हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल)/प्रयोगवाद

विकिपुस्तक से

प्रयोगवादी कविता के जन्म के दो कारण माने गये हैं। एक सामाजिक और दूसरा साहित्यिक। मध्यवर्ग एवं उच्चवर्ग के पाटों के भीतर कवि पिसता जा रहा था या इस प्रकार का अनुभव कर था। सामाजिक जीवन में आयी गिरावट, परंपरा की जकड़ बंदी से छुटने की छटपटाहट, मुल्यों के नकार को उनकी संवेदनाओं ने ग्रहण किया। इस कविता को मध्यवर्ग की ह्रासोन्मुख जीवन का चित्रण करनेवाली कहा गया।

प्रयोगवाद तक आते-आते छायावाद के कोमल लक्षणा प्रधान एवं संस्कृतनिष्ठ वाायवीय कल्पना में कविता ने सार्थकता तथा अर्थवत्ता खो दी थी, तो प्रगतिवाद ने किसान-मजदूरों के यथार्थ चित्रण में अनिवादिता तथा प्रचारात्मक नारेबाजी की क्रांतियुक्त सामाजिकता के नाम पर सपाटबयानी, यांत्रिक अभिव्यक्ति की थी। ध्यान रहे प्रयोगवादी कवि भी मध्यवर्गीय रहे हैं। वे अपनी कोमल संवेदना तथा परिस्थिति के दबाव में इनका 'व्यक्ति' मानस-तनाव बढ़ता चला गया। सामाजिक बंधनों तथा आर्थिक संकटों का अनुभव वे करने लगे। अपने आपको वे समाज से कटा हुआ, हारा हुआ, और कहीं जड़ा हुआ न पाने लगे, टुटा हुआ देखने लगे। व्यक्ति स्वतंत्रता की सार्थकता को उन्होंने पहचाना उसी के आधार पर नयी समष्टि के साथ तादाम्य स्थापित करने की चेष्टा उन्होंने की परंतू उनके हाथों मोहभंग ही हर बार आया।

नामवर सिंह जी

डॉ. नामवरजी ने 'कविता के नये प्रतिमान' में स्पष्ट किया है की, "समकालीन संकट की स्वीकृति, मानसिक विभाजन का प्रतिरोध और यथार्थग्राही, यथातथ्य काव्य-भाषा का निर्माण-ये तीनों कार्य १९३८ ई. के आसपास ही शुरु हो गए थे। सिध्दांत के स्तर पर छायावाद भावुकता , आदर्शवाद और

उत्तरछायावादी बेफिक्री से भरी अल्हड़ता की निस्सारता सिध्द हो चुकी थी। आवश्यकता थी तो उसे सामुहिक प्रभावशाली रुप देने की। सन १९४३ में 'तारसप्तक' का प्रकाशन उसी आवश्यकता की पूर्ति है।"

सप्तक के सभी कवि अपनी-अपनी दृष्टि से अलग थे जैसे स्वंय अज्ञेय ने कहा है- वे सब किसी स्कूल के नहीं है किसी एक मंजिल पर पहुँचे हुए भी नहीं है, अभी राही है, राही नही, राहों के अन्वेषी। उनमें मतैक्य नहीं है, सभी महत्वपूर्ण विषयों पर उनकी राय अलग-अलग है- जीवन के विषयों में समाज, धर्म और राजनीति के विषय में काव्य-वस्तु और शैली के, छंद और तुक के, कवि दायित्वों के प्रत्येक विषय में उनका आपसी मतभेद हैं। यहाँ तक कि हमारे जगत के ऐसे सर्वमान्य और स्वयंसिध्द मौलिक सत्यों को भी वे समान रूप से स्वीकार नहीं करते जैसे लोकतंत्र की आवश्यकता, उद्योगों का सामाजीकरण, यांत्रिक युध्द की उपयोगिता, वनस्पति घी की बुराई अथवा काननबाला और सहगल के गानों की उत्कृष्टता आदि।

यही कारण है की परवर्ती काल में मुक्तिबोध, भवानीप्रसाद, शमशेर, रामविलास जैसे कवि प्रयोगवाद से अलग जीवन-संघर्ष, विचारधारा से जुड़ते गये। अज्ञेय से अलगता ही उनका वैशिष्ट्ये हो गयी। इन कवियों ने काव्य के कला एवं भाव पक्ष में नये प्रयोग से नवयुग लाया। जो रुढ़ता का विरोध कर नव-अन्वेषण का समर्थन करता है। वस्तुत: वे परंपराओं का विरोध नहीं करते, किन्तु उनमें आयी रुढ़ तथा निर्जीव तत्वों को त्यागकर नए जीवंत तत्व कविता में भरना चाहते है। नये का अन्वेषण व्यक्तिगत सत्य से व्यापक और उत्कर्षकारी होता है ऐसी धारणा इनकी रही है। इसी से वे समष्टि सत्य तक पहुँचना चाहते हैं । इसके लिए वे बौध्दिकता का पुरस्कार करते है। प्रत्येक अनुभूति में बौध्दिकता को भावुकता के स्थान पर रखते हैं । वर्ग की समस्त कुंठा, जड़ता, अनास्था, पराजय, मानसिक संघर्ष को वे बौध्दिकता से ही व्यक्त करते हैं । यथार्थ का नग्न रुप, रुग्ण रुप भी उनकी कविता में आया है। अत: अभिव्यंजना के लिए नये प्रतीक, उपमान, बिंब, भाषा-शैली में मनोविश्लेषण आदि का स्वीकार प्रयोगवाद की नई कविता से अलग प्रवृत्तियाँ है।

व्यक्तिवाद[सम्पादन]

प्रयोगवादी व्यक्तिवाद छायावादी व्यक्तिवाद से अलग है। प्रयोगवादी घोर व्यक्तिवादी है। उनका व्यक्तिवाद दो सीमान्तों के बीच फैला हुआ है। उनमें से एक सीमान्त है मध्यवर्गीय परिवेश के प्रति मध्यवर्गीय कवि का वैयक्तिक असंतोष और दूसरा सीमान्त है, जन-जागरण से डरे हुए कवि की आत्मरक्षा की भावना। कुल मिलाकर यह चरम व्यक्तिवाद ही प्रयोगवाद का केन्द्र-बिंदू है और विभिन्न राजनैतिक, नैतिक, सामाजिक मान्यताओं के रुप में यह संकीर्ण व्यक्तिवाद अपने को व्यक्त करता है।

