हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन)/अमीर खुसरो की कव्वालियाँ और दोहे
कव्वाली
[सम्पादन]छाप-तिलक तज दीन्हीं रे, तो से नैना मिला के।
प्रेम बटी का मदवा पिलाके,
मतवारी कर दीन्हीं रे, मो से नैना मिला के।
`खुसरो' निज़ाम पै बलि-बलि जइए,
मोहे सुहागन कीन्हीं रे, मोसे नैना मिला के॥
दोहे
[सम्पादन](1)
गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।
चल ख़ुसरो घर आपने रैन भई चहुं देस।।
(2)
खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पियो को, दोउ भए एक रंग॥
(3)
देख मैं अपने हाल को राऊ, ज़ार - ओ - ज़ार।
वै गुनवन्ता बहुत है, हम है औेगुन हार।।
(4)
चकवा चकवी दो जने उन मारे न कोय।
ओह मारे करतार के रैन बिछौही होय।।
(5)
सेज सूनी देख के रोऊँ दिन रैन।
पिया पिया कहती मैं पल भर सुख न चैन।।
(१)काहे को ब्याही विदेश रे,
[सम्पादन]काहे को ब्याही विदेश रे,
लखि बाबुल मोरे।
हम तो बाबुल तोरे बागो की कोयल
कुहकत घर घर जाऊं, लखि बाबुल मोरे।
हम तो बाबुल तौर खेतों की चिड़िया,
चुग्गा चुगत उड़ी जाऊ, लखि बाबुल मोरे।
हम तो बाबुल तोरे बेले की कालिया,
जो मांगे चली जाऊं, लखि बाबुल मोरे।
हम तो बाबुल तोरे खूंटे की गइया,
जित हांको हंक जाऊ, लखि बाबुल मोरे।
लाख की बाबुल गुड़िया जो छाड़ी,
छोड़ी सहेलिन का साथ, लखि बाबुल मोरे।
महल तले से डोलिया जो निकली,
भाई ने खाई पछाड़, लखि बाबुल मोरे।
आम तले से डोलिया जो निकली,
कोयल ने कि है पुकार, लखि बबूल मोरे।
तू क्यों रोवे है, हमर कोइलिया,
हम तो चले परदेश, लखी बबूल मोरे।
नंगे पांव बाबुल भागत आवै,
साजन डोला लिए जाय, लखी बाबुल मोरे।
काहे को ब्याहे विदेस रे
लखि बाबुल मोरे। भईया के दी है बाबुल महल- दुमहला,
हम को दी है परदेश, लखि बाबुल मोरे।
में तो बाबुल तोरे पिंजड़े की चिड़िया
रात बसे उड़ी जाऊ, लखि बाबुल मोरे।
ताक भरी मैने गुड़िया जो छोड़ी,
छोड़ा दादा मिया का देश, लखी बाबुल मोरे।
प्यार भरी मैने अम्मा जो छोड़ी
छोड़ी दादी जी की गोद, लखि बाबुल मोरे।
परदा उठाके जो देखी,
आए बेगाने देस, लखि बाबुल मोरे।
(२)बहुत कठिन है डगर पनघट की
[सम्पादन]बहुत कठिन है डगर पनघट की
कैसे मैं भर लाऊ मधवा से मटकी।
मोरे अच्छे निजाम पिया - कैसे मैं भर लाऊ मधवा से मटकी
जरा बोलो निजाम पिया,
पनिया भरन को मैं जो गई थी -
दौर झपट मोरी मटकी - पटकी। बहुत कठिन है -
खुसरो निज़ाम के बलि बलि जाईये
लाज राखे मोरे घूंघट पट की -