हिंदी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल)/स्त्री विमर्श

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स्त्री विमर्श उस साहित्यिक आंदोलन को कहा जाता है जिसमें स्त्री अस्मिता को केंद्र में रखकर संगठित रूप से स्त्री साहित्य की रचना की गई। हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श अन्य अस्मितामूलक विमर्शों के भांति हीं मुख्य विमर्श रहा है जो की लिंग विमर्श पर आधारित है। स्त्री विमर्श को अंग्रेजी में फेमिनिज्म कहा गया है। शुरुआत में हिंदी में इसके लिए नारीवाद या मातृसत्तातमक शब्द प्रचलन में रहा है।


अवधारणा[सम्पादन]

नारीवादी सिद्धांतों का उद्देश्य लैंगिक असमानता की प्रकृति एवं कारणों को समझना तथा इसके फलस्वरूप पैदा होने वाले लैंगिक भेदभाव की राजनीति और शक्ति संतुलन के सिद्धांतो पर इसके असर की व्याख्या करना है। स्त्री विमर्श संबंधी राजनैतिक प्रचारों का जोर प्रजनन संबंधी अधिकार, घरेलू हिंसा, मातृत्व अवकाश, समान वेतन संबंधी अधिकार, यौन उत्पीड़न, भेदभाव एवं यौन हिंसा पर रहता है।

स्त्रीवादी विमर्श संबंधी आदर्श का मूल कथ्य यही रहता है कि कानूनी अधिकारों का आधार लिंग न बने। आधुनिक स्त्रीवादी विमर्श की मुख्य आलोचना हमेशा से यही रही है कि इसके सिद्धांत एवं दर्शन मुख्य रूप से पश्चिमी मूल्यों एवं दर्शन पर आधारित रहे हैं।

हालाकि जमीनी स्तर पर स्त्रीवादी विमर्श हर देश एवं भौगोलिक सीमाओं में अपने स्तर पर सक्रिय रहती हैं और हर क्षेत्र के स्त्रीवादी विमर्श की अपनी खास समस्याएँ होती हैं।

नारीवाद राजनीतिक आंदोलन का एक सामाजिक सिद्धांत है जो स्त्रियों के अनुभवों से जनित है। हालांकि मूल रूप से यह सामाजिक संबंधों से अनुप्रेरित है लेकिन कई स्त्रीवादी विद्वान का मुख्य जोर लैंगिक असमानता और औरतों की अधिकार इत्यादि पर ज्यादा बल देते हैं।

नारी-विमर्श (फेमिनिज्म/फेमिनिस्ट डिस्कोर्स) का प्रारंभ कब हुआ, इसके संबंध में विद्वानों में सुनिश्चित एकमतता नहीं है। कुछ लोगों के अनुसार इसका प्रारंभ उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ, जब पश्चिम में स्त्रियों के मताधिकार और पाश्चात्य संस्कृति में स्त्रियों के योगदान पर चर्चा होने लगी थी।

लेकिन वास्तविकता यह है कि स्त्री-विमर्श बीसवीं शताब्दी की देन है। बीसवीं शताब्दी में भी कुछ लोग इसका प्रारंभ फ्रांसीसी लेखक सिमोन द बुआ की पुस्तक 'द सेकंड सेक्स'(1949)' के प्रकाशन-वर्ष से मानते हैं और कुछ मैरी एलमन की पुस्तक 'थिकिंग एबाउट वीमन'(1968) के प्रकाशन - वर्ष से। लेकिन अधिकांश विद्वान इस तरह के किसी वर्ष-विशेष को स्त्री-विमर्श का प्रस्थान बिंदु मानना उचित नहीं समझते, क्योंकि बीसवीं शताब्दी में ही इससे पहले भी स्त्री की अलग पहचान, उसके स्वतंत्र अस्तित्व और उसके अधिकारों की समस्याओं को उठाया जाने लगा था। उदाहरण के लिए, वर्जीनिया वुल्फ ने अपनी पुस्तक 'ए रूम ऑफ़ वंस ओन'(अपना निजी कक्ष:1929) में लिखा था: "ह्वाइटहाल के पास से गुजरते हुए किसी भी स्त्री को अपने स्त्रीत्व का बोध होते ही अपनी चेतना में अचानक उत्पन्न होने वाली दरार को ले कर आश्चर्य होता है कि मानव-सभ्यता की सहज उत्तराधिकारिणी होने पर वह इसके बाहर, इससे परकीय और इसकी आलोचक कैसे हो गयी है।"[१]

