हिंदी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल)/उपन्यास

विकिपुस्तक से

उपन्यास हिंदी साहित्य की आधुनिक विधा है। इसका आरंभ भारतेंदु युग में हुआ।

समाजसुधारवादी उपन्यास[सम्पादन]

हिंदी उपन्यास का आरंभ भारतेंदु युग में समाजसुधारवादी उपन्यासों से हुआ। १८८२ ई. में लाला श्रीनिवासदास द्वारा लिखित 'परीक्षा गुरु' प्रकाशित हुआ। आचार्य रामचंद्र सुक्ल हिंदी का पश्चिमी ढंग पर लिखा गया पहला मौलिक उपन्यास मानते हैं। यह पश्चिमी उपन्यास की शैली पर आधारित है। यह उस दौर के यथार्थ जीवन का चित्र भी प्रस्तुत करता है, परन्तु कला की दृष्टि से बहुत अपरिपक्व है। इसमें उपदेश की प्रवृत्ति प्रधान है।

‘परीक्षा-गुरु’ के पूर्व भी कई कथात्मक कृतियाँ लिखी गई थी। इनमें श्रद्धाराम फुल्लौरी का ‘देवरानी-जेठानी’ (1872 ई.) और ‘भाग्यवती’ तथा ‘रीति-रत्नाकर’, ‘वामा शिक्षक’, आदि प्रमुख हैं। परन्तु ये भी मुख्यतः समाज सुधारवादी तथा उपन्यास कला की दृष्टि से अपरिपक्व हैं।

परीक्षागुरु के बाद कई सुधारवादी उपन्यास प्रकाशित हुए। इन मौलिक उपन्यासों में महत्वपूर्ण हैं : पं. बालकृष्ण भट्ट रचित ‘नूतन ब्रह्मचारी’ तथा ‘सौ अजान और एक सुजान’ राधाचरण गोस्वामी का ‘विधवा-विपत्ति’, राधाकृष्ण दास का ‘निस्सहाय हिन्दू’, मेहता लज्जाराम का ‘आदर्श हिंदू’, ‘आदर्श दम्पति’ और ‘हिन्दू गृहस्थ' आदि। सुधारवादी रवैया इस दौर के प्रेम प्रधान उपन्यासों में भी देखने को मिलता है। इस दृष्टि से ठाकुर जगमोहन सिंह का ‘श्यामा स्वप्न’ उल्लेखनीय है।

तिलिस्मी और जासूसी उपन्यास[सम्पादन]

भारतेंदु युग के अंतिम दशक में हिंदी में घटनाप्रधान उपन्यासों के लेखन की प्रवृत्ति बढ़ी। इनमें हैरत में डालने वाली घटनाओं की प्रधानता थी। इनमें देवकीनंदन खत्री के तिलिस्मी उपन्यास, गोपालराम गहमरी के जासूसी उपन्यास तथा किशोरीलाल गोस्वामी के इतिहास के कथानक पर आधारित सामाजिक ऐतिहासिक उपन्यास प्रमुख हैं। उपन्यास की यह प्रवृत्ति प्रेमचंद के आने तक प्रमुख बनी रही।

देवकीनन्दन खत्री ने ‘चन्द्रकांता’, ‘चन्द्रकांता-संतति’ तथा ‘भूतनाथ’ नामक तिलस्म और ऐयारी के रोचक उपन्यास कई भागों में प्रकाशित किए। इसके अलावा उन्होंने ‘नरेन्द्रमोहनी’, वीरेन्द्र वीर’ आदि उपन्यास भी लिखे थे। इनमें चंद्रकांता तथा चंद्रकांता सन्तति बहुत लोकप्रीय हुआ। इनके महत्व को रेखांकित करते हुए रामचंद्र सुक्ल लिखते हैं कि बहुत लोगों ने उनके मनोरंजक उपन्यास पढ़ने के लिए ही हिन्दी सीखी।

