हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/उद्धव संदेश/(१)उधौ मन मानेकी बात।

विकिपुस्तक से

सन्दर्भ[सम्पादन]

प्रस्तुत पद महाकवि सूरदास द्वारा रचित है। यह पद उन्हीं की विख्यात रचना 'सूर सागर' से संगृहीत है। कृष्ण को आधार बनाकर काव्य-रचना करने वाले वल्लभ संप्रदाय का यह मूर्धन्य कवि हैं।

प्रसंग[सम्पादन]

गोपियाँ उद्धव से संवाद कर रही हैं वे श्रीकृष्ण के बिना जी नहीं सकती हैं। वे उन्हें ही चाहती हैं किसी और को नहीं। वे किसी और को अपने जीवन में स्थान नहीं दे सकती हैं। उन्हें श्रीकृष्ण ही चाहिए। वे उन्हें ही अपनाएँगी। इसी संबंध में वे कहते हैं-

व्याख्या[सम्पादन]

उधौ मन मानेकी बात......'सूरदास' जाकौ मन जासौं सोई ताहि सुहात।।

उद्धव। यह तो मन की बात है कि कौन किसको चाहता है या पसन्द करता है। मन में जो बस जाता है, वह उसी को चाहता है। यह तो सब मन की बात है। अंगूर, छुआरे को छोड़कर कोई दूसरे को क्यों अपनाया ? वह उन्हीं के लिए अमृत के समान फलदायी है। विषैला जीव या कीड़ा विषैले भोजन को ही खाता है। उपको उसी में आनन्द आता है चकोर को कोई कपूर देता वह उसे कयों जाएगा ? वह किसी को छोडकर दूसरे से अपने को क्यों तृप्त करेगा। उसे उसी से तृप्ति मिलती है तो वह उसी को खाएगा, पीयंगा वह दूसरे की तरफ देखेगा भी नहीं। इसी तरह हमें श्रीकृष्ण ही अच्छे लगते हैं, तब हम दूसरे के पास क्यों जाएँ ? भौर फूलों के पास जाकर ही मधु ग्रहण करता है तो वह कमल के पत्ते या फूल पर जाकर क्यों बैठेगा?

उस पर क्यों मँडराएगा। वह तो फूलों को पसन्द करता है। जैसे पतंगा दीपक की जलती हुई लौ पर चारों तरफ मँडराता रहता है जब कि उसे पता है कि वह उस आग में जल जाएगा। परन्तु वह फिर भी उसी दीपक से प्रेम करता है। उसे उससे संतुष्टि मिलती है उसको उसी के पास जाने में अपना कल्याण दिखाई देता है। सूरदास जी कहते हैं जिसको जिससे प्रेम होता है वह उसी को पसंद करता है। जिसके मन में जो बस गया है, वह उसी से जुड़ जाता है। किसी दूसरे से नहीं जुड़ता है। गोपियों के लिए कृष्ण, ऐसा ही हैं। वे उन्हें नही छोड़ सकती हैं और उन्हें कोई नहीं अच्छा लगता है।

विशेष[सम्पादन]

  1. इसमें गोपियाँ उद्धव की बातों को नहीं मानती हैं उन्हें उनका ज्ञान उचित नहीं लगता है। वे श्रीकृष्ण को ही चाहती हैं, क्योंकि वे उनके मन में बस चुके हैं दोनों में प्रगाढ प्रेम की पराकाष्ठा मिलती है।
  1. भाषा ब्रज है। पूरे पद में गोपियों की चाहत ही व्यक्त हुई है।
  2. ज्ञान पर भक्ति की विजय हुई है।
  3. पद में रसात्मकता है। इसमें लयात्मकता है।
  4. भक्ति की प्रधानता है।

शब्दार्थ[सम्पादन]

उधौ = उद्धव। माने = मानने पर। दाख = अंगूर । विष = ज़हर। अधात - तृप्त = होना। बधत = बंध जाता है। सुहात - अच्छा लगना। ताहि = उसे। सोई = वही। हित - भला। देइ = देना। तजि - छोड़ना। पात = पत्ता, पंखुड़ियाँ। जानि = जानकर। लपटात = लपेटना। जाको = जिसको। पतंग = पतंगा, कीड़ा। जासौं = जिससे। काठ - लकड़ी। मधुप = भौरा। कोउ = कोई भी। अंगार = आग। चकोर = पक्षी। करत = करना।