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हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/सारग्राही कौ अंग/(१)कबीर औगुँण ना गहैं......

विकिपुस्तक से

सन्दर्भ

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प्रस्तुत दोहा के कवि कबीर हैं। यह उनकी 'कबीर ग्रंथवली' से उद्धृत है। यह उनके 'सारग्राही कौ अंग' से अवतरित है।

प्रसंग

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कबीर जी कहते हैं कि हमें दूसरों के दोषों को नहीं लेना चाहिए। हमें गुणों की जरूरत होती है। गुणों से ही हमारा जीवन सफल होता है। हमारे अंदर उसी-की चाहत होनी चाहिए। वे इसी विषय में कहते हैं कि-

व्याख्या

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कबीर औगुन ना गह......पर आत्मा ले चीन्हि।।

हे मनुष्य ! तू दूसरों के दोषों अथात् अवगुणों को अपने मन में ग्रहण न कर बल्कि उन से दूर रहने की कोशिश कर ताकि तुझ में दोष उत्पन्न न होने पाएँ। जहाँ तक हो सके तू गुणों को ही अपने मन में ग्रहण कर ताकि तेरा जीवन सफल हो सके। गुणों से ही तेरा जीवन उन्नतशील बनेगा, दोषों से नहीं। जगह-जगह पर स्थिति मधु के मधुप के समान परमात्मा को पहचान ले। कहने का मतलब यह है कि हर जगह भगवान सा हुआ है, उसे केवल पहचानने की जरूरत है। तू उसी की खोज में लग जा। वह सर्वव्यापी है।

विशेष

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इसमें भगवान को सर्वव्यापक बताया है। उसे खोजने की जरूरत है। उसी की खोज में लगने के लिए ही इसमें कहा गया है। उसी के द्वारा ही जीवन सफल होगा। इसमें आंतरिक खोज तथा गुणों की अच्छाई को अपनाने के लिए ही कहा गया है। भाषा में स्पष्टता है। सधुक्कड़ी भाषा है। उपदेशात्मक शैली है। बिम्बात्म्कता है। प्रसाद गुण है ईश्वर की महत्ता पर बल दिया गया है। मिश्रित शब्दावली है।

शब्दार्थ

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औगुण = दोष, अवगुण। ग्रहण = ग्रहण करना। ना-न । बनी = बीनना, चुनना। घट-घट - जगह-जगह पर। मधु - स्थित। मधु - शहद। चीन्हि - पहचानना। ज्यूँ - समान।