हिंदी गद्य का उद्भव और विकास ख/नमक का दारोगा

विकिपुस्तक से

नमकका दारोगा

जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वरदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौबारह थे। पटवारीगिरीका सर्वसम्मानित पद छोड़ छोड़कर लोग इस विभाग की बरकन्दाजी करते थे। इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचता था। यह वह समय था जब अङ्गरेजी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। फारसी का प्राबल्य था। प्रेम की कथाएँ और शृंगार रस के काव्य पढ़ कर फारसीदाँ लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे। मुंशी वंशीधर भी जुलेखकी विरह-कथा समाप्त करके मजनू और फरहादके प्रेम-वृत्तान्त को नल और नील की लड़ाई और अमेरिका के आविष्कार से अधिक महत्त्वकी बातें समझते हुए रोजगार की खोज में निकले। उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे। समझाने लगे, बेटा घर की दुर्दशा देख रहे हो। ऋण के बोझसे दबे हुए हैं। लड़कियाँ हैं, वह घास-फूस की तरह बढ़ती चली जाती हैं। मैं करारेपरका वृक्ष हो रहा हूँ, न मालूम कब गिर पड़ूँ। अब तुम्हीं [ ६४ ]घर के मालिक-मुख्तार हो। नौकरीमे ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीरका मजार है। निगाह चढावे और चादरपर रखनी चाहिये। ऐसा काम ढूँढ़ना जहां कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासीका चांद है, जो एक दिन दिखाई देता है और फिर घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसीसे उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है। इसीसे उसमे बरकत होती है। तुम स्वयं विद्वान् हो, तुम्हें क्या समझाऊँ। इस विषय मे विवेककी बडी आवश्यकता है। मनुष्यको देखो, उसकी आवश्यकता को देखो और अवसर देखो, उसके उपरान्त जो उचित समझो, करो। गरजवाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ-ही-लाभ है। लेकिन बेगरजको दांवपर पाना जरा कठिन है। इन बातोंको निगाह से बांध लो। यह मेरी जन्म भर की कमाई है।

इस उपदेश के वाद पिताजीने आशीर्वाद दिया। वंशीधर आज्ञाकारी पुत्र थे। ये बातें ध्यानसे सुनी और तब घरसे खडे हुए। इस विस्तृत संसारमें उनके लिये धैर्य अपना मित्र, बुद्धि अपनी पथदर्शक और आत्मावलम्बन ही अपना सहायक था। लेकिन अच्छे शकुनसे चले थे, जाते-ही-जाते नमक-विभागके दारोगा-पदपर प्रतिष्ठित हो गये। वेतन अच्छा और ऊपरी आय का तो कुछ ठिकाना ही न था। वृद्ध मुशीजीको यह सुख-सवाद मिला तो फूले न समाये। महाजन लोग कुछ नरम पडे, फलवारकी माशालता लहलहाई। पड़ोसियों के हृदयोंमें शूल उठने लगी।[ ६५ ] २

जाडे के दिन थे और रात का समय। नमक सिपाही, चौकीदार नशे में मस्त थे। मुंशी वंशीधर को यहाँ आये अभी छ: महीनों से अधिक न हुए थे, लेकिन इस थोडे समय मे ही उन्होंने अपनी कार्य-कुशलता और उत्तम आचार से अफसरो को मोहित कर लिया था। अफसर लोग उनपर बहुत विश्वास करने लगे। नमक के दफ्तर से एक मील पूर्व की ओर जमुना बहती थी उसपर नावों का एक पुल बना हुआ था। दारोगा जी किवाड बन्द किये मीठी नींद सोते थे। अचानक आस खुली तो नदी के प्रवाह की जगह गाड़ियों की गड़गडाहट तथा मल्लाहों का कोलाहल सुनायी दिया। उठ बैठे। इतनी रात गये गाडिया क्यों नदी के पार जाती है? अवश्य कुछ न कुछ गोलमाल है। तर्क ने भ्रम को पुष्ट किया। परदी पहनी, तमचा जेब में रखा और बात-की बातम घोडा बढाते हुए पुलपर आ पहुँचे। गाडियों को एक लम्बी कतार पुलके पार जाते देखी। डाटकर पूछा, किसकी गाडिया हैं ?

थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा। आदमियों मे कुछ कानाफूसी हुई,तब आगे वाले ने कहा-पण्डित अलोपीदीन की।

"कौन पण्डित अलोपीदीन?"

"दाताग जके।"

मुंशी वंशीधर चोंके। पण्डित अलोपीदीन इस इलाके सबसे प्रतिष्ठित जमींदार थे। लाखों रुपये का लेन देन करते थे, इधर छोटे से बड़े कौन ऐसे थे जो उनके ऋणी न हों। व्यापार भी बड़ा लम्बा चौडा था। बड़े चलते-पुरजे आदमी थे। अंगरेज [ ६६ ]अफसर उनके इलाकेमें शिकार खेलने आते और उनके मेहमान होते। बारहों मास सदाव्रत चलता था।

मुन्शीजी ने पूछा, गाड़ियां कहाँ जायँगी? उत्तर मिला, कानपुर। लेकिन इस प्रश्न पर कि इसमें है क्या, फिर सन्नाटा छा गया। दारोगा साहब का सन्देह और भी बढ़ा। कुछ देर तक उत्तर की बाट देखकर वह जोर से बोले, क्या तुम सब गूंगे हो गये हो? हम पूछते है, इनमें क्या लदा है?

जब इस बार भी कोई उत्तर न मिला तो उन्होंने घोडे़ को एक गाड़ी से मिलाकर बोरे को टटोला। भ्रम दूर हो गया। यह नमक के ढेले थे।

पण्डित अलोपीदीन अपने सजीले रथपर सवार, कुछ सोते कुछ जागते चले आते थे। अचानक कई गाड़ीवानोंने घबराते हुए आकर जगाया और बोले——महाराज। दारोगाने गाड़ियां रोक दी हैं और घाटपर खड़े आपको बुलाते हैं।

पण्डित अलोपीदीन का लक्ष्मी जी पर अखंड विश्वास था। वह कहा करते थे कि संसारका तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज्य है। उनका यह कहना यथार्थ ही था। न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हे वह जैसे चाहती नचाती है। लेटे-ही-लेटे गर्वसे बोले, चलो हम आते हैं। यह कह कर पण्डित जी ने बड़ी निश्चिन्तता से पान के बीड़े लगाकर खाये। फिर लिहाफ ओढ़े हुए दारोगा के पास आकर बोले, बाबूजी आशीर्वाद। कहिये, हमसे ऐसा कौन सा अपराध हुआ कि गाड़ियां[ ६७ ] दी गयीं। हम ब्राह्मणोंपर तो आपकी कृपादृष्टि रहनी चाहिये।

वंशीघर रुखाईसे बोले, सरकारी हुक्म।

पं॰ अलोपीदीनने हंसकर कहा, हम सरकारी हुक्मको नहीं जानते और न सरकारको। हमारे सरकार तो आप ही हैं। हमारा और आपका तो घरका मामला है, हम कभी आपसे बाहर हो सकते हैं? आपने व्यर्थका कष्ट उठाया। यह हो नहीं सकता कि इधरसे जाय और इस घाटके देवताको भेट न चढ़ावे। मैं तो आपकी सेवामें स्वयं ही आ रहा था। वंशीधरपर इस ऐश्वर्यकी मोहिनी वंशीका कुछ प्रभाव न पड़ा। ईमानदारीकी नई उमंग थी। कड़ककर बोले, हम उन नमकहरामोंमे नहीं हैं जो कौडियों पर अपना ईमान बेचते फिरते हैं। आप इस समय हिरासतमें हैं। सवेरे आपका कायदेके अनुसार चालान होगा। बस, मुझे अधिक बातोंकी फुर्सत नहीं है। जमादार बदलू सिंह। तुम इन्हें हिरासत में ले चलो, मैं हुक्म देता हूं।

