हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/साँच कौ अंग/(२)कबीर जिनी जिनी जानिया......
सन्दर्भ
[सम्पादन]प्रस्तुत दोहा के रचयिता कबीरदास हैं। यह उनके 'साँच कौ अंग' से उद्धृत है, जो 'कबीर' ग्रंथावली में संकलित है।
प्रसंग
[सम्पादन]इसमें कबीर ने सृष्टि-कर्ता को जानने की बात कही है। यदि मनुष्य उसे जान ले तो वह झूठे संसार के पीछे क्यों चले? वह उसे नहीं समझ पाता है। इसलिए वह गलत मार्गपर चलने लगता है। इसी को वे कहते है कि-
व्याख्या
[सम्पादन]कबीर जिनी जिनी जानिया......झूठे जग की लार।।
जिस-जिस ने भगवान (सृष्टि-कर्ता) को केवल जानने की कोशिश की है वही अपने जीवन में सफ़ल रहा है। वह हमारे सामने सार (पदार्थ) के रूप में मौजूद है। उसे केवल जानने की आवश्यकता है। तब कोई भी प्राणी (जीव) झूठे संसार की ओर क्यों अपने को जोड़ेगा? अर्थात् उसे सच्चे मार्ग पर चलना चाहिए न कि झूठे मार्ग की तरफ़ चलने की सोचे। उसकी दुर्गति होनी निश्चित है। वह फिर कहीं का भी नहीं रहेगा।
विशेष
[सम्पादन]इसमें सधुक्कड़ी भाषा है। उपदेशात्मक शैली है। दोहा छंद है। मिश्रित शब्दावली का प्रयोग है। सहज साधना पर बल दिया गया है। भाषा में स्पष्टता है। सच्चाई पर चलने की सलाह दी है।
शब्दार्थ
[सम्पादन]जिनि = जिस-जिसने। जाँणियाँ - जानने, पहचानने, जाना। सार - निष्कर्ष पदार्थ। प्राणी- जीव। काहै = काह को, क्यों। चले = चलता है। जग-संसार। लार - संलग्नता, साथ में।