किशोरीलाल गोस्वामीने सामाजिक और ऐतिहासिक उपन्यास लिखे। किंतु उनमें समाज की बहुत ही स्थूल और ऊपरी झलक है, यथार्थ चित्रण नहीं। उनके ऐतिहासिक उपन्यासों में इतिहास के तथ्यों का उचित निर्वाह नहीं हुआ। देशकाल का भी ध्यान उन्होंने नहीं रखाहै। गोस्वामी जी ने लगभग पैंसठ उपन्यास लिखे हैं। उनमें कुछ उपन्यासों के नाम हैं ‘कुसुमकुमारी’, ‘हृदयहारिणी’, ‘लबंगलता’, ‘रजिया बेगम’, ‘तारा’, ‘कनक कुसुम’, ‘मल्लिका देवी’, ‘राजकुमारी’, लखनऊ की कब्र’, ‘चपला’, ‘प्रेममयी’। जैसा कि नामों में प्रकट है ये उपन्यास नारी-प्रधान और शृंगारिक हैं। वास्तव में उनमें समाज और इतिहास के संदर्भ में कामुकता तथा विलासिता का अंकन हुआ है। उन्होंने ‘उपन्यास’ नामक पत्रिका भी निकाली थी जिसमें उनके पैंसठ छोटे-बड़े उपन्यास प्रकाशित हुए थे। आचार्य शुक्ल ने गोस्वामी जी के सम्बन्ध में लिखा है कि ‘इस द्वितीय उत्थानकाल के भीतर उपन्यासकार इन्हीं को कह सकते हैं, परन्तु वस्तुतः उपन्यासकार की सच्ची प्रतिभा इनमें भी नहीं है।’

गोपालराम गहमरी ‘जासूस’ नामक पत्रिका प्रकाशित करते थे, जिसमें उनके साठ के लगभग उपन्यास छपे। उन्होंने ‘जासूस की भूल’, ‘घर का भेदी’, ‘अद्भुत खून’, ‘भोजपुर की ठगी’, आदि रहस्यपूर्ण, साहसिक और डकैती तथा ठगी की कथाएं निर्मित कीं। ये कथाएं अंग्रेजी के जासूसी उपन्यासों के ढंग पर लिखी गई हैं। उन्होंने जासूसी उपन्यासों के क्षेत्र में भी आदर्श के निर्वाह और लोकोपकार की भावना के समावेश का यत्न किया और आदर्श जासूसों की सृष्टि की।

द्विवेदी युग में कुछ अन्य तरह के उल्लेखनीय उपन्यास लेखकों में- हरिऔध, ब्रजनन्दन सहाय आदि विसेष उल्लेखनीय हैं। हरिऔध ने ‘ठेठ हिन्दी का ठाठ’ और ‘अधखिला फूल’ लिखकर इनमें मुहावरेदार ठेठ भाषा का नमूना पेश किया। ब्रजनन्दन सहाय के ‘सौन्दर्योपासक’ में काव्य का आनन्द मिलता है। द्विवेदी युग में किशोरीलाल गोस्वामी के अतिरिक्त कुछ और लेखकों ने भी ऐतिहासिक उपन्यास लिखें। इनमें उल्लेखनीय हैं : गंगाप्रसाद गुप्त का ‘वीर पत्नी’ और ‘मिश्रबंधुओं के विक्रमादित्य’, चन्द्रगुप्त मौर्य’ तथा ‘पुष्य मित्र’ आदि।

आदर्शोन्मुख यथार्थवादी उपन्यास[सम्पादन]

१९१८ ई. में प्रेमचंद का पहला हिंदी उपन्यास ‘सेवासदन’ प्रकाशित हुआ। प्रेमचंद के आगमन के साथ ही हिन्दी-कथा साहित्य में एक नये युग का आरम्भ हुआ। इसे प्रेमचंद युग भी कहते हैं। प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों को आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी कहा है। उन्होंने उपन्यास में मानव मन का स्वाभाविक एवं सजीव अंकन आरम्भ किया। उन्होंने पहली बार हिन्दी उपन्यास में घटना और चरित्र का संतुलन स्थापित कर मनोविज्ञान का उचित समावेश किया। उन्होंने समाज की समस्याओं को कथा-साहित्य में स्थापित किया। उन्होंने जीवन और जगत के विविध क्षेत्रों का, समाज के विभिन्न वर्गों का ग्रामीण तथा नागरिक क्षेत्रों की बहुत-सी दशाओं तथा परिस्थितियों का सूक्ष्म चित्रण किया। उनके प्रमुख उपन्यासों का विवरण निम्नलिकित है-

  • सेवासदन (१९१८)- यह मूल रूप से उन् ‍होंने 'बाजारे-हुस् ‍न' नाम से पहले उर्दू में लिखा गया लेकिन इसका हिंदी रूप 'सेवासदन' पहले प्रकाशित हुआ। यह एक नारी के वेश् ‍या बनने की कहानी है। डॉ रामविलास शर्मा 'सेवासदन' की मुख् ‍य समस् ‍या भारतीय नारी की पराधीनता को मानते हैं।
  • प्रेमाश्रम (१९२२)- यह किसान जीवन पर उनका पहला उपन् ‍यास है। इसका मसौदा भी पहले उर्दू में 'गोशाए-आफियत' नाम से तैयार हुआ था लेकिन इसे पहले हिंदी में प्रकाशित कराया। यह अवध के किसान आंदोलनों के दौर में लिखा गया।
  • रंगभूमि (१९२५)- इसमें प्रेमचंद एक अंधे भिखारी सूरदास को कथा का नायक बनाकर हिंदी कथा साहित् ‍य में क्रांतिकारी बदलाव का सूत्रपात करते हैं।
  • निर्मला (१९२५)
  • कायाकल्प (१९२७)
  • गबन (१९२८)
  • कर्मभूमि (१९३२)
  • गोदान (१९३६)
  • मंगलसूत्र (अपूर्ण)- यह प्रेमचंद का अधूरा उपन्यास है।