पण्डित अलोपीदीन स्तम्भित हो गये। गाड़ीवानोंमें हलचल मच गयी। पडितजीके जीवनमें कदाचित यह पहला ही अवसर था कि पडितजीको ऐसी कठोर बातें सुननी पड़ी। बदलू सिंह आगे बढ़ा, किन्तु रोबके मारे यह साहस न हुआ कि उनका हाथ पकड़ सके। पडितजी ने धर्म को धनका ऐसा निरादर करते कभी न देखा था। विचार किया कि यह अभी उद्दण्ड लड़का है। माया मोहके जालमें नहीं पड़ा। अल्हड़ है, झिझकता है। बहुत दीनभावसे बोले, बाबू साहब। ऐसा न कीजिये, हम मिट जायंगे। [ ६८ ]अफसर उनके इलाके शिकार खेलने आते और उनके मेहमान होते। बारहों मास सदाव्रत चलता था।

मुन्शीजीने पूछा, गाडिया कहाँ जायेंगी? उत्तर मिला, कानपुर। लेकिन इस प्रश्न पर कि इसमे है क्या, फिर सन्नाटा छा गया। दारोगा साहब का सन्देह और भी बढा। कुछ देरतक उत्तर की बाट देखकर वह जोरसे बोले, क्या तुम सब गूंगे हो गये हो। हम पूछते हैं, इनमें क्या लदा है?

जब इस बार भी कोई उत्तर न मिला तो उन्होंने घोडे को एक गाडी से मिलाकर बोरेको टटोला । भ्रम दूर हो गया। यह नमकके ढेले थे।

पण्डित अलोपीदीन अपने सजीले रथपर सवार, कुछ सोते कुछ जागते चले आते थे। अचानक कई गाडीवानोंने घबराये हुए आकर जगाया और बोले—महाराज! दारोगाने गाड़ियां रोक दी हैं और घाटपर खड़े आपको बुलाते है ।

पण्डित अलोपीदीनका लक्ष्मीजीपर अखंड विश्वास था। वह कहा करते थे कि संसारका तो कहना ही क्या,स्वर्ग में भी लक्ष्मीका ही राज्य है। उनका यह कहना यथार्थ ही था और नीति सब लक्ष्मी ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे नचाती है। लेटे-ही-लेटे गर्वमे बोले,चलो हम आते हैं। यह कह पण्डितजीने घड़ी निश्चिन्तता से पानके बीड़े लगाकर खाये। फिर लिहाफ ओढ़े हुए दारोगाके पास आकर बोले, बाबूजी आशीर्वाद। कहिये, हमसे ऐसा कौन सा अपराध हुआ कि गाड़ियां [ ६९ ]रोक दी गयीं। हम ब्राह्मणोपर तो आपकी कृपादृष्टि रहनी चाहिये।

वंशीधर रुखाईसे बोले, सरकारी हुक्म।

प० अलोपीदीनने हंसकर कहा, हम सरकारी हुक्म को नहीं जानते और न सरकार को। हमारे सरकार तो आप ही हैं। हमारा और आपका तो घर का मामला है, हम कभी आपसे बाहर हो सकते हैं? आपने व्यर्थका कष्ट उठाया। यह हो नहीं सकता कि इधरसे जाय और इस घाट के देवता को भेंट न चढावे। मैं तो आपकी सेवा में स्वयं ही आ रहा था। वंशीधर पर इस ऐश्वर्य की माहिनी वंशीका कुछ प्रभाव न पड़ा। ईमानदारी की नई उमंग थी। कड़ककर बोले, हम उन नमक हरामों में नहीं हैं जो कौडियों-पर अपना ईमान बेचते फिरते है। आप इस समय हिरासत में है। सबेरे आपका कायदेके अनुमार चालान होगा। बस, मुझे अधिक बातों की फुर्सत नही है। जमादार बदलू सिंह तुम इन्हे हिरासतमें ले चलो, मैं हुक्म देता है।

पण्डित जी अलोपीदीन स्तम्भित हो गये। गाडीवानों में हलचल गया। पंडितजी के जीवन में कदाचित यह पहला ही अवसर था कि पंडितजी को ऐसी कठोर बातें सुननी पडी। बदलू सिंह आगे बढ़ा, किन्तु रोब के मारे यह साहस न हुआ कि उनका हाथ पकड़ सके। पंडितजी ने धर्म को धन का ऐसा निरादर करते कभी देखा था। विचार किया कि यह अभी उदण्ड लड़का है। मोह के जाल में नहीं पड़ा। अल्दड़ है, झिझकता है। बहुत दीनभाव से बोले, बाबू साहब ऐसा न कीजिये, हम मिट जायगे। [ ७० ]इज्जत धूल में मिल जायगी। हमारा अपमान करनेसे आपके क्या हाथ आवेगा। हम किसी तरह आपसे बाहर थोडे ही हैं?