प्रयोगवादी कवि अपने आपको मध्यवर्ग से कटा हुआ महसूस करता है। जिसके परिणाम स्वरुप वह अधिक अहंवादी, आत्मकेंद्रित होता गया। आत्मरक्षा के लिए ही वह अपने आप में सिमटकर रहने लगा। उनका अस्तित्व उन्हें कहीं नहीं दिख रहा था। हर जगह सामुहिकता के दबाव में वह बौनापन महसूस कर रहा था। इससे दूर करने की चाह भी उनमे रहीं है। ऐसे में छोटा हो कर रहना और विराट व्यक्तित्व धारण कर लेने का भाव प्रयोगवाद की विशेषता है। जैसे धर्मवीर भारती कहते है-

हर मनुष्य बौना है लेकिन

मैं बौनों में बौना ही बनकर रहता हूँ
हारो मत, साहस मत छोड़ो
इससे भी अथाह शुन्य में

बौनों ने ही तीन पगों में धरती नापी

कवि अपनी वैयक्तिकता से सुरक्षित रहना चाहता है किन्तु समुह दबाव में यह असंभव लगता है। फिर अनुकूल समय पाकर अपने आपको समाज में जड़ा पायेगा का विश्वास भी रखता है। अज्ञेय की 'नदी के द्वीप' इसी प्रकार की है-

हम नदी के द्वीप

स्थिर समर्पण हमारा....
फिर छनेंगे हम... कहीं फिर पैर टेकेगें

कहीं फिर खड़ा होगा नये व्यक्तित्व का आकार

वस्तुत: प्रयोगवादी कवि अपनी सामाजिक उपयोगिता को वैयक्तिकता से सिद्ध करना चाहते है। पलायनवादी प्रवृत्तियों का विरोध करके आरम्भिक व्यक्तिवादी प्रयोगवाद ने "प्रतिरोध' और "युयुत्सु-भाव" का नारा दिया। संभव है यह प्रगतिवाद की अति सामाजिकता के विरोध में अति व्यक्तिवादी हो गये। छायावाद का व्यक्तिवाद अलौकिता तथा रहस्यवादी भावना में बदलता है किन्तु प्रयोगवादी व्यक्ति संकीर्णता के कारण अपने में ही सिमटकर रह जाता हैं। फिर अपने दुःख, पीड़ा बोध को माँजना शुरु करता है जैसे अज्ञेय कहते हैं-- "दु:ख सबको माँजता है" फिर कहा की वह, "सबको मुक्त होने की सीख देता है, उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।" दुःख आत्मा की शुद्धि करता है कि भावना से भी उसका विश्वास उठता गया और 'स्थिर समर्पण' करता चला गया परंतु उसमें भी व्यक्तिगत अहं ही अधिक रहा। यह 'अहं' ही उसे सामाजिक होने से रोकता है। किन्तु उसका मन मात्र उसका आकांक्षी रहा है। अज्ञेय प्रारंभ से मध्यवर्ग के विरुद्ध वैयक्तिक असंतोष उगाल रहे थे, वस्तुत: अज्ञेय का व्यक्तित्व ही मध्यवर्ग का है प्रकारांतर से यह कह सकते है कि यह मध्यवर्ग की सचाई का आईना हैं।

निराशा और अनास्था[सम्पादन]

निराशा और अनास्था प्रयोगवादी कवियों की दुसरी प्रमुख विशेषता है। डॉ. नामवरजी ने उसके मुल में 'अहंवाद' को माना है। जिसको वे पहचानते भी है-

अहं! अन्तर्गुहावासी! स्वरति! क्या में चिन्हता

कोई न दूजो राह?

जानता क्या नहीं निज में बद्ध होकर है नहीं निर्वाह?

इसलिए वे जीवन से पलायन नहीं करते है बल्कि निराशा के विभिन्न स्तरों की अभिव्यक्ति करते हैं। वस्तुतः यह निराशा वर्तमान युग-जीवन के प्रति अनास्था के कारण आयी है। वे जीवन में व्याप्त यांत्रिकता, सामाजिक अस्वीकार्यता, से विफलता के अनुभव रुप में उनके व्यक्तित्व में आयी है। एक प्रकार की कुंठावस्था उनमें पैदा हो जाती है। उन पर व्यंग्य करती है। इस प्रकार के दुःख को वे मूकता से सहने के अलावा कुछ कर भी नहीं सकते थे-

मुझपर व्यंग्य करती है

मेरी ही परछाइयाँ

दर्द ये किससे कहूँ

का भाव सर्वेश्वर जैसे कवि मन में निर्माण होता है। छायावाद की तरह इनकी निराशा अध्यात्म या प्रकृति सौंदर्य की ओर नहीं मुड़ती न ही प्रगतिवादयों की तरह इसे दूर करने के लिए क्रांती का हथियार उनके पास है। इसलिए वे उनके कारणों का अन्वेषण करते है। इसको दूर करने का विश्वास व्यक्त करते है, यहीं पर हम कह सकते है की जीवन यथार्थ से यह कवि भाग खड़ा नहीं होता बल्कि अपनी सार्थकता, औचित्य को प्रमाणित करता है-

द्वीप हैं हम! यह नहीं है शाप। यह अपनी नियती है।

हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी की क्रोड में।
वह बृहत भूखंड से हम को मिलाती है।
और वह भूखंड अपना पितर है।
नदी तुम बहती चलो।
भूखंड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है,
माँजती, सस्कार देती चलो। यदि ऐसा कभी हो
 
तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के,
किसी स्वैराचार से, अतिचार से,
तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे -
यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल,
प्रावाहिनी बन जाए -
तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर।
फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।

मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।

निराशा, अनास्था को आस्था में परिवर्तित करने का साहस इन कवियों में है। अज्ञेय, मुक्तिबोध एक प्रकार से संघर्ष का रास्ता अपनाते है।

बौद्धिकता का प्राधान्य[सम्पादन]

प्रयोगवादी कवियों ने अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति में बौद्धिकता का अधिक प्रयोग किया। भावना या रागात्मकता कहीं पर भी नहीं है जहाँ है वहाँ वह प्रश्नांकित है। इसी प्रश्न को धर्मवीर भारती ने बौद्धिकता कहा है। बौद्धिक युग में बौद्धिक दृष्टि का स्वीकार यह कवि करते है। अज्ञेय ने अपनी कविता 'हरी घास पर क्षण भर' में बौद्धिकता को प्रतिष्ठित किया है। समाज से ये भयभीत मन प्रेम की भावूकता की जगह बौद्धिकता या विशेष तर्कवाद को व्यक्त करते है की दुनिया सोच सकती है कोई न जाने क्या सोचे इसलिए वह कहते है--