इन उपन्यासों में प्रेमचन्द ने किसानों की आर्थिक दशा, जमीदारों और पुलिस के अत्याचारों, ग्रामीण जीवन की कमजोरियों, समाज की कुरीतियों, शहरी समाज की कमियों, विधवाओं और वेश्याओं की समस्याओं, नारी की आभूषणप्रियता, मध्यवर्ग की झूठी शान और दिखावे की प्रवृत्ति, सम्मिलित हिन्दू-परिवार में नारी की दयनीय स्थिति आदि प्रश्नों को उठाया। कई उपन्यासों में उन्होंने गांव और शहर की कहानी, ग्रामीण और नागरिक जीवन की झांकी साथ-साथ प्रस्तुत की है। अन्तिम दौर में प्रेमचंद का झुकाव साम्यवाद की ओर हो गया था और वे सच्चे अर्थ में यथार्थवादी और प्रगतिशील हो गये थे।

प्रेमचन्द की उपन्यास कला को अनेक उपन्यासकारों ने अपनाया और आदर्शोन्मुख यथार्थवादी उपन्यास लिखा। इनमें विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक तथा सुदर्शन उल्लेखनीय हैं। कौशिक के उपन्यास ‘मां’ और भिखारिणी नारी-हृदय का मनोवैज्ञानिक चित्र प्रस्तुत करते हैं।

मनोविश्लेषणवादी उपन्यास[सम्पादन]

ऐतिहासिक उपन्यास[सम्पादन]

= आँचलिक उपन्यास[सम्पादन]

अस्तित्ववादी उपन्यास[सम्पादन]

व्यंग्यमूलक उपन्यास[सम्पादन]

व्यंग्यमूलक उपन्यासों में डॉ.सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त कृत ‘इधर उधर के बीच में’ काफी चर्चित है। यह एक व्यंग्य उपन्यास है। इसके बारे में प्रसिद्ध व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय लिखते हैं - व्यंग्य उपन्यास का नाम है ‘इधर उधर के बीच में’। उपन्यास आंरभ होते ही समझ आ जाता है कि इसका कथ्य किस भूमि का अंकुर है। जनगाँव गांव है पर गांव की तरह छोटा नहीं बहुत बड़ा है। इससे परिचित करवाते हुए लेखक कहता है- जनगाँव बहुत बड़ा है। दस हजार की आबादी है। सड़क, बिजली, पानी सब कुछ है। मंदिर-मस्जिद और पुस्तकालय भी है। लोगों को मंदिर-मस्जिद और मोबाइल से फुर्सत नहीं मिलती इसलिए पुस्तकालय पर ताला पड़ा रहता है। सरकारी अस्पताल है, किंतु यहाँ जाने वालों को बड़ी हीन दृष्टि से देखा जाता है। सच कहें तो अस्पताल खुद भी हीन स्थिति में है। डाक्साहब शहर से कभी आते नहीं इसलिए गाँव के सारे मरीज शहर जाते हैं। कहने को तो गाँव में सह-शिक्षा वाला सरकारी स्कूल भी है, लेकिन यहाँ विद्यार्थी नहीं दिखाई देते जहाँ सरपंच की भैंस और मास्साब की तनख्वाह दोनों बंधी बंधाई है। भैंस दूध देती है, मास्साब शिक्षा व्यवस्था को दूह लेते हैं। बाकी विद्यार्थियों का क्या है, उनके लिए है ना भोले गाँव की छाती पर गाड़ दिया गया ’अला-फला कान्वेन्ट स्कूल सारे बच्चों की वैचारिक नस्ल यहाँ बदली जा रही है। बच्चे यहाँ पढ़कर अपने माँ-बाप को गंवारू समझना सीख रहे हैं और वहीं माँ-बाप जमीन बेचकर मोटी फीस भरते हुए अपने बच्चों को समझदार होना मान रहे हैं। कमाल की उलटवासी है। गाँव में हाथ से ज्यादा फोन है. पैरों से ज्यादा चहलकदमी दरअसल, गाँव स्मार्ट हो चला है।’’

