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हिंदी कविता (छायावाद के बाद)/पानी की प्रार्थना

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हिंदी कविता (छायावाद के बाद)
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पानी की प्रार्थना
केदारनाथ सिंह

प्रभु,
मैं - पानी - पृथ्वी का
प्राचीनतम नागरिक
आपसे कुछ कहने की अनुमति चाहता हूं
यदि समय हो तो पिछले एक दिन का
हिसाब दूँ आपको
अब देखिए न
इतने दिनों बाद कल मेरे तट पर
एक चील आई
प्रभु , कितनी कम चीलें
दिखती हैं आजकल
आपको पता तो होगा
कहाँ गईं वे!
पर जैसे भी हों
कल एक वो आई
और बैठ गई मेरे बाजू में
पहले चौंककर उसने इधर उधर देखा
फिर अपनी लम्बी चोंच गड़ा दी मेरे सीने में
और यह मुझे अच्छा लगता रहा प्रभु
लगता रहा जैसे घूँट घूँट
मेरा जन्मांतर हो रहा है एक चील के कंठ में
कंठ से रक्त में
रक्त से फिर एक नई चील में।

फिर काफ़ी समय बाद
दिन के कोई तीसरे पहर
एक जानवर आया हकासा पियासा
और मुझे पीने लगा चभर चभर
इस अशिष्ट आवाज के लिए
क्षमा करें प्रभु
यह एक पशु के आनन्द की आवाज थी
जिससे बेहतर कुछ नहीं था उसके जबड़ों के पास
इस बीच बहुत से चिरई चुरुंग
मानुष अमानुष
सब गुजरते रहे मेरे पास से होकर
बल्कि एक बार तो ऐसा लगा
कि सूरज के सातों घोड़े उतर आए हैं-
मेरे करीब-प्यास से बेहाल
पर असल में जो आया
वह एक चरवाहा था
अब कैसे बताऊँ प्रभु -- क्योंकि आपको तो
प्यास कभी लगती नहीं-
कि वह कितना प्यासा था

फिर ऐसा हुआ कि उसने हड़बड़ी में
मुझे चुल्लूभर उठाया
और क्या जाने क्या
उसे दिख गया मेरे भीतर
कि हिल उठा वह
और पूरा का पूरा मैं गिर पडा नीचे
शर्मिंदा हूं प्रभु।
और इस घटना पर हिल रहा हूं अब तक
पर कोई करे तो भी क्या
समय ऐसा ही कुछ ऐसा है
कि पानी नदी में हो
या किसी चेहरे पर
झाँक कर देखो तो तल में कचरा
कहीं दिख ही जाता है

और इस घटना पर हिल रहा हूँ अब तक
पर कोई करे भी तो क्या
समय ही कुछ ऐसा है
कि पानी नदी में हो
या किसी चेहरे पर
झाँक कर देखो तो तल में कचरा
कहीं दिख ही जाता है!
पर चिन्ता की कोई बात नहीं
यह बाजारों का समय है
और वहाँ किसी रहस्यमय सृोत से
मै हमेशा मौजूद हूं
पर अपराध क्षमा हो प्रभु
और यदि मै झूठ बोलूं
तो जलकर हो जाऊं राख
कहते हैं इसमें-
आपकी भी सहमति है।