वंशीधरने कठोर स्वर में कहा, हम ऐसी बाते नहीं सुनना चाहते।

अलोपीदीन ने जिस सहारेको चट्टान समझ रखा था, वह पैरों के नीचे से खिसका हुआ मालूम हुआ। स्वाभिमान और धन ऐश्वर्यको कडी चोट लगी। किन्तु अभीतक धन की, सांख्यिक शक्ति का पूरा भरोसा था। अपने मुख्तारसे बोले, लालाजी, एक हजार का नोट बाबू साहबकी भेट करो, आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं।

वंशीधरने गरम होकर कहा, एक हजार नहीं, एक लाख भी मुझे सच्चे मार्ग से नहीं हटा सकते।

धर्म की इस बुद्धिहीन धृष्टता और देव-दुर्लभ त्यागपर धन,बहुत झुझलाया। अब दोनों शक्तियों में संग्राम होने लगा। धनके उछल उछलकर आक्रमण करने आरम्भ किये। एक से पाँँच, पाँच से दस, दस से पन्द्रह और पन्द्रह से बीस हजार तक नौबत पहुँची किन्तु धर्म अलौकिक वीरताके साथ इस बहुसख्यक सेना के सम्मुख अकेला पर्वत की भाँति अटल, अविचलित खड़ा था।

अलोपीदीन निराश होकर बोले,अब इससे अधिक मेरा साहस नहीं। आगे आपको अधिकार है।

वंशीधरने अपने जमादारको ललकारा। बदलू सिंह मन मे दारोगाजी को गालियां देता हुआ पण्डित अलोपीदीनकी ओर बढ़ा। पण्डित जी घबड़ाकर दो-तीन कदम पीछे हट गये। अत्यन्त [ ७१ ]दीनता से वोले, बाबू साहब, ईश्वर के लिये मुझपर दया कीजिये में पच्चीस हजारपर निपटारा करने को तैयार हूँ।

"असम्भव बात है।"

"तीस हजार पर? "

"किसी तरह भी सम्भव नहीं?"

"क्या चालीस हजार पर भी नहीं?"

"चालीस हजार नहीं, चालीस लाखपर भी असम्भव है। बदलू सिंह। इस आदमी को अभी हिरासतमें ले लो। अब मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता।"

धमने धनको पैरोंतले कुचल डाला। आलोपीदीन ने एक हष्ट-पुष्ट मनुष्य को हथकडियां लिये हुए अपनी तरफ आते देखा। चारों ओर निराश, कातर दृष्टि से देखने लगे। इसके बाद यका- यक मूर्छित होकर गिर पड़े।

दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी। सबेरे ही देखिये तो बालक वृद्ध सबके मुंह से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिये वही पण्डितजी के इस व्यवहारपर टीका टिप्पणी कर रहा था, निन्दाकी बौछारें हो रही थीं, मानो संसारसे अब पाप-का पाप कट गया। पानी को दूध के नाम से बेचनेवाला पाला,कल्पित रोजनामचे भरनेवाले अधिकारीवर्ग, रेलमें बिना टिकट सफर करने वाले या लोग, जाली दस्तावेज बनाने वाले सेठ और साहूकार, यह सब के सब देवताओ की भाँति गरी चला रहे थे ।जब दूसरे दिन पण्डित जी अलोपीदीन अभियुक्त होकर कांस्टेबलों में [ ७२ ]साथ, हाथोंमे हथकडिया, हृदयमे ग्लानि और क्षोभ भरे,लज्जा से गर्दन झुकाये अदालत की तरफ चले तो सारे शहरमें हलचल मच गई। मेलोंमे कदाचित् आँखे इतनी व्यग्र न होती होंगी। भीड़ के मारे छत और दीवारमें कोई भेद न रहा।

