हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/कवितावली/(३)उत्तरकांड/(१)किसबी, किसान-कुल
सन्दर्भ
[सम्पादन]प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियाँ भक्तिकालीन सगुण भक्ति काव्यधारा के राम-भक्त कवि तुलसीदास का रचित 'कवितावली' के उत्तरकाण्ड से अवतरित है।
प्रसंग
[सम्पादन]जिसमें तुलसीदास ने तद्युगीन समाज का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। यहाँ तुलसीदास ने तत्कालीन सामाजिक दशा का चित्रण किया है-
व्याख्या
[सम्पादन]किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी ,भाट,
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी।।
पेटको पढ़त , गुन गढ़त , चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन अखेटकी।।
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम, करि,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी।
‘तुलसी’ बुझाइ ऐक राम घनस्याम ही तें,
आगि बड़वागितें बड़भ् है आगि पेटकी।।
आगि बड़वागितें बड़भ् है आगि पेटकी।।
श्रमिक, कृषक-वर्ग, व्यापारी बनिए, भिखारी, भाट, नौकर-चाकर, चंचल नट, चोर, हमारे-दूत तथा जादुई-तमाशा दिखलाने वाले सभी लोग अपने पेट को भरने के लिए पढ़ते हैं. अनेक गुणों को गढ़ते हैं, पर्वतों पर चढ़ते हैं और शिकारी के रूप में दिन-दिन भर घने जंगलों में इधर-उधर भटकते-भटकते घूमते हैं। यह पेट ऐसा ही बनाया गया है जिसको भरने के लिए मनुष्य नाना प्रकार के साहसिक एवं दुस्साहसिक कार्य करते रहते हैं-यहाँ तक कि अपने बेटे-बेटियों तक को भी बेच देते हैं। पेट की यह अग्नि ऐसी है कि जो कुटकराले-यही छोड़ा है। यह जटराग्नि बड़वारिन से भी कहीं बढ़कर है। पेट की यह आग (जठराग्नि) मेघ-रूपा श्री रामचंद्र जी से ही बुझ सकती है-कहने का आशय यह है कि प्रभु राम की कृपा के बिना मनुष्य की जठराग्नि कभी शांत नहीं हो सकती है। जिस प्रकार मेघ की वर्षा से अग्नि शांत होती है, उसी प्रकार राम की कृपा से यह जठराग्नि बुझ सकती है।
विशेष
[सम्पादन]1. यहाँ पर तत्कालीन सामाजिक दशा का चित्रण है।
2. इस पेट की खातिर सभी लोग नाना प्रकार के धर्म-अधर्म करते हैं-घूमते-फिरते हैं-उन्हें कहीं भी सच्चा सुख तथा शांति नहीं मिल पाती है इतस्ततः भटकना प्रभु राम की कृपा से ही दूर हो सकता है।
3. अलंकार-परिकर।
4. भाव-साम्य के लिए तुलसी का अन्य छंद देखिए-
"खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।
जीविका-विहीन लोग सीद्यमान, सोचवस,
कहैं एक एकन सों 'कहाँ जाई.' का करी?"
बेद हू पुरान कही, कोकहू बिलोकियत,
सांकरा सबै पै राम रावण कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दूनी दीनबंधु!
दुरित-दहन देखि 'तुलसी' हहा की।"
5. अवधी भाषा है।
6. 'साहित्य समाज का दर्पण होता है'-कथन यही चरितार्थ होते देखा जा सकता है।
शब्दार्थ
[सम्पादन]किसबी = मजदूर, श्रमिक,। चाकर = नौकर। चार - दूत, हरकारा। चेटकी - जादुई तमाशा दिखाने वाला जादूगर। अटक - भटकते-घूमते हैं। अहन - दिन भर। अखेटकी - शिकारी। बेटकी = पुत्री। धनस्याम = काला बादल, अग्नि को शांत करने में शब्द-प्रयोग की सार्थकता। बड़वागि = जल की अग्नि (समुद्र की अग्नि )। आगि पेट की = जठराग्नि (क्षुधा)।