चलो उठे अब

अब तक हम थे बंधु
सैर को आए-
और रहे बैठे तो
लोग कहेंगे
धुंधले में दुबके दो प्रेमी बैठे है।
वह हम भी हो भी

तो यह हरी घास ही जाने।

शायद इसी बौद्धिकता के कारण ही अज्ञेय ने केशवदास की प्रशंसा की और अंग्रेजी कवि बेन जानसन से उनकी तुलना कर उनकी श्रेष्ठता को स्वीकारा। शुक्ल जी ने केशव को हृदयविहीन कहा था अज्ञेय 'केशव की कविताई' शीषर्क संवाद दृष्टाव्य है। बौद्धिकता का परिणाम ही है की वह छायावाद की किशोर भावूकता को छोड़कर अपनी प्रिया को 'कलगी बाजरे' कहा जाने लगा है--

अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका

अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई,
टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है

या कि मेरा प्यार मैला है।

लघुता के प्रति दृष्टिपात[सम्पादन]

एक ओर प्रयोगवादी कवियों ने अपने आपको लघु अर्थात सामान्य उपेक्षित मानव के रुप में काव्य में चित्रित किया है तो दुसरी ओर लघु और शुद्र प्राणीयों को उच्च मानव रूप में रखकर उनके सौंदर्य का, विशेषता का, मानवता का वर्णन किया है। लघु मानव की दमित वासना, सुख दुःख और अस्तित्व की लघुता इनकी विशेषता है। लघु वस्तुओं का चित्रण कविता में आया,‌ पहली बार 'कंकरीट के पोर्च', 'चाय की प्याली', 'सायरन', 'रेडियम की घड़ी', 'चुड़ी का टुकड़ा', 'बाथरुम', 'गरम पकौड़ी', 'बाँस की टुटी हुई टट्टी', फटी ओढ़नी की चिंदियाँ', 'मूत्र-संचित मृत्तिका के वृत्त में तीन टाँगों पर खड़ा नतग्रीव धैर्यधन गदग', 'बचे', 'दइमारे पेड़', बाटा चप्पल', 'साइकिल', फ्रेंच लेदर, 'कुत्ता', 'वेटिंग रुम', होटल. 'दाल', 'तेल' 'हींग', 'हल्दी', 'फटा कोट' आदि से इनकी कविता बनी है। अनन्त कुमार 'पाषाण' की कविता का उदाहरण देखिए--

दिन मर गया है, में भी मर गया हूँ,

हींग और हल्दी से वासित मेरी बीबी मगर अभी जिंदा है!
और उसके पेट में कुछ और नयी जिन्दगी है,

मेरा कोट फटा है उसने ही सिया है।

इस प्रकार उदात्तता की जगह क्षुद्रता का वर्णन प्रयोगवादीयों ने किया है। छायावाद की कल्पनाशिल्पता की जगह इन कवियों में यथार्थ वाद का आग्रह रहा है। उदाहरण के लिए छायावादी कवि ने जहाँ चाँदनी का बड़ा भव्य चित्रण किया है वह प्रयोगवादी ने 'शिशिर की राका-निशा' का यथार्थ प्रस्तुत किया है-

वंचना है चाँदनी

झूठ वह आकाश का निरवधि गतन विस्तार
शिशिर की राका-निशा की शान्ति है निस्सर
दूर वह सब शांति, वह सित भव्यता, वह
शून्य के अवलेप का प्रस्तार-
इश्वर केवल झिलमिलाते
चेत-हर, दुर्धर कुहासे की हलाहल-स्निग्ध मुट्ठी में
सिहरते से, पंगु, टुण्डे,

नग्न बच्चे, दइमारे, पेड!

राका-निशा के भीतर की कुरुपता का चित्र यहाँ प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार साधारण से साधारण विषयों को कविता में प्रयोगवाद ने उपस्थित किया है। आलोचकों ने इस प्रकार की साधारणत की आलोचना भी की है।

यथार्थ की कुरुपता का चित्रण[सम्पादन]

प्रयोगवादी कवि अतियथार्थवादीता को ग्रहण कर जीवन की कुरुपता को, विकृति को सही ढंग से सामाजिकों के सामने लाना चाहता हैं। आलोचकों ने इसे नग्न सौंदर्य चेतना या विकृत रुचि भी कहा है किन्तु इस प्रकार की कुरुपता का, असुंदरता के चित्रण में भी वह सौंदर्य-रुची दिखाता है। अज्ञेय कहते है-

मूत्र- संचित मृत्तिका के वृत्त

में
तीन टाँगों पर खड़ा नत ग्रीव

धर्म धन गदहा।

अथवा मद्राराक्षस कहते

मुहब्बत एक गिरे हुए गर्भ के बच्चे सी होती है

चाहत वह, मजबूरी हो सकती है,

जिसे मरीज खाँस कर थूक न सके।

मध्यवर्गीय विवशता से उपजी यथार्थता प्रयोगवादी कविता की प्रमुख विशेषता है। अतियथार्थ ने कविता को नग्नता की ज़मी पर लाने का काम यहां किया है।

अति नग्न यथार्थवाद[सम्पादन]

छायावादी कवियों ने अपनी नग्न भावनाओं को प्रकृति सौंदर्य के भीतर व्यक्त किया है। शायद कवि सामाजिक बंधनों को स्वीकार्य समझता हो परंतू प्रयोगवादी कवियों ने सामाजिक दृष्टि से प्रतिबंधित या अव्यक्त काम वासना के नग्न यथार्थ को अपनी कविता में लाया है। अपनी कुंठाओं, दमित वासनाओं अतृप्त इच्छाओं का खुलकर वर्णन प्रयोगवाद की विशेषत है। काम जीवन का उत्स है, परंतू प्रयोगवादी कविता में वह विकृत भौंडे रुप में प्रस्तुत किया है। वस्तुत: अज्ञेय आदि पर फ्रायड, लारेन्स का प्रभाव अत्याधिक रहा है। अनंतकुमार पाषाण की कविता में भी यह देखने के लिए मिलता है--

मेरे मन की अंधियारी कोठरी में

अतृप्त आकांक्षा की वेश्या बुरी तरह खाँस रही है।
पास घर आये तो

दिन भर का थका जिया मचल-मचल जाये।

या शकुंतला माथुर की कविता 'सुहाग बेला'--

चली आई वेला सुहागिन पायल पहने...