वर्जीनिया वुल्फ की इस पुस्तक ने यूरोप और अमरीका के स्त्री-विमर्श को ही नहीं, भारतीय स्त्री-विमर्श को भी प्रभावित किया है। हिंदी की घोषित नारीवादी लेखिका प्रभा खेतान (उपनिवेश में स्त्री,2003) भी इस पुस्तक से प्रभावित हई हैं और सिमोन दि बुआ की पुस्तक 'द सेकंड सेक्स' से भी। यूरोप और अमरीका में नारीवाद ने बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में खूब जोर पकड़ा और मोनीक विटिंग, काटे मिलेट, जूलिया क्रिस्टीवा, हेलेनन सिक्सस, एलीन मोअर्स, एलेन शोवाल्टर, एंजिला कार्टर, मैरी जैकोबर्स आदि अनेक नारीवादी लेखिकाओं की पुस्तकें प्रकाशित हुईं।[२]

हिंदी में नारी-विमर्श ने बीसवीं शताब्दी के लगभग अंत में ज़ोर पकड़ा है और अनेक लेखिकाएं उसमें शामिल हुई हैं। हिंदी में नारी-विमर्श की दृष्टि से कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तकें इस प्रकार हैं: बाधाओं के बावजूद नयी औरत (उषा महाजन, 2001), स्त्री-सरोकार (आशाराना व्होरा, 2002), हम सभ्य औरतें (मनीषा, 2002), स्त्रीत्व-विमर्श : समाज और साहित्य (क्षमा शर्मा, 2002), स्वागत है बेटी (विभा देवसरे; 2002), स्त्री-घोष (कुमुद शर्मा, 2002), औरत के लिए औरत (नासिरा शर्मा, 2003), खुली खिड़कियां (मैत्रेयी पुष्पा, 2003), उपनिवेश में स्त्री (प्रभा खेतान,2003), हिंदी साहित्य का आधा इतिहास (सुमन राजे, 2003) इत्यादि। इनके अतिरिक्त हिंदी की अनेक लेखिकाएं नारीवादी होने का दावा कर रही हैं और नारीवादी साहित्य के सृजन में संलग्न हैं। प्रसिद्ध स्त्रीवादी चिंतक कवि गोलेन्द्र पटेल ने नारीवाद के संदर्भ में कहा है कि “स्त्री-दृष्टि में स्त्री-विमर्श वह मानवीय चिंतन धारा है जो स्त्री-चेतना को जागृत कर , उसकी स्वतंत्रता की वकालत करती है , इसे ही स्त्री की भाषा में नारीवाद कहते हैं।”[३]

स्त्री विमर्श: आंदोलन[सम्पादन]

वैश्विक स्तर पर नारीवादी आंदोलन[सम्पादन]

आंदोलन के रूप में इसकी शुरुआत ब्रिटेन और अमेरिका में हुई। 18वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के दौरान कई किस्म के संघर्ष हुए। उनमें एक संघर्ष स्त्री-पक्ष ने भी किया। उन्होंने धर्मशास्त्र और कानूनों के द्वारा खुद को पुरुषों के मुकाबले शारीरिक और बौद्धिक धरातल पर कमजोर मानने से इनकार कर दिया।

1792 ई. में फ्रांसीसी क्रांति के महिला मुक्ति आंदोलन से प्रभावित होकर[४] 1857 ई. में संयुक्त राज्य अमेरिका में महिलाओं और पुरुषों के समान वेतन को लेकर हड़ताल हुई थी। इसी दिन को बाद में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया गया। इसी के साथ विश्व भर में नारी मुक्ति आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी।[५]

