हिंदी कविता (आधुनिक काल छायावाद तक)/सिद्धार्थ
१
[सम्पादन]घूम रहा है कैसा चक्र !
वह नवनीत कहां जाता है, रह जाता है तक्र ।
पिसो, पड़े हो इसमें जब तक,
क्या अन्तर आया है अब तक ?
सहें अन्ततोगत्वा कब तक-
हम इसकी गति वक्र ?
घूम रहा है कैसा चक्र !
कैसे परित्राण हम पावें ?
किन देवों को रोवें-गावें ?
पहले अपना कुशल मनावें
वे सारे सुर-शक्र !
घूम रहा है कैसा चक्र !
बाहर से क्या जोड़ूँ-जाड़ूँ ?
मैं अपना ही पल्ला झाड़ूँ ।
तब है, जब वे दाँत उखाड़ूँ,
रह भवसागर-नक्र !
घूम रहा है कैसा चक्र !
२
[सम्पादन]देखी मैंने आज जरा !
हो जावेगी क्या ऐसी ही मेरी यशोधरा?
हाय ! मिलेगा मिट्टी में यह वर्ण-सुवर्ण खरा?
सूख जायगा मेरा उपवन, जो है आज हरा?
सौ-सौ रोग खड़े हों सन्मुख, पशु ज्यों बाँध परा,
धिक्! जो मेरे रहते, मेरा चेतन जाय चरा!
रिक्त मात्र है क्या सब भीतर, बाहर भरा-भरा?
कुछ न किया, यह सूना भव भी यदि मैंने न तरा ।
३
[सम्पादन]मरने को जग जीता है !
रिसता है जो रन्ध्र-पूर्ण घट,
भरा हुआ भी रीता है ।
यह भी पता नहीं, कब, किसका
समय कहाँ आ बीता है ?
विष का ही परिणाम निकलता,
कोई रस क्या पीता है ?
कहाँ चला जाता है चेतन,
जो मेरा मनचीता है?
खोजूंगा मैं उसको, जिसके
बिना यहाँ सब तीता है ।
भुवन-भावने, आ पहुंचा मैं,
अब क्यों तू यों भीता है ?
अपने से पहले अपनों की
सुगति गौतमी गीता है ।
४
[सम्पादन]कपिलभूमि-भागी, क्या तेरा
यही परम पुरुषार्थ हाय !
खाय-पिये, बस जिये-मरे तू,
यों ही फिर फिर आय-जाय ?
अरे योग के अधिकारी, कह,
यही तुझे क्या योग्य हाय !
भोग-भोग कर मरे रोग में,
बस वियोग ही हाथ आय ?
सोच हिमालय के अधिवासी,
यह लज्जा की बात हाय !
अपने आप तपे तापों से
तू न तनिक भी शान्ति पाय ?
बोल युवक, क्या इसी लिए है
यह यौवन अनमोल हाय !
आकर इसके दाँत तोड़ दे,
जरा भंग कर अंग-काय ?
बता जीव, क्या इसीलिए है
यह जीवन का फूल हाय !
पक्का और कच्चा फल इसका
तोड़-तोड़ कर काल खाय ?
एक बार तो किसी जन्म के
साथ मरण अनिवार हाय !
बार-बार धिक्कार, किन्तु यदि
रहे मृत्यु का शेष दाय !
अमृतपुत्र, उठ, कुछ उपाय कर,
चल, चुप हार न बैठ हाय !
खोज रहा है क्या सहाय तू?
मेट आप ही अन्तराय ।
५
[सम्पादन]पड़ी रह तू मेरी भव-भुक्ति
मुक्ति हेतु जाता हूँ यह मैं, मुक्ति, मुक्ति, बस मुक्ति !
मेरा मानस-हंस सुनेगा और कौन सी युक्ति हैं
मुक्ताफल निर्द्वन्द चुनेगा, चुन ले कोई शुक्ति ।