बाण विद्ध हरणी सी
बाँहों में लिपट जाने की,

मोती की लड़ी समान।

संभोग वृत्ति का चित्रण यहाँ किया गया है। सुहागिन को 'बाण विद्ध हरणी' बनाया है, बाण को पुरुषेन्द्रिय की उपमा दी गई है। यौन भावनाओं का चित्रण खुलकर प्रयोगवादी कविताओं में हुआ है।

प्रेम का स्वरुप[सम्पादन]

प्रयोगवादीयों के प्रेम में नग्नता, मांसल-बोध अधिक है। छायावादी कवियों का प्रेम शालीनता में बंधा था, इसलिए उन्होंने चिर विरह को व्यक्त किया किन्तु प्रयोगवादी कवि विरह नहीं चाहता वह मांसल उत्तप्त शरीर पाने के लिए उत्सुक है। प्रेम का यह नया रुप फ्रायड, लारेन्स के प्रभाव से हिन्दी में आया। अज्ञेय 'सावन मेघ' में इसी प्रेम को व्यक्त करते है--

घिर गया नभ, उमड़ आये मेघ काले,

भूमि के कंपित उरोजों पर झुका-सा
विशद, श्वासहत, चिरातूर
छा गया इंद्र का नील वक्ष
वज सा, यदि तड़ित् से झुलसा हुआ-सा।
आह! मेरा श्वास है उत्तत्प
धमनियों में उमड़ आई है लहू की धार
प्यार है अभिशप्त

तुम कहाँ हो नारी?

'सावन मेघ' यहाँ काम-व्यग्र पुरुष का रुपक है तो 'स्नेह से प्लावित' बीज के कवितव्य से उत्फुल, सत्य-सी निर्लज्ज, नंगी ओ 'समर्पित' जो धरित्री है, वही नारी है। काम को इन कवियों ने पाप नहीं माना, न ही शाप बल्की वह उसके जीवनानंद भोग से परितृप्त होना चाहता है। कनुप्रिया में धर्मवीर भारती कुछ उसी भाव को व्यक्त करते है--

अगर मैंने किसी के होंठ के पाटल कभी चूमे,

अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चुमे,
अगर मैंने किसी की मदभरी अंगडाइयाँ चूमी,
अगर मैंने किसी की साँस की पुरवाइयाँ चूमी,
महज इससे किसी का प्यार मुझपर पाप कैसे हो?

महज इससे किसी का स्वर्ग मुझपर शाप कैसे हो?

इनका यौन-सुख-शारिरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर चलता पलता है। उसे वे क्षणभंगुर नहीं मानते, न ही इससे संतुष्ट होते है। ऐन्द्रिय सुख के सौंदर्य पर वे खुलते और खिलते है। इसलिए बार-बार उसकी कामना करते है-

कौन कहता है कि ऐंद्रिक सुख

सीमित है, भंगुर है।
तुम्हे पाकर
हररुप, रस, गंध, गान में
जाने कैसी यह अनंतता अगाधता गा गई है:
कि हर भोग के शेष में
अनायास किसी नुतन भोग का
कल्प-काम कमल खिल उठता है:
हर रुप-सौंदर्य के डोर पर पहुँचते ही
और भी नवीनतर, गहिनतर, विपुलतर

सौंदर्य-लोक का द्वार औचक ही खुल पड़ता है।

डॉ. नामवरजी के शब्दों मे कहे तो छायावाद का छुई-मुई सा प्रेम अब मांसल रूप में प्रकट होने लगा। सौंदर्य अब दूर से देखने की चीज़ नहीं रहा, भोगने और तृप्त होने का हो गया। स्वयं अज्ञेय ने अपनी अनेक कविताओं में नारी, प्रेम, मादकता, ऐन्द्रिकता के चित्रण किये है। 'नख-शिख' और देहवल्ली इसके उदाहरण है।

तुम्हारी देह

मुझको कनक-चम्पे की कली है
दूर ही से

स्मरण में भी गंध देती है।

प्रिया याद में वे पराजय बोध का अनुभव करते है। अज्ञेय का बौद्धिक, अभिमानी हदय प्रेम में भावक हो नहीं पाता डॉ० नामवर ने ठीक लिखा है की अज्ञेय जैसे दर्द अभिमानी कवि ही इस पराजय की विकलता का अनुभव कर सकता है। यह अभिमान उन्हें आँसु भी बहाने नहीं देता-"प्यार में अभिमान की कसक पर होने नहीं देती" कविता में वें विफलता व्यक्त करते है।

प्रणय के खुलकर चित्रण के साथ प्रेम में बौद्धिकता आयी है। अज्ञेय ने 'तारसप्तक' की भूमिका में कहा है-- आधुनिक युग का साधारण व्यक्ति सेक्स संबंधी वर्जनाओं ने आक्रांत हैं, उसका मस्तिष्क दमन की गई सेक्स की भावनाओं से भरा हुआ था। इसलिए उसकी सौंदर्य भावना भी सेक्स से पीड़ित है और यही कारण है कि प्रयोगवादी कवि में न तो प्रेम का सामाजिक रुप है, न रहस्यात्मक आवरणवाला और न छायावाद का-सा सुक्ष्म एवं भावात्मका मनोविश्लेषण का स्वच्छंद रुप इनकी कविताओं में भरा पड़ा है।

क्षणवाद[सम्पादन]

क्षण भाव को जीवन की शाश्वतता के रुप में और साहित्य सृजन के रूप में प्रयोगवादी कवियों ने देखा है। व्यक्ति जीवन में क्षणभर का सुख संपूर्ण जीवन को परीतृप्ति देता है। क्षणभर का अनुभव कविता सर्जन करने की क्षमता देता है। फिर 'तत्क्षण', 'जागरण के क्षण', देशकाल मुक्ति के क्षण को लेकर अनेक कविता अज्ञेय ने लिखी है। जैसे 'सर्जना के क्षण', 'मैंने देखा एक बूंद' 'होते है क्षण' कविताएँ महत्वपूर्ण है--सर्जना के क्षण कवि के अनुसार लम्बे नही होते--

एक क्षण-भर और

लंबे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते।
बूंद स्वाती की भले हो
बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से
वज जिससे फोडता चट्टान को
भले ही फिर व्यथा के तम में
बरस पर बरस बीतें