1848 ई. में कुछ प्रखर महिलाओं ने बाकायदा एक सम्मेलन करके नारी मुक्ति से संबंधित एक वैचारिक घोषणा पत्र जारी किया। इन महिलाओं में ऐलिजाबेथ कैन्डी, स्टैण्टन, लुक्रसिया काफिनमोर प्रमुख हैं। इस सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया कि स्त्री को सम्पूर्ण और बराबर के कानूनी हक दिए जाए। उन्हें पढ़ने के मौके, बराबर मजदूरी और वोट देने का अधिकार इत्यादि क्रान्तिकारी माँगे पारित की गयी। यह आंदोलन तेजी से सारे यूरोप में फैल गया, लेकिन असली सफलता 1920 में जाकर मिली। जब अमेरिका में स्त्रियों को वोट डालने का अधिकार मिला।

1859 ई. में पीटर्सबर्ग में अगला आंदोलन हुआ। 1908 में 'वीमेन्स फ्रीडम लीग' की स्थापना ब्रिटेन में हुई। जापान में इस आंदोलन की शुरुआत 1911 में हुई, 1936 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मैडम क्यूरी सहित तीन महिलाएँ फ्रांस में पहली बार मंत्री बनीं।[६]

इस प्रकार विश्व के अनेक देशों में इस आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी, लेकिन 1951 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने जब भारी बहुमत से महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों का नियम पारित किया, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नारी मुक्ति के आन्दोलन का प्रारम्भ तभी से माना जाता है।

1975, पूरे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में मनाया गया, जिसके परिणामस्वरूप कोपहेगन में पहला अन्तर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन, नैरोबी में दूसरा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन 1985 में और शंघाई में तीसरा 1995 में सम्पन्न हुआ।

भारतीय नारीवादी आंदोलन[सम्पादन]

भारत में नारीवादी आंदोलन की शरुआत नवजागरण के साथ हुई।

राजा राममोहनराय ने 1818 में सती प्रथा का विरोध किया और उनके प्रयत्नों के फलस्वरूप 1829 में लार्ड विलियम बैण्टिक ने सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया। बाल-विवाह, विधवा-विवाह और बहुपत्नी प्रथा के विरुद्ध लड़ते हुए राजा राममोहनराय स्त्री के पक्षधर नजर आते हैं। स्वामी विवेकानन्द और स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी स्त्री शिक्षा पर जोर दिया। इस प्रकार अमेरिका से शुरू हुआ यह आन्दोलन भारत में स्त्री जाति की चेतना का स्वर बन गया।

स्त्रियों की स्वतंत्रता व समानता के लिए कई महिला सुधारकों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की जिनमें रमाबाई, ताराबाई शिंदे, सावित्री बाई फुले आदि महत्वपूर्ण हैं।

पं. रमाबाई ने 1882 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'स्त्री धर्म नीति' के माध्यम से स्त्रियों को जागृत कर उन्हें स्वावलम्बन और स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाया। उन्होंने स्त्री शिक्षा को लेकर कड़ा परिश्रम किया। वे स्त्रियों के लिए समान अवसर व समान वेतन प्रदान करने के पक्ष में लगातार लड़ती रहीं। सन् 1883 में उन्होंने पितृसत्ता के विरोध में 'द हाइ कास्ट हिन्दु विमेन' पुस्तक लिखी। विधवाओं और परित्यक्ताओं के लिए उन्होंने 'शारदा सदन' की स्थापना की। वे स्त्री-पुरुष के परस्पर सहयोग व समानता के भाव पर बल देती हुई कहती है कि- "यह विस्तृत सांसारिक जिन्दगी किसी महाकाव्य की तरह है, जिसके दो पहलू हैं, वाम और दक्षिण। वाम पहलू नारी और दक्षिण पहलू पुरूष। जब दोनों पहलू संतुलन में कार्य करते हैं तभी प्रसन्नता और सुख का अनुभव हो सकता है।"

