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हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/रामचरितमानस/(१)देह बिसाल परम हरुआई।

विकिपुस्तक से

सन्दर्भ

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प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि तुलसीदास द्वारा रचित हैं। यह उनके महाकाव्य 'रामचरितमानस' से अवतरित हैं।

प्रसंग

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कवि ने वानर हनुमान की चर्चा की है। उन्होंने अपने विश्वास शरीर को धारण कर सारी लंका जला डाली, मगर विभीषण का घर नहीं जलाया। यह देख सारे लंकावासी हैरान थे बाद में वे माता सीता के समाने हाथ जोड़ कर खड़े हो गए। इस दौरान सारे नगर में हाहाकर मच गया था। उसी का वर्णन कवि ने यहाँ किया है-

व्याख्या

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देह बिसाल परम हरुआई। मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई॥

जरई नगर भा लोग बिहाला। झापट लपट बहु कोटि कराला॥

तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहि अवसर को हमहि उबारा॥

हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई।।

साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा।।

जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं ॥

ता करा दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥

उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिंधु मझारी॥


दोहा-पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।

जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि॥


हनुमान ने लंका में प्रवेश करके अपने शरीर को विशाल रूप में धारण कर लिया वे उस समय अपने को बहुत ही बड़ा कर चुके थे इतना ही नहीं वे उसी रूप में ही मंदिर से मंदिर पर चढ़ते जा रहे थे। उनकी पूँछ में आग लगी हुई थी' एक के बाद एक करके वे ऊंची-ऊंची चोटी वाले मंदिरों पर चढ़ते जा रहे थे। नगर के वासी लोग अपने में बेहाल हो रहे थे, क्योंकि आग की लपटें चारों ओर फैलती जा रही थीं। आग ने भयंकर रूप धारण कर लिया था लोग उसमें जलते जा रहे थे। हाहाकार मच गया था। सभी अपने पिता-माता तथा सगे-संबंधियों को पुकार रहे थे। यही अब अवसर जब हमें आकर कोई बचा सकेगा हमारे प्राणों की रक्षा करने वाले की जरूरत है। जो हमें बचा सके।

लंका के लोग कहने लगे कि हम तो पहले ही कह रहे थे कि यह कोई साधारण वानर नहीं है। यह वानर कोई देवता मालूम होता है। जिससे यह हाल कर दिया है। इस वानर ने सारी लंका ही जला दी है। जो साधु की अवज्ञ या अपमान करेगा, उसी का यह परिणाम निकलेगा। यह उसके अपमान करने का ही नतीजा है, जिसे हम भोग रहे हैं। इस वानर ने सारे नगर को बेसहारा या अनाथ बना दिया है। इस नगर को जलाने का कोई कारण तो होगा जो इसने ऐसा किया है। एक विभीषण का ही घर है, जिसे इसने नहीं जलाया है। बाकी सबको जला डाला है।

यह कैसा दृत पैदा हुआ है जिसने किसी कारणसे यह विनाश किया है। इसने उलट-पुलट करके सारी लंका हो जला दी है। जलाने के बाद यह सागर में जल के बीच में कूद पड़ा है। और अपनी आग बुझाली हैं उसकी पूँछ की आग बुझ गयी है। उसने अपने शरीर को भी छोटा कर लिया है। पुनः उसी रूप में वापिस आ गया है। जिसमें वह पहले था अब वह राजा जनक की पुत्री सीता के समाने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया है।

विशेष

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इसमें कवि ने हनुमान की शाक्ति का प्रदर्शन किया है। उसने सारी लंका को जला दिया है। लोग अपने में बेहाल हैं। सभी चकित हैं कि यह कैसा वानर है ? विभीषण को कुछ नहीं हुआ है। कवि ने वातावरण का सजीव वर्णन किया है। अवधी भाषा है। भाषा में चित्रात्मकता है। आधिकारिक भाषा है। भाषा में नाद-सौंदर्य

शब्दार्थ

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देह = शरीर। बिसाल = बड़ा आकार, विशाल। जरइ - जला दिया। भा - भर के। बिहाला = बेहाल होना, अस्त व्यस्त। बहु = बहुत। कोटि = करोड़ों। कराला = कराहना, घिर जाना। तात = मातु-पिता-माता। एहि = यही। उबारा = उबराना, बचाना। कपि = बंदर। सुर - देवता। धरे= धारण करता। अवम्या = अपमान करना। निमिष - कारण से। माही = हमारा। नाहीं - नहीं। गृह - घरा । अनल- आग। तेहि -किस। कारन - कारण। परा- पड़ा। सिंधु = सागर । मझारी - पानी के बीच में । श्रम - मेहनत, परिश्रम। लघु- छोटा। बहोरि- दुबारा, पुनः। जनकसुता = राजा जनक की पुत्री सीता। ठाढ़ - खड़े होना। जोरि - हाथ जोड़ कर।