एक मुक्ता-रूप को पकते

'मैने देखा एक बूंद' में तत्क्षण का दर्शन और अभिव्यक्ति के रुप दिखाई देते है--

मैने देखा

एक बूंद सहसा
उछली सागर के भाग से
रंगी गयी क्षणभर

ढलते सुरज की आग से।

या जागरण के क्षण की खोज को देखा जा सकता है--

बरसों मेरी नींद रही।

वह गया समय की धार में जो
कौन मुर्ख उसको वापस माँगे?
मैं आज जाकर खोज रहा हूँ

वह क्षण जिसमें जागा हूँ।

देश-काल मुक्त क्षणों को न हम दोहरा सकते है, 'न तो अपनी इच्छा से ला सकते है--

उनका होना, जीना, भोगा जाना
है स्वैरसिध्द, सब स्वत:पूर्त
"(--हम इसीलिए तो गाते है।)"

अर्थात क्षण अपने आप में परिपूर्ण है समग्र है--

एक क्षण! होने का

अस्तित्व का अजस्त्र अद्वितीय क्षण!
होने के सत्य का
सत्य के साक्षात का
क्षण के अखंड पारावार का

आज हम अचमन करते है।

धर्मवीर भारती की कनुप्रिया की राधा भी प्रेम जीवन की तन्मयता के क्षणों में ही जीवन की सार्थकता देखती है। उसके अलावा जीवन की सार्थक क्या होगी का प्रश्न ही वह पुछती है--

अच्छा मेरे महान कनु

मान लो कि क्षणभर को
मैं यह स्वीकार करती हूँ
कि मेरे ये सारे तन्मयता के गहरे क्षण
सिर्फ भावावेश थे
सुकोमल कल्पनाएँ थी
रंगे हुए आकर्षक शब्द थे

तो सार्थक फिर क्या है कनु?

हम कह‌ सकते हैं क्षण की क्षणिकता, जीवन की अनंतता के रुप में प्रयोगवादी कविता में चित्रित हुई है।

विद्रोह की भावना[सम्पादन]

प्रयोगवादीयों का विद्रोह काव्य के कला एवं भाव पक्ष दोनों के प्रति है। मध्यवर्ग ने मध्यवर्गीय कवि की ओर ध्यान ही उस काल में नहीं दिया तो मध्यवर्ग का यह कवि विद्रोह के तीव्र उद्गार व्यक्त करता है। वस्तुत: छायावाद की कल्पना और सौंदर्य से मुक्त कमनीय भाव-भाषा और प्रगतिवाद की अत्याधिक सामाजिकता के प्रती प्रयोगवाद का विद्रोह व्यक्त हुआ है।

निराला के 'कुकुरमुत्ता' का विद्रोही समय और समाज प्रयोगवादी काल में भी रहा है। अज्ञेय खुले रूप में 'आह्वान' में शोषको के प्रति आह्वान करते है--

ठहर, ठहर, आततायी! जरा सुन ले!

मेरे क्रुद्ध वीर्य की पुकार आज सुन जा!
रागातीत, दर्पस्फीत, अतल, अतुलनीय, मेरी अवहेलना की टक्कर सहार ले
क्षण-भर स्थिर खड़ा रह ले-मेरे दृढ़ पौरुष की एक चोट सह ले!

नूतन प्रचंडतर स्वर से, आततायी! आज तुझ को पुकार रहा मैं-
रणोद्यत, दुर्निवार ललकार रहा मैं!
कौन हूँ मैं?-तेरा दीन-दु:खी, पद-दलित पराजित
आज जो कि क्रुद्ध सर्प-से अतीत को जगा

'मैं' से 'हम' हो गया
'मैं' के झूठे अहंकार ने हराया मुझे, तेरे आगे विवश झुकाया मुझे,
किन्तु आज मेरे इन बाहुओं में शक्ति है,
मेरे इस पागल हृदय में भरी भक्ति है-
आज क्यों कि मेरे पीछे जागृत अतीत है,

और मेरे आगे है अनन्त आदिहीन शेषहीन पथ वह
जिस पर एक दृढ़ पैर का ही स्थान है-
और वह दृढ़ पैर मेरा है-गुरु, स्थिर, स्थाणु-सा गड़ा हुआ-
तेरी प्राण-पीठिका पै लिंग-सा खड़ा हुआ!

और, हाँ, भविष्य के अजनमे प्रवाह से
भावी नवयुग के ज्वलन्त प्राण-दाह से
प्रबल प्रतापवान्, निविड प्रदाहमान्ï, छोड़ता स्फुलिंग पै स्फुलिंग-
आस-पास बाधामुक्त हो बिखरता-क्षार-क्षार-धूल-धूल-

और वह धूल-तेरे गौरव की धूल है,
मेरा पथ तेरे ध्वस्त गौरव का पथ है
और तेरे भूत काले पापों में प्रवहमान लाल आग

मेरे भावी गौरव का रथ है!

या अजित कुमार की कविता 'कवियों का विद्रोह' में भी यह भाव विद्यमान है। खासकर उपमानों के क्षेत्र में--

'चांदनी चंदन सदृश'

हम क्यों लिखें ?
मुख हमें कमलों-सरीखे
क्यों दिखें ?
हम लिखेंगे :
चांदनी उस रूपए-सी है
कि जिसमें
चमक है, पर खनक ग़ायब है ।
  
हम कहेंगे ज़ोर से :
मुँह घर-अजायब है...

(जहाँ पर बेतुके, अनमोल, ज़िन्दा और मुर्दा भाव रहते हैं ।)

अज्ञेय की 'कलगी बाजरे की' में भी विद्रोह भाव स्पष्ट हुआ है।

व्यंग्य की प्रखरता[सम्पादन]

प्रयोगवाद में सामाजिक, यंत्र युगीन, आधुनिक समाज, शहरी सभ्यता आदि पर अज्ञेय जैसे कवियों ने व्यंग्य कटु उक्तियों से प्रहार किया है। समाज तथा व्यक्ति जीवन में आयी विसंगती को भी व्यक्त किया गया है। सामाजिक जीवन में पलती विद्रुपता, शहरों में बढ़ती वेश्यावृत्ती आदि पर व्यंग किया है। 'शोषक भैया' जैसी व्यंग प्रवण रचनाओं में कवि का आवेग या आक्रोश इस कदर तिखा बना है-

डरो मत, शोषक भैया

पीलो।
मेरा रवत ताजा है
मीठा है
हृद्य है।
पीलो शोषक भैया,
डरो मता
मुझसे क्या डरना?
वह मैं नहीं, वह तो तुम्हारा-मेरा संबंध है
जो तुम्हारा काल है

शोषक भैया।

या नगर सभ्यता के प्रति अज्ञेय की व्यंग्यात्मक, प्रतिक कविता 'साँप' महत्वपूर्ण है। जंगल का साँप तो सभ्य है, उसका विष अब नगरवासियों ने लिया है, डंसना वे ही सिखा रहे हैं--

साँप!

तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूर्वी-(उत्तर-दोगे?)
तब कैसे सीखाङसना-

विष कहाँ पाया?

अथवा महानगर में रात होते होते अंधेरे में स्त्री अपनी वे देह बेचने के लिए खड़ी रहती है 'महानगर : रात' जैसी कविता नगरवासियों कचरे मानसिकता के प्रती आकर्षक व्यंग्यात्मक हो उठी है--

धीरे धीरे धीरे चली जाएँगी सभी मोटरें, बुझ जाएँगी

सभी बत्तियाँ, छा जाएगा एक तनाव-भरा सन्नाटा
जो उस को अपने भारी बूटों से रौंद-रौंद चलने वाले
वर्दीधारी का
प्यार नहीं, किन्तु वाञ्छित है।

तब जो पत्थर-पिटी पटरियों पर इन
अपने पैर पटकता और घिसटता
टप्-थब्, टप्-थब्, टप्-थब्
नामहीन आएगा...
तब जो ओट खड़ी खम्भे के अँधियारे में चेहरे की मुर्दनी छिपाये
थकी उँगलियों से सूजी आँखों से रूखे बाल हटाती
लट की मैली झालर के पीछे से बोलेगी :
'दया कीजिए, जैंटिलमैन...'
और लगेगा झूठा जिस के स्वर का दर्द
क्यों कि अभ्यास नहीं है अभी उसे सच के अभिनय का,
तब जो ओठों पर निर्बुद्धि हँसी चिपकाये
नो सीलन से विवर्ण दीवार पर लगा किसी पुराने
कौतुक-नाटक का फटियल-सा इश्तहार हो,
कुत्तों के कौतूहल के प्रति उदासीन
उस के प्रति भी जिस को तुम ने सन्नाटे की रक्षा पर तैनात किया है,
धुआँ-भरी आँखों से अपनी परछाईं तक बिन पहचाने,
तन्मय-हाँ, सस्ती शराब में तन्मय-
चला जा रहा होगा धीरे-धीरे-
बोलो, उस को देने को है
कोई उत्तर?
होगा?
होगा?
क्या? ये खेल-तमाशे, ये सिनेमाघर और थियेटर?
रंग-बिरंगी बिजली द्वारा किये प्रचारित
द्रव्य जिन्हें वह कभी नहीं जानेगा?

यह गलियों की नुक्कड़-नुक्कड़ पर पक्के पेशाबघरों की सुविधा,
ये कचरा-पेटियाँ सुघड़
(आह कचरे के लिए यहाँ कितना आकर्षण!)
असन्दिग्ध ये सभी सभ्यता के लक्षण हैं
और सभ्यता बहुत बड़ी सुविधा है सभ्य, तुम्हारे लिए!
किन्तु क्या जाने ठोकर खा कहीं रुके वह,
आँख उठा कर ताके और अचानक तुम को ले पहचान-
अचानक पूछे धीरे-धीरे-धीरे
'हाँ, पर मानव

तुम हो किस के लिए?'

इसी सन्नाटे में कोई सखी देह बेचने के लिए खड़ी है। व्यंग्य का एक और सुंदर रुप 'याँगर और खादर' में आया है। यहाँ उसका रूप ठंडा है, परंतू तीक्ष्ण है। प्रभाकर माचवे, भारतभूषण अग्रवाल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि कवियों ने भी व्यंग्य बड़े सुंदर लिखे है।

शिल्प की नवीनता[सम्पादन]

प्रयोगवादी कविता का कलापक्ष अभिव्यंजना की दृष्टी से हिन्दी कविता के लिए एक ओर बेहद जटिल, दुरुहता से भरा है तो दुसरी और विलक्षणता के चमत्कार हेतू सपाटबयानी से। शब्द प्रयोग की दृष्टि से वह बड़ा बौद्धिक क्रियाएँ करता है। कभी रीतिकालीन कवि केशव ने किया था। अज्ञेय ने उनकी तुलना अंग्रेजी कवि बेन जानसन से की है। यही कारण है की उन्होंने नयी प्रतिक योजना, काव्य में टेढ़ी-मेढी, आडी, तिरछी, डैश जैसी रेखाओं का प्रयोग किया है। अज्ञेय ने ही तार सप्तक की भूमिका में कहा था की उलझी हुई अनुभूतियों को परंपरागत भाषा, प्रतीक, उपमा, रुपक आदि के द्वारा व्यक्त करना कठिन है। इसीलिए उन्होंने नयी भाषा-शिल्प को भी गढ़ा। भाषा, बिम्ब, प्रतीक, नवीन उपमानों के साथ शैली के नये-नये प्रयोग प्रयोगवादी कला पक्ष का विशिष्टता है।

भाषा[सम्पादन]

प्रयोगवादी कवियों का मानना रहा है की नये कवियों की भाषाभिव्यक्ति पुरानी भाषा में नहीं हो सकती। भाषा का प्रयोग प्रयोगवादियों के सामने एक समस्या के रुप में खड़ी थी। अज्ञेय के अनुसार भाषा की क्रमश: संकुचित होती हुई सार्थकता की चूल फाड़कर उसमें नया, अधिक व्यापक, अधिक सार-गर्मित अर्थ भरना चाहता है।" और यह अहं के कारण नहीं बल्की भीतरी गहरी माँग के कारण। इसलिए आरंभीक दिनों में अज्ञेय, मुक्तिबोध नेमिचंद्र जैन आदि की रचनाओं में एक प्रकार के बुद्धि-प्रसूत बड़े-बड़े क्लिष्ट और दुरुच्चार्य शब्दों के प्रयोग की बहुलता दिखाई पड़ती है। छायावादियों के शब्द जहाँ कल्पनाकलित कुसुम-कोमल थे, वहाँ आरम्भिक प्रयोगवादी कविता के शब्द अनगढ़ ठोकरों-से कड़े थे। अज्ञेय का उनदिनों का उदाहरण देखिए--