ज्योतिराव फुले व उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले ने स्त्रियों के सुधार के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए। सावित्री बाई फुले ने भी स्त्रियों के सुधार के लिए 'महिला सेवा मंडल' की स्थापना की। फुले दम्पत्ति ने सन् 1848 से लेकर सन् 1952 तक लगभग अठारह पाठशालाएं खोलीं। उन पाठशालाओं का संचालन और प्रबंध सावित्री बाई ही किया करती थीं। उन्होंने स्वयं ही पाठशालाओं का पाठ्यक्रम बनाया और उसे कार्यान्वित भी किया। प्रारंभ में लड़कियों की शिक्षा का विरोध तो हुआ किंतु बाद में लोग स्त्री-शिक्षा के महत्व को समझने लगे और कन्याशालाएँ अधिक संख्या में खुलती चली गई।

आगे चलकर सन् 1855 में ज्योतिराव फुले ने पुणे में रात्रि पाठशाला खोली। इस पाठशाला में दिनभर काम करने वाले मजदूर, किसान और गृहिणियाँ पढ़ने आती थीं। यह भारत की पहली रात्रि पाठशाला थी। ज्योतिराव फुले का मानना था कि- "जब तक महिलाएँ शिक्षित नहीं हो जाती, तब तक सच्चे अर्थों में समाज शिक्षित नहीं हो सकता। एक शिक्षित माता जो सुसंस्कार दे सकती है, उन्हें हजार अध्यापक या गुरु नहीं दे सकते। जब तक देश की आधी जनसंख्या (नारी समाज) शिक्षित नहीं हो जाती, तब तक देश कैसे प्रगति कर सकता है?” वे मानते थे कि स्त्री और पुरुष जन्म से ही स्वतंत्र हैं, इसलिए दोनों को सभी अधिकार समान रूप से भोगने को अवसर मिलना चाहिए।

उन्होंने तत्कालीन समाज में विधवाओं की दयनीय दशा को देखकर उनके केशमुण्डन का विरोध किया, विधवाओं के पुनर्विवाह का समर्थन कर उनकी स्थिति में सुधार के कड़े प्रयत्न किये।

ताराबाई शिंदे ने सन् 1882 में अपनी रचना 'स्त्री-पुरुष तुलना' के माध्यम से तत्कालीन समाज में स्त्री की वास्तविक स्थिति का चित्रण किया। लिंग के आधार पर स्त्री-पुरुष के अधिकारों को लेकर जो भेदभाव हो रहा था उसका उन्होंने कड़ा विरोध किया। विधवाओं पर किये जाने वाले अत्याचारों का उन्होंने डटकर मुकाबला किया तथा उनके पुनर्विवाह के लिए आवाज उठाई। ताराबाई शिंदे स्वयं विधवा थीं इसलिए विधवाओं की पीड़ा से, उन पर हो रहे अत्याचारों से अधिक परिचित थी। ऐसे धर्म और धार्मिक कट्टरताओं पर कड़ा प्रहार करती थी जो एक विधवा को ऐसा नरकीय के जीवन जीने पर विवश करते हैं।

इन स्त्रियों ने न केवल नारी आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपितु पुरुष वर्चस्व की लक्ष्मणरेखा लांघकर काफी तादाद में देश की आजादी की लड़ाई में भाग लिया 20वीं सदी तक आते-आते एनीबेसेंट, सरला देवी, सरोजिनी नायडू, और इंदिरा गांधी जैसी महिलाएं राजनीति में सक्रिय हुईं तथा वहां अपने दखल से उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड़ी।

स्त्री कविता[सम्पादन]

१. कीर्ति चौधरी[सम्पादन]

कीर्ति चौधरी 'तीसरे सप्तक' की महत्त्वपूर्ण कवयित्री हैं। इनकी कुछ रचनाएँ तीसरे सप्तक में शामिल है तथा एक अन्य काव्य संग्रह-'खुले हुए आसमान के नीचे' कविता संग्रह है। इसके अतिरिक्त कीर्ति चौधरी ने कई कहानियों की भी रचना की।