किन्तु अदालत मे पहुँचनेकी देर थी। पण्डित अलोपीदीन इस अगाध वनके सिंह थे। अधिकारीवर्ग उनके भक्त, अमले उनके सेवक, वकील-मुख्तार उनके आज्ञापालक और अरदली चपरासी तथा चौकीदार तो उनके बिना मोलके गुलाम थे। उन्हें देखते ही लोग चारों तरफसे दौड़े। सभी लोग विस्मित हो रहे थे। इसलिये नहीं कि अलोपीदीन ने क्यों यह कर्म किया, बल्कि इसलिये कि वह कानूनके पंजे में कैसे आये? ऐसा मनुष्य जिसके पास असाध्यसाधन करनेवाला वन और अनन्य वाचालता हो वह क्यों कानून के पंजेमें आवे। प्रत्येक मनुष्य उनसे सहानुभूति प्रकट करता था। बड़ी तत्परतासे इस आक्रमण को रोकने के निमित्त वकीलोंकी एक सेना तैयार की गई। न्यायके मैदानमें धर्म और धनमें युद्ध ठन गया। वंशीधर चुपचाप खड़े थे। उनके पास सत्यके सिवा न कोई बल था न स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र। गवाह थे, किन्तु लोभ से डांवाडोल।

यहांतक कि मुंशीजी को न्याय भी अपनी ओरसे कुछ खिंचा हुआ देख पड़ता था, वह न्यायका दरबार था,परन्तु उसके कर्मचारियोंपर पक्षपातका नशा छाया हुआ था। किन्तु पक्षपात और न्याय का क्या मेल, जहां पक्षपात हो, वहा न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मुकद्दमा शीघ्र ही समाप्त हो गया। [ ७३ ]डिप्टी मैजिस्ट्रेटने अपनी तजवीन में लिखा, पण्डित अलोपीदीनके विरुद्ध दिये गये प्रमाण निर्मूल और भ्रमात्मक हैं। वह एक बड़े भारी आदमी है। यह बात कल्पनासे बाहर है कि उन्होंने थोडे लाभके लिये ऐसा दुस्साहस किया हो । यद्यपि नमक के दारोगा मुंशी वंशीधर का अधिक दोष नहीं है, लेकिन यह बडे खेदकी बात है कि उनकी उदण्डता और अविचारके कारण एक भलेमानस को कष्ट झेलना पड़ा। हम प्रसन्न हैं कि वह अपने काममें सजग और सचेत रहता है, किन्तु नमक के मुहकमेकी बढ़ी हुई नमकहलानी ने उसके विवेक और बुद्धिको भ्रष्ट कर दिया। भविष्य मे उसे होशियार रहना चाहिये।

वकीलों ने यह फैसला सुना और उछल पड़े। पण्डित अलोपीदीन मुस्कुराते हुए बाहर निकले। स्वजन वान्धवोंने रुपयोंकी लूट की। उदारताका सागर उमड़ पडा। उसकी लहरोंने अदालत की नींव तक हिला दी। जब वंशीधर बाहर निकले तो चारों ओर उनके ऊपर व्यंग्यवाणोंकी वर्षा होने लगी। चपरासियोंने झुक-झुककर सलाम किये। किन्तु इस समय एक-एक कटुवाक्य एक-एक संकेत उनकी गर्वाग्नि को प्रज्वलित कर रहा था। कदाचित इस मुकदमेमें सफल होकर वह इस तरह अकड़ते हुए न चलते। आज उन्हें संसारका एक खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ। न्याय और विद्वता, लम्बी-चौड़ी उपाधियां, बड़ी बड़ी दाढियां और ढोले चोगे एक भी सच्चे आदर के पात्र नहीं है।

