तो मैं भी अपने सिर से कहीं ऊंची उड़ान भर लूंगी मैं सोचा करती थी।काश हर मर्यादा टूटने पर स्त्री के बदले पुरुष टीका तोड़ने का जिम्मा ले लेता तो स्त्री कभी की मुक्त हो गई होती।-पृ132

रमणिकाजी किसी मध्यवर्गीय स्त्री के लिए आइडियल आदर्श नहीं हो सकती क्योंकि सामंती परिवेश में पली बढी होने के कारण मां के प्यार और स्नेह से वंचित रमणिकाजी प्यार की तलाश में जितने पुरुष उतने संबंध कायम किए।यदि हम सती सावित्री वाली मिथक को छोड़ भी दें तब भी पति के होते हुए दूसरे मर्दों के बच्चों को जन्म देना किसी भी स्वच्छ छवी वाली स्त्री को स्वीकार नहीं हो सकता।