कीर्ति चौधरी की कविता अपने परिवेश की उपज है। वे तीसरे सतक के व्यक्तव्य में लिखती है कि-"ऐसे वातावरण में कविता मेरे लिए शायद एक अनिवार्यता बन गई। घर, परिवार, वातावरण, संस्कार और वृत्ति सभी में साहित्य था। मैने चाहा होता तो भी सम्भवतः मेरे पास कोई दूसरा उपाय न था।"

कीर्ति चौधरी की कविता स्त्री अस्मिता की तलाश करती कविता है। जहाँ उसे कोई सीमा रेखा स्वीकार नहीं। आज की स्त्री को ना तो सीता का पद चाहिए और ना ही वह अग्नि परीक्षा देने को राजी है। वह किसी तरह के बन्धन में नहीं बंधना चाहती। किर्ति चौधरी की 'सीमा रेखा' कविता इसी तरह की कविता है। आज की स्त्री उस लक्ष्मण रेखा को पार कर उस रावण से लोहा लेना व उसका मुकाबला करना चाहती है। किन्तु उस मुकाबले के लिए , पहले उसे स्वतन्त्रता चाहिए। इस प्रकार कवयित्री ने स्त्री की बन्धन मुक्ति की चाह की छटपटाहट को सशक्त रूप से रेखांकित किया है।-

सीमा रेखा
  मृग तो नहीं था कहीं
  बावले भरमते-से इंगित पर चले गये।
  तुम भी नहीं थे--
  बस केवल यह रेखा थी।
  जिस में बँध कर मैं ने दुःसह प्रतीक्षा की-
  सम्भव है आओ तुम
  अपने सँग अंजलि में भरने को
  स्वर्ग दान लाओ

  आ, चरणों से यह सीमा-रेखा बिलगाओ।
  पर बीते दिन, वर्ष, मास--
  मेरी इन आँखों के आगे ही
  फिर-फिर मुरझाये ये निपट काँस
  मन मेरे! अब रेखा लाँघो!
  आये तो आये
  वह बन्य
  छाधारी

  कर खण्डित-कलंकित
  ले जाये तो ले जाये।
  मन्दिर में ज्योतित
  उजाले का प्रण करती
  कम्पित निधूम शिखा-सी
  यह अनिमेष लगन--
  कौन वहाँ आतुर है?
  किसे यहाँ देनी है

२. कात्यायनी[सम्पादन]

हिन्दी की प्रसिद्ध कवयित्री कात्यायनी जमीन से जुड़ी कवयित्री हैं। वे अपनी स्मृतियों में जमीन की सच्चाई से जुड़ी तमाम चीजें सुरक्षित रखना चाहती हैं। शायद इसीलिए उनकी नारीवादी धारणा भी अन्य विचारकों में भिन्न है।

स्त्रीवादी संकीर्ण धारणा से परे और विष्णु खरे के शब्दों में कहें तो-“कात्यायनी शायद हिन्दी की एकमात्र कवयित्री हैं, जिन्होंने एक नयी वर्ग-चेतना अर्जित करते हुए अन्याय ग्रस्थ, संघर्षरत सर्वहारा नारी मात्र को वैसे ही पुरुष वर्ग से जोड़ा हैं वे कविता में ही नहीं, अपने जीवन में भी सिर्फ नारी मुक्ति नहीं, मानव-मुक्ति के सक्रिय आनदोलन में जुड़ी है और अविभक्त दृष्टि में समाज को दखना जातनी है, इसलिए उनमें पुरुष-मात्र से घृणा और दुश्मनी करने वाला बचकाना नारीवाद मर्ज नहीं है। वे अपने जेसे स्त्री-पुरुष-बच्चों के असली शत्रुओं की शिनाख्त कर चुकी है।"

दुखः यदि हमें माँजता है तो सबसे अधिक नारी को माँजता है। मैंजी हुई नारी की संघर्ष-क्षमता और उर्जा में ही उसकी अपनी पहचान बनाने की ताकत छिपी हुई है।

