हिंदी पत्रकारिता/लघु पत्रिका आंदोलन

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लधु-पत्रिका आन्दोलन[सम्पादन]

भारत पर सन् 1962 में चीन के हमले और 1964 में नेहरू के निधनोपरान्त एक ओर जहाँ हरेक क्षेत्र में स्वान्त्र्योत्तर मोहभंग हो रहा था।वहीं दूसरी ओर नेहरूवादी एकछत्र सत्ता के बुर्जुआ लोकतंत्र में अन्तर्विरोध और दरारे उभरने लगी थी तथा समाजवाद, लोकतंत्र और धर्मनिरपोक्षिता विरोधी तमाम तरह की दक्षिणपंथी और मध्यममार्गी अवसरवादी ताकतें, मुख्य रूप से साम्प्रदायिक और हिन्दुत्ववादी दक्षिणपंथी शक्तियाँ गोलबन्द होकर शक्तिशाली हो रही थी। उन्हें अमेरिका के नेतृत्व में पश्चमी साम्राज्यवादी ताकतों, उनकी बहुराष्ट्रीय पूँजी तथा देशी इजारेदार पूँजीपति घरानों और उनकी पत्र-पत्रिकाओं का भरपूर समर्थन था। इसका असर तमाम सांस्कृतिक क्षेत्रों और साहित्यिक पत्रकारिता पर भी प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा था। सरकारी, अर्द्ध-सरकारी और प्रतिष्ठानी पत्र-पत्रिकाओं के साथ ही 'धर्मयुग', ‘सारिका’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘ज्ञानोदय’ जैसी सेठाश्रयी पत्रिकाओं ने गतिशील सोच के लेखकों, विशेष रूप से नए लेखकों के लिए प्रकाशन के अपने सभी दरवाज़े बद कर दिए । इसी के विरोध में हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओ में 1964-65 ई. से जबर्दस्त लघु- पत्रिका आदोलन चला । लेखकों के समूह छोटे-छोटे आयोजन कर अनेक पत्रिकाओं का प्रकाशन किया तथा नवोदित लेखकों को भी उसमें स्थान दिया जाने लगा । कई पत्र निकलने लगे । आकण्ठ, सुमनलिपि, यू.एस.एम. पत्रिका का लघुकथा विशेषांक, नाट्य विद्या विशेषांक, लोकनाट्यरंग विशेषांक, कविता विशेषांक आदि ने साहित्य को समृद्ध किया । वस्तुतः इस दौर में खास बात यह हुई कि 1967 ई. में नक्सलवादी आन्दोलन के सांस्कृतिक क्षेत्रों खासकर साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में उसका जबर्दस्त असर देखा गया । लघु-पत्रिकाओं का खासा बड़ा हिस्सा तथा नवजवान लेखकों-संस्कृतकर्मियों का बहुमत इस ओर आकर्षित होने लगा ।

फलस्वरूप 1969-70 से लधु-पत्रिका आन्दोलन ने जोर पकड़ा। इसके बाद 1995 तक या यों कहें कि 2000 तक साहित्यिक पत्रकारिता में मार्क्सवादी विचारधारा तथा व्यापक तथा प्रगतिशील और वामपंथी दृष्टिकोण से प्रतिबद्ध लेखकों, सम्पादकों तथा पत्र-पत्रिकाओं का वर्चस्व कायम रहा। वहीं ‘आलोचना’(नामवर सिंह एवं नन्दकिशोर नवल) के आलावा ‘पहल’ (ज्ञानरंजन), ‘लहर’ (प्रकाश जैन और मनमोहिनी), ‘कथा’ (मार्कण्डेय), ‘कलम’ (चन्द्रबली सिंह), ‘धरातल’, ‘कसौटी’(नन्दकिशोर नवल) और ‘समारम्भ’ (भैरवप्रसाद गुप्त) - जैसी श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाएँ अपने दौर की साहित्यिक पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करती है।