"निविडा अन्धकार, एक अकिंचन निष्प्रभ, अनाहुत, अज्ञात, द्युति-किरण, आसन्न-पतन बिन जमी ओस की अंतिम ईषत्करुण, स्निग्ध कातर शीतलता अस्पृष्ट किन्तु अनुभूत, शत-फण बुभुक्षा के कोलाहल का आस्फालन, प्रस्वेदश्लथ संभार, आत्म-लय के रुद्र-ताण्डव का प्रमाथी तप्त अवाहन, घनावृत्त ऐक्य... आदि।"

नामवरजी इनके द्वारा प्रयुक्त भाषा पर आगे भी कहते हैं कि धीरे-धीरे आतंकमय विशषणों का यह समस्त संभार उस दर्पस्फीत आवेग के साथ क्रमश: कम हुआ और अब वे सीधे-सादे हल्के-फुल्के शब्दों का प्रयोग करने लगे--

"भोर का बावरा आहेरी, लालकनियाँ, कलम-तिसूल, विफल दिनों की कलौंस, छोरियाँ, गोरियाँ, भोरियाँ वगैरह।" तात्पर्य यह की बाद के दिनों में प्रयोगवादी कवि जन भाषा के निकट आता है और उसी का काव्यभाषा में प्रयोग करता है। फिर वह कलगी बाजरे की 'कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है' (अज्ञेय), 'भूजा हुआ पापड़, चमक है पर खनक गायब है' (अजितकुमार), 'सिर पर जुता पैर में टोपी' (लक्ष्मीकांत वर्मा), 'थर्मामीटर के पारे-सी बिजली के स्टोव-सी सर्वेश्वर ई से ईश्वर, उ से उल्लू' (नरेश मेहता) 'मैं कनफटा हूँ हेटा हूँ ललटेन नयन' (मुक्तिबोध) आदि। भाषा में अधिक अर्थ भरने हेतु उसे अपर्याप्त पाकर विराम-संकेतों, आड़ी-तिरछी रेखाओं छोडे बड़े टाईप, सीधे-उलटे अक्षर, अधूरे वाक्यों का प्रयोग, हैश तथा डैश, डैश, डैश कोष्टक में बात कहना आदि का प्रयोग किया है--

खामोश

हो;
होश......न खो;
रो, मगर-जी।
जिन्दगी संसार की आखिर
तूही।
ओ साबिर
खिला परवर यह
बे-रुही
आखिर
वह भी है
तू-ही!
तू-ही!

तू-ही!

प्रयोगवादी कवियों में शमशेर की वाक्य-योजना सबसे विलक्षण है। शमशेर वाक्य नही, प्रायः शब्द लिखते है, उक्त उदाहरण मे विषय वस्तु में निहित लय को यथातथ्य रूपांतर करने की जो कोशिश शमशेर में दिखाई पड़ती है, वह किसी प्रयोगवादी कवि में नहीं है। एक और उदाहरण प्रयोगवादियों के वैचित्र्य प्रदर्शन का रहा है। यह प्रकृति भी बड़ी हस्यास्पद है। अज्ञेय की 'हवाई यात्रा'--

अगर कहीं मैं तोता होता।

तो क्या होता?
तो क्या होता?
तोता होता।
(अल्हाद से झूमकर)
तो तो तो तो ता ता ता ता
(निश्चय के स्वर में)

होता होता होता।

बिम्ब[सम्पादन]

प्रयोगवादी कवियों पर बिंबवाद का प्रभाव रहा है। वस्तुत: बिंब का सामान्य अर्थ है मानव-प्रतिमा जो ज्ञानेद्रियों से रुप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द से संवेदनाएँ ग्रहण करती है, ये प्रतिमाओं के रुप में मन में आवस्थित रहते है। कवि मन विभित्र संवेदनाओं के संयोग से बिंब निर्मिती करते है। एजरा पाऊंड तथा बिंबवाद के प्रवर्तक टी. ए. ह्यूम से यह परंपरा हिन्दी में आयी। कविता सुंदरता के लिए कम से कम शब्दों में चित्र के प्रस्तुतीकरण को सफल बिंब प्रयोग माना जाता है।

प्रयोगवाद में यौन बिब-प्रतीकों की भरमार है। ये हमारे परंपरागत सौंदर्यबोध पर आघात करते है। अज्ञेय की 'शिशिर की राका निशा' का यंत्र बिंब देखिए-

निकटतर-धरुनी हुई छत, आड में निर्वेद

मूत्र संचित मृत्तिका के वृत्त में
तीन रांगों पर खडा, नतग्रीव
धैर्यधन गदहा
निकटतम
रीद बंकिम किए, निश्चल किंतु लोलूप
खड़ा बंद बिलार-

पीछे गोयठों के गंधमय आबार।


इस प्रकार के विय-प्रतिकों के संबंध में स्वंय अज्ञेय ने कहा था कि आधुनिक युग का साधारण व्यक्ति यौन-वर्जनाओं का पुंज है। संश्लिष्ट बिंब का एक और उदाहरण-

साँस। बुझता क्षितिजा

मन की टूट-टूट पछाड खाती लहर
काली उमड़ती परछाइयाँ
तब एक

तारा भर गया आकाश की गहराइयाँ

धर्मवीर भारती ने भी इस प्रकार के प्रयोग किये है-

थका हुआ बादल

पश्चिम के श्याम निरावृत्त शिखरों पर
शीतल कपोल पर

क्षण गहरी नींद सो गया

अथवा

नितांत कुमारी घार्टी

इस कामातूर मेघधूम के
औचक आलिंगन में पिसकर
रतिप्रांत-सी मलिन हो गई!