  जैसे पहली नजंर में नेता की भ्रष्टाचारी मुस्कान, थाने के शिकारी बाड़े, मंदिर - मस्जिद के अंधत्व आदि का पता चल जाता है वैसे ही मुझ जैसी व्यंग्य की दाई को पेट छूकर पता चल जाता है कि ....।  चावल के दाने-से इस अंश को देने का मेरा मकसद यह भी है कि जब आगाज ऐसा है तो ...। मैं समझ रहा हूं कि सुरेश की विसंगतियों के लक्ष्य शिक्षा, धर्म, स्वास्थ्य सेवाओं, आदि के गलियारों में घूमते हुए और कहां-कहां विचरण करेगा। सुरेश ‘प्रतिदिन’ लिखने वाला सक्रिय व्यंग्यधर्मी है और उसकी सक्रियता के साथ कदम मिलाना कठिन है पर फिर भी जितनी क्षमता हो उतने कदम मिला़ लेता हूं। सुरेश यथासंभव संक्षिप्त रहकर भाषा का सार्थक प्रहारात्मक प्रयोग करता है। विवरण के मोह में व्यंग्य उपन्यास में सपाटबयानी के खतरे बहुत होते हैं पर जितना पढ़ने के लिए मुझे उपलब्ध हुआ है उसके आधार पर कह सकता हूं कि ऐसे गड्ढे कम हैं। विंसंगतियों को अभिव्यक्त कर उसपर प्रहार की शक्ति का एक छोटा-सा उदाहरण ,‘‘ गांव और शहर में छोटा-सा अंतर है। गांव में कुत्ते बेकार घूमते हैं और गायों को पूजा जाता है। वहीं शहर में कुत्तों की पूजा की जाती है और गायें बेकार घूमती हैं।’’ 
  जनगांव का महत्वपूर्ण चरित्र है इंदिरा, जो लड़की है और उसकी विसंगति यह है कि उसकी फीलिंग लड़के जैसी है। इंदिरा आत्महत्या करना चाहती है। क्यों? यह रहस्य तो पढ़कर ही समझ आ सकता है। इतना बता दूं कि इंदिरा मरने से पहले गंगू से फेशियल करवाती/ करवाता है। 
      इस किताब में एक अलग तरह का प्रसंग है जहां सुरेश किताब का मानवीकरण करता है और ‘विद्वत् समाज’ में किताब की, किसी दुष्कर्म पीडिता के,थाने में बयान व्यथा का प्रहारक वर्णन करता है। किताब की दीनगाथा घर की एकांत कोठरी में पड़ी बूढ़ी मां की-सी है। पर सुरेश तो सार्थक युवा सोच का है इसलिए अतीत के साथ अत्याधुनिक समाज, बाजारवाद और मशीन होती अपंग मानवाता उसकी वेचाारिक पृष्ठभूमि में है। 

प्रो. राजेश कुमार इसी उपन्यास की अस्मितामूलक अंश को रेखांकित करते हुए लिखते हैं - डॉ. सुरेश कुमार मिश्र उरतृप्त ऐसे सिद्धहस्त व्यंग्यकार हैं, जो न केवल व्यंग्य को समझते हैं, इसके विभिन्न उपकरणों को पहचानते हैं, बल्कि अपने कथ्य को प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने के लिए वे इन उपकरणों को बहुत कुशलता से इच्छानुसार उपयोग करने में भी माहिर हैं। प्रस्तुत उपन्यास के लिए उन्होंने बहुत ही विचित्र विषय को चुना है, जिसमें एक लड़की है, जो मन से लड़का है। कोढ़ में खाज की तरह वह अपने सहपाठी से प्रेम कर बैठती है, जिसका आभास सहपाठी को नहीं होता। फिर इस एकतरफा प्रेम के बीच से जो विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं, वे ऐसे संसार का सृतन करती हैं, जो हमें समाज की विभिन्न विसंगतियों के सामने ले जाता है। उपन्यास की विशेषता इसकी व्यंग्य से भरपूर शैली है, जिसमें लगभग हर वाक्य में ही व्यंग्य को इस तरह से बुन गया है कि पाठक चमत्कृत होता है, और कथा को पढ़ने का उसका आनंद द्विगुणित होता जाता है। जो विशेषता सुरेश को अन्य व्यंग्यकारों से अलग और बहुत से प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों से ऊपर उठाती है, वह यह है कि वे चीज़ों को एक दूसरे के विरोध में रखकर उसके मध्य से सार्थक, और रोचक व्यंग्य की सृष्टि करते हैं। विषय पर पकड़ और कला की इस परिपक्वता ने प्रस्तुत उपन्यास को अत्यंत रोचक और प्रभावपूर्ण बना दिया है, जो किसी रचना का आदर्श प्रस्तुत करने में सक्षम है।

अस्मितामूलक उपन्यास[सम्पादन]