वंशीधर ने धन से वैर मोल लिया था, उसका मूल्य चुकाना अनिवार्य था। कठिनता से एक सप्ताह बीता होगा कि मुअत्तली[ ७४ ]का परवाना आ पहुँचा। कार्यपरायणता का दण्ड मिला। बेचारे भग्न हृदय, शोक और खेदसे व्यथित घरको चले। बूढे मुंशीजी तो पहले ही कुड़बुडा रहे थे कि चलते चलते इस लड़के को समझाया था, लेकिन इसने एक न सुनी। बस मनमानी करता है। हम तो कलार और कसाई के तगादे सहे, बुढ़ापेमें भगत बनकर बैठे और वहा बस वही सूखी तनख्वाह। हमने भी तो नौकरी की है और कोई ओहदेदार नहीं थे, लेकिन जो काम किया, दिल खोलकर किया और आप ईमानदार बनने चले हैं। घरमे चाहे अन्धेरा, मस्जिदमे अवश्य दीया जलायेंगे। खेद ऐसी समझपर। पढ़ना लिखना सब अकारथ गया। इसके थोडे ही दिनों बाद, जब मुंशी वंशीधर इस दुरवस्थामें घर पहुँँच और बुढे़ पिताजीने यह समाचार सुना तो सिर पीट लिया। बोले, जी चाहता है कि तुम्हारा और अपना सिर फोड़ लू। बहुत देर तक पछता पछताकर हाथ मलते रहे। क्रोध में कुछ कठोर बात कहीं और यदि वंशीधर वहांसे टल न जाते तो अवश्य ही यह क्रोध विकटरूप धारण करता। वृद्धा माताको भी दुख-हुआ जगन्नाथ और रामेश्वर यात्राकी कामनाए मिट्टीमे मिल गई। पत्नीने तो कई दिनतक सीधे मुह से बात नहीं की।

इसी प्रकार एक सप्ताह बीत गया। सन्ध्या का समय था। बुढे मुशीजी बैठे राम-नाम की माला फेर रहे थे। उनके द्वारपर एक सजा हुआ रथ आकर रुका।हरे और गुलाबी परदे, पछहियेंं बैलोकी जोड़ी, उनके गर्दनोमें नील धागे सींग पीतलसे जड़ी हुई। कई नौकर लाठियां कंधोपर रखे साथ थे। [ ७५ ]मुन्शीजी अगुआनीको दौड़े। देखा तो पण्डित अलोपीदीन हैं। झुककर दण्डवत की और लल्लो-चप्पो की बाते करने लगे, हमारा भाग्य उदय हुआ, जो आपके चरण इस द्वारपर आये। आप हमारे पूज्य देवता हैं, आपको कौन-सा मुह दिखावे, मुह में तो कालिख लगी हुई है। किन्तु क्या करें, लड़का अभागा कपूत है, नहीं तो आपसे क्यों मुह छिपाना पड़ता? ईश्वर निस्सन्तान चाहे रक्खे, पर ऐसी सन्तान न दे।

अलोपीदीनने कहा, नहीं भाई साहब ऐसा न कहिये।

मुन्शी जी ने चकित होकर कहा, ऐसी सन्तानको और क्या कहूँ?

अलोपीदीनने वात्सल्यपूर्ण स्वरसे कहा, कुलतिलक और पुरुषोंकी कीर्त्ति उज्ज्वल करने वाले संसारमे ऐसे कितने धर्मपरायण मनुष्य हैं जो धर्मपर अपना सब कुछ अर्पण कर सके?

प० अलोपीदीनने वंशीधर से कहा, दारोगाजी, इसे खुशामद न समझिये, खुशामद करनेके लिये मुझे इतना कष्ट उठाने की जरुरत न थी। उस रातको आपने अपने अधिकार बल से मुझे अपनी हिरासत में लिया था, किन्तु आज मैं स्वेच्छासे आपकी हिरासतमें आया हूँ। मैंने हजारों रईस और अमीर देखे, हजारों उच्च पदाधिकारियोंसे काम पड़ा, किन्तु मुझे परास्त किया तो आपने। मैंने सबको अपना और अपने धन का गुलाम बनाकर छोड़ दिया। मुझे आज्ञा दीजिये कि आपसे कुछ विनय करू।

