हिंदी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल)/प्रगतिवाद

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१९३६ ई. के बाद हिंदी साहित्य में सामाजिक चेतना को केंद्र में रखने वाली जिस नई काव्यधारा का उदय हुआ उसे प्रगतिवाद कहते हैं। इसे मार्क्सवादी विचारधारा का साहित्यिक रूपांतरण भी माना जाता है। मार्क्सवाद समाज को को शोषक और शोषित दो वर्ग में विभाजित मानती है। यह बुद्धिजीवियों से शोषक वर्ग के खिलाफ शोषित वर्ग में चेतना जगाने की उम्मीद करती है। यह शोषित वर्ग को संगठित कर शोषण मुक्त समाज की स्थापना की कोशिशों का समर्थन करती है। यह पूँजीवाद, सामंतवाद, धार्मिक संस्थाओं आदि को शोषक के रूप में चिन्हित कर उन्हें उखाड़ फेंकने की बात करती है। प्रगतिवादी साहित्य में ये सभी स्वर स्पष्ट रूप से पहचाने जा सकते हैं।

प्रगतिवादी धारा के साहित्यकारों में नागार्जुन, [[केदारनाथ अग्रवाल] शिवमंगल सिंह सुमन त्रिलोचन, रांगेय राघव आदि प्रमुख हैं। बाद में गिरिजाकुमार माथुर , भारतभूषण अग्रवाल ,गोपालदास नीरज ,रामविलास शर्मा आदि कवि भी इस धारा से जुड़े। इस काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं-

परिस्थितियां[सम्पादन]

इस काव्यधारा के उद्‌भव और विकास में अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां जैसे रूसी क्रांति के बाद हुई सोवियत संघ की स्थापना और वैश्विक स्तर पर प्रगतिशील लेखक संघों का निर्माण आदि भी सहायक हुईं। १९३६ का समय भारत में सविनय अवज्ञा आंदोलन के पश्चात उभरती हुई निराशा और विकलता का था इस समय तक मार्क्सवादी दर्शन के आधार पर साम्यवाद की स्थापना कर सोवियत संघ सामंतवाद और पूंजीवाद की विभीषिकाओं को कुचल कर अत्यंत शक्तिशाली राष्ट्र बन चुका था। रूस में सर्वहारा जनों के जीवन का उत्थान और साम्यवाद का पश्चिम के अन्य देशों में फैलाव भारतीय बुद्धिजीवियों के लिए प्रेरणा स्रोत बन रहा था। भारत में एक तरफ जहाँ किसान और मजदूर आंदोलन तेज हुए वहीं कांग्रेस के भीतर भी 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का जन्म हुआ। सन् 1935 में ई. एम. फार्स्टर के सभापतित्व में पेरिस में’ प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन’ नामक अंतरराष्ट्रीय संस्था का प्रथम अधिवेशन हुआ। सन् 1936 में सज्जाद जहीर और डॉ. मुल्कराज आनंद के प्रयत्नों से भारतवर्ष में भी इस संस्था की शाखा खुली इसी वर्ष लखनउ में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला सम्मेलन हुआ। इसकी अध्यक्षता प्रेमचंद ने की। इसके बाद साहित्य की विभिन्न विधाओं में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित रचनाएँ हुई।

नवीन सौंदर्यदृष्टि[सम्पादन]

प्रगतिवादी विचारधारा सौंदर्य को रूमानी कल्पनाओं के बजाय जीवन से जोड़कर देखती है। वह अपने आस-पास के जनजीवन में सौंदर्य खोजती है। सौंदर्य व्यक्ति के हार्दिक आवेगों और मानसिक चेतना दोनों से संबंधित होता है। ये दोनों सामाजिक संबंधों से नियंत्रित होती हैं। सौंदर्य को परिभाषित करते हुए मार्क्सवादी दार्शनिक एन.जी. चरनीशवस्की के शब्दों में "मनुष्य को जीवन सबसे प्यारा है, इसीलिए सौंदर्य की यह परिभाषा अत्यंत संतोषजनक मालूम पड़ती है :’ सौंदर्य जीवन है’।"[१] इसीलिए प्रगतिवादी साहित्यकार जीवन के हर रूप में तथा उसे बेहतर बनाने के लिए होने वाले संघर्षों में सौंदर्य देखते हैं।