सात भाइयों के बीच चंपा
  सात भाइयों के बीच
  चंपा सयानी हुई।
  बाँस की टहनी-सी लेचक वाली,
  बाप की छाती पर साँप-सी लौटती
  सपनों में
  काली छाया-सी डोलती
  सात भाइयों के बीच
  चंपा सयानी हुई।
       ओखल में धान के साथ
       कूट दी गई
       भूसी के साथ कूड़े पर
       फेंक दी गई।
       वहाँ अमरबेल बनकर उगी।
       झरबेरी के सात कँटीले झाड़ों के बीच
       चंपा अमरबेल बन सयानी हुई।
       फिर से घर आ धमकी।
  सात भाइयों के बीच सयानी चंपा
  एक दिन घर की छत से
  लटकती पाई गई।
  तालाब में जलकुंभी के जालों के बीच
  दबा दी गई।
  वहाँ एक नीलकमल उग आया।
  जलकुंभी के जालों से ऊपर उठकर
  चंपा फिर घर आ गई,
  देवता पर चढ़ाई गई
  मुरझाने पर मसलकर फेंक दी गई,
  जलाई गई।
  उसकी राख बिखेर दी गई
  पूरे गाँव में।
       रात को बारिश हुई झमड़कर।
       अगले ही दिन
       हर दरवाज के बाहर
       नागफनी के बीहड़ घेरों के बीच
       निर्भय-निस्संग चंपा
       मुस्कुराती पाई गई।

३. सविता सिंह[सम्पादन]

सविता सिंह एक आधुनिक, अंकुठित, आत्मनिर्भर कवयित्री हैं। इस स्त्री के अपने संघर्ष हैं, अपना एकांत है या उसकी निरंतर खोज करने की कोशिश है। सविता सिंह के लिए स्त्री होने का संकट दूर में देखे जाने वाला दृश्य नहीं है-एक अनिवार्य साथीपन का एहसास है।

वह स्त्री स्वयं सक्रिय व सम्पूर्ण व्यक्तित्व भी है। वह स्त्री किसी से आक्रांत नहीं है, लेकिन आक्रांत न होने का मतलब यह नहीं है कि उसने इस संसार की निराशाओं और मुश्किलों पर विजय पाली है ये अपने जैसे जीवन की कविताएँ हैं यानी ऐसे जीवन की कविताएँ जिनमें एक स्त्री अपने जैसे जीवन जीने की कोशिश कर रही है और वास्तव में जी भी रही है, उसका एक तरह से बखान है।

सविता सिंह की स्त्री भारतीय समाज से बेखबर नहीं है। ये स्त्री केवल कविता की स्त्री नहीं है बल्कि वास्तविक जीवन की भी स्त्रियाँ हैं जो संघर्ष और पीड़ा की विभिन्न स्थितियों से गुजर रही हैं। सविता सिंह की स्त्री इस समाज के सभी संतापों को झेलती हुई भी, इससे संबद्ध होते हुए भी अपना अलग ही व्यक्तित्व एवं संसार रचती हैं।

'मैं किसकी औरत हूँ' इसी तरह की कविता है। यह स्त्री पति को परमेश्वर मानने से, उसके पाँव दबाने से, यह मानने से कि वह किसी का दिया खाती है, इन सब बातों में इनकार कर चुकी है। उस स्त्री की स्वतन्त्रताओं का दायरा बहुत व्यापक है। यह एक स्वाधीन होती स्त्री की कविता है जो कि धीरे-धीरे बन रही है हालाँकि इस स्त्री का रास्ता आसान नहीं है किन्तु उसमें साहसा की कोई कमी नहीं है।-

मैं किसकी औरत हूँ
  मैं किसकी औरत हूँ
  कौन है मेरा परमेश्वर
  किसके पाँव दबाती हूँ
  किसका दिया खाती हूँ
  किसकी मार सहती हूँ.....