वंशीधरने अलोपीदीन को आते देखा तो उठकर सत्कार किया, किन्तु स्वाभिमान सहित। समझ गये कि यह महाशय मुझे लज्जित करने और लजाने आये हैं। क्षमा प्रार्थनाकी चेष्टा [ ७६ ]नहीं की वरन उन्हें अपने पिताकी यह ठकुरसुहातीकी बात असह्य-सी प्रतीत हुई। पर पण्डितजी की बातें सुनीं तो मनकी मैल मिट गयी। पण्डितजीकी ओर उड़ती हुई दृष्टि से देखा। सद्भाव झलक रहा था। गर्वने अब लज्जा के सामने सिर झुका दिया। शर्माते हुए बोले, यह आपकी उदारता है जो ऐसा कहते है। मुझसे जो कुछ अविनय हुई है, उसे क्षमा कीजिये। मैं धर्मकी बेड़ी मे जकडा हुआ था। नहीं तो वैसे मैं आपका दास हूँ। जो आज्ञा होगी, वह मेरे सिर-माथे पर।

अलोपीदीनने विनीत भावसे कहा, नदीके तटपर आपने मेरी प्रार्थना न स्वीकार की थी, किन्तु आज स्वीकार करना पड़ेगा

वंशीधर बोले, मैं किस योग्य हूँ, किन्तु जो कुछ सेवा मुझसे हो सकती है उसमे त्रुटि न होगी।

अलोपीदीनने एक स्टाम्प लगा हुआ पत्र निकाला और उसे वंशीधर के सामने रखकर बोले, इस पदको स्वीकार कीजिये और अपने हस्ताक्षर कर दीजिये। मैं ब्राह्मण हूँ, जबतक यह सवाल पूरा न कीजियेगा, द्वारसे न हटूंगा ।

मुंशी वंशीधर ने उस कागजको पढ़ा तो कृतज्ञतासे आँखों में आंसू भर आये। पण्डित अलोपीदीनने उन्हें अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियत किया था। छ हजार वार्षिक वेतन के अतिरिक्त रोजाना खर्च अलग, सवारीके लिये घोडे, रहनेको बगला, नौकर-चाकर मुफ्त। कम्पित स्वरसे बोले, पण्डित जी मुफ्त मे इतनी सामर्थ्य नहीं है कि आपको इस उदारताकी प्रशंसा कर सकूँ। किन्तु मैं ऐसे उच्चपद के योग्य नहीं हूँ। [ ७७ ]अलोपीदीन हँसकर बोले, मुझे इस समय एक अयोग्य मनुष्य की ही जरूरत है।

वंशीधर ने गंभीर भाव से कहा, यों मैं आपका दास हूँ। आप जैसे कीर्तिवान, सज्जन पुरुषकी सेवा करना मेरे लिये सौभाग्यकी बात है। किन्तु मुझमे न विद्या है, न बुद्धि, न वह अनुभव जो इन त्रुटियोंकी पूर्ति कर देता है। ऐसे महान कार्य के लिये एक बडे मर्मज्ञ अनुभवी मनुष्य की जरूरत है।

अलोपीदीनने कलमदानसे कलम निकाली और उसे वंशीधर के हाथ में देकर बोले, न मुझे विद्वताकी चाह है, न अनुभव की, न मर्मज्ञता की,न कार्यकुशलताकी। इन गुणोंके महत्वका परिचय खूब पा चुका हूँ। अब सौभाग्य और सुअवसर ने मुझे वह मोती दे दिया है जिसके सामने योग्यता और विद्वताकी चमक फीकी पड़ जाती है। यह कलम लीजिये, अधिक सोच विचार न कीजिये, दस्तखत कर दीजिये। परमात्मासे यही मेरी प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारेवाला, वेमुरौवत, उद्दण्ड, कठोर, परन्तु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाये रक्खे।

वंशीधर की आँखें डबडबा आई। हृदय के सचित पात्रमें इतना एहसान न समा सका। एक बार फिर पडितजीको ओर भक्ति और श्रद्धाकी दृष्टि से देखा और कांपते हुए हाथ से मैने बरीके कागज पर हस्ताक्षर कर दिये।