रूढ़ि - विरोधी[सम्पादन]

प्रगतिवादी साहित्यकारों ने धर्म को रूढ़ी के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने ईश्वर को सृष्टि का कर्ता न मानकर जागतिक द्वन्द को सृष्टि के विकास का कारण माना। ईश्वर, आत्मा, परलोक, भाग्यवाद, स्वर्ग, नरक आदि में वह विश्वास नहीं करता है। वह धर्म को अफीम (दर्दनिवारक) मानता है और प्रारब्ध को एक सुन्दर प्रवंचना। उसके लिए मंदिर ,मस्जिद ,गीता और कुरान आज महत्व नहीं रखते हैं। एक कवि कहते हैं-

किसी को आर्य ,अनार्य ,

किसी को यवन ,
किसी को हूण -यहूदी - द्रविड
किसी को शीश
किसी को चरण

मनुज को मनुज न कहना आह !

क्रांतिधर्मी[सम्पादन]

प्रगतिवादी कवि क्रांति में विश्वास रखते हैं .वे पूंजीवादी व्यवस्था ,रुढ़ियों तथा शोषण के साम्राज्य को समूल नष्ट करने के लिए विद्रोह का स्वर निकालते हैं -

मानवतावादी[सम्पादन]

ये कवि मानवता की शक्ति में विश्वास रखते हैं .प्रगतिवादी कवि कविताओं के माध्यम से मानवतावादी स्वर बिखेरता है .वह जाति - पाति ,वर्ग भेद ,अर्थ भेद से मानव को मुक्त करके एक मंच पर देखना चाहते हैं .

स्त्री मुक्ति आकांक्षी[सम्पादन]

प्रगतिवादी कवियों का विश्वास है कि मजदूर और किसान की तरह साम्राज्यवादी समाज में नारी भी शोषित है .वह पुरुष की दास्ताजन्य लौह बंधनों में बंद है .वह आज अपना स्वरुप खोकर वासना पूर्ति का उपकरण रह गयी है .अतः कवि कहता है -

इहलौकिक[सम्पादन]

प्रगतिवादी कवि इसी दुनिया पर केंद्रित साहित्य लिखते हैं। वे इस दुनिया की समस्याओं का समाधान मृत्यु के बाद मिलने वाले किसी दूसरे लोक में नहीं ढूँढते हैं। वे जीवन के प्रति आशावादी हैं।। वे इसी धरती को ही वे स्वर्ग के रूप में बदलना चाहते हैं .इस धरती से विषमता दूर हो जाए और मानवता का प्रसार हो जाए तो यह धरती ही स्वर्ग बन जायेगी।

भाषा और कला पक्ष[सम्पादन]

प्रगतिवाद का जनआंदोलन से सीधा संबंध था। इसलिए इससे जुड़े साहित्य की भाषा को जनभाषा होना अनिवार्य था। प्रगतिवादि कवियों ने छायावादी भाषा से भी सरल भाषा में कविता की। इन्होंने अलंकारों को सामंती आलंकारिकता की प्रवृत्ती से जोड़कर देखा। इसीलिए इन्होंने अलंकारों की परवाह नहीं की। अलंकारों के बजाय इन्होंने जनजीवन के लिए सहज उपमानों और प्रतीकों का प्रयोग किया है। इन्होंने छंदों का भी तिरस्कार कर मुक्त छंद में कविताएं लिखी हैं। इन्होंने छंदों का भी तिरस्कार कर मुक्त छंद में कविताएं लिखी हैं।

  1. नगेंद्र (सं)- हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर पेपरबैक्स, नई दिल्ली, पृ. ६०७