४.शुभा शर्मा[सम्पादन]

अन्य कवियों के भांति शुभा शर्मा ने भी नारी के संदर्भ में कई कविताएं लिखा। उनकी प्रकाशित कृतियों में- 'बूढ़ी औरत का एकान्त', 'औरतें', 'औरत के हाथ में न्याय', 'औरत के बिना जीवन', 'औरतें काम करती हैं', 'निडर औरतें', 'बाहर की दुनिया में औरतें' आदी शामिल हैं।

औरत के हाथ में न्याय
  औरत कम से कम पशु की तरह
  अपने बच्चे को प्यार करती है
  उसकी रक्षा करती है

  अगर आदमी छोड़ दे
  बच्चा माँ के पास रहता है
  अगर माँ के छोड़ दे
  बच्चा अकेला रहता है

  औरत अपने बच्चे के लिए
  बहुत कुछ चाहती है
  और चतुर गुलाम की तरह
  मालिकों से उसे बचाती है
  वह तिरिया-चरितर रचती है

  जब कोई उम्मीद नहीं रहती
  औरत तिरिया-चरित्तर छोड़कर
  बच्चे की रक्षा करती है

  वह चालाकी छोड़
  न्याय की तलवार उठाती है

  औरत के हाथ में न्याय
  उसके बच्चे के लिए जरूरी
  तमाम चीजों की गारन्टी है।

स्त्री विमर्श: अन्य गद्य विधाएँ[सम्पादन]

१.प्रभा खेतान

हिंदी प्रसिद्ध लेखिका प्रभा खेतान का साहित्य स्त्री जीवन के संघष, उसकी इच्छा, मनोकामना, पीड़ा, छटपटाकर एवं स्त्री मानसिकता का जीवंत दस्तावेज है। पुरुष प्रधान संस्कृति रूढ़ि-परम्परा को तोड़कर स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाली आधुनिक नारी का अंकन उन्होंने बड़े ही सशक्त ढंग से किया है।

प्रभा खेतान की नारी चेतना भावनाओं के सहारे जीवन जीने की अपेक्षा व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाये हए हैं। उनका स्त्री विमर्श केवल पुरुष विरोधी न होकर नारी को मानसिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनातक स्तर पर समानाधिकार की मांग करने वाला है। यह बात उनकी आत्मकथा 'अन्या से अनन्या' में भी स्पष्ट नजर आती हैं।

प्रभा खेतान स्वतन्त्र, धनाढ्य महिला-व्यवसायी है और लेखिका हैं वह एक विवाहित पुरुष की 'रखैल' की भूमिका स्वेच्छा से सवीकार करती हैं। उनका सारा द्वन्द्व इस तथ्य को लेकर है जिसे वे एक अनुपस्थिति प्रतिबिम्ब कहती है। वे स्वयं से सवाल करती हैं- "मैं क्या लगती थी डॉक्टर साहब की?....इस रिश्ते को ना नहीं दे पाऊंगी। भला प्रेमिका की भूमिका भी कोई भूमिका हुई.... रखैल का क्या अर्थ, हुआ? वही जिसे रखा जाता है, जिसका भरण-पोषण पुरुष करता हो। लेकिन डॉक्टर साहब वह मेरा भरण-पोषण नहीं करते।" उनकी यह आत्मकथा देहमुक्ति की कथा है। अपना विकल्प स्वयं चुनने पर भी घुटन और टूटन वहां भी है।

संदर्भ[सम्पादन]

  1. डाॅ. नगेन्द्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर बुक्स,१९७३, पृ.४३२
  2. डाॅ. नगेन्द्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर बुक्स,१९७३, पृ.४३२
  3. डाॅ. नगेन्द्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर बुक्स,१९७३, पृ.४३२-४३३
  4. डॉ. हेमंत कुकरेती- हिंदी साहित्य का इतिहास, सतीश बुक डिपो,२०१६, पृ.२३७
  5. डॉ. मंदाकिनी मीणा एवं डॉ. अनिरुद्ध कुमार 'सुधांशु'- अस्मितामूलक विमर्श और हिंदी साहित्य, श्री नटराज प्रकाशन, २०१६, पृ.३१
  6. डॉ. मंदाकिनी मीणा एवं डॉ. अनिरुद्ध कुमार 'सुधांशु'- अस्मितामूलक विमर्श और हिंदी साहित्य, श्री नटराज प्रकाशन, २०१६, पृ.३१