अलोपीदीनने प्रफुल्ल होकर उन्हें गले लगा लिया।

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[ ७८ ]नहीं की वरन् उन्हें अपने पिताकी यह ठकुरसुहातीकी बात असह्य-सी प्रतीत हुई। पर पण्डित जी की बाते सुनीं तो मनकी मैल मिट गयी। पण्डितजीकी ओर उड़ती हुई दृष्टिसे देखा। सद्भाव झलक रहा था। गर्वने अब लज्जाके सामने सिर झुका दिया। शर्माते हुए बोले, यह आपकी उदारता है जो ऐसा कहते हैं। मुझसे जो कुछ अविनय हुई है, उसे क्षमा कीजिये। मैं धर्मकी बेड़ी में जकड़ा हुआ था। नहीं तो वैसे मैं आपका दास हूँ। जो आना होगी, वह मेरे सिर-माथेपर। अलोपीदीनने विनीत भावसे कहा, नदीके तटपर आपने मेरी प्रार्थना न स्वीकार की थी, किन्तु आज स्वीकार करनी पड़ेगी।

वंशीधर बोले, मैं किस योग्य हूँ, किन्तु जो कुछ सेवा मुझसे हो सकती है उसमें त्रुटि न होगी।

अलोपीदीनने एक स्टाम्प लगा हुआ पत्र निकाला और उसे वंशीधरके सामने रखकर बोले, इस पदको स्वीकार कीजिये और अपने हस्ताक्षर कर दीजिये। मैं ब्राह्मण हूँ, जबतक यह सवाल पूरा न कीजियेगा, द्वारसे न हटूँगा।

मुंशी वंशीधरने उस कागजको पढ़ा तो कृतज्ञतासे आंखोंमें आंसू भर आये। पण्डित अलोपीदीनने उन्हें अपनी सारी जायदादका स्थायी मैनेजर नियत किया था। छ हजार वार्षिक वेतन के अतिरिक्त रोजाना खर्च अलग, सवारी के लिये घोड़े, रहनेको बंगला नौकर-चाकर मुफ्त। कम्पित स्वरसे बोले, पण्डितजी मुझपे इतनी सामर्थ्य नहीं है कि आपको हम उदारताकी प्रशंसा कर सकूँ। किन्तु मैं ऐसे उच्चपदके योग्य नहीं हूँ। [ ७९ ]अलोपीदीन हँसकर बोले, मुझे इस समय एक अयोग्य मनुष्य की ही जरूरत है।

वंशीधरने गंभीर भावसे कहा, यो मैं भापका दास हूँ। आप जैसे कीर्तिवान, सज्जन पुरुषकी सेवा करना मेरे लिये सौभाग्यका बात है। किन्तु मुझमें न विद्या है, न बुद्धि, न वह अनुभव जो इन त्रुटियोंकी पूति कर देता है। ऐसे महान् कार्य के लिये एक बड़े मर्मज्ञ अनुभवी मनुष्यकी जरूरत है।

अलोपीदीनने कलमदानसे कलम निकाली और उसे वंशीधर के हाथमें देकर बोले, न मुझे विद्वताकी चाह है, न अनुभवकी, न मर्मज्ञताकी, न कार्यकुशलताकी। इन गुणोंके महत्त्वका परिचय खूब पा चुका हूँ। अब सौभाग्य और सुअवसरने मुझे यह मोती दे दिया है जिसके सामने योग्यता और विद्वताकी चमक फीकी पड़ जाती है। यह कलम लीजिये, अधिक सोच विचार न कीजिये दस्तखत कर दीजिये। परमात्मासे यही मेरी प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदीके किनारेवाला, बेमुरौवत, उद्दण्ड, कठोर, परन्तु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाये रक्खे।

वंशीधर की आँखें डबडबा आई। हृदयके संकुचित पात्रमें इतना एहसान न समा सका। एक बार फिर पंडितजीकी ओर भक्ति और श्रद्धाकी दृष्टिसे देखा और काँपते हुए हाथसे मैनेजरीके काग़ज़ पर हस्ताक्षर कर दिये।

अलोपीदीनने प्रफुल्ल होकर उन्हें गले लगा लिया।

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