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हिंदी कविता (रीतिकालीन)/घनानंद

विकिपुस्तक से

सुजानहित

दोहे

(1)

रूपनिधान सुजान सखी जब तैं इन नैननि नेकु निहारे।

दीठि थकी अनुराग-छकी मति लाज के साज-समाज बिसारे।

एक अचंभौ भयौ घनआनंद हैं नित ही पल-पाट उघारे।

टारैं टरैं नहीं तारे कहूँ सु लगे मनमोहन-मोह के तारे।।

(2)

हीन भएँ जल मीन अधीन कहा कछु मो अकुलानि समानै।

नीर सनेही कों लाय कलंक निरास ह्वै कायर त्यागत प्रानै।

प्रीति की रीति सु क्यों समुझै जड़ मीत के पानि परें कों प्रमानै।

या मन की जु दसा घनआनंद जीव की जीवनि जान ही जानै।।

(3)

मीत सुजान अनीत करौ जिन, हाहा न हूजियै मोहि अमोही।

डीठि कौ और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरे रूप की दोही।

एक बिसास की टेक गहे लगि आस रहे बसि प्रान-बटोही।

हौं घनआनँद जीवनमूल दई कित प्यासनि मारत मोही।।

(4)

बंक बिसाल रंगीले रसाल छबीले कटाक्ष कलानि मैं पंडित

साँवल सेत निकाई-निकेत हियौं हरि लेत है आरस मंडित

बेधि के प्रान कर फिलिम दान सुजान खरे भरे नेह अखंडित

आनंद आसव घूमरे नैंन मनोज के चोजनि ओज प्रचंडित

(5)

देखि धौं आरती लै बलि नेकू लसी है गुराई मैं कैसी ललाई

मनों उदोत दिवाकर की दुति पूरन चंदहि भैंअंन आई

फूलन कंज कुमोद लखें घबआनंद रूप अनूप निकाई

तो मुख लाल गुलालहिं लाय के सौतिन के हिय होरी लगाई

(6)

पहिले अपनाय सुजान सनेह सों क्यों फिरि तेहिकै तोरियै जू.

निरधार अधार है झार मंझार दई, गहि बाँह न बोरिये जू .

‘घनआनन्द’ अपने चातक कों गुन बाँधिकै मोह न छोरियै जू .

रसप्याय कै ज्याय,बढाए कै प्यास,बिसास मैं यों बिस धोरियै जू .

(7)

रावरे रूप की रीति अनूप, नयो नयो लागत ज्यौं ज्यौं निहारियै।

त्यौं इन आँखिन वानि अनोखी, अघानि कहूँ नहिं आनि तिहारियै।।

एक ही जीव हुतौ सुतौ वारयौ, सुजान, सकोच और सोच सहारियै।

रोकी रहै न दहै, घनआनंद बावरी रीझ के हाथनि हारियै।।

(8)

आसहि-अकास मधिं अवधि गुनै बढ़ाय ।

चोपनि चढ़ाय दीनौं की नौं खेल सो यहै ।

निपट कठोर एहो ऐंचत न आप ओर,

लाडिले सुजान सों दुहेली दसा को कहै ।।

अचिरजमई मोहि घनआनद यौं,

हाथ साथ लाग्यौ पै समीप न कहूं

विरह-समीर कि झकोरनि अधीर,

नेह, नीर भीज्यौं जीव तऊ गुडी लौं उडयौं रहै ।।

लेखक परिचय

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