थका हुआ बादला

मुक्तिबोध में आधुनिक जीवन की विषमता की आनुभूति को लेकर यह प्रस्तुत बिंब गढ़ा हैं-

मैं कनफटा हूँ, हेटा हूँ

शेवलेट-डाज के नीचे मैं लेटा हूँ
तेलिया लिबास में पुरेजे सुधारता हूँ

तुम्हारी आज्ञाएँ होता हूँ।

प्रतीक-योजन[सम्पादन]

अज्ञेय, शमशेर आदि कवि प्रतीकवाद से प्रभावित है। प्रतीक अनुभूति का वह संक्षिप्त रुप होता है जो कथ्य को नया एवं व्यापक संदर्भ प्रदान करने में सक्षम होता है। छायावादी लाक्षणिक वक्रता से आगे बढ़कर अत्याधिक सांकेतिक प्रतीकों का प्रयोग उन्होंने किया है। यथार्थ की कटुता, नग्नता और भयंकरता से बचने के लिए प्राय: से संकेत गर्भी प्रतीकों का प्रयोग करते है। अज्ञेय के प्रतीक उन्हीं के शब्दों में यौन प्रतीक थे--

घिर गया नभ, उमड आए मेघ काले

भूमि के कंपित उरोजों पर झुका-सा
विशद, श्वासहत, चिरातूर
छा गया इंद्र का नील वक्ष

वज सा, यदि तडित से झुलसा हुआ सा।

परंतु बाद में उन्होने सामाजिक, आत्मा-परमात्मा संबंधी, व्यक्ति अस्तित्व संबंधी प्रतीकों का प्रयोग किया है। 'यह दीप अकेला' में 'दीप' और 'पंक्ति' ये दो शब्द व्यक्ति और समाज के प्रतीक है-

यह दीप अकेला स्नेह भरा

है गर्व भरा मदमाता, पर

इसको भी पंक्ति को दे दो।

यह संपूर्ण कविता प्रतीकवादी है। 'नदी के द्वीप' भी अस्तित्व-संकट का प्रतीक है। अन्य प्रयोगवादी कवियों के संबंध में नामवरजी ने कहा है की वे प्रतीकवादी न होते हुए भी भावों और वस्तुओं के सुक्ष्म चित्रण के लिए अनेक सुन्दर अप्रस्तुतों का विधान किया है---धीरे-धीरे झुकता जाता है शरमाए नयनों-सा दिन, सिनेमा की रीलों-सा कसके लिपटा है सभी कुछ मेरे अन्दर, दिल की धड़कन भी इतनी बेमानी जितनी यह टिक-टिक करती हुई यही निकल रही छिपकली-सी लड़की दरवाजे से, हल्की मीठी चा-सा दिन, चाँदनी की उँगलियाँ चंचल क्रोशिए से बुन रही थी चपल फेन-झालर बेल मानों, मौन आहों में बुझी तलवार तैरती है बादलों के पार, खोखली बन्दूक से दंडे पड़े दो हाथ!

शमशेर, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, मुक्तिबोध आदियों ने प्रतीकों का सुंदर प्रयोग किया है। भारती के 'अंधा युग', 'कनुप्रिया' घटना, चरित्र की दृष्टि से प्रतीक ही बने है। साथ ही कुंवरनारायण की 'आत्मजयी' नरेश मेहता की 'संशय की एक रात', शंम्बुक आदि।

छंद और लय[सम्पादन]

प्रयोगवादी कविता में मुक्तछंद लय का प्रयोग किया गया है। छंद लय के कारण इनकी कविता में गीतात्मकता आयी है। कहीं कहीं, नये स्वर, वर्ण विषय का प्रतिपादन करते है। kedarnath agarwal'माँझी बनशी न बजाओ', गिरीजाकुमार माथुर 'हेमन्ती', 'पुनो' आदि धर्मवीर भारती के 'अंधायुग' का यह उदाहरण देखिए

थके हुए है हम,

इसलिए नहीं कि
कहीं युध्दों में हमने भी
बाहुबल दिखाया है
प्रहरी थे हम केवल
सत्रह दिनों के लोमहर्षक संग्राम में
भाले हमारे ये
ढालें हमारे ये
निरर्थक पडी रहीं
अंगों पर बोझ बनी
रक्षक थे हम केवल

लेकिन रक्षणीय कुछ भी नहीं था यहाँ।

अज्ञेय--

तुम हँसी हो

जोन मेरे ओठ पर दीखे
मुझे हर मोड़ पर मिलती रही है।
धूप
मुझ पर जो न छाई ही,
किंतु जिसकी ओर

मेरे रुध्द जीवन की कुटी की खिड़कियाँ खुलती रही है।

नवीन उपमान[सम्पादन]

परंपरागत उपमानों को न स्वीकारते हुए प्रयोगवादियों ने नये और वैज्ञानिक साधनों उपकरणों का प्रयोग बड़े पैमाने पर किया है। मध्यवर्गीय गृहिणी का चित्रण करते हुए सर्वेश्वर कहते है-

थर्मामीटर के पारे-सी

चुपचाप जिसमें भावनाएँ चढ़ती उतरती है
अखंड कीर्तन की
थकी हुई अस्पष्ट धून-सी
जिसकी जिंदगी है...
प्यार का नाम लेते ही
बिजली के स्टोव सी

जो एकदम सुर्ख हो जाती है।

प्रयोगवादीयों ने नेत्रों के लिए रीतिकालीन, छायावादी खंजन-नयन, मीन जैसे प्रयोग नहीं किये। उन्हें आज के मनुष्य के पैर खंभे जैसे लगते है, जिनपर नेत्रों की लालटेन टँगी है-

अतर्मनुष्य

रीक्त-सा गेह
दोलालटेन से नयन
निष्प्राय स्तंभ
दो खड़े पाव"
अथवा अति नवीन उपमानों का वे प्रयोग करते है-
"मेरे सपने इस तरह टूट गए

जैसे भुंजा हुआ पापड

प्रयोगवाद नये उन्मेष का काव्य रहा है। अनेक आलोचकों ने उसपर जमकर हमला किया उसे वैयक्तिक, सामाजिकता से दूर, बुद्धिग्रस्तता से बोझिल आदि माना परंतू यह थी मध्यवर्ग की वास्तविकता। उनमे आयी हीन-दीनता, अनास्था, कटुता, अंतर्मुख, पलायन आदि जिस का चित्रण प्रयोगवादीयों ने किया है। यह भौंडी नग्नता जीवन का एक पक्ष हमारे सामने लाती है। जैसा की हमने पहले ही कहा है द्वितीय विश्वयुध्द के बाद मूल्यों में तीव्र टूट आयी उसे पाटना असंभव हुआ विश्व के साथ भारत में भी यही स्थितियाँ आयी इसलिए यहाँ सामाजिक ढाँचा खासकर, परिवार, विवाह संस्था पर उसका आघात हुआ। सो उसी का आत्मनिष्ठ चित्रण कविता में आया है। हर बड़ा कवि अपनी कविता के साथ अपना सौंदर्यशास्त्र गढ़ता है, या यूँ कहे सौंदर्यशास्त्र के साथ कविता, अज्ञेय ने भी यही किया--'दुःख सबको माँजता है' की व्यक्तिनिष्ठ भावना से एक अपना पैमाना बनाया जिससे समष्टि पर अनुभव के रूप में कविता में अभिव्यक्त किया, उसका प्रयोग किया।