हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/साँच कौ अंग/(1)कबीर लेखा देणा सोहरा......

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सन्दर्भ[सम्पादन]

प्रस्तुत दोहा के रचयिता कबीरदास हैं। यह उनके 'साँच कौ अंग' से उद्धृत है, जो 'कबीर' ग्रंथावली में संकलित है।

प्रसंग[सम्पादन]

कबीर ने मनुष्य के कर्मों का लेखा-जोखा की सच्चाई पर बल दिया है। कर्मों की अच्छाई हो मनुष्य की रक्षा करती है। उसे कोई भी भय नहीं होता है। इसी का वे इसमें वर्णन कर रहे हैं वे कहते हैं-

व्याख्या[सम्पादन]

'कबीर लेखा देणा सोहरा......पला न पकड़े कोई।।

हे मनुष्य! कर्मों का लेखा-जोखा या हिसाब-किताब देना बहुत ही आसान है। जिसने जीवन में अच्छे कर्म किए होते हैं उसे किसी से भी डर नहीं लगता है। यदि मनुष्य का दिल सच्चा है तो तब उसे भगवान् के दरबार में कोई भी वस्त्र नहीं पकड़ सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी दरबार में उस का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है। कर्मों की अच्छाई ही उसे हमेशा बचाती है।

विशेष[सम्पादन]

इसमें कर्मों पर बल दिया गया है। उसी के अनुसार उसे फल मिलता है। कबीर की भाषा में स्पष्टता है। मिश्रित शब्दावली है। कवि ने उपदेशात्मक शैली अपनाई है। सहज साधना पर बल दिया गया है। उनकी भाषा सधुक्कड़ी है। दोहा छंद है। बिम्बात्मकता है।

शब्दार्थ[सम्पादन]

लेखा - कर्मों का हिसाब = किताब। देना = देना पड़ेगा। साँचा - सच्चा। होई = होता है। चंगे = अच्छा। दीवान = दरबार। मैं = में पला वस्त्र। सोहरा = जिनकी सुगमता से